पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (Kaamanaa - Kumaari) RADHA GUPTA, SUMAN AGARWAL & VIPIN KUMAR
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The causality principle in modern science is based on two basic assumptions/facts : one, the entropy of this universe is increasing with time, and the other, that a phenomenon taking place at the level of lower entropy can affect a phenomenon taking place at the level of higher entropy. Thus, according to modern science, effect can not influence cause. These facts of modern science have been put to test at the level of consciousness. Contrary to the facts true for gross world, effect can influence cause at the level of consciousness.
The cause, effect and
probability theories of modern sciences have been described in a characteristic
style in vedic and puranic literature. Here, cause, effect, probability etc.
have been divided into 4 directions, viz., east, west, south and north. The
detailed explanation of this is found in a particular class of yagnas called
Soma Yagas. Vedic literature is not confined only to cause, effect and
probability, but this goes even beyond that - to a principle of definiteness. In
vedic literature, cause, effect, probability and definiteness have been called
earlier, later, efficiency or Dakshina or play of dice and definiteness. First published : 2001AD प्राचीन वैदिक व पौराणिक साहित्य में कार्य - कारण व सम्भावना सिद्धान्त विपिन कुमार, राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली - ११००१२ व राधा गुप्ता, जे - १७८, एच आई जी कालोनी, इन्दौर - ४५२०११
सारांश आधुनिक विज्ञान के कार्य, कारण व सम्भावना सिद्धान्तों का प्राचीन वैदिक साहित्य में उस साहित्य की अपनी विशिष्ट शैली में वर्णन किया गया है । वहां कार्य, कारण व सम्भावना आदि को पूर्व, पश्चिम आदि ४ दिशाओं में विभाजित किया गया है । इस शैली की व्याख्या यज्ञों की एक विशेष शृङ्खला सोमयाग में मिलती है । वैदिक साहित्य केवल कार्य, कारण व सम्भावना तक ही सीमित नहीं है, अपितु इनसे भी ऊपर उठकर उसने उत्तर दिशा के रूप में एक निश्चितता का सिद्धान्त भी दिया है । वैदिक भाषा में कारण, कार्य, सम्भावना व निश्चितता को क्रमशः पुरस्तात्, पश्चात्, दक्षिणा या द्यूत तथा पुर कहा गया है ।
प्राचीन वैदिक व पौराणिक साहित्य में योगवासिष्ठ को छोडकर अन्य स्थानों पर कार्य - कारण सम्बन्धों की प्रत्यक्ष चर्चा के बहुत कम उदाहरण देखने को मिलते हैं । लेकिन अप्रत्यक्ष रूप में, अथवा यों कहें कि वैदिक साहित्य की अपनी विशिष्ट शैली में कार्य - कारण सम्बन्धों की चर्चा के प्रचुर उदाहरण मिलते हैं । वैदिक साहित्य की इस विशिष्ट शैली में इस ब्रह्माण्ड को मुख्य रूप से ४ दिशाओं में विभाजित किया गया है - पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण । इसके अतिरिक्त ऊर्ध्व व अधो दिशाएं भी हैं जिनकी चर्चा इस लेख में नहीं की जाएगी । पुराणों में इस पृथिवी को इन चार दिशाओं में विभाजित कर विस्तार से यह वर्णन किया गया है कि पूर्व आदि दिशाओं में कौन से पर्वत हैं, कौन से देश हैं, कौन से ऋषियों के आश्रम हैं आदि । इन सबके बीच में मेरु पर्वत की स्थिति कही गई है । लेकिन इस संदर्भ में भूल से भी कहीं कार्य - कारण का उल्लेख नहीं किया गया है । डा. फतहसिंह तथा अन्य अध्येताओं द्वारा किए गए विश्लेषणों के अनुसार पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाएं क्रमशः कार्य ज्ञान, कार्य दक्षता, सत्यानृत विवेक तथा कार्य आनन्द की प्रतीक हैं । पूर्व दिशा का देवता अग्नि, दक्षिण का यम, पश्चिम का वरुण तथा उत्तर का कुबेर कहा जाता है । ऐसी सम्भावना है कि इन चार दिशाओं में से पूर्व दिशा कारण की तथा पश्चिम दिशा कार्य की प्रतीक है । शेष रही उत्तर व दक्षिण दिशाएं । इनके सम्बन्ध में अनुमान है कि दक्षिण दिशा द्यूत की, आधुनिक विज्ञान की भाषा में सम्भावना की, प्रोबेबिलिटी की, चांस की प्रतीक है । उत्तर दिशा सम्भावना से भी ऊपर उठकर एक निश्चित आयतन प्राप्त करने की कही जा सकती है । उपरोक्त वर्णित चार दिशाओं के प्रतीकों का विस्तार यज्ञों की एक विशिष्ट श्रेणी में देखने को मिलता है । प्रतिदिन किए जाने वाले अग्निहोत्र यज्ञ से न्यूनाधिक रूप में हम सभी परिचित ही हैं । लेकिन इस प्रकार के यज्ञों की श्रेणी से ऊपर उठकर दर्शपूर्णमास और सोम यज्ञों की शृङ्खला आती है जिनमें चार दिशाएं प्रत्यक्ष देखने को मिलती हैं । पश्चिम दिशा में गार्हपत्य अग्नि की स्थापना की जाती है जो गृहपति या यजमान की अग्नि होती है । पूर्व दिशा में आहवनीय अग्नि होती है जो देवों से सम्बन्धित होती है । दक्षिण दिशा में दक्षिणाग्नि होती है जो पितरों आदि से सम्बन्धित होती है तथा इसका अधिपति नल होता है । नल के संदर्भ में पुराणों में राजा नल का आख्यान उल्लेखनीय है जिसमें नल द्यूत के खेल में हार जाता है और अन्त में द्यूत विद्या सीखकर ही अपना राज्य पुनः प्राप्त करने में सफल होता है । उत्तर दिशा प्रारम्भ में खाली रहती है । इसके अतिरिक्त, पूर्व में आहवनीय अग्नि के दक्षिण व उत्तर में क्रमशः सभ्य व आवसथ्य अग्नियों की स्थिति होती है । कहा गया है कि सभ्य अग्नि पर यजमान जुए में कृत प्रकार के पांसों को जीतकर उनसे प्राप्त धन से आवसथ्य अग्नि पर ब्राह्मणों को भोजन कराता है । यज्ञों की उपरोक्त श्रेणी से ऊपर उठकर गार्हपत्य अग्नि के उत्तर में प्रवर्ग्य अग्नि की स्थापना की जाती है । यह कहा जा सकता है कि यह ऊर्जा का ऊर्ध्वमुखी विकास है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार तो इस ब्रह्माण्ड में यदि कार्य - कारण सम्बन्धों का किसी प्रकार से अतिक्रमण कर दिया जाए, यदि किसी प्रकार से सूर्य की किरणों की गति से भी तेज गति प्राप्त कर ली जाए तो सम्भावना के नियम में प्रवेश किया जा सकता है - जहां प्रत्येक कार्य कारण के अनुसार नहीं, अपितु सम्भावना के आधार पर, चांस के आधार पर घटित होता है । प्रवर्ग्य याग में वह स्थिति प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है जहां व्यक्ति के परितः, एक विशिष्ट चेतना के परितः सीमित आयतन में उस व्यक्ति का प्रभाव बहुत बढ जाता है और चांस, संभावना बहुत ही प्रबल हो जाती है, अथवा यों कहें कि चांस समाप्त होकर एक निश्चित स्थिति प्राप्त होती है । वैदिक भाषा में इसे पुर बनाना कहा गया है । यज्ञों की अगली शृङ्खला में इस पहले चरण से ऊपर उठते हुए एक छलांग लगाई जाती है और अगली कक्षा में प्रवेश किया जाता है । इस कक्षा का नाम है सोमयाग । यज्ञों की इस कक्षा में पहली कक्षाओं से बहुत अन्तर होता है । कार्य - कारण सम्बन्धों के रूप में पूर्व व पश्चिम दिशाएं यहां भी होती हैं लेकिन पश्चिम दिशा की अग्नि बुझी हुई अवस्था में रहती है । वह उत्तर दिशा की अग्नि से तभी प्रज्वलित की जाती है जब किसी विशिष्ट कार्य के लिए उसकी आवश्यकता होती है । योगवासिष्ठ की भाषा में इसे प्रह्लाद की पश्चिम काया कहा जा सकता है । अब हम यज्ञों की इस श्रेणी की पूर्व दिशा का विचार करते हैं । इस दिशा में सबसे पूर्व में एक स्तम्भ गडा होता है जिसे यूप कहते हैं । इस यूप से पशु बांधे जाते हैं और फिर उन पशुओं का वध किया जाता है । यह यूप क्या है, यह प्रश्न बहुत जटिल है । ऐसा हो सकता है कि यह कारणों के भी कारण का प्रतीक हो । इससे बंधकर पशु को बांधने वाले अन्य क्षुद्र कारण समाप्त हो जाते हैं, ऐसा कहा जा सकता है । यज्ञ का यजमान ही स्वयं पशु का रूप होता है । यूप को पुरुष के आकार का, संवत्सर के आकार का कहा गया है । इस यूप के निकट उत्तरवेदी नामक अग्नि का स्थान होता है जिसका विचार वर्तमान लेख में नहीं किया जा रहा है । इस यज्ञ की उत्तर दिशा में आग्नीध्र नामक ऋत्विज की अग्नि व पुर होता है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, पुर की विशिष्टता यह है कि इसमें चेतना से युक्त व्यक्ति का अपना प्रभाव प्रबल होता है, सम्भावना निश्चितता में बदल जाती है । इस संदर्भ में तीर्थंकर महावीर आदि का उदाहरण दिया जा सकता है जिनके परितः एक निश्चित आयतन या क्षेत्र में हिंसा घट ही नहीं सकती थी । उत्तर दिशा में स्थित यह ऋत्विज जब - जब आवश्यकता होती है, पश्चिम दिशा की बुझी हुई अग्नि को प्रज्वलित करता है । यज्ञ के दक्षिण में मार्जालीय अग्नि का स्थान होता है । यह भी प्रायः बुझी हुई रहती है और आग्नीध्र ऋत्विज आवश्यकतानुसार इसे भी प्रज्वलित करता है । वैदिक साहित्य के संदर्भों ( शतपथ ब्राह्मण २.४.२.७ आदि ) से ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में कार्य - कारण सूर्य के उदय - अस्त और चन्द्रमा के उदय - अस्त से सम्बन्धित हैं । यज्ञ के कृत्यों का इस आधार पर वर्गीकरण करना अभी शेष है । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में पूर्व दिशा के संदर्भ में पुरस्तात् तथा पश्चिम दिशा के संदर्भ में पश्चात् शब्द का प्रयोग किया गया है । इसके अतिरिक्त, वैदिक और पौराणिक साहित्य की चर्चा का यह प्रसंग तब तक अधूरा ही रहेगा जब तक वैदिक कार्यों के कारण रूप सविता, सावित्री और गायत्री की चर्चा न की जाए । सविता देवता यज्ञ के प्रत्येक कर्म का प्रसविता, उसकी प्रसूति करने वाला, उसका अन्तिम कारण कहा जा सकता है । इसी प्रकार गायत्री को सबसे पहला कारण और सावित्री को सबसे अन्तिम कारणों में रखा जा सकता है । लोक में गायत्री मन्त्र का प्रचलन सर्वविदित ही है । इस संदर्भ में और अधिक अनुसन्धान की आवश्यकता है । प्रथम लेखनः- २३.१०.२००३ई., २२.१२.२००४ई.
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