पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Gangaa - Goritambharaa)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Gangaa - Gangaa ( words like Grihapati, Grihastha/householder etc. )

Gangaa - Gaja (Gangaa, Gaja/elephant etc.)

Gaja - Gajendra (Gaja, Gaja-Graaha/elephant-crocodile, Gajaanana, Gajaasura, Gajendra, Gana etc.)

Gana - Ganesha (Ganapati, Ganesha etc.)

Ganesha - Gadaa (Ganesha, Gandaki, Gati/velocity, Gada, Gadaa/mace etc. )

Gadaa - Gandhamaali  ( Gadaa, Gandha/scent, Gandhamaadana etc. )

Gandharva - Gandharvavivaaha ( Gandharva )

Gandharvasenaa - Gayaa ( Gabhasti/ray, Gaya, Gayaa etc. )

Gayaakuupa - Garudadhwaja ( Garuda/hawk, Garudadhwaja etc.)

Garudapuraana - Garbha ( Garga, Garta/pit, Gardabha/donkey, Garbha/womb etc.)

Garbha - Gaanabandhu ( Gavaaksha/window, Gaveshana/research, Gavyuuti etc. )

Gaanabandhu - Gaayatri ( Gaandini, Gaandharva, Gaandhaara, Gaayatri etc.)

Gaayana - Giryangushtha ( Gaargya, Gaarhapatya, Gaalava, Giri/mountain etc.)

Girijaa - Gunaakara  ( Geeta/song, Geetaa, Guda, Gudaakesha, Guna/traits, Gunaakara etc.)

Gunaakara - Guhaa ( Gunaadhya, Guru/heavy/teacher, Guha, Guhaa/cave etc. )

Guhaa - Griha ( Guhyaka, Gritsamada, Gridhra/vulture,  Griha/home etc.)

Griha - Goritambharaa ( Grihapati, Grihastha/householder etc.)

 

 

 

 

 

 

 

(दिल्ली संग्रहालय से साभार ग्रहण)

गङ्गा

टिप्पणी – गंगा को पुराणों की कुछ कथाओं के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है –

1-जब वामन ने विराट रूप धारण कर तीन पदों द्वारा ब्रह्माण्ड का मापन किया, उस समय उन्होंने एक पद द्वारा तो अन्तरिक्ष का मापन किया, दूसरे पद द्वारा द्युलोक का और तीसरा पद शेष रह गया। वह पद उन्होंने बलि के सिर पर रख दिया। इस घटना में गंगा का आविर्भाव कहा गया है। कहा गया है कि विष्णु के पदांगुष्ठ से बलि का ब्रह्मरन्ध्र फूट गया और उसमें से गंगा नदी निकल पडी। व्यावहारिक रूप में इस कथा को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब हम श्वास के माध्यम से अथवा ध्यान के माध्यम से अपने पदांगुष्ठ को स्पर्श करने में सफल होते हैं, तभी यह संभावना बनती है कि ब्रह्माण्ड का जल हमारे पदांगुष्ठ में प्रवेश करके हमारे ब्रह्मरन्ध्र में पहुंच जाए। पदांगुष्ठ के माध्यम से ब्रह्मांड की तरंगे हमारे शरीर में प्रवेश करने लगें, यह अपेक्षित है।

 

2- ऐसा अनुभव बहुत से ध्यान साधकों को हो सकता है कि पदों से कोई शक्ति, कोई द्रव निकलकर सिर की ओर बढ रहा है। यह गंगा का ही रूप है। लेकिन पुराण संकेत कर रहे हैं कि एक बार पदांगुष्ठ द्वारा तरंग ग्रहण करने की प्रक्रिया आरंभ हो जाए तो फिर यह कभी बन्द नहीं होनी चाहिए। तभी वास्तविक गंगा का स्वरूप बन सकता है।

3- साधारण जीवन में हमारी चेतना केवल पेट की क्षुधा का संज्ञान ही ले पाती है। पेट से नीचे के अंगों का संज्ञान, विशेष रूप से पादों का, बहुत कम हो पाता है।

3-पदांगुष्ठ से न सही, पदों से शक्ति का निकल कर सिर की ओर जाना ऐसा अनुभव बहुत से लोगों को होता होगा। लेकिन इसे केवल आरंभिक संकेत माना जा सकता है, गंगा का स्रवण नहीं।

4-जब किसी द्रव की बूंदें पाद से निकलकर सिर में पहुंचती हैं, तो शीतलता का अनुभव होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पाद से निकलकर जो द्रव सिर में पहुंचता है, उससे कोई ऊष्माशोषी रासायनिक क्रिया सिर में घटित होती है।

5-अतिरिक्त ऊर्जा का स्रवण केवल पाद से सिर की ओर ही सीमित नहीं रहता। विकास  होने पर सिर का कोई द्रव निकलकर सारे शरीर में फैलता है जिससे शीतलता उत्पन्न होती है। हमारे शरीर की जितनी कोशिकाएं स्वेद को शरीर से बाहर फेंकने का कार्य करती हैं, शीतलता प्राप्त होने से उनकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन आ जाता है। स्वेद निर्गम का कार्य बहुत मन्द पड जाता है।

6- पुराण कथाओं में उल्लेख आता है कि जब भगीरथ के तप के फलस्वरूप शिव की जटाओं से गंगा निकल कर भूतल की ओर चली तो वह सात धाराओं में विभक्त हो गई। सात ऋषि उन धाराओं के स्वामी बने। यह सात धाराएं कौन सी हो सकती हैं। क्या यह सात धाराएं साम भक्ति के सात अवयवों हिंकार, प्रस्ताव, आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन हैं, यह अन्वेषणीय है।

जो विद्वान् इस प्रकार हिंकार करता है, वह इसके लोमों से मृत्युपाश को मुक्त करता है। फिर जो विद्वान् प्रस्तुतीकरण करता है, वह इसकी त्वचा से मृत्युपाश को मुक्त करता है। अब जो विद्वान् आदि भक्ति गाता है, वह इसके मांसों से मृत्युपाश को मुक्त करता है। फिर जो विद्वान् इस प्रकार उद्गायन करता है, वह इसके स्नायुओं से मृत्युपाश को दूर करता है। फिर जो विद्वान् इस प्रकार प्रतिहार भक्ति करता है, वह इसके अंगों से मृत्युपाश को दूर करता है। फिर जो विद्वान् उपद्रव भक्ति करता है, वह इसकी अस्थियों से मृत्युपाश को दूर करता है। फिर जो विद्वान् इस प्रकार निधन भक्ति करता है, वह इसकी मज्जाओं से मृत्युपाश का मोचन करता है।  - - - -- - - । इन्द्र वैमृध उदित होने के समय होता है, सविता उदित होने के पश्चात्, मित्र संगवकाल में, इन्द्र वैकुण्ठ मध्यन्दिन में, समावर्तमान शर्व, लोहित रूप होने पर उग्रदेव, अस्त होने के समय प्रजापति। - - -- -जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण

7-साम की भक्तियों हिंकार, प्रस्ताव, आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव, निधन का सम्मिलित रूप स्वयं गंगा हो सकती है। जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण के कथन में स्पष्ट कर दिया गया है कि किस भक्ति से देह के किस अवयव का शोधन होगा। जब सातों अवयव एकसाथ क्रियाशील हो जाएं, तभी गंगा का प्रवाह कहा जा सकता है।

 

8- एक पुराण में कथन है कि पुराणों के इस कथन पर अश्रद्धा न करे कि गंगा का जो जल है, वह ब्रह्मांड के जल के प्रवेश के कारण उत्पन्न हुआ है। इस कथन के समर्थन में कहा गया है कि नारियल के अन्दर भी तो जल प्रवेश करता है। ऐसे ही ब्रह्माण्ड का जल गंगा आदि में प्रवेश करता है। नारियल के अन्दर के जल की उपमा देना प्राचीन काल की बात है। अब तो हम जानते हैं कि हम जो कुछ भी स्वादिष्ट भोजन करते हैं, उससे हमारी देह में हारमोन क्षरित होते हैं। यह भी तो गंगा का एक छोटा सा, आरंभिक रूप है । इसी प्रकार की घटनाओं को यदि बृहत्तर रूप दिया जा सके तो यह भी एक प्रकार का गंगाजल बन सकते हैं। आजकल तो आंक्सीटांक्सिन के इंजेक्शन द्वारा पता नहीं कितने हारमोनों को एक साथ सक्रिय कर दिया जाता है।

9-पुराणों में भगीरथ द्वारा गंगा अवतारण के प्रयास से पूर्व उसके पूर्वज सगर, असमंज, अंशुमान्, दिलीप भी यह प्रयास कर चुके थे। इन नामों का उल्लेख व्यर्थ ही नहीं किया गया है। पुराणों में जब कहा जाता है कि गंगा के गुणों पर अश्रद्धा न करे। असमंज स्थिति असमंजस की स्थिति है, जहां पूरी श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई है। इससे अगली स्थिति अंशुमान् है। यह दक्षता की स्थिति प्रतीत होती है। सूर्य से अंशु तभी उत्पन्न होते हैं जब उसमें दक्षता आती है। दिलीप का क्या अर्थ होता है, यह अन्वेषणीय है। इस प्रकार इन नामों के माध्यम से यह संकेत किया जा रहा है कि विभिन्न दिशाओं में तप द्वारा गंगा के अवतारण का प्रयास किया जा रहा है। श्रद्धा – अश्रद्धा की स्थिति अग्निकोण की स्थिति है। दक्षता की स्थिति दक्षिण दिशा की।

 

10- पुराणों में गंगा के आविर्भाव को एक और कथा के माध्यम से भी कहा गया है। राधा और कृष्ण रास में संलग्न थे। शिव और सारे देवता विद्यमान थे। सरस्वती ने अपना संगीत आरंभ किया तो राधा और कृष्ण अदृश्य हो गए। खोजने पर पता लगा कि वह तो संगीत से द्रवीभूत हो गए हैं। वह द्रव ही गंगा है। अतः यह कहा जा सकता है कि जब हमारे सामने कोई ऐसी घटना घटित हो जो हमें झिंझोड कर रख दे तो हमारे सारे पाश खुल जाते हैं, हमारे अंदर कोई द्रव, कोई हारमोन उत्पन्न होता है जिसे विकसित करके गंगा का रूप दिया जा सकता है।

11- भीष्म गंगा व शन्तनु का आठवां पुत्र है जो द्यौ नामक वसु का अंश है। आठ वसुओं में से केवल वही जीवित बचा है। पुराणों में आठवें वसु का नाम प्रभास है, सातवें का प्रत्यूष। प्रभास तीर्थ की महिमा प्रायश्चित्त् के लिए है। जो पाप कहीं भी न धुल रहा हो, वह प्रभास तीर्थ में धुल जाता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी से आरंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा तक के पांच दिनों की संज्ञा भीष्म पंचक व्रत है जो एक कठोर प्रायश्चित्त है। अतः यह कहा जा सकता है कि कौरवों के रूप में जो भीष्म का व्यक्तित्व है, वह प्रायश्चित्त का रूप हो सकता है। स्वयं गंगा भी तो प्रायश्चित्त के लिए, पापों को धोने के लिए ही है। भीष्म का नाम पहले देवदत्त था। जब उसने विवाह न करने तथा राज्याधिकारी न बनने की प्रतिज्ञा की तो उसका नाम भीष्म हो गया। देवदत्त नाम संकेत देता है कि यह दैव – दत्त अर्थात् भाग्य है। इसे कोई मार नहीं सकता। दक्षिणायन से उत्तरायण आने पर यह स्वयं स्वर्ग में चला जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गंगा दैव से, भाग्य से जुडी है जबकि यमुना कर्म से, पुरुषार्थ से जुडी है।

12. पापों का अस्तित्व क्यों है। विज्ञान के दृष्टिकोण से इसलिए कि व्यक्तित्व से सममिति(अंग्रेजी में सिमीट्री) खोई गई है। हमें कोई भोजन स्वादिष्ट लगता है तो इसका कारण यह है कि वह हमारी किसी खोई हुई सममिति को पूरा करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस तथ्य को, सममिति के पूरण को पुराणों में प्रत्यूष, प्रति-ऊष कहा गया है। जब सममिति किसी प्रकार से पूरी कर दी जाती है, जैसे संगीत से, भोजन से आदि, तो गंगा प्रकट हो जाती है। पुराणों की कथा में गंगा प्रतीप का वरण करना चाहती है। प्रतीप का अर्थ भी सममिति को पूरा करना लिया जा सकता है। लेकिन पुराण कह रहे हैं कि कुछ पाप ऐसे भी हैं जिन्हें केवल सममिति द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता। उन पापों को प्रभास की श्रेणी में रखा गया प्रतीत होता है। एक पुराण में  उल्लेख है कि गंगा किनारे किए गए पाप द्वारका में नष्ट होते हैं।

13. जब पुराणों में यह कहा जाता है कि द्वापर में कुरुक्षेत्र का महत्त्व है तथा कलियुग में गंगा का, तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि द्वापर में पुरुषार्थ प्रधान है लेकिन कलियुग में दैव प्रधान हो जाता है जिसे गंगा रूपी सममिति द्वारा नियन्त्रित करना है।

14. सोमयाग में पापों(द्वेषों) को नष्ट करने का कार्य अच्छावाक् ऋत्विज का है(ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च)। अच्छावाक ऋत्विज का एक प्रसिद्ध साम तरोभिर्वो विद्वसुम् है। इस साम का नाम कालेय साम है। यह अन्वेषणीय है कि अच्छावाक् ऋत्विज और गंगा में कितना सम्बन्ध है।

 

15- पुराणों में एक ओर तो कहा जा रहा है कि गंगा में विष्णु के 32 लक्षणों में से 12 लक्षण विद्यमान हैं। दूसरी ओर कहा जा रहा है कि जो गौरी है, वही गंगा है। दोनों में कोई भेद नहीं है। गौरी में तो लक्षण 12 से अधिक होने चाहिएं। शिव में 28 लक्षण विद्यमान हैं। यह पहेली अन्वेषणीय है।

 

16- जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में राजा भगेरथ अपने यज्ञ के उद्गाता ऋत्विज हेतु बक दाल्भ्य ऋषि का चुनाव करता है। चुनाव से पहले दाल्भ्य ने राजा को संतुष्ट किया कि वह उद्गाता के रहस्य जानता है।

 

17- ज्येष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलादवतरदसौ जाह्नवी मर्त्यलोकम्  । (नारद पुराण 2.40.21) कहा जा रहा है कि ज्येष्ठ मास को मंगलवार को शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को हस्त नक्षण में जाह्नवी का पहाडों से मर्त्यलोक में अवतरण हुआ। पहाडों से मर्त्यलोक में अवतरण का क्या अर्थ हो सकता है। पुराणों में पहाडों को पुरुष कहा गया है जो पृथिवी का नियन्त्रण करते हैं। अपनी देह के स्तर पर ऐसा कहा जा सकता है कि किसी घटना विशेष के कारण जो हारमोन हमारी देह में स्रवित होते हैं, वह जब रक्त की धारा में मिलते हैं तो हमारी प्रकृति में, व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। यदि कामुक प्रकार के हारमोन स्रवित हो रहे हैं तो हम कामुक बन जाएंगे, यदि क्रोध के हारमोन स्रवित हो रहे हैं तो हम क्रोधित हो जाएंगे, सारा रक्त गर्म हो जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या हारमोन के स्रवित होने और रक्त की धारा में मिलकर हमारे स्वभाव में परिवर्तन होने में कोई समय लगता है अथवा यह कार्य तुरन्त हो जाता है। हो सकता है दोनों ही स्थितियां हों। ऐसा भी हो सकता है कि जब तक हारमोन का अपनी ग्रन्थि विशेष से स्रवण नहीं हुआ है, वह निष्क्रिय स्थिति में है, तब तक उसे पर्वत पर  स्थित कहा गया हो। उदाहरण के लिए, पैंक्रियस ग्रन्थि से इंसुलिन स्रवित होता है। यह स्रवण तब होता है जब हम भोजन करते होते हैं। ऐसी स्थिति में पैंक्रियस गन्थि को पहाड कहा जा सकता है और हमारी देह को मर्त्य लोक।

     नारद पुराण के उपरोक्त श्लोक ने गंगा के अवतरण की संभावनाओं को बहुत सीमित कर दिया है। कहा गया है कि चाहे जब कोई हारमोन स्रवित हो जाए, उसे गंगा का अवतरण नहीं कहा जा सकता। जब ज्येष्ठ मास हो(ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा ज्येष्ठ नक्षत्र या उसके निकट रहता है), मंगलवार(बुधवार) हो, हस्त नक्षत्र हो, दशमी तिथि हो, तब जो हारमोन स्रवित होगा, वह गंगा बनेगा। ज्येष्ठ मास की दशमी तिथि में चन्द्रमा प्रायः हस्त नक्षत्र के निकट ही रहता है। हस्त का अर्थ हो सकता है – जो क्रिया के लिए प्रेरित करे – सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्यां। उपरोक्त दशाएं यदि भौतिक रूप से पूरी कर भी ली जाएं, तब भी इनका आगे आध्यात्मिक अर्थ खोजना पडेगा।

     दशमी तिथि का एक अर्थ होता है – जो दसों दिशाओं में फैला हो। दशमी तिथि को जिन प्राणों की प्रतिष्ठा होती है, उन्हें विश्वेदेव कहा जाता है। समझा जाता है कि यह प्राण ऐसे हैं कि इन्हें कहीं भी रख दिया जाए, यह अपने आपको परिस्थिति के अनुकूल विकसित कर लेंगे। दूसरी ओर, एकादशी के प्राण विशिष्ट प्रकार के हैं। यह ऐसी ही स्थिति है जैसे आज के भौतिक विज्ञान में बोस – आन्स्टीन सांख्यिकी और फर्मी – डिराक सांख्यिकी। दशमी के प्राण अनादिष्ट हैं, स्केलर हैं, एकादशी के प्राण दिष्ट हैं, वैक्टर हैं। दूसरा उदाहरण चिकित्सा विज्ञान में स्टेम कोशिकाओं का दिया जा सकता है जिनसे किसी भी प्रकार की विशिष्ट कोशिका का निर्माण किया जा सकता है।

     मर्त्यलोक में गंगा के प्रवेश के लिए गंगाद्वार या हरिद्वार या मायापुरी स्थल को चुना गया है। यह अन्वेषणीय है कि इस द्वार के क्या गुण होने चाहिएं। यदि यह माना जाए कि हमारी देह में हमारा पदांगुष्ठ द्वार है तो उसकी तुलना वनस्पति जगत की मूल से की जानी चाहिए। हमारा पदांगुष्ठ तो ब्रह्माण्ड की तरंगों को अवशोषित करने में अवरुद्ध रहता है लेकिन वनस्पतियां तो अपनी आवश्यकता का एक बडा भाग मूल से ही प्राप्त करती हैं। वनस्पति मूल का एक कार्य यह रहता है कि जिस द्रव का, जल का वह अवशोषण करती हैं, उसमें से जो हानिकारण तत्त्व हैं, वह मूल में ही अटके रह जाते हैं। पशु जगत में मूल का स्थान मुख ने ले लिया है। पशु ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का, गंगा का अवशोषण मुख द्वारा करते हैं। मुख की यह विशेषता है कि वह भोजन के हानिकारक तत्त्वों को यथाशक्ति निष्क्रिय करने का प्रयत्न करता है। पशुजगत भले ही ऊर्जा का अवशोषण मूल से न करता हो, लेकिन जठर में पाचन के पश्चात आगे शोधन का कार्य पादमूल से आरंभ होता है। हमारे पद जो रस शोधन करके देते हैं, वह देह के ऊपर के भागों को प्राप्त होता है, उन भागों से अन्त में वह सिर को प्राप्त होता है। यह अन्वेषणीय है कि भौतिक स्तर पर जिस द्वार – हरिद्वार की प्रतिष्ठा की गई है, वह शोधन का कार्य किस प्रकार करता है। हरिद्वार की प्रतिष्ठा में एक कार्य तो यह किया गया है कि वहां चार दिशाओं[m1]  में विशिष्ट लक्षणों की प्रतिष्ठा कर दी गई है। पूर्व दिशा में त्रिपथगा गंगा, दक्षिण दिशा में कनखल में दक्ष के यज्ञ का भंग करने वाले रुद्र देवता, पश्चिम दिशा में कोटितीर्थ तथा उत्तर दिशा में सप्तगंगा(सप्तर्षि आश्रम) की   प्रतिष्ठा कर दी गई है।

 

नारद पुराण 2.43 में ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाए जाने वाले गंगा दशहरा के विषय में 10 पापों को गिनाया गया है और इन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है – कायिक, वाचिक और मानसिक। 3 कायिक पाप हैं जैसे बिना दिए को ग्रहण कर लेना, अवैधानिक हिंसा व परदार की सेवा। चार वाचिक पाप हैं जैसे परुष या कठोर वचन, अनृत वाचन, पैशुन्य, असम्बद्ध प्रलाप। तीन मानसिक पाप हैं जैसे परद्रव्य में ध्यान जाना, मन से अनिष्ट सोचना, वितथ का अभिनिवेश। ठीक यही कथन स्कन्द पुराण 4.1.27 में भी उपलब्ध है। लेकिन नारद व स्कन्द पुराणों का यह कथन पूर्ण नहीं है। पद्म पुराण 5.85 के कथन से इन कथनों की पूर्ति हो जाती है। कहा गया है कि ध्यान, धारणा, बुद्धि आदि द्वारा जो वेदों का स्मरण है, यह मानसी भक्ति है जो विष्णु में प्रीति बढाने वाली है। मन्त्रवेद समुच्चार, अविश्रांत विचिंतन, जाप्य व आरण्यक वाचिकी भक्ति कहलाती है। व्रतोपवास, नियम, पंच इन्द्रियों की जय कायिकी भक्ति कहलाती है। कायिकी भक्ति में नृत्य, गीत, बलि, भक्ष्य, भोज्य, अन्नपान आदि के द्वारा की जाने वाली लौकिक भक्ति भी सम्मिलित है। स्पष्ट है कि यदि इन तीन प्रकार की भक्तियों में से एक में भी रस की गंगा बहने लगे तो पाप तो दूर हो ही जाएंगे।  

 

 प्रथम लेखन - 29-3-2015ई. ( चैत्र शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् 2072)

 

ग अग्नि ३४८.४ ( गन्धर्व, विनायक,गीत व गायक हेतु ग के प्रयोग का उल्लेख ) ।

 

गगन योगवासिष्ठ ५.३१.५८( प्रह्लाद द्वारा शिर में गगन की धारणा का उल्लेख )

 

गङ्गा अग्नि ११० ( गङ्गा का संक्षिप्त माहात्म्य ), १५९ ( गङ्गा जल में अस्थि प्रक्षेपण से मृत व्यक्ति के अभ्युदय तथा हित का उल्लेख ),

अग्नि ३२३.३ (गङ्गा मन्त्र के जप द्वारा कर्म सिद्धि का कथन )

ओं नमो भगवति गङ्गे कालि कालि महाकालि महाकालि मांसशोणितभोजने रक्तकृष्णमुखि वशमानय मानुषान् स्वाहा ॥

ओं लक्षं जप्त्वा दशांशेन हुत्वा स्यात्सर्वकर्मकृत् ।३२२.००३

वशं नयति शक्रादीन्मानुषेष्वेषु कथा  ॥३२२.००३

अन्तर्धानकरी विद्या मोहनी जृम्भनी तथा  ।३२२.००४

वशन्नयति शत्रूणां शत्रुबुद्धिप्रमोहिनी  ॥३२२.००४

कामधेनुरियं विद्या सप्तधा परिकीर्तिता  ।३२२.००५

 

 कूर्म  १.३७.३० ( प्रयाग माहात्म्य के अन्तर्गत गङ्गा महिमा का वर्णन ), १.३७.३१ ( गङ्गा के त्रिपथा नाम के हेतु का कथन ), १.३७.३७ ( कृतयुग में नैमिष, त्रेता में पुष्कर, द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गङ्गा की विशिष्टता का उल्लेख ), १.४६ ( विष्णुपाद से नि:सृत गङ्गा के मेरुपर्वतस्थ ब्रह्मपुरी के चारों ओर गिरने पर चार भागों में विभक्त होने का उल्लेख ),

गरुड ३.२२.२८(गङ्गा के १२ लक्षणों से युक्त होने का उल्लेख),

गरुडमहापुराणम् ३.२२

श्रीकृष्ण उवाच।

या लक्ष्मणा पूर्वसर्गे खगेन्द्र पुत्री ह्यभूद्वह्निवेदस्य वेत्तुः।

सुलक्षणैः संयुतत्वाद्यतः सा सुलक्ष्मणेति प्रथिता खगेन्द्र॥३,२२.१॥

यथा लक्ष्मीर्लक्षणैः सा सुपूर्णा यथा हरिर्लक्षणैर्वै सुपूर्णः।

यथा वायुर्लक्षणैः पूर्ण एव यथा गायत्री लक्षणैः सा सुपूर्णा॥३,२२.२॥

यथा रुद्राद्या लक्षणैर्वै प्रपूर्णा रुद्रादिल्लक्ष्मणा चैव पूर्णा।

गुणेनैवं धर्मतः किञ्चिदेव तथानुसंधानाद्व्रियते नाम चापि॥३,२२.३॥

तस्मादाहुर्लक्ष्मणेत्येव सर्वे तल्लक्षणं शृणु चादौ खगेन्द्र।

नारायणे पूर्णगुणे रमेशे द्वात्रिंशत्संख्यानि सुलक्षणानि॥३,२२.४॥

संत्येव पक्षीन्द्र वदाम्यनु क्रमान्मत्तः श्रुत्वा मोक्षमाप्नोति नित्यम्।

यः सप्तपादः षण्णवत्यङ्गुलोङ्गश्चतुर्हस्तः पुरुषस्तीक्ष्णदन्तः॥३,२२.५॥

य एतत्सर्वं मिलितं चैकमेव हरेर्विष्णोर्लक्षणं चाहुरार्याः।

मुखं स्निग्धं वर्तुलं पुष्टिरूपं द्वितीयं तल्लक्षणं चाहुरार्याः॥३,२२.६॥

हनुर्यस्यानुन्नतं चास्ति वीन्द्र तल्लक्षणं प्राहुरार्यास्तृतीयम्।

यद्दन्ता वै तीक्ष्णसूक्ष्माश्च संति तल्लक्षणं चाहुरार्याश्चतुर्थम्॥३,२२.७॥

यस्याधरे रक्तिमा त्वस्ति वीन्द्र तल्लक्षणं पञ्चमं चाहुरार्याः।

यस्य हस्ता अतिरक्ताः खगेन्द्र तल्लक्षणं प्राहुरार्याश्च पष्ठम्॥३,२२.८॥

यस्मिन्नखाः संति रक्ताः सुशोभास्तल्लक्षणं सप्तमं चाहुरार्याः।

यस्मिन्कपोले रक्तिमा त्वस्ति वीन्द्र तल्लक्षणं ह्यष्टमं प्राहुरार्या॥३,२२.९॥

यस्मिन्करे शङ्खचक्रादिरेखा वर्तन्ते तन्नवमं प्राहुरार्याः।

यस्योदरं तन्तुरूपं सुपुष्टं वलित्रयैरङ्कितं सुंदरं च॥३,२२.१०॥

तल्लक्षणं दशमं प्राहुरार्या एकादशं निम्ननाभिं तदाहुः।

ऊरुद्वयं यस्य च मांसलं वै तल्लक्षणं द्वादशं प्राहुरार्याः॥३,२२.११॥

कटिर्हि दीर्घा पृथुलास्ति यस्य त्रयोदशं लक्ष्म तदाहुरार्याः।

यस्यास्ति मुष्को सुपरिष्ठितो वै चतुर्दशं लक्ष्म तदाहुरार्याः॥३,२२.१२॥

समुन्नतं शिश्नमथो हि लक्ष्म यस्यास्ति तत्पञ्चदशं वदन्ति।

सुताम्रकं पादतलं खगेन्द्र तल्लक्षणं षोडशं प्राहुरार्याः॥३,२२.१३॥

निम्नौ च गुल्फौ सप्तदशं तदाहुर्ग्रीवारूपं प्राहुरष्टादशं च।

एकोनविंशं त्वक्षिपद्मं सुरक्तं प्राहुर्बाहुं जानु विंशं तथैव॥३,२२.१४॥

विस्तीर्णोरश्चैकविंशं तदाहुः सिंहास्कन्धं द्व्युत्तरं विंशमाहुः।

त्रयोविंशं सूक्ष्ममास्यं तदाहुश्चतुर्विशं सुप्रसन्ने च दृष्टी॥३,२२.१५॥

ह्रस्वं लिङ्गं मार्दवं चापि वीन्द्र तल्लक्षणं पञ्चविंशं वदन्ति।

समौ च पादौ कटिजानु चोरू षड्विंशमाहुश्च समे च जङ्घे॥३,२२.१६॥

समानहस्तौ समकर्णौ मिलित्वा द्वात्रिंशत्कं लक्षणं प्राहुरार्याः।

द्वात्रिंशत्कं लक्षणं वै मुकुन्दे द्वात्रिंशत्कं लक्षणं वै रमायाम्॥३,२२.१७॥

द्वात्रिंशत्कं लक्षणं ब्रह्मणोपि तद्भारत्याः प्रवदन्त्येव सत्यम्।

तथा च शङ्का सममेव चक्रिणेत्येवं सदामा कुरु निर्णयं ब्रुवे॥३,२२.१८॥

एकस्य वै लक्षणस्यापि विष्णोर्लक्ष्मीरन्तं नैव सम्यक्प्रपेदे।

अतोनन्तैर्लक्षणैः संयुतं च हरिं चाहुर्लक्षणज्ञाः सदैव॥३,२२.१९॥

जानाति लक्ष्मीर्लक्षणं वायुरूपे स्वापेक्षया ह्यतिरिक्तं खगेन्द्र।

स्वलक्षणापेक्षया भारती तु शतैर्गुणैरधिका वेधसोपि॥३,२२.२०॥

खगेन्द्र तस्माल्लक्षणे साम्यचित्तं विश्वादीनां सर्वदा मा कुरुष्व।

अष्टाविंशतिं प्राहू रुद्रादिकानां भ्रूनेत्रयोर्लक्षणेनैव हीनाः॥३,२२.२१॥

अलक्षणं मन्यते यद्धि तस्य दुर्लक्षणं नैव तच्चिन्तनीयम्।

अष्टाविंशतिं लक्षणं वै हरस्य न भारतीवच्चिन्तनीयं खगेन्द्र॥३,२२.२२॥

अतो हरः क्रोधरूपी सदैव तयोरभावात्सत्यमुक्तं तथैतत्।

अतो द्वयं नास्ति रुद्रे खगेन्द्र शिश्नोदरे किञ्चिदाधिक्यमस्ति॥३,२२.२३॥

सप्ताधिकैर्विंशतिलक्षणैस्तु समायुताः स्वस्त्रियो लक्ष्मणाद्याः।

षड्वविंशत्या लक्षणैश्चापि युक्ता वारुण्याद्या पञ्चविंशैश्च चन्द्रः॥३,२२.२४॥

अर्थश्चतुर्विंशतिभिश्चैव युक्तो नासावायोर्द्व्यधिका विंशतिश्च लक्षणैश्चैकविंशत्या शची युक्ता न संशयः॥३,२२.२५॥

प्रवाहा विंशकैर्युक्ता यम एकोनविंशकैः।

पाश्यष्टादशभिर्युक्तो दशसप्तयुतोऽनलः॥३,२२.२६॥

वैवस्वतः षोडशभिमित्रः पञ्चदशैर्युतः।

चतुर्विंशैस्तु धनपः पावकस्तु त्रयोदशैः॥३,२२.२७॥

गङ्गा द्वादशभिर्युक्ता बुध एकादशैर्युतः।

शनिस्तु दशसंख्याकैः पुष्करो नवभिर्युतः॥३,२२.२८॥

अथ षोडशसाहस्रं भार्यारतु मम वल्लभाः।

अष्टभिश्चैव संयुक्ताः सप्तभिः पितरस्तथा॥३,२२.२९॥

षड्भिश्च देवगन्धर्वाः पञ्चभिस्तदनन्तराः।

चतुर्भिः क्षितिपाः प्रोक्तास्त्रिभिरन्ये च संयुताः॥३,२२.३०॥

उदरे किञ्चिदाधिक्ये ह्रस्वे पादे च कर्णयोः।

शिखाधिक्यं विना विप्र भार्यायां च शिवस्य च॥३,२२.३१॥

लक्ष्मणायां पञ्च दोषाः शिरोगुल्फादिकं विना।

नाभ्याधिक्ये सहैवाष्टौ दोषाः संत्यतिवाहिके॥३,२२.३२॥

जङ्घाधिक्ये सहैवाष्टौ दोषाः शच्याः सदा स्मृताः।

एवमेव हि दोषाश्चाप्यूहनीयाः खगेश्वर॥३,२२.३३॥

दुर्लक्षणैः सदा वीन्द्र संश्रुतैस्तत्त्वविद्भवेत्।

महोदरो लंबनाभिरीषामात्रोग्रदंष्ट्रकः॥३,२२.३४॥

अन्धकूपगभीराक्षो लंबकर्णौष्ठनासिकः।

लंबगुल्फो वक्रपादः कुनखी श्यावदन्तकः॥३,२२.३५॥

दीर्घजङ्घो दीर्घशिश्रस्त्वेकाण्डश्चैकनासिकः।

रक्तश्मश्रू रक्तरोमा वक्रास्यः संप्रकीर्तितः॥३,२२.३६॥

दग्धपर्वतसंकाशो रक्तपृष्ठः कलिः स्मृतः।

अलोमांसोऽलोमशिरा रक्तगण्डकपोलकः॥३,२२.३७॥

ललाटे पाण्डुता नित्यं वामस्कन्धे करे खग।

क्रूरदृष्टिर्दृष्टिपादस्तथा वै घर्घरस्वरः॥३,२२.३८॥

अत्याशी चातिपानश्च स्तनौ शुष्कफलोपमौ।

ऊरौ नवाञ्जिकारोमः तथा पृष्ठे च मस्तके॥३,२२.३९॥

ललाटे त्रीणि दीर्घे तु समे द्वौ संप्रकीर्तितौ।

सर्पाकारस्तु यो मत्स्यस्तस्य शिश्ने प्रकीर्तितः॥३,२२.४०॥

पादत्राणोपमो मत्स्यो रसनाग्रे प्रकीर्तितः।

शिश्नाकारश्च यो मत्स्यो गुदे तस्य प्रशस्यते॥३,२२.४१॥

वृश्चिकाकारमत्स्यस्तु पदोस्तस्य प्रशस्यते।

श्वाकारश्चापि मत्स्यो वै मुखे तस्य प्रकीर्तितः॥३,२२.४२॥

हस्ते तु बहुरेखाः स्युर्लोम नासापुटे स्मृतम्।

अतिदीर्घं तु चाङ्गुष्ठं कनिष्ठं चातिदीर्घकम्॥३,२२.४३॥

दुर्लक्षणं त्वेवमादि कलावस्ति ह्यनेकशः।

सुलक्षणान्यनेकानि मयि संति खगेश्वर॥३,२२.४४॥

द्वात्रिंशल्लक्षणं विष्णोर्ब्रह्माद्यापेक्षयैव तत्।

सहाभिप्राय गर्भेण ब्रह्मणोक्तं तव प्रभो॥३,२२.४५॥

ब्रह्मोक्तस्य मयोक्तस्य विरोधो नास्ति सत्तम।

मयोक्तस्यैव स व्यासः कंबुग्रीवः प्रदर्श्यते॥३,२२.४६॥

रक्ताधरं रक्त तालु चैकीकृत्य मयोदितम्।

अतो विरोधो नास्त्येव तथा ज्ञानात्प्रतीयते॥३,२२.४७॥

सप्ताधिकैर्विंशतिलक्षणैस्तु समायुता याः स्त्रियो लक्ष्मणाद्याः॥३,२२.४८॥

भगे नेत्रे च हस्ते च स्तने कुक्षौ तथैव च।

भारत्यपेक्षया पञ्चभिर्न्यूना त्वस्ति लक्षणैः॥३,२२.४९॥

न रुद्रवन्न चान्यानि लक्षणानि खगेश्वर।

षड्विंशत्या लक्षणैश्चापि युक्ता वारुण्याः षड्लक्षणैश्चैव हीना॥३,२२.५०॥

कर्णे कुक्षौ नासिकाकेशपाशे गुल्फे भगे किञ्चिदाधिक्यमस्ति।

इन्द्रो युक्तः पञ्चविंशत्या खगेन्द्र सदा हीनो लक्षणैः सप्तसंख्यैः॥३,२२.५१॥

हस्ते पादे उदरे कर्णयोश्च शिश्ने गुल्फे त्वधरोष्ठेधिकं च।

चतुर्विंशत्या लक्षणैश्चापि युक्तो नास्तिक्यवायुस्तद्वदेवाष्टभिश्च॥३,२२.५२॥

नाभ्यां गुल्फे हनुरंघ्र्योश्च स्कन्धे द्विजे नेत्रे त्वधरोष्ठेधिकं च।

त्रयोविंशत्या लक्षणैश्चापि युक्ता शची तथा नवदोषैश्च युक्ता॥३,२२.५३॥

भगे केशे ह्यधरोष्ठे च कर्णे जङ्घे गण्डे वक्षसि गुल्फयोश्च।

तथोत्तरोष्ठे किञ्चिदाधिक्यमस्ति एवं विजानीहि खगेन्द्रसत्तम॥३,२२.५४॥

द्वाविंशत्या लक्षणैः संयुतस्तु दशभिर्दोषैः प्रवहो नाम वायुः।

तथाङ्गुष्ठे किञ्चिदाधिक्यमस्ति विंशत्येकादशभिर्दोषतोर्कः॥३,२२.५५॥

तद्विंशत्या लक्षणैः संयुतस्तु तदा दोषैर्द्वादशभिश्च युक्तः।

एकोनविंशत्या लक्षणैश्चापि युक्तस्त्रयोदशभिस्तदभावैर्युतोग्निः॥३,२२.५६॥

अष्टादशभिर्लक्षणैः संयुतस्तु वैवस्वतस्तदभावैश्चतुर्दशभिः।

मित्रस्तु सप्तदशभिर्लक्षणैः संयुतः खग॥३,२२.५७॥

सदोषैः पञ्चदशभिः संयुक्तो नात्र संशयः।

तैश्च षोडशभिर्युक्तो धनपो नात्र संशयः॥३,२२.५८॥

तदभावैः षोडशभिः संयुक्तः संप्रकीर्तितः।

तैः पञ्चदशभिश्चैव युक्तोग्रे ज्येष्ठपुत्रकः॥३,२२.५९॥

तैः सप्तदशभिर्दोषैः संयुक्तो नात्र संशयः।

तैश्चतुर्दशभिश्चैव गङ्गा संपरिकीर्तिता॥३,२२.६०॥

तथाष्टादशभिर्दोषैः संयुता नात्र संशयः।

तैस्त्रयोदशभिश्चैव संयुतो बुध एव तु॥३,२२.६१॥

दोषैरेकोनविंशत्या संयुतो नात्र संशयः।

शनिर्विंशतिदोषेण युतो द्वादशलक्षणैः॥३,२२.६२॥

लक्षणैश्चैकादशभिः पुष्करः परिकीर्तितः।

एकविंशतिसंख्याकैरसद्भावैः प्रकीर्तितः॥३,२२.६३॥

दशभिर्लक्षणैर्युक्ताः पितरो ये चिराः खग।

त्रयोविंशतिदोषैश्च संयुता नात्र संशयः॥३,२२.६४॥

अष्टभिर्लक्षणैर्युक्ता देवगन्धर्वसत्तमाः।

दोषैश्चतुर्विंशतिभिः संयुक्ताः परिकीर्तिताः॥३,२२.६५॥

सप्तलक्षणसंयुक्ता गन्धर्वा मानुषात्मकाः।

यैस्तु पञ्चविंशतिभिर्दोषैः संयुक्ताः प्रकीर्तिताः॥३,२२.६६॥

षद्गुणैः क्षितिपा युक्ता षड्विंशत्या च दोषतः।

तदन्ये पञ्चभिर्युक्ताश्चतुर्भिः केचिदेव च॥३,२२.६७॥

त्रिभिः केच्चित्ततो हीना न संति खगसत्तम।

यस्मिन्नरे क्षितिपे वा खगेन्द्र आधिक्यं यद्दृश्यते लक्षणस्य॥३,२२.६८॥

न ते नरा नैव ते वै क्षितीशाः सर्वे नैव ह्युत्तमाः सर्वदैव।

ये देवा ये च दैत्याश्च सर्वेप्येवं खगाधिप॥३,२२.६९॥

लक्षणालक्षणैश्चैव क्रमेणोक्ता न संशयः।

लक्षणैः सप्तविंशत्याऽलक्षणैः संयुताः खग॥३,२२.७०॥

अतः सलक्षणा ज्ञेया द्वात्रिंशल्लक्षणैर्न हि।

 

गरुड ३.२९.३(वरुण-भार्या, निरुक्ति, हरिपद से निःसृत गंगा की प्रशंसा),

श्रीकृष्ण उवाच।

प्रह्लादानन्तरं गङ्गा भार्या वै वरुणस्य च।

प्रह्लादादधमा ज्ञेया महिम्ना वरुणाधिका॥३,२९.३॥

स्वरूपादधमा ज्ञेया नात्र कार्या विचारणा।

ज्ञानस्वरूपदं विष्णुं यमो जानाति सर्वदा॥३,२९.४॥

अतो गङ्गेति सा ज्ञेया सर्वदा लोकपावनी।

भक्त्या विष्णुपदीत्येव कीर्तिता नात्र संशयः॥३,२९.५॥

या पूर्वकाले यज्ञलिङ्गस्य विष्णोः साक्षाद्धरेर्विक्रमतः खगेन्द्र।

वामस्य पादस्य नखाग्रतश्च निर्भिद्य चोर्ध्वाण्डकटाहखण्डम्॥३,२९.६॥

तदुदरमतिवेगात्सम्प्रविश्यावहन्तीं जगदघततिहन्तुः पादकिञ्जल्कशुद्धाम्।

निखिलमलनिहन्त्रीं दर्शनात्स्पर्शनाच्च सकृदवगहनाद्वा भक्तिदां विष्णुपादे।

शशिकरवरगौरां मीननेत्रां सुपूज्यां स्मरति हरिपदोत्थां मोक्षमेति क्रमेण॥३,२९.७॥

इन्द्रोपि वायुकरमर्दितवायुकूटबिन्दुं च प्राश्य शिरसि ह्यसहिष्णुमानः।

भागीरथी हरिपदाङ्कमिति स्म नित्यं जानन्महापरमभागवतप्रधानः।

भक्त्या च खिन्नहृदयः परमादरेण धृत्वा स्वमूर्ध्नि परमो ह्यशिवः शिवोऽभूत्॥३,२९.८॥

 

गरुड ३.२९.९(भागीरथी गङ्गा के ४ रूपों का कथन),

भागीरथ्याश्च चत्वारि रूपाण्यासन्खगेश्वर।

महाभिषग्जनेन्द्रस्य भार्या तु ह्यभिषेचनी॥३,२९.९॥

द्वितीयेनैव रूपेण गङ्गा भार्या च शन्तनोः।

सुषेणा वै सुषेणस्य भार्या सा वानरी स्मृता॥३,२९.१०॥

मण्डूकभार्या गङ्गा तु सैव मण्डूकिनी स्मृता।

एवं चत्वारी रूपाणि गङ्गाया इति कीर्तितमम्॥३,२९.११॥

आदित्याच्चैव गङ्गातः पर्जन्यः समुदाहृतः।

प्रवर्षति सुवैराग्यं ह्यतः पर्जन्यनामकम्॥३,२९.१२॥

 

 

 

गर्ग १.३.३८ ( श्री भगवान के वसुदेव व देवकी के पुत्र रूप में अवतार ग्रहण करने पर गङ्गा / जाह्नवी के मित्रविन्दा नाम धारण का उल्लेख ), २.२०.६ ( गङ्गा द्वारा राधा को मञ्जीर नामक दिव्य भूषण अर्पित करने का उल्लेख ), २.२०.२७ (कृष्ण द्वारा भूमि पर वेत्र ताडन से वेत्र गङ्गा की उत्पत्ति तथा वेत्रगङ्गा की महिमा का उल्लेख ),

देवीभागवत २.३.१८ ( ब्रह्मसदन में आसीन राजा महाभिष व गङ्गा महानदी के परस्पर काममोहित होने पर ब्रह्मा द्वारा शाप दान का उल्लेख ),

देवीभागवत २.४ ( ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त शाप के वशीभूत होकर महाभिष का राजा शन्तनु के रूप में तथा गङ्गा नदी का मानुषी रूप में जन्म लेना, शन्तनु व गङ्गा का विवाह, वसुओं के शाप मोक्षण हेतु गङ्गा द्वारा अपने वसु रूप सात पुत्रों का गङ्गा जल में प्रक्षेपण, अष्टम पुत्र को गाङ्गेय नाम से शन्तनु को प्रदान करने का वृत्तान्त ),

 

ऋषय ऊचुः ।। ।। उत्पत्तिस्तु त्वया प्रोक्ता व्यासस्यामिततेजसः ।। सत्यवत्यास्तथा सूत विस्तरेण त्वयाऽनघ ।। १ ।। तथाऽप्येकस्तु संदेहश्चित्तेऽस्माकं सुसंस्थितः ।। न निवर्तति धर्मज्ञ कथितेन त्वयाऽनघ ।। २ ।। माता व्यासस्य या प्रोक्ता नाम्ना सत्यवती शुभा ।। सा कथं नृपतिं प्राप्ता शंतनुं धर्मवित्तमम् ।।३।। निषादपुत्रीं स कथं वृतवान्नृपतिः स्वयम् ।। धर्मिष्ठः पौरवो राजा कुलहीनामसंवृत्ताम् ।। ४ ।। शंतनोः प्रथमा पत्नी का ह्यभूत्कथयाधुना ।। भीष्मः पुत्रोऽथ मेधावी वसोरंशः कथं पुनः ।। ५ ।। त्वया प्रोक्तं पुरा सूत राजा चित्रांगदः कृतः ।। सत्यवत्याः सुतो वीरो भीष्मेणामित तेजसा ।। ६ ।। चित्रांगदे हते वीरे कृतस्तदनुजस्तथा ।। विचित्रवीर्यनामाऽसौ सत्यवत्याः सुतो नृपः ।। ७ ।। ज्येष्ठे भीष्मे स्थिते पूर्वे  धमिष्ठं रूपवत्यपि ।। कृतवान्स कथं राज्यं स्थापितस्तेन जानता ।। ८ ।। मृते विचित्रवीर्ये तु सत्यवत्यतिदुःखिता ।। वधूभ्यां गोलकौ पुत्रौ जनयामास सा कथम् ।। ९ ।। कथं राज्यं न भीष्माय ददौ सा वरवर्णिनी ।। न कृतस्तु कथं तेन वीरेण दारसंग्रहः ।। 2.3.१० ।। अधर्मस्तु कृतः कस्माद्व्यासेनामिततेजसा ।। ज्येष्ठेन भ्रातृभार्यायां पुत्रानुत्पादिताविति ।। ११ ।। पुराणकर्ता धर्मात्मा स कथं कृतवान्मुनिः ।। सेवनं परदाराणां भ्रातुश्चैव विशेषतः ।। १२ ।। जुगुप्सितमिदं कर्म स कथं कृतवान्मुनिः ।। शिष्टाचारः कथं सूत वेदानुमितिकारक ।। १३ ।। व्यास शिष्योऽसि मेधाविन्संदेहं छेत्तुमर्हसि ।। श्रोतुकामा वयं सर्वे धर्मक्षेत्रे कृतक्षणाः ।। १४ ।। सूत उवाच ।। इक्ष्वाकुवंशप्रभवो महाभिष इति स्मृतः ।। सत्यवान्धर्मशीलश्च चक्रवर्ती नृपोत्तमः ।। १५ ।। अश्वमेधसहस्रेण वाजपेयशतेन च ।। तोषयामास देवेंद्रं स्वर्गं प्राप महामतिः । ।। १६ ।। एकदा ब्रह्मसदनं गतो राजा महाभिषः ।। सुराः सर्वे समाजग्मुः सेवनार्थं प्रजापतिम् ।। १७ ।। गंगा महानदी तत्र संस्थिता सेवितुं विभुम् ।। तस्या वासः समुद्धूतं मारुतेन तरस्विना ।। १८ ।। अधोमुखाः सुराः सर्वे न विलोक्यैव तां स्थिताः ।। राजा महाभिषस्तां तु निःशंकः समपश्यत ।। १९ ।। साऽपि तं प्रेमसंयुक्तं नृपं ज्ञातवती नदी ।। दृष्ट्वा तौ प्रेमसंयुक्तौ निर्लज्जौ काममोहितौ ।।2.3.२०।। ब्रह्मा चुकोप तौ तूर्णं शशाप च रुषाऽन्वितः ।। मर्त्यलोकेषु भूपाल जन्म प्राप्य पुनर्दिवम् ।। २१ ।। पुण्येन महताऽऽविष्टस्त्वमवाप्स्यसि सर्वथा ।। गंगां तथोक्तवान्ब्रह्मा वीक्ष्य प्रेमवतीं नृपे ।। २२ ।। विमनस्कौ तु तौ तूर्णं निःसृतौ ब्रह्मणोंऽतिकात् ।। स नृपश्चिंतयित्वाऽथ भूलोके धर्मतत्परान् ।। २३ ।। प्रतीपं चिंतयामास पितरं पुरुवंशजम् ।। एतस्मिन्समये चाष्टौ वसवः स्त्रीसमन्विताः ।। २४ ।। वसिष्ठस्याऽऽश्रमं प्राप्ता रममाणा यदृच्छया ।। पृध्वादीनां वसूनां च मध्ये कोऽपि वसूत्तमः ।। २५ ।। द्यौर्नामा तस्य भार्याऽथ नंदिनीं गां ददर्श ह ।। दृष्ट्वा पतिं सा पप्रच्छ कस्येयं धेनुरुत्तमा ।। २६ ।। द्यौस्तामाह वसिष्ठस्य गौरियं शृणु सुंदरि ।। दुग्धमस्याः पिबेद्यस्तु नारी वा पुरषोऽथ वा ।। २७ ।। अयुतायुर्भवेन्यूनं सदैवाऽगतयौवनः ।। तच्छ्रुत्वा सुंदरी प्राह मृत्युलोकेऽस्ति मे सखी ।। २८ ।। उशीनरस्य राजर्षेः पुत्री परमशोभना ।। तस्या हेतोर्महाभाग सवत्सां गां पयस्विनीम्।।२९।। आनयस्वाऽऽश्रमश्रेष्ठं नंदिनीं कामदां शुभाम् ।। यावदस्याः पयः पीत्वा सखी मम सदैव हि ।। 2.3.३० ।। मानुषेषु भवेदेका जरारोगविवर्जिता ।। तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या द्यौर्जहार च नंदिनीम् ।। ३१ ।। अवमन्य मुनिं दांतं पृथ्वाद्यैः सहितोऽनघः ।। हृतायामथ नंदिन्यां वसिष्ठस्तु महातपाः ।। ३२ ।। आजगामाऽऽश्रमपदं फलान्यादाय सत्वरः ।। नापश्यत यदा धेनुं सवत्सां स्वाश्रमे मुनिः ।। ३३ ।। मृगयामास तेजस्वी गह्वरेषु वनेष्वपि ।। नासादिता यदा धेनुश्चुकोपातिशयं मुनिः ।। ३४ ।। वारुणिश्चापि विज्ञाय ध्यानेन वसुभिर्हृताम् ।। वसुभिर्मे हृता धेनुर्यस्मान्मामवमन्य वै ।। ३५ ।। तस्मात्सर्वे जनिष्यंति मानुषेषु न संशयः ।। एवं शशाप धर्मात्मा वसूंस्तान्वारुणिः स्वयम् ।। ३६ ।। श्रुत्वा विमनसः सर्वे प्रययुर्दुःखिताश्च ते ।। शप्ताः स्म इति जानंत ऋषिं तमुपचक्रमुः ।। ३७ ।। प्रसादयंतस्तमृषिं वसव शरणं गताः ।। मुनिस्तानाह धर्मात्मा वसून्दीनान्पुरः स्थितान् ।। ३८ ।। अनुसंवत्सरं सर्वे शापमोक्षमवाप्स्यथ ।। येनेयं विहृता धेनुर्नंदिनी मम वत्सला ।। ३९ ।। तस्माद्द्यौर्मानुषे देहे दीर्घकालं वसिष्यति ।। ते शप्ताः पथि गच्छतीं गंगां दृष्ट्वा सरिद्वराम्।।2.3.४०।। ऊचुस्तां प्रणताः सर्वे शप्तां चिंतातुरां नदीम् ।। भविष्यामो वयं देवि कथं देवाः सुधाशनाः ।। ४१ ।। मानुषाणां च जठरं चिंतेयं महती हि नः ।। तस्मात्त्वं मानुषी भूत्वा जनयास्मान्सरिद्वरे ।। ४२ ।। शंतनुर्नाम राजर्षिस्तस्य भार्या भवानघे ।। जाताञ्जाताञ्जले चास्मान्निक्षिपस्व सुरापगे ।। ४३ ।। एवं शापविनिर्मोक्षो भविता नात्र संशयः ।। तथेत्युक्ताश्च ते सर्वे जग्मुर्लोकं स्वकं पुनः ।। ४४ ।। गंगाऽपि निर्गता देवी चिंत्यमाना पुनः पुनः ।। महाभिषो नृपो जातः प्रतीपस्य सुतस्तदा ।। ४५ ।। शंतनुर्नाम राजर्षिर्धर्मात्मा सत्यसंगरः ।। प्रतीपस्तु स्तुतिं चक्रे सूर्यस्यामिततेजसः ।। ४६ ।। तदा च सलिलात्तस्मान्निःसृता वरवर्णिनी ।। दक्षिणं शालसंकाशमूरुं भेजे शुभानना ।। ४७ ।। अंके स्थितां स्त्रियं चाह मापृष्ट्वा किं वरानने ।। ममोरावास्थिताऽसि त्वं किमर्थं दक्षिणे शुभे ।। ४८ ।। सा तमाह वरारोहा यदर्थं राजसत्तम ।। स्थिताऽस्म्यंके कुरुश्रेष्ठ कामयानां भजस्व माम् ।। ४९ ।। तामवोचदथो राजा रूपयौवनशालिनीम् ।। नाहं परस्त्रियं कामाद्गच्छेयं वरवर्णिनीम् ।। 2.3.५० ।। स्थिता दक्षिणमूरुं मे त्वमाश्लिष्य च भामिनि ।। अपत्यानां स्नुषाणां च स्थानं विद्धि शुचिस्मिते ।। ५१ ।। स्नुषा मे भव कल्याणि जाते पुत्रेऽतिवाञ्छिते ।। भविष्यति च मे पुत्रस्तव पुण्यान्न संशयः ।। ५२ ।। तथेत्युक्ता गता सा वै कामिनी दिव्य दर्शना ।। राजा चापि गृहं प्राप्तश्चिंतयंस्तां स्त्रियं पुनः ।। ५३ ।। ततः कालेन कियता जाते पुत्रे वयस्विनि ।। वनं जिगमिषू राजा पुत्रं वृत्तांतमूचिवान् ।। ५४ ।। वृत्तांतं कथयित्वा तु पुनरूचे निजं सुतम् ।। यदि प्रयाति सा बाला त्वां वने चारुहासिनी ।।५५।। कामयाना वरारोहा ता भजेथा मनोरमाम् ।। न प्रष्टव्या त्वया काऽसि मन्नियोगान्नराधिप ।। ५६ ।। धर्मपत्नीं च तां कृत्वा भविता त्वं सुखी किल ।। सूत उवाच ।। एवं संदिश्य तं पुत्रं भूपतिः प्रीतमानसः ।। ५७ ।। दत्त्वा राज्यश्रियं सर्वां वनं राजा विवेश ह ।। तत्रापि च तपस्तप्त्वा समाराध्य परांबिकाम् ।। ५८ ।। जगाम स्वर्गं राजाऽसौ देहं त्यक्त्वा स्वतेजसा ।। राज्यं प्राप महातेजाः शंतनुः सार्वभौमिकम् ।। ५९ ।। प्रजां वै पालयामास धर्मदंडो महीपतिः ।। 2.3.६० ।। इति श्रीदेवीभागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे तृतीयोऽध्यायः ।।३।। सूत उवाच ।। प्रतीपेऽथ दिवं याते शंतनुः सत्यविक्रमः ।। बभूव मृगयाशीलो निघ्नन्व्याघ्रान्मृगान्नृपः ।। १ ।। स कदाचिद्वने घोरे गंगातीरे चरन्नृपः ।। ददर्श मृगशावाक्षीं सुंदरीं चारुभूषणाम् ।। २ ।। दृष्ट्वा तां नृपतिर्मग्नः पित्रोक्तेयं वरानना ।। रूपयौवनसंपन्ना साक्षाल्लक्ष्मीरिवापरा ।। ३ ।। पिबन्मुखांबुजं तस्या न तृप्तिमग्मन्नृपः ।। हृष्टरोमाऽभवत्तत्र व्याप्तचित्त इवानघ ।। ४ ।। महाभिषं साऽपि मत्वा प्रेमयुक्ता बभूव ह ।। किंचिन्मंदस्मितं कृत्वा तस्थावग्रे नृपस्य च ।।५।। वीक्ष्य तामसितापांगीं राजा प्रीतमना भृशम् ।। उवाच मधुरं वाक्यं सांत्वयञ्छ्लक्ष्णया गिरा ।। ६ ।। देवी वा त्वं च वामोरु मानुषी वा वरानने ।। गंधर्वी वाऽथ यक्षी वा नागकन्याऽप्सराऽपि वा ।। ७ ।। याऽसि काऽसि वरारोहे भार्या मे भव सुंदरि ।। प्रेमयुक्तस्मितैव त्वं धर्मपत्नी भवाद्य मे ।। ८ ।। सूत उवाच ।। राजा तां नाभिजानाति गंगेयमिति निश्चितम् ।। महाभिषं समुत्पन्नं नृपं जानाति जाह्नवी ।। ९ ।। पूर्वप्रेमसमायोगाच्छ्रुत्वा वाचं नृपस्य ताम् ।। उवाच नारी राजानं स्मितपूर्वमिदं वचः ।। 2.4.१० ।। स्त्र्युवाच ।। जानामि त्वां नृपश्रेष्ठ प्रतीपतनयं शुभम् ।। का न वांछति चार्वंगी भावित्वात्सदृशं पतिम् ।। ११ ।। वाग्बंधेन नृपश्रेष्ठ चरिष्यामि पतिं किल ।। शृणु मे समयं राजन्वृणोमि त्वां नृपोत्तम ।। १२ ।। यच्च कुर्यामहं कार्यं शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।। न निषेध्या त्वया राजन्न वक्तव्यं तथाऽप्रियम् ।।१३।। यदा च त्वं नृपश्रेष्ठ न करिष्यसि मे वचः ।। तदा मुक्त्वा गमिष्यामि यथेष्टं देश मारिष ।।१४।। स्मृत्वा जन्म वसूनां सा प्रार्थनापूर्वकं हृदि ।। महाभिषस्य प्रेमार्थं विचिंत्यैव च जाह्नवी ।। १५ ।। तथेत्युक्ताऽथ सा देवी चकार नृपतिं पतिम् ।। एवं वृता नृपेणाथ गंगा मानुषरूपिणी ।। १६ ।। नृपस्य मंदिरं प्राप्ता सुभगा वरवर्णिनी ।। नृपतिस्तां समासाद्य चिक्रीडोपवने शुभे ।। १७ ।। साऽपि तं रमयामास भावज्ञा वै वरांगना ।। न बुबोध नृपः क्रीडन्गतान्वर्षगणानथ ।। १८ ।। स तया मृगशावाक्ष्या शच्या शतक्रतुर्यथा ।। सा सर्वगुणसंपन्न सोऽपि कामविचक्षणः ।। १९ ।। रेमाते मंदिरे दिव्ये रमाना रायणाविव ।। एवं गच्छति काले सा दधार नृपतेस्तदा ।। 2.4.२० ।। गर्भं गंगा वसुं पुत्रं सुषुवे चारुलोचना ।। जातमात्रं सुतं वारि चिक्षेपैवं द्वितीयके ।। २१ ।। तृतीयेऽथ चतुर्थेऽथ पंचमे षष्ठ एव च ।। सप्तमे वा हते पुत्रे राजा चिंतापरोऽभवत् ।। २२ ।। किं करोम्यद्य वंशो मे कथं स्यात्सुस्थिरो भुवि ।। सप्त पुत्रा हता नूनमनया पापरूपया ।।२३।। निवारयामि यदि मां त्यक्त्वा यास्यति सर्वथा ।। अष्टमोऽयं सुसंप्राप्तो गर्भो मे मनसीप्सितः ।।२४।। न वारयामि चेदद्य सर्वथेयं जले क्षिपेत् ।। भविता वा न वा चाग्रे संशयोऽयं ममाद्भुतः ।।२५।। संभवेऽपि च दुष्टेयं रक्षयेद्वा न रक्षयेत् ।। एवं संशयिते कार्ये किं कर्तव्यं मयाऽधुना ।। २६ ।। वंशस्य रक्षणार्थं हि यत्नः कार्यः परो मया ।। ततः काले यदा जातः पुत्रोऽयमष्टमो वसुः ।। २७ ।। मुनेर्येन हृता धेनुर्नंदिनी स्त्रीजितेन हि ।। तं दृष्ट्वा नृपतिः पुत्रं तामुवाच पतन्पदे ।।२८।। दासोऽस्मि तव तन्वंगि प्रार्थयामि शुचिस्मिते ।। पुत्रमेकं पुषाम्यद्य देहि जीवंतमद्य मे ।। २९ ।। हिंसिताः सप्त पुत्रा मे करभोरु त्वया शुभाः ।। अष्टमं रक्ष सुश्रोणि पतामि तव पादयोः।।2.4.३०।।  अन्यद्वै प्रार्थितं तेऽद्य ददाम्यथ च दुर्लभम् ।। वंशो मे रक्षणीयोऽद्य त्वया परमशोभने ।। ३१ ।। अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे वेदविदो विदुः ।। तस्मादद्य वरारोहे प्रार्थयाम्यष्टमं सुतम् ।। ३२ ।। इत्युक्ताऽपि गृहीत्वा तं यदा गंतुं समुत्सुका ।। तदाऽपि कुपितो राजा तामुवाचातिदुःखितः ।।३३।। पापिष्ठे किं करोम्यद्य निरयान्न बिभेषि किम् ।। काऽसि पापकराणां त्वं पुत्री पापरता सदा ।। ३४ ।। यथेच्छं गच्छ वा तिष्ठ पुत्रो मे स्थीयतामिह ।। किं करोमि त्वया पापे वंशांतकरयाऽनया ।। ३५ ।। एवं वदति भूपाले सा गृहीत्वा सुतं शिशुम् ।। गच्छंती वचनं कोपसंयुक्ता तमुवाच ह ।। ३६ ।। पुत्रकामा सुतं त्वेनं पालयामि वने गता ।। समयो मे गमिष्यामि वचनं ह्यन्यथा कृतम् ।। ३७ ।। गगां मां वै विजानीहि देवकार्यार्थमागताम् ।। वसवस्तु पुरा शप्ता वसिष्ठेन महात्मना ।। ३८ ।। व्रजंतु मानुषी योनिं स्थितां चिंतातुरास्तु माम् ।। दृष्ट्वेदं प्रार्थयामासुर्जननी नो भवानघ ।।३९।। तेभ्यो दत्त्वा वरं जाता पत्नी ते नृपसत्तम ।। देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थ जानीहि संभवो मम ।। 2.4.४० ।। सप्त ते वसवः पुत्रा मुक्ताः शापादृषेस्तु ते ।। कियंतं कालमेकोऽयं तव पुत्रो भविष्यति ।।४१।। गंगादत्तमिमं पुत्रं गृहाण शंतनो स्वयम् ।। वसु देवं विदित्वैनं सुखं भुंक्ष्व सुतोद्भवम् ।।४२।। गांगेयोऽयं महाभाग भविष्यति बलाधिकः ।। अद्य तत्र नयाम्येनं यत्र त्व वै मया वृतः ।। ४३ ।। दास्यामि यौवनप्राप्तं पालयित्वा महीपते ।। न मातृरहितः पुत्रो जीवेन्न च सुखी भवेत् ।। ४४ ।। इत्युक्ताऽन्तर्दधे गंगा तं गृहीत्वा च बालकम् ।। राजा चातीव दुःखार्तः संस्थितो निजमंदिरे ।। ४५ ।। भार्याविरहजं दुःखं तथा पुत्रस्य चाद्भुतम् ।। सर्वदा चिंतयन्नास्ते राज्यं कुर्वन्महीपतिः ।। ४६ ।। एवं गच्छति कालेऽथ नृपतिर्मृगयां गतः ।। निघ्नन्मृगगणान्बाणैर्महिषान्सूकरानपि ।। ४७ ।। गंगातीरमनुप्राप्तः स राजा शंतनुस्तदा ।। नदीं स्तोकजलां दृष्ट्वा विस्मितः स महीपतिः ।। ।। ४८ ।। तत्रापश्यत्कुमारं तं मुंचंतं विशिखान्बहून् ।। आकृष्य च महाचापं क्रीडंतं सरितस्तटे ।। ४९ ।। तं वीक्ष्य विस्मितो राजा न स्म जानाति किंचन ।। नोपलेभे स्मृतिं भूपः पुत्रोऽयं मम वा न वा ।। 2.4.५० ।। दृष्ट्वाऽप्यमानुषं कर्म बाणेषु लघुहस्तताम् ।। विद्यां वाऽप्रतिमां रूपं तस्य वै स्मरसन्निभम् ।। ५१ ।। पप्रच्छ विस्मितो राजा कस्य पुत्रोऽसि चानघ ।। नोवाच किंचिद्वीरोऽसौ मुंचञ्छिलीमुखानथ ।। ५२ ।। अंतर्धानं गतः सोऽथ राजा चिंतातुरोऽभवत् ।। कोऽयं मम सुतो बालः किं करोमि व्रजामि कम् ।। ५३ ।। गंगां तुष्टाव भूपालः स्थितस्तत्र समाहितः ।। दर्शनं सा ददौ चाथ चारुरूपा यथा पुरा ।। ५४ ।। दृष्ट्वा तां चारुसर्वांगीं बभाषे नृपतिः स्वयम् ।। कोऽयं गंगे गतो बालो मम त्वं दर्शयाधुना ।। ५५ ।। गगोवाच ।। पुत्रोऽयं तव राजेन्द्र रक्षितश्चाष्टमो वसुः ।। ददामि तव हस्ते तु गांगेयोऽयं महातपाः ।। ५६ ।। कीर्तिकर्ता कुलस्यास्य भविता तव सुव्रतः ।। पाठितस्त्वखिलान्वेदान्धनुर्वेदं च शाश्वतम् ।। ५७ ।। वसिष्ठस्याश्रमे दिव्ये संस्थितोऽयं सुतस्तव।। सर्वविद्याविधानज्ञः सर्वार्थकुशलः शुचिः ।। ५८ ।। यद्वेद जामदग्न्योऽसौ तद्वेदायं सुतस्तव ।। गृहाण गच्छ राजेंद्र सुखी भव नराधिप ।। ५९ ।। इत्युक्वांऽतर्दधे गंगा दत्त्वा पुत्रं नृपाय वै ।। नृपतिस्तु मुदा युक्तो बभूवातिसुखान्वितः ।। 2.4.६० ।। समालिंग्य सुतं राजा समाघ्राय च मस्तकम् ।। समारोप्य रथे पुत्रं स्वपुरं स प्रचक्रमे ।।६१।। गत्वा गजाह्वयं राजा चकारोत्सवमुत्तमम् ।। दैवज्ञं च समाहूय पप्रच्छ च शुभं दिनम् ।। ६२ ।। समाहृत्य प्रजाः सर्वाः सचिवान्सर्वशः शुभान् ।। यौवराज्येऽथ गांगेयं स्थापयामास पार्थिवः ।। ६३ ।। कृत्वा तं युवराजानं पुत्रं सर्वगुणान्वितम् ।। सुखमास स धर्मात्मा न सस्मार च जाह्नवीम् ।। ६४ ।। सूत उवाच ।। एतद्वः कथितं सर्वं कारणं वसुशापजम् ।। गांगेयस्य तथोत्पत्तिं जाह्नव्याः संभवं तथा ।। ६५ ।। गंगावतरणं पुण्यं वसूनां संभवं तथा ।। यः शृणोति नरः पापान्मुच्यते नात्र संशयः ।। ६६ ।। पुण्यं पवित्रमाख्यानं कथितं मुनिसत्तमः ।। यथाश्रुतं व्यासात्पुराणं वेदसंमितम् ।। ६७ ।। श्रीमद्भागवतं पुण्यं नानाख्यानकथान्वितम् ।। द्वैपायनमुखोद्भूतं पंच लक्षणसंयुतम् ।। ६८ ।। शृण्वतां सर्वपापघ्नं शुभदं सुखदं तथा ।। इतिहासमिमं पुण्यं कीर्तितं मुनिसत्तमः ।। ६९ ।। इति श्रीदेवीभागवते महापुराणे द्वितीयस्कंधे चतुर्थोऽध्यायः ।। ४ ।।

 

 

दे.भा.  ८.७.१३ ( विष्णु के वाम पाद के अङ्गुष्ठ से निर्मित ब्रह्माण्ड छिद्र से उत्पन्न होकर गङ्गा का स्वर्ग में प्रवेश, ब्रह्मलोक में गङ्गा के चार धाराओं में विभक्त होने का कथन ),

दे.भा. ९.१.६० ( प्रधानांश स्वरूपा गङ्गा देवी का माहात्म्य ),

कथिता पंचमी देवी सा राधा च प्रकीर्तिता ।। ५७।। अंशरूपाः कालरूपा कलांशांशांशसंभवाः ।। प्रकृतेः प्रति विश्वेषु देव्यश्च सर्वयोषितः ।। ५८ ।। परिपूर्णतमाः पंच विद्यादेव्य प्रकीर्तिताः ।। या याः प्रधानांश रूपा वर्णयामि निशामय ।। ५९ ।। प्रधानांशस्वरूपा सा गंगा भुवनपावनी ।। विष्णुविग्रह संभूता द्रवरूपा सनातनी ।। ६० ।। पापिपापेध्मदाहाय ज्वलदग्नि स्वरूपिणी ।। सुखस्पर्शा स्नानपानैर्निर्वाणपददायिनी ।। ६१ ।। गोलोकस्थानप्रस्थानसुखसोपानरूपिणी ।। पवित्ररूपा तीर्थानां सरिता च परावरा ।। ६२ ।। शंभुमौलिजटामेरुसुक्तापंक्तिस्वरूपिणी ।। तपःसंपादिनी सद्यो भारतेषु तपस्विनाम् ।। ६३ ।। चंद्रपद्मक्षीरनिभा शुद्ध सत्त्वस्य रूपिणी ।। निर्मला निरहंकारा साध्वी नारायणप्रिया ।। ६४ ।।

 

दे.भा. ९.११ ( भगीरथ की तपस्या से गङ्गा का भारत में आगमन, गङ्गा स्नान से पापों से मुक्ति, सहस्रों जनों के पापों से मलिन होने पर गङ्गा का कृष्ण से स्व उद्धार का उपाय पूछना, कृष्ण द्वारा उपाय का कथन, भिन्न भिन्न तिथियों में गङ्गा स्नान का फल, कलियुग के ५ सहस्र वर्ष पर्यन्त गङ्गा की भारत में स्थिति का वर्णन ),

नारद उवाच ।। १ ।। श्रुतं पृथिव्युपाख्यानमतीव सुमनोहरम् ।। गंगोपाख्यानमधुना वद वेदविदां वर ।।१।। भारते भारतीशापात्सा जगाम सुरेश्वरी ।। विष्णु स्वरूपा परमा स्वयं विष्णुपदीति च ।।२।। कथं कुत्र युगे केन प्रार्थिता प्रेरिता पुरा ।। तत्क्रमं श्रोतुमिच्छामि पापघ्नं पुण्यदं शुभम्  ।। ३ ।। श्रीनारायण उवाच ।। राजराजेश्वरः श्रीमान्सगरः सूर्यवंशजः ।। तस्य भार्या च वैदर्भी शैब्या च द्वे मनोहरे ।। ४ ।। तत्पत्न्यामेकपुत्रश्च बभूव सुमनोहरः ।। असमंज इति ख्यातः शैब्यायां कुलवर्धनः ।। ५ ।। अन्या चाऽऽराधयामास शंकरं पुत्र कामुकी।। बभूव गर्भस्तस्याश्च हरस्य च वरेण ह ।।६।। गते शताब्दे पूर्णे च मांसपिंडं सुषाव सा ।। तद्दृष्ट्वा सा शिवं ध्यात्वा रुरोदोच्चैः पुनः पुनः ।। ७ ।। शंभुर्ब्राह्मणरूपेण तत्समीपं जगाम ह ।। चकार संविभज्यैतत्पिडं षष्टिसहस्रधा ।। ८ ।। सर्वे बभूवुः पुत्राश्च महाबलपराक्रमाः ।। ग्रीष्ममध्याह्नमार्तंडप्रभामुष्टकलेवराः ।। ९ ।। कपिलस्य मुनेः शापाद्बभूवुर्भस्मसाच्च ते ।। राजा रुरोद तच्छुत्वा जगाम गहने वने ।। 9.11.१० ।। तपश्चकाराऽसमंजो गंगानयनकारणात् ।। लक्षवर्षं तपस्तप्त्वा ममार कालयोगतः ।। ११ ।। अंशुमांस्तस्य तनयो गंगानयनकारणात् ।। तपः कृत्वा लक्षवर्षं ममार कालयोगतः ।। १२ ।। भगीरथस्तस्य पुत्रो महाभागवतः सुधीः ।। वैष्णवो विष्णुभक्तश्च गुणवानजरामरः ।। १३ ।। तपः कृत्वा लक्षवर्षं गंगानयनकारणात् ।। ददर्श कृष्णं ग्रीष्म स्थसूर्यकोटिसमप्रभम् ।। १४ ।। द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरगोपवेषिणम् ।। गोपालसुन्दरीरूपं भक्तानुग्रहरूपिणम् ।। १५।। स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं प्रभुम् ।। ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्नुतम् ।। १६ ।। निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।। ईषद्धास्य प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारणम् ।। १७।। वह्निशुद्धांशुकाधानं रलभूषणभूषितम् ।। तुष्टाव दृष्ट्वा नृपतिः प्रणम्य च पुनः पुनः ।। १८ ।। लीलया च वरं प्राप वांछितं वंशता रणम् ।। कृत्वा च स्तवनं दिव्यं पुलकांकितविग्रहः ।। १९ ।। श्रीभगवानुवाच ।। भारतं भारतीशापाद्गच्छ शीघ्रं सुरेश्वरि ।। सग रस्य सुतान्सर्वान्वृतान्कुरु ममाज्ञया ।।9.11.२०।। त्वत्स्पर्शवायुनाः पूता यास्यंति मम मंदिरम् ।। बिभ्रतो मम मूर्तीश्च दिव्यस्यंदनगामिनः ।। २१ ।। मत्पार्षदा भविष्यंति सर्व कालं निरामयाः ।। समुच्छिद्य कर्मभोगान्कृताञ्जन्मनिजन्मनि ।। २२ ।। कोटिजन्मार्जितं पापं भारते यत्कृतं नृभिः ।। गंगाया वात स्पर्शेन नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् ।। २३ ।। स्पर्शनाद्दर्शनाद्देव्याः पुण्यं दशगुणं ततः ।। मौसलस्नानमात्रेण सामान्यदिवसे नृणाम्।। २४ ।। शतकोटिजन्मपापं नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् ।। यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्या दिकानि च ।। २५ ।। जन्मसंख्यार्जितान्येव कामतोऽपि कृतानि च ।। तानि सर्वाणि नश्यंति मौसलस्नानतो नृणाम् ।। २६ ।। पुण्याहस्नानतः पुण्यं वेदा नैव वदंति च ।। किंचिद्वदंति ते विप्र फलमेव यथागमम् ।। २७ ।। ब्रह्मविष्णुशिवाद्याश्च सर्वं नैव वदंति च ।। सामान्यदिवसस्नानसंकल्पं शृणु सुन्दरि ।। २८ ।। पुण्यं दशगुणं चैव मौसलस्नानतः परम् ।। ततस्त्रिंशद्गुणं पुण्यं रविसंक्रमणे दिने ।।२९।। अमायां चापि तत्तुल्यं द्विगुणं दक्षिणायने ।। ततो दशगुणं पुण्यं नराणामुत्तरायणे ।।9.11.३०।। चतुर्मास्यां पौर्णमास्यामनंतं पुण्यमेव च ।। अक्षयायां तत्तुल्यं चैतद्वेदे निरूपितम् ।। ३१ ।। असंख्यपुण्यफलदमेतेषु स्नानदानकम् ।। सामान्यदिवसस्नानाद्दानाच्छतगुणं फलम् ।। ३२ ।। मन्वतराद्यायां तिथौ युगाद्यायां तथैव च ।। माघस्यासित सप्तम्यां भीष्माष्टम्यां तथैव च ।। ३३ ।। अथाप्यशोकाष्टम्यां च नवम्यां च तथा हरेः ।। ततोऽपि द्विगुणं पुण्यं नंदायां तव दुर्लभम् ।। ३४ ।। दशहरादशम्यां तु युगाद्यादिसमं फलम् ।। नंदासमं च वारुण्यां महर्त्वे(?) चतुर्गुणम् ।। ३५ ।। ततश्चतुर्गुणं पुण्यं द्विमहत्पूर्वके सति ।। पुण्यं कोटिगुणं चैव सामान्यस्नानतोऽपि यत् ।। ३६ ।। चंद्रोपरागसमये सूर्ये दशगुणं ततः ।। पुण्यमर्धोदये काले ततः शतगुणं फलम् ।। ३७ ।। इत्येवमुक्त्वा देवेशो विरराम तयोः पुरः ।। तमुवाच ततो गंगा भक्तिनम्रात्सकंधरा ।। ३८ ।। गंगोवाच ।। यामि चेद्भारतं नाथ भारती शापतः पुराः ।। तवाज्ञया च राजेंद्र तपसा चैव सांप्रतम् ।। ३९ ।। दास्यंति पापिनो मह्यं पापानि यानि कानि च ।। तानि मे केन नश्यंति तमुपायं वद प्रभो ।। 9.11.४० ।। कतिकालं परिमितं स्थितिर्मे तत्र भारते ।। कदा यास्यामि देवेश तद्विष्णोः परमं पदम् ।। ४१ ।। ममान्यद्वाछितं यद्यत्सर्वं जानासि सर्ववित् ।। सर्वान्तरात्मन्सर्वज्ञ तदुपायं वद प्रभो ।। ४२ ।। श्रीभगवानुवाच ।। जानामि वांछितं गंगे तव सर्वं सुरेश्वरि ।। पतिस्ते द्रवरूपाया लवणोदो भविष्यति ।। ४३ ।। स ममांश स्वरूपश्च त्वं च लक्ष्मीस्वरूपिणी ।। पिदग्धाया विदग्धेन संगमो गुणवान्भुवि ।। ४४ ।। यावत्यः संति नद्यश्च भारत्याद्याश्च भारते ।। सौभाग्या त्वं च तास्वेव लवणोदस्य सौरते ।। ४५ ।। अद्यप्रभृति देवेशि कलेः पंचसहस्रकम् ।। वर्षं स्थितिस्ते भारत्याः शापेन भारते भुवि ।। ४६ ।। नित्यं त्वमब्धिना सार्थं करिष्यसि रहो रतिम् ।। त्वमेव रसिका देवी रसिकेंद्रेण संयुता ।। ४७ ।। त्वां स्तोष्यन्ति च स्तोत्रेण भगीरथकृतेन च ।। भारतस्था जनाः सर्वे पूर्णयिष्यंति भक्तितः ।। ४८ ।। कण्वशाखोक्त ध्यानेन ध्यात्वा त्वां पूजयिष्यति ।। यः स्तौति प्रणयेन्नित्यं सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।। ४९ ।। गंगा गंगेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि ।। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ।। 9.11.५० ।। सहस्रपापिनां स्नानाद्यत्पापं ते भविष्यति ।। प्रकृतेर्भक्तसंस्पर्शादेव तद्धि विनंक्ष्यति ।। ५१ ।। पापिनां तु सहस्राणां शवस्पर्शेन यत्त्वयि ।। तन्मन्त्रोपासकस्नानात्तदघं च विनंक्ष्यति ।। ५२ ।। तत्रैव त्वमधिष्ठानं करिष्यस्यघमोचनम् ।। सार्धं सरिद्भिः श्रेष्ठाभिः सरस्वत्यादिभिः शुभे ।। ५३ ।। तत्तु तीर्थं भवेत्सद्यो यत्र तद्गुणकीर्तनम् ।। त्वद्रेणुस्पर्शमात्रेण पूतो भवति पातकी ।। ५४ ।। रेणुप्रमाणवर्षं च देवेलोके वसेद् धुवम् ।। ज्ञानेन त्वयि ये भक्त्या मन्नामस्मृतिपूर्वकम् ।। ५५ ।। समुत्सृजंति प्राणांश्च ते गच्छन्ति हरेः पदम् ।। पार्षदप्रवरास्ते च भविष्यंति हरेश्चिरम् ।। ५६ ।। लयं प्राकृतिकं ते च द्रक्ष्यंति चाप्य संख्यकम् ।। मृतस्य बहुपुण्येन तच्छवं त्वयि विन्यसेत् ।। ५७ ।। प्रयाति स च वैकुण्ठं यावदह्नः स्थितिस्त्वयि ।। कायव्यूहं ततः कृत्वा भोजयित्वा स्वकर्मकम् ।। ५८ ।। तस्मै ददामि सारूप्यं करोमि तं च पार्षदम् ।। अज्ञानी त्वज्जलस्पर्शाद्यदि प्राणान्समुत्सृजेत् ।। ५९ ।। तस्मै ददामि सालोक्यं करोमि तं च पार्षदम् ।। अन्यत्र वा त्यजेत्प्राणांस्त्वन्नामस्मृतिपूर्वकम्।।9.11.६०।। तस्मै ददामि सालोक्यं यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।। अन्यत्र वा त्यजेत्प्राणांस्त्वन्नामस्मृतिपूर्वकम् ।। ६१ ।। तस्मै ददामि सारूप्यमसंख्यं प्राकृतं लयम् ।। रत्नेंद्रसार निर्माणयानेन सह पार्षदैः ।।६२।। सद्यः प्रयाति गोलोकं मम तुल्यो भवेद् धुवम्।। तीर्थेऽप्यर्थे मरणे विशेषो नास्ति कश्चन ।।६३।।मन्मंत्रोपासकानां तु नित्यं नैवेद्यभोजिनाम्।। पूतं कर्तुं स शक्तो हि लीलया भुवनत्रयम्।।६४।।रत्नेंद्रसार यानेन गोलोकं संप्रयांति च।। मद्भक्ता बांधवा येषां तेऽपि पश्वादयोऽपि हि।।६५।। प्रयांति रत्नयानेन गोलोकं चातिदुर्लभम् ।। यत्र यत्र स्मृतास्ते च ज्ञानेन ज्ञानिनः सति ।।६६।। जीवन्मुक्ताश्च ते पूता मद्भक्ते संविधानतः ।। इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तां च प्रत्युवाच भगीरथम् ।। ६७ ।। स्तुहि गंगामिमां भक्त्या पूजां च कुरु सांप्रतम् ।। भगीरथस्तां तुष्टाव पूजयामास भक्तितः ।। ६८ ।। कौथुमोक्तेन ध्यानेन स्तोत्रेणापि पुनः पुनः ।। प्रणनाम च श्रीकृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ।। ६९ ।। भगीरथश्च गंगा च सोंऽतर्धानं चकार ह ।। नारद उवाच ।। केन ध्यानेन स्तोत्रेण केन पूजाक्रमेण च ।। 9.11.७० ।। पूजां चकार नृपतिर्वद वेदविदां वर ।। श्रीनारायण उवाच ।। स्नात्वा नित्यक्रियां कृत्वा धृत्वा धौते च वाससी ।। ७१ ।। संपूज्य देवषट्कं च संयतो भक्तिपूर्वकम् ।। गणेशं च दिनेशं च वह्नि विष्णुं शिवं शिवाम् ।। ७२ ।। संपूज्य देवषट्कं च सोऽधिकारी च पूजने ।। गणेशं विघ्ननाशाय आरोग्याय दिवाकरम् ।। ७३ ।। वह्निं शौचाय विष्णुं च लक्ष्म्यर्थं पूजयेन्नरः ।। शिवं ज्ञानाय ज्ञानेशं शिवां च मुक्तिसिद्धये ।। ७४ ।। संपूज्यैताँल्लभेत्प्राज्ञो विपरीतमतोऽन्यथा ।। दध्यावनेन ध्यानेन तद्ध्यानं शृणु नारद ।। ७५ ।। इति श्रीदेवीभागवते म० नवमस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ।। ११ ।।

दे.भा. ९.१२ ( गङ्गा के कण्व शाखोक्त ध्यान व षोडश उपचार से अश्वमेध फल की प्राप्ति का कथन ),

 

 दे.भा. ९.१२.१८ ( गङ्गा स्तोत्र से भगीरथ द्वारा गङ्गा स्तुति, सगर- पुत्रों को गङ्गा के स्पर्श से वैकुण्ठ प्राप्ति, भगीरथ द्वारा लाए जाने से गङ्गा का भागीरथी नाम धारण करना ),

ध्यान[m2] 

 

(राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली)

श्रीनारायण उवाच ।। ध्यानं[m3]  च कण्व शाखोक्तं सर्वं पापप्रणाशनम् ।। श्वेतपंकजवर्णाभां गंगां पापप्रणाशिनीम् ।।१।। कृष्णविग्रहसम्भूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् ।। वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।। २ ।। शरत्पूर्णेंदुशतकमृष्टशोभाकरां पराम् ।। ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।। ३ ।। नारायणप्रियां[m4]  शांतां तत्सौभाग्यसमन्विताम् ।। बिभ्रतीं कबरीभारं मालती माल्य संयुतम् ।। ४ ।। सिंदूरबिंदुललितं सार्धं चन्दनबिंदुभिः ।। कस्तूरीपत्रकं गंडे नानाचित्रसमन्वितम् ।। ५ ।। पक्वबिंबविनिंद्याच्छ चार्वोष्ठपुटमुत्तमम्।। मुक्तापंक्तिप्रभामुष्टदंतपंक्तिमनोरमम् ।। ६ ।। सुचारुवक्त्रनयनं सकटाक्षं मनोहरम् ।। कठिनं श्रीफलाकारं स्तनयुग्मं च बिभ्रतीम् ।। ७ ।। बृहच्छ्रोणिं सुकठिनां रंभास्तंभविनिंदिताम् ।। स्थलपद्मप्रभामुष्टपदपद्मयुगं वरम् ।। ८ ।। रत्नपादुक संयुक्तं कुंकुमाक्तं सयावकम् ।। देवेंद्रमौलिमंदारमकरंदकणारुणम् ।। ९ ।। सुरसिद्धमुनींद्रैश्च दत्तार्घसंयुतं सदा ।। तपस्विमौलिनिकरभ्रमरश्रेणिसंयुतम् ।। 9.12.१० ।। मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां सर्वभोगदम् ।। वरां वरेण्यां वरदां भक्तानुग्रहकारिणीम् ।। ११ ।। श्रीविष्णोः पददात्रीं च भजे विष्णुपदीं सतीम् ।। इत्यनेनैव ध्यानेन ध्यात्वा त्रिपथगां शुभाम् ।। १२ ।। दत्त्वा संपूजयेद्ब्रह्मन्नुपचाराणि षोडश ।। आसनं पाद्यमर्घं च स्नानीयं चाऽनुलेपनम् ।। १३ ।। धूपदीपं च नैवेद्यं तांबूलं शीतलं जलम् ।। वसनं भूष माल्यं गंधमाचमनीयकम् ।। १४ ।। मनोहरं सुतल्पं च देयान्येतानि षोडश ।। दत्त्वा भक्त्या च प्रणमेत्संस्तूय संपुटांजलिः ।। १५ ।। संपूज्यैवं प्रकारेण सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।। नारद उवाच ।। श्रोतुमिच्छामि देवेश लक्ष्मीकांत जगत्पते ।।१६।। विष्णोर्विष्णुपदीस्तोत्रं पापघ्नं पुण्यकारकम् ।। श्रीनारायण उवाच ।। शृणु नारद वक्ष्यामि पापघ्नं पुण्यकारकम् ।।१७।। शिवसंगीतसंमुग्ध श्रीकृष्णांगसमुद्भवाम् ।। राधांगद्रवसंयुक्तां तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।१८।। यज्जन्म सृष्टेरादौ च गोलोके रासमंडले ।। सन्निधाने शंकरस्य तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। १९ ।। गोपैर्गोपीभिराकीर्णे शुभे राधामहोत्सवे ।। कार्त्तिकी पूर्णिमायां च तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।9.12.२०।। कोटियोजन विस्तीर्णा दैर्घ्ये लक्षगुणा ततः ।। समावृता या गोलोके तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।२१।। षष्टिलक्षयोजना या ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा ।। समावृता या वैकुण्ठे तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २२ ।। त्रिंशल्लक्षयोजना या दैर्घ्ये पंचगुणा ततः ।। आवृता ब्रह्मलोके या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २३ ।। त्रिंशल्लक्षयोजना या दैर्घ्ये चतुर्गुणा ततः ।। आवृता शिवलोके या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २४ ।। लक्षयोजनविस्तीणा दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः ।। आवृता ध्रुवलोके या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २५ ।। लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये पंचगुणा ततः ।। आवृता चंद्रलोके या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २६ ।। षष्टिसहस्रयोजना या दैर्घ्ये दशगुणा ततः ।। आवृता सूर्यलोके या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २७ ।। लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये पंचगुणा ततः ।। आवृता या तपोलोके तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २८ ।। सहस्र योजनायामा दैर्घ्ये दशगुणा ततः ।। आवृता जनलोके या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। २९ ।। दशलक्षयोजना या दैर्घ्ये पंचगुणा ततः ।। आवृता या महर्लोके तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। 9.12.३० ।। सहस्रयोजनायामा दैर्घ्ये शतगुणा ततः ।। आवृता या च कैलासे तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ३१ ।। शतयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये दशगुणा ततः ।। मंदाकिनी येंद्रलोके तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ३२ ।। पाताले भोगवती चैव विस्तीर्णा दशयोजना ।। ततो दशगुणा दैर्घ्ये तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ३३ ।। क्रोशैकमात्रविस्तीर्णा ततः क्षीणा च कुत्रचित् ।। क्षितौ चालकनन्दा या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ३४ ।। सत्ये या क्षीरवर्णा च त्रेतायामिंदुसन्निभा ।। द्वापरे चन्दनाभा या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ३५ ।। जलप्रभा कलौ या च नाऽन्यत्र पृथिवीतले ।। स्वर्गे च नित्यं क्षीराभा तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ३६ ।। यत्तोयकणिकास्पर्शे पापिनां ज्ञानसंभवः ।। ब्रह्महत्यादिकं पापं कोटिजन्मार्जितं दहेत् ।। ३७ ।। इत्येवं कथिता ब्रह्मन्गंगापद्यैकविशतिः ।। स्तोत्ररूपं च परमं पापघ्नं पुण्यजीवनम् ।। ३८ ।। नित्यं यो हि पठेद्भक्त्या संपूज्य च सुरेश्वरीम् ।। सोऽश्वमेधफलं नित्यं लभते नात्र संशयः ।। ३९ ।। अपुत्रो लभते पुत्रं भार्याहीनो लभेत्स्त्रियम् ।। रोगात्प्रमुच्यते रोगी बंधान्मुक्तो भवेद् ध्रुवम् ।। 9.12.४० ।। अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पंडितः ।। यः पठेत्प्रातरुत्थाय गंगास्तोत्रमिदं शुभम् ।। ४१ ।। शुभं भवेच्च दुःस्वप्ने गगास्नानफलं लभेत् ।। श्रीनारायण उवाच ।। स्तोत्रेणानेन गंगां च स्तुत्वा चैव भगीरथ ।। ४२ ।। जगाम तां गृहीत्वा च यत्र नष्टाश्च सागराः ।। वैकुण्ठं ते ययुस्तूर्णं गंगाया स्पर्शवायुना ।। ४३ ।। भगीरथेन सा नीता तेन भागीरथी स्मृता ।। इत्येवं कथितं सर्वं गंगोपाख्यानमुत्तमम् ।। ४४ ।। पुण्यदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। नारद उवाच ।। कथं गंगा त्रिपथगा जाता भुवनपावनी ।।४५।। कुत्र वा केन विधिना तत्सर्वं वद मे प्रभो ।। तत्रस्थाश्च जना ये ये ते च किं चक्रुरुत्तमम् ।। ४६ ।। एतत्सर्वं तु विस्तीर्णं कृत्वा वक्तुमिहार्हसि ।। नारायण उवाच ।। कार्तिक्यां पूर्णिमायां तु राधायाः सुमहोत्सवः ।। ४७ ।। कृष्णः संपूज्य तां राधामुवास रासमण्डले ।। कृष्णेन पूजितां सा तु संपूज्य दृष्टमानसाः ।। ४८ ।। ऊषुर्ब्रह्मादयः सर्वे ऋषयः शौनकादयः ।। एतस्मिन्नंतरे कृष्णसंगीता च सरस्वती ।। ४९ ।। जगौ सुन्दरतालेन वीणया च मनोहरम् ।। तुष्टो ब्रह्मा ददौ तस्यै रत्नेंद्रसारहारकम् ।। 9.12.५० ।। शिवो मणींद्रसारं तु सर्वब्रह्माण्ड दुर्लभम् ।। कृष्णः कौस्तुभरत्नं च सर्वरत्नात्परं वरम् ।। ५१ ।। अमूल्यरत्ननिर्माणं हारसारं च राधिका ।। नारायणश्च भगवान्ददौ मालां मनोहराम् ।। ५२ ।। अमूल्यरत्ननिर्माणं लक्ष्मीः कनककुंडलम् ।। विष्णुमाया भगवती मूलप्रकृतिरीश्वरी ।। ५३ ।। दुर्गा नारायणीशाना ब्रह्मभक्तिं सुदुर्लभाम् ।। धर्मबुद्धिं च धर्मश्च यशश्च विपुलं भवे ।। ५४ ।। वह्निशुद्धांशुकं वह्निर्वायुश्च मणिनूपुरान् ।। एतस्मिन्नंतरे शंभुर्ब्रह्मणा प्रेरितो मुहुः ।। ५५ ।। जगौ श्रीकृष्णसंगीतं ससोल्लाससमन्वितम् ।। मूर्च्छां प्रापुः सुराः सर्वे चित्रपुत्तलिका यथा ।।५६।। कष्टेन चेतनां प्राप्य ददृशू रासमंडले ।। स्थलं सर्वं जलाकीर्णं राधाकृष्णविहीनकम् ।।५७।। अत्युच्चै रुरुदुः सर्वे गोपा गोप्यः सुरा द्विजाः ।। ध्यानेन ब्रह्मा बुबुधे सर्वं तीर्थमभीप्सितम् ।। ५८ ।। गतश्च राधया सार्धं श्रीकृष्णो द्रवतामिति ।। ततो ब्रह्मादयः सर्वे तुष्टुवुः परमेश्वरात् ।। ५९ ।। स्वमूर्तिं दर्शय विभो वांछितं वरमेव नः ।। एतस्मिन्नंतरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।। 9.12.६० ।। तामेव शुश्रुवुः सर्वे सुव्यक्तां मधुरान्विताम् ।। सर्वात्माऽहमियं शक्तिर्भक्तानुग्रह विग्रहा ।। ६१ ।। ममाप्यस्याश्च देहेन कर्त्तव्यं च किमावयोः ।। मनवो मानवाः सर्वे मुनयश्चैव वैष्णवाः ।। ६२ ।। मन्मन्त्रपूता मां द्रष्टुमागमिष्यंति मत्पदम् ।। मूर्तिं द्रष्टुं च सुव्यक्तां यदीच्छत सुरेश्वराः ।। ६३ ।। करोतु शंभुस्तत्रैवं मदीयं वाक्यपालनम् ।। स्वयं विधातस्त्वं बह्मन्नाज्ञां कुरु जगद्गुरुम् ।। ६४ ।। कर्तुं शास्त्रविशेषं च वेदांगं सुमनोहरम् ।। अपूर्वमन्त्रनिकरैः सर्वाभीष्टफलप्रदैः ।। ६५ ।। स्तोत्रैश्च च निकरैर्ध्यानैर्युतं पूजाविधिक्रमैः ।। मन्मन्त्रकवचस्तोत्रं कृत्वा यत्नेन गोपनम् ।। ६६ ।। भवंति विमुखा येन जना मां तत्करिष्यति ।। सहस्रेषु शतेष्वेको मन्मंत्रोपासको भवेत् ।। ६७ ।। जना मन्मंत्रपूताश्च गमिष्यंति च मत्पदम् ।। अन्यथा न भविष्यंति सर्वे गोलोकवासिनः ।। ६८ ।। निष्फलं भविता सर्वं ब्रह्मांडं चैव ब्रह्मणः ।। जनाः पंच प्रकाराश्च युक्ताः स्रष्टुं भवे भवे ।। ६९ ।। पृथिवीवासिनः चित्केचित्स्वर्गनिवासिनः ।। इदं कर्तुं महादेवः करोति देवसंसदि ।। 9.12.७० ।। प्रतिज्ञां सुदृढां सद्य स्ततो मूर्तिं च द्रक्ष्यति ।। इत्येवमुक्त्वा गगने विरराम सनातनः ।। ७१ ।। तच्छुत्वा जगतां धाता तमुवाच शिवं मुदा ।। ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा ज्ञानेशो ज्ञानिनः वरः ।। ७२ ।। गंगातोयं करे कृत्वा स्वीकारं च चकार सः ।। संयुक्तं विष्णुमायाया मंत्रौघैः शास्त्रमुत्तमम् ।। ७३ ।। वेदसारं करिष्यामि प्रतिज्ञापालनाय च ।। गंगातोयमुपस्पृश्य मिथ्या यदि वदेज्जनः ।। ७४ ।। स याति कालसूत्रं च यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।। इत्युक्ते शंकरे ब्रह्मन्गोलोके सुरसंसदि ।। ७५ ।। आविर्बभूव श्रीकृष्णो राधया सहितस्ततः ।। तं सुदृष्ट्वा च संहृष्टास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ।। ७६ ।। परमानन्दपूर्णाश्च चक्रुश्च पुनरुत्सवम् ।। कालेन शंभुर्भगवान्मुक्तिदीपं चकार सः ।। ७७ ।। इत्येवं कथितं सर्वं सुगोप्यं च सुदुर्लभम् ।। स एव द्रवरूपा सा गंगा गोलोकसंभवा ।। ७८ ।। राधाकृष्णांगसंभूता भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ।। स्थाने स्थाने स्थापिता सा कृष्णेन च परात्मना ।।७९।। कृष्णस्वरूपा परमा सर्वब्रह्मांडपूजिता ।। इति श्रीदेवीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ।। १२ ।।

 

 दे.भा. ९.१३ ( कृष्ण के साथ गङ्गा के संग को देखकर राधा का रोष, रोष से भयभीत हुई गङ्गा का कृष्ण के चरणकमलों में छिपकर अदृश्य होना, अदृश्य होने पर गोलोक की शुष्कप्राय स्थिति, ब्रह्मादि की प्रार्थना पर गङ्गा का कृष्ण के चरण कमल से निर्गत होना तथा विष्णुपदी नाम धारण करने का वृत्तान्त ), दे.भा. ९.१४ ( कृष्ण द्वारा गङ्गा से गान्धर्व विवाह तथा गङ्गा का नारायण की प्रिया होने का कथन ), दे.भा. ९.१९.६६( गङ्गा द्वारा विष्णु की चामर द्वारा सेवा का उल्लेख ),

नारद १.६.६४( गायत्री के प्रसन्न होने पर गङ्गा के भी प्रसन्न होने का कथन ),

गायत्री जाह्नवी चोभे सर्वपापहरे स्मृते

एतयोर्भक्तिहीनो यस्तं विद्यात्पतितं द्विज ६२

गायत्री छन्दसां माता माता लोकस्य जाह्नवी

उभे ते सर्वपापानां नाशकारणतां गते ६३

यस्य प्रसन्ना गायत्री तस्य गंगा प्रसीदति

विष्णुशक्तियुते ते द्वे समकामप्रसिद्धिदे ६४

गायत्री की विशेषता यह प्रतीत होती है कि गायत्री के तीन पद क्रमशः भू, भुवः, स्वः लोक हैं। यह ऊर्ध्व दिशा में प्रगति का मार्ग है, चतुर्दिक् फैलने का नहीं।

 

ना. १.९.१९ ( सनक द्वारा गङ्गा के माहात्म्य का वर्णन ), १.९.४४( वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद राक्षस को गङ्गा के बिन्दुओं के अभिषेक से मुक्ति प्राप्ति का कथन ), १.९.११३( गर्ग विप्र द्वारा कल्माषपाद राक्षस का गङ्गा जल से सिंचन करने पर राक्षसी योनि से मुक्ति का वृत्तान्त ), १.११.१७९ ( वामन त्रिविक्रम द्वारा पाद क्रमण के समय पादाङ्गुष्ठ द्वारा ब्रह्माण्ड के भेदन से बाह्य सलिल का आगमन तथा गङ्गोत्पत्ति का कथन ),

नारद १.११६.११ ( जह्नु द्वारा क्रोधपूर्वक गङ्गा का पान तथा दक्षिण कर्ण छिद्र से निर्गमन का उल्लेख ),

वैशाखशुक्लसप्तम्यां जह्नुना जाह्नवी स्वयम्

क्रोधात्पीता पुनस्त्यक्ता कर्णरंध्रात्तु दक्षिणात् ११

तां तत्र पूजयेत्स्नात्वा प्रत्यूषे विमले जले

गंधपुष्पाक्षताद्यैश्च सर्वैरेवोपचारकैः १२

 

नारद २.३८ ( वसु ब्राह्मण द्वारा मोहिनी को गङ्गा के माहात्म्य का वर्णन, तिथि अनुसार गङ्गा का पाताल, भूमि व स्वर्ग में वास तथा कलियुग में गङ्गा के वैशिष्ट्य का कथन ),

वसिष्ठ उवाच

स वसुर्नृपशार्दूल मोहिनीं याज्यकामिनीम्  ।

उवाच श्लक्ष्णया वाचा सर्वलोकहिते रतः  ॥ २,३८.१ ॥

वसुरुवाच

शृणु मोहिनी वक्ष्यामि तीर्थानां लक्षणं पृथक् ।

येन विज्ञातमात्रेण पापिनां गतिरुत्तमा  ॥ २,३८.२ ॥

सर्वेषामपि तीर्थानां श्रेष्ठा गंगा धरातले  ।

न तस्या सदृशं किञ्चिद्विद्यते पापनाशनम्  ॥ २,३८.३ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य वसोः स्वस्य पुरोधसः  ।

प्रणता मोहिनी प्राह गङ्गास्नानकृतादरा  ॥ २,३८.४ ॥

मोहिन्युवाच

भगवन्वाडवश्रेष्ठ गङ्गामाहात्म्यमुत्तमम्  ।

सर्वेषां च पुराणानां संमतं वद सांप्रतम्  ॥ २,३८.५ ॥

श्रुत्वा माहात्म्यमतुलं गङ्गायाः पापनाशनम्  ।

पश्चात्पापविनाशिन्यां स्नातुं यास्ये त्वया सह  ॥ २,३८.६ ॥

तच्छ्रुत्वा मोहिनीवाक्यं वसुः सर्वपुराणवित् ।

माहात्म्यं कथयामास गङ्गायाः पापनाशनम्  ॥ २,३८.७ ॥

वसुरुवाच

ते देशास्ते जनपदास्ते शैलास्तेऽपि चाश्रमाः  ।

येषां भागीरथी पुण्या समीपे वर्तते सदा  ॥ २,३८.८ ॥

तपसा ब्रह्मचर्येण यज्ञैस्त्यागेन वा पुनः  ।

तां गतिं न लभेज्जन्तुर्गङ्गां संसेव्य यां लभेत् ॥ २,३८.९ ॥

पूर्वे वयसि पापानि कृत्वा कर्माणि ये नराः  ।

शेषे गङ्गां निषेवन्ते तेऽपि यान्ति परां गतिम्  ॥ २,३८.४० ॥

तिष्ठेद्युगसहस्रं तु पादेनैकेन यः पुमान्  ।

मासमेकं तु गङ्गायां स्नातस्तुल्यफलावुभौ  ॥ २,३८.११ ॥

तिष्ठेतार्वाक्छिरा यस्तु युगानामयुतं पुमान्  ।

तिष्ठेद्यथेष्टं यश्चापि गङ्गायां स विशिष्यते  ॥ २,३८.१२ ॥

भूतानामिह सर्वेषां दुःखोपहतचेतसाम्  ।

गतिमन्वेषमाणानां न गङ्गासदृशी गतिः  ॥ २,३८.१३ ॥

प्रकृष्टैः पातकैर्घोरैः पापिनः पुरुषाधमान्  ।

प्रसह्य तारयेद्गङ्गा गच्छतो निरयेऽशुचौ  ॥ २,३८.१४ ॥

ते समानास्तु मुनिभिर्नूनं देवैः सवासवैः  ।

येऽभिगच्छन्ति सततं गङ्गामभिमतां सुरैः  ॥ २,३८.१५ ॥

अन्धाञ्जडान्द्रव्यहीनांश्च गङ्गा संपावयेद्बृहती विश्वरूपा  ।

देवैः सेंद्रैर्मुनिभिर्मानवैश्च निषेविता सर्वकालं समृद्ध्यै  ॥ २,३८.१६ ॥

पक्षादौ कृष्णपक्षे तु भूमौ संनिहिता भवेत् ।

यावत्पुण्या ह्यमावास्या दिनानि दश मोहिनि  ॥ २,३८.१७ ॥

शुक्लप्रतिपदादेश्च दिनानि दश संख्यया  ।

पाताले सन्निधानं तु कुरुते स्वयमेव हि  ॥ २,३८.१८ ॥

आरभ्य शुक्लैकादश्या दिनानि दश यानि तु  ।

पञ्चम्यं तानि सा स्वर्गे भवेत्सन्निहिता सदा  ॥ २,३८.१९ ॥

कृते तु सर्वतीर्थानि त्रेतायां पुष्करं परम्  ।

द्वापरे तु कुरुक्षेत्रं कलौ गङ्गा विशिष्यते  ॥ २,३८.२० ॥

कलौ तु सर्वतीर्थानि स्वं स्वं वीर्यं स्वभावतः  ।

गङ्गायां प्रतिमुञ्चन्ति सा तु देवी न कुत्रचित् ॥ २,३८.२१ ॥

गङ्गांभः कणदिग्धस्य वायोः संस्पर्शनादपि  ।

पापशीला अपि नराः परां गतिमवाप्नुयुः  ॥ २,३८.२२ ॥

योऽसौ सर्वगतो विष्णुश्चित्स्वरूपी जनार्दनः  ।

स एव द्रवरूपेण गङ्गांभो नात्र संशयः  ॥ २,३८.२३ ॥

ब्रह्महा गुरुहा गोघ्नः स्तेयी च गुरुतल्पगः  ।

गङ्गांभसा च पूयन्ते नात्र कार्या विचारणा  ॥ २,३८.२४ ॥

क्षेत्रस्थमृद्धृतं वापि शीतमुष्णमथापि वा  ।

गाङ्गेयं तु हरेत्तोयं पापमामरणान्तिकम्  ॥ २,३८.२५ ॥

वर्ज्यं पर्युषितं तोयं वर्ज्यं पर्युषितं दलम्  ।

न वर्ज्यं जाह्नवीतोयं न वर्ज्यं तुलसीदलम्  ॥ २,३८.२६ ॥

मेरोः सुवर्णस्य च सर्वरत्नैः संख्योपलानामुदकस्य वापि  ।

गङ्गाजलानां न तु शक्तिरस्ति वक्तुं गुणाख्यापरिमाणमत्र  ॥ २,३८.२७ ॥

तीर्थयात्राविधिं कृत्स्नमकुर्वाणोऽपि यो नरः  ।

गङ्गातोयस्य माहात्म्यात्सोऽप्यत्र फलभाग्भवेत् ॥ २,३८.२८ ॥

चिन्तामणिगुणाच्चापि गङ्गायास्तोयबिन्दवः  ।

विशिष्टा यत्प्रयच्छन्ति भक्तेभ्यो वाञ्छितं फलम्  ॥ २,३८.२९ ॥

गण्डूषमात्रतो भक्त्या सकृद्गङ्गांभसा नरः  ।

कामधेनु स्तनोद्भूतान्भुङ्क्ते दिव्यरसान्दिवि  ॥ २,३८.३० ॥

शालग्रामशिलायां - - यस्तु गङ्गाजलं क्षिपेत् ।

अपहत्य तमस्तीव्रं भाति सूर्यो यथोदये  ॥ २,३८.३१ ॥

मनोवाक्कायजैर्ग्रस्तः पापैर्बहुविधैरपि  ।

वीक्ष्य गङ्गां भवेत्पूतः पुरुषो नात्र संशयः  ॥ २,३८.३२ ॥

गङ्गातोयाभिषिक्तां तु भिक्षामश्नाति यः सदा  ।

सर्पवत्कञ्चुकं मुक्त्वा पापहीनो भवेत्स वै  ॥ २,३८.३३ ॥

हिमवद्विन्ध्यसदृशा राशयः पापकर्मणाम्  ।

गङ्गांभसा विनश्यन्ति विष्णुभक्त्या यथापदः  ॥ २,३८.३४ ॥

प्रवेशमात्रे गङ्गायां स्नानार्थं भक्तितो नृणाम्  ।

ब्रह्महत्यादिपापानि हाहेत्युक्त्वा प्रयान्त्यलम्  ॥ २,३८.३५ ॥

गङ्गातीरे वसेन्नित्यं गङ्गातोयं पिबेत्सदा  ।

यः पुमान्स विमुच्येत पातकैः पूर्वसंचितैः  ॥ २,३८.३६ ॥

यो वै गङ्गां समाश्रित्य नित्यं तिष्ठति निर्भयः  ।

स एव देवैर्मर्त्यैश्च पूजनीयो महर्षिभिः  ॥ २,३८.३७ ॥

किमष्टाङ्गेन योगेन किं तपोभिः किमध्वरैः  ।

वास एव हि गङ्गायां सर्वतोऽपि विशिष्यते  ॥ २,३८.३८ ॥

किं यज्ञैर्बहुभिर्जाप्यैः किं तपोभिर्धनार्पणैः  ।

स्वर्गमोक्षप्रदा गङ्गा सुखसेव्या यतः स्थिता  ॥ २,३८.३९ ॥

यज्ञैर्यमैश्च नियमैर्दानैः संन्यासतोऽपि वा  ।

न तत्फलमवाप्रोति गङ्गां सेव्य यदाप्नुयात् ॥ २,३८.४० ॥

प्रभासे गोसहस्त्रेण राहुग्रस्ते दिवाकरे  ।

यत्फलं लभते मर्त्यो गङ्गायां तद्दिनेन वै  ॥ २,३८.४१ ॥

अन्योपायांश्च यस्त्यक्त्वा मोक्षकामः सुनिश्चितः  ।

गङ्गातीरे सुखं तिष्ठेत्स वै मोक्षस्य भाजनम्  ॥ २,३८.४२ ॥

वाराणस्यां विशेषेण गङ्गा सद्यस्तु मोक्षदा  ।

प्रतिमासं चतुर्दश्यामष्टम्यां चैव सर्वदा  ॥ २,३८.४३ ॥

गङ्गातीरे निवासश्च यावज्जीवं च सिद्धिदः  ।

कृच्छ्राणि सर्वदा कृत्वा यत्फलं सुखमश्नुते  ॥ २,३८.४४ ॥

सदा चान्द्रायणं चैव तल्लभेज्जाह्नवीतटे  ।

गङ्गासेवापरस्येह दिवसार्द्धेन यत्फलम्  ॥ २,३८.४५ ॥

न तच्छक्यं ब्रह्मसुते प्राप्तुं क्रतुशतैरपि  ।

सर्वयज्ञतपोदानयोगस्वाध्यायकर्मभिः  ॥ २,३८.४६ ॥

यत्फलं तल्लभेद्भक्त्या गङ्गातीरनिवासतः  ।

यत्पुण्यं सत्यवचनैर्नैष्ठिकब्रह्मचारिणाम्  ॥ २,३८.४७ ॥

यदग्निहोत्रिणां पुण्यं तत्तु गङ्गानिवासतः  ।

समातृपितृदाराणां कुलकोटिमनन्तकम्  ॥ २,३८.४८ ॥

गङ्गाभक्तिस्तारयते संसारार्णवतो ध्रुवम्  ।

संतोषः परमैश्वर्यं तत्त्वज्ञानं सुखात्मनाम्  ॥ २,३८.४९ ॥

विनयाचारसंपत्तिर्गङ्गाभक्तस्य जायते  ।

कृतकृत्यो भवेन्मर्त्यो गङ्गां प्राप्यैव केवलम्  ॥ २,३८.५० ॥

तद्भक्तस्तत्परश्च स्यान्मृतो वापि न संशयः  ।

भक्त्या तज्जलसंस्पर्शी तज्जलं पिबते च यः  ॥ २,३८.५१ ॥

अनायासेन हि नरो मोक्षोपायं स विन्दति  ।

दीक्षितः सर्वयज्ञेषु सोमपानं दिने दिने  ॥ २,३८.५२ ॥

सर्वाणि येषां गङ्गायास्तोयैः कृत्यानि सर्वदा  ।

देहं त्यक्त्वा नरास्ते तु मोदन्ते शिवसन्निधौ  ॥ २,३८.५३ ॥

देवाः सोमार्कसंस्थानि यथा शक्रादयो मुखैः  ।

अमृतान्युपभुञ्जन्ति तथा गङ्गाजलं नराः  ॥ २,३८.५४ ॥

कन्यादानैश्च विधिवद्भूमिदानैश्च भक्तितः  ।

अन्नदानैश्च गोदानैः स्वर्णदानादिभिस्तथा  ॥ २,३८.५५ ॥

रथाश्वगजदानैश्च यत्पुण्यं परिकीर्तितम्  ।

ततः शतगुणं पुण्यं गङ्गांभश्चुलुकाशनात् ॥ २,३८.५६ ॥

चान्द्रायणसहस्राणां यत्फलं परिकीर्तितम्  ।

ततोऽधिकफलं गङ्गातोयपानादवाप्यते  ॥ २,३८.५७ ॥

गण्डूषमात्रपाने तु अश्वमेधफलं लभेत् ।

स्वच्छन्दं यः पिबेदंभस्तस्य मुक्तिः करे स्थिता  ॥ २,३८.५८ ॥

त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्तभिस्त्वथ यामुनम्  ।

नार्मदं दशभिर्मासैर्गाङ्गं वर्षेण जीर्यति  ॥ २,३८.५९ ॥

शास्त्रेणाकृततोयानां मृतानां क्वापि देहिनाम्  ।

तदुत्तरफलावाप्तिर्गङ्गायामस्थियोगतः  ॥ २,३८.६० ॥

चान्द्रायणसहस्रं तु यश्चरेत्कायशोधनम्  ।

यः पिबेत्तु यथेष्ठं हि गङ्गाम्भः स विशिष्यते  ॥ २,३८.६१ ॥

गङ्गां पश्यति यः स्तौति स्नाति भक्त्या पिबेज्जलम्  ।

स स्वर्गं ज्ञानममलं योगं मोक्षं च विन्दति  ॥ २,३८.६२ ॥

यस्तु सूर्य्यांशुनिष्टप्तं गाङ्गेयं पिबते जलम्  ।

गोमूत्रयावकाहाराद्गाङ्गपानं विशिष्यते  ॥ २,३८.६३ ॥

 

 

 २.३९ ( वसु द्वारा मोहिनी को गङ्गा स्नान के माहात्म्य का वर्णन ),

वसुरुवाच

शृणु मोहिनि वक्ष्यामि गङ्गाया दर्शने फलम्  ।

यदुक्तं हि पुराणेषु मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः  ॥ २,३९.१ ॥

भवन्ति निर्विषाः सर्पा यथा तार्क्ष्यस्य दर्शनात् ।

गङ्गासंदर्शनात्तद्वत्सर्वपापैः प्रमुच्यते  ॥ २,३९.२ ॥

सप्तावरान् सप्तपरान् पितृंस्तेभ्यश्च ये परे  ।

पुमांस्तारयते गङ्गां वीक्ष्य स्पृष्ट्वावगाह्य च  ॥ २,३९.३ ॥

दर्शनात्स्पर्शनात्पानात्तथा गङ्गेति कीर्तनात् ।

पुमान्पुनाति पुरुषाञ्छतशोऽथ सहस्रशः  ॥ २,३९.४ ॥

ज्ञानमैश्वर्यमतुलं प्रतिष्ठायुर्यशस्तथा  ।

शुभानामाश्रमाणां च गङ्गादर्शनजं फलम्  ॥ २,३९.५ ॥

सर्वेन्द्रियाणां चाञ्चल्यं व्यसनानि च पातकम्  ।

निर्घृणत्वं च नश्यन्ति गङ्गादर्शन मात्रतः  ॥ २,३९.६ ॥

परहिंसा च कौटिल्यं परदोषाद्यवेक्षणम्  ।

दांभिकत्वं नृणां गङ्गादर्शनादेव नश्यति  ॥ २,३९.७ ॥

मुहुर्मुहुस्तथा पश्येत्स्पृशेद्वापि मुहुर्मुहुः  ।

भक्त्या यदिच्छति नरः शाश्वतं पदमव्ययम्  ॥ २,३९.८ ॥

वापीकूपतडागादिप्रपासत्रादिभिस्तथा  ।

अन्यत्र यद्भवेत्पुण्यं तद्गङ्गादर्शनाद्भवेत् ॥ २,३९.९ ॥

यत्फलं जायते पुंसां दर्शने परमात्मनः  ।

तद्भवेदेव गङ्गाया दर्शनाद्भक्तिभावतः  ॥ २,३९.१० ॥

नैमिषे च कुरुक्षेत्रे नर्मदायां च पुष्करे  ।

स्नानात्संस्पर्शना- - सेव्य यत्फलं लभते नरः  ॥ २,३९.११ ॥

तद्गङ्गादर्शनादेव कलौ प्राहुर्महर्षयः  ।

अथ ते स्मरणस्यापि गङ्गाया भूपभामिनि  ॥ २,३९.१२ ॥

प्रवक्ष्यामि फलं यत्तु पुराणेषु प्रकीर्तितम्  ।

अशुभैः कर्मभिर्युक्तान्मज्जमानान्भवार्णवे  ॥ २,३९.१३ ॥

पततो नरके गङ्गा स्मृता दूरात्समुद्धरेत् ।

योजनानां सहस्रेषु गङ्गां स्मरति यो नरः  ॥ २,३९.१४ ॥

अपि दुष्कृतकर्मा हि लभते परमां गतिम्  ।

स्मरणादेव गङ्गायाः पापसंघातपञ्जरम्  ॥ २,३९.१५ ॥

भेदं सहस्रधा याति गिरिर्वज्रहतो यथा  ।

गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्ध्यायञ्जाग्रद्भुञ्जन् हसन् रुदन्  ॥ २,३९.१६ ॥

यः स्मरेत्सततं गङ्गां स च मुच्येत बन्धनात् ।

सहस्रयोजनस्थाश्च गङ्गां भक्त्या स्मरन्ति ये  ॥ २,३९.१७ ॥

गङ्गागङ्गेति चाक्रुश्य मुच्यन्ते तेऽपि पातकात् ।

ये च स्मरन्ति वै गङ्गां गङ्गाभक्तिपराश्च ये  ॥ २,३९.१८ ॥

तेऽप्यशेषैर्महापापैर्मुच्यन्ते नात्र संशयः  ।

भवनानि विचित्राणि विचित्राभरणाः स्त्रियः  ॥ २,३९.१९ ॥

आरोग्यं वित्तसंपत्तिर्गङ्गास्मरणजं फलम्  ।

मनसा संस्मरेद्यस्तु गङ्गां दूरस्थितो नरः  ॥ २,३९.२० ॥

चान्द्रायणसहस्रस्य स फलं लभते ध्रुवम्  ।

गङ्गा गङ्गा जपन्नाम योजनानां शते स्थितः  ॥ २,३९.२१ ॥

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं च गच्छति  ।

कीर्तनान्मुच्यते पापाद्दर्शनान्मङ्गलं लभेत् ॥ २,३९.२२ ॥

अवगाह्य तथा पीत्वा पुनात्यासप्तमं कुलम्  ।

सप्तावपरान्परान्सप्त सप्ताथ परतः परान्  ॥ २,३९.२३ ॥

गङ्गा तारयते पुंसां प्रसंगेनापि कीर्तिता  ।

अश्रद्धयापि गङ्गाया यत्तु नामानुकीर्तनम्  ॥ २,३९.२४ ॥

करोति पुण्यवाहिन्याः सोऽपि स्वर्गस्य भाजनम्  ।

सर्वावस्थां गतो वापि सर्वधर्मविवर्जितः  ॥ २,३९.२५ ॥

गङ्गायाः कीर्तनेनैव शुभां गतिमवाप्नुयात् ।

ब्रह्महा गुरुहा गोघ्नः स्पृष्टो वा सर्वपातकैः  ॥ २,३९.२६ ॥

गङ्गातोयं नरः स्पृष्ट्वा मुच्यते सर्वपातकैः  ।

कदा द्रक्ष्यामि तां गङ्गां कदा स्नानं लभे ह्यहम्  ॥ २,३९.२७ ॥

इति पुंसाभिलषिता कुलानां तारयेच्छतम्  ।

अथ स्नानफलं देवि गङ्गायाः प्रवदामि ते  ॥ २,३९.२८ ॥

यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः  ।

स्नातस्य गङ्गासलिले सद्यः पापं प्रणश्यति  ॥ २,३९.२९ ॥

अपूर्वपुण्यप्राप्तिश्च सद्यो मोहिनि जायते  ।

स्नातानां शुचिभिस्तोयैर्गाङ्गेयैः प्रयतात्मनाम्  ॥ २,३९.३० ॥

व्युष्टिर्भवति या पुंसां न सा क्रतुशतैरपि  ।

अपहत्य तमस्तीव्रं यथा भात्युदये रविः  ॥ २,३९.३१ ॥

तथापहत्य पाप्मानं भाति गङ्गाजलोक्षितः  ।

एकेनैवापि विधिना स्नानेन नृपसुन्दरि  ॥ २,३९.३२ ॥

अश्वमेधफलं मर्त्यो गङ्गायां लभते ध्रुवम्  ।

अनेकजन्मसंभूतं पुंसः पापं प्रणश्यति  ॥ २,३९.३३ ॥

स्नानमात्रेण गङ्गायाः सद्यः स्यात्पुण्यभाजनम्  ।

अन्यस्थानकृतं पापं गङ्गातीरे विनश्यति  ॥ २,३९.३४ ॥

गङ्गातीरे कृतं पापं गङ्गास्नानेन नश्यति  ।

रात्रौ दिवा च संध्यायां गङ्गायां तु प्रयत्नतः  ॥ २,३९.३५ ॥

स्नात्वाश्वमेधजं पुण्यं गृहेऽप्युद्धृतततज्जलैः  ।

सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वेष्टायतनेषु च  ॥ २,३९.३६ ॥

तत्फलं लभते मर्त्यो गङ्गास्नानान्न संशयः  ।

महापातकसंयुक्तो युक्तो वा सर्वपातकैः  ॥ २,३९.३७ ॥

गङ्गास्नानेन विधिवन्मुच्यते सर्वपातकैः  ।

गङ्गा स्नानात्परं स्नानं न भूतं न भविष्यति  ॥ २,३९.३८ ॥

विशेषतः कलियुगे पापं हरति जाह्नवी  ।

निहत्य कामजान्दोषान्कायवाक्चित्तसंभवान्  ॥ २,३९.३९ ॥

गङ्गास्नानेन भक्त्या तु मोदते दिवि देववत् ।

वर्षं स्नाति च गङ्गायां यो नरो भक्तिसंयुतः  ॥ २,३९.४० ॥

तस्य स्याद्वैष्णवे लोके स्थितिः कल्पं न संशयः  ।

आमृत्युं स्नाति गङ्गायां यो नरो नित्यमेव च  ॥ २,३९.४१ ॥

समस्तपापनिर्मुक्तः समस्तकुलसंयुतः  ।

समस्तभोगसंयुक्तो विष्णुलोके महीयते  ॥ २,३९.४२ ॥

परार्द्धद्वितयं यावन्नात्र कार्या विचारणा  ।

गङ्गायां स्नाति यो मर्त्यो नैरन्तर्येण नित्यदा  ॥ २,३९.४३ ॥

जीवन्मुक्तः स चात्रैव मृतो विष्णुपदं व्रजेत् ।

प्रातःस्नानाद्दशगुणं पुण्यं मध्यन्दिने स्मृतम्  ॥ २,३९.४४ ॥

सायङ्काले शतगुणमनन्तं शिवसन्निधौ  ।

कपिलाकोटिदानाद्धि गङ्गास्नानं विशिष्यते  ॥ २,३९.४५ ॥

कुरुक्षेत्रसमा गङ्गा यत्र तत्रावगाहिता  ।

हरिद्वारे प्रयागे च सिंधुसंगे फलाधिका  ॥ २,३९.४६ ॥

ये मदीयांशुसंतप्ते जले ते स्नान्ति जाह्नवि  ।

ते भित्वा मण्डलं यान्ति मोक्षं चेति रवेर्वचः  ॥ २,३९.४७ ॥

यो गृहे स्वे स्थितोऽपि त्वां स्नाने संकीर्तयिष्यति  ।

सोऽपि यास्यति नाकं वै इत्याह वरुणश्च ताम्  ॥ २,३९.४८ ॥

 

 

नारद २.४० ( कालविशेष में गङ्गा स्नान के माहात्म्य तथा फल का कथन ),

वसुरुवाच

अथ कालविशेषे तु गङ्गास्नानस्य ते फलम्  ।

कीर्तयिष्यामि वामोरु सावधाना निशामय  ॥ २,४०.१ ॥

नैरन्तर्येण गङ्गायां माघे स्नाति च यो नरः  ।

स शक्रलोके सुचिरं कालं तिष्ठेत्सगोत्रजः  ॥ २,४०.२ ॥

ततो ब्रह्मपुरं याति कल्पकोटिशतायुतैः  ।

नैरन्तर्येण विधिवद्गङ्गायां स्नाति यो नरः  ॥ २,४०.३ ॥

षण्मासमेककालाशी सकृदेवोत्तरायणे  ।

सोऽपि विष्णुपदं याति कुलानां शतमुद्धरन्  ॥ २,४०.४ ॥

संक्रान्तिषु तु सर्वासु स्नात्वा गङ्गाजले नरः  ।

विमानेनार्कवर्णेन स व्रजेद्विष्णुमन्दिरम्  ॥ २,४०.५ ॥

विषुवेऽयनसंक्रान्तौ विशेषात्फलमीरितम्  ।

तपःसमं कार्तिकेऽपि गङ्गास्नाने फलं विदुः  ॥ २,४०.६ ॥

मेषप्रवेशार्ककाले कार्तिक्यां वापि मोहिनि  ।

माघस्नानाधिकं प्राहुः कमलासनपूर्वकाः  ॥ २,४०.७ ॥

संवत्सरस्नानजन्यं फलमक्षयके तिथौ  ।

कार्तिके वापि वैशाखे इति प्राह पिता तव  ॥ २,४०.८ ॥

मन्वादौ च युगादौ यत्प्रोक्तं गङ्गाजले फलम्  ।

स्नानेन याज्यवनिते त्रिमास्यापि च तत्फलम्  ॥ २,४०.९ ॥

द्वादश्यां श्रवणर्क्षे च अष्टम्यां पुष्ययोगतः  ।

आर्द्रायां च चतुर्दश्यां गङ्गास्नानं सुदुर्लभम्  ॥ २,४०.१० ॥

पूर्णिमा माधवे पुण्या तथा कार्तिकमाघयोः  ।

अमावस्यास्तथैतेषां गङ्गास्नाने सुदुर्लभाः  ॥ २,४०.११ ॥

कृष्णाष्टम्यां सहस्रं तु शतं स्यात्सर्वपर्वसु  ।

अमायां च तथाष्टम्यां माघासितदले सति  ॥ २,४०.१२ ॥

अर्धोदयं तदा पर्व किञ्चिन्न्यूनं महोदयः  ।

महोदये शतगुणं लक्षमर्द्धोदये स्मृतम्  ॥ २,४०.१३ ॥

स्नानं गङ्गाजले देवि ग्रहणाच्चन्द्रसूर्ययोः  ।

मासत्रयस्नानफलं फाल्गुनाषाढ मासयोः  ॥ २,४०.१४ ॥

जन्मर्क्षे तु कृते स्नाने गङ्गायां भक्तिभावतः  ।

जन्मप्रभृति पापं वै संचितं हि विनश्यति  ॥ २,४०.१५ ॥

चतुर्दश्यां माघकृष्णे व्यतीपातश्च दुर्लभः  ।

कृष्णाष्टम्यां विशेषेण वैधृतिर्जाह्नवीजले  ॥ २,४०.१६ ॥

माघं सकलमेवापि नरो यो विधिपूर्वकम्  ।

अरुणोदयके स्नायी स तु जातिस्मरो भवेत् ॥ २,४०.१७ ॥

सर्वशास्त्रार्थविज्ज्ञानी नीरोगश्च भवेद्ध्रुवम्  ।

संक्रान्त्यां पक्षयोरन्ते ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः  ॥ २,४०.१८ ॥

गङ्गास्नातो नरः कामाद्ब्रह्मणः सदनं लभेत् ।

इन्दोर्लक्षगुणं प्रोक्तं रवेर्दशगुणं ततः  ॥ २,४०.१९ ॥

गङ्गातीरे तु संप्राप्ता इन्दोः कोटी रवेर्दश  ।

वारुणेन समायुक्ता मधौ कृष्णा त्रयोदशी  ।

गङ्गायां यदि लभ्येत सूर्यग्रहशतैः समा  ॥ २,४०.२० ॥

ज्येष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलादवतरदसौ जाह्नवी मर्त्यलोकम्  ।

पापान्यस्यां हरति हि तिथौ सा दशैषाद्यगङ्गा पुण्यं दद्यादपि शतगुणं वाजिमेधक्रतोश्च  ॥ २,४०.२१ ॥

महापातकसंघानि यानि पापानि संति मे  ।

गोविन्दद्वादशीं प्राप्य तानि मे हन जाह्नवि  ॥ २,४०.२२ ॥

मघासंज्ञेन ऋक्षेण चन्द्रः संपूर्णमण्डलः  ।

गुरुणा याति संयोगं तन्महत्वं तिथेः स्मृतम्  ॥ २,४०.२३ ॥

गङ्गायां यदि लभ्येत सूर्यग्रहशतैः समा  ।

नारद २.४० ( स्थल विशेष में गङ्गा स्नान के माहात्म्य तथा फल का कथन ),

 

अथ देशविशेषेण स्नानस्य फलमुच्यते  ॥ २,४०.२४ ॥

कुरुक्षेत्राद्दशगुणा यत्र तत्रावगाहिता  ।

कुरुक्षेत्राच्छतगुणा यत्र विन्ध्येन संयुता  ॥ २,४०.२५ ॥

विन्ध्याच्छतगुणा प्रोक्ता काशीपुर्यां तु जाह्नवी  ।

सर्वत्र दुर्लभा गङ्गा त्रिषु स्थानेषु चाधिका  ॥ २,४०.२६ ॥

गङ्गाद्वारे प्रयागे च गङ्गासागरसंगमे  ।

एषु स्नाता दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः  ॥ २,४०.२७ ॥

गङ्गाद्वारे कुशावर्ते स्नाने पुण्यफलं शृणु  ।

सप्तानां राजसूयानां फलं स्यादश्वमेधयोः  ॥ २,४०.२८ ॥

उषित्वा तत्र मासार्द्धं षण्णां विश्वजितां फलम्  ।

दशायुतानां तु गवां दानपुण्यं विदुर्बुधाः  ॥ २,४०.२९ ॥

सरोत्तमेऽथ गोविन्दं रुद्रं कनखले स्थितम्  ।

स्नात्वा वाप्येषु गङ्गायां पुण्यमक्षयमाप्नुयात् ॥ २,४०.३० ॥

तीर्थं च सौकरं नाम महापुण्यं शुभे शृणु  ।

यस्मिन्नाविरभूत्पूर्वं वाराहाकृतिरच्युतः  ॥ २,४०.३१ ॥

शतस्याग्निचितां पुण्यं ज्योतिष्टोमद्वयस्य च  ।

अग्निष्टोमसहस्रस्य फलमाप्नोति मानवः  ॥ २,४०.३२ ॥

तत्रैव ब्रह्मणस्तीर्थे ज्योतिष्टोमायुतस्य च  ।

अश्वमेधत्रयस्यापि स्नातः पुण्यं लभेन्नरः  ॥ २,४०.३३ ॥

कुब्जाख्यं तीर्थमनघं यत्र च व्याधयोऽखिलाः  ।

नश्यन्ति सर्वजन्मोत्थं पातकं चापि मोहिनि  ॥ २,४०.३४ ॥

अत्रान्यत्कापिलं तीर्थं यत्र स्नातो नरः शुभे  ।

कपिलाष्टायुतस्यापि दानतुल्यफलं लभेत् ॥ २,४०.३५ ॥

गङ्गाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते  ।

तीर्थे कनखले स्नात्वा धूतपापो व्रजेद्दिवम्  ॥ २,४०.३६ ॥

पवित्रार्थं ततस्तीर्थं सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम्  ।

द्वयोर्विश्वजितोस्तत्र स्नानात्पुण्यं लभेन्नरः  ॥ २,४०.३७ ॥

वेणीराज्यं ततस्तीर्थं सरयूर्यत्र गङ्गया  ।

सुपुण्यया महापुण्या स्वसा स्वस्रेव संगता  ॥ २,४०.३८ ॥

हरेर्दक्षिणपादाब्जक्षालनादमरापगा  ।

वामपादोद्भवा वापि सरयूर्मानसप्रसूः  ॥ २,४०.३९ ॥

तीर्थे तत्रार्चयन् रुद्रं विष्णुं विष्णुत्वमाप्नुयात् ।

पञ्चाश्वमेधफलदं स्नानं तत्र प्रकीर्तितम्  ॥ २,४०.४० ॥

ततस्तु गाण्डवं तीर्थं गण्डकी यत्र संगता  ।

गोसहस्रस्य दानं च तत्र स्नानं समं द्वयम्  ॥ २,४०.४१ ॥

रामतीर्थं ततः पुण्यं वैकुण्ठं यत्र सन्निधौ  ।

सोमतीर्थं ततः पुण्यं यत्रासौ नकुलो मुनिः  ॥ २,४०.४२ ॥

समभ्यर्च्य शिवं ध्यायन्गणतां तु समाययौ  ।

चंपकाख्यं पुण्यतीर्थं यद्गङ्गोत्तरवाहिनी  ॥ २,४०.४३ ॥

मणिकर्णिकया तुल्यं महापातकनाशनम्  ।

कलशाख्यं ततस्तीर्थं कलशादुत्थितो मुनिः  ॥ २,४०.४४ ॥

अगस्त्यः पूजयन्यत्र रुद्रं मुनिवरोऽभवत् ।

सोमद्वीपं महापुण्यं तीर्थं वाराणसीसमम्  ॥ २,४०.४५ ॥

सोमो यत्रार्चयन्नीशं रुद्रेण शिरसा धृतः  ।

विश्वामित्रस्य भगिनी गङ्गया यत्र संगता  ॥ २,४०.४६ ॥

तत्राप्लुतो नरो भूयाद्वासवस्य प्रियोऽतिथिः  ।

जह्नुह्रदे महातीर्थे स्नातो मर्त्यो हि मोहिनि  ॥ २,४०.४७ ॥

एकविंशतिकुल्यानां तारको भवति ध्रुवम्  ।

तस्माददितितीर्थं च यत्रावापादितिर्हरिम्  ॥ २,४०.४८ ॥

कश्यपात्तत्र सुभगे स्नानमाहुर्महोदयम्  ।

शिलोच्चयं महातीर्थं यत्र तप्त्वा तपः प्रजाः  ॥ २,४०.४९ ॥

तृणादिभिः सह स्वर्गं यान्ति तीर्थगणाश्रयात् ।

इन्द्राणी नाम तीर्थं स्याद्यत्रेन्द्राणी तु वासवम्  ॥ २,४०.५० ॥

तपस्तप्त्वा पतिं लेभे सेव्यमेतत्प्रयागवत् ।

पुण्यदं स्नातकं तीर्थं विश्वामित्रस्तपश्चरन्  ॥ २,४०.५१ ॥

यत्र ब्रह्मर्षितां लेभे क्षत्त्रियस्तीर्था --सेवया  ।

प्रद्युम्नतीर्थं तपसा ख्यातं यत्र स्मरो हरेः  ॥ २,४०.५२ ॥

प्रद्युम्ननामा पुत्रोऽभूत्परं तत्र महोदयम्  ।

ततो दक्षप्रयागं तु गङ्गातो यमुनागत  ॥ २,४०.५३ ॥

स्नात्वा तत्राक्षयं पुण्यं प्रयाग इव लभ्यते  ॥ २,४०.५४ ॥

 

 

नारद २.४१ ( गङ्गा तट पर तर्पण, पूजन व दान के माहात्म्य का वर्णन ),

वसुरुवाच

अथावगाहनादीनां कर्मणां फलमुच्यते  ।

सावधाना शृणुष्व त्वं ब्रह्मपुत्रि नृपप्रिये  ॥ २,४१.१ ॥

यैः पुण्यवाहिनी गङ्गा सकृद्भक्त्यावगाहिता  ।

तेषां कुलानां लक्षं तु भवात्तारयते शिवा  ॥ २,४१.२ ॥

सामान्यस्थानतो देवि तत्र संध्या ह्युपासिता  ।

पुण्यं लक्षगुणं कर्तुं समर्था द्विजपावनी  ॥ २,४१.३ ॥

दत्ताः पितृभ्यो यत्रापस्तनयैः श्रद्धयान्वितैः  ।

अक्षयां तु प्रकुर्वन्ति तृप्तिं मोहिनि दुर्लभाम्  ॥ २,४१.४ ॥

यावन्तश्च तिला मर्त्यैर्गृहीताः पितृकर्मणि  ।

तावद्वर्षसहस्राणि पितरः स्वर्गवासिनः  ॥ २,४१.५ ॥

पितृलोकेषु ये केचित्सर्वेषां पितरः स्थिताः  ।

तर्प्यमाणाः परां तृप्तिं यान्ति गङ्गाजलैः शुभैः  ॥ २,४१.६ ॥

य इच्छेत्सफलं जन्म संततिं वा शुभानने  ।

स पितॄंस्तर्पयेद्गङ्गामभिगम्य सुरांस्तथा  ॥ २,४१.७ ॥

ये मता-- दुर्गता मर्त्यास्तर्पितास्तत्कुलोद्भवैः  ।

कुशैस्तिलैर्गाङ्गजलैस्ते प्रयान्ति हरेः पदम्  ॥ २,४१.८ ॥

स्वर्गसंस्थाश्च ये केचित्पितरः पुण्यशीलिनः  ।

ते तर्पिता गाङ्गजलैर्मोक्षं यान्ति विधेर्वचः  ॥ २,४१.९ ॥

मासं तर्पणमात्रेण पिण्डसंपातनेन च  ।

गङ्गायां पितरः सर्वे सुप्रीताः सूर्यवर्चसः  ॥ २,४१.१० ॥

अप्सरो गणसंयुक्तान्हेमरत्नविभूषितान्  ।

मुक्ताजालपरिच्छन्नान्वेणुवीणानिनादितान्  ॥ २,४१.११ ॥

भेरीशङ्खमृदङ्गादिनिर्घोषान्स्रग्विभूषितान्  ।

गन्धर्वदेहरुचिरान्दिव्यभोगसमन्वितान्  ॥ २,४१.१२ ॥  ॥

आरुह्य तु विमानाग्र्यान्ब्रह्मलोकं प्रयान्ति हि  ।

गङ्गायां तु नरः स्नात्वा यो नित्यं लिङ्गमर्चयेत् ॥ २,४१.१३ ॥

एकेन जन्मना मोक्षं परमाप्नोति स ध्रुवम्  ।

अग्निहोत्राणि वेदाश्च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः  ॥ २,४१.१४ ॥

गङ्गायां लिङ्गपूजायाः कोट्यंशेनापि नो समाः  ।

पितॄनुदिश्य वा देवान्गङ्गांभोभिः प्रसिंचयेत् ॥ २,४१.१५ ॥

तृप्ताः स्युस्तस्य पितरो नरकस्थाश्च तत्क्षणात् ।

मृत्कुंभात्ताम्रकुंभैस्तु स्नानं दशगुणं स्मृतम्  ॥ २,४१.१६ ॥

रौप्यैः शतगुणं पुण्यं हेमैः कोटिगुणं स्मृतम्  ।

एवमर्घे च नैवेद्ये बलिपूजादिषु क्रमात् ॥ २,४१.१७ ॥

पात्रांतरविशेषेण फलं चैवोत्तरोत्तरम्  ।

विभवे सति यो मोहान्न कुर्याद्विधिविस्तरम्  ॥ २,४१.१८ ॥

न स तत्कर्मफलभाग्देवद्रोही प्रकीर्त्यते  ।

देवानां दर्शनं पुण्यं दर्शनात्स्पर्शनं वरम्  ॥ २,४१.१९ ॥

स्पर्शनादर्चनं श्रेष्ठं घृतस्नानमतः परम्  ।

प्राहुर्गङ्गाजलैः स्नानं घृतस्नानसमं बुधाः  ॥ २,४१.२० ॥

अर्घ्यं द्रव्यविशेषेण गङ्गातोयेन यः सकृत् ।

मागधप्रस्थमात्रेण ताम्रपात्रस्थितेन च  ॥ २,४१.२१ ॥

देवताभ्यः प्रदद्यात्तु स्वकीयपितृभिः सह  ।

पुत्रपौत्रैश्च संयुक्तः स च वै स्वर्गमाप्नुयात् ।

आपः क्षीरं कुशाग्राणि घृतं दधि तथा मधु  ॥ २,४१.२२ ॥

रक्तानि करवीराणि तथा वै रक्तचन्दनम्  ।

अष्टाङ्गैरेष युक्तोऽर्घो भानवे परिकीर्तितः  ॥ २,४१.२३ ॥

विष्णोः शिवस्य सूर्य्यस्य दुर्गाया ब्रह्मणस्तथा  ।

गङ्गातीरे प्रतिष्ठां तु यः करोति नरोत्तमः  ॥ २,४१.२४ ॥

तथैवायतनान्येषां कारयत्यपि शक्तितः  ।

अन्यतीर्थेषु करणात्कोटिकोटिगुणं भवेत् ॥ २,४१.२५ ॥

गङ्गातीरसमुद्भूतमृदा लिंगानि शक्तितः  ।

सलक्षणानि कृत्वा तु प्रतिष्ठाप्य दिने दिने  ॥ २,४१.२६ ॥

मन्त्रैश्च पत्रपुष्पाद्यैः पूजयित्वा च शक्तितः  ।

गङ्गायां निक्षिपेन्नित्यं तस्य पुण्यमनन्तकम्  ॥ २,४१.२७ ॥

सर्वानन्दप्रदायिन्यां गङ्गायां यो नरोत्तमः  ।

अष्टाक्षरं जपेद्भक्त्या मुक्तिस्तस्य करे स्थिता  ॥ २,४१.२८ ॥

नमो नारायणायेति प्रणवाद्यं नियम्य च  ।

षण्मासं जपतः सर्वा ह्युपतिष्ठन्ति सिद्धयः  ॥ २,४१.२९ ॥

नमः शिवायेति मन्त्रं सतारं विधिना तु यः  ।

चतुर्विंशतिलक्षं वै जपेत्साक्षात्स शङ्करः  ॥ २,४१.३० ॥

पञ्चाक्षरी सिद्धविद्या शिव एव न संशयः  ।

अपवित्रः पवित्रो वा जपन्निष्पातको भवेत् ॥ २,४१.३१ ॥

पूजितायां तु गङ्गायां पूजिताः सर्व देवताः  ।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पूजयेदमरापगाम्  ॥ २,४१.३२ ॥

चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च सर्वावयवशोभिताम्  ।

रत्नकुंभसितांभोजवराभयकरां शुभाम्  ॥ २,४१.३३ ॥

श्वेतवस्त्रपरीधानां मुक्तामणिविभूषिताम्  ।

सुप्रसन्नां सुवदनां करुणार्द्रहृदंबुजाम्  ॥ २,४१.३४ ॥

सुधाप्लावितभूपृष्ठां त्रैलोक्यनमितां सदा  ।

ध्यात्वा जलमयीं गङ्गां पूजयन्पुण्यभाग्भवेत् ॥ २,४१.३५ ॥

मासार्द्धमपि यस्त्वेवं नैरन्तर्येण पूजयेत् ।

स एव देवसदृशो बहुकाले फलाधिकः  ॥ २,४१.३६ ॥

वैशाखशुक्लसप्तम्यां जह्नुना जाह्नवी पुरा  ।

क्रोधात्पीता पुनस्त्यक्ता कर्णरङ्घ्रात्तु दक्षिणात् ॥ २,४१.३७ ॥

तां तत्र पूजयेद्देवीं गङ्गां गगनमेखलाम्  ।

अक्षयायां तु वैशाखे कार्तिकेऽपि शुभानने  ॥ २,४१.३८ ॥

रात्रौ जागरणं कृत्वा यवान्नैश्च तिलैस्तथा  ।

विष्णुं गङ्गां च शंभुं च पूजयेद्भक्ति भावतः  ॥ २,४१.३९ ॥

तथा सुगन्धैः कुसुमैः कुङ्कुमागरुचन्दनैः  ।

तुलसीबिल्वपत्राद्यैर्मातुलुङ्गफलादिभिः  ॥ २,४१.४० ॥

धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्यथा विभवविस्तरैः  ।

कल्पकोटिसहस्राणि कल्पकोटिशतानि च  ॥ २,४१.४१ ॥

दिव्यं विमानमास्थाय विष्णुलोके महीयते  ।

ततो महीतलं प्राप्य राजा भवति धार्मिकः  ॥ २,४१.४२ ॥

भुक्त्वा विविधसौख्यानि रूपशीलगुणान्वितः  ।

देहान्ते ज्ञानवान्भूत्वा शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ २,४१.४३ ॥

यज्ञो दानं तपो जप्यं श्राद्धं च सुरपूजनम्  ।

गङ्गायां तु कृतं सर्वं कोटिकोटिगुणं भवेत् ॥ २,४१.४४ ॥

यस्त्वक्षयतृतीयायां गङ्गातीरे ददाति वै  ।

घृतधेनुं विधानेन तस्य पुण्यफलं शृणु  ॥ २,४१.४५ ॥

कल्पकोटिसहस्राणि कल्पकोटिशतानि च  ।

सहस्रादित्यसंकाशः सर्वकामसमन्वितः  ॥ २,४१.४६ ॥

हेमरत्नमये चित्रे विमाने हंसभूषिते  ।

स्वकीयपितृभिः सार्द्धं ब्रह्मलोके महीयते  ॥ २,४१.४७ ॥

ततस्तु जायते विप्रो गङ्गातीरे धनान्वितः  ।

अन्ते तु ब्रह्मविद्भूत्वा मोक्षमाप्नोत्यसंशयः  ॥ २,४१.४८ ॥

तथैव गोप्रदानं च विधिना कुरुते तु यः  ।

गोलोमसंख्यवर्षाणि स्वर्गलोके महीयते  ॥ २,४१.४९ ॥

जायते च कुले पश्चाद्धनधान्यसमाकुले  ।

रत्नकाञ्चनभूपूर्णे शीलविद्यायशोन्विते  ॥ २,४१.५० ॥

स भुक्त्वा विपुलान्भोगान्पुत्रपौत्रसमन्वितः  ।

मोक्षभागी भवेन्नूनं नात्र कार्या विचारणा  ॥ २,४१.५१ ॥

कपिला यदि दत्ता स्याद्विधिना वेदपारगे  ।

नरकस्थान्पितॄन्सर्वान्स्वर्गं नयति वै तदा  ॥ २,४१.५२ ॥

भूमिं निवर्तनमितां गङ्गातीरे ददाति यः  ।

भूमिरेणुप्रमाणाब्दं ब्रह्मविष्णुशिवातिगः  ॥ २,४१.५३ ॥

जायते च पुनर्भूमौ सप्तद्वीपपतिर्भवेत् ।

भेरीशङ्खादिनिर्घोषैर्गीतवादित्रनिःस्वनैः  ॥ २,४१.५४ ॥

स्तुतिभिर्मागधानां च सुप्तोऽसौ प्रतिबुध्यते  ।

सर्वसौख्यान्यवाप्येह सर्वधर्मपरायणः  ॥ २,४१.५५ ॥

नरकस्थान्पितॄन्सर्वान्प्रापयित्वा दिवं तथा  ।

स्वर्गस्थितान्मोक्षयित्वा स्वयं ज्ञानी च मोहिनि  ॥ २,४१.५६ ॥

अन्ते ज्ञानासिना छित्वा अविद्यां पञ्चपर्विकाम्  ।

परं वैराग्यमापन्नः परं ब्रह्माधि गच्छति  ॥ २,४१.५७ ॥

सप्तहस्तेन दण्डेन त्रिंशद्दण्डा निवर्तनम्  ।

त्रिभागहीनं गोचर्म मानमाह विधिः स्वयम्  ॥ २,४१.५८ ॥

ग्रामं गङ्गातटे यो वै ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति  ।

ब्रह्मविष्णुशिवप्रीत्यै दुर्गाया भास्करस्य च  ॥ २,४१.५९ ॥

सर्वदानेषु यत्पुण्यं सर्वयज्ञेषु यत्फलम्  ।

तपोव्रतेषु पुण्येषु यत्फलं परिकीर्तितम्  ॥ २,४१.६० ॥

सहस्रगुणितं तत्तु विज्ञेयं ग्रामदायिनः  ।

सूर्यकोटिप्रतीकाशे विमाने वैष्णवे पुरे  ॥ २,४१.६१ ॥

क्रीडते शाङ्करे वापि स्तुतो देवादिभिर्मुदा  ।

भूमिरेण्वब्दसंख्याकं कालं स्थित्वा च तत्र सः  ॥ २,४१.६२ ॥

अणिमादिगुणैर्युक्ते योगिनां जायते कुले  ।

अक्षयायां तु यो देवि स्वर्णं षोडशमासिकम्  ॥ २,४१.६३ ॥

ददाति द्विजमुख्याय सोऽपि लोकेषु पूज्यते  ।

अन्नदानाद्विष्णुलोकं शैवं वै तिलदानतः  ॥ २,४१.६४ ॥

ब्राह्मं रत्नप्रदानेन गोहिरण्येन वासवम्  ।

गान्धर्वं स्वर्णवासोभिः कीर्तिं कन्याप्रदानतः  ॥ २,४१.६५ ॥

विद्यया मुक्तिदं ज्ञानं प्राप्य यायान्निरञ्जनम्  ।

गंगातीरे नरो यस्तु नानावृक्षैः समन्वितम्  ॥ २,४१.६६ ॥

आरामं कारयेद्भक्त्या गृहं चोपवनान्वितम्  ।

कदलीनारिकेरैश्च कपित्थाशोकचंपकैः  ॥ २,४१.६७ ॥

पनसैर्बिल्ववृक्षैश्च कदंबाश्वत्थपाटलैः  ।

आम्रैस्तालैर्नागरङ्गैर्वृक्षैरन्यैश्च संयुतम्  ॥ २,४१.६८ ॥

जातीविजयसंयुक्तं तथा पाटलराजितम्  ।

निचितं कारयित्वैवमावासं पुष्पशोभितम्  ॥ २,४१.६९ ॥

शिवाय विष्णवे वापि दुर्गायै भास्कराय च  ।

प्रयच्छति तथा भक्त्या सर्वार्थं परिकल्प्य च  ॥ २,४१.७० ॥

तस्य पुण्यफलं वक्ष्ये संक्षेपान्न तु विस्तरात् ।

यावन्ति तेषां वृक्षाणां पुष्पमूलफलानि च  ॥ २,४१.७१ ॥

बीजानि च विचित्राणि तेषां मूलानि वै तथा  ।

तावत्कल्पसहस्राणि तेषां लोकेषु संस्थितिः  ॥ २,४१.७२ ॥

 

 

नारद २.४२.३१ ( गङ्गा पूजा की विधि ),

ऋत्विजः प्रीतिसंयुक्तो नमस्कृत्य विसर्जयेत् ।

ततः संपूजयेद्गङ्गां विधिना सुसमाहितः  ॥ २,४२.३१ ॥

अष्टमूर्तिधरां देवीं दिव्यरूपां निरीक्ष्य च  ।

शालितन्दुलप्रस्थेन द्विप्रस्थपयसा तथा  ॥ २,४२.३२ ॥

पायसं कारयित्वा च दत्वा मधु घृतं तथा  ।

प्रत्येकं पलमात्रं च भक्तिभावेन संयुतः  ॥ २,४२.३३ ॥

तत्पायसमपूपांश्च मोदका मण्डलानि च  ।

तथा गुञ्जार्द्धमात्रं च सुवर्णं रूप्यमेव च  ॥ २,४२.३४ ॥

चन्दनागरुकर्पूरकुङ्कुमानि च गुग्गुलम्  ।

बिल्वपत्राणि दूर्वाश्च रोचना सितचन्दनम्  ॥ २,४२.३५ ॥

नीलोत्पलानि चान्यानि पुष्पाणि सुरभीणि च  ।

यथाशक्ति महाभक्त्या गङ्गायां चैव निक्षिपेत् ॥ २,४२.३६ ॥

मन्त्रेणानेन सुभगे पुराणोक्तेन चापि हि  ।

ओङ्गङ्गायै नारायण्यै शिवायै च नमोनमः  ॥ २,४२.३७ ॥

एतदेव विधानं तु मासि मासि च मोहिनि  ।

पौर्णमास्याममायां वा कार्यं प्रातः समाहितैः  ॥ २,४२.३८ ॥

वर्षं यस्तु नरो भक्त्या यथा शक्त्यर्चयन्मुदा  ।

हविष्याशी मिताहारो ब्रह्मचर्यसमन्वितः  ॥ २,४२.३९ ॥

दिने वापि तथा रात्रा नियमेन च मोहिनि  ।

संवत्सरान्ते तस्येषा गङ्गा दिव्यवपुर्द्धरा  ॥ २,४२.४० ॥

दिव्यमाल्यांबरा चैव दिव्यरत्नविभूषिता  ।

प्रत्यक्षरूपा पुरतस्तिष्ठत्येव वरप्रदा  ॥ २,४२.४१ ॥

एवं प्रत्यक्षरूपां तां गङ्गां दिव्यवपुर्द्धराम्  ।

दृष्ट्वा स्व चक्षुषा मर्त्यः कृतकृत्यो भवेच्छुभे  ॥ २,४२.४२ ॥

यान्यान्कामयते मर्त्यः कामांस्तांस्तानवाप्नुयात् ।

निष्कामस्तु लभेन्मोक्षं विप्रस्तेनैव जन्मना  ॥ २,४२.४३ ॥

एतद्विधानं च मयोदितं ते पृष्टं हि सर्वं गुडधेनुपूर्वम्  ।

गङ्गार्चनं मुक्तिकरं व्रतं त्त(?) सांवत्सरं श्रीपतितुष्टिदं हि  ॥ २,४२.४४ ॥

 

 

नारद २.४३.६६ ( गङ्गा दशहरा स्तोत्र तथा गङ्गा माहात्म्य ),

 

ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां हस्तसंयुते ४२

गङ्गातीरे तु पुरुषो नारी वा भक्तिभावतः

निशायां जागरं कृत्वा गङ्गां दशविधैस्ततः ४३

पुष्पैर्गन्धैश्च नैवैद्यै फलैश्च दशसङ्ख्यया

तथैव दीपैस्ताम्बूलैः पूजयेच्छ्रद्धयान्वितः ४४

स्नात्वा भक्त्या तु जाह्नव्यां दशकृत्वो विधानतः

दशप्रसृति कृष्णांश्च तिलान्सर्पिश्च वै जले ४५

सक्तुपिण्डान्गुडपिण्डान्दद्याच्च दशसङ्ख्यया

ततो गङ्गातटे रम्ये हेम्ना रूप्येण वा तथा ४६

गङ्गायाः प्रतिमां कृत्वा वक्ष्यमाणस्वरूपिणीम्

पद्मस्वस्तिकचिह्नस्य संस्थितस्य तथोपरि ४७

वस्त्रस्रग्दामकण्ठस्य पूर्णकुम्भस्य चोपरि

संस्थाप्य पूजयेद्देवीं तदलाभे मृदादि वा ४८

अथ तत्राप्यशक्तश्चेल्लिखेत्पिष्टेन वै भुवि

चतुर्भुजां सुनेत्रां च चन्द्रायुतसमप्रभाम् ४९

चामरैर्वीज्यमानां च श्वेतच्छत्रोपशोभिताम्

सुप्रसन्नां च वरदां करुणार्द्र निजान्तराम् ५०

सुधाप्लावितभूपृष्ठां देवादिभिरभिष्टुताम्

दिव्यरत्नपरीतां च दिव्यमाल्यानुलेपनाम् ५१

ध्यात्वा जले यथाप्रोक्तां  तत्रार्चायां तु पूजयेत्

वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण कुर्यात्पूजां विशेषतः ५२

पच्चामृतेन च स्नानमर्चायां तु विशिष्यते 

प्रतिमाग्रे स्थण्डिले तु गोमयेनोपलेपयेत् ५३

नारायणं महेशं च ब्रह्माणं भास्करं तथा

भगीरथं च नृपतिं हिमवन्तं नगेश्वरम् ५४

गन्धपुष्पादिभिश्चैव यथाशक्ति प्रपूजयेत्

दशप्रस्थांस्तिलान् दद्याद्दश विप्रेभ्य एव च ५५

दशप्रस्थान्यवान् दद्याद्दश गव्यैर्यथाहितान्

मत्स्यकच्छपमण्डूकमकरादिजलेचरान् ५६

कारितान्वै यथाशक्ति स्वर्णेन रजतेन वा

तदलाभे पिष्टमयानभ्यर्च्य कुसुमादिभिः

गङ्गायां प्रक्षिपेत्पूर्व्वं मन्त्रेणैव  तु मन्त्रवित् ५७

रथयात्रादिने तस्मिन्विभवे सति कारयेत्

रथारूढप्रतिकृतिं गङ्गायास्तूत्तरामुखाम् ५८

भ्रमन्त्या दर्शनं लोके दुर्लभं पापकर्मणाम्

दुर्गाया रथयात्रास्ति तथैवात्रापि  कारयेत् ५९

एवं कृत्वा विधानेन वित्तशाठ्यविवर्जितः

दशपापैर्वक्ष्यमाणैः सद्य एव विमुच्यते ६०

अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः

परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं  स्मृतम् ६१

पारुष्यमनृतं वापि पैशुन्यं चापि सर्वशः

असम्बद्धप्रलापश्च वाचिकं स्याच्चतुर्विधम् ६२

परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्

वितथाभिनिवेशश्च मानसं त्रिविधं स्मृतम् ६३

एतैर्दशविधैः पापैः कोटिजन्मसमुद्भवैः

मुच्यते नात्र सन्देहो ब्रह्मणो वचनं यथा ६४

दश त्रिंशच्च तान्पूर्वान्पितॄनेव तथापरान्

उद्धरत्येव संसारान्मन्त्रेणानेन पूजिता ६५

ॐ नमो दशहरायै नारायण्यै गङ्गायै नमः

इति मन्त्रेण यो मर्त्यो दिने तस्मिन्दिवानिशम् ६६

जपेत्पञ्चसहस्राणि दशधर्मफलं लभेत्

उद्धरेद्दश पूर्वाणि पराणि च भवार्णवात् ६७

वक्ष्यमाणमिदं स्तोत्रं विधिना प्रतिगृह्य च

गङ्गाग्रे तद्दिने जप्यं विष्णुपूजां प्रवर्तयेत् ६८

ॐ नमः शिवायै गङ्गायै शिवदायै नमोऽस्तु ते

नमोऽस्तु विष्णुरूपिण्यै गङ्गायै  ते नमो नमः ६९

सर्वदेवस्वरूपिण्यै नमो भेषजमूर्तये

सर्वस्य सर्वव्याधीनां भिषक्श्रेष्ठे नमोऽस्तु ते ७०

स्थाणुजङ्गमसंभूतविषहन्त्रि नमोऽस्तु ते

संसारविषनाशिन्यै जीवनायै नमो नमः ७१

तापत्रितयहन्त्र्यै च प्राणेश्वर्यै नमो नमः

शान्त्यै सन्तापहारिण्यै नमस्ते सर्वमूर्तये  ७२

सर्वसंशुद्धिकारिण्यै नमः पापविमुक्तये

भुक्तिमुक्तिप्रदायिन्यै भोगवत्यै नमो नमः ७३

मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु स्वर्गदायै नमो नमः

नमस्त्रैलोक्यमूर्तायै त्रिदशायै नमो नमः ७४

नमस्ते शुक्लसंस्थायै क्षेमवत्यै नमो नमः

त्रिदशासनसंस्थायै तेजोवत्यै नमोऽस्तु ते ७५

मंदायै लिङ्गधारिण्यै नारायण्यै नमो नमः

नमस्ते विश्वमित्रायै रेवत्यै ते नमो नमः ७६

बृहत्यै ते नमो नित्यं लोकधात्र्यै नमो नमः

नमस्ते विश्वमुख्यायै नन्दिन्यै ते नमो नमः ७७

पृथ्व्यै शिवामृतायै   च विरजायै नमो नमः

परावरगताद्यायै तारायै ते नमो नमः ७८

नमस्ते स्वर्गसंस्थायै अभिन्नायै नमो नमः

शान्तायै ते प्रतिष्ठायै वरदायै नमो नमः ७९

उग्रायै मुखजल्पायै सञ्जीविन्यै नमो नमः

ब्रह्मगायै ब्रह्मदायै दुरितघ्न्यै नमो नमः ८०

प्रणतार्तिप्रभञ्जिन्यै जगन्मात्रे नमो नमः

विलुषायै दुर्गहन्त्र्यै दक्षायै ते नमो नमः ८१

सर्वापत्प्रतिपक्षायै मङ्गलायै नमो नमः

परापरे परे तुभ्यं नमो मोक्षप्रदे सदा

गङ्गा ममाग्रतो भूयाद्गङ्गा मे पार्श्वयोस्तथा ८२

गङ्गा मे सर्वतो भूयात्त्वयि गंगेऽस्तु मे स्थितिः

आदौ त्वमन्ते मध्ये च सर्वा त्वं गाङ्गते शिवे ८३

त्वमेव मूलप्रकृतिस्त्वं हि नारायणः प्रभुः

गंगे त्वं परमात्मा च शिवस्तुभ्यं नमो नमः ८४

इतीदं पठति स्तोत्रं नित्यं भक्तिपरस्तु यः

शृणोति श्रद्धया वापि कायवाचिकसम्भवैः ८५

दशधा संस्थितैर्दोषैः सर्वैरेव प्रमुच्यते

रोगी प्रमुच्यते रोगान्मुच्येतापन्न आपदः ८६

द्विषद्भ्यो बन्धनाच्चापि भयेभ्यश्च विमुच्यते

सर्वान्कामानवाप्नोति प्रेत्य ब्रह्मणि लीयते ८७

इदं स्तोत्रं गृहे  यस्य लिखितं परिपूज्यते

नाग्निचौरभयं तत्र पापेभ्योऽपि भयं नहि ८८

तस्यां दशम्यामेतच्च स्तोत्रं गङ्गाजले स्थितः

जपंस्तु दशकृत्वश्च दरिद्रो  वापि चाक्षमः ८९

सोऽपि तत्फलमाप्नोति गङ्गां सम्पूज्य भक्तितः

पूर्वोक्तेन विधानेन फलं यत्परिकीर्तितम् ९०

 

नारद २.४३.९१ (गंगा व गौरी में अभेद)

यथा गौरी तथा गङ्गा तस्माद्गौर्यास्तु  पूजने

विधिर्यो विहितः  सम्यक्सोऽपि गङ्गाप्रपूजने ९१

यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा ह्युमा

उमा यथा तथा गङ्गा चात्र भेदो न विद्यते ९२

विष्णुरुद्रा न्तरं यश्च गङ्गागौर्यन्तरं तथा

लक्ष्मीगौयन्तरं यश्च प्रब्रूते मूढधीस्तु सः ९३

शुक्लपक्षे दिवा भूमौ गङ्गायामुत्तरायणे

धन्या देहं विमुञ्चति हृदयस्थे जनार्दने ९४

ये मुञ्चति नराः प्राणान् गङ्गायां विधिनन्दिनि

ते विष्णुलोकं गच्छंति स्तूयमाना दिविस्थितैः ९५

अर्द्धोदकेन जाह्नव्यां  म्रियतेऽनशनेन यः 

स याति न पुनर्जन्म ब्रह्मसायुज्यमेति  च ९६

या गतिर्योगयुक्तस्य सात्विकस्य मनीषिणः

सा गतिस्त्यजतः प्राणान् गङ्गायां तु शरीरिणः ९७

अनशनं गृहीत्वा यो गङ्गातीरे मृतो नरः

सत्यमेव परं लोकमाप्नोति पितृभिः सह ९८

गङ्गायां मरणात्प्राणान्यः प्राज्ञस्त्यक्तुमिच्छति

गतानि बहुजन्मानि यत्र यत्र मृतानि च ९९

महाँ श्चापि गतः कालो यत्र तत्रापि गच्छतः

अत्र दूरे समीपे च सदृशं योजनद्वयम् १००

गङ्गायां मरणेनेह नात्र कार्या विचारणा

ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि  वा १०१

गङ्गायां तु मृतो मर्त्यः स्वर्गं मोक्षं च विन्दति

प्राणेषूत्सृज्य मानेषु यो गङ्गां संस्मरेन्नरः १०२

स्पृशेद्वा पाप शीलोऽपि स वै याति परां  गतिम् १०३

गङ्गां गत्वा यैः शरीरं विसृष्टं प्राप्ता धीरास्ते तु देवैः समत्वम्

तस्मात्सर्वान्प्रोह्य मुक्तिप्रदान्वै सेवेद्गङ्गामाशरीरस्य पातम् १०४

अन्तरिक्षे क्षितौ तोये पापीयानपि यो मृतः

ब्रह्मविष्णुशिवैः पूज्यं पदमक्षय्यमश्नुते १०५

यो  धर्मिष्ठश्च सप्राणः प्रयतः शिष्टसम्मतः

चिन्तयेन्मनसा गङ्गां स गतिं परमां लभेत् १०६

यत्र तत्र मृतो वापि मरणे समुपस्थिते

भक्त्या गङ्गां स्मरन्याति शैवं वा वैष्णवं पुरम् १०७

शम्भोर्जटाकलापात्तु विनिष्क्रान्तातिकर्कशात्

प्लावयित्वा दिवं निन्ये या पापान्सगरात्मजान् १०८

यावन्त्यस्थीनि गङ्गायां तिष्ठंति पुरुषस्य वै

तावद्वर्षसहस्राणि  स्वर्गलोके महीयते १०९

गङ्गातोये तु यस्यास्थि नीत्वा प्रक्षिप्यते नरैः

तत्कालमादितः कृत्वा स्वर्गलोके भवेत्स्थितिः ११०

गङ्गातोये तु यस्यास्थि  प्राप्यते  शुभकर्मणः

न तस्य पुनरावृत्तिर्ब्रह्मलोकात्कथञ्चन १११

दशाहाभ्यन्तरे यस्य गङ्गातोयेऽस्थि सङ्गतम्

गङ्गायां मरणे यादृक्तादृक्फलमवाप्नुयात् ११२

स्नात्वा ततः पञ्चगव्येन सिक्त्वा हिरण्यमध्वाज्यतिलैर्नियोज्य

तदस्थिपिण्डं पुटके निधाय पश्यन् दिशं प्रेतगणोपगूढाम् ११३

नमोऽस्तु धर्माय वदन्प्रविश्य  जलं स मे प्रीत इति क्षिपेच्च

स्नात्वा ततस्तीर्थवटाक्षयं च दृष्ट्वा प्रदद्यादथ दक्षिणां तु ११४

एवं कृत्वा प्रेतपुरे स्थितस्य स्वर्गे गतिः स्यात्तु महेन्द्र तुल्या ११५

प्रवाहमवधिं कृत्वा यावद्धस्तचतुष्टयम्

तत्र नारायणः स्वामी नान्यः स्वामी कदाचन ११६

न तत्र प्रतिगृह्णीयात्प्राणैः कण्ठगतैरपि

भाद्र शुक्लचतुर्दश्यां यावदाक्रमते जलम् ११७

तावद्गर्भं विजानीयात्तद्दूरं तीरमुच्यते

सार्द्धहस्तशतं यावद्गर्भस्तीरं ततः परम् ११८

इति केषां मतं देवि श्रुतिस्मृतिषु सम्मतम्

तीराद्गव्यूतिमात्रं तु परितः क्षेत्रमुच्यते ११९

तीरं त्यक्त्वा वसेत्क्षेत्रे तीरे वासो न चेष्यते 

एकयोजनविस्तीर्णा क्षेत्रसीमा तटद्वयात् १२०

गङ्गासीमां न लङ्घन्ति पापान्यप्यखिलान्यपि

तां तु दृष्ट्वा पलायंते यथा सिंहं वनौकसः १२१

यत्र गङ्गा महाभागे रामशम्भुतपोवनम्

सिद्धक्षेत्रं तु तज्ज्ञेयं समन्तात्तु त्रियोजनम् १२२

तीर्थे न प्रतिगृह्णीयात्पुण्येष्वायतनेषु च

निमित्तेषु च सर्वेषु तन्निवृत्तो भवेन्नरः १२३

तीर्थे यः प्रतिगृह्णाति पुण्येष्वायतनेषु च

निष्फलं तस्य तत्तीर्थं यावत्तद्धनमुच्यते १२४

गङ्गाविक्रयणाद्देवि विष्णोर्विक्रयणं भवेत्

जनार्दने तु विक्रीते विक्रीतं भुवनत्रयम् १२५

गङ्गातीरसमुद्भूतां मृदं मूर्ध्ना बिभर्ति यः

बिभर्ति रूपं सोऽकस्य तमोनाशाय केवलम् १२६

गङ्गापुलिनजां धूलिमास्तीर्याथ निजान् पितॄन्

प्रीणयन्यो नरः पिण्डान्दद्यात्तान् स्वर्नयेदपि १२७

इदं तेऽभिहितं भद्रे  गङ्गामाहात्म्यमुत्तमम्

पठन् शृण्वन्नरो ह्येति तद्विष्णोः परमं पदम् १२८

नित्यं जप्यमिदं भक्त्या प्रयतैः श्रद्धयान्वितैः

वैष्णवीं गतिमिच्छद्भिः शैवीं वा विधिनन्दिनि १२९

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणोत्तरभागे मोहिनीवसुसंवादे  गङ्गामाहात्म्ये पूजादिकथनं नाम त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः       

 

 पद्म १.६२.१( गङ्गा माहात्म्य का वर्णन ), १.६२.८४( गङ्गा की उत्पत्ति के संदर्भ में माया रूपी प्रकृति के ७ रूपों में से एक रूप के गङ्गा होने का वर्णन ), ३.४३.५१( गङ्गा के त्रिपथा नाम का कारण ),

पद्म ५.८५.४(मानसिक, वाचिक व कायिक भक्तियों का कथन),

विविधा भक्तिरुद्दिष्टा मनोवाक्कायसंभवा ४

लौकिकी वैदिकी चापि भवेदाध्यात्मिकी तथा

ध्यानधारणया बुद्ध्या वेदानां स्मरणं हि यत् ५

विष्णुप्रीतिकरी चैषा मानसी भक्तिरुच्यते

मंत्रवेदसमुच्चारैरविश्रांत विचिंतनैः ६

जाप्यैश्चारण्यकैश्चैव वाचिकी भक्तिरुच्यते

व्रतोपवासनियमैः पञ्चेंद्रियजयेन च ७

कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिः सर्वार्थसाधिनी

भूषणैर्हेमरत्नांकैश्चित्राभिर्वाग्भिरेव च ८

वासः प्रतिसरैः सूत्रैः पावकव्यजनोच्छ्रितैः

नृत्यवादित्रगीतैश्च सर्वबल्युपहारकैः ९

भक्ष्यभोज्यान्नपानैश्च या पूजा क्रियते नरैः

नारायणंसमुद्दिश्य भक्तिः सा लौकिकी मता १०

कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिःसर्वार्थसाधिकी

 

पद्म  ५.८५.४९ ( वैशाख शुक्ल सप्तमी में गङ्गा के अर्चन तथा माहात्म्य का कथन ), ६.२० ( भगीरथ द्वारा गङ्गा अवतारण की कथा ),

पद्म ६.२२ (गङ्गा माहात्म्य व स्तोत्र ),

यत्संस्मृतिः सपदि कृंतति दुष्कृतौघं पापावलीं जयति योजन लक्षतोऽपि ।

यन्नाम नाम जगदुच्चरितं पुनाति दिष्ट्या हि सा पथिदृशो भविताद्य  गंगा ॥१६॥

आलोकोत्कंठितेन प्रमुदित मनसा वर्त्म यस्याः प्रयातं सद्यस्मिन्कृत्यमेतामथ प्रथम कृती जज्ञिवान्स्वर्गसिंधुम् ।

स्नानं संध्या निवापः सुर यजनमपि श्राद्ध विप्राशनाद्यं सर्वं संपूर्णमेतत्भवति भगवतः प्रीतिदं नातिचित्रम् ॥१७॥

देवीभूत परं ब्रह्म परमानंददायिनी ।

अर्घं गृहाण मे गंगे पापं हर नमोस्तुते ॥१८॥

साक्षाद्धर्म द्रवौघं मुररिपु चरणांभोज पीयूषसारं।

दुःखस्याब्धेस्तरित्रं सुरमनुजनुतं स्वर्गसोपान मार्गम्।

सर्वांहोहारि वारि प्रवर गुणगणंभासि या संवहंती।

तस्यै भागीरथि श्रीमति मुदितमना देवि कुर्वे नमस्ते ॥१९॥

स्वःसिंधो दुरिताब्धिमग्न जनता संतारणि प्रोल्लसत्कल्लोला।

मलकांतिनाशिततमस्तोमे जगत्पावनि ।

गंगे देवि पुनीहि दुष्कृतभयक्रांतं कृपाभाजनं मातर्मां शरणागतं शरणदे रक्षाथभोभीषितम् ॥२०॥

हं हो मानस कंपसे किमु सखे त्रस्तोभयान्नारकात्किं ते

भीतिरिति श्रुतिर्दुरितकृत्संजायते नारकी ।

माभैषीः शृणु मे गतिं यदि मया पापाचल

स्पर्द्धिनी प्राप्ता ते निरयं कथः किमपरं किं मे न धर्मं धनम् ॥२१॥

सर्वेशादि प्रशंसा मुदमनुभवनं मज्जनं यत्र चोक्तं स्वर्नार्योवीक्ष्यहृष्टा

विबुध सुरपतिः प्राप्तिसंभावनेन ।

नीरे श्रीजह्नु कन्येयम् अनियमरताः स्नांति ये तावकीने।

देवत्वं ते लभंते स्फुटम् अशुभकृतोप्यत्र वेदाः प्रमाणम् ॥२२॥

बुद्धे सद्बुद्धिरेवं भवतु तव सखे मानस स्वस्तिते ऽस्तु।

आस्तां पादौ पदस्थौ सततमिह युवां साधु दृष्टी च दृष्टी ।

वाणि प्राणप्रियेधि प्रकट गुण वपुः प्राप्नुहि प्राणि पुष्टिं यस्मात्सर्वैर्भवद्भिः।

सुखमतुलमहं प्राप्नुवं तीर्थपुण्यम् ॥२३॥

श्रीजाह्नवी रविसुता परमेष्ठिपुत्री सिंधुत्रयाभरणतीर्थवर प्रयाग।

 

पद्म ६.८१.२४ (गङ्गा माहात्म्य का वर्णन ), ६.१११.२६ ( स्वरा के शाप वश ब्रह्मा का ककुद्मिनी गङ्गा रूप होने का उल्लेख ),

पद्म ६.१२७.४८( काशी में गङ्गा के उत्तर वाहिनी व प्रयाग में पश्चिम् वाहिनी होने का उल्लेख ),

कुरुक्षेत्रसमा गंगा यत्रकुत्रावगाहिता

तस्माद्दशगुणा पुण्या यत्र विंध्येन संगता ४७

तस्माच्छतगुणा गंगा काश्यामुत्तरवाहिनी

काश्याः शतगुणाः प्रोक्ता गंगायामुनसंगमे ४८

सा सहस्रगुणा तासां भवेत्पश्चिमवाहिनी

या राजन्दर्शनादेव ब्रह्महत्यापहारिणी ४९

या पश्चाद्वाहिनीगंगा कालिंद्या सह संगता

हंति कोटिकृतं पापं सा माघे नृपदुर्लभा 6.127.५०

यत्कथ्यतेऽमृतं राजन्सावेणी भुवि कीर्तिता

तस्यां माघे मुहूर्तं तु देवानामपि दुर्लभम्  ५१

 

 ६.२४०.४२(ब्रह्मा द्वारा कमण्डलु जल से विष्णु के पाद प्रक्षालन करने पर गंगा की उत्पत्ति का कथन), ६.२४०.५४ ( बलि की कथा के अन्तर्गत गङ्गा उत्पत्ति का प्रसंग ), ७.३ ( गङ्गा के माहात्म्य का कथन : मनोभद्र - गृध्र संवाद ), ७.७ (गङ्गा के माहात्म्य का कथन : धर्मस्व ब्राह्मण कथा ), ७.८ ( गङ्गा के माहात्म्य का कथन : पद्मगन्धा की कथा ), ७.९ ( गङ्गा के माहात्म्य का कथन : भेक की कथा ), ब्रह्म १.६.७६ ( दिलीप - पुत्र भगीरथ द्वारा गङ्गा अवतारण का उल्लेख ), १.२२ ( आकाशगङ्गा : सूर्य द्वारा जल वितरण का उल्लेख ), २.३.३६ ( शिव द्वारा लोकहितार्थ ब्रह्मा को भूमि रूपी कमण्डलु में पवित्र गङ्गा को प्रदान करने का कथन ), २.४.६३ ( विष्णु के चरण कमलों में अर्घ्यस्वरूप प्रदत्त जल का चार धाराओं में विभक्त होकर मेरु पर गिरना, दक्षिण धारा के महेश्वर की जटाओं में आगमन का निरूपण ),

ब्र २.१५.१४( कण्व द्वारा क्षुधा रूपी भीषण गङ्गा की स्तुति ),

क्षुधातीर्थमिति ख्यातं शृणु नारद तन्मनाः।

कथ्यमानं महापुण्यं सर्वकामप्रदं नृणाम्॥ ८५.१॥                 2.15.1

ऋषिरासीत्पुरा कण्वस्तपस्वी वेदवित्तमः।

परिभ्रमन्नाश्रमाणि क्षुधया परिपीडितः॥ ८५.२॥

गौतमस्याश्रमं पुण्यं समृद्धं चान्नवारिणा।

आत्मानं क्षुधायुक्तं समृद्धं चापि गौतमम्॥ ८५.३॥

वीक्ष्य कण्वोऽथ वैषम्यं वैराग्यमगमत्तदा।

गौतमोऽपि द्विजश्रेष्ठो ह्यहं तपसि निष्ठितः॥ ८५.४॥

समेन याच्ञायुक्ता स्यात्तस्माद्गौतमवेश्मनि।

भोक्ष्येऽहं क्षुधार्तोऽपि पीडितेऽपि कलेवरे॥ ८५.५॥

गच्छेयं गौतमीं गङ्गामर्जयेयं संपदम्।

इति निश्चित्य मेधावी गत्वा गङ्गां पावनीम्॥ ८५.६॥

स्नात्वा शुचिर्यतमना उपविश्य कुशासने।

तुष्टाव गौतमीं गङ्गां क्षुधां परमापदम्॥ ८५.७॥

{कण्व उवाच॒ }

नमोऽस्तु गङ्गे परमार्तिहारिणि  ८५.

नमः क्षुधे सर्वजनार्तिकारिणि  ८५.

नमो महेशानजटोद्भवे शुभे  ८५.

नमो महामृत्युमुखाद्विनिसृते  ८५.

पुण्यात्मनां शान्तरूपे क्रोधरूपे दुरात्मनाम्।

सरिद्रूपेण सर्वेषां तापपापापहारिणि॥ ८५.९॥

क्षुधारूपेण सर्वेषां तापपापप्रदे नमः।

नमः श्रेयस्करि देवि नमः पापप्रतर्दिनि।

नमः शान्तिकरि देवि नमो दारिद्र्यनाशिनि॥ ८५.१०॥

{ब्रह्मोवाच॒ }

इत्येवं स्तुवतस्तस्य पुरस्तादभवद्द्वयम्।

एकं गाङ्गं मनोहारि ह्यपरं भीषणाकृति।

पुनः कृताञ्जलिर्भूत्वा नमस्कृत्वा द्विजोत्तमः॥ ८५.११॥

{कण्व उवाच॒ }

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये ब्राह्मि माहेश्वरि शुभे।

वैष्णवि त्र्यम्बके देवि गोदावरि नमोऽस्तु ते॥ ८५.१२॥

त्र्यम्बकस्य जटोद्भूते गौतमस्याघनाशिनि।

सप्तधा सागरं यान्ति गोदावरि नमोऽस्तु ते॥ ८५.१३॥

सर्वपापकृतां पापे धर्मकामार्थनाशिनि।

दुःखलोभमयि देवि क्षुधे तुभ्यं नमो नमः॥ ८५.१४॥

{ब्रह्मोवाच॒ }

तत्कण्ववचनं श्रुत्वा सुप्रीते आहतुर्द्विजम्॥* ८५.१५॥

{गङ्गाक्षुधे ऊचतुः॒ }

अभीष्टं वद कल्याण वरान् वरय सुव्रत॥* ८५.१६॥

{ब्रह्मोवाच॒ }

प्रोवाच प्रणतो गङ्गां कण्वः क्षुधां यथाक्रमम्॥* ८५.१७॥

{कण्व उवाच॒ }

देहि देवि मनोज्ञानि कामानि विभवं मम।

आयुर्वित्तं भुक्तिं मुक्तिं गङ्गे प्रयच्छ मे॥ ८५.१८॥

{ब्रह्मोवाच॒ }

इत्युक्त्वा गौतमीं गङ्गां क्षुधां चाह द्विजोत्तमः॥* ८५.१९॥

{कण्व उवाच॒ }

मयि मद्वंशजे चापि क्षुधे तृष्णे दरिद्रिणि।

याहि पापतरे रूक्षे भूयास्त्वं कदाचन॥ ८५.२०॥

अनेन स्तवेन ये वै त्वां स्तुवन्ति क्षुधातुराः।

तेषां दारिद्र्यदुःखानि भवेयुर्वरोऽपरः॥ ८५.२१॥

अस्मिंस्तीर्थे महापुण्ये स्नानदानजपादिकम्।

ये कुर्वन्ति नरा भक्त्या लक्ष्मीभाजो भवन्तु ते॥ ८५.२२॥

यस्त्विदं पठते स्तोत्रं तीर्थे वा यदि वा गृहे।

तस्य दारिद्र्यदुःखेभ्यो भयं स्याद्वरोऽपरः॥ ८५.२३॥

{ब्रह्मोवाच॒ }

एवमस्त्विति चोक्त्वा ते कण्वं याते स्वमालयम्।

ततः प्रभृति तत्तीर्थं काण्वं गाङ्गं क्षुधाभिधम्।

सर्वपापहरं वत्स पितॄणां प्रीतिवर्धनम्॥ ८५.२५॥

 

ब्र २.१०३.३( ७ ऋषियों द्वारा गङ्गा के सप्तधा विभाजन का कथन ),

सप्तधा व्यभजन् गङ्गामृषयः सप्त नारद।

वासिष्ठी दाक्षिणेयी स्याद्वैश्वामित्री तदुत्तरा॥ १७३.३॥

वामदेव्यपरा ज्ञेया गौतमी मध्यतः शुभा।

भारद्वाजी स्मृता चान्या आत्रेयी चेत्यथापरा॥ १७३.४॥

जामदग्नी तथा चान्या व्यपदिष्टा तु सप्तधा।

तैः सर्वैरृषिभिस्तत्र यष्टुमिष्टैर्महात्मभिः॥ १७३.५॥

निष्पादितं महासत्त्रमृषिभिः पारदर्शिभिः।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र देवानां प्रबलो रिपुः॥ १७३.६॥

विश्वरूप इति ख्यातो मुनीनां सत्त्रमभ्यगात्।

 

 

ब्रह्मवैवर्त्त २.१.६१ ( गङ्गा के प्रकृति देवी के प्रधानांशस्वरूपा होने का उल्लेख ), २.५ ( पार्वती भय से गङ्गा का शिवजटा में अदृश्य होना, पार्वती द्वारा गङ्गा निष्कासन का उद्योग ), २.६( गङ्गा के सकामा होने पर सरस्वती का कोप, परस्पर कलह तथा शाप प्रदान, शाप के फलस्वरूप गङ्गा व सरस्वती के पृथ्वी पर नदी रूप में परिणत होने का वर्णन ), २.६( गौतम ब्राह्मण द्वारा शिव की स्तुति, गौतम के जटा सहित गङ्गा के एक भाग को लेकर ब्रह्मगिरि पर गमन का वृत्तान्त ), २.७.८( गौतम के वचनानुसार गङ्गा का ब्रह्मगिरि से ३ भागों में विभक्त होकर स्वर्गलोक, मर्त्यलोक तथा रसातल में प्रवहण, पुन: स्वर्ग में चार धाराओं से, मर्त्य में सात धाराओं से तथा रसातल में चार धाराओं से गङ्गा के प्रवहण का कथन ), २.८( शिव जटा में स्थित गङ्गा के एक भाग की गौतम द्वारा अवतारणा होने से गौतमी गङ्गा नाम से प्रसिद्धि तथा द्वितीय भाग की भगीरथ द्वारा अवतारणा होने से भागीरथी नाम से प्रसिद्धि, भगीरथ द्वारा गङ्गा अवतारण तथा स्वपूर्वजों के उद्धार का वृत्तान्त ),

 

ब्र.वै. २.१०.१६( गङ्गा को लाने हेतु भगीरथ द्वारा लक्ष वर्ष तक तप करने का कथन )

नारद उवाच ।। श्रुतं पृथिव्युपाख्यानमतीव सुमनोहरम् ।। गङ्गोपाख्यानमधुना वद वेदविदां वर ।। १ ।। भारतं भारतीशा पादाजगाम सुरेश्वरी ।। विष्णुस्वरूपा परमा स्वयं विष्णुपदी सती ।। २।। कथं कुत्र युगे केन प्रार्थिता प्रेरिता पुरा ।। तत्क्रमं श्रोतुमिच्छामि पापघ्नं पुण्यदं शुभम् ।। ३ ।। नारायण उवाच ।। राजराजेश्वरः श्रीमन्सगरः सृर्य्यवंशजः ।। तस्य भार्या च वैदर्भी शैब्या च द्वे मनोहरे ।। ४ ।। सत्यस्वरूपः सत्येष्टः सत्यवाक्सत्यभावनः ।। सत्यधर्मविचारज्ञः परं सत्ययुगोद्भवः ।। ५ ।। एककन्यश्चैकपुत्रो बभूव सुमनोहरः ।। असमञ्ज इति ख्यातः शैब्यायां कुलवर्द्धनः ।। ६ ।। अन्या चाराधयामास शङ्करं पुत्रकामुकी ।। बभूव गर्भस्तस्याश्च शिवस्य तु वरेण च ।। ७ ।। गते शताब्दे पूर्णे च मांसपिण्डं सुषाव सा ।। तद्दृष्ट्वा च शिवं ध्यात्वा रुरोदोच्चैः पुनः पुनः ।।८।। शम्भुर्ब्राह्मणरूपेण तत्समीपं जगाम ह ।। चकार संविभज्यैतत्पिण्डं षष्टिसहस्रधा ।।९ ।। सर्वे बभूवुः पुत्राश्च महाबलपराक्रमा ।। ग्रीष्ममध्याह्नमार्त्तण्डप्रभाजुष्टकलेवराः ।। 2.10.१० ।। कपिलर्षेः कोपदृष्ट्या बभूवुर्भस्मसाच्च ते ।। राजा रुरोद तच्छ्रुत्वा जगाम मरणं शुचा ।। ११ ।। तपश्चकारासमंजो गङ्गानयनकारणात् ।। तपः कृत्वा लक्षवर्षं म्रियते कालयोगतः ।। १२।। दिलीपस्तस्य तनयो गङ्गानयनकारणात ।। तपः कृत्वा लक्षवर्ष ययौ लोकान्तरं नृपः ।। १३ ।। अंशुमाँस्तस्य पुत्रश्च गङ्गानयनकारणात् ।। तपः कृत्वा लक्षवर्षं मृतश्च कालयोगतः ।। १४ ।। भगीरथस्तस्य पुत्रो महाभागवतः सुधीः ।। वैष्णवो विष्णुभक्तश्च गुणवानजरामरः ।। १५ ।। तपः कृत्वा लक्षवर्षं गङ्गानयनकारणात् ।। ददर्श कृष्णं हृष्टास्यं सूर्य्यकोटिसमप्रभम् ।। १६ ।। द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम् ।। परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।। १७ ।। स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।। ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम् ।। १८ ।। निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।। ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।। १९ ।। वह्निशुद्धां शुकाधानं रत्नभूषणभूषितम् ।। तुष्टाव दृष्ट्वा नृपतिः प्रणम्य च पुनःपुनः ।। 2.10.२० ।। लीलया च वरं प्राप्य वाञ्छितं वंशतारकम् ।। तत्राजगाम गंगा सा स्मरणात्परमात्मनः ।। ।। २१ ।। तं प्रणम्य प्रतस्थौ च तत्पुरः संपुटाञ्जलिः ।। उवाच भगवांस्तत्र तां दृष्ट्वा सुमनोहरम् ।। कुर्वतीं स्तवनं दिव्यं पुलकाञ्चितविग्रहाम् ।। २२ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। भारतं भारतीशापाद्गच्छ शीघ्रं सुरेश्वरि ।। २३ ।। सगरस्य सुतान्सर्वान्पूतान्कुरु ममाज्ञया ।। त्वत्स्पर्शवायुना पूता यास्यन्ति मम मन्दिरम् ।। २४ ।। बिभ्रतो दिव्यमूर्त्तिं ते दिव्यस्यन्दनगामिनः ।। मत्पार्षदा भविष्यन्ति सर्वकालं निरामयाः ।। २५ ।।

 

ब्र.वै. २.१०.२७( भिन्न - भिन्न दिवसों में गङ्गा के दर्शन व स्पर्श का माहात्म्य ),

कर्मभोगं समुच्छिद्य कृतं जन्मनि जन्मनि ।। नानाविधं महत्स्वल्पं पापं स्याद्भारते नृभिः ।। २६ ।। गंगायाः स्पर्शवातेन नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् ।। स्पर्शनं दर्शनाद्देव्याः पुण्यं दशगुणं ततः ।। २७ ।। मौसलस्नानमात्रेण सामान्यदिवसे नृणाम्।। कोटिजन्मार्जितं पापं नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम्।।२८।।यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च।। नानाजन्मार्जितान्येव कामतोऽपि कृतानि च ।।२९।। तानि सर्वाणि नश्यन्ति मौसलस्नानतो नृणाम् ।। पुण्याहस्नानजं पुण्यं वेदा नैव वदन्ति च ।। 2.10.३० ।। केचिद्वदन्ति ते देवि फलमेव यथागमम् ।। ब्रह्मविष्णुशिवायाश्च सर्वे नैव विदन्ति च ।। ३१ ।। सामान्यदिवसस्नानसङ्कल्पं शृणु सुन्दरि ।। पुण्यं दशगुणं चैव मौसलस्नानतः परम् ।। ३२ ।। ततस्त्रिंशद्गुणं पुण्यं रविसंक्रमणे दिने ।। अमायां चापि तत्तुल्यं द्विगुणं दक्षिणायने ।।३३।। ततो दशगुणं पुण्यं नराणामुत्तरायणे ।। चातुर्मास्यां पौर्णमास्यामनन्तं पुण्य मेव च ।। ३४ ।। अक्षयायां च तत्तुल्यं नैतद्वेदे निरूपितम् ।। असंख्यपुण्यफलदमेतेषु स्नानदानकम् ।। ३५ ।। सामान्यदिवसे स्नानं ध्यानाच्छतगुणं फलम् ।। मन्वन्तरेषु देवेशि युगादिषु तथैव च ।। ३६ ।। माघस्य सितसप्तम्यां भीष्माष्टम्यांतथैव च ।। तथा ऽशोकाष्टमीतिथ्यां नवम्यां च तथा हरेः ।। ३७ ।। ततोऽपि द्विगुणं पुण्यं नन्दायां तव दुर्लभम् ।। दशपापहरायां तु दशम्यां सुमहत्फलम् ।। ३८ ।। नन्दासमं च वारुण्यां महत्पूर्वं चतुर्गुणम् ।। ततश्चतुर्गुणं पुण्यं द्विमहत्पूर्वके सति ।। ३९ ।। पुण्यं कोटिगुणं चैव सामान्यस्नानतो भवेत् ।। चन्द्रसूर्योपरागेषु स्मृतं दशगुणं ततः ।। 2.10.४० ।। पुण्येऽप्यर्द्धोदये काले ततः शतगुणं फलम् ।।

 

ब्र.वै. २.१०.६४( गङ्गा के प्रश्न करने पर कृष्ण द्वारा गङ्गा को पापियों के पाप से मुक्त होने के उपाय का कथन ),

यानि कानि च पापानि मह्यं दास्यन्ति पापिनः ।। तानि मे केन नश्यन्ति तदुपायं वद प्रभो ।। ६१ ।। कतिकालं परिमितं स्थितिर्मे तत्र भारते ।। कदा यास्यामि सर्वेश त्वद्विष्णोः परमं पदम् ।। ६२ ।। ममान्यद्वाच्छितं यद्यत्सर्वं जानासि सर्ववित् ।। सर्वान्तरात्मन्त्सर्वज्ञ तदुपायं वद प्रभो ।। ६३ ।। श्रीकृष्ण उवाच ।। जानामि वाञ्छितं गङ्गे तव सर्वं सुरेश्वरि ।। पतिस्ते रुद्ररूपोऽयं लवणोदो भविष्यति ।। ६४ ।। ममैवांशः समुद्रश्च त्वं च लक्ष्मीस्वरूपिणी ।। विदग्धाया विदग्धेन सङ्गमो गुणवान्भुवि ।। ६५ ।। यावत्त्यः सन्ति नद्यश्च भारत्याद्याश्च भारते ।। सौभाग्यं तव तास्वेव लवणोदस्य सौरते ।। ६६ ।। अद्यप्रभृति देवेशि कलेः पञ्च सहस्रकम् ।। वर्षं स्थितिस्ते भारत्या भुवि शापेन भारते ।। ६७ ।। नित्यं वारिधिना सार्द्धं करिष्यसि रहो रतिम् ।। त्वमेव रसिका देवी रसिकेन्द्रेण संयुता ।। ६८ ।। त्वां तोषयन्ति स्तोत्रेण भगीरथकृतेन च ।। भारतस्था जनाः सर्वे पूजयिष्यन्ति भक्तितः ।।६९।। ध्यानेन कौथुमोक्तेन ध्यात्वा त्वां पूजयिष्यति ।। यः स्तौति प्रणमेन्नित्यं सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।। 2.10.७० ।। गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद्यो जनानां शतैरपि ।। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ।।७१।। सहस्रपापिनां स्नानाद्यत्पापं ते भविष्यति ।। मद्भक्तदर्शने तावत्तदैव हि विनश्यति ।। ७२ ।। पापिनां तु सहस्राणां शवस्पर्शेन यत्तव ।। मन्मन्त्रोपासकस्नानात्तदघं च विनश्यति ।। ७३ ।।

 

ब्रह्मवैवर्त्त २.१०.९७( कौथुमी शाखोक्त, भगीरथ - कृत गङ्गा ध्यान का कथन ),

श्वेतचम्पकवर्णाभां गङ्गां पापप्रणाशिनीम् ।। कृष्णविग्रहसम्भूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् ।। ९७ ।। वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।। शरत्पूर्णेन्दुशतकप्रभाजुष्टकलेवराम् ।। ९८ ।। ईषद्धासप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।। नारायणप्रियां शान्तां सत्सौभाग्यसमन्विताम ।। ९९ ।। बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुताम् ।। सिन्दूरबिन्दुललितां सार्द्धं चन्दनबिन्दुभिः ।। 2.10.१०० ।। कस्तूरीपत्रकं गण्डे नानाचित्रसमन्वितम् ।। पक्वबिम्बसमानैकचार्वोष्ठपुटमुत्तमम् ।। १०१ ।। मुक्तापंक्तिप्रभाजुष्टदन्तपंक्तिमनोहराम् ।। सुचारुवक्रनयनां सकटाक्षमनोरमाम् ।। १०२ ।। कठिनं श्रीफलाकारं स्तनयुग्मं च बिभ्रतीम् ।। बृहच्छ्रोणीं सुकठिनां रम्भास्तम्भपरिष्कृताम् ।। १०३ ।। स्थलपद्मप्रभाजुष्टपादपद्मयुगंधराम् ।। रत्नाभरणसंयुक्तं कुंकुमाक्तं सयावकम् ।। १०४ ।। देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणम् ।। सुरसिद्धमुनीन्द्रादिदत्तार्घ्यैस्संयुतं सदा ।। १०५ ।। तपस्विमौलिनिकरभ्रमरश्रेणिसंयुतम् ।। मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां स्वर्गभोगदम् ।। १०६ ।। वरां वरेण्यां वरदां भक्तानुग्रहकातराम् ।। श्रीविष्णोः पददात्रीं च भजे विष्णुपदीं सतीम् ।। १०७ ।। इति ध्यानेन चानेन ध्यात्वा त्रिपथगां शुभाम् ।। दत्त्वा संपूजयेद्ब्रह्मन्नुपहारांश्च षोडश ।। १०८ ।। आसनं पाद्यमर्घ्यं च स्नानीयं चानुलेपनम् ।। धूपं दीपं च नैवेद्यं ताम्बूलं शीतलं जलम् ।। १०९ ।। वसनं भूषणं माल्यं गंधमाचमनीयकम् ।। मनोहरं सुतल्पं च देयान्येतानि षोडश ।।2.10.११०।। दत्त्वा भक्त्या संप्रणमेत्स्तुत्वा तां संपुटाञ्जलिः ।। संपूज्यैवंप्रकारेण सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।।१११।।

 

ब्रह्मवैवर्त्त २.१०.११४(कौथुमी शाखोक्त, भगीरथ - कृत गङ्गा स्तोत्र का कथन, गङ्गा के विभिन्न लोकों में दैर्घ्य का कथन),

स्तोत्रं वै कौथुमोक्तं च संवादं विष्णुवेधसोः ।। शृणु नारद वक्ष्यामि पापघ्नं च सुपुण्यदम्।।११२।। श्रीब्रह्मोवाच ।। श्रोतुमिच्छामि देवेश लक्ष्मीकान्त नमः प्रभो ।। विष्णो विष्णुपदीस्तोत्रं पापघ्नं पुण्यकारणम् ।। ११३ ।। श्रीनारायण उवाच ।। शिवसंगीतसंमुग्धश्रीकृष्णाङ्गद्रवोद्भवाम् ।। राधांगद्रवसम्भूतां तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। ११४ ।। या जन्मसृष्टेरादौ च गोलोके रासमण्डले ।। सन्निधाने शङ्करस्य तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। ।। ११५ ।। गोपैर्गोपीभिराकीर्णे शुभे राधामहोत्सवे ।। कार्तिकीपूर्णिमाजातां तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ११५ ।। कोटियोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये लक्षगुणा ततः ।। समावृता या गोलोकं तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।११७।। षष्टिलक्षैर्योजनैर्या ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा।। समावृता या वैकुण्ठं तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।११८।। विंशल्लक्षैर्योजनैर्या ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा ।। आवृता ब्रह्मलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। ११९ ।। त्रिंशल्लक्षैर्योजनैर्या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः ।। आवृता शिवलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। 2.10.१२० ।। षड्योजनसुविस्तीर्णा दैर्घ्ये दशगुणा ततः ।। मन्दाकिनी येन्द्रलोके तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। १२१ ।। लक्षयोजनविर्स्तार्णा दैर्घ्ये सप्त गुणा ततः ।। आवृता ध्रुवलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। १२२ ।। लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये षड्गुणिता ततः ।। आवृता चन्द्र लोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।१२३।। योजनैष्षष्टिसाहस्रैर्दैर्घ्ये दशगुणा ततः ।। आवृता सृर्य्यलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम्।। ।। १२४ ।। लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये षङ्गुणिता ततः ।। आवृता सत्यलोकं या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। १२५ ।। दशलक्षै र्योजनैर्या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः ।। आवृता या तपोलोकं तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।।१२६।। सहस्रयोजना या च दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः ।। आवृता जनलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।। १२७ ।। सहस्रयोजनाऽऽयामे दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः ।। आवृता या च कैलासं तां गंगां प्रणमाम्यहम्।।१२८।। पाताले या भोगवती विस्तीर्णा दशयोजना ।। ततो दशगुणा दैर्घ्ये तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।१२९।। क्रोशैकमात्रविस्तीर्णा ततः क्षीणा न कुत्रचित् ।। क्षितौ चालकनन्दा या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। 2.10.१३० ।। सत्ये या क्षीरवर्णा च त्रेतायामिन्दुसन्निभा ।।द्वापरे चन्दनाभा च तां गंगां प्रणमाम्यहम् ।।१३१।। जलप्रभा कलौ या च नान्यत्र पृथिवीतले ।। स्वर्गे च नित्यं क्षीराभा तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। १३२ ।। यस्याः प्रभाव अतुलः पुराणे च श्रुतौ श्रुतः ।। या पुण्यदा पापहर्त्री तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ।। १३३ ।। यत्तोयकणिकास्पर्शः पापिनां च पितामह ।। ब्रह्महत्यादिकं पापं कोटिजन्मार्जितं दहेत् ।। १३४ ।। इत्येवं कथितं ब्रह्मन्गंगापद्यैकविंशतिम् ।। स्तोत्ररूपं च परमं पापघ्नं पुण्यबीजकम् ।। १३५ ।। नित्यं यो हि पठेद्भक्त्या संपूज्य च सुरेश्वरीम् ।। अश्वमेधफलं नित्यं लभते नात्र संशयः।।१३६।। अपुत्रो लभते पुत्रं भार्याहीनो लभेत्प्रियाम् ।। रोगान्मुच्येत रोगी च बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।। १३७ ।। अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ।। यः पठेत्प्रातरुत्थाय गङ्गास्तोत्रमिदं शुभम् ।। ।।१३८।। शुभं भवेत्तु दुःस्वप्नं गङ्गास्नानफलं लभेत् ।।१३९।। नारायण उवाच ।। भगीरथोऽनया स्तुत्या स्तुत्वा गङ्गां च नारद ।। जगाम तां गृहीत्वा च यत्र नष्टश्च सागराः ।। 2.10.१४० ।।

 

ब्रह्मवैवर्त्त २.११( कृष्ण व गङ्गा के परस्पर सकाम भाव को देखकर राधा का रोष, उपालम्भ, भयभीत गङ्गा के कृष्ण के चरणों में छिपने से चतुर्दिक् जलशून्यता, ब्रह्मा आदि द्वारा राधा को गङ्गा के कन्यात्व का कथन, भयमुक्त गङ्गा का बाहर आना, ब्रह्मा द्वारा कमण्डलु में तथा शिव द्वारा शिर के चन्द्रार्ध भाग में गङ्गा का स्वल्पांश धारण करने का वृत्तान्त ), २.१२( विष्णु के साथ गान्धर्व विवाह तथा गङ्गा के विष्णुपदी नाम के हेतु का कथन ), २.३३( प्रियव्रत के यज्ञ में हिरण्यक नामक दानव के आगमन से भयभीत अग्नि के गङ्गा जल में शरण लेने का उल्लेख ), २.१०२( समुद्र से सङ्गम के लिए सप्तर्षियों के नाम से सप्तधा विभक्त होने का कथन ), ४.३४( शिव संगीत से जन्म, देवनदी, गङ्गा, भागीरथी, जाह्नवी, भीष्मजननी, त्रिपथगामिनी आदि नामों के कारण का कथन तथा माहात्म्य का वर्णन ), ४.१२७( कलियुग में भारत में रहने का कृष्ण के आदेश का कथन ),  ब्रह्माण्ड १.२.१३.३५(मेना व हिमवान् पुत्री), १.२.१८.२६( अन्तरिक्ष से अवतरित गङ्गा का शिव की जटाजूट में धारण, भगीरथ द्वारा गङ्गा अवतारण हेतु तप, तप से संतुष्ट महादेव द्वारा गङ्गा का मोचन, मुक्त गङ्गा का नलिनी, ह्रदिनी, पावनी, सीता, चक्षु, सिन्धु तथा भागीरथी नामक सात धाराओं में विभाजन का वर्णन ), २.३.५६.३८( भगीरथ द्वारा गङ्गा के अवतारण तथा स्वपूर्वजों सगर - पुत्रों के उद्धार का वर्णन ), भविष्य २.२.८.१२५( गङ्गा द्वार में महावैशाखी पूर्णिमा के विशेष फल का उल्लेख ), भागवत ४.१.१४( देवकुल्या - कन्या के ही देवनदी गङ्गा के रूप में प्रकट होने का उल्लेख ) , ५.१७( विष्णुपद से उत्पन्न होकर मेरुशिखर पर गिरते समय विष्णुपदी गङ्गा के सीता, अलकनन्दा, चक्षु तथा भद्रा नामक चार धाराओं में विभक्त होने का कथन ), ७.१४.२९( गङ्गा की स्थिति से भारत देश की परम पवित्रता का उल्लेख ), ८.४.२३( गङ्गा की भगवद् रूपता का उल्लेख ), ९.९( दिलीप - पुत्र भगीरथ द्वारा गङ्गा के अवतारण तथा पूर्वजों के स्वर्ग गमन का कथन ), ९.१५.३( जह्नु द्वारा गङ्गा पान का उल्लेख ), मत्स्य १३.३५( गङ्गा तीर्थ में मङ्गला नाम से सती देवी की स्थिति का उल्लेख ),

 

म. १०६.५०( भूतल पर मनुष्यों, पाताल में नागों तथा स्वर्ग में देवों को तारने से गङ्गा का त्रिपथगा नाम, गङ्गा में अस्थिक्षेप से स्वर्ग लोक में स्थिति, गङ्गा की सर्वत्र सुलभता परन्तु गङ्गा द्वार, प्रयाग व गङ्गासागर सङ्गम में दुर्लभता आदि का कथन ),

कुरुक्षेत्रसमा गङ्गा यत्र यत्रावगाह्यते

कुरुक्षेत्राद्दशगुणा यत्र विन्ध्येन संगता  49

यत्र गङ्गा महाभागा बहुतीर्था तपोधना

सिद्धक्षेत्रं हि तज्ज्ञेयं नात्र कार्या विचारणा  106.50

क्षितौ तारयते मर्त्यान्नागांस्तारयतेऽप्यधः

दिवि तारयते देवांस्तेन त्रिपथगा स्मृता  51

यावदस्थीनि गङ्गायां तिष्ठन्ति हि शरीरिणः

तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते  52

ततः स्वर्गात्परिभ्रष्टो जम्बूद्वीपपतिर्भवेत्

तीर्थानां तु परं तीर्थं नदीनां तु महानदी

मोक्षदा सर्वभूतानां महापातकिनामपि  53

सर्वत्र सुलभा गङ्गा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा

गङ्गाद्वारे प्रयागे गङ्गासागरसंगमे

तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः  54

सर्वेषामेव भूतानां पापोपहतचेतसाम्

गतिमन्विष्यमाणानां नास्ति गङ्गासमा गतिः  55

पवित्राणां पवित्रं मङ्गलानां मङ्गलम्

महेश्वरशिरोभ्रष्टा सर्वपापहरा शुभा  56

कृते तु नैमिषं क्षेत्रं त्रेतायां पुष्करं परम्

द्वापरे तु कुरुक्षेत्रं कलौ गङ्गा विशिष्यते  57

गङ्गामेव निषेवेत प्रयागं तु विशेषतः

नान्यत्कलियुगे घोरे भेषजं नृप विद्यते  58

 

 

 महाभारत शान्ति ३४७.५०(हयग्रीव की श्रोणी के रूप में गङ्गा सरस्वती का उल्लेख), मार्कण्डेय ५६( गङ्गावतार का वर्णन ),

लिङ्ग १.५२.१२( गङ्गा नाम की निरुक्ति : अम्बर से गां /पृथिवी की ओर गता होने से गङ्गा नाम धारण का उल्लेख ),

क्षुद्रनद्यस्त्वसंख्याता गङ्गा यद्गाङ्गताम्बरात् ।

 

वराह ८२( सहस्र पर्वतों को तोडती हुई मेरु से पृथ्वी पर गमन /गां - गता / करने से गङ्गा नाम धारण का उल्लेख ),

आकाशसमुद्रो यः कीर्त्यते सामाख्यस् तस्मादाकाशगामिनी नदी प्रवृत्ता । सा चानवरतमिन्द्रगजेन क्षोभ्यते । सा च चतुरशीतिसहस्त्रोच्छ्राया । सा मेरोः सुदर्शनं करोति । सा च मेरुकूटतटान्तेभ्यः प्रस्खलिता चतुर्धा संजाता । षष्टिं च योजनसहस्त्रं निरालम्बा पतमाना प्रदक्षिणमनुसरन्ती चतुर्द्धा जगाम । सीता चालकनन्दा चक्षुर्भद्रा चेति नामभिः ।
यथोद्देशं सा चानेकशतसहस्त्रपर्वतानां दारयन्ती गां गतेति गङ्गेत्युच्यते

 

वराह १२५.२४( गङ्गा की निरुक्ति : मन्दाकिनी नदी का गौ को जाना / गां गता ), १३८.१५( मृत खञ्जरीट पक्षी का गङ्गाजल में प्रक्षेपण, गङ्गाजल के प्रभाव से पक्षी का ऐश्वर्य सम्पन्न वैश्य गृह में जन्म लेना ), १४५.८८( शालग्राम क्षेत्र माहात्म्य के अन्तर्गत श्वेत गङ्गा व त्रिशूलगङ्गा की स्थिति का उल्लेख ), वायु ४२( आकाशगङ्गा के अवतरण का वर्णन ), ४२.३९( हिमालय से निर्गता होने के कारण गं गा नाम धारण का उल्लेख ), ४७.२५( गौर पर्वत के पाददेश में स्थित बिन्दुसरोवर पर भगीरथ द्वारा गङ्गा अवतारण हेतु तप, तप से संतुष्ट महादेव द्वारा जटाजूट में निरुद्ध गङ्गा का मोचन, छूटने पर गङ्गा का सात धाराओं में विभक्त होना ), ७७.६८( गङ्गा में सर्वत्र श्राद्ध के अक्षय होने का उल्लेख ), ९१.५४(  जह्नु द्वारा गङ्गा का पान, गङ्गा का जाह्नवी नाम धारण करने का कथन ),

वा.रामायण १.४३.

१.०४३.००४  सागरस्य जलं लोके यावत्स्थास्यति पार्थिव

१.०४३.००४ सगरस्यात्मजास्तावत्स्वर्गे स्थास्यन्ति देववत्

१.०४३.००५  इयं च दुहिता ज्येष्ठा तव गङ्गा भविष्यति

१.०४३.००५ त्वत्कृतेन च नाम्ना वै लोके स्थास्यति विश्रुता

१.०४३.००६  गङ्गा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च

१.०४३.००६ त्रिपथो भावयन्तीति ततस्त्रिपथगा स्मृता

 

 विष्णु २.२.३३( विष्णुपाद से नि:सृत गङ्गा के ब्रह्मपुरी में गिरने पर सीता, अलकनन्दा, चक्षु तथा भद्रा नामक चार भागों में विभक्त होने तथा चार दिशाओं में प्रवहण का वर्णन ),

विष्णु२.८.१०८( विष्णु के तृतीय परमपद रूप गङ्गा के माहात्म्य का कथन ),

यावन्मात्रे प्रदेशो! तु मैत्रेयावस्थितो ध्रुवः 

क्षयमायाति तावत्तु भूमेराभूतसंप्लवात्  ९७ 

ऊर्ध्वोत्तरमृषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्र व्यवस्थितः 

एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योम्नि भासुरम्  ९८

निर्धूतदोषपङ्कानां यतीनां संयतात्मनाम् 

स्थानं तत्परमं विप्र पुण्यपापरिक्षये  ९९

अपुण्यपुण्योपरमे क्षीणाश्षोआ!प्तिहेतवः

यत्र गत्वा शोचन्ति तद्विष्णोः परमं पदम्  १०० 

धर्मध्रुवाद्यास्तिष्ठन्ति यत्र ते लोकसाक्षिणः 

तत्सार्ष्ट्योत्पन्नयोगर्धिस्तद्विष्णोः परमं पदम्  १०१ 

यत्रोतमेतत्प्रोतं यद्भूतं सचराचरम् 

भाव्यं विश्वं मैत्रेय तद्विष्णोः परमं पदम्  १०२ 

दिवीव चक्षुराततं योगिनां तन्मयात्मनाम् 

विवेकज्ञानदृष्टं तद्विष्णोः परमं पदम्  १०३ 

यस्मिन्प्रतिष्ठितो भास्वान्मेढीभूतः स्वयं ध्रुवः 

ध्रुवे सर्वज्योतींषि ज्योतिष्वम्भोमुचो द्विज  १०४ 

मेघेषु संगता वृष्टिर्वृष्टेः सृष्टेश्च पोषणम् 

आप्यायनं सर्वेषां देवादीनां महामुने  १०५ 

ततश्चाज्याहुतिद्वारा पोषितास्ते हविर्भुजः 

वृष्टेः कारणतां यांति भूतानां स्थितये पुनः  १०६ 

एवमेतत्पदं विष्णोस्तृतीयममलात्मकम्

आधारभूतं लोकानां त्रयाणां वृष्टिकारणम्  १०७ 

ततः प्रभवति ब्रह्मन्सर्वपापहरा सरित् 

गंगा देवांगनांगानामनुलेपनपिञ्जरा  १०८ 

वामपादाम्बुजांगुष्ठनखस्रोतोविनिर्गताम् 

विष्णोर्बिभर्त्ति यां भक्त्या शिरसाहर्निशं ध्रुवः  १०९ 

ततः सप्तर्षयो यस्याः प्राणायामपरायणाः 

तिष्ठन्ति वीचिमालाभिरुह्यमानजटाजले  ११० 

वार्योघैः संततैर्यस्याः प्लावितं शशिमण्डलम् 

भूयोधिकतरां कांतिं वहत्येतदुह क्षये  १११ 

मेरुपृष्टे पतत्युच्चैर्निष्क्रांता शशिमण्डलात् 

जगतः पावनार्थाय प्रयाति चतुर्दिशम्  ११२ 

सीता चालकनन्दा चक्षुर्भद्रा  संस्थिता 

एकैव या चतुर्भेदा दिग्भेदगतिलक्षणा  ११३ 

भेदं चालकनन्दाख्यं यस्याः शर्वोपि दक्षिणाम् 

दधार शिरसा प्रीत्या वर्षाणामधिकं शतम्  ११४ 

शम्भोर्जटाकलापाच्च विनिष्क्रान्तास्थिशर्कराः 

प्लावयित्वा दिवं निन्ये या पापान्सगरात्मजान्  ११५ 

स्नातस्य सलिले यस्याः सद्यः पापं प्रणश्यति 

अपूर्वपुण्यप्राप्तिश्च सद्यो मैत्रेय जायते  ११६ 

 विष्णुधर्मोत्तर १.१९( दिलीप - पुत्र भगीरथ का गङ्गा अवतारण हेतु तप, तप से संतुष्ट गङ्गा का दर्शन देना तथा स्ववेग को सहन करने में पृथ्वी की असमर्थता बतलाते हुए शिव के जटाजूट में अवतरित होने के लिए शिव को प्रसन्न करने के लिए कहना, भगीरथ द्वारा तप से शिव को प्रसन्न करना, जटाजूट में गङ्गा का अवतरण, भगीरथ हेतु गङ्गा का मोचन, सप्त धाराओं में विभक्त होकर गङ्गा का प्रवहण, सप्त धारा का भगीरथ का अनुकरण करते हुए सागर से मिलना तथा पाताल में पहुंचकर सगर - पुत्रों की भस्म को स्वजल से प्लावित करके उनका उद्धार करने का वृत्तान्त ), १.२०( भगीरथ का अनुसरण करते हुए गङ्गा द्वारा राजा जह्नु के यज्ञवाट का प्लावन, क्रुद्ध जह्नु द्वारा योगबल से गङ्गा का पान, मुनिजनों की प्रार्थना पर श्रवण रन्ध्र से गङ्गा का मोचन, दुहिता रूप से स्वीकार करने पर गङ्गा के जाह्नवी नाम धारण का कथन ), १.२१( विष्णु के अङ्गुष्ठाग्र से क्षत ब्रह्माण्ड छिद्र से प्रविष्ट जल के देवनदी रूप होकर विष्णुपदी नाम से प्रथित होने का उल्लेख ), १.२२( ब्रह्माण्ड में प्रवेश करने पर गङ्गा की समस्त वर्षों व द्वीपों में विभिन्न नामों से व्याप्ति का कथन ), १.२९.२( शिव का अङ्गुष्ठ मात्र होकर गङ्गा जल के माध्यम से चन्द्रमा/विष्णु के लोक पहुंचने का कथन ), १.२१५ ( मकर नामक वाहन पर आरूढ होकर गङ्गा द्वारा जनार्दन के अनुसरण का उल्लेख ), १.२२८ ( अग्नि द्वारा शिव वीर्य का गङ्गा में परित्याग तथा गङ्गा द्वारा भी श्वेत पर्वत पर परित्याग का उल्लेख ), १.२२९( वैशाख शुक्ल तृतीया को गङ्गा पूजा के महत्त्व का कथन ), ३.१२१.८( गङ्गा तट पर वासुदेव की पूजा का निर्देश ),

 

शिव १.१२.१० ( गङ्गा शतमुखा का संक्षिप्त माहात्म्य ),

सिंधोः शतनदीतीरे संति क्षेत्राण्यनेकशः  ॥ १,१२.८

सरस्वती नदी पुण्या प्रोक्ता षष्टिमुखा तथा  ॥ १,१२.९

तत्तत्तीरे वसेत्प्राज्ञः क्रमाद्ब्रह्मपदं लभेत् ॥ १,१२.९

हिमवद्गिरिजा गंगा पुण्या शतमुखा नदी  ॥ १,१२.१०

तत्तीरे चैव काश्यादि पुण्यक्षेत्राण्यनेकशः  ॥ १,१२.१०

तत्र तीरं प्रशस्तं हि मृगे मृगबृहस्पतौ  ॥ १,१२.११

शोणभद्रो दशमुखः पुण्योभीष्टफलप्रदः  ॥ १,१२.११

तत्र स्नानोपवासेन पदं वैनायकं लभेत् ॥ १,१२.१२

चतुर्विंशमुखा पुण्या नर्मदा च महानदी  ॥ १,१२.१२

तस्यां स्नानेन वासेन पदं वैष्णवमाप्नुयात् ॥ १,१२.१३

तमसा द्वादशमुखा रेवा दशमुखा नदी  ॥ १,१२.१३

गोदावरी महापुण्या ब्रह्मगोवधनाशिनी  ॥ १,१२.१४

एकविंशमुखा प्रोक्ता रुद्रलोकप्रदायिनी  ॥ १,१२.१४

कृष्णवेणी पुण्यनदी सर्वपापक्षयावहा  ॥ १,१२.१५

साष्टादशमुखा प्रोक्ता विष्णुलोकप्रदायिनी  ॥ १,१२.१५

तुंगभद्रा दशमुखा ब्रह्मलोकप्रदायिनी  ॥ १,१२.१६

सुवर्णमुखरी पुण्या प्रोक्ता नवमुखा तथा  ॥ १,१२.१६

तत्रैव सुप्रजायंते ब्रह्मलोकच्युतास्तथा  ॥ १,१२.१७

सरस्वती च पंपा च कन्याश्वेतनदी शुभा  ॥ १,१२.१७

एतासां तीरवासेन इंद्रलोकमवाप्नुयात् ॥ १,१२.१८

सह्याद्रिजा महापुण्या कावेरीति महानदी  ॥ १,१२.१८

सप्तविंशमुखा प्रोक्ता सर्वाभीष्टं प्रदायिनी  ॥ १,१२.१९

तत्तीराः स्वर्गदाश्चैव ब्रह्मविष्णुपदप्रदाः  ॥ १,१२.१९

शिवलोकप्रदा शैवास्तथा ऽभीष्टफलप्रदाः  ॥ १,१२.२०

नैमिषे बदरे स्नायान्मेषगे च गुरौ रवौ  ॥ १,१२.२०

ब्रह्मलोकप्रदं विद्यात्ततः पूजादिकं तथा  ॥ १,१२.२१

सिंधुनद्यां तथा स्नानं सिंहे कर्कटगे रवौ  ॥ १,१२.२१

केदारोदकपानं च स्नानं च ज्ञानदं विदुः  ॥ १,१२.२२

गोदावर्यां सिंहमासे स्नायात्सिंहबृहस्पतौ  ॥ १,१२.२२

शिवलोकप्रदमिति शिवेनोक्तं तथा पुरा  ॥ १,१२.२३

यमुनाशोणयोः स्नायाद्गुरौ कन्यागते रवौ  ॥ १,१२.२३

धर्मलोके दंतिलोके महाभोगप्रदं विदुः  ॥ १,१२.२४

कावेर्यां च तथा स्नायात्तुलागे तु रवौ गुरौ  ॥ १,१२.२४

विष्णोर्वचनमहात्म्यात्सर्वाभीष्टप्रदं विदुः  ॥ १,१२.२५

वृश्चिके मासि संप्राप्ते तथार्के गुरुवृश्चिके  ॥ १,१२.२५

नर्मदायां नदीस्नानाद्विष्णुलोकमवाप्नुयात् ॥ १,१२.२६

सुवर्णमुखरीस्नानं चापगे च गुरौ रवौ  ॥ १,१२.२६

शिवलोकप्रदमिति ब्राह्मणो वचनं यथा  ॥ १,१२.२७

मृगमासि तथा स्नायाज्जाह्नव्यां मृगगे गुरौ  ॥ १,१२.२७

शिवलोकप्रदमिति ब्रह्मणो वचनं यथा  ॥ १,१२.२८

ब्रह्मविष्ण्वोः पदे भुक्त्वा तदंते ज्ञानमाप्नुयात् ॥ १,१२.२८

गंगायां माघमासे तु तथाकुंभगते रवौ  ॥ १,१२.२९

श्राद्धं वा पिंडदानं वा तिलोदकमथापिवा  ॥ १,१२.२९

वंशद्वयपितॄणां च कुलकोट्युद्धरं विदुः  ॥ १,१२.३०

कृष्णवेण्यां प्रशंसंति मीनगे च गुरौ रवौ  ॥ १,१२.३०

 

 शिव ४.४ ( अनसूया के पातिव्रत्य तथा तप से सन्तुष्ट होकर गङ्गा के अत्रि आश्रम में वास का वृत्तान्त ), ४.२६ ( गौतम के तप से संतुष्ट होकर शिव का आविर्भूत होना, गौतम का शिव से गङ्गा की याचना करना, गङ्गा के गौतमी नाम से तथा शिव के त्र्यम्बकेश्वर नाम से गौतम आश्रम में निवास का कथन ), ७.२.४०.६( हिमाचल से निकली गङ्गा के दक्षिणामुखी तथा वाराणसी में उत्तरामुखी होने का उल्लेख ), स्कन्द २.१.३२.४२ ( लोककल्याणार्थ नदी अवतारण हेतु अगस्त्य का तप, ब्रह्मा का आगमन, अगस्त्य की प्रार्थनानुसार ब्रह्मा द्वारा गङ्गा का आह्वान, ब्रह्मा के आदेशानुसार गङ्गा द्वारा स्वांश से नदी की उत्पत्ति, नदी का सुवर्णमुखरी नाम से प्रथित होने का वर्णन ), ३.१.२६ ( गङ्गा यमुना गया तीर्थ माहात्म्य का वर्णन : रैक्व ऋषि की रोग से मुक्ति, जानश्रुति राजा को ब्रह्मज्ञान प्राप्ति ), ३.२.१

 

स्कन्द ४.१.२७.१२ ( गङ्गा के माहात्म्य का वर्णन ),

वाराणसीति प्रथितं यथाचानंदकाननम् ।। तथा च कथयामीह देवदेवेनभाषितम् ।। १ ।। ।। ईश्वर उवाच ।। ।। निशामय महाबाहो विष्णो त्रैलोक्यसुंदर ।। प्राप्तं वाराणसीत्याख्यामविमुक्तं यथा तथा ।। रे ।। निर्दग्धान्सागराञ्छ्रुत्वा कपिलक्रोधवह्निना ।। अश्वमेधाश्वसंयुक्तान्पूर्वजान्स्वान्भगीरथः ।। ३ ।। सूर्यवंशे महातेजा राजा परमधार्मिकः ।। आरिराधयिषुर्गंगां तपसे कृतनिश्चयः ।।४।। हिमवंतं नगश्रेष्ठममात्य न्यस्तराज्यधूः ।। जगाम यशसां राशिरुद्दिधीर्षुः पितामहान् ।। ५ ।। ब्रह्मशापाग्निनिर्दग्धान्महादुर्गतिगानपि ।। विना त्रिमार्गगां विष्णो को जंतूंस्त्रिदिवं नयेत् ।। ६ ।। ममैव सा परामूर्तिस्तोयरूपा शिवात्मिका ।। ब्रह्मांडानामनेकानामाधारः प्रकृतिः परा ।। ७ ।। शुद्धविद्यास्वरूपा च त्रिशक्तिः करुणात्मिका ।। आनंदामृतरूपा च शुद्धधर्मस्वरूपिणी ।। ८ ।। यामेतां जगतां धात्रीं धारयामि स्वलीलया ।। विश्वस्यरक्षणार्थाय परब्रह्मस्वरूपिणीम् ।। ९ ।। त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि पुण्यक्षेत्राणि यानि च ।। सर्वत्र सर्वे ये धर्माः सर्वयज्ञाः सदक्षिणाः ।। 4.1.27.१० ।। तपांसि विष्णो सर्वाणि श्रुतिः सांगा चतुर्विधा ।। अहं च त्वं च कश्चापि देवतानां गणाश्च ये ।। ।। ११ ।। पुरुपार्थाश्च सर्वे वै शक्तयो विविधाश्च याः ।। गंगायां सर्व एवैते सूक्ष्मरूपेण संस्थिताः ।। १२ ।। स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वक्रतुषु दीक्षितः ।। चीर्णसर्वव्रतः सोपि यस्तु गंगां निषेवते ।। १३ ।। तपांसि तेन तप्तानि सर्वदानप्रदः स च ।। स प्राप्त योगनियमो यस्तु गंगां निषेवते ।।१४।। सर्ववर्णाश्रमेभ्यश्च वेदविद्भ्यश्च वै तथा ।। शास्त्रार्थपारगेभ्यश्च गंगास्नायी विशिप्यते ।। १५ ।। मनोवाक्कायजैर्दोषैर्दुष्टो बहुविधैरपि ।। वीक्ष्य गंगां भवेत्पूतः पुरुषो नात्र संशयः ।।१६।। कृते सर्वत्र तीर्थानि त्रेतायां पुष्करं परम् ।। द्वापरे तु कुरुक्षेत्रं कलौ गंगैव केवलम् ।। १७ ।। पूर्वजन्मांतराभ्यास वासनावशतो हरे ।। गंगातीरे निवासः स्यान्मद नुग्रहतः परात् ।। १८ ।। ध्यानं कृते मोक्षहेतुस्त्रेतायां तच्च वै तपः ।। द्वापरे तद्द्व्यं(?)यज्ञाः कलौ गंगैव केवलम् ।। १९ ।। यो देहपतनाद्यावद्गंगातीरं न मुंचति ।। स हि वेदांतविद्योगी ब्रह्मचर्यव्रती सदा ।। 4.1.27.२० ।। कलौ कलुषचित्तानां परद्रव्यरतात्मनाम् ।। विधिहीनक्रियाणां च गतिर्गंगाविना नहि ।। २१ ।। अलक्ष्मीः कालकर्णी च दुःस्वप्नो दुर्विचिंतितम् ।। गंगागंगेति जपनात्तानि नोपविशंति हि ।। २२ ।। गंगा हि सर्वभूतानामिहामुत्रफलप्रदा ।। भावानुरूपतो विष्णो सदासर्वजगद्धिता ।। २३ ।। यज्ञ दान तपो योग जपाः सनियमा यमाः ।। गंगासेवासहस्रांशं न लभंते कलौ हरे ।। २४ ।। किमष्टांगेन योगेन किं तपोभिः किमध्वरैः ।। वास एव हि गंगायां ब्रह्मज्ञानस्य कारणम् ।। २५ ।। अपिदूरस्थितस्यापि गंगामाहात्म्यवेदिनः ।। अयोग्यस्यापि गोविंदभक्त्या गंगा प्रसीदति ।। २६ ।। श्रद्धा धर्मः परः सूक्ष्मः श्रद्धा ज्ञानं परं तपः ।। श्रद्धा स्वर्गश्च मोक्षश्च श्रद्धया सा प्रसीदति ।। २७ ।। अज्ञानरागलोभाद्यैः पुंसां संमूढचेतसाम् ।। श्रद्धा न जायते धर्मे गंगायां च विशेषतः ।। २८ ।। बहिः स्थितं जलंयद्वन्नारिकेलांतरे स्थितम् ।। तथा ब्रह्मांडबाह्यस्थं परब्रह्मांबु जाह्नवी ।। २९ ।। गंगालाभात्परो लाभः क्वचिदन्यो न विद्यते ।। तस्माद्गंगामुपासीत गंगैव परमः पुमान् ।।4.1.27.३०।। शक्तस्य पंडितस्यापि गुणिनो दानशीलिनः ।। गंगास्नानविहीनस्य हरे जन्म निरर्थकम् ।। ३१ ।। वृथा कुल वृथा विद्या वृथा यज्ञा वृथातपः ।। वृथा दानानि तस्येह कलौ गंगां न यो भजेत् ।। ३२ ।। गुणवत्पात्रपूजायां न स्याद्वै तादृशं फलम् ।। यथा गंगाजलस्नान पूजने विधिना फलम् ।। ३३ ।। ममतेजोग्निगर्भेयं ममवीर्यातिसंवृता ।। दाहिका सर्वदोषाणां सर्वपापविनाशिनी ।। ३४ ।। स्मरणादेव गंगायाः पापसंघातपंजरम् ।। शतधा भेदमायाति गिरिर्वज्रहतो यथा ।। ३५ ।। गंगां गच्छति यस्त्वेको यस्तु भक्त्यानुमोदयेत् ।। तयोस्तुल्यफलं प्राहुर्भक्तिरेवात्र कारणम्।। ।। ३६ ।। गच्छंस्तिष्ठञ्जपन्ध्यान्भुंजञ्जाग्रत्स्वपन्वदन् ।। यः स्मरेत्सततं गंगां स हि मुच्येत बंधनात् ।। ३७ ।। पितॄनुद्दिश्य योभक्त्या पायसं मधुसंयुतम् ।। गुडसर्पिस्तिलैःसार्धं गंगांभसि विनिक्षिपेत् ।। ३८ ।। तृप्ता भवंति पितरस्तस्य वर्षशतं हरे ।। यच्छंति विविधान्कामान्परितुष्टाः पितामहाः ।। ।। ३९ ।। लिंगे संपूजिते सर्वमर्चितं स्याज्जगद्यथा ।। गंगास्नानेन लभते सर्वतीर्थफलं तथा ।। 4.1.27.४० ।। गंगायां तु नरः स्नात्वा यो लिंगं नित्यमर्चति ।। एकेन जन्मना मुक्तिं परां प्राप्नोति स ध्रुवम् ।। ४१ ।। अग्निहोत्रं च यज्ञाश्च व्रतदानतपांसि च ।। गंगायां लिंगपूजायाः कोट्यंशेनापि नो समाः ।। ४२ ।। गंगां गंतुं विनिश्चित्य कृत्वा श्राद्धादिकं गृहे ।। स्थितस्य सम्यक्संकल्पात्तस्य नंदंति पूर्वजाः ।। ४३ ।। पापानि च रुदंत्याशु हा क्व यास्याम इत्यलम् ।। लोभमोहादिभिः सार्धं मंत्रयंति पुनःपुनः ।। ४४ ।। यथा न गंगां यात्येष तथा विघ्नं प्रकुर्महे ।। गंगां गतो यथा चैष न उच्छित्तिं विधास्यति ।। ४५ ।। गृहाद्गंगावगाहार्थं गच्छतस्तु पदेपदे ।। निराशानि व्रजंत्येव पापान्यस्य शरीरतः ।। ४६६ पूर्वजन्मकृतैः पुण्यैस्त्यक्त्वा लोभादिकं हरे ।। व्युदस्य सर्वविघ्नौघान्गंगां प्राप्नोति पुण्यवान् ।। ४७ ।। अनुषंगेण मौल्येन वाणिज्येनापि सेवया ।। कामासक्तोपि वा मर्त्यो गंगास्नातो दिवं व्रजेत् ।। ४८ ।। अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहनो हि यथा दहेत् ।। अनिच्छयापि संस्नाता गंगा पापं तथा दहेत् ।। ४९ ।। तावद्धमति संसारे यावद्गंगां न सेवते ।। संसेव्य गंगां नो जंतुर्भवक्लेशं प्रपश्यति ।। 4.1.27.५० ।। यो गंगांभसि निस्नातो भक्त्या संत्यक्तसंशयः ।। मनुष्यचर्मणा नद्धः स देवो नात्र संशयः ।। ५१ ।। गंगास्नानार्थमुद्युक्तो मध्येमार्गं मृतो यदि ।। गंगास्नानफलं सोपि तदाप्नोति न संशयः ।। ५२ ।। माहात्म्यं ये च गंगायाः शृण्वंति च पठंति च ।। तेप्यशेषैर्महापापैर्मुच्यंते नात्र संशयः ।। ५३ ।। दुर्बुद्धयो दुराचारा हैतुका बहुसंशयाः ।। पश्यंति मोहिता विष्णो गंगामन्य नदीमिव ।। ५४ ।। जन्मांतरकृतैर्दानैस्तपोभिर्नियमैर्व्रतैः ।। इह जन्मनि गंगायां नृणां भक्तिः प्रजायते ।। ५५ ।। गंगाभक्तिमतामर्थे महेंद्रादि पुरेषु च ।। हर्म्याणि रम्यभोगानि निर्मितानि स्वयंभुवा ।। ५६ ।। सिद्धयः सिद्धिलिंगानि स्पर्शलिंगान्यनेकशः ।। प्रासादा रत्नरचिताश्चिंतामणिगणा अपि ।। ५७ ।। गंगाजलांतस्तिष्ठंति कलिकल्मषभीतितः ।। अतएव हि संसेव्या कलौ गंगेष्टसिद्धिदा ।। ५८ ।। सूर्योदये तमांसीव वज्रपातभयान्नगाः ।। तार्क्ष्येक्षणाद्यथासर्पा मेघा वाताहता इव ।। ५९ ।। तत्त्वज्ञानाद्यथा मोहः सिंहं दृष्ट्वा यथा मृगाः ।। तथा सर्वाणि पापानि यांति गंगेक्षणात्क्षयम् ।। 4.1.27.६० ।। दिव्यौषधैर्यथा रोगा लोभेन च यथा गुणाः ।। यथा ग्रीष्मोष्मसंपत्तिरगाधह्रद मज्जनात् ।। ६१ ।। तूलशैलः स्फुलिंगेन यथा नश्यति तत्क्षणात् ।। तथा दोषाः प्रणश्यंति गंगांभः स्पर्शनाद्ध्रुवम् ।। ६२ ।। क्रोधेन च तपो यद्वत्कामेन च यथा मतिः ।। अनयेन यथा लक्ष्मीर्विद्या मानेन वै यथा ।। ६३ ।। दंभ कौटिल्य मायाभिर्यथाधर्मो विनश्यति ।। तथा नश्यंति पापानि गंगाया दर्शनेन तु ।। ६४ ।। मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य विद्युत्संपातचंचलम् ।। गंगां यः सेवते सोत्र बुद्धेः पारं परं गतः ।। ६५ ।। विधूतपापा ये मर्त्याः परं ज्योतिःस्वरूपिणीम् ।। सहस्रसूर्यप्रतिमां गंगां पश्यंति ते भुवि ।। ६६ ।। साधारणांभसा पूर्णां साधारण नदीमिव।। पश्यंति नास्तिका गंगां पापोपहतलोचनाः ।। ६७ ।। संसारमोचकश्चाहं जनानामनुकंपया ।। गंगातरंगरूपेण सोपानं निर्ममे दिवः ।। ६८ ।। सर्व एव शुभः कालः सर्वो देशस्तथा शुभः ।। सर्वो जनो दानपात्रं श्रीमती जाह्नवी तटे ।। ६९ ।। यथाश्वमेधो यज्ञानां नगानां हिमवान्यथा ।। व्रतानां च यथा सत्यं दानानामभयं यथा ।। 4.1.27.७० ।। प्राणायामश्च तपसां मंत्राणां प्रणवो यथा ।। धर्माणामप्यहिंसा च काम्यानां श्रीर्यथा वरा ।। ७१ ।। यथात्मविद्या विद्यानां स्त्रीणां गौरी यथोत्तमा ।। सर्वर्दवेगणानां च यथा त्वं पुरुषोत्तम ।।। ७२ ।। सवर्षोमेव पात्राणां शिवभक्तो यथा वरः ।। तथा सर्वेषु तीर्थेषु गंगातीर्थं विशिष्यते ।। ७३ ।। हरेयश्चावयोर्भेदं न करोति महामतिः ।। शिवभक्तः स विज्ञेयो महापाशुपतश्च सः ।। ७४ ।। पापपांसुमहावात्या पापद्रुमकुठारिका ।। पापेंधनदवाग्निश्च गंगेयं पुण्यवाहिनी ।। ञ्चं ।। नानारूपाश्च पितरो गाथा गायंति सर्वदा ।। अपि कश्चित्कुलेस्माकं गंगास्नायी भविष्यति ।। ७६ ।। देवर्षीन्परिसंतर्प्य दीनानाथांश्च दुःखितान् ।। श्रद्धया विधिना स्नात्वा दास्यते सलिलांजलिम् ।। ७७ ।। अपि नः स कुले भूयाच्छिवे विष्णौ च साम्यदृक् ।। तदालयकरो भक्त्या तस्य संमार्जनादिकृत् ।। ७८ ।। अकामो वा सकामो  वा तिर्यग्योनिगतोपि वा ।। गंगायां यो मृतो मर्त्यो नरकं स न पश्यति ।।७९।। तीर्थमन्यत्प्रशंसंति गंगातीरे स्थिताश्च ये ।। गंगां न बहु मन्यंते ते स्युर्निरयगामिनः ।।4.1.27.८०।। मां च त्वां चैव यो द्वेष्टि गंगां च पुरुषाधमः।। स्वकीयैः पुरुषैः सार्धं स घोरं नरकं व्रजेत् ।। ८१ ।। षष्टिर्गणसहस्राणि गंगां रक्षंति सर्वदा ।। अभक्तानां च पापानां वासे विघ्नं प्रकुर्वते ।। ८२ ।। कामक्रोधमहामोहलोभादि निशितैः शरैः ।। घ्नंति तेषां मनस्तत्र स्थितिं चापनयंति च ।। ८३ ।। गंगां समाश्रयेद्यस्तु स मुनिः स च पंडितः ।। कृतकृत्यः स विज्ञेयः पुरुषार्थचतुष्टये ।। ८४ ।। गंगायां च सकृत्स्नातो हयमेधफलं लभेत् ।। तर्पयंश्च पितॄंस्तत्र तारयेन्नरकार्णवात् ।। ८५ ।। नैरंतर्येण गंगायां मासं यः स्नाति पुण्यवान् ।। शक्रलोके स वसति यावच्छक्रः सपूर्वजः ।। ८६ ।। अब्दं यः स्नाति गंगायां नैरंतर्येण पुण्यभाक् ।। विष्णोर्लोकं समासाद्य स सुखं संवसेन्नरः ।। ८७ ।। गंगायां स्नाति यो मर्त्यो यावज्जीवं दिनेदिने ।। जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहांते मुक्त एव सः ।। ।।८८ ।। तिथिनक्षत्रपर्वादि नापेक्ष्यं जाह्नवी जले ।। स्नानमात्रेण गंगायां संचिताघं विनश्यति ।। ८९ ।। पंडितोपि स मूर्खः स्याच्छक्तियुक्तोप्यशक्तिकः ।। यस्तु भागीरथीतीरं सुखसेव्यं न संश्रयेत् ।। 4.1.27.९० ।। किंवायुपाप्यरोगेण विकासिन्याथ किं श्रिया ।। किं वा बुद्ध्या विमलया यदि गंगां न सेवते ।। ९१ ।। यः कारयेदायतनं गंगाप्रतिकृतेर्नरः ।। भुक्त्वा स भोगान्प्रेत्यापि याति गंगा सलोकताम् ।। ९२।। शृण्वंति महिमानं ये गंगाया नित्यमादरात् ।। गंगास्नानफलं तेषां वाचकप्रीणनाद्धनैः ।।९३।। पितॄनुद्दिश्य यो लिंगं स्नपयेद्गांग वारिणा ।। तृप्ताः स्युस्तस्य पितरो महानिरयगा अपि ।। ९४ ।। अष्टकृत्वोमंत्रजप्तैर्वस्त्रपूतैः सुगंधिभिः ।। प्रोचुर्गांगजलैः स्नानं घृतस्नानाधिकं बुधाः ।। ९५ ।। अष्टद्रव्यविमिश्रेण गंगातोयेन यः सकृत् ।। मागधप्रस्थमात्रेण ताम्रपात्रस्थितेन च ।। ९६ ।। भानवेऽर्घं प्रदद्याच्च स्वकीय पितृभिः सह ।। सोतितेजो विमानेन सूर्यलोके महीयते ।। ९७ ।। आपः क्षीरं कुशाग्राणि घृतं मधुगवांदधि ।। रक्तानि करवीराणि रक्तचंदनमित्यपि ।। ९८ ।। अष्टांगार्घो यमुद्दिष्टस्त्वतीव रवितोषणः ।। गांगैर्वार्भिः कोटिगुणो ज्ञेयो विष्णोऽन्यवारितः ।। ९९ ।। गंगातीरे स्वशक्त्या यःकुर्याद्देवालयं सुधीः ।। अन्यतीर्थप्रतिष्ठातो भवेत्कोटिगुणं फलं ।। 4.1.27.१०० ।। अश्वत्थवटचूतादि वृक्षारोपेण यत्फलम् ।। कूपवापीतडागादि प्रपा सत्रादिभिस्तथा ।। १ ।। अन्यत्र यद्भवेत्पुण्यं तद्गंगादर्शनाद्भवेत् ।। पुष्पवाट्यादिभिश्चापि गंगास्पर्शं ततोऽधिकम् ।।२।।कन्यादानेन यत्पुण्यं यत्पुण्यं गोऽन्नदानतः ।। तत्पुण्यं स्याच्छतगुणं गंगागंडूषपानतः ।। ३ ।। चांद्रायणसहस्रेण यत्पुण्यं स्याज्जनार्दन ।। ततोऽधिकफलं गंगाऽमृतपानादवाप्नुयात् ।। ४ ।। भक्त्या गंगावगाहस्य किमन्यत्फलमुच्यते ।। अक्षयः स्वर्गवासोपि निर्वाणमथवा हरे ।। ५ ।। गंगायाः पादुकायुग्मं नित्यमर्चति यो नरः ।। आयुः पुण्यं धनं पुत्रान्स्वर्गमोक्षौ च विंदति ।। ६ ।। नास्ति गंगासमं तीर्थं कलिकल्मषनाशनम् ।। नास्ति मुक्तिप्रदं क्षेत्रमविमुक्तसमं हरे ।। ७ ।। गंगास्नानरतं मर्त्यं दृष्ट्वैव यमकिकराः ।। दिशो दश पलायंते सिंहं दृष्ट्वा यथा मृगाः ।। - ।। गंगाभजनशीलस्य गंगातटनिवासिनः ।। अर्चां कृत्वा यथान्यायमश्वमेधफलं लभेत् ।। ९ ।। गोभूहिरण्यदानेन भक्त्या गंगातटे शुभे ।। नरो न जायते भूयः संसारे दुःखकंटके ।।4.1.27.११० ।। दीर्घायुष्यं च वासोभिर्ज्ञानं पुस्तकदानतः ।। अन्नदानेन संपत्तिं कीर्तिं कन्याप्रदानतः ।। ११ ।। अन्यत्र यत्कृतं कर्म व्रतं दानं जपस्तपः ।। गंगातटे तु तत्सर्वं हरे कोटिगुणं भवेत् ।। १२ ।। धेनुं सवत्सा  यो दद्याद् गंगातीरे विधानतः ।। गोरोमसंख्यया विष्णो युगान्सर्वसमृद्धिमान् ।। १३ ।। गोलोके मम लोके वा कामधेनुप्रदानतः ।। भुंजानः सर्वकामांस्तु दिव्यान्नानाविधान्बहून् ।। १४ ।। देवानामप्यलभ्यांश्च भुक्त्वा तु सह बांधवैः ।। पितृभिश्च सुहृद्भिश्च सर्वरत्नविभूषितः ।। १५ ।। जायते सत्कुले पश्चाद्धनधान्यसमाकुले ।। रत्नकांचनसंपन्ने शीलविद्यासमन्विते ।। १६ ।। भुक्त्वा स विपुलान्भोगान्पुत्रपौत्रसमन्वितः ।। पुनर्गंगां समासाद्य काश्यामुत्तरवाहिनीम् ।। १७ ।। विश्वेश्वरं समाराध्य प्राग्जनुर्वासनावशात् ।। कालाद्देहांतमासाद्य ब्रह्म संपद्यते ततः ।। १८ ।। विवर्तनद्वयमपि भूमेर्भागीरथीतटे ।। नरो ददाति यो भक्त्या तस्य पुण्यफलं शृणु ।। १९ ।। तद्भूमि त्रसरेणूनां संख्यया युगमानया ।। महेंद्र चंद्रलोकेषु भुक्त्वा भोगान्मनःप्रियान् ।। 4.1.27.१२० ।। सप्तद्वीपपतिर्भूत्वा महाधर्मपरायणः ।। नरकस्थान्पितॄन्सर्वान्प्रापयेत्त्रिदिवं हरे ।।२१।। स्वर्गस्थांश्च पितॄन्सर्वान्मोचयित्वा महाद्युतिः ।। अंते ज्ञानासिना छित्त्वा ह्यविद्यां पांचभौतिकीम् ।। २२ ।। परवैंराग्यमापन्नो युंजानो योगमुत्तमम् ।। प्राप्याथवा विमुक्तं च परं ब्रह्माधिगच्छति ।। ।। २३ ।। सुवर्णमात्रमपि यः सुवर्णं संप्रयच्छति ।। सुवर्णाय सुवर्णं च हरे भागीरथीतटे ।। २४ ।। स हेमरत्नखचिते विमाने सर्वगे शुभे ।। सर्वैश्वर्यसमायुक्तः सर्वलोकेषु पूजितः ।। २५ ।। ब्रह्मांडांतरसंस्थेषु भुंजन्भोगान्मनोरमान् ।। सर्वैः संपूजितो विष्णो यावदाभूतसंप्लवम् ।। २०५ ।। एकराट धततो(?) भूत्वा जंबूद्वीपे प्रतापवान् ।। ततोऽविमुक्तमासाद्य पदं निर्वाणमृच्छति ।। २७ ।। जन्मर्क्षे तु कृते स्नाने गंगायां भक्तिपूर्वकम् ।। जन्मप्रभृतिपापौघात्संचितान्मुच्यते क्षणात् ।। २८ ।। वैशाखे कार्तिके माघे गंगास्नानं सुदुर्लभम् ।। दर्शे शतगुणं पुण्यं संक्रातौ च सहस्रकम् ।।२९।। द्रसूर्यग्रहे लक्षं व्यतीपातेत्वनंतकम् ।। अयुतं विषुवे चैव नियुतं त्वयनद्वये ।। 4.1.27.१३० ।। सोमग्रहः सोमदिने रविवाररवग्रहः ।। तच्चूडामणिपर्वाख्यं तत्र स्नानमसंख्यकम् ।। ३१ ।। स्नानं दानं जपो होमो यद्यच्चूडामणौ कृतम् ।। तदक्षयं सर्वमिह विष्णो भागीरथीतटे ।। ३२ ।। श्रद्धया भक्तियुक्तस्तु गंगां स्नात्वा विधानतः ।। ब्रह्महापि विशुद्ध्येत किंपुनस्त्वन्य पातकी ।। ३३ ।। कृमिकीटपतंगाद्या ये मृता जाह्नवीतटे ।। कूलात्पतंति ये वृक्षास्तेपि यांति परां गतिम् ।। ३४ ।।

 

 

स्कन्द ४.१.२८ ( गङ्गा में अस्थि क्षेप के माहात्म्य के सन्दर्भ में वाहीक की कथा ),

स्कन्द ४.१.२९.१७ ( गङ्गा सहस्रनाम ),

शिवभक्ताय शांताय विष्णुभक्तिपराय च ।। श्रद्धालवेत्वास्तिकाय गर्भवासमुपुक्षवे ।। १२ ।। कथनीयं न चान्यस्य कस्यचित्केनचित्क्वचित् ।। इदं रहस्यं परमं महापातकनाशनम् ।। १३ ।। महाश्रेयस्करं पुण्यं मनोरथकरं परम् ।। द्युनदीप्रीतिजनकं शिवसंतोषसंतति ।। १४ ।। नाम्नां सहस्रगंगायाः स्तवराजेषु शोभनम् ।। जप्यानां परमं जप्यं वेदोपनिषदासमम् ।। १५ ।। जपनीयं प्रयन्नेन मौनिना वाचकं विना ।। शुचिस्थानेषु शुचिना सुस्पष्टाक्षरमेव च ।। १६ ।। स्कंद उवाच ।। ।। ॐनमो गंगादेव्यै ।। ॐकाररूपिण्यजराऽतुलाऽनमताऽमृतस्रवा ।। अत्युदाराऽभयाऽशेकाऽलकनमदाऽमृताऽमला ।। १७ ।। अनाथवत्सलाऽमोघाऽपांयोनिरमृतप्रदा ।। अव्यक्तलक्षणाऽक्षोभ्या ऽनवच्छिन्नाऽपराजिता ।। १८ ।। अनाथनाथाऽभीष्टार्थसिद्धिदाऽनंगवर्धिनी ।। अणिमादिगुणाऽधाराग्रगण्याऽलीकहारिणी ।। १९ ।। अचिंत्यशक्तिरनघाऽद्भुतरूपाऽघहारिणी ।। अद्रिराजसुताऽष्टांगयोगसिद्धिप्रदाऽच्युता ।। 4.1.29.२० ।। अक्षुण्णशक्तिरसुदाऽनंततीर्थाऽमृतोदका ।। अनंतमहिमाऽपाराऽनंतसौख्यप्रदाऽन्नदा ।। २१ ।। अशेषदेवतामूर्तिरघोराऽमृतरूपिणी ।। अविद्याजालशमनी ह्यप्रतर्क्यगतिप्रदा ।। २२ ।। अशेषविघ्नसंहर्त्री त्वशेषगुणगुंफिता ।। अज्ञानतिमिरज्योतिरनुग्रहपरायणा ।। २३ ।। अभिरामाऽनवद्यांग्यनंतसाराऽकलंकिनी ।। आरोग्यदाऽऽनंदवल्ली त्वापन्नार्तिविनाशिनी ।। २४ ।। आश्चर्यमूर्तिरायुष्या ह्याढ्याऽऽद्याऽऽप्राऽऽर्यसेविता ।। आप्यायिन्याप्तविद्याऽऽख्यात्वानंदाऽऽश्वासदायिनी ।। २५ ।। आलस्यघ्न्यापदां हंत्री ह्यानंदामृतवर्षिणी ।। इरावतीष्टदात्रीष्टा त्विष्टापूर्तफलप्रदा ।। २६ ।। इतिहासश्रुतीड्यार्था त्विहामुत्रशुभप्रदा।। ।। इज्याशीलसमिज्येष्ठा त्विंद्रादिपरिवंदिता ।। २७।। इलालंकारमालेद्धा त्विंदिरारम्यमंदिरा ।। इर्दिदिरादिसंसेव्या त्वीश्वरीश्वरवल्लभा ।। २८ ।। ईतिभीतिहरेड्या च त्वीडनीय चरित्रभृत् ।। उत्कृष्टशक्तिरुत्कृष्टोडुपमंडलचारिणी ।।२९।। उदितांबरमार्गोस्रोरगलोकविहारिणी ।। उक्षोर्वरोत्पलोत्कुंभा उपेंद्रचरणद्रवा ।।4.1.29.३०।। उदन्वत्पूर्तिहेतुश्चोदारोत्साहप्रवर्धिनी ।। उद्वेगघ्न्युष्णशमनी उष्णरश्मिसुता प्रिया ।।३१।। उत्पत्ति स्थिति संहारकारिण्युपरिचारिणी ।। ऊर्जंवहंत्यूर्जधरोर्जावतीचोर्मिमालिनी ।। ३२ ।। ऊर्ध्वरेतःप्रियोर्ध्वाध्वा ह्यूर्मिलोर्ध्वगतिप्रदा ।। ऋषिवृंदस्तुतर्द्धिश्च ऋणत्रयविनाशिनी ।। ३३ ।। ऋतंभरर्द्धिदात्री च ऋक्स्वरूपा ऋजुप्रिया ।। ऋक्षमार्गवहर्क्षार्चिर्ऋजुमार्गप्रदर्शिनी ।। ३४ ।। एधिताऽखिलधर्मार्थात्वेकैकामृतदायिनी ।। एधनीयस्वभावैज्या त्वेजिता शेषपातका ।। ३५ ।। ऐश्वर्यदैश्वर्यरूपा ह्यैतिह्यं ह्यैंदवी द्युतिः ।। ओजस्विन्योषधीक्षेत्रमोजोदौदनदायिनी ।। ३६ ।। ओष्ठामृतौन्नत्यदात्री त्वौषधं भवरोगिणाम् ।। औदार्यचंचुरौपेंद्री त्वौग्रीह्यौमेयरूपिणी ।। ३७ ।। अंबराध्ववहांऽवष्ठांबरमालांबुजेक्षणा ।। अंबिकांबुमहायोनिरंधोदांधकहारिणी ।। ३८ ।। अंशुमालाह्यंशुमती त्वंगीकृतषडानना ।। अंधतामिस्रहंत्र्यंधुरंजनाह्यंजनावती ।। ३९ ।। कल्याणकारिणी काम्या कमलोत्पलगंधिनी ।। कुमुद्वती कमलिनी कांतिः कल्पितदायिनी ।। 4.1.29.।। कांचनाक्षी कामधेनुः कीर्तिकृत्क्लेशनाशिनी ।। क्रतुश्रेष्ठा क्रतुफला कर्मबंधविभेदिनी ।। ४१ ।। कमलाक्षी क्लमहरा कृशानुतपनद्युतिः ।। करुणार्द्रा च कल्याणी कलिकल्मषनाशिनी ।। ४२ ।कामरूपाक्रियाशक्तिः कमलोत्पलमालिनी ।। कूटस्था करुणाकांता कर्मयाना कलावती ।। ४३ ।। कमलाकल्पलतिका कालीकलुषवैरिणी ।। कमनीयजलाकम्रा कपर्दिसुकपर्दगा ।। ४४ ।। कालकृटप्रशमनी कदंबकुसुमप्रिया ।। कालिंदी केलिललिता कलकल्लोलमालिका ।। ४५ ।। क्रांतलोकत्रयाकंडूः कंडूतनयवत्सला ।। खड्गिनी खड्गधाराभा खगा खंडेंदुधारिणी ।। ४६ ।। खेखेलगामिनी खस्था खंडेंदुतिलकप्रिया।। खेचरीखेचरीवंद्या ख्यातिः ख्यातिप्रदायिनी ।।४७।। खंडितप्रणताघौघा खलबुद्धिविनाशिनी ।। खातैनः कंदसंदोहा खड्गखट्वांग(?) खेटिनी।। ।। ४८ ।। खरसंतापशमनी खनिः पीयूषपाथसाम् ।। गंगा गंधवती गौरी गंधर्वनगरप्रिया ।। ४९ ।। गंभीरांगी गुणमयी गतातंका गतिप्रिया ।। गणनाथांबिका गीता गद्यपद्यपरिष्टुता ।। 4.1.29.५० ।। गांधारी गर्भशमनी गतिभ्रष्टगतिप्रदा ।। गोमती गुह्यविद्यागौर्गोप्त्री गगनगामिनी ।। ५१ ।।गोत्रप्रवर्धिनी गुण्या गुणातीता गुणाग्रणीः ।। गुहांबिका गिरिसुता गोविंदांघ्रिसमुद्भवा ।। ५२ ।। गुणनीयचरित्रा च गायत्री गिरिशप्रिया ।। गूढरूपा गुणवती गुर्वी गौरववर्धिनी ।। ५३ ।। ग्रहपीडाहरा गुंद्रा गरघ्नी गानवत्सला ।। घर्महंत्री घृतवती घृततुष्टिप्रदायिनी ।। ५४ ।।

घंटारवप्रिया घोराऽघौघविध्वंसकारिणी ।। घ्राणतुष्टिकरीघोषा घनानंदा घनप्रिया ।।५५।।घातुका घृर्णितजला घृष्टपातकसंततिः ।। घटकोटिप्रपीतापा घटिताशेषमंगला ।। ५६ ।। घृणावती घृणनिधिर्घस्मरा घूकनादिनी ।। घुसृणा पिंजरतनुर्घर्घरा घर्घरस्वना ।।५७।। चंद्रिका चंद्रकांतांबुश्चंचदापा चलद्युतिः।। चिन्मयी चितिरूपा च चंद्रायुतशनानना ।। ५८ ।। चांपेयलोचना चारुश्चार्वंगी चारुगामिनी ।। चार्या चारित्रनिलया चित्रकृच्चित्ररूपिणी ।। ५९ ।। चंपश्चंदनशुच्यंबुश्चर्चनीया चिरस्थिरा ।। चारुचंपकमालाढ्या चमिताशेष दुष्कुता ।। 4.1.29.६० ।। चिदाकाशवहाचिंत्या चंचच्चामरवीजिता ।। चोरिताशेषवृजिना चरिताशेषमंडला ।। ६१ ।। छेदिताखिलपापौघा छद्मघ्नी छलहारिणी ।। छन्नत्रिविष्टप तला छोटिताशेषबंधना ।। ६२ ।। छुरितामृतधारौघा छिन्नैनाश्छंदगामिनी ।। छत्रीकृतमरालौघा छटीकृतनिजामृता ।।६३।। जाह्नवी ज्या जगन्माता जप्या जंघालवीचिका ।। जया जनार्दनप्रीता जुषणीया जगद्धिता ।।६४।। जीवनं जीवनप्राणा जगज्ज्येष्ठा जगन्मयी ।। जीवजीवातुलतिका जन्मिजन्मनिबर्हिणी ।। ।। ६५ ।। जाड्यविध्वंसनकरी जगद्योनिर्जलाविला ।। जगदानंदजननी जलजा जलजेक्षणा ।। ६६ ।। जनलोचनपीयूषा जटातटविहारिणी ।। जयंती जंजपूकघ्नी जनितज्ञानविग्रहा ।। ६७ ।। झल्लरी वाद्यकुशला झलज्झालजलावृता ।। झिंटीशवंद्या झांकारकारिणी झर्झरावती ।। ६८ ।। टीकिताशेषपाताला टंकिकैनोद्रिपाटने ।। टंकारनृत्यत्कल्लोला टीकनीयमहातटा ।।६९।। डंबरप्रवहाडीन राजहंसकुलाकुला।। डमड्डमरुहस्ता च डामरोक्त महांडका ।।4.1.29.७०।। ढौकिताशेषनिर्वाणा ढक्कानादचलज्जला ।। ढुंढिविघ्नेशजननी ढणड्ढुणितपातका ।।७१।। तर्पणीतीर्थतीर्था च त्रिपथा त्रिदशेश्वरी ।।  त्रिलोकगोप्त्री तोयेशी त्रैलोक्यपरिवंदिता।। ७२।।  तापत्रितयसंहर्त्री तेजोबलविवर्धिनी ।। त्रिलक्ष्या तारणी तारा तारापतिकरार्चिता ।। ७३ ।। त्रैलोक्यपावनी पुण्या तुष्टिदा तुष्टिरूपिणी ।। तृष्णाछेत्त्री तीर्थमाता त्त्रिविक्रमपदोद्भवा।। ७४ ।। तपोमयी तपोरूपा तपःस्तोम फलप्रदा ।। त्रैलोक्यव्यापिनी तृप्तिस्तृप्तिकृत्तत्त्वरूपिणी ।। ७५ ।। त्रैलोक्यसुंदरी तुर्या तुर्यातीतपदप्रदा ।। त्रैलोक्यलक्ष्मीस्त्रिपदी तथ्यातिमिरचंद्रिका ।। '७६ ।। तेजोगर्भा तपःसारा त्रिपुरारि शिरोगृहा ।। त्रयीस्वरूपिणी तन्वी तपनांगजभीतिनुत् ।।७७।। तरिस्तरणिजामित्रं तर्पिताशेषपूर्वजा ।। तुलाविरहिता तीव्रपापतूलतनूनपात् ।। ।। ७८ ।। दारिद्र्यदमनी दक्षा दुष्प्रेक्षा दिव्यमंडना ।। दीक्षावतीदुरावाप्या द्राक्षामधुरवारिभृत् ।। ७९ ।।

दर्शितानेककुतुका दुष्टदुर्जयदुःखहृत् ।। दैन्यहृद्दुरितघ्नी च दानवारि पदाब्जजा ।। 4.1.29.८० ।। दंदशूकविषघ्री च दारिताघौघसंततिः ।। द्रुतादेव द्रुमच्छन्ना दुर्वाराघविघातिनी ।। ८१ ।। दमग्राह्या देवमाता देवलोकप्रदर्शिनी ।। देवदेवप्रियादेवी दिक्पालपददायिनी ।। ८२ ।। दीर्घायुःकारिणी दीर्घा दोग्ध्री दूषणवर्जिता ।। दुग्धांबुवाहिनी दोह्या दिव्या दिव्यगतिप्रदा ।। ८३ ।। द्युनदी दीनशरणं देहिदेहनिवारिणी ।। द्राघीयसी दाघहंत्री दितपातकसंततिः ।। ८४ ।। दूरदेशांतरचरी दुर्गमा देववल्लभा।। दुर्वृत्तघ्नी दुर्विगाह्या दयाधारा दयावती ।। ८५ ।। दुरासदा दानशीला द्राविणी द्रुहिणस्तुता ।। दैत्यदानवसंशुद्धिकर्त्री  दुर्बुद्धिहारिणी ।।८६।। दानसारा दयासारा द्यावाभूमिविगाहिनी।। दृष्टादृष्टफलप्राप्तिर्देवतावृंदवंदिता।।।। ८७ ।। दीर्घव्रता दीर्घदृष्टिर्दीप्ततोया दुरालभा ।। दंडयित्री दंडनीतिर्दुष्टदंडधरार्चिता ।। ८८ ।। दुरोदरघ्नी दावार्चिर्द्रवद्रव्यैकशेवधिः ।। दीनसंतापशमनी दात्री दवथुवैरिणी ।। ८९ ।। दरीविदारणपरा दांता दांतजनप्रिया ।। दारिताद्रितटा दुर्गा दुर्गारण्यप्रचारिणी ।। 4.1.29.९० ।। धर्मद्रवा धर्मधुरा धेनुर्धीरा धृतिर्ध्रुवा ।। धेनुदानफलस्पर्शा धर्मकामार्थमोक्षदा ।। ९१ ।।

धर्मोर्मिवाहिनी धुर्या धात्री धात्रीविभूषणम् ।। धर्मिणी धर्मशीला च धन्विकोटिकृतावना ।। ९२ ।। ध्यातृपापहरा ध्येया धावनी धूतकल्मषा ।। धर्मधारा धर्मसारा धनदा धनवर्धिनी ।। ९३ ।। धर्माधर्मगुणच्छेत्त्री धत्तूरकुसुमप्रिया ।। धर्मेशी धर्मशास्त्रज्ञा धनधान्यसमृद्धिकृत् ।। ९४ ।। धर्मलभ्या धर्मजला धर्मप्रसवधर्मिणी ।। ध्यानगम्यस्वरूपा च धरणी धातृपूजिता ।। ९५ ।। ? धूर्धूर्जटिजटासंस्था धन्या धीर्धारणावती।। नंदा निर्वाणजननी नंदिनी नुन्नपातका ।। ।। ९६ ।। निषिद्धविघ्ननिचया निजानंदप्रकाशिनी ।। नभोंगणचरी नूतिर्नम्या नारायणीनुता ।। ९७ ।। निर्मला निर्मलाख्याना नाशिनीतापसंपदाम् ।। नियता नित्यसुखदा नानाश्चर्यमहानिधिः ।। ९८ ।। नदीनदसरोमाता नायिका नाकदीर्घिका ।। नष्टोद्धरणधीरा च नंदनानंददायिनी ।। ९९ ।। निर्णिक्ताशेषभुवना निःसंगा निरुपद्रवा ।। निरालंबा निष्प्रपंचा निर्णाशितमहामला ।। 4.1.29.१ ०० ।। निर्मलज्ञानजननी निःशेषप्राणितापहृत् ।। नित्योत्सवा नित्यतृप्ता नमस्कार्या निरंजना ।। १ ।। निष्ठावती निरातंका निर्लेपा निश्चलात्मिका ।। निरवद्या निरीहा च नीललोहितमूर्धगा ।। २ ।। नंदिभृंगिगणस्तुत्या नागानंदा नगात्मजा ।। निष्प्रत्यूहा नाकनदी निरयार्णवदीर्घनौः ।। ३ ।। पुण्यप्रदा पुण्यगर्भा पुण्या पुण्यतरंगिणी ।। पृथुः पृथुफला पूर्णा प्रणतार्तिप्रभंजिनी ।। ४ ।। प्राणदा प्राणिजननी प्राणेशी प्राणरूपिणी ।। पद्मालया पराशक्तिः पुरजित्परमप्रिया ।। ५ ।। परापरफलप्राप्तिः पावनी च पयस्विनी ।। परानंदा प्रकृष्टार्था प्रतिष्ठापालनी परा ।। ६ ।। पुराणपठिता प्रीता प्रणवाक्षररूपिणी ।। पार्वतीप्रेमसंपन्ना पशुपाशविमोचनी ।। ७ ।। परमात्मस्वरूपा च परब्रह्मप्रकाशिनी ।। परमानंदनिष्पंदा प्रायश्चित्तस्वरूपिणी ।। ८ ।। पानीयरूपनिर्वाणा परित्राणपरायणा ।। पापेंधनदवज्वाला पापरिः पापनामनुत् ।। ९ ।। परमैश्वर्यजननी प्रज्ञा प्राज्ञा परापरा ।। प्रत्यक्षलक्ष्मीः पद्माक्षी परव्योमामृतस्रवा ।। 4.1.29.११० ।। प्रसन्नरूपा प्रणिधिः पूता प्रत्यक्षदेवता ।। पिनाकिपरमप्रीता पग्मेष्ठिकमंडलुः ।। ११ ।। पद्मनाभपदार्घ्येण प्रसूता पद्ममालिनी ।। परर्द्धिदा पुष्टिकरी पथ्या पूर्तिः प्रभावती ।। १२ ।। पुनाना पीतगर्भघ्नी पापपर्वतनाशिनी ।। फलिनी फलहस्ता च फुल्लांबुजविलोचना ।। १३ ।। फालितैनोमहाक्षेत्रा फणिलोकविभूषणम् ।। फेनच्छलप्रणुन्नैनाः फुल्लकैरवगंधिनी ।। १४ ।। फेनिलाच्छांबुधाराभा फुडुच्चाटितपातका ।। फाणितस्वादुसलिला फांटपथ्यजलाविला ।। १५ ।। विश्वमाता च विश्वेशी विश्वा विश्वेश्वरप्रिया ।। ब्रह्मण्या ब्रह्मकृद्ब्राह्मी ब्रह्मिष्ठा विमलोदका ।। १६ ।। विभावरी च विरजा विक्रांतानेकविष्टपा ।। विश्वमित्रं विष्णुपदी वैष्णवी वैष्णवप्रिया ।। १७ ।। विरूपाक्षप्रियकरी विभूतिर्विश्वतोमुखी ।। विपाशा वैबुधी वेद्या वेदाक्षररसस्रवा ।। १८ ।। विद्यावेगवती वंद्या बृंहणी ब्रह्मवादिनी ।। वरदा विप्रकृष्टा च वरिष्ठा च विशोधनी ।। १९ ।। विद्याधरी विशोका च वयोवृंदनिषेविता ।। बहूदका बलवती व्योमस्था विबुधप्रिया ।। 4.1.29.१२० ।। वाणी वेदवती वित्ता ब्रह्मविद्यातरंगिणी ।। ब्रह्मांडकोटिव्याप्तांबुर्ब्रह्महत्यापहारिणी ।। २१ ।। ब्रह्मेशविष्णुरूपा च बुद्धिर्विभववर्धिनी ।। विलासिसुखदा वैश्या व्यापिनी च वृषारणिः ।। २२ ।। वृषांकमौलिनिलया विपन्नार्तिप्रभंजिनी ।। विनीता विनता ब्रध्नतनया विनयान्विता ।। २३ ।। विपंचीवाद्यकुशला वेणुश्रुतिविचक्षणा ।। वर्चस्करी बलकरी वलोन्मूलितकल्मषा ।। २४ ।। विपाप्मा विगतातंका विकल्पपरिवर्जिता ।। वृष्टिकर्त्री वृष्टिजला विधिर्विच्छिन्नबंधना ।। २५ ।। व्रतरूपा वित्तरूपा बहुविघ्नविनाशकृत् ।। वसुधारा वसुमती विचित्रांगी विभावसुः ।। २६ ।' विजया विश्वबीजं च वामदेवी वरप्रदा ।। वृषाश्रिता विषघ्नी च विज्ञानोर्म्यंशुमालिनी ।।२७ ।। भव्या भोगवती भद्रा भवानी भूतभाविनी ।। भूतधात्री भयहरा भक्तदारिद्र्यघातिनी ।। २८ ।। भुक्तिमुक्तिप्रदाभेशी भक्तस्वर्गापवर्गदा ।। भागीरथीभानुमती भाग्यभोगवती भृतिः ।। २९ ।। भवप्रिया भवद्वेष्टी भूतिदा भूतिभूषणा ।। भाललोचनभावज्ञा भूतभव्यभवत्प्रभुः ।। 4.1.29.१३० ।। भ्रांतिज्ञानप्रशमनी भिन्नब्रह्मांडमंडपा ।। भूरिदा भक्तिसुलभा भाग्यवद्दृष्टिगोचरी ।। ३१ ।। भंजितोपप्लवकुला भक्ष्यभोज्यसुखप्रदा ।। भिक्षणीया भिक्षुमाता भावाभावस्वरूपिणी ।। ।। ३२ ।। मंदाकिनी महानंदा माता मुक्तितंरगिणी ।। महोदया मधुमती महापुण्या मुदाकरी ।। ३३ ।। मुनिस्तुता मोहहंत्री महातीर्था मधुस्रवा ।। माधवी मानिनी मान्या मनोरथपथातिगा ।। ३४ ।। मोक्षदा मतिदा मुख्या महाभाग्यजनाश्रिता ।। महावेगवतीमेध्या महामहिमभूषणा ।। ३५ ।। महाप्रभावा महती मीनचंचललोचना ।। महाकारुण्यसंपूर्णा महर्द्धिश्च महोत्पला ।। ३६ ।। मूर्तिमन्मुक्तिरमणी मणिमाणिक्यभूषणा ।। मुक्ताकलापनेपथ्या मनोनयननंदिनी ।। ३७ ।। महापातकराशिघ्नी महादेवार्धहारिणी ।। महोर्मिमालिनी मुक्ता महादेवी मनोन्मनी ।। ३८।। महापुण्योदयप्राप्या मायातिमिरचंद्रिका।। महाविद्या महामाया महामेधा महौषधम् ।। ३९ ।। मालाधरी महोपाया महोरगविभूषणा ।। महामोहप्रशमनी महामंगलमंगलम्।। 4.1.29.१४०।। मार्तंडमंडलचरी महालक्ष्मीर्मदोज्झिता ।। यशस्विनी यशोदा च योग्या युक्तात्मसेविता ।। ४१ ।। योगसिद्धिप्रदा याज्या यज्ञेशपरिपूरिता ।। यज्ञेशी यज्ञफलदा यजनीया यशस्करी ।।४२।। यमिसेव्या योगयोनिर्योगिनी युक्तबुद्धिदा ।। योगज्ञानप्रदा युक्ता यमाद्यष्टांगयोगयुक् ।।४३।। यंत्रिताघौघसंचारा यमलोकनिवारिणी।।यातायातप्रशमनी यातनानामकृंतनी ।।४४।। यामिनीशहिमाच्छोदा युगधर्मविवर्जिता ।। रेवतीरतिकृद्रम्या रत्नगर्भा रमा रतिः ।।४५।। रत्नाकरप्रेमपात्रं रसज्ञा रसरूपिणी।।रत्नप्रासादगर्भा च रमणीयतरंगिणी।।४६।।रत्नार्ची रुद्ररमणी रागद्वेषविनाशिनी।।रमा रामा रम्यरूपा रोगिजीवातुरूपिणी।।४७।। रुचिकृद्रोचनी रम्या रुचिरा रोगहारिणी ।। राजहंसा रत्नवती राजत्कल्लोलराजिका ।।४८।। रामणीयकरेखा च रुजारी रोगरोषिणी।। राकारंकार्तिशमनी रम्या रोलंबराविणी ।। ४९ ।। रागिणीरंजितशिवा रूपलावण्यशेवधिः ।। लोकप्रसूर्लोकवंद्या लोलत्कल्लोलमालिनी ।। 4.1.29.१५० ।। लीलावती लोकभूमिर्लोकलोचनचंद्रिका ।। लेखस्रवंती लटभा लघुवेगा लघुत्वहृत् ।। ५१ ।। लास्यत्तरंगहस्ता च ललिता लयभंगिगा ।। लोकबंधुर्लोकधात्री लोकोत्तरगुणोर्जिता ।। ५२ ।।.लोकत्रयहिता लोका लक्ष्मीर्लक्षणलक्षिता ।। लीलालक्षितनिर्वाणा लावण्यामृतवर्षिणी ।। ५३ ।। वैश्वानरी वासवेड्या वंध्यत्वपरिहारिणी ।। वासुदेवांघ्रिरेणुघ्नी वज्रिवज्रनिवारिणी ।। ५४ ।। शुभावती शुभफला शांतिः शांतनुवल्लभा ।। शूलिनी शैशववयाः शीतलाऽमृतवाहिनी ।। ५५ ।। शोभावती शीलवती शोषिताशेषकिल्बिषा ।। शरण्या शिवदा शिष्टा शरजन्मप्रसूः शिवा ।। ५६ ।।शक्तिः शशांकविमला शमनस्वसृसंमता ।। शमा शमनमार्गघ्नी शितिकंठमहाप्रिया ।।५७।। शुचिः शुचिकरी शेषा शेषशायिपदोद्भवा ।। श्रीनिवास श्रुतिः श्रद्धा श्रीमती श्रीः शुभव्रता ।। ।। ५८ ।। शुद्धविद्या शुभावर्ता श्रुतानंदा श्रुतिस्तुतिः ।। शिवेतरघ्नी शबरी शांबरीरूपधारिणी ।। ५९ ।। श्मशानशोधनी शांता शश्वच्छतधृतिष्टुता ।। शालिनी शालिशोभाढ्या शिखिवाहनगर्भभृत् ।। 4.1.29.१६० ।। शंसनीयचरित्रा च शातिताशेषपातका ।। षड्गुणैश्वर्यसंपन्ना षडंगश्रुतिरूपिणी ।। ६१ ।। षंढताहारि सलिलाष्ट्यायन्नदनदीशता ।। सरिद्वरा च सुरसा सुप्रभा सुरदीर्घिका ।। ६२ ।। स्वःसिंधुः सर्वदुःखघ्नी सर्वव्याधिमहौषधम् ।। सेव्यासिद्धिः सती सूक्तिः स्कंदसूश्च सरस्वती ।।६३।। संपत्तरंगिणी स्तुत्या स्थाणुमौलिकृतालया ।। स्थैर्यदा सुभगा सौख्या स्त्रीषु सौभाग्यदायिनी ।। ६४ ।। स्वर्गनिःश्रेणिका सूक्ष्मा स्वधा स्वाहा सुधाजला ।। समुद्ररूपिणी स्वर्ग्या सर्वपातकवैरिणी ।। ६५ ।। स्मृताघहारिणी सीता संसाराब्धितरंडिका ।। सौभाग्यसुंदरी संध्या सर्वसारसमन्विता ।। ६६ ।। हरप्रिया हृपीकेशी हंसरूपा हिरण्मयी ।। हृताघसंघा हितकृद्धेला हेलाघगर्वहृत् ।।६७।। क्षेमदा क्षालिताघौघा क्षुद्रविद्राविणी क्षमा ।। इति नामसहस्रं हि गंगायाः कलशोद्भव ।। कीर्तयित्वा नरः सम्यग्गंगास्नानफलं लभेत् ।।६८।। सर्वपापप्रशमनं सर्वविघ्न विनाशनम् ।। सर्वस्तोत्रजपाच्छ्रेष्ठं सर्वपावनपावनम् ।।६९।। श्रद्धयाभीष्टफलदं चतुर्वर्गसमृद्धिकृत् ।। सकृज्जपादवाप्नोति ह्येकक्रतुफलंमुने ।।4.1.29.१७०।। सर्वतीर्थेषु यः स्नातः सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ।। तस्य यत्फलमुद्दिष्टं त्रिकालपठनाच्च तत् ।।७१।। सर्वव्रतेषु यत्पुण्यं सम्यक्चीर्णेषु वाडव ।। तत्फलं समवाप्नोति त्रिसंध्यं नियतः पठन् ।। ७२ ।। स्नानकाले पठेद्यस्तु यत्रकुत्र जलाशये ।। तत्र सन्निहिता नूनं गंगा त्रिपथगा मुने ।। ७३ ।। श्रेयोर्थी लभते श्रेयो धनार्थी लभते धनम् ।। कामी कामानवाप्नोति मोक्षार्थी मोक्षमाप्नुयात् ।।७४।। वर्षं त्रिकालपठनाच्छ्रद्धया शुचिमानसः ।। ऋतुकालाभिगमनादपुत्रः पुत्रवान्भवेत् ।। ७५ ।। नाकालमरणं तस्य नाग्निचोराहि साध्वसम् ।। नाम्नां सहस्रं गंगाया यो जपेच्छ्रद्धया मुने ।। ७६ ।। गंगा नाम सहस्रं तु जप्त्वा ग्रामांतरं व्रजेत् ।। कार्यसिद्धिमवाप्नोति निर्विघ्नो गेहमाविशेत् ।।७७।। तिथिवारर्क्षयोगानां न दोषः प्रभवेत्तदा ।। यदा जप्त्वा व्रजेदेतत्स्तोत्रं ग्रामांतरं नरः ।। ७८।। आयुरारोग्यजननं सर्वोपद्रवनाशनम्।। सर्वसिद्धिकरं पुंसां गंगानामसहस्रकम् ।। ७९ ।। जन्मांतर सहस्रेषु यत्पापं सम्यगर्जितम् ।। गंगानामसहस्रस्य जपनात्तत्क्षयं व्रजेत् ।। 4.1.29.१८० ।। ब्रह्मघ्नो मद्यपः स्वर्णस्तेयी च गुरुतल्पगः ।। तत्संयोगी भ्रूणहंता मातृहा पितृहा मुने ।। ८१ ।। विश्वासघाती गरदः कृतघ्नो मित्रघातकः ।। अग्निदो गोवधकरो गुरुद्रव्यापहारकः ।। ८२ ।। महापातकयुक्तोपि संयुक्तोप्युपपातकैः ।। मुच्यते श्रद्धया जप्त्वा गंगा नाम सहस्रकम् ।। ८३ ।।

 

 

४.१.४१.१७२( द्युनदी : षडङ्ग योग के देवताओं में से तृतीय ), ४.२.५१.१०१( वाराणसीस्थ गङ्गादित्य तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), ४.२.५८.१७( काशी में असि नदी का गङ्गा से साम्य? ), ४.२.६१.१८० ( गङ्गा केशव तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), ४.२.८४.६७ ( कालगङ्गा तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), ४.२.९१ ( काशीस्थ गङ्गेश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य ),

स्कन्द ४.२.९२.६ ( ऋग्वेद का रूप ),

स्कंद उवाच ।। ।। नर्मदेशस्य माहात्म्यं कथयामि मुने तव ।। यस्य स्मरणमात्रेण महापातकसंक्षयः ।। १ ।। अस्य वाराहकल्पस्य प्रवेशे मुनिपुंगवैः ।। आपृच्छिका सरिच्छ्रेष्ठा वदतां त्वं मृकंडज ।।२।। ] मार्कंडेय उवाच ।। ।। शृणुध्वं मुनयः सर्वे संति नद्यः परःशतम् ।। सर्वा अप्यघहारिण्यः सर्वा अपि वृषप्रदाः।।३।। सर्वाभ्योपि नदीभ्यश्च श्रेष्ठाः सर्वाः समु्द्रगाः।। ततोपि हि महाश्रेष्ठाः सरित्सु सरिदुत्तमाः ।। ४ ।। गंगाश्च यमुना चाथ नर्मदा च सरस्वती ।। चतुष्टयमिदं पुण्यं धुनीषु मुनिपुंगवाः ।। ५ ।। ऋग्वेदमूर्तिर्गंगा स्याद्यमुना च यजुर्ध्रुवम् ।। नर्मदासाममूर्तिस्तु स्यादथर्वा सरस्वती ।। ६ ।। गंगा सर्वसरिद्योनिः समुद्रस्यापि पूरणी ।। गंगाया न लभेत्साम्यं काचिदत्रसरिद्वरा ।। ।। ७ ।। किंतु पूर्वं तपस्तपत्वा रेवया बह्वनेहसम्   ।। वरदानोन्मुखो धाता प्रार्थितश्चेति सत्तम ।। ८ ।। गंगासाम्यं विधे देहि प्रसन्नोसि यदि प्रभो ।। ब्रह्मणाथ ततः प्रोक्ता नर्मदास्मितपूर्वकम् ।।९।। यदि त्र्यक्षसमत्वं तु लभ्यतेऽन्येनकेनचित् ।। तदा गंगासमत्वं च लभ्यते सरितान्यया ।।4.2.92.१०।। पुरुषोत्तमतुल्यः स्यात्पुरुषोन्यो यदि क्वचित ।। स्रोतस्विनी तदा साम्यं लभते गंगया परा ।। ११ ।। यदि गौरी समा नारी क्वचिदन्या भवेदिह ।। अन्या धुनीह स्वर्धुन्यास्तदा साम्यमुपैष्यति ।। १२ ।। यदि काशीपुरी तुल्या भवेदन्या क्वचित्पुरी  ।। तदा स्वर्गतरंगिण्याः साम्यमन्या नदी लभेत् ।। १३ ।। निशम्येति विधेर्वाक्यं नर्मदा सरिदुत्तमा।। धातुर्वरं परित्यज्य प्राप्ता वाराणसीं पुरीम्।। १४ .।। सवेंभ्योपि हि पुण्येभ्यः काश्यां लिंगप्रतिष्ठितेः ।। अपरा न समुद्दिष्टा कैश्चिच्छ्रेयस्करीक्रिया ।। १५ ।। अथ सा नर्मदा पुण्या विधिपूर्वा प्रतिष्ठितिम् ।। व्यधात्पिलिपिलातीर्थे त्रिविष्टप समीपतः ।। १६ ।। ततः शंभुः प्रसन्नोभूत्तस्यै नद्यै शुभात्मने ।। वरं वृणीष्व सुभगे यत्तुभ्यं रोचतेऽनघे ।। १७ ।। सरिद्वरा निशम्येति रेवा प्राह महेश्वरम् ।। किं वरेणेह देवेश भृशं तुच्छेन धूर्जटे ।। ।। १८ ।। निर्द्वंद्वात्पदद्वंद्वे भक्तिरस्तु महेश्वर ।। श्रुत्वेति नितरां तुष्टो रेवागिरमनुत्तमाम् ।। १९ ।। प्रोवाच च सरिच्छ्रेष्ठे त्वयोक्तं यत्तथास्तु तत् ।। गृहाण पुण्यनिलये वितरामि वरांतरम् ।। २ ।। यावत्यो दृषदः संति तव रोधसि नर्मदे ।। तावंत्यो  लिंगरूपिण्यो भविष्यंति वरान्मम ।। २१ ।। अन्यं च ते वरं दद्यां तमप्याकर्णयोत्तमम् ।। दुष्प्रापं यच्च तपसां राशिभिः परमार्थतः ।। २२ ।। सद्यः पापहरा गंगा सप्ताहेन कलिंदजा ।। त्र्यहात्सरस्वती रेवे त्वं तु दर्शनमात्रतः ।। ।। २३ ।। अपरं च वरं दद्यां नर्मदे दर्शनाघहे ।। भवत्या स्थापितं लिगं नर्मदेश्वरसंज्ञकम् ।। २४ ।। यत्तल्लिंगं महापुण्यं मुक्तिं दास्यति शाश्वतीम् ।। अस्य लिंगस्य ये भक्तास्तान्दृष्ट्वा सूर्यनंदनः ।। २५ ।। प्रणमिष्यति यत्नेन महाश्रेयोभिवृद्धये ।। संति लिंगान्यनेकानि काश्यां देवि पदे पदे ।। २६ ।। परं हि नर्मदेशस्य महिमा कोपि चाद्धुतः ।। इत्युक्त्वा देवदेवेशस्तस्मिंल्लिंगे लयं ययौ ।। २७ ।। नर्मदापि प्रहृष्टासीत्पावित्र्यं प्राप्य चाद्भुतम् ।। स्वदेशं च परिप्राप्ता दृष्टमात्राघहारिणी ।। २८ ।। वाक्यं मृकंडजमुनेस्तेपि श्रुत्वा मुनीश्वराः ।। प्रहृष्टचेतसो जाताश्चक्रुः स्वंस्वं ततो हितम् ।। २९ ।। ।। स्कंद उवाच ।। ।। नर्मदेशस्य माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तियुतो नरः।। पापकंचुकमुत्सृज्य प्राप्स्यति ज्ञानमुत्तमम्।।३०।। 

 

अनेक जन्मार्जितपुण्यतोये मज्जंति तोये मणिकर्णिकायाः

नमंति विश्वेशमवाप्यकाशीं ते वै मयापीह भवंति वंद्याः १२५

 

 

न वेदेन समं शास्त्रं न तीर्थं गंगया समम् ३८

न दानं जलगोतुल्यं न वैशाखी समा तिथिः – पद्म 5.98.39

 

 

गंगादिपुण्यतीर्थेषु यो नरः स्नाति सर्वदा

यः करोति सतां संगं तयोः सत्संगमो वरः पद्म 5.98.७८

 

 

 

यः स्नातः पापहरया साधुसंगम गंगया

किं तस्य दानैः किं तीर्थैः किं तपोभिः किमध्वरैः पद्म 5.100.५

 

 [m1]अतः पूर्वदिशि क्षेत्रं त्रिगङ्गं नाम विश्रुतम्
यत्र त्रिपथगा साक्षाद्दृश्यते सकलैर्जनैः २२
तत्र स्नात्वाथ सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्
सम्यक्छ्रद्धायुतो मर्त्यो मोदते दिवि देववत् २३
तत्र यस्त्यजति प्राणान्प्रवाहे पतितः सति
स व्रजेद्वैष्णवं धाम देवैः सम्यक्सभाजितः २४
ततः कनखले तीर्थे दक्षिणीं दिशमाश्रिते
त्रिरात्रोपोषितः स्नात्वा मुच्यते सर्वकिल्बिषैः २५
अथ यस्तत्र गां दद्याद्ब्रह्मणे वेदपारगे
स कदाचिन्न पश्येत्तु देवि वैतरणीं यमम् २६
अत्र जप्तं हुतं तप्तं दत्तमानन्त्यमश्नुते
अत्रैव जह्नुतीर्थे च यत्र वै जह्नुना पुरा २७
राजर्षिणा निपीताभूद्गण्डूषीकृत्य सा नदी
प्रसादितेन सा तेन मुक्ता कर्णाद्विनिर्गता २८
तत्र स्नात्वा महाभागे यो नरः श्रद्धयान्वितः
सोपवासः समभ्यर्चेद्ब्राह्मणं वेदपारगम् २९
भोजयेत्परमान्नेन स्वर्गे कल्पं वसेत्स तु
अथ पश्चाद्दिशि गतं कोटितीर्थं सुमध्यमे ३०
यत्र कोटिगुणं पुण्यं भवेत्कोटीशदर्शनात्
ष्यैकां रजनीं तत्र पुण्डरीकमवाप्नुयात् ३१
तथैवोत्तरदिग्भागे सप्तगङ्गेति विश्रुतम्
तीर्थं परमकं देवि सर्वपातकनाशनम् ३२
यत्राश्रमाश्च पुण्या वै सप्तर्षीणां महामते
तेषु सर्वेषु तु पृथक् स्नात्वा सन्तर्प्य देवताः ३३
पितॄंश्च लभते मर्त्य ऋषिलोकं सनातनम्
भगीरथेन वै राज्ञा यदानीता सुरापगा ३४
तदा सा प्रीतये तेषां सप्तधारागताभवत्
सप्तगङ्गं ततस्तीर्थं भुवि विख्यातिमागतम् ३५
स आवर्तं ततः प्राप्य सन्तर्प्यामरपूर्वकान्
स्नात्वा देवेन्द्र भवने मोदते युगमेव च ३६
ततो भद्रे समासाद्य कपिलाह्रदमुत्तमम्
धेनुं दत्त्वा द्विजाग्र्याय गोसहस्रफलं लभेत् ३७
अत्रैव नागराजस्य तीर्थं परमपावनम्
अत्राभिषेकं यः कुर्यात्सोऽभयं सर्पतो लभेत् ३८
ततो ललितकं प्राप्य शन्तनोस्तीर्थमुत्तमम्
स्नात्वा सन्तर्प्य विधिवत्सुरादीँल्लभते गतिम् ३९
यत्र शन्तनुना लब्धा गङ्गा मानुष्यमागता
तत्रैव तत्यजे देहं वसून्सूत्वानुवत्सरम् ४०
तद्देहो न्यपतत्तत्र तत्राभूदृक्षजन्म च
तत्र यः स्नाति मनुजो भक्षयेदोषधीं च ताम् ४१
स न दुर्गतिमाप्नोति गङ्गादेवीप्रसादतः
भीमस्थलं ततः प्राप्य यः स्नायात्सुकृती नरः ४२
भोगान्भुक्त्वेह देहान्ते स्वर्गतिं समवाप्नुयात्
एतान्युद्देशतो देवि तीर्थानि गदितानि ते ४३
अन्यानि वै महाभागे सन्ति तत्र सहस्रशः
योऽस्मिन्क्षेत्रे नरः स्नायात्कुम्भगेज्येऽजगे रवौ ४४
स तु स्याद्वाक्पतिः साक्षात्प्रभाकर इवापरः

 

 [m2]ब्र.वै. २.१०.९७( कौथुमी शाखोक्त, भगीरथ - कृत गङ्गा ध्यान का कथन ),

श्वेतचम्पकवर्णाभां गङ्गां पापप्रणाशिनीम् ।। कृष्णविग्रहसम्भूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् ।। ९७ ।। वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।। शरत्पूर्णेन्दुशतकप्रभाजुष्टकलेवराम् ।। ९८ ।। ईषद्धासप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।। नारायणप्रियां शान्तां सत्सौभाग्यसमन्विताम ।। ९९ ।। बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुताम् ।। सिन्दूरबिन्दुललितां सार्द्धं चन्दनबिन्दुभिः ।। 2.10.१०० ।। कस्तूरीपत्रकं गण्डे नानाचित्रसमन्वितम् ।। पक्वबिम्बसमानैकचार्वोष्ठपुटमुत्तमम् ।। १०१ ।। मुक्तापंक्तिप्रभाजुष्टदन्तपंक्तिमनोहराम् ।। सुचारुवक्रनयनां सकटाक्षमनोरमाम् ।। १०२ ।। कठिनं श्रीफलाकारं स्तनयुग्मं च बिभ्रतीम् ।। बृहच्छ्रोणीं सुकठिनां रम्भास्तम्भपरिष्कृताम् ।। १०३ ।। स्थलपद्मप्रभाजुष्टपादपद्मयुगंधराम् ।। रत्नाभरणसंयुक्तं कुंकुमाक्तं सयावकम् ।। १०४ ।। देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणम् ।। सुरसिद्धमुनीन्द्रादिदत्तार्घ्यैस्संयुतं सदा ।। १०५ ।। तपस्विमौलिनिकरभ्रमरश्रेणिसंयुतम् ।। मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां स्वर्गभोगदम् ।। १०६ ।। वरां वरेण्यां वरदां भक्तानुग्रहकातराम् ।।

 [m3]चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च सर्वावयवशोभिताम्  ।

रत्नकुंभसितांभोजवराभयकरां शुभाम्  ॥ २,४१.३३ ॥

श्वेतवस्त्रपरीधानां मुक्तामणिविभूषिताम्  ।

सुप्रसन्नां सुवदनां करुणार्द्रहृदंबुजाम्  ॥ २,४१.३४ ॥

सुधाप्लावितभूपृष्ठां त्रैलोक्यनमितां सदा  ।

ध्यात्वा जलमयीं गङ्गां पूजयन्पुण्यभाग्भवेत् ॥ २,४१.३५ ॥

(नारद पुराण)

 [m4]चतुर्भुजां सुनेत्रां च चन्द्रायुतसमप्रभाम् ४९

चामरैर्वीज्यमानां च श्वेतच्छत्रोपशोभिताम्

सुप्रसन्नां च वरदां करुणार्द्र निजान्तराम् ५०

सुधाप्लावितभूपृष्ठां देवादिभिरभिष्टुताम्

दिव्यरत्नपरीतां च दिव्यमाल्यानुलेपनाम् ५१

ध्यात्वा जले यथाप्रोक्तां  तत्रार्चायां तु पूजयेत्

-    नारद 2.43.

 प्रथम लेखन - 29-3-2015ई. ( चैत्र शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् 2072)