पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Gangaa - Goritambharaa)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Gangaa - Gangaa ( words like Grihapati, Grihastha/householder etc. )

Gangaa - Gaja (Gangaa, Gaja/elephant etc.)

Gaja - Gajendra (Gaja, Gaja-Graaha/elephant-crocodile, Gajaanana, Gajaasura, Gajendra, Gana etc.)

Gana - Ganesha (Ganapati, Ganesha etc.)

Ganesha - Gadaa (Ganesha, Gandaki, Gati/velocity, Gada, Gadaa/mace etc. )

Gadaa - Gandhamaali  ( Gadaa, Gandha/scent, Gandhamaadana etc. )

Gandharva - Gandharvavivaaha ( Gandharva )

Gandharvasenaa - Gayaa ( Gabhasti/ray, Gaya, Gayaa etc. )

Gayaakuupa - Garudadhwaja ( Garuda/hawk, Garudadhwaja etc.)

Garudapuraana - Garbha ( Garga, Garta/pit, Gardabha/donkey, Garbha/womb etc.)

Garbha - Gaanabandhu ( Gavaaksha/window, Gaveshana/research, Gavyuuti etc. )

Gaanabandhu - Gaayatri ( Gaandini, Gaandharva, Gaandhaara, Gaayatri etc.)

Gaayana - Giryangushtha ( Gaargya, Gaarhapatya, Gaalava, Giri/mountain etc.)

Girijaa - Gunaakara  ( Geeta/song, Geetaa, Guda, Gudaakesha, Guna/traits, Gunaakara etc.)

Gunaakara - Guhaa ( Gunaadhya, Guru/heavy/teacher, Guha, Guhaa/cave etc. )

Guhaa - Griha ( Guhyaka, Gritsamada, Gridhra/vulture,  Griha/home etc.)

Griha - Goritambharaa ( Grihapati, Grihastha/householder etc.)

 

 

 

 

 

 

 

दीपावली पर्व पर गणेश और लक्ष्मी की पूजा एक साथ करने का विधान है । यह एक जिज्ञासा ही रही है कि इस पर्व पर गणेश और श्री की एक साथ पूजा के पीछे क्या रहस्य हो सकता है, क्योंकि पूरे वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रकाश नहीं डाला गया है, जबकि दीपावली के कृत्य में इसका महत्त्व सर्वविदित है । । ऐसा प्रतीत होता है कि इस संदर्भ में भद्र को गज - मुख गणेश का स्थान दे दिया गया है जबकि श्री को लक्ष्मी का । ऋग्वेद ८.९३.२८ में शतक्रतु इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए भद्र - अभद्र इष - ऊर्ज का भरण करे । दीपावली पर गणेश लक्ष्मी की अर्चना इस ऋचा की व्याख्या हो सकती है क्योंकि आश्विन् - कार्तिक मासों का नाम क्रमशः इष व ऊर्ज है । इसके अतिरिक्त, चातुर्मास यज्ञ के अन्त में शुनासीर यज्ञ होता है जिसके सम्बन्ध में कहा गया है कि इसका एक भाग शुनम् है और दूसरा सीर श्री के सम्पादन से सम्बन्धित है । तैत्तिरीय संहिता ४.७.३.१ में वसुधारा के संदर्भ में दिए गए उल्लेख से प्रतीत होता है कि शुनम् से आरम्भ करके श्री तक पहुंचने की लम्बी प्रक्रिया है क्योंकि वसुधारा के उल्लेख में क्रमशः शम्, मयः, प्रिय, अनुकाम, काम, सौमनस्, भद्र और श्री का उल्लेख है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह क्रमिक अवस्थाएं हो सकती हैं । ऋग्वेद ६.१.१२ में पूर्वी इष: द्वारा अक्ष/पाप समाप्त करने की कामना की गई है ।

     यद्यपि वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से भद्र और श्री के बीच सम्बन्धों का उल्लेख आता है, फिर भी भद्र से श्रेयस् की प्राप्ति कैसे हो सकती है, इसका उल्लेख परोक्ष रूप में ही किया गया है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, भद्र में पृष्ठ या अचेतन मन विद्यमान है जिसका पाक करके उसे श्री में रूपान्तरित करना है । अग्नि के समिन्धन से केवल भद्रता की प्राप्ति ही होती है ( ऋग्वेद १.९४.१४) । सोमयाग के कर्मकाण्ड में ओदन पाक का कार्य अन्वाहार्यपचन नामक अग्नि पर किया जाता है । अन्वाहार्यपचन को दक्षिणाग्नि भी कहते हैं ( अन्वाहार्यपचन पर टिप्पणी द्रष्टव्य है ) । अन्वाहार्यपचन की कुछ विशेषताएं हैं जैसे इसका अधिपति नल नैषध है । जो विशेषताएं पुराणों में राजा नल के चरित्र में प्रदर्शित हैं, वही इस अग्नि के विषय में भी समझनी चाहिएं । इस अग्नि का स्थान द्युलोक और भूलोक के बीच में अन्तरिक्ष लोक होता है । भूलोक में कोई भी कार्य प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत, चांस पर, आकस्मिक रूप में होता है जबकि अन्वाहार्यपचन अग्नि पर आकस्मिक स्वरूप की तीव्रता कम हो जाती है । कहा जा सकता है कि यह शकुनि के बदले शकुन बन जाता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.४-६ में अग्नि के आधान के संदर्भ में कहा गया है कि असुरों ने पहले आहवनीय अग्नि का आधान किया, फिर गार्हपत्य का, फिर अन्वाहार्यपचन का । इससे उन्हें जिस श्री की प्राप्ति हुई, वह प्रतीची को चली गई व नष्ट हो गई । जब देवों ने अग्नि का आधान किया तो उन्होंने पहले अन्वाहार्यपचन का, फिर गार्हपत्य का और फिर आहवनीय का आधान किया । इससे उनकी श्री प्राची दिशा को गई । लेकिन प्रजा की प्राप्ति न हुई । फिर मनुष्यों ने अग्नि का आधान किया । - - - - - । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि श्री की प्राप्ति करनी है तो इन तीनों अग्नियों का आधान अनिवार्य है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.९.१ में उल्लेख है कि भद्र के लिए गृहप की व श्री के लिए वित्तप(वित्त की रक्षा करने वाले) की प्राप्ति करे । ऐसा लगता है कि यह कथन आत्मा और उसकी कलाओं के विषय में हो सकता है । कहा गया है कि आत्मा १६वी कला है और शेष १५ कलाएं उसका वित्त हैं । चूंकि चन्द्रमा की १५ कलाओं में क्षीणता व वृद्धि होती रहती है, अतः हो सकता है कि इस रोग से मुक्ति पाना ही श्री की प्राप्ति हो । कौशीतकि ब्राह्मणोपनिषद १.५ में प्राण रूपी एक पर्यङ्क /पलंग की कल्पना की गई है जिसके शीर्ष पाद भद्र - यज्ञायज्ञीय हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि सोमयाग में तृतीय सवन में यज्ञायज्ञीय सामगान ( यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरा गिरा च दक्षसे । प्र प्र वयं अमृतं जातवेदसं - - - - -) के पश्चात् ही यजमान में वरदान देने की सामर्थ्य आती है । यहां यज्ञायज्ञीय भी श्री का रूप हो सकता है । अन्यत्र यज्ञायज्ञीय साम को पुच्छ कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ३.१.१.४ में यज्ञ में दीक्षा ग्रहण के समय भद्रादभि श्रेयः प्रेहीति मन्त्र का उच्चारण यह संकेत करता है कि दीक्षा द्वारा भी भद्र से श्री की प्राप्ति हो सकती है । दीक्षा द्वारा यजमान माता के गर्भ की भांति आचार्य का गर्भ बन जाता है ।

     पद्म पुराण ६.१५२.१५ में सूर्य बाला नामक कन्या को पाक हेतु ५ बदर देते हैं जिन्हें पकाने के लिए वह अपनी सारी देह को अग्नि का इन्धन बना देती है लेकिन बदरों का पाचन नहीं हो पाता । ऐसी ही कथा महाभारत शल्य पर्व ४८ में आती है जहां भरद्वाज - कन्या श्रुतावती इन्द्र से पाक हेतु ५ बदर प्राप्त करती है और अन्त में अपनी देह को ही अग्नि का इन्धन बना देती है । यहां यह संदेह होता है कि क्या बदर भी किसी प्रकार से भद्र का ही रूप हैं ?

     गर्ग संहिता ७.३२.५ में राजा भद्रश्रवा प्रद्युम्न से शकुनि असुर के वध की प्रार्थना करता है और प्रद्युम्न द्वारा शकुनि के वध हेतु पहले एक शुक का वध किया जाता है जिसमें शकुनि के प्राण निहित हैं और फिर शकुनि को अन्तरिक्ष में उठाकर बाणों द्वारा अन्तरिक्ष में ही मारा जाता है क्योंकि शकुनि को वरदान है कि वह भूमि का स्पर्श पाते ही जी उठेगा । यह कथा संकेत करती है कि भद्र स्थिति में शकुनि स्थिति का प्राबल्य होता है ( महाभारत में मायावी शकुनि को द्यूत विद्या में निपुण कहा गया है ) । ऋग्वेद २.४३.२ में शकुन/पक्षी से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए सर्व से (सर्वतो) भद्र बोले तथा कि वह हमारे लिए विश्व से पुण्य बोले । इसके पश्चात् कहा गया है कि जब शकुन बोले तो वह भद्र बोले और जब चुप रहे तो वह हमारी सुमति का वर्धन करे । डा. फतहसिंह के अनुसार जब हमारी इन्द्रियां बहिर्मुखी हैं तो वह सर्व स्थिति है । जब यह अन्तर्मुखी हो जाती हैं तो वह विश्व स्थिति है । उपरोक्त ऋचा से तो यह संकेत मिलता है कि भद्र का सम्बन्ध सर्व स्थिति से है । लेकिन इसके विपरीत प्रमाण ऋग्वेद १.१६६.९, २.२३.१९, २.२४.१६, २.३६.१५, ५.८२.५ से प्राप्त होते हैं जहां विश्व भद्रों के उल्लेख आते हैं ।    पुराणों में बलभद्र के उल्लेखों के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर के परितः आभामण्डल/वाल का भद्र बनना आवश्यक है । ऋग्वेद १.१३४.४, ३.३९.२, ५.२९.१५, ९.९७.२, १०.८५.६ आदि में उषा द्वारा भद्र वस्त्र प्रदान करने अथवा उषा का भद्र वस्त्र होने के उल्लेख आते हैं । पौराणिक कथा में गौतम ऋषि निर्वस्त्र भद्र यक्ष को शाप देकर सिंह बना देते हैं । ऐसा संभव है कि वेद की ऋचाओं में वाल को ही वस्त्र का रूप दिया गया हो । शतपथ ब्राह्मण ३.१.२.२० में दीक्षा संस्कार में वस्त्र परिधान के संदर्भ में कहा गया है कि अदीक्षित होने के समय पाप वर्ण की पुष्टि होती है जबकि दीक्षित हो जाने पर भद्र वर्ण की । पुराणों में असुर राजा बलि के उपवाह्य के रूप में भद्र हस्ती का उल्लेख आया है । राजा बलि भी वाल का, आभामण्डल का प्रतीक हो सकता है ।

     ऋग्वेद १.८९.१, १.१२३.१३, ४.१०.१, ४.१०.२, १०.२५.१, १०.३०.१२तैत्तिरीय संहिता ४.३.१३.१ आदि में भद्र क्रतु का उल्लेख आया है जिसमें ऋग्वेद ४.१०.२, १०.२५.१ आदि में क्रतु के साथ दक्ष व ऋत शब्द भी प्रकट हुए हैं । ऐसा लगता है कि कथासरित्सागर में जो कथा विक्रमादित्य द्वारा शूकर के वध के रूप में कही गई है, वही तथ्य पुराणों में वीरभद्र द्वारा दक्ष यज्ञ/क्रतु के विध्वंस द्वारा प्रकट किया गया है । वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में यज्ञ को एक वराह का रूप दिया गया है जिसके सभी अङ्ग यज्ञ के विभिन्न पात्रों से निर्मित हैं । यज्ञ को क्रतु में परिणत करने पर ऋग्वेद ४.१०.२ आदि से लगता है कि यह सत्य की अपेक्षा ऋत की अवस्था हो जाती है । फिर क्रतु को भद्र भी बनाना होता है । यह कहा जा सकता है कि दक्ष का यज्ञ यज्ञ नहीं, अपितु क्रतु है । क्रतु में पाप विद्यमान है जिसे निकाल कर उसे भद्र बनाना है । दक्ष क्रतु का अर्थ होगा वह जीवन यज्ञ जिसमें अधिकतम दक्षता प्राप्त करनी है और रव को न्यूनतम बनाना है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार कोई कार्य करते समय उस कार्य में कुछ न कुछ रव अवश्य उत्पन्न होता है । पौराणिक व वैदिक साहित्य का कहना है कि रव उत्पन्न होने का कारण पाप की विद्यमानता है । अतः भद्र दक्ष क्रतु वह होगा जिसमें रव विद्यमान न हो । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में दक्षता की प्राप्ति को दक्षिण दिशा में स्थान दिया गया है । पाप के शमन को पश्चिम दिशा में स्थान दिया गया है और किसी कार्य को करने से पहले उसकी प्रेरणा प्राप्ति को पूर्व दिशा में स्थान दिया गया है । वायु पुराण ४१.८४ में पृथिवी को ४ महाद्वीपों में विभाजित किया गया है जिसमें पश्चिम दिशा में केतुमाल द्वीप की स्थिति कही गई है । इस कथन के अनुसार भद्र पूर्व दिशा में, भरत दक्षिण दिशा में व उत्तरकुरु उत्तर दिशा में होने चाहिएं ।