पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Kaamanaa - Kumaari) RADHA GUPTA, SUMAN AGARWAL & VIPIN KUMAR
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Bhagvad Geetaa uses word kavi/poet in the
sense of the most microscopic and non – manifest form of aatmaa. This form of
poet aatmaa can be realized only in formless meditation. In practice, this
existence appears in two forms – one is immortal, non – manifest, while the
second is mortal and manifest. One has eyes, while the other is blind, one has
legs, while the other is lame, one is man while the other is woman.
It will be a mistake to think that these two are opposite to each other,
or separate from each other. These two are two sides of aatmaa which compensate
each other. One is positive, the other is negative. One is full of power, the
other is power itself. In this mortal world, it is difficult to differentiate
between the two, and therefore, people call one having power as power itself. As
has been stated in Saamkhya texts, woman, this nature, creates such a web around
man that he forgets himself completely and considers himself as nature itself.
Rigveda states that one who lives in this confusion is called ‘poet son’,
while one who knows the reality is the father of father even.
This ‘father of father’ is that aatmaa where all the duality
disappears, where neither the power nor it’s son have any existence. No body
knows where they disappear. This is that poet / kavi of which Geetaa talks. But
in practical life, only the second form of poet is known, which exists here with
speech/voice. The first is unmanifest, while the second is only an extension of
the first one.
As there is difference in the forms of the two types of poets, so there
is difference in their meanings also. The first one is representative of the
initial sound. The second is associated with speech/power. The grosser is the expression of aatmaa, the thicker is the cover of speech/illusion/maayaa on it, and, consequently, higher will be the state of non – manifestation of pure aatmaa/poet. On the other hand, the lighter is the viel of maayaa/illusion on it, the greater will be it’s manifestation. As our body has a thick cover of speech/maayaa/illusion, therefore, aaatmaa/kavi/poet remains totally un – manifest. If there is any manifestation at all, that is also mixture with illusion. That is why the objects which provide us enjoyment give only a transitory pleasure to us, not eternal, and consequently our thirst remains unquenched. Poetry : This aatmaa or kavi is the nectar,
this is the greatest pleasure, life force of all. This is the pleasure of
Brahma. The difficulty is that we are unable to get this nectar in pure form at
our gross level, body level. Whatever there is expression of souls bound within
bodies, that is a form of power or speech. This expression of speech will be
called a sentence in poetry. A pure sentence will have no nectar. But the fact
is that power – wielding/kavi/poet and power/vaak/speech do not have totally
independent existence, and therefore, no expression can be in the form of a pure
sentence. Poet form must remain hidden in it. Therefore, if a sentence can make
the poet form manifest, then it will be called a poetry. A poet can not express
himself without speech. To make poet manifest means to open the source of
nectar. The larger is the extent to which a sentence can open this source of
nectar, the more it will be near to poetry.
In vedic literature, poetry is not limited to speech only. It includes
all forms of arts which make nectar express itself. This will include painting,
building, theatre etc. - Fatah Singh ( In the book : Saahitya and Saundarya)
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Fatah Singh ( In the book : Saahitya and Saundarya) First published on internet : December 4, 2007 (Maargasheersha krishna 10 , Vikrami Samvat 2064) कवि भगवद् गीता में 'कवि' शब्द का प्रयोग आत्मा के सूक्ष्मतम तथा अमूर्ततम रूप के लिए हुआ है -- कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ।। आत्मा के इस ज्योvति: स्वरूप कवि रूप को हम ऋग्वेद में भी पाते हैं और वहां भी उसके लिए 'कवि' शब्द का प्रयोग हुआ है -- कविमिव प्रचेतसम् - ऋ. ८.८४.२ कविं केतुं धासिं भानुमद्रे: - ऋ. ७.६.२ कवि: कवित्वा दिवि रूपमासजद्~ - ऋ. १०.१२४.७ कविं शशासु: कवयो अदब्धा - ऋ. ४.२.१२ आत्मा कवि का यह रूप तो निर्विकल्प समाधि से ही मिल सकता है । व्यावहारिक जगत में तो इस परम अद्वैत सत्ता के दो रूप दिखाई पडते हैं - एक अमृत, अमूर्त तथा अनिरुक्त है तो दूसरा मर्त्य, मूर्त एवं निरुक्त । एक अँखियारा है तो दूसरा अन्धा, एक लंगडा है तो दूसरा पैरों वाला, एक पुरुष है तो दूसरा स्त्री । इन दोनों के पारस्परिक विपर्य्यय को दोनों के परस्पर विरोधी नाम भी सूचित करते हैं । अतः पहले का नाम 'कवि' है जिसके मूल में 'कव~' धातु है जबकि दूसरे का नाम 'वाक्' है जिसकी निष्पत्ति न केवल 'वच्' से सम्भव है अपितु वक्का, वक्वरी वाक् आदि वैदिक शब्दों की 'वक्' धातु से भी हो सकती है । एक को 'पश्य' कहते हैं क्योंकि उसके निष्क्रिय कर्म को 'पश~' धातु से व्यक्त किया जाता है ; और दूसरे को 'शब्द' भी कहते हैं क्योंकि उसकी व्युत्पत्ति न केवल 'शब्द क्रियायाम्' से, अपितु 'पश~' के विलोप 'शप् - आक्रोशे' से भी हो सकती है । इन दोनों स्वरूपों के विपर्य्यय में पार्थक्त्व अथवा विरोध देखना भूल होगी क्योंकि वे एक ही आत्मा के दो पक्ष हैं, जिनमें से एक दूसरे का पूरक है - एक धनात्मक है तो दूसरा ऋणात्मक, एक शक्तिमान है तो दूसरा शक्ति । दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध है, एक दूसरे के बिना नहीं रह सकता - शक्तिश्च शक्तिमद्रूपाद् व्यतिरेकं न वाञ्छति । तादात्म्यमनयोर्नित्यं वह्निदाहकयोरिव ।। - अभिनवगुप्त, परा.त्रि. १.१ वेद में आत्मा के धन तथा ऋण रूपों के अभेद तथा भेद दोनों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे दोनों संयुक्त सुपर्ण सखा हैं जो एक ही वृक्ष पर परस्पर परिष्वजन कर रहे हैं ; उनमें से एक स्वादु फलों को चखता है जबकि दूसरा केवल देखता है, खाता नहीं - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ।। - ऋ. १.१६४.२० परन्तु यह रूप - द्वन्द्व स्थूल जगत् में ही है, और यहां भी ये दोनों ऐसे घुले मिले हुए हैं कि एक ही दिखाई पडता है । अतः लोग शक्ति को ही शक्तिमान्, वाक् को ही कवि अथवा स्त्री को ही पुरुष समझ बैठते हैं । उनके यथार्थ विवेचन में तो ज्ञानी ही समर्थ हो सकता है - स्त्रिय: सतीस्तां उ मे पुंस आहु: पश्यदक्षण्वान् न वि चेतदन्ध: । - ऋ.१.१६४.१६ वास्तव में, जैसा कि सांख्य ग्रन्थों में कहा गया है , स्त्री(प्रकृति) पुरुष के चारों ओर ऐसा जाल बिछा देती है कि वह अपने को पूर्णतया भूल जाता है और प्रकृति को ही आत्मरूप समझने लगता है । ऋग्वेद में इसी बात को बतलाते हुए कहा गया है कि इस प्रकार के भ्रान्तिपूर्ण ज्ञान को रखने वाला पुत्र 'कवि' है , और इसको सविशेष जानने वाला तो 'पिता का भी पिता' है - कविर्य: पुत्र: स ईमा चिकेत यस्ता विजानात् स पितुष्पितासत् - ऋ. १.१६४.१६ यह 'पिता का पिता' आत्मा का वही शुद्ध, बुद्ध और चित् स्वरूप है जिसमें उक्त सारा द्वन्द्व, द्वैत अथवा अनेकत्व विलीन हो जाता है - न वहां शक्ति( वाक्) रहती है, न उसका वह पुत्र(कवि) । वे न जाने कहां समा जाते हैं । यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पिता कवि वही अद्वैत तथा अमूर्त आत्मा अथवा ब्रह्म है जिसका उल्लेख प्रारम्भ में उद्धृत वेदमन्त्रों तथा श्रीमद् भगवद्गीता के 'कविं पुराणम्' आदि में मिलता है । इसी कवि का मूर्तरूप दूसरा 'कवि' है जो 'वाक्' के साथ व्यावहारिक जगत् में द्वैत सत्ता के रूप में रहता है । पहला अव्यक्त है तो दूसरा व्यक्त, दूसरा पहले का संप्रसरण मात्र है । अतः पहले 'कवि' की व्युत्पत्ति 'कु' धातु से मानी जाती है और दूसरे की 'कु' के संप्रसरण 'कव' धातु से ( उणादि कोश ४.१३८) । दोनों कवियों के स्वरूपों में जिस प्रकार भिन्नता है, उसी प्रकार दोनों की धातु के अर्थोंमें भी । 'कु' का प्रयोग 'शब्द' के लिए होता है, जिसका अर्थ इस प्रसंग में श्रोत्रग्राह्य स्वन या ध्वनि न होकर शब्द - ब्रह्म या शब्दस्फोट आदि की कल्पना में उपलब्ध 'मूल अभिव्यक्ति' है । 'कव' का प्रयोग 'वर्ण' अर्थ में होता है, जिससे रंग, रूप, वर्णन आदि की मूर्त अभिव्यक्ति होती है । पहला दूसरे से पृथक् नहीं है, परन्तु वह मूल तथा अमृत है, जबकि दूसरा उसका मूर्त संप्रसरण । पहला कवि अद्वैत तथा निष्कल है, जबकि दूसरा द्वैत, वाक्(शक्ति) से संयुक्त । व्यावहारिक जगत् में दूसरे का अस्तित्व ध्रुव सत्य है, परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से पहला ही एक मात्र सत् है । कवि(आत्मा) की अभिव्यक्ति जितनी अधिक स्थूल होगी, उस पर 'वाक्' (माया) का आवरण उतना ही गहरा होगा और रस - स्वरूप आत्मा(कवि) उतना ही परोक्ष रहेगा । इसके विपरीत उसकी अभिव्यक्ति जितनी सूक्ष्म होगी, 'वाक्' का आवरण उतना ही हल्का होगा और आनन्दस्वरूप आत्मा उतना ही अधिक प्रत्यक्ष होगा । अतएव हमारे स्थूल शरीर में वाक्(माया या प्रकृति) का आवरण बहुत स्थूल होने से 'कवि'(आत्मा) पूर्णतया परोक्ष रहता है और उसकी जो अभिव्यक्ति होती भी है, वह केवल आभास मात्र । रसस्वरूप ब्रह्म का जो क्षुद्रतम परमाणु मिलता भी है, वह भी माया शवलित है । यही कारण है कि हम अपने स्थूल अङ्गों से जिन भोगों को भोगते हैं, उनसे हमें केवल क्षणिक सुख ही मिलता है, जिससे हमारी प्यास अतृप्त ही रह जाती है ।
काव्य : यह आत्मा अथवा कवि ही 'रस' है , यही सब का आनन्द है, यही सब का प्राण है । ब्रह्मानन्द ही वास्तविक रस है । ब्रह्म तो आनन्दस्वरूप है, इसीलिए अथर्ववेद में उसे अकाम, अमृत, स्वयंभू तथा 'रस से तृप्त' यक्ष कहा गया है जिसको जान लेने से फिर मृत्यु का भय नहीं रहता । वहां द्वैत भाव जाता रहता है और केवल एकत्व की अनुभूति होने से मोह, शोक आदि का प्रपञ्च शान्त हो जाता है और आनन्द मात्र रह जाता है । हमारी विकराल अतृप्ति का कारण यह है कि हमारे स्थूल भौतिक जगत् में वह रस - स्वरूप ब्रह्म शुद्ध तथा आत्यन्तिक रूप में नहीं रह सकता ; अपितु जैसा ऊपर कहा जा चुका है, यहां वह धन तथा ऋण, सरस तथा अ-रस, सुख तथा दुःख दोनों ही पक्षों में मिलता है । हमारे व्यष्टि तथा समष्टि के जीवन में दोनों तत्त्व विद्यमान हैं, चाहे हम उन्हें ब्रह्म - माया या पुरुष - प्रकृति कहें अथवा शक्तिमान् - शक्ति या कवि - वाक् कहें , यह बात निर्विवाद है कि यहां व्यावहारिक जगत् में इस जोडे में से दूसरा तत्त्व ही प्रधान रहता है । अतः शरीरधारियों की जो भी अभिव्यक्ति होगी, वह साधारणतया शक्ति तत्त्व या 'वाक्' रूप में ही होगी । वाक् - रूप अभिव्यक्ति वाक्य कहा जाएगा और इसमें - केवल शुद्ध वाक्य में - 'रस' नहीं होगा । परन्तु, शक्ति तथा शक्तिमान् अथवा कवि तथा वाक् का अविनाभाव सम्बन्ध होने से कोई भी अभिव्यक्ति कोरी वाक्य रूप नहीं हो सकती । उसके भीतर प्रच्छन्न रूप में 'कवि' तो रहेगा ही । अतः 'वाक्य' यदि अपने में 'कवि' को गुप्त से प्रकट, अनिरुक्त से निरुक्त कर सके तो वही 'कवि' की अभिव्यक्ति या 'काव्य' कहा जा सकता है, क्योंकि कवि स्वयं बिन वाक् के तो मूर्त या व्यक्त हो ही नहीं सकता । 'कवि' को व्यक्त करने का अभिप्राय है रस के उत्स को खोल देना, अतः 'वाक्य' में जितनी पुट रस की आती जाएगी, उतना ही वह 'काव्य' कहलाने का अधिकारी होता जाएगा । उसी को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि 'वाक्य' जितना ही अधिक 'काव्य' रूप होगा, अपने में 'कवि' को प्रत्यक्ष करेगा, उतना ही वह रसात्मक होता जाएगा । इसीलिए साहित्यदर्पणकार की परम्परा में वाक्य को ही काव्य माना गया है । काव्य के इस स्वरूप के अन्तर्गत सभी प्रकार की रसात्मक अभिव्यक्तियां आ जाती हैं । वास्तु, मूर्ति तथा चित्र जैसी स्थूल कलाओं से लेकर संगीत तथा कविता जैसी सभी कलाएं रसात्मक अभिव्यक्तियां होने से 'काव्य' हैं । यही कारण है कि प्रसिद्ध कलामर्मज्ञ श्री रायकृष्णदास जी ने साहित्यदर्पण तथा रसगंगाधर की काव्य - परिभाषाओं को कला - मात्र के लिए उपयुक्त पाया । - - - जैसा इन ग्रन्थों में 'कविता' के लिए किया गया है, वैसा ही सम्भवतः अन्य कलाओं के लिए तत्तद्सम्बन्धी ग्रन्थों में भी किया जाता होगा । इसका सबसे अच्छा प्रमाण 'विष्णुधर्मोत्तरम्' नामक ग्रन्थ है, जहां एक से अधिक कलाओं में कविता के समान ही रसात्मकता का उल्लेख किया गया है । उदाहरण के लिए, नाट्य के लिए - शृङ्गार हास्य करुणा वीर रौद्र भयानक: । बीभत्साद्भुत शान्ताख्या नव नाट्य रसा: स्मृता: ।। गान के लिए - नव रसा: । तत्र हास्य शृङ्गारयोर्मध्यम पञ्चमौ । वीररौद्राद्भुतेषु षडजपंचमौ । करुणे निषादगान्धारौ । बीभत्सभयानकयोर्धैवतम् शान्ते मध्यमम् । तथा लया: । हास्य शृङ्गारयोर्मध्यमा । बीभत्सभयानकयोर्विलम्बितम् । वीररौद्राद्भुतेषु द्रुत । नृत के लिए - - - - - - - काव्य और रस में सम्बन्ध : प्रश्न यह उठता है कि ऊपर 'रसो वै स:' कहकर जिस रस का उल्लेख किया गया है, उसमें तथा काव्य रस में कोई अन्तर है या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर काव्य के उक्त स्वरूप में ही निहित है । काव्य में स्वभावतः अभिव्यक्ति है, जबकि वह रस - स्वरूप ब्रह्म(आत्मा) यथार्थत: अव्यक्त एवं कूटस्थ है । काव्य चक्षु, श्रोत्र, मन आदि से भोग्य है जबकि वह इन सबसे परे है तथा उसके विषय में कहा गया है कि - यतो वाचि विनिवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन ।। - तैत्तिरीय उपनिषद २.९ शक्तिमान् की अभिव्यक्ति शक्ति द्वारा होती है, आत्मा की अभिव्यक्ति शरीर द्वारा होती है, 'कवि' वाक्य द्वारा ही व्यक्त हो सकता है, क्योंकि अभिव्यक्ति मात्र स्थूल - जगत् की वस्तु है । अतः काव्य से वाक्यत्व, शरीरत्व अथवा स्थूलत्व का पूर्णाभाव कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि उसके जाते ही व्यावहारिक जगत् का द्वैतभाव ही चला जाएगा । अतः वाक्याश्रित काव्य का रस शुद्ध ब्रह्मानन्द रस नहीं हो सकता । इसी से काव्य - रस को ब्रह्मानन्द न कहकर ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है । ब्रह्मानन्द से काव्य - रस भिन्न होते हुए भी तत्त्वतः एक ही है, क्योंकि काव्यरस यथार्थत: अव्यक्त 'रस' का ही व्यक्त रूप है । अतः इसके वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए अव्यक्त की व्यक्तीकरण - प्रणाली को समझना परमावश्यक है । अव्यक्त जिस स्थूल यन्त्र द्वारा व्यक्त होता है, उसकी रचना में ही सारा रहस्य छिपा हुआ है । इस यन्त्र को हम व्यष्टि रूप में शरीर कहते हैं । इसका स्थूलतम रूप तो अन्नमय कोश है जिसमें पिण्डात्म तथा रसात्मक पदार्थ हैं । इस कोश के कण - कण में भिदा हुआ प्राणमय कोश है जिसमें वायव्य एवं वैद्युत तत्त्व हैं । प्राणमय के अणु - अणु में मनोमय कोश व्याप्त है जो हमारी इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया शक्तियों को संचालित करता है तथा उनको नानारूप प्रदान करता है । मनोमय के मूल में विज्ञानमय कोश है जहां मनोमय की सारी अनेकता तथा भिन्नता एकत्व में परिणत हो जाती है , मनोमय की सारी नानात्वमयी अनुभूतियां एक मात्र अनुभूति का रूप धारण कर लेती है । विज्ञानमय का सूक्ष्मतम रूप तथा स्रोत आनन्दमय कोश है जिसमें पूर्ण, अद्वैत, आनन्दस्वरूप ब्रह्म है । यही यथार्थ 'रस' है । यहां पर अहंता तक नहीं रहती, अतः अभिव्यक्ति की बात ही कैसे हो सकती है । वह तो सर्वथा अव्यक्त 'रस' है, व्यक्तीकरण के साथ ही 'अहंकार' प्रारम्भ हो जाता है जो पूर्ण अद्वैत नहीं तो अन्यदिव तो अवश्य है । व्यक्तीकरण का प्रारम्भ विज्ञानमय कोश में होता है । इस कोश की अभिव्यक्ति सूक्ष्मतम है जो मनोमय तथा प्राणमय में उत्तरोत्तर स्थूल होती हुई अन्त में अन्नमय कोश में स्थूलतम होकर इन्द्रियों का विषय बन जाती है - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के अन्तर्गत 'प्रियं' में परिणत होकर श्रोत्रादि इन्द्रियों द्वारा आस्वाद्य हो जाती है । अन्नमय तथा प्राणमय कोशों को 'स्थूल - शरीर' भी कहते हैं और मनोमय को सूक्ष्म शरीर तथा विज्ञानमय को कारण शरीर । इन्हीं तीनों शरीरों द्वारा वह अव्यक्त रस व्यक्त होता है । यही तीन स्तोम हैं जिनके द्वारा वह परिवृद्ध होता हुआ बतलाया गया है - यः स्तोमेभिर्वावृधे पूर्व्येभिर्यो मध्यमेभिरुत नूतनेभि: । - ऋ. ३.३२.१३ परम चैतन्य तथा आनन्दस्वरूप आत्मा की अभिव्यक्ति हमारे स्थूल शरीर में पानी के बुद्बुदों की भांति, अनेक क्षणिक् भावों के रूप में होती है । परन्तु ज्यों ही हम स्थूल शरीर से सूक्ष्म की ओर जाते हैं, त्यों ही बात बदल जाती है । यदि हम कोशों को ध्यान में रखकर चलें तो अन्नमय में स्थूल इन्द्रियों के संनिकर्ष से होने वाली अनुभूतियां ही क्षणिक् भाव हैं जो प्रतिक्षण बदलते रहते हैं और विज्ञानमय में इन सबका एक तथा साधारणीकृत रूप है । इन दोनों कोशों के बीच में प्राणमय कोश में पहुंचकर अन्नमय के क्षणिक् भाव स्थायित्व ग्रहण कर लेते हैं और मनोमय में जाकर यही स्थायीभाव रसत्व ग्रहण कर लेते हैं । स्थायीभावों की इन दोनों अवस्थाओं में कोई गुण - भेद नहीं है, केवल मात्रा भेद है । अतः भानुदत्त ने अपनी रसतरङ्गिणी में पहली अवस्था के स्थायी भावों को 'अलौकिक रस' कहा है । उनके अनुसार पहले प्रकार के तो वे रस हैं जो व्यावहारिक जीवन में अनुभव किए जाते हैं, जबकि दूसरे प्रकार के वे हैं जिनकी अनुभूति स्वप्न देखने, मनोराज्य करने तथा काव्य आस्वादन में होती है । इसलिए रसानुभूति की अवस्थाएं निम्नलिखित कही जा सकती हैं - अन्नमय कोश - क्षणिक् भाव प्राणमय कोश - नव स्थायी भाव(लौकिक रस) मनोमय कोश - नव रस(अलौकिक रस) विज्ञानमय कोश - एक रस ( ब्रह्मानन्द सहोदर) रसानुभूति के स्तर - भेद के अनुसार रस के विभावक पदार्थोंअथवा काव्यों के भी चार भेद हो सकते हैं - १- संचारी काव्य, जो केवल क्षणिक् भावों का उद्रेक कर सकते हैं । २ - स्थायी काव्य, जो स्थायी भावों का विभावन कर सकते हैं । ३ - रस काव्य जो उक्त भावों को अत्यधिक तीव्र तथा सरल करके उन्हें रसत्व प्रदान करते हैं । ४ - एक - रस काव्य, जो अनेक रसों की परिणति केवल एक 'रस' में कर सकता है । - डा. फतह सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ''साहित्य और सौन्दर्य'' के आरम्भिक पृष्ठों का संक्षेप
इंटरनेट पर प्रथम प्रकाशनः- ४.१२.२००७ई. |