पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(Kaamanaa - Kumaari)

RADHA GUPTA, SUMAN AGARWAL & VIPIN KUMAR

Index

Kaamanaa - Kaampilya  (Kaamanaa/desire,  Kaamaruupa, Kaamaakshi, Kaamaakhyaa, Kaameshwari, Kaamodaa, Kaampilya etc.)   

Kaampilya - Kaartaveerya (Kaampilya, Kaamboja, Kaayastha, Kaayaavarohana, Kaarana/cause, Kaaru, Kaaruusha, Kaartaveerya etc.)

Kaartaveerya - Kaartikeya  (Kaartaveerya, Kaartika, Kaartikeya etc.)  

Kaartikeya - Kaarshni  ( Kaartikeya, Kaarpaasa/cotton, Kaarya/action etc.)  

Kaala - Kaalaa  (Kaala/time )  

Kaalaa - Kaalanaabha ( Kaalakaa, Kaalakuuta, Kaalakeya, Kaalachakra, Kaalanjara, Kaalanaabha etc.)

Kaalanaabha - Kaalaraatri  (Kaalanemi, Kaalabhairava, Kaalayavana, Kaalaraatri etc. )    

Kaalaraatri - Kaalindi ( Kaalasuutra, Kaalaagni, Kaalikaa, Kaalindi etc.)     

Kaalindi - Kaavya  (kaaliya, Kaali, Kaaleya, Kaaveri, Kaavya etc. )

Kaavya - Kaashmeera  ( Kaavya, Kaasha, Kashiraaja, Kaashi etc. )  

Kaashmeera - Kaasaara  ( Kaashmeera, Kaashya, Kaashyapa, Kaashthaa, Kaashtheelaa etc.)  

Kimdama - Kiraata (Kitava/gamble, Kinnara, Kimpurusa, Kiraata etc.)   

Kirichakra - Keertimati (Kireeta, Kishkindhaa, Keekata, Keeta, Keerti etc.)

Keertimati - Kuksheyu (Keertimaan, Keertimukha, Kukkuta/hen, Kukshi/belly etc.)    

Kukhandikaa - Kutilaaksha   (Kumkuma, Kuja/mars, Kujambha, Kunjara/elephant, Kutilaa etc.)   

Kutilaaksha - Kundala  (Kutumba, Kuthaara, Kunda, Kundala/earring etc.)  

Kundalaa - Kunda  ( Kundalini, Kundina, Kutupa, Kutsa, Kunti, Kuntee etc. )    

Kunda - Kubera  ( Kunda, Kundana/gold, Kubera etc.)   

Kubera - Kumaari (Kubjaa, Kubjaamraka, Kumaara, Kumaari etc. )

 

 

काल

भगवद्गीतायां १०.३० कथनमस्ति - प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।  ब्रह्मपुराणे २.९१.३८ कथनमस्ति यत् सोमयागादिषु महावेद्याः पूर्वभागे यस्य यूपस्य स्थापना भवति, तत् कालस्य रूपः अस्ति - योऽनादिश्च त्वनन्तश्च स्वयं कालोऽभवत्तदा। यूपरूपेण देवर्षे योक्त्रं च पशुबन्धनम्।।  पशोः आलभनात्प्राक् पशोः बन्धनं योक्त्रेण यूपेन सह कुर्वन्ति। विष्णुपुराणे १.२.१८कथनमस्ति यत् - व्यक्तं विष्णुस्तथाव्यक्तं पुरुषः काल एव च ।...अव्यक्तं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमैः । त्रिपुरविनाशस्य संदर्भे स्कन्दपुराणे ५.३.२८.१२ कथनमस्ति यत् शिवस्य रथस्य दक्षिणपार्श्वे यमः आसीत्, वामपार्श्वे कालः - यमं तु दक्षिणे पार्श्वे वामे कालं सुदारुणम् । एते संकेताः सन्ति यत् कालः मुख्यरूपेण द्विस्वरूपात्मकः अस्ति – दिक्षु गतिशीलः एवं ऊर्ध्वाधो   गतिशीलः। यः कालः जीवानां कलयनं करोति, तत् दिक्षु गतिशीलः कालः प्रतीयते। यः विष्णुरूपः कालः अस्ति, तस्य गतिः ऊर्ध्वाधो दिक्षु अस्ति। इतः परं एकः कालः कलिप्रकारस्यपि भवति, यस्य प्रबन्धनं सोमयागे कालेयसंज्ञकेन अच्छावाक साम्ना भवति (तरोभिर्वो विदद्वसुं इति)।    मैत्रायणी उपनिषद ६.१५  कथयति यत् सूर्योदयस्य प्राक्काले कालस्य अस्तित्वं न भवति, अकालः भवति। सूर्योदयानन्तरमेव कालस्य प्रादुर्भावः भवति। अत्र संकेतमस्ति यत् कालस्य वर्धनं केन प्रकारेण भविष्यति। कालस्य वृद्धिः संवत्सरस्य निर्माणेन भविष्यति।

 

टिप्पणी अथर्ववेद १९.५३ १९.५४ सूक्त काल देवता के हैं । अथर्ववेद १.५३ में काल को एक अश्व का रूप दिया गया है जो ७ चक्रों वाले एक रथ का वहन करता है । ऋग्वेद १.१६४.४८ की ऋचा का देवता काल संवत्सरात्मा है जिसमें १२ परिधियों, एक चक्र, ३ नाभियों, ३६० शङ्कुओं का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद की २-३ अन्य ऋचाओं में भी काल शब्द प्रकट हुआ है । तैत्तिरीय आरण्यक १.२.१ के अनुसार सूर्य सारे भुवनों से मरीचियों किरणों का आदान (एकत्र) करता है और उन मरीचियों द्वारा पाक होने से, पकने से काल संज्ञा अस्तित्व में आती है । मैत्रायणी उपनिषद ६.१५ से संकेत मिलता है कि काल का अस्तित्व सूर्य के उदय होने से ही है, अन्यथा अकाल की स्थिति रहती है । अथर्ववेद १३.२.३९ में रोहित सूर्य के काल बनने का उल्लेख है । आदित्य शब्द की निरुक्ति भी आदान करने वाले के रूप में की जाती है । इस तथ्य का जगत में दृश्यमान् भौतिक सूर्य से विरोध है . भौतिक जगत का सूर्य रश्मियां देता ही है, लेता नहीं । अतः तैत्तिरीय आरण्यक का सूर्य कोई अन्य प्रकार का सूर्य होना चाहिए । पाशुपतब्रह्मोपनिषद से संकेत मिलता है कि यह सूर्य ब्रह्मज्ञान का सूर्य हो सकता है । तैत्तिरीय आरण्यक १.२.१ का दूसरा तथ्य यह है कि मरीचियों द्वारा पाक होने से काल अस्तित्व में आता है । भौतिक जगत में सूर्य की रश्मियों से वनस्पतियां अपना भोजन बनाती हैं । वैदिक साहित्य में जिसे पाक, पकाना कहा गय है, उसे आधुनिक विज्ञान की भाषा में न्यूनतम एण्ट्रांपी की अवस्था की ओर जाना कह सकते हैं । लौकिक भाषा में तो यही कहा जाता है कि भोजन में ऊर्जा भरी हुई होती है जिसका उपयोग कार्य करने के लिए किया जाता है । लेकिन वैज्ञानिक भाषा में पदार्थों के अणु परमाणु रश्मियों की ऊर्जा से एक व्यवस्था उत्पन्न करते हैं, अपने आपको एक दूसरे के सापेक्ष एक विशेष स्थिति में रखते हैं । जब इस व्यवस्थित पदार्थ से कार्य लिया जाएगा तो यह व्यवस्था अव्यवस्था में बदल जाएगी और विज्ञान का कहना है कि सारा जगत अव्यवस्था की ओर बढ रहा है, उसकी ऊर्जा उस ओर बढ रही है जहां उसका कोई उपयोग नहीं कर पाएगा । इसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि वाष्प के इंजन में जब तक वाष्प उसके इंजन में बंधी रहती है, वह व्यवस्थित है, उससे कार्य लिया जा सकता है । जब वह वायुमण्डल में फैल जाती है तो वह कार्य के लिए बेकार हो जाती है । तैत्तिरीय आरण्यक १.२.१ का कहना है कि पहले सूर्य उदित होकर मरीचियों का आदान करता है, फिर वे मरीचियां पकाती हैं । तब काल उत्पन्न होता है । क्या यह कहा जा सकता है कि भौतिक जगत में जहां जहां भी भौतिक सूर्य की किरणों का आदान करके भोजन की सृष्टि की क्रिया चल रही है, उसे एक सूर्य मान लिया जाए ? इसका उत्तर हां में प्रतीत होता है। अतः काल का अर्थ न्यूनतम एण्ट्रांपी की अवस्था को प्राप्त करना हो सकता है । वैदिक साहित्य में पाक कार्य केवल काल विशेष की मरीचियों द्वारा पाक तक सीमित नहीं है, अपितु पूरे संवत्सर तक पाक करना पडता है । गर्भ का पाक पूरे संवत्सर की ऋतुओं, मासों, पक्षों, अहोरात्रों आदि द्वारा होता है जिन्हें काल के अवयव कहा जाता है । अध्यात्म में हमारी ज्ञानेन्द्रियों आंख, नाक, कान आदि को भी सूर्य कहा जा सकता है . यह भी आदान करती हैं । अध्यात्म में ललाट में सूर्य की स्थिति कही गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में संवत्सर से तात्पर्य मन, प्राण और वाक् के सह स्रवण से है, मन, प्राण और वाक् में सामञ्जस्य से है ।

ऋग्वेद की कुछ एक ऋचाओं में कार शब्द प्रकट हुआ है जिसका अर्थ सायणाचार्य द्वारा मुख्य रूप से संग्राम, शब्द तथा भृत्य किया गया है । लेकिन कारु शब्द ऋग्वेद में प्रचुरता से प्रकट हुआ है और इसका अर्थ स्तुति करने वाला या यज्ञ का ऋत्विज होता है । पौराणिक भाषा में कारु शिल्पी या देवशिल्पी त्वष्टा या विश्वकर्मा को कहते हैं । देवशिल्पी का कार्य यह होता है कि जब कोई व्यक्तित्व सूर्य जैसी प्रखर तेज की अवस्था प्राप्त कर ले तो उस तेज को भ्रमि या चक्र पर काट छांट कर देवशिल्पी सूर्य का रूप प्रदान करता है तथा काटने छांटने से जो तेज बचता है, उससे सारे देवताओं के अस्त्रों शस्त्रों का निर्माण होता है । अन्य शब्दों में, अब तेज का उपयोग असुरों से रक्षा में होता है, तेज को सारे जगत में व्याप्त करना होता है । यह ध्यान देने योग्य है कि काल का कार्य केवल पकाने तक सीमित था, तेज के पकने के पश्चात् कारु का कार्य आरम्भ होता है । पुराणों ने कारु शब्द के बारे में जो धारणा दी है, क्या उसकी पुष्टि वैदिक ऋचाओं के आधार पर की जा सकती है ? ऋग्वेद की ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से कारु के साथ गिरा, वाणी शब्द प्रकट हुआ है ( उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.१६५.१५, ८.४६.३, ८.५४.१, ९.२९.२ आदि ) । इसके अतिरिक्त, इन्हीं ऋचाओं में मान्य शब्द प्रकट हुआ है । ऋग्वेद १.१८४.४, ३.६.१, ७.२.७७ आदि में कारु के साथ मन आदि शब्द प्रकट हुए हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि इन ऋचाओं में कारु रूपी स्तोत्र के साथ मन और वाक् का सम्बन्ध बताया गया है ? और यदि संवत्सर की ओर ध्यान दें तो संवत्सर में मन और वाक् के साथ प्राण और होता है जिसका वैदिक ऋचाओं में प्रत्यक्ष रूप से तो उल्लेख नहीं आया है । ऋग्वेद १.१०२.९ में कारु को उपमन्यु और उद्भिद्, ऊपर की ओर को फोडकर प्रकट होने वाला कहा गया है । ऋग्वेद २.२.९ में कारु के लिए धेनु का दोहन करने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद २.३४.७ में कारु के लिए सनि, मेधा आदि की प्राप्ति का उल्लेख है . ऋग्वेद ३.३३.८ में नदियां कारु के लिए नीची हो सकती हैं । ऋग्वेद ६.४६.१ में कारुगण इन्द्र का आह्वान वाज की साति, प्राप्ति के लिए करते हैं। ऋग्वेद ९.१०.६ में कारुगण मतियों के द्वार खोल कर सोम को बहने योग्य बनाते हैं । ऋग्वेद ९.११२.३ में कारु के पश्चात् भिषक् की स्थिति कही गई है । ऋग्वेद १०.६१.२३ में सरण्यू नदी कारु के लिए बहने योग्य बन जाती है । कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि पुराणों में सूर्य के कटे छंटे तेज से देवों के अस्त्रों का निर्माण और वैदिक साहित्य में मन, वाक् के स्तर पर कारु की अभिव्यक्ति, कारु का भेषज रूप, वृत्र का वध आदि उल्लेखों में एक ही तथ्य को २ प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है ।

          ब्रह्मवैवर्त्त आदि पुराणों व महाभारत आदिपर्व में जरत्कारु ऋषि का आख्यान आता है जिसमें जरत्कारु ऋषि अपनी पत्नी जरत्कारु के अङ्क में सिर रखकर सो रहे हैं । सायं संध्या के समय सन्ध्या कर्म लोप के भय से पत्नी ऋषि को जगा देती है । जरत्कारु ऋषि का कहना है कि जब तक वह सोए हुए हैं, सूर्य अस्त नहीं हो सकता । यद्यपि जरत्कारु शब्द का अर्थ अभी बहुत स्पष्ट नहीं है, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि कारु शब्द में कहीं काल को स्तम्भित करने की क्षमता छिपी हो सकती है(जरत् कालु) । सामान्य जीवन में भी जब हम किसी कार्य को करने में तल्लीन होते हैं तो समय का पता ही नहीं लगता । शाण्डिल्योपनिषद १.७.१८ के अनुसार योगनिद्रा वाले योगी के लिए काल नहीं है । ध्यानबिन्दु उपनिषद ८२ के अनुसार खेचरी मुद्रा की प्राप्ति पर काल का बन्धन समाप्त हो जाता है ।

          वैदिक साहित्य में काल का एक अन्य रूप भी विचारणीय है । वह है श्वः, कुत्ता । श्वः का साधारण अर्थ भविष्य का कल भी होता है । ऋग्वेद ९.१०१.१ तथा ९.१०१.१३ में श्वान के वध का निर्देश है । इसकी व्याख्या में जैमिनीय ब्राह्मण का वचन है कि यहां श्वान से अर्थ भविष्य काल से है । अथर्ववेद के काल सूक्त में काल को अश्व कहा गया है श्व से परे, एक ही समय में सब जगह व्याप्त होने वाला । ऋग्वेद १०.४२.९ में श्वघ्नी द्वारा काल के अन्तर्गत कृत का सम्पादन कर लेने का उल्लेख है । सायण भाष्य में यह प्रसंग कितव, जुए का दिखाया गया है जिसमें कृत जुए में जीता हुआ धन है । लेकिन शाण्डिल्य भक्ति सूत्रों आदि की भाषा के आधार पर कृत को पकाया गया कर्म फल भी समझ सकते हैं । तैत्तिरीय आरण्यक में काल द्वारा पकाने के तथ्य का उल्लेख इस दृष्टिकोण की पुष्टि करता है । अथर्ववेद के काल सूक्त में जिस काल अश्व का उल्लेख है, वह इन्द्र के हरि, अश्व बनता है और इन्द्र का वहन करता है । हरि अवस्था तक पहुंचने के लिए क्या अपेक्षित है, यह अभी कहा नहीं जा सकता ।

          महाभारत आश्वमेधिक पर्व में देह के स्तर पर काल चक्र का वर्णन दिया गया है जिसमें व्याधियों द्वारा देह को काल की ओर ले जाने का उल्लेख है । यह काल की वास्तविकता है कि चाहे तो कारु/स्तोत्र से पके या व्याधि से, काल पकाकर ही छोडेगा ।

          अथर्ववेद के काल सूक्त में काल चक्र का वर्णन है । काल के चक्र रूप की व्याख्या अपेक्षित है । त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद २.११९ का कथन है कि अन्तर्मुखी होकर काल के अवयवों अह, रात्रि आदि को जाना जा सकता है ।

प्रथम लेखनः- ५.२.२००५ई.

KAALA

This is a general concept that kaala means time. But we can learn a lot more from  puraanic and vedic texts. There are some key points about kaala in sacred texts. One is that the existence of kaala is only due to sun rise and sunset. If there is no sunrise and sunset, then no existence of kaala. This sun may not be the exact sun about which sacred texts talk about. This may be some form of brightness inside one self. It has been stated that this sun collects energy from outside through it's rays. The sun of the outer world does not have this property. The second fact is that the main task of kaala is to take towards ripening. This ripening may be towards ageing or towards immortality also. This ripening can be called as lowering of entropy in terms of terminology of modern sciences. Only when kaala has ripened the matter or soul, the next process of giving a beautiful form to the collected energy begins. This is called Karu in sacred texts. Karu means carpenter, like Vishvakarma for gods.It seems that in Karu state, one can keep the kaala or time as standstill, as in the story of Jaratkaaru.

    Out of three vedas, Rigveda is supposed to control past, Yajurveda present and Samaveda future. As has been explained in the website for Rigveda, http://puraana.tripod.com/rigveda/, Rigveda can give a glimpse of an event yet to take place. In sama vedic texts, there is a strong concept of future in the form of a shwah. Shwah has got double meaning – dog and future or tomorrow. To make the future in present tense, this shwah/dog has to be killed. By killing, one reaches ashwah/horse, where there is no future.

 

कालपुरुष

कालपुरुषस्य दानस्य किमभिप्रायं भवितुं शक्यते। ज्योतिषशास्त्रे पुरुषस्याङ्गेषु सर्वेषां राशीनां, सर्वेषां नक्षत्राणां न्यासं, स्थापनां कुर्वन्ति। अयं प्रतिष्ठा अपरिवर्तनीया अस्ति। किन्तु ग्रहाणां प्रतिष्ठा चलनीया भवति। यदा पृच्छकः ज्योतिर्विदं गच्छति, तदा ज्योतिर्विदः मुहूर्तानुसारेण गणयति यत् कालपुरुषस्य राशिषु के ग्रहाः स्थिताः सन्ति। यदि अमुक राश्यां अमित्रग्रहस्य स्थितिः अस्ति, तदा तस्मिन् अंगे रोगः भवति, इति ज्योतिर्विदस्य कथनम्। पुराणेषु कालपुरुषस्य स्थाने पुरुषस्य देहे आराधनीयस्य देवस्य(विष्णु, शिवादि) विभिन्ननामभिः न्यासं कुर्वन्ति। कालस्य एकः अभिप्रायः एवंप्रकारेण अस्ति यत् यदा पृथिवी, चन्द्रमा एवं सूर्यस्य, अथवा वाक्, मन एवं प्राणस्य युतिः भवति, तदैव कालस्य आविर्भावं भवति, अन्यथा अकालस्य स्थितिः भवति। यदि कालः भवेत्, तदा संवत्सरस्य, मासस्य, अहोरात्रस्य अस्तित्वं भवेत्। एवंप्रकारेण, अयं कथितुं शक्यन्ते यत् देहे येषां प्राणानां, येषां मानसानां, येषां वचनानां युतिः नास्ति, तेषां अपनयनाय कालपुरुषस्य दानः अपेक्षितमस्ति। जैमिनीयोपनिषद्ब्राह्मणे  , ,,१० कथनमस्ति - तस्यैतत्त्रिवृद्रूप त्योरनाप्तं शुक्लं कृष्ण पुरुषः तद्यच्छुक्लं तद्वाचो रूपमृचोऽग्नेर्मृत्योः सा या सा वागृक्सा अथ योऽग्निर्मृत्युस्सः अथ यत्कृष्णं तदपां रूपमन्नस्य मनसो यजुषः तद्यास्ता आपोऽन्नं तदथ यन्मनो यजुष्टत् अथ यः पुरुषस्स प्राणस्तत्साम तद्ब्रह्म तदमृतं यः प्राणस्तत्साम अथ यद्ब्रह्म तदमृतम्

 

 

 

संदर्भ

द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत । तस्मिन्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः ॥ - ऋ. १.१६४.४८

उत प्रहामतिदीव्या जयाति कृतं यच्छ्वघ्नी विचिनोति काले।

यो देवकामो धना रुणद्धि समित्तं राया सृजति स्वधावान्॥ १०.०४२.०९

रोहितः कालो अभवद्रोहितोऽग्रे प्रजापतिः ।
रोहितो यज्ञानां मुखं रोहितः स्वराभरत्॥शौअ १३.२.३९

सूर्यो मरीचीमादत्ते । सर्वस्माद्भुवनादधि । तस्याः पाकविशेषेण । स्मृतं कालविशेषणम् । नदीव प्रभवात्काचित् । अक्षय्यात्स्यन्दते यथा (१) । तां नद्योऽभिसमायन्ति । सोरुः सती न निवर्तते । एवं नानासमुत्थानाः । कालाः संवत्सरं श्रिताः । - तैआ १.२.१

क्वेमा आपो निविशन्ते ।यदीतो यान्ति संप्रति, इति । काला अप्सु निविशन्ते । आपः सूर्ये समाहिताः। - तैआ १.८.१

कालकञ्जा - तै १.१.२.४ – ६, तु. मै १.६.९, काठ ८.१

तस्मात्खेचरीमुद्रामभ्यसेत् । तत उन्मनी भवति । ततो योगनिद्रा भवति । लब्धयोगनिद्रस्य योगिनः कालो नास्ति । - शाण्डिल्योपनिषत् १.७.१८

एषाऽथ भूतं भव्यं भविष्यदिति कालवती – मैत्रायणी उपनिषत् ६.५

द्वे वाव ब्रह्मणो रुपे कालश्चाकालश्चाथ यः प्रागादित्यात्सोऽकालोऽकालोऽथ य आदित्यद्यः स कालः सकलः सकलस्य वा एतद्रूपं यत्संवत्सरः – मैत्रायणी उपनिषत् ६.१५

विग्रहवानेष कालः सिन्धुराजः प्रजानाम् – मैत्रा. उप. ६.१६

तावन्तं च पुनः कालं सौम्ये चरति संततम् । इत्थं क्रमेण चरता वायुना वायुजिन्नरः ॥ अहश्च रात्रिं पक्षं च मासमृत्वयनादिकम् । अन्तर्मुखो विजानीयात्कालभेदं समाहितः ॥- त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषत् २.११९

*द्वादशान्तावधावस्मिन्देहे यद्यपि सर्वतः। ओतप्रोतात्मकः प्राणस्तथापीत्थं न सुस्फुटः। षट्त्रिंशदङ्गुलो जन्तोः सर्वस्य स्वाङ्गुलक्रमात्॥ - तन्त्रालोक ६ आ.

     षाट्कौशिक शरीर के अन्तर्गत प्राण प्रत्येक स्थान में आत्मशक्ति, मरुत्-शक्ति और प्रभुशक्ति के साथ सञ्चरित होता रहता है। किन्तु स्फुट रूप से यह हृदय और हृदय से ऊर्ध्व देश में भासित होता है। प्राण हृदयदेश से उद्भूत होकर कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट आदि स्थानों से होता हुआ द्वादशान्त (ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर) शाक्तप्रदेश में जाकर अस्त होता है।हृदय व्योम से द्वादशान्त व्योमपर्यन्त जो प्राणचार है, वह प्रत्येक जन्तु का अपने अंगुल से छत्तीस अंगुल का माना है। हृदय से द्वादशान्तपर्यन्त प्राण प्रवाह की संज्ञा दिन है और द्वादशान्त से अपान रूप में प्राण का अवरोह ही रात्रि है(प्राणो वै चरते तासु अहोरात्रविभागतः स्वच्छन्द तन्त्र २१ श्लोक, ७ पटल)। इस प्रकार मुख्य प्राण प्राण और अपान-चार अथवा अहोरात्र के रूप में सञ्चरित होता रहता है। प्राण सूर्य है और अपान चन्द्र। - मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य, पृष्ठ १७४

*हृदयोर्ध्वे तु कण्ठादो यावद्वै प्रवहेत् प्रिये। अङ्गुलेन विहीने तु प्रथमः प्रहरः स्मृतः। द्वितीय ऊर्ध्वे विज्ञेयो मध्याह्नस्तालुमध्यतः॥ अत्र होमो जपो ध्यानं कृतं वै मोक्षदो भवेत। नासाङ्ग त्र्यङ्गुलोर्ध्वे तु यावत्प्राप्तस्तु सुव्रते॥ प्रहरस्तु तृतीयोऽसौ भवेद्वै वरवर्णिनि। शक्त्यन्ते च चतुर्थस्तु प्रहरोऽहः प्रकीर्तितम्॥ चतुर्थान्ते तु देवेशि प्राणसूर्यः सदास्तगः। ततोस्तमयसन्ध्यात्र तुट्यर्धं तु भवेत्प्रिये॥ तत्कालं तु विलम्ब्यैवं पुनश्चाधः प्रवर्तते। स च चन्द्रोदयो देवि रजनी च विधीयते॥ हृत्पद्मं तु यदा प्राप्तः प्रभातसमयस्तदा। तुट्यर्धं तु वरारोहे पूर्वसन्ध्या भवेत्ततः॥ - स्वच्छन्द तन्त्र, ७ पटल

     वस्तुतः काल दो प्रकार का होता है प्रथम सौर और दूसरा आध्यात्मिक अथवा प्राणीय। यहां प्राणीय काल अभिप्रेत है। यहां भी दिवस में चार और रात्रि में चार प्रहर होते हैं। इस प्रकार प्राणीय अहोरात्र भी आठ प्रहरों का होता है। हृदय से कण्ठ के निचले भाग पर्यन्त नौ अंगुल का प्राणचार दिन का प्रथम प्रहर है। उससे ऊपर तालु पर्यन्त द्वितीय प्रहर कहा जाता है। तालु मध्य ही मध्याह्न है। कहते हैं इस स्थान पर किया गया होम, जप और ध्यान मोक्षप्रद होता है। भ्रूमध्य से ललाट पर्यन्त तृतीय प्रहर और द्वादशान्त पर्यन्त चतुर्थ प्रहर होता है। इतना ही दिन है। यहां आकर प्राण सूर्य अस्त होता है। सूर्यास्त और अपान रूप चन्द्रोदय के बीच आधी तुटि पर्यन्त सायं सन्ध्या मानी जाती है। यहां प्राण के निवृत्त होने की इच्छा और अपान के उल्लास की इच्छा का सामरस्य घटित होता है। शक्ति और शक्तिमान के संघट्ट के कारण ही इसे सन्ध्या कहा जाता है। यहां तुट्यर्ध काल तक विलम्बित होकर प्राण अपान होकर हृदय पर्यन्त अवरोह करता है। अपान रूप रात्रि के भी वैसे ही चार प्रहर होते हैं। जिस समय चन्द्र हृदयकमल में आता है, तभी प्रभात होता है। यहां भी तुट्यर्ध काल की पूर्व सन्ध्या होती है। - मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य, पृष्ठ १७५

*मानुषाक्षिनिमेषस्य अष्टमांशः क्षणः स्मृतः। क्षणद्वयं तुटिर्ज्ञेया तद्द्वयं तु लवः स्मृतः॥ - स्वच्छन्द तन्त्र ११ पटल, श्लोक ११९

     मनुष्य अक्षिनिमेष का अष्टमांश क्षण है और दो क्षणों की तुटि होती है। लव दो तुटियों का होता है।

*तुट्यः षोडश प्राणे तु पूर्वं हि कथिता मया। बाह्येनैव तु कालेन ते लवाः परिकीर्तिताः। ताभिश्चतसृभिर्देवि प्राणे यामो विधीयते। तैरेवप्रहरैर्देवि चतुर्भिस्तु दिनं भवेत्॥ - स्वच्छन्द तन्त्र, ७ पटल

     प्राणचार के एक प्रहर में चार तुटियां होती हैं। इस प्रकार चारों प्रहरों को मिलाकर प्राणचार की सोलह तुटियां हुई। प्राण और अपान तथा उनकी सन्ध्याओं के काल को मिलाकर कुल बत्तीस तुटियां होती हैं।

*अहोरात्रस्तु यः प्रोक्तः प्राणेऽस्मिन् सुरसुन्दरि। स एव पक्षद्वितयं मासं च कथयामि ते॥ तुट्यर्धं चाप्यधश्चोर्ध्वं विश्रमः परिकीर्तितः। मध्ये पञ्चदशोक्ता यास्तिथयस्ताः प्रकीर्तिता॥ प्रथमोदये तु हृत्पद्मात्तुट्यर्धं तु दिनं भवेत्। द्वितीये चैव तुट्यर्धे यदा चरति शर्वरी॥ -

     अहोरात्र ही दो पक्षों वाला मास है। जो दिन और रात्रि की सन्ध्यायें हैं, वही पक्ष की सन्धियां हैं। बीच की जो पन्द्रह तुटियां हैं, उन्हीं को तिथि कहते हैं। यहां तुटि का अर्द्धभाग दिन है और अग्रिम अर्द्धभाग रात्रि। - मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य पृष्ठ १७६

*शक्तिः ब्रह्मरन्ध्रस्थानं तुटिः इति प्रक्षीणचन्द्रा पञ्चदशी। एतएव अमाख्यायां षोडश्यां तुटौ वसनात् तद्भित्त्यवलम्बनादमावस्या सा ज्ञेया स्वच्छन्दोद्योत, पटल ८, पृ. २१४

     कृष्णपक्ष में ऊर्ध्वचार द्वारा प्रति तुटि एक-एक कला का अमावास्या पर्यन्त क्षय होता है। प्राण के शक्ति या ब्रह्मरन्ध्र स्थान में पहुंचने पर प्रक्षीण चन्द्रा पञ्चदशी तिथि अमा नामक सोलहवीं अमृतकला में निवास करती है। अतः उसे अमावास्या कहा जाता है। शुक्लपक्ष में क्रमशः अपान चन्द्र की एक-एक कला का पोषण होता है(माः चन्द्रः पूर्णोऽस्यामिति कृत्वा स्वच्छन्दोद्योत, पटल ७, पृ. २२०)। यहां पञ्चदशी तुटि ही पौर्णमासी तिथि है, क्योंकि इस तुटि में माः अर्थात् चन्द्र पूर्ण होता है। - - - विसर्ग ही अमृताषोडशीकला है जिससे प्रवाह व्यापार चलता है। - मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य, पृ. १७६

*यावत्सा समना शक्तिः तदूर्ध्वे चोन्मना स्मृता। नात्र कालः कलाश्चारो न तत्त्वं न च देवताः॥ सुनिर्वाणं परं शुद्धं गुरुवक्त्रं तदुच्यते। तदतीतं वरारोहे पर तत्त्वमनामयम्॥ - स्वच्छन्द तन्त्र, पटल १०, १२७६

     उन्मना सर्वथा कालहीन है। यहां क्षण से लेकर परार्द्धान्तकाल, निवृत्ति से लेकर शान्त्यतीतादि कलाएँ, प्राणचार, भुवन और देवताओं की गति नहीं है। इसको गुरुवक्त्र अथवा परमशिव की प्राप्ति का द्वार बताया गया है। - मन्त्र और मात्रिकाओं का रहस्य, पृ. ५७

 

उत प्रहामतिदीवा जयति कृतमिव श्वघ्नी वि चिनोति काले

यो देवकामो धनं रुणद्धि समित्तं रायः सृजति स्वधाभिः ॥अ. ..

 

रोहितः कालो अभवद्रोहितोऽग्रे प्रजापतिः

रोहितो यज्ञानां मुखं रोहितः स्वराभरत्॥अ. १३..३९

कालो अश्वो वहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षो अजरो भूरिरेताः

तमा रोहन्ति कवयो विपश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ॥१॥

सप्त चक्रान् वहति काल एष सप्तास्य नाभीरमृतं न्वक्षः

इमा विश्वा भुवनान्यञ्जत्कालः ईयते प्रथमो नु देवः ॥२॥

पूर्णः कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तम्

इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥३॥

एव सं भुवनान्याभरत्स एव सं भुवनानि पर्यैत्।

पिता सन्न् अभवत्पुत्र एषां तस्माद्वै नान्यत्परमस्ति तेजः ॥४॥

कालोऽमूं दिवमजनयत्काल इमाः पृथिवीरुत

काले भूतं भव्यं चेषितं वि तिष्ठते ॥५॥

कालो भूतिमसृजत काले तपति सूर्यः

काले विश्वा भूतानि काले चक्षुर्वि पश्यति ॥६॥

काले मनः काले प्राणः काले नाम समाहितम्

कालेन सर्वा नन्दन्त्यागतेन प्रजा इमाः ॥७॥

काले तपः काले ज्येष्ठं काले ब्रह्म समाहितम्

कालो सर्वस्येश्वरो यः पितासीत्प्रजापतेः ॥८॥

तेनेषितं तेन जातं तदु तस्मिन् प्रतिष्ठितम्

कालो ब्रह्म भूत्वा बिभर्ति परमेष्ठिनम् ॥९॥

कालः प्रजा असृजत कालो अग्रे प्रजापतिम्

स्वयंभूः कश्यपः कालात्तपः कालादजायत ॥अ. १९.५३.१०

 

कालादापः समभवन् कालाद्ब्रह्म तपो दिशः

कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः ॥१॥

कालेन वातः पवते कालेन पृथिवी मही

द्यौर्मही काल आहिता ॥२॥

कालो भूतं भव्यं पुत्रो अजनयत्पुरा

कालादृचः समभवन् यजुः कालादजायत ॥३॥

कालो यज्ञं समैरयद्देवेभ्यो भागमक्षितम्

काले गन्धर्वाप्सरसः काले लोकाः प्रतिष्ठिताः ॥४॥

कालेऽयमङ्गिरा देवोऽथर्वा चाधि तिष्ठतः

इमं लोकं परमं लोकं पुण्यांश्च लोकान् विधृतीश्च पुण्याः

सर्वांल्लोकान् अभिजित्य ब्रह्मणा कालः ईयते परमो नु देवः १९.५४.