पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Gangaa - Goritambharaa) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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गंगा – अवतरण की कथा के माध्यम से आत्मज्ञान के अवतरण का चित्रण - राधा गुप्ता वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड अध्याय 38 से 43 के अन्तर्गत गंगा के अवतरणसे सम्बन्धित कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यही कथा अन्य अनेक पुराणों में भी कुछ – कुछ अन्तर के साथ उपलब्ध होती है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है – कथा का संक्षिप्त स्वरूप अयोध्या के राजा सगर की दो पत्नियाँ थी – सुमति और केशिनी। सुमति से उन्हें साठ हजार पुत्र तथा केशिनी से असमंजस नामक एक ही पुत्र प्राप्त हुआ था। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया और यज्ञ के अश्व की रक्षा का भार असमंजस के पुत्र अंशुमान को सौंप दिया। परन्तु इन्द्र ने राक्षस का रूप धारण करके यज्ञीय अश्व को चुरा लिया और रसातल में ले जाकर बांध दिया। सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आज्ञा दी कि वे सब ओर जाएँ और अश्व के चोर की खोज करें। तदनुसार सगर के वे साठ हजार पुत्र अश्व के चोर को खोजते रहे परन्तु बहुत खोजने पर भी अश्व तथा चोर को नहीं खोज पाए। सगर की आज्ञा से उन साठ हजार पुत्रों ने फिर पृथ्वी को खोदना प्रारम्भ किया और उसे इतना खोदा कि पृथ्वी आर्तनाद करने लगी। खोदते – खोदते सगर के वे पुत्र जब रसातल में पहुँचे, तब कपिल मुनि के समीप उन्होंने उस यज्ञीय अश्व को चरते हुए देखा। कपिल मुनि को ही चोर समझकर सगर के वे पुत्र जब कपिल मुनि को मारने के लिए उद्यत हुए, तब कपिल की कोपाग्नि से वहीं जलकर भस्म हो गए। बहुत समय तक उन पुत्रों के न लौटने पर सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को यज्ञीय अश्व तथा चोर का पता लगाने के लिए भेजा। अंशुमान उसी रास्ते का सहारा लेकर रसातल में पहुँचे, जिस रास्ते का निर्माण उनके चाचाओं ने किया था। अंशुमान ने अपने चाचाओं को वहाँ भस्म रूप में पडा हुआ देखा और यज्ञीय अश्व को भी पास में ही चरते हुए पाया। चाचाओं को जलांजलि देने के लिए जब अंशुमान ने जल लेने की इच्छा की, तभी वहाँ चाचाओं के मामा पक्षिराज गरुड दिखाई दिए और गरुड ने कहा कि सामान्य जलांजलि से अब इनका उद्धार नहीं हो सकता। लोकपावनी गंगा ही जब अपने जल से इस भस्म-राशि को आप्लावित करेंगी, तब तुम्हारे चाचाओं को स्वर्गलोक पहुँचा देंगी। अतः तुम अश्व को ले जाओ और पितामह के यज्ञ को पूर्ण करो। गरुड की बात सुनकर अंशुमान लौट गया और समस्त समाचार सगर से निवेदित किया। सगर ने पहले यज्ञ को पूर्ण किया और फिर गंगा को लाने के विषय में विचार किया। दीर्घकाल तक बहुत विचार करने पर भी उन्हें कोई उपाय न सूझा और वे स्वर्गलोक को चले गए। सगर की मृत्यु हो जाने पर अंशुमान ने भी गंगा को लाने के लिए तप किया परन्तु वे भी गंगा को लाने में समर्थ न हो सके। अंशुमान के पुत्र दिलीप भी पितरों के उद्धार हेतु चिन्ता में पडे रहे परन्तु पितरों के उद्धार में सफल न हो सके। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए जो राज्य की रक्षा का भार मन्त्रियों पर रखकर गंगा के अवतरण हेतु तप करने लगे। तप से प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी ने भगीरथ को कहा कि यह पृथ्वी गंगा के वेग को धारण करने में समर्थ नहीं है। अतः तुम पहले शिव को प्रसन्न करो। शिव ही अपने मस्तक पर गंगा को धारण करने में समर्थ हैं। तदनुसार भगीरथ ने तप द्वारा शिव को प्रसन्नकिया और शिव ने भी गंगा के प्रबल वेग को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। गंगा बहुत समय तक शिव के जटाजूट में अदृश्य रही परन्तु भगीरथ के पुनः तप करने पर शिव ने उन्हें छोड दिया। पृथ्वी पर आई हुई गंगा अब भगीरथ के पीछे – पीछे चलने लगी। जिधर भगीरथ जाते, गंगा भी उनका अनुसरण करती। मार्ग में राजा जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा अपने जल-प्रवाह से उनके यज्ञ – मंडप को बहा ले गई। जह्नु ने क्रुद्ध होकर गंगा के समस्त जल को पी लिया परन्तु ऋषियों के प्रार्थना करने पर श्रोत्रों के छिद्र से उन्हें पुनः प्रकट कर दिया। भगीरथ गंगा को लेकर रसातल में गए। वहाँ विद्यमान भस्मराशि से जब गंगाजल का स्पर्श हुआ, तब सब पूर्वज निष्पाप होकर स्वर्गलोक में चले गए। कथा की प्रतीकात्मकता कथा पूर्णरूपेण प्रतीकात्मक है। अतः कथा के तात्पर्य को समझने के लिए प्रतीकों को समझ लेना उपयोगी है। 1.राजा सगर – सगर शब्द स और गर नामक दो शब्दों के योग से बना है। स का अर्थ है – सहित और गर का अर्थ है – विष। अतः सगर का अर्थ हुआ – विष सहित। अध्यात्म के स्तर पर अज्ञान (स्वस्वरूप का ज्ञान न होना) ही विष है। अतः अज्ञानयुक्त मन (मनुष्य) का चित्रण राजा सगर के रूप में किया गया है। 2.राजा सगर की दो पत्नियाँ – सुमति और केशिनी – सुमति शब्द सुबुद्धि का और केशिनी शब्द प्रज्ञा (बुद्धि से परे की शक्ति) का वाचक है। पत्नी शब्द पौराणिक साहित्य में शक्ति को इंगित करता है। अतः सुमति और केशिनी को सगर की पत्नियाँ कहकर यह संकेतित किया गया है कि बुद्धि और प्रज्ञा दोनों ही अज्ञानी मन (मनुष्य ) की शक्तियाँ हैं। 3- सुमति के साठ हजार पुत्र – मनुष्य की बुद्धि शक्ति (बौद्धिक क्षमता) अद्भुत और अपरिमेय होती है। उस बुद्धि शक्ति के हजारों व्यापारों (वृत्तियों) को ही सुमति के हजारों पुत्रों के रूप में इंगित किया गया है। परन्तु साठ की संख्या अभी अन्वेषणीय है। 4- केशिनी के असमंजस नामक पुत्र से अंशुमान की उत्पत्ति – केशिनी शब्द प्रज्ञा को और असमंजस शब्द दुविधा को इंगित करता है। यहाँ यह संकेत किया गया है कि प्रज्ञा शक्ति प्रारम्भ में मनुष्य के भीतर ज्ञानविषयक असमंजस अर्थात् दुविधा को उत्पन्न करती है। परन्तु यह असमंजस (दुविधा) अधिक समय तक नहीं टिकता और शीघ्र ही मनुष्य के भीतर विवेक (ज्ञान-किरण) को उत्पन्न करता है जिसे कथा में अंशुमान नाम दिया गया है। 5- अश्वमेध यज्ञ – मन रूपी अश्व को मेध्य अर्थात् श्रेष्ठ बनाना ही अश्वमेध यज्ञ कहलाता है। श्रेष्ठ मन की सबसे बडी पहिचान यही होती है कि किसी भी प्रकार की वृत्ति (सकारात्मक अथवा नकारात्मक) इसे बांध नहीं सकती। 6- रसातल – मन की गहराई अर्थात् चित्त को ही पुराणों में रसातल तथा पाताल नाम दिया गया है। 7- पृथ्वी का आर्त्तनाद – अपने वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण बहिर्मुखी बुद्धि के सहस्रों व्यापारों से व्यक्तित्व के जिस शम का विनाश होता है, उस शम रहित स्थिति को ही पृथ्वी का आर्त्तनाद कहकर इंगित किया गया है। 8- कपिल मुनि – कपिल शब्द कम्प् धातु में ल एकाक्षर के योग से बना है। कम्प् का अर्थ है – कम्पन और ल का अर्थ है – लाना। अतः मनुष्य की जडस्वरूप चेतना को कम्पित कर देने वाले प्रयोगात्मक अथवा आचरणात्मक ज्ञान को ही कपिल मुनि के रूप में इंगित किया गया है। 9-गरुड पक्षी – उच्च, श्रेष्ठ विचार अथवा श्रेष्ठ चिन्तन को ही पौराणिक साहित्य में गरुड नामक पक्षी के रूप में प्रदर्शित किया गया है। 10 – राजा दिलीप – दिलीप शब्द दलीप शब्द का ही तद्भव स्वरूप प्रतीत होता है। दलीप शब्द टूटना अथवा फटना अर्थ वाली दल् धातु में ईप प्रत्यय लगने से बना है। अतः राजा दिलीप मन की उस स्थिति का वाचक है, जब मन में विद्यमान यह संकल्प कि मैं शरीर हूँ – टूट जाता है। 11- राजा भगीरथ – भगीरथ शब्द भग और रथ नामक दो शब्दों के मेल से बना है। भग का अर्थ है – श्रेष्ठता, प्रयत्न, सामर्थ्य आदि। अतः जो मन मैं आत्मा हूँ – इस आत्मज्ञान रूप श्रेष्ठ संकल्प के रथ पर आरूढ हो जाता है – वह भगीरथ कहलाता है। 12 – शिव के मस्तक पर गंगा का उतरना – गंगा आत्मज्ञान की प्रतीक है। प्रत्येक मनुष्य भी शिव अर्थात् आत्मस्वरूप ही है। इस आत्मस्वरूपता को वह केवल भूल गया है। आत्मस्वरूपता के पुनः स्मरण अर्थात् आत्मज्ञान को ही कथा में शिव के मस्तक पर गंगा का उतरना कहा गया है। 13 – शिव के जटाजूट में गंगा का अदृश्य होना – जटाजूट शब्द मान्यता को इंगित करता है। मनुष्य की सोच में जन्मों – जन्मों से निर्मित हुई यह मान्यता कि वह एक शरीर है – बहुत गहरी बैठी हुई है। इसीलिए नई – नई निर्मित हुई यह सोच कि वह शरीर नहीं है, अपितु शरीर को चलाने वाला चैतन्य शक्ति आत्मा है – उस पुरानी सोच (मान्यता) में छिप जाती है, जिसे बार – बार प्रयत्न करके ही प्रकट किया जाता है। 14- राजा जह्नु – जह्नु शब्द त्यागना अथवा छोडना अर्थ वाली जह् धातु (अथवा हा धातु) से निष्पन्न हुआ है। अतः राजा जह्नु ऐसे शुद्ध, श्रेष्ठ मन को इंगित करता है, जो शरीर – दृष्टि का त्याग कर चुका है। ऐसा शुद्ध – श्रेष्ठ मन ही आत्मज्ञान को आत्मसात् करके उसे आचरण में उतार लेता है। अतः आत्मज्ञान को आत्मसात् करके उसे आचरण में उतारने के कारण ही राजा जह्नु को कथा में गंगा को पीकर श्रोत्रों से बाहर निकाल देने वाले के रूप में इंगित किया गया है। श्रोत्र शब्द श्रुति को इंगित करता प्रतीत होता है। इन्द्रियों द्वारा गृहीत जो बाह्य ज्ञान मन के भीतर शोर को उत्पन्न करता है – उसे श्रव कहा जाता है। इसके विपरीत, जो आत्मज्ञान शान्ति को लाता है – वह श्रुत ज्ञान कहलाता है। यह श्रुतज्ञान (अनुभवात्मक अथवा आचरणात्मक ज्ञान) ही चित्त को विकार रूप संस्कारों से मुक्त करने में पूर्ण समर्थ होता है जिसे कथा में राजा जह्नु के श्रोत्रों से निकली हुई गंगा द्वारा सगर – पुत्रों के उद्धार के रूप में वर्णित किया गया है। 15- इन्द्र का राक्षस रूप धारण करके यज्ञीय अश्व को चुरा लेना और रसातल में बाँध देना – प्रस्तुत कथन द्वारा इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया गया है कि जैसे किसी स्वच्छ दर्पण पर पडी हुई धूल की पर्त्तें उस स्वच्छदर्पण को केवल ढकती हैं, विनष्ट नहीं करती, उसी प्रकार अज्ञान से उत्पन्न हुए विकारों की पर्त्तें भी शुद्ध – स्वच्छ मन को केवल ढकती हैं, विनष्ट नहीं करती। अब शुद्ध – स्वच्छ मन इतनी गहराई में चला जाता है कि दिखाई नहीं देता और ज्ञान का सहारा लेकर ही उसे पुनः प्राप्त किया जा सकता है। कथा का तात्पर्य पौराणिक कथाएँ जीवन की सच्चाईयों का ऐसा जीवन्त चित्र प्रस्तुत करती हैं कि वे चित्र ही सच्ची घटना से प्रतीत होने लगते हैं। अन्ततः मनुष्य उन्हें ही इतिहास मान कर उनमें ऐसा भटक जाता है कि सच्चाई दूर होती चली जाती है और फिर उस सच्चाई को पकडना भी अत्यन्त कठिन हो जाता है। रामायण तथा अनेकपुराणों में वर्णित गंगा – अवतरण की कथा भी इसका अपवाद नहीं है। स्थूल दृष्टि से देखने पर जो कथा गंगा नामक नदी के अवतरण की कथा मान ली गई है, वही कथा सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने पर आत्मज्ञान रूपी गंगा के अवतरण को इंगित करती है और आत्मज्ञान से सम्बन्धित हो तथ्यों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। प्रथम तथ्य के अन्तर्गत आत्मज्ञान के अवतरण की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया है तथा दूसरे तथ्य के अन्तर्गत आत्मज्ञान के अवतरण के उपाय को दर्शाया गया है। प्रथम तथ्य अर्थात् आत्मज्ञान के अवतरण की आवश्यकता को प्रतिपादिन करने के लिए राजा सगर के पुत्रों के भस्म रूप हो जाने की कथा को विस्तृत स्वरूप प्रदान किया गया है तथा दूसरे तथ्य के अन्तर्गत अर्थात् आत्मज्ञान के अवतरण के उपाय को दर्शाने के लिए राजा भगीरथ के तप से सम्बन्धित कथा को विस्तार से वर्णित किया गया है। दोनों ही तथ्यों को भलीभाँति समझने से पहले हमें आत्मज्ञान के अभिप्राय को समझ लेना आवश्यक है, जिसके लिए गंगा को प्रतीक रूप में चुना गया है। आत्मज्ञान का तात्पर्य – आत्मज्ञान का सरल सा तात्पर्य है – आत्म का ज्ञान अर्थात् स्वयं का ज्ञान। मैं कौन हूँ – इसका ज्ञान मनुष्य को सबसे पहले होना चाहिए। यही प्राथमिक ज्ञान है – शेष सारा ज्ञान इसी ज्ञान का अनुगमन करता है। मैं कौन हूँ – सका ज्ञान न होना ही अज्ञान है और इस प्राथमिक अज्ञान के पीछे – पीछे ही शेष सारा अज्ञान उत्पन्न होता है। मैं एक ज्योतिर्बिन्दुरूप, भ्रूमध्य में स्थित, अजर-अमर-अविनाशी, सुख-शान्ति-शुद्धता-शक्ति-ज्ञान-प्रेम तथा आनन्द से भरपूर चैतन्य शक्ति आत्मा हूँ – यह जान लेना और उसमें स्थित हो जाना ही आत्मज्ञान है। अपने इस वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने पर ही मनुष्य अपने प्राप्त हुए शरीर (स्थूल-सूक्ष्म तथा कारण शरीर) को उपकरण स्वरूप समझकर उसका स्वामी बन पाता है और तब ही अपने इस उपकरणस्वरूप अथवा सेवकस्वरूप शरीर का नियन्ता होकर उसे अभीष्ट दिशा में गतिमान कर सकता है। ठीक वैसे ही जैसे एक रथी अपने रथ को अभीष्ट दिशा में ले जाता है। प्राप्त हुए शरीर को उपकरण रूप न समझकर उसे ही अपना स्वरूप समझ लेना अर्थात् यह शरीर ही मैं हूँ – ऐसा समझ लेना और फिर शरीर से सम्बन्धित अपनी भूमिकाओं, पदों तथा समपत्ति आदि में आसक्त होकर तदनुसार जीवन जीना विकारों की जिस लम्बी शृंखला को जन्म देता है – वह विकार शृंखला आसानी से नहीं टूटती। अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मस्वरूप को पहचानकर और तदनुसार वर्तन करके ही इस विकार – शृंखला से मुक्त हुआ जा सकता है। यही नहीं, अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मस्वरूप को भूल जाने से मनुष्य अपने सुख-शान्ति-शक्ति-शुद्धता – ज्ञान-प्रेम तथा आनन्द रूप उन गुणों को भी भूल जाता है जिनसे वह स्वभावतः सम्पन्न है और जिनको कहीं बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। अब हम आत्मज्ञान की आवश्यकता और आत्मज्ञान की प्राप्ति के उपाय का वर्णन करने वाली प्रस्तुत कथा के समस्त रहस्यों को समझने का प्रयास करें- 1.कथा में सबसे पहले यह संकेत किया गया है कि अज्ञान में रहते हुए ही अर्थात् अपने आपको शरीर समझते हुए ही एक न एक दिन मनुष्य के भीतर शुद्ध मन की प्राप्ति (अथवा विकारमुक्त मन की प्राप्ति) हेतु जो प्रबल इच्छा जाग्रत होती है, वही प्रबल इच्छा उसकी चेतना के विकास का प्रथम सोपान बनती है जिसे कथा में राजा सगर के अश्वमेधयज्ञ के सम्पादन के रूप में दर्शाया गया है। अज्ञानी मनुष्य शुद्धता-प्राप्ति (अथवा विकार – मुक्ति) हेतु अपनी बहिर्मुखी बुद्धि के जिन सैंकडों व्यापारों (वृत्तियों) का सहारा लेता है,वे ज्ञान से परिचित नहीं होते। इसीलिए उस बहिर्मुखी बुद्धि के सैकडों व्यापार भी शुद्धता – प्राप्ति(अथवा विकार-मुक्ति) में मनुष्य के सहायक नहीं हो पाते। सगर के साठ हजार पुत्रों की यज्ञीय अश्व को खोज कर यज्ञ हेतु वापस लाने की असमर्थता के रूप में इसी तथ्य कोइंगित किया गया है। चूंकि अज्ञानी मनुष्य को यह दृढ विश्वास होता है कि बौद्धिक क्षमता अद्भुत और अपरिमेय होती है और वह किसी भी तथ्य की गहराई तक जाने में पूर्ण समर्थभी होती है, अतः वह अपनी उसी बौद्धिक क्षमता को शुद्धता – प्राप्ति के कार्य में नियोजित करके लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहता है। परन्तु कथा में इस सत्य का उद्घाटन बडी सुन्दरता से किया गया है कि मनुष्य की बौद्धिक क्षमता भले ही अद्भुत और अपरिमेय हो, वह उपर्युक्त लक्ष्य की प्राप्ति हेतु (शुद्धता प्राप्ति हेतु) पर्याप्त नहीं है। मनुष्य अपनी बौद्धिक क्षमता के सहारे किसी भी तथ्य से पूर्णपरिचित तो हो सकता है परन्तु मन की शुद्धता को नहीं पा सकता। शुद्धता तो ज्ञानपरक आचरण की माँक करती है। उदाहरण के लिए – बौद्धिक क्षमता द्वारा सच के महत्त्व को पढा अथवा समझा जा सकता है परन्तु शुद्धता की प्राप्ति तो सच को आचरण में उतारकर ही सम्भव है। सच के सम्बन्ध में भले ही विश्व की सारी जानकारियाँ इकठ्ठी कर ली जाएँ परन्तु उपर्युक्त लक्ष्य की प्राप्ति में उनका महत्त्व नहीं है। मनुष्य अपने जीवन में यदि असत्यता का ही निरन्तर आचरण करता है, तब उस असत्य आचरण की छापें ही चित्त में जमा होती हैं और यही छापें शरीर छोडते समय मनुष्य के साथ – साथ निश्चित रूप से आगे चली जाती हैं। एक शरीर को छोडते जाने तथा दूसरे शरीर को ग्रहण करते जाने की निरन्तर यात्रा में ये छापें इकठ्ठी होती जाती हैं और बहिर्मुखी बुद्धि के सैकडों व्यापार शुद्धता – प्राप्ति रूप उपर्युक्त वर्णित लक्ष्य को प्राप्त कराने में भी तुच्छ-प्राय हो जाते हैं। इसी तथ्य को कथा में सगर के साठ हजार पुत्रों के रसातल में जाकर भस्म रूप हो जाने के रूप में इंगित किया गया है। 2.कथा पुनः संकेत करती है कि धीरे – धीरे जब मनुष्य विवेक का सहारा लेकर और श्रेष्ठ चिन्तन में प्रवृत्त होकर सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ – साथ प्रयोगात्मक पक्ष का भी सम्मान करता है अर्थात् ज्ञानयुक्त आचरण की किंचित् भी अवहेलना नहीं करता, तब उसका यही व्यवहार चेतना के विकास का दूसरा सोपान बन जाता है, जिसे कथा में अंशुमान द्वारा पक्षिराज गरुड के दर्शन के रूप में चित्रित किया गया है। अब मनुष्य जीवन में सच्चाई का आचरण करता है, जिसका स्पष्ट एवं निश्चित परिणाम होता है – शुद्ध मन की प्राप्ति। अंशुमान द्वारा यज्ञीय अश्व की प्राप्ति के रूप में इसी तथ्य को इंगित किया गया है। सिद्धान्त और आचरण के इस मिलन बिन्दु पर खडा हुआ और शुद्ध मन को प्राप्त हुआ विवेकी मनुष्य ही अब इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को समझ पाता है कि सिद्धान्त और आचरण के मेल से शुद्धमन की प्राप्ति रूप जो निर्धारित लक्ष्य था, वह तो पूरा हुआ परन्तु चित्त में जमा हुई उन छापों का क्या, जिनका उद्धार आत्मज्ञान के बिना सम्भव नहीं। गरुड के मुख से रसातल में पडे हुए पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा – अवतरण की अनिवार्यता के रूप में यहाँ आत्मज्ञान की अनिवार्यता को ही संकेतित किया गया है। 3.तीसरे सोपान के रूप में कथा संकेत करती है कि आत्मज्ञान अर्थात् स्वस्वरूप को पहचानने की शुरुआत अज्ञान अर्थात् देहज्ञान में रहते हुएही करनी है। (सगर का तप)। मैं शरीर नहीं हूँ अपितु शरीर को चलाने वाली चैतन्यशक्ति आत्मा हूँ – इस ज्ञानमय विचार को मन – बुद्धि के भीतर बार – बार डालना है।(अंशुमान का तप)। मन – बुद्धि के भीतर बार बार डाला गया यह ज्ञानमय विचार वहाँ धीरे – धीरे टिकना शुरु होता है और एक न एक दिन ऐसा अवश्य आ जाता है जब वह ज्ञानमय विचार अवांछित अज्ञानमय विचार को अर्थात् मैं शरीर रूँ – इस संकल्प को तोडने लगता है (दिलीप का तप) और मैं आत्मा हूँ – इस संकल्प के रूप में दृढ होने लगता है(भगीरथ का तप)। ज्ञानमय विचार की इस उपर्युक्त वर्णित क्रमिक यात्रा को ही कथा में वंश परम्परा के रूप में यह कहकर प्रदर्शित किया गया है कि राजा सगर ने, उनके पौत्र अंशुमान ने तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप ने गंगा के अवतरणहेतु महान् तप किया परन्तु गंगा का अवतरण नहीं हो सका। अन्त में दिलीप के पुत्र भगीरथ ने तप करके गंगा को स्वर्ग से नीचे उतार लिया। कथा पुनः संकेत करती है कि दृढतापूर्वक निरन्तर इस संकल्प में स्थित रहते हुए कि मैं चैतन्यशक्ति आत्मा हूँ – एक न एक दिन मनुष्य की सोच में सम्पूर्णतः यह ज्ञान पूरित हो जाता है, जिसे कथा में शिव के मस्तक पर गंगा का विराजमान होना कहा गया है। यहाँ यह संकेत किया गया है कि प्रत्येक मनुष्य शिवस्वरूप (आत्मस्वरूप) ही है। केवल सोच में बने हुए समीकरण को बदलना है। जैसे ही यह समीकरण बदलता है , अर्थात् मैं शरीर हूं – इस अज्ञान के स्थान पर मैं आत्मा हूँ – यह ज्ञान विराजित हो जाता है – तब उस विराजमान ज्ञान को ही शिव के मस्तक पर गंगा का विराजमान होना कहा गया है। 4 – चौथे सोपान के रूप में कथा संकेत करती है कि मनुष्य की सोच में इस ज्ञान का सम्पूर्णतः विराजित हो जाना कि वह अजर-अमर-अविनाशी चैतन्य शक्ति आत्मा है, शरीर नहीं – अत्यन्त श्रेष्ठ तो है परन्तु पर्याप्त नहीं है। इस आत्मज्ञान को भी सोच के स्तर से (मानसिक स्तर से) आचरण के स्तर पर उतारना अनिवार्य है अर्थात् मनुष्य को अब सारा व्यवहार यह ध्यान में रखते हुए करना है कि वह स्वयं चैतन्यशक्ति आत्मा है और जिसके साथ वह व्यवहार कर रहा है – वह भी उसके समान आत्मस्वरूप ही है। यही आत्मदृष्टि मनुष्य-मन को समत्व, सहयोग, स्वीकार जैसे श्रेष्ठ गुणों से भरकर श्रेष्ठ बना देती है और ऐसा श्रेष्ठ मन ही आत्मज्ञान रूप गंगा को आत्मसात् करके उसे श्रुतिपरक अर्थात् आचरणपरक बना लेता है। इसी तथ्य को कथा में जह्नु द्वारा गंगा को पी लेने और फिर श्रोत्रों द्वारा छोड देने के रूप में वर्णित किया गया है। 5 – पाँचवे सोपान के रूप में कथा संकेत करती है कि प्रयत्नपूर्वक बार – बार किया हुआ यह आत्मज्ञानपरक आचरण भी जब चित्त में अपनी नूतन छापें बना लेता है, तब यही नूतन निर्मित हुई छापें पुरानी और अज्ञान से निर्मित हुई छापों को निष्प्रभावी कर देती हैं, जिसे कथा में रसातल में पहुँची हुई गंगा द्वारा भस्मरूप हुए सगर – पुत्रों के उद्धार के रूप में प्रदर्शित किया गया है। कथा के प्रमुख बिन्दु 1 – मनुष्य की बौद्धिक क्षमता किसी भी त्थ्य को भलीभाँति समझने अथवा जानने (ज्ञान) तक सीमित है। 2 – मन की शुद्धि हेतु यह समझना अथवा जानना (केवल ज्ञान) पर्याप्त नहीं है। 3 शुद्धता हेतु समझ अथवा ज्ञान को आचरण में उतारना आवश्यक है। 4 आचरण में उतरा हुआ ज्ञान निश्चित रूपेण मन को शुद्ध बना देता है परन्तु चित्त में जमा हुआ विकार इस शुद्धता को टिकने नहीं देते। 5 अतः चित्तगत विकारों से मुक्ति हेतु समस्त ज्ञानों का भी ज्ञान आत्मज्ञान आवश्यक है। 6 मनुष्य आत्मज्ञान को भलीभाँति समझे और दृढतापूर्वक सोम में स्थापित करे। 7 सोच में स्थापित आत्मज्ञान को आचरण में उतारे। 8 आचरण में उतारा हुआ आत्मज्ञान ही निश्चितरूपेण चित्त में जमा हुए विकारों का उद्धार करता है। अतः जैसे मन की शुद्धता हेतु ज्ञानयुक्त आचरण आवश्यक है, वैसे ही चित्तगत विकारों के उद्धार हेतु आत्मज्ञान युक्त आचरण भी अपरिहार्य है। प्रथम लेखन – 25-5-2015ई.(ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत् 2072)
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