पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Gangaa - Goritambharaa)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Gangaa - Gangaa ( words like Grihapati, Grihastha/householder etc. )

Gangaa - Gaja (Gangaa, Gaja/elephant etc.)

Gaja - Gajendra (Gaja, Gaja-Graaha/elephant-crocodile, Gajaanana, Gajaasura, Gajendra, Gana etc.)

Gana - Ganesha (Ganapati, Ganesha etc.)

Ganesha - Gadaa (Ganesha, Gandaki, Gati/velocity, Gada, Gadaa/mace etc. )

Gadaa - Gandhamaali  ( Gadaa, Gandha/scent, Gandhamaadana etc. )

Gandharva - Gandharvavivaaha ( Gandharva )

Gandharvasenaa - Gayaa ( Gabhasti/ray, Gaya, Gayaa etc. )

Gayaakuupa - Garudadhwaja ( Garuda/hawk, Garudadhwaja etc.)

Garudapuraana - Garbha ( Garga, Garta/pit, Gardabha/donkey, Garbha/womb etc.)

Garbha - Gaanabandhu ( Gavaaksha/window, Gaveshana/research, Gavyuuti etc. )

Gaanabandhu - Gaayatri ( Gaandini, Gaandharva, Gaandhaara, Gaayatri etc.)

Gaayana - Giryangushtha ( Gaargya, Gaarhapatya, Gaalava, Giri/mountain etc.)

Girijaa - Gunaakara  ( Geeta/song, Geetaa, Guda, Gudaakesha, Guna/traits, Gunaakara etc.)

Gunaakara - Guhaa ( Gunaadhya, Guru/heavy/teacher, Guha, Guhaa/cave etc. )

Guhaa - Griha ( Guhyaka, Gritsamada, Gridhra/vulture,  Griha/home etc.)

Griha - Goritambharaa ( Grihapati, Grihastha/householder etc.)

 

 

 

 

 

 

 

गन्धर्व

     व्यावहारिक जीवन में गन्धर्व अथवा गन्धर्वों की क्या भूमिका हो सकती है, इसका प्रत्यक्ष उत्तर वैदिक अथवा पौराणिक साहित्य में प्राप्त नहीं होता । शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता ९.१, ११.७ तथा ३०.१ में सविता रूपी दिव्य गन्धर्व केतपू: से केत, ज्ञान का शोधन करने की प्रार्थना की गई है -

देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय ।

दिव्यो गन्धर्व: केतपू: केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाजं नः स्वदतु स्वाहा ।।

 इस यजु का उल्लेख तैत्तिरीय संहिता १.७.७.१, ४.१.१.२, काठक संहिता १३.१४, १५.११, शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१६, ६.३.१.१९ आदि में मिलने से इसके महत्त्व का अनुमान लगाया जा सकता है । यहां केत/केतु को सामान्य ज्ञान माना जा सकता है । उदाहरण के लिए, जिह्वा को स्वाद का अनुभव होता है और उसी के अनुसार हमारी चेतना यह निर्णय करती है कि कोई वस्तु भोजन योग्य है या नहीं । लेकिन प्रायः चेतना के निर्णय लेने में गलती हो जाती है । हमारी क्षुधा रूपी केतु संकेत देता है कि शरीर को भोजन की आवश्यकता है । लेकिन हो सकता है वह झूठी भूख हो । अतः देह के सभी स्तरों पर अपने केतों/संकेतों के शोधन की आवश्यकता है । यह कार्य सविता या आदित्य रूपी दिव्य गन्धर्व ही कर सकता है, ऐसा यजु का कहना है । चूंकि गन्धर्व मुख्य रूप से गन्ध से जुडे हैं, अतः ऐसा संकेत मिलता है कि गन्धर्व की गन्ध केवल नासिका तक सीमित नहीं है, अपितु वह तो प्रत्येक इन्द्रिय को मिलने वाले संकेत हैं । यह संकेत माया से, अनृत से आवृत भी हो सकते हैं जिन्हें शुद्ध बनाने की आवश्यकता होती है ।

     केत/गन्ध विषय को और स्पष्ट करने के लिए विपश्यना ध्यान का उदाहरण लिया जा सकता है । विपश्यना ध्यान में यह निर्देश होता है कि अपने शरीर में देखते रहो कि कहां क्या अनुभूति होती है । कोई छोटी सी भी अनुभूति बाद में विशाल रूप धारण कर सकती है । यदि ध्यान करते समय शरीर के किसी भाग में पीडा का अनुभव होता है, अथवा खुजली लगती हो, अथवा भूख लगी हो, अथवा सिर में दर्द हो तो सारा ध्यान वहीं केन्द्रित कर देना है । तब उस पीडा या खुजली का रूपान्तरण हो जाता है । रूपान्तरण तब होता है जब पीडा या खुजली एक स्थानिक घटना नहीं रहती, अपितु वह ऊर्ध्वमुखी होकर सिर में किसी प्रकार की संवेदना उत्पन्न करती है । याज्ञिक भाषा में संभवतः इसको घर्म या प्रवर्ग्य कहा जा सकता है । तैत्तिरीय आरण्यक ४.११.१३ तथा ५.९.८ के आधार पर इस घर्म को रन्ति नामक दिव्य गन्धर्व कहा जा सकता है जो दक्षता उत्पन्न करता है -

रन्तिर्नामासि दिव्यो गन्धर्व: । तस्य ते पद्वद्धविर्धानम् । अग्निरध्यक्षाः । रुद्रोऽधिपति: ।।

यहां हविर्धान नामक सोमयाग के मण्डप को गन्धर्व के पद की भांति कहा गया है । हविर्धान नामक यज्ञमण्डप में सोम का द्रोणकलश में शोधन और उसका संग्रहण किया जाता है । यह कहा जा सकता है कि गन्धर्व द्वारा गन्ध का शोधन सोम उत्पन्न करने का पहला चरण या पद है ।

     वैदिक साहित्य में गन्धर्वों को गन्ध धारण करने वाले लेकिन रूप कामियों के रूप में प्रदर्शित किया गया है ( शतपथ ब्राह्मण १०.५.२.२०) । इसके विपरीत, अप्सराओं के पास रूप है लेकिन उन्हें गन्ध की आवश्यकता है । यह तथ्य साहित्य और लोक में प्रसिद्ध नाम - रूप के तथ्य की ओर इंगित करता है । तैत्तिरीय आरण्यक १०.१.३ में कहा गया है ( तुलनीय - ऋग्वेद १०.१३९.६) -

वेनस्तत्पश्यन्विश्वा भुवनानि विद्वान्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् । - - - - -प्र तद्वोचे अमृतं नु विद्वान्गन्धर्वो नाम निहितं गुहासु । - - -

 यह वेन नामक गन्धर्व अमृत कहता है । कहा गया है कि प्राण ही अमृत हैं और इस प्रकार प्राणों का ही कल्पन होता है । ऋग्वेद १०.१२३.४ में भी गन्धर्वों द्वारा अमृत नाम जानने का उल्लेख है जबकि ऋग्वेद १०.१३९.६ में वह अमृत कहते हैं । नाम लेकर सुप्त प्राणों को जाग्रत किया जाता है । अतः हो सकता है कि गन्धर्वों का प्रयास गान द्वारा सुप्त प्राणों को जाग्रत करना हो, जिस प्रकार सुप्त राजा को प्रातःकाल गान द्वारा जगाया जाता है । यह सुप्त प्राण वही हो सकते हैं जो खुजली के रूप में प्रकट हो रहे हैं, पीडा के रूप में प्रकट हो रहे हैं, क्षुधा के रूप में प्रकट हो रहे हैं । जब यह स्थानिक घटनाएं सिर में संवेदना उत्पन्न करने आदि के द्वारा सार्वत्रिक घटनाओं में रूपान्तरित हो जाएं तो इन्हें रूप का निर्माण कहा जा सकता है । गन्धर्वों की रूप कामना को सम्यक् दर्शन का अभाव ले सकते हैं । रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव, प्रत्येक कण में उसी परमात्मा का दर्शन होने लगे, यह मधु विद्या कहलाती है । भागवत पुराण में असुर मोहिनी का रूप धारण किए हुए विष्णु को नहीं पहिचान सके, अतः उन्हें अमृत के बदले केवल सुरा मिली ।

     शतपथ ब्राह्मण ११.२.३.६ में आघार नामक यज्ञकृत्य के संदर्भ में मन और वाक् द्वारा आघार - द्वय को सम्पन्न करने का कथन है । कहा गया है कि मन ही रूप है । मन से ही रूप को जाना जाता है । वाक् ही नाम है । वाक् द्वारा ही नाम को ग्रहण किया जाता है । प्रश्न उठाया गया है कि रूप महान् है अथवा नाम? उत्तर दिया गया है कि रूप ही महान् है । इससे आगे वर्णन में गन्धर्वों द्वारा ऋषियों को यज्ञ के क्रियान्वन में क्या अतिरिक्त हो गया है, क्या कमी रह गई है, इसका संकेत दिया जाता है । इससे आगे वर्णन में दर्श - पूर्णमास का संदर्भ आरम्भ हो जाता है और विकल्प दिया जाता है कि क्या पूर्ण है और क्या अपूर्ण है । सूर्य/प्राण, चन्द्रमा/मन, पृथिवी/वाक्, द्यौ, मन, वाक्, प्राण, उदान आदि के बीच चुनाव करना होता है कि पूर्णमा कौन है, दर्श/ददृश कौन है । कभी सूर्य पूर्ण होता है तो चन्द्रमा ददृश बन जाता है । कभी चन्द्रमा पूर्ण होता है तो सूर्य ददृश बन जाता है । कभी पृथिवी पूर्ण है तो द्यौ ददृश बन जाती है । कभी उदान पूर्ण है तो प्राण ददृश बन जाता है । जैसा कि अन्यत्र टिप्पणियों में कहा जा चुका है, भौतिक जगत में सूर्य, चन्द्रमा और पृथिवी के संयोग से, परस्पर एक दूसरे की परिक्रमा करने के कारण संवत्सर का निर्माण होता है । अध्यात्म में प्राण, मन और वाक् के परस्पर सहयोग से संवत्सर का निर्माण होता है । इस प्रकार यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से गन्धर्वों को नाम - रूप से सम्बद्ध नहीं किया गया है, लेकिन परोक्ष रूप से तो यह संकेत मिलता ही है कि गन्धर्वों का सम्बन्ध जहां गन्ध - रूप से है, वहीं नाम - रूप से भी है ।

      जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, शतपथ ब्राह्मण ११.२.३.७ में उल्लेख है कि ऋषियों ने यज्ञ की क्रियाविधि का साक्षात्कार तो कर लिया, लेकिन उन्हें यह पता नहीं लग पाता था कि यज्ञ में किस चीज की कमी रह गई है, क्या चीज अधिक हो गई है । गन्धर्वों ने यज्ञ की न्यूनता - अतिरेकता को ऋषियों से बताया । जो यज्ञ का अतिरेक था, वह गिरि जैसा था । जो यज्ञ का ऊन/न्यून था, वह जिस प्रकार भूमि में श्वभ्र/प्रदर/गड्ढे होते हैं, इस प्रकार था । कहा गया है कि यह जो अतिरेक और न्यूनता है, यह हानि पहुंचाने वाली है । इसको शिव, शान्त, स्विष्ट बनाने की आवश्यकता है । इस वैदिक संदर्भ को समझने के लिए स्कन्द पुराण ७.३.२.५५ के इस आख्यान का उल्लेख किया जा सकता है कि वसिष्ठ ऋषि की नन्दिनी गौ श्वभ्र में गिर पडी । इस श्वभ्र का निर्माण उत्तंक ऋषि ने खोए हुए कुण्डलों की प्राप्ति हेतु अपने तप द्वारा किया था । इस श्वभ्र का पूरण वसिष्ठ ने नन्दिवर्धन पर्वत तथा सरस्वती द्वारा किया जिससे नन्दिनी गौ बाहर निकल कर आ गई । डा. फतहसिंह का कथन है कि उत्तंक द्वारा खोदा गया श्वभ्र शुष्क है, दु:खों को उठाकर खोदा गया है । उसका पूरण आनन्द द्वारा ही हो सकता है । इसका अर्थ हुआ कि जीवन रूपी यज्ञ में जहां भी दुःख है, उसका पूरण आनन्द द्वारा करना है । शतपथ ब्राह्मण में आनन्द को अतिरेक की संज्ञा दी गई है । चूंकि यज्ञ की न्यूनता - अतिरेकता का विषय महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इसका और अधिक विवेचन यहां उपयुक्त होगा । वैदिक साहित्य के अनुसार जो यज्ञ में ऊन है, उससे प्रजनन करना है । प्रजनन तभी होता है जब एक व्यक्ति में कुछ ग्रहण करने की इच्छा हो, न्यूनता हो और दूसरे व्यक्ति में देने की क्षमता हो, अधिकता हो । जैमिनीय ब्राह्मण २.२३९ का कथन है कि वैदिक प्रजनन संवत्सर रूप में होता है जिसमें १२ मास होते हैं । लोक में भी प्रजनन ११ मास में होता है । संवत्सर का अर्थ होता है जहां पृथिवी, सूर्य और चन्द्रमा या मन, वाक् और प्राण एक दूसरे की परिक्रमा करने लगे हों, उनका एक दूसरे से सम्बन्ध जुड गया हो । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रजनन द्वारा किसी प्रकार किसी विशेष कारण - कार्य सम्बन्ध की ओर संकेत किया जा रहा है । यज्ञ की न्यूनता यही हो सकती है कि जो कार्य यादृच्छिक रूप में हो रहे हैं, या हमारे मन के अनुरूप नहीं हो रहे हैं, उन कार्यों का नियन्त्रक कोई कारण हमारे हाथ में आ जाए । स्पष्ट संकेत है कि जीवन यज्ञ में जो अतिरेक या आनन्द की पराकाष्ठा हमें प्राप्त हो रही है, उसी को कारण रूप बनकर कार्य का नियन्त्रण करने योग्य बनना चाहिए ।

     श्री गोवान ने अपनी वैबसाईट में कहा है कि कोई समय ऐसा था जब सारे विश्व की ऊर्जा सममित थी । फिर विश्व में कोई भयंकर विस्फोट हुआ जिससे वह ऊर्जा सूर्य, पृथिवी आदि के रूप में बिखर गई । पृथिवी पर जो जड पदार्थ है, वह असममित है । और उस जड पदार्थ पर जो विद्युत आवेश विद्यमान है, वह मूल रूप में विद्यमान सममिति का ही शेष रूप है । इस संदर्भ में जड पदार्थ की असममिति को न्यूनता का एक प्रकार कहा जा सकता है । शतपथ ब्राह्मण १..२.३० में बर्हि को असम्मिता ओषधि कहा गया है ।

      ऐतरेय आरण्यक १.४.२ तथा जैमिनीय ब्राह्मण के उल्लेखों के अनुसार सामगान में रथन्तर साम न्यून और बृहत् साम अतिरिक्त हैं । इसी प्रकार त्रिवृत् और पञ्चदश स्तोमों को ऊन - अतिरिक्त कहा गया है( जैमिनीय ब्राह्मण २.८९) । इसी प्रकार सप्तदश - एकविंश स्तोमों को न्यून - अतिरिक्त कहा गया है( जैमिनीय ब्राह्मण २.९५) । जैमिनीय ब्राह्मण २.८९ में उद्भिद् - वलभिदौ सामों के संदर्भ से संकेत मिलता है कि जो ऊर्जा बिखर रही है, वाल या मण्डल बन रही है, वह न्यून है । जो ऊर्जा उद्भिद् रूप में है, जो पृथिवी को फोडकर ऊपर उठ रही है, जो गौ रूप में है, वह अतिरिक्त है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.२.१३ में ऊन - अतिरिक्त छन्द के देवता रूप में आपः का उल्लेख है ।     वैदिक मन्त्रों में छन्दों में प्रायः अक्षरों की न्यूनाधिकता मिलती है । आक्सफोर्ड के कुछ विद्वानों का मानना था कि वैदिक छन्दों में यह दोष है जिसमें सुधार किया जाना चाहिए और इसी धारणा को लेकर उन्होंने उनमें सुधार करके संशोधित ऋग्वेद संहिता आक्सफोर्ड से प्रकाशित की है । लेकिन डा. फतहसिंह का कहना है कि यह न्यूनता - अधिकता वैदिक छन्दों में साभिप्राय है और उनके साथ छेडछाड नहीं की जानी चाहिए । उन्होंने आक्सफोर्ड के विद्वानों की अनधिकार चेष्टा का यथाशक्ति विरोध किया । शतपथ ब्राह्मण ४.४.४.१ के अनुसार हिंकार द्वारा न्यूनता की पूर्ति की जाती है । इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण ३.४६ में वामदेव्यं साम (कया नश्चित्र आ भुवत् इत्यादि ) के संदर्भ में कहा गया है कि इसकी तीसरी ऋचा में ३ अक्षरों की न्यूनता है जिसकी पूर्ति पु रु ष तीन अक्षरों द्वारा की जानी चाहिए । स्पष्ट है कि यह अक्षर कारण के रूप में, नियन्ता के रूप में कार्य कर रहे होंगे ।

     पुराणों में कथाएं आती हैं कि किसी भक्त ने सहस्र पद्मों द्वारा इष्ट देव की आराधना का संकल्प किया । आराधना के अन्त में इष्ट देव भक्त की परीक्षा हेतु एक पद्म को चुरा लेते हैं । तब भक्त पद्म के बदले अपना चक्षु ही समर्पित कर देता है । इसी प्रकार १०० अश्वमेध करने वालों का एक अश्व चोरी हो जाता है ।

     अतिरेक के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ११.४.४.८ में अतिरिक्त को पशव्य, पशु बनाने योग्य कहा गया है, वैसे ही जैसे न्यूनत्व को प्रजनन कहा गया है । पशव्य कहने से क्या तात्पर्य हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । पशु मनुष्य के लिए भार वहन करते हैं । हो सकता है कि पशु भूत और भावी घटनाओं का कोई संकेत भी देते हों । कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्यों के लिए पशु भार वहन करते हैं, वैसे ही देवों के लिए छन्द हैं(यद्वै देवानामतिरिक्तं छन्दांसि तानि तद्यानि तानि छन्दांसि पशवस्ते तद्ये ते पशवः पुण्यास्ता लक्ष्म्यः - शतपथ ब्राह्मण ८.४.४.८) । ऐसा भी हो सकता है कि अतिरिक्त रूपी पशु मनुष्य के लिए कामनाओं का वहन करता हो । मनुष्य की जो भी कामना हो, उसका समावेश अतिरिक्त ऊर्जा में कर देने पर वह अतिरिक्त ऊर्जा सारे कार्यों का नियन्त्रण करेगी । षोडशी की ऊर्जा के अतिरेचन के लिए अनुष्टुप् छन्द के विनियोग का निर्देश है (शतपथ ब्राह्मण ४.५.३.५) । पुराणों में भक्त द्वारा इष्ट देव के प्रकट होने पर अनुष्टुप् छन्द में स्तुति की जाती है ।

     वैदिक साहित्य में अतिरिक्त के कईं अर्थ मिलते हैं । एक अर्थ में अतिरिक्त को अधिक मास के रूप में लिया जा सकता है जो १३वां मास, मल मास, पुरुषोत्तम मास कहलाता है । दूसरे अर्थ में अतिरिक्त को चन्द्रमा की १६वी कला, षोडशी के रूप में वर्णित किया गया है( शतपथ ब्राह्मण ४.५.३.५) । चन्द्रमा की १५ कलाएं तो घटने - बढने वाली होती हैं, लेकिन १६वी कला अक्षर है । कहा गया है कि जो १५ कलाएं हैं - वे आत्मा का वित्त हैं और जो १६वी कला है, वह स्वयं आत्मा है । अथवा, जो १५ कलाएं हैं, उनसे वृत्र वध हेतु वज्र का निर्माण किया जाता है, जबकि १६वी कला वज्र को चलाने वाला स्वयं इन्द्र है । इन कथनों से इतना संकेत मिलता है कि अतिरेक को किसी प्रकार सब कार्य - कारणों के नियन्ता पद पर स्थापित करना है । कहा गया है कि यज्ञ कार्य हेतु जिन वस्तुओं को एकत्र किया जाता है, उनमें से कुछ भी अतिरिक्त नहीं बचना चाहिए (शतपथ ब्राह्मण १.४.१.३८) । यदि बचता है, तो उस पर शत्रुओं का, भ्रातृव्यों का अधिकार हो जाता है । अतिरिक्त वस्तु को उत्कर नामक गड्ढे में डाल दिया जाता है । संभवतः इस अतिरिक्त से ब्रह्म को सुब्रह्म बनाया जाता है, यज्ञ द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य का निम्न स्तरों पर विस्तार किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ४.५.४.६ में आत्मा के लिए इस शरीर के अङ्गों हृदय, क्लोम आदि को अतिरिक्त कहा गया है ।

     वैदिक साहित्य में गन्धर्वों द्वारा जिस न्यूनता - अतिरेकता बताने का उल्लेख है, लगता है पुराणों में उसी को आधार बनाकर नारद ऋषि द्वारा विभिन्न अवसरों पर प्रकट होकर भावी घटना के संदर्भ में सूचना देने के रूप में चित्रित किया गया है ।

     शतपथ ब्राह्मण में अतिरिक्त - न्यून की स्थिति के शमन का उपाय नम: और उप कहा गया है ।

      ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न प्रकार के सुप्त प्राणों को जगाने के लिए अलग - अलग प्रकार के गन्धर्वों का उल्लेख है तथा उन प्राणों के जागने पर जिस रूप का निर्माण होगा, वह भी अलग - अलग है । शतपथ ब्राह्मण ९.४.१.७ में राष्ट्रभृत् होम का वर्णन है जो वाजसनेयि यजुर्वेद संहिता १८.३८ की व्याख्या है । यह यजुएं निम्नलिखित हैं -

ऋताषाडृतधामाग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरसो मुदो नाम । स न ऽ इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्य: स्वाहा ।।

संहितो विश्वसामा सूर्यो गन्धर्वस्तस्य मरीचयोऽप्सरस ऽ आयुवो नाम । ००००

सुषुम्ण: सूर्य्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भेकुरयो नाम । ००००

इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्वस्तस्यापो ऽ अप्सरस ऽ ऊर्जो नाम । ० ०००

भुज्यु: सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणा ऽ अप्सरस स्तावा नाम । ०००

प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो गन्धर्वस्तस्य ऽ ऋक्सामान्यप्सरसऽएष्टयो नाम । ००००

यह यजुएं संकेत देती हैं कि यदि गन्धर्व की प्रक्रिया अग्नि के स्तर पर आरम्भ की गई है तो उसकी परिणति ओषधि रूपी अप्सरा के स्तर तक होनी चाहिए । अग्नि को पृथिवी नामक महाभूत का तन्मात्रा भाग, सूक्ष्म भाग कहा जा सकता है जो पृथिवी के गुरुत्वाकर्षण की विपरीत दिशा में भी गति करने में समर्थ है । ओषधियों का विकास भी गुरुत्वाकर्षण के विपरीत दिशा में हो सकता है । इसी प्रकार अन्य यजुओं की व्याख्या का प्रयास किया जा सकता है ।

     जहां गन्धर्व गन्ध का रूपान्तरण रूप तक करते हैं, वहीं अप्सराओं के संदर्भ में कहा गया है कि उन्हें रूप का रूपान्तरण गन्ध तक करना है । यह उलटा चक्र कैसे क्रियान्वित हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । अथर्ववेद ४.३८.१ में उन अप्सराओं के आह्वान का उल्लेख है जो ग्लह/द्यूत में कृत को करती हैं तथा कृत को ग्रहण करती हैं आदि । कृत का अर्थ है जो द्यूत में जीत लिया गया है । जैसा कि डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने स्पष्ट किया है, यह सारी प्रकृति द्यूत के सिद्धान्त पर कार्य करती है । जैसे - जैसे प्रकृति की उच्चतर अवस्थाओं पर पहुंचा जाता है, द्यूत कम होता जाता है । अतः अप्सराओं का कार्य यह हुआ कि द्यूत में से अद्यूत का, निश्चित का, कृत का चुनाव कैसे करना है । अप्सराएं अक्षकामा हैं जहां उन्हें द्यूत की स्थिति से कृत का चुनाव करना है ( भौतिक विज्ञान में मैक्सवैल आदि द्वारा यह प्रस्ताव किया गया था कि मान लिया जाए कि कोई ऐसी शक्ति हो जो अव्यवस्थित पदार्थ के कणों में से चुन - चुन कर उन कणों को अलग कर ले जो व्यवस्थित हैं । तब तन्त्र की एण्ट्रांपी में कमी हो सकेगी । लेकिन परिणाम यह निकला कि चुनने में जिस ऊर्जा का व्यय होगा, उससे एण्ट्रांपी में वृद्धि ही होगी, कमी नहीं । लेकिन अप्सराओं के संदर्भ से उपरोक्त परिणाम पर फिर से सोचने की आवश्यकता है । यह भी अन्वेषणीय है कि गन्धर्वों द्वारा यज्ञ में जिस न्यूनाधिकता को जानने की बात की जा रही है, वह एण्ट्रांपी में ह्रास - वृद्धि तो नहीं है? ) । दूसरी ओर लगता है कि गन्धर्व अश्वकाम हैं । शतपथ ब्राह्मण १०.६.४.१ में उल्लेख आता है कि हय रूपी अश्व देवों का वहन करता है, वाजी रूपी अश्व गन्धर्वों का और अर्वा रूपी अश्व मनुष्यों का । डा. फतहसिंह के अनुसार वाज बल वह होता है जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों निहित होते हैं । तभी द्यूत की स्थिति से ऊपर उठा जा सकता है ।

     प्रश्न यह उठता है कि क्या गन्धर्व शब्द का कोई सम्बन्ध गन्ध से है? इसका प्रमाण वैदिक और पौराणिक साहित्य के इस कथन से मिलता है कि गन्धर्वों और अप्सराओं ने वैराज गौ से पुष्कर पर्ण रूपी पात्र में गन्ध रूपी पयः का दोहन किया । अथर्ववेद ८.१४.५/ ८.१०(५).५ में गन्धर्वों व अप्सराओं द्वारा पृथिवी के दोहन में सूर्यवर्चा गन्धर्व के पुत्र चित्ररथ गन्धर्व को वत्स बनाकर सूर्यवर्चा - पुत्र वसुरुचि गन्धर्व द्वारा पुण्य गन्ध का दोहन किया जाता है । यहां पुष्कर पर्ण को पात्र बनाया गया है । जैसा कि सर्वविदित है, गन्ध को पृथिवी महाभूत की तन्मात्रा कहा जाता है । अन्य महाभूतों में आकाश की तन्मात्रा शब्द, वायु की स्पर्श, अग्नि की रूप, आपः की रस होती है । गन्धर्वों के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि पृथिवी रूपी महाभूत में तो द्यूत का गुण विद्यमान है और जिस स्तर पर द्यूत का गुण समाप्तप्राय हो जाए, वह स्थिति गन्ध तन्मात्रा की हो सकती है । लोक में भी गन्ध सर्वत्र फैलती है, उसे एक स्थान पर केन्द्रित नहीं किया जा सकता । ताण्ड्य ब्राह्मण १.३.९ से संकेत मिलता है कि जिस प्रकार प्राणों का बृहत् रूप वायु है, उसी प्रकार गन्ध का बृहत् रूप सोम है । विभिन्न प्राणियों के प्राण एकरूप होने पर वायु कहलाते हैं, वैसे ही विभिन्न गन्धों का एक रूप सोम कहलाता है । यही कारण हो सकता है कि गन्धर्वों को सोम का रक्षक कहा गया है ।

     आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २२.११.८ का यह कथन महत्त्वपूर्ण है -

गन्धर्वाप्सरसो मादयन्तामिति प्रातःसवने - - - -गन्धर्वा देवा मादयन्तामिति माध्यन्दिने - - - गन्धर्वा पितरो मादयन्तामिति तृतीयसवने ।

     विभिन्न नामों वाले गन्धर्वों की विशिष्ट भूमिका क्या हो सकती है, यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय आरण्यक ४.११.८ में विश्वावसु सोमगन्धर्व के संदर्भ में कहा गया है कि 'इन्द्रो दक्षं परि जानादहीनम्' अर्थात् इन्द्र उस दक्ष को जाने जो अहीन है, हीनता से परे है । जैसा कि दक्ष शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, भौतिक जगत में १०० प्रतिशत दक्षता प्राप्त करना असंभव है । विश्वावसु सोमगन्धर्व इस १०० प्रतिशत दक्षता को प्राप्त करने में इन्द्र की सहायता कैसे कर सकता है, यह अन्वेषणीय है । पुरूरवा - उर्वशी आख्यान में गन्धर्वों द्वारा पुरूरवा को ३ अग्नियां - आहवनीय, अन्वाहार्यपचन/दक्षिणाग्नि तथा गार्हपत्य अग्नियां प्रदान की जाती हैं जिनके द्वारा अर्चना करके पुरूरवा गन्धर्व लोक को प्राप्त करता है । अग्नियां तो पुरूरवा से अदृश्य हो जाती हैं, केवल शमी और अश्वत्थ वृक्ष शेष रह जाते हैं जिनकी अधरारणि और उत्तरारणियां बनाकर वह यजन करता है और गन्धर्वलोक प्राप्त करने में सफल होता है( शतपथ ब्राह्मण ११.५.१.१७) । कहा गया है कि इससे पहले केवल एक ही अग्नि थी ।

     जैमिनीय ब्राह्मण ३.७६-७७ तथा ताण्ड्य ब्राह्मण १२.११.१० के अनुसार अङ्गिरस ऋषि सत्र  अनुष्ठान द्वारा स्वर्ग पहुंचने की कामना करते हैं लेकिन उनको देवयान पथ का पता नहीं है । ऊर्णायु नामक गन्धर्व उनका दिशानिर्देशन करता है ।

     ब्रह्माण्ड पुराण में दी गई गन्धर्व शब्द की निरुक्ति को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि गं अर्थात् ज्ञान( गं - गम्यते ) को आत्मसात् कर (ध - धयति, पान करना ), उसको गान स्थिति तक, भावना की स्थिति तक पहुंचाना तथा फिर उसको वाक् के रूप में, वाद्य के रूप में क्रियात्मक रूप में लाना गन्धर्व का कार्य है ।

     वैदिक साहित्य में केवल एक - दो गन्धर्वों जैसे विश्वावसु का नाम ही आता है, जबकि पुराणों में बहुत से गन्धर्वों का नाम आता है । अथर्ववेद ८.१४.५/ ८.१०(५).५ में गन्धर्वों व अप्सराओं द्वारा पृथिवी के दोहन में सूर्यवर्चा गन्धर्व के पुत्र चित्ररथ गन्धर्व को वत्स बनाकर सूर्यवर्चा - पुत्र वसुरुचि गन्धर्व द्वारा पुण्य गन्ध का दोहन किया जाता है । पुराणों में चित्ररथ को विश्वावसु का पुत्र कहा गया है । काठक संहिता १८.४, शतपथ ब्राह्मण ९.४.१.७ आदि में अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, सुपर्ण यज्ञ, प्रजापति विश्वकर्मा मन तथा वात का नाम गन्धर्वों के रूप में आता है । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में कथित गन्धर्वों का वर्गीकरण इन स्तरों पर किया जा सकता है । अथर्ववेद ३.२३.६ में गन्धर्वों की तीन मात्राओं का उल्लेख है । हो सकता है कि पुराणों में मुनि, क्रोधा व अरिष्टा से गन्धर्वों की उत्पत्ति का कथन अथर्ववेद के मन्त्र की व्याख्या हो ।

     वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से गन्धर्वों अथवा गन्धर्व द्वारा द्युलोक में सोम के गोपन का वर्णन आता है जिसे वाक् रूपी स्त्री को गन्धर्वों के पास भेजकर मुक्त कराया जाता है ( शतपथ ब्राह्मण ३.२.४.१, ३.९.३.१९, ऐतरेय ब्राह्मण १.२७, काठक संहिता २४.१) । देवगण सरस्वती को भेजते हैं, जबकि अन्यत्र गायत्री आदि छन्दों को भेजा जाता है । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार गन्धर्वों में सरस्वती को रोकने की सामर्थ्य नहीं है क्योंकि उन्होंने सरस्वती से ब्रह्म का प्रवादन किया, जबकि देवताओं ने गाया । अतः सरस्वती देवताओं के पास चली आई । गन्धर्व सोम को क्यों रोकते हैं ? इसका संकेत ऋग्वेद ९.११३.३ से मिलता है जहां गन्धर्व सोम में रस का भरण करते हैं ।

     वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप में केवल विश्वावसु गन्धर्व का ही उल्लेख आता है ( ऋग्वेद १०.१३९, अथर्ववेद १४.२.३, काठक संहिता २४.१, शतपथ ब्राह्मण १.३.४.२ आदि ) । पुराणों में यद्यपि विश्वावसु का नाम आता है, लेकिन वहां प्रमुखता विश्वावसु - पुत्र चित्ररथ को दी गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में मुनि से गन्धर्वों की उत्पत्ति का सम्बन्ध विश्वावसु से है । मुनि का अर्थ मौन से, अन्तर्मुखी होने से है, जबकि विश्वावसु का अर्थ अपनी सारी वासनाओं को अन्तर्मुखी कर उन्हें वसु, धन बनाने से है ।

     वैदिक ( शतपथ ब्राह्मण ११.५.१.१२) तथा पौराणिक साहित्य में पुरूरवा गन्धर्व बनने की प्रक्रिया का वर्णन है । कर्मकाण्ड में ऋत्विजों की धिष्ण्य अग्नियां गन्धर्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं ( शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.९, ३.६.२.१७) । गोपथ ब्राह्मण में यज्ञ के सदस्य ऋत्विजों को गन्धर्व कहा गया है ।

 ऋग्वेद ९.८५.१२ व १०.१२३.७ में ऊर्ध्व गन्धर्व का उल्लेख है ।

प्रथम लेखन २.६.२००९ई.

 

संदर्भ (अपूर्ण)

पुरातत्वे गन्धर्वाः (डा. कल्याणरमण)

*तयोरिद् घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः। गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ॥ - ऋ. १.२२.१४

*यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत्। गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ॥ - ऋ. १.१६३.२

*अपश्यमत्र मनसा जगन्वान् व्रते गन्धर्वाँ अपि वायुकेशान् ॥ - ऋ. ३.३८.६

*यत् तुदत् सूर एतशं वङ्कू वातस्य पर्णिना। वहत् कुत्समार्जुनेयं शतक्रतुः त्सरद् गन्धर्वमस्तृतम् ॥ - ऋ. ८.१.११

*अभि गन्धर्वमतृणदबुध्नेषु रजःस्वा। इन्द्रो ब्रह्मभ्य इद्वृधे ॥ - ऋ. ८.७७.५

*गन्धर्व इत्था पदमस्य रक्षति पाति देवानां जनिमान्यद्भुतः। गृभ्णाति रिपुं निधया निधापतिः सुकृत्तमा मधुनो भक्षमाशत ॥ - ऋ. ९.८३.४

*ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थाद् विश्वा रूपा प्रतिचक्षाणो अस्य। भानुः शुक्रेण शोचिषा व्यद्यौत् प्रारूरुचद्रोदसी मातरा शुचिः ॥ - ऋ. ९.८५.१२

*सप्त स्वसारो अभि मातरः शिशुं नवं जज्ञानं जेन्यं विपश्चितम्। अपां गन्धर्वं दिव्यं नृचक्षसं सोमं विश्वस्य भुवनस्य राजसे ॥ - ऋ. ९.८६.३६

*पर्जन्यवृद्धं महिषं तं सूर्यस्य दुहिताभरत्। तं गन्धर्वाः प्रत्यगृभ्णन् तं सोमे रसमादधुरिन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ - ऋ. ९.११३.३

*न यत् पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम। गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ ॥ - ऋ. १०.१०.४

*रपद्गन्धर्वीरप्या च योषणा नदस्य नादे परि पातु मे मनः। इष्टस्य मध्ये अदितिर्नि धातु नो भ्राता नो ज्येष्ठः प्रथमो वि वोचति ॥ - ऋ. १०.११.२

*सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः। तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः ॥ सोमो ददद्गन्धर्वाय गन्धर्वो दददग्नये। रयिं च पुत्राँश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम् ॥ - ऋ. १०.८५.४०-४१

*जानन्तो रूपमकृपन्त विप्रा मृगस्य घोषं महिषस्य हि ग्मन्। ऋतेन यन्तो अधि सिन्धुमस्थुर्विदद्गन्धर्वो अमृतानि नाम ॥ - ऋ. १०.१२३.४

*ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थात् प्रत्यङ् चित्रा बिभ्रदस्यायुधानि। वसानो अत्कं सुरभिं दृशे कं स्व१र्ण नाम जनत प्रियाणि ॥ - ऋ. १०.१२३.७

*अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन्। केशी केतस्य विद्वान् त्सखा स्वादुर्मदिन्तमः ॥ - ऋ. १०.१३६.६

*विश्वावसुं सोम गन्धर्वमापो ददृशुषीस्तदृतेना व्यायन्। तदन्ववेदिन्द्रो रारहाण आसां परि सूर्यस्य परिधीँरपश्यत् ॥ - ऋ. १०.१३९.४

गन्धर्वं गीतरूपां गां शब्दं धारयन्तं-सा.भा.

*विश्वावसुरभि तन्नो गृणातु दिव्यो गन्धर्वो रजसो विमानः। यत्र घा सत्यमुत यन्न विद्म धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्याः ॥ - ऋ. १०.१३९.५

*सस्निमविन्दच्चरणे नदीनामपावृणोद्दुरो अश्मव्रजानाम्। प्रासां गन्धर्वो अमृतानि वोचदिन्द्रो दक्षं परि जानादहीनाम् ॥ - ऋ. १०.१३९.६

गन्धर्वः गोर्वज्रस्य धर्ता विश्वावसुरूपेण वर्तमानः इन्द्रः – सा.भा.

*पतङ्गो वाचं मनसा बिभर्ति तां गन्धर्वोऽवदद्गर्भे अन्तः। तां द्योतमानां स्वर्यं मनीषामृतस्य पदे कवयो नि पान्ति ॥ - ऋ. १०.१७७.२

प्रवर्ग्यः -- विश्वावसुँ सोमगन्धर्वम् । आपो ददृशुषीः । तदृतेना व्यायन् । तदन्ववैत् । इन्द्रो रारहाण आसाम् । परि सूर्यस्य परिधीँ रपश्यत् १८ विश्वावसुरभि तन्नो गृणातु । दिव्यो गन्धर्वो रजसो विमानः । यद्वा घा सत्यमुत यन्न विद्म । धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्यात् १९ सस्निमविन्दच्चरणे नदीनाम् । अपावृणोद्दुरो अश्मव्रजानाम् । प्रासां गन्धर्वो अमृतानि वोचत् । इन्द्रो दक्षं परि जानादहीनम् २० तैआ ४.११.८

रन्तिर्नामासि दिव्यो गन्धर्व इत्याह । रूपमेवास्यैतन्महिमान रन्तिं बन्धुतां व्या चष्टे । - तैआ ५.९.८

*अप्सरासु च या मेधा गन्धर्वेषु च यन्मनः। दैवी मेधा मनुष्यजा सा मां मेधा सुरभिर्जुषताम् ॥ - तैत्तिरीय आरण्यक १०.४१.१, महानारायणोपनिषद १६.६

अथ बर्हिर्जुहोति । अयं वै लोको बर्हिरोषधयो बर्हिरस्मिन्नेवैतल्लोक ओषधीर्दधति ता इमा अस्मिंलोक ओषधयः प्रतिष्ठितास्तस्माद्बर्हिर्जुहोति - १.९.२.[२९]

तां वा अतिरिक्तां जुहोति । समिष्टयजुर्ह्येवान्तो यज्ञस्य यद्ध्यूर्ध्वं समिष्टयजुषोऽतिरिक्तं तद्यदा हि समिष्टयजुर्जुहोत्यथैताभ्यो जुहोति तस्मादिमा अतिरिक्ता असम्मिता ओषधयः प्रजायन्ते - १.९.२.[३०]

*दर्शपूर्णमासे परिधिपरिधानम् :- स मध्यममेवाग्रे परिधिं परिदधाति - गन्धर्वस्त्वा विश्वावसुः परिदधातु विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड ईडितः इति। - श.ब्रा. १.३.४.२

*सोमक्रयणविधिः - तेभ्यो गायत्री सोममच्छापतत्। तस्याऽआहरन्त्यै गन्धर्वो विश्वावसुः पर्यमुष्णात्। ते देवा अविदुः - प्रच्युतो वै परस्तात्सोमः - अथ नो नागच्छति - गन्धर्वो वै पर्यमोषिषुरिति। ते होचुः - योषित्कामा वै गन्धर्वाः। वाचमेवैभ्यः प्रहिणवाम। सा नः सह सोमेनागमिष्यतीति। - - - - ते गन्धर्वा अन्वागत्याब्रुवन् - सोमो युष्माकम्, वागेवास्माकमिति। तथेति देवा अब्रुवन्। - - - - तस्यै गन्धर्वाः वेदानेव प्रोचिरे। इति वै वयं विद्म - इति वयं विद्म इति। अथ देवा वीणामेव सृष्ट्वा, वादयन्तो विगायन्तो निषेदुः। - - श.ब्रा. ३.२.४.६

हिरण्मय्योर्ह कुश्योरन्तरवहित आस । ते ह स्म क्षुरपवी निमेषं निमेषमभिसंधत्तो दीक्षातपसौ हैव ते आसतुस्तमेते गन्धर्वाः सोमरक्षा जुगुपुरिमे धिष्ण्या इमा होत्राः - ३.६.२.[९]

 तमेते गन्धर्वाः सोमरक्षा अन्वाजग्मुस्तेऽन्वागत्याब्रुवन्ननु नो यज्ञ आभजत मा नो यज्ञादन्तर्गातास्त्वेव नोऽपि यज्ञे भाग इति - ३.६.२.[१७] ते होचुः । किं नस्ततः स्यादिति यथैवास्यामुत्र गोप्तारोऽभूमैवमेवास्यापीह गोप्तारो भविष्याम इति - ३.६.२.[१८] तथेति देवा अब्रुवन् । सोमक्रयणा व इति तानेभ्य एतत्सोमक्रयणाननुदिशत्यथैनानब्रुवंस्तृतीयसवने वो घृत्याहुतिः प्राप्स्यति न सौम्याऽपहृतो हि युष्मत्सोमपीथस्तेन सोमाहुतिं नार्हथेति – माश ३.६.२.१९

*यत्र वै यज्ञस्य शिरोऽच्छिद्यत - तस्य रसो द्रुत्वापः प्रविवेश। तमेते गन्धर्वाः सोमरक्षा जुगुपः। ते ह देवा ऊचुः। इयमु न्वेवेह नाष्ट्रा - यदिमे गन्धर्वाः - कथं न्विममभयेऽनाष्ट्रे यज्ञस्य रसमाहरेम इति। ते होचुः। योषित्कामा वै गन्धर्वाः। सहैव पत्नीभिरयाम। ते पत्नीष्वेव गन्धर्वा गर्द्धिष्यन्ति। - - - श.ब्रा. ३.९.३.१८

*राजसूये? आजिधावनम् - स युनक्ति - वातो वा मनो वा इति। न वै वातात् किञ्चनाशीयोऽस्ति। न मनसः किञ्चनाशीयोऽस्ति। - - -गन्धर्वाः सप्तविंशतिः। तेऽग्रेऽश्वमयुञ्जन् इति। - - - ते अस्मिन् जवमादधुः (वा.सं. ९.७)। - श.ब्रा. ५.१.४.८

ऋताषाडृतधामेति । सत्यसाट् सत्यधामेत्येतदग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरस इत्यग्निर्ह गन्धर्व ओषधिभिरप्सरोभिर्मिथुनेन सहोच्चक्राम मुदो नामेत्योषधयो वै मुद ओषधिभिर्हीदं सर्वं मोदते स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्ताभ्यः स्वाहेति तस्योक्तो बन्धुः - ९.४.१.[७]

तमेतमग्नि...... रूपमिति गन्धर्वा गन्ध इत्यप्सरसस्तं यथायथोपासते तदेव भवति १०.५.२.२०

यो भूत्वा देवानवहद्वाजी गन्धर्वानर्वासुरानश्वो मनुष्यान् – माश १०.६.४.१

*आघारयोः नामरूपात्मना स्तुतिः :- तद्यज्ञं तन्वानानृषीन्गन्धर्वा उपनिषेदुस्ते ह स्म संनिदधतीदं वा अत्यरीरिचन्निदमूनमक्रन्निति स यदैषां यज्ञः संतस्थेऽथैनांस्तद्दर्शयांचक्रुरिदं वा अत्यरीरिचतेदमूनमकर्तेति - ११.२.३.[७]

*पारिप्लवाख्यानम् - अथ तृतीयेऽहन्नेवमेव - - - वरुण आदित्यो राजेत्याह। तस्य गन्धर्वा विशः। त इम आसत इति। युवानः शोभना उपसमेता भवन्ति। तानुपदिशति। - श.ब्रा. १३.४.३.७

*अथैनं (प्रवर्ग्यं) उपतिष्ठन्ते रन्तिर्नामासि दिव्यो गन्धर्व इति - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १५.१६.९

*अषाढो अग्निर्बृहद्वया विश्वजित् सहन्त्यः श्रेष्ठो गन्धर्व इत्यथान्वाहार्यपचनमुपतिष्ठते - बौधायन श्रौत सूत्र ३.१३:१२

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम्। सोमाय क्रीताय सुब्रह्मण्या आह्वानम्। - -- मा त्वा वृका अघायवो मा गन्धर्वो विश्वावसुरादधत् श्येनो भूत्वा परापत - बौ.श्रौ.सू. ६.१६:७

*प्रवर्ग्यः परिषिच्यमाने यजमानं गन्धर्वयजूंषि वाचयति - रन्तिर्नामासि दिव्यो गन्धर्व इति - बौ.श्रौ.सू. ९.१६:१६

*वाजपेये सावित्रं - दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु - बौ.श्रौ.सू. ११.२:३

*सूर्यवर्चा गन्धर्व भविष्यज्ञाता - बौ.श्रौ.सू. १८.४६:६

*उत्तराततिः। समावर्तनम् - अप्सरासु च यो गन्धो गन्धर्वेषु च यद्यशः। दिव्यो यो मानुषो गन्धः स मामाविशतु - बौ.श्रौ.सू. १७.४१:२

*आरुणकेतुकम् - स्वानभ्राडित्येकादश गन्धर्वगणाः पदशः पश्चात् - बौ.श्रौ.सू. १९.१०:

२६

*औपानुवाक्यम् - द्विः स्वाहाकारं राष्ट्रभृतो जुहोति एते वै गन्धर्वाप्सरसां गृहाः स्व एवैनानायतने शमयति - बौ.श्रौ.सू. १४.१८:९

*पञ्चालेषु गन्धर्वायणो वालेय आग्निवेश्यो अनूचान आस तान्ह सह सर्पतः पप्रच्छ के सर्पन्तीति वयं मरुत इति - बौ.श्रौ.सू. १८.२६:१३

*परिधि और विश्वावसु का संदर्भ - आप.श्रौ.सू. २.९.५, बौ.श्रौ.सू. १.१३:२०

*गन्धर्वाप्सरसः प्रीणामीत्यपरेणाहवनीयमुदकं तृतीयम् - अथर्वपरिशिष्ट ४५.२.१०

*गान्धर्व उपद्रवों/निमित्तों का प्रभाव सचिवों, सेनापतियों पर - अथर्वपरिशिष्ट ७०ग.३१.५

*अग्ने प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै पतिघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा । वायो प्रायश्चित्ते याऽस्यै प्रजाघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा । सूर्यप्रायश्चित्ते ….. याऽस्यै पशुघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा । चन्द्र प्रायश्चित्ते …… याऽस्यै गृहघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा ।गन्धर्व प्रायश्चित्ते - - - याऽस्यै यशोघ्नी तनूस्तामस्यै यशस स्वाहा - पारस्कर गृह्य सूत्र १.११.२

*सोमः प्रथमो विविद गन्धर्वो विविद उत्तरः। तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः - पारस्कर गृह्य सूत्र १.४.१६

*अग्नये जनविदे स्वाहेत्युत्तरार्धे जुहोति सोमाय जनविदे स्वाहेति दक्षिणार्द्धे गन्धर्वाय जनविदे स्वाहेति मध्ये - मानव गृह्य सूत्र १.१०.८

*या मेधाऽप्सरःसु गन्धर्वेषु च यन्मनः। दैवी या मानुषी मेधा सा मामाविशतामिहैव - मानव गृह्य सूत्र १.२२.११

*त्रयी विद्या हिंकारः - - - - -सर्पा गन्धर्वाः पितरस्तन्निधनमेतत्साम सर्वस्मिन्प्रोतम् - छान्दोग्य उपनिषद २.२१.१

*एष ओंकार आख्यातो धारणाभिर्निबोधत। घोषिणी प्रथमा मात्रा - - - पतङ्गिनी तृतीया स्याच्चतुर्थी वायुवेगिनी। - -- विद्याधरस्तृतीयायां गान्धर्वस्तु चतुर्थिका - नादबिन्दु उपनिषद १३

*- - - कस्मिन्नु खल्वन्तरिक्षलोका ओताश्च प्रोताश्चेति गन्धर्वलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु खलु गन्धर्वलोका ओताश्च प्रोताश्चेत्यादित्यलोकेषु गार्गीति - बृहदारण्यक उपनिषद ३.६.१

*ये शतं पितॄणां जितलोकानामानन्दाः स एको गन्धर्वलोक आनन्दोऽथ ये शतं गन्धर्वलोक आनन्दाः स एको कर्मदेवानामानन्दो ये कर्मणा देवत्वमभिसंपद्यन्ते - बृहदारण्यक उप. ४.३.३३

ता ऊनातिरिक्तौ भवतो वृषा वै बृहद्योषा रथंतरमतिरिक्तं वै पुंसो न्यूनं स्त्रियै तस्मात् – ऐआ १.४.२

अथैताव् उद्भिद् बलभिदौ। प्रजननकामो हैताभ्यां यजेत। त्रिवृत्पञ्चदशौ स्तोमौ भवतस् सप्तिसप्तदशाः। ऊनातिरिक्तौ मिथुनौ प्रजननी। ऊनम् अन्यस्यातिरिक्तम् अन्यस्य। ऊनातिरिक्ताद् वै मिथुनात् प्रजाः पशवः प्रजायन्ते। - जैब्रा. २.८९

 

टिप्पणी : माधुर्य अथवा सौन्दर्य का भाव । वह मूल काम है । इच्छाओं, भावनाओं की अनुभूति को गन्धर्व कहते हैं । जैसे प्रेम की अनुभूति । इसके विपरीत, भाव की अभिव्यक्ति को अप्सरा कहते हैं । मनोमय का आत्मा गन्धर्व है । गन्ध इसकी पत्नी है । २७ गन्धर्व इसी के २७ विभिन्न रूप हैं । वह मनोमय पुरुष जब अपनी उन्मनी शक्ति द्वारा ध्यानावस्था में विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश में पहुंचता है, तब विज्ञानमय कोश के आत्मा से एकीभाव को प्राप्त हुआ दिव्य गन्धर्व बन जाता है और विश्वावसु कहलाता है । और जब यह मनोमय पुरुष अपनी समनी शक्ति द्वारा मनोमय, प्राणमय और अन्नमय क्षेत्रों में विचरण करता है, तब यह इन्द्रियों के विषयभोगों में फंसकर अनेक गन्धर्व बन जाता है । यह गन्धर्व नाष्ट्र, भयंकर होते हैं, योषित्कामा, स्त्रीलोलुप होते हैं, ये ही सोम को चुराने वाले हैं । दूसरे दृष्टिकोण से, आत्मानन्द सोम से गन्ध उत्पन्न होती है, रूप उत्पन्न होता है । उस गन्ध और रूप को धारण करने वाले प्राण गन्धर्व और अप्सरा कहलाते हैं । - फतहसिंह

Gandharva state is the life force at the stage of supermental level. In this state, the life force ascends above the levels of food, life and mind and imparts completeness to these lower three levels. This is called the foruth state. Above this state is state of  gandharva Vena. This is the life force at the level of bliss. Celestial nymph Urvashi is situated at this level. This state is the stable state for gandharvas and apsaras. The 4 lower levels are comparatively unstable. Gandharvas are of ascending nature, while apsaras are of descending nature. At the same time, both have some similarity also. For example, both have relation with smell and form of earth, both are intoxicating, both bear the nation, defend Ritam. Gandharvas have mainly mind element while apsaras have mainly intelligence element. There is a divine intelligence called Surabhi. Mind and intelligence are the mortal forms of this divine intelligence. Surabhi can be called Urvashi( who is the supermental divine vaak)

Every gandharva is the feeling of that divine intelligence and the expression of that feeling is apsara. Gandharvas worship form, while apsaras worship mainly smell. - Fatah Singh

 

As is usual with all the personalities in vedic literature, practical nature of gandharvas has not been explicitly elucidated anywhere. One has to guess from indirect references only. One veda mantra states that let the divine gandharva(means sun?) rectify our perceptions by mortal senses. As is well known, whatever perception we get through our  senses, is not true. It is an image of the real only. These perceptions seem to have been given the general name smell, gandha. How gandharvas can rectify gandha? They elevate the gandha to the level of roopa, the form. Gandha is limited to body level, while roopa/form may transcend   body level. An example can be taken from a particular type of meditation where one is supposed to concentrate on his perceptions, say itching, pain etc. during meditation. At one stage, these perceptions start melting and transforming into an energy reaching into head. This can be called the transformation of gandha/smell into soma, the nectar.

     The female part of Gandharva is Apsaraa. Apsaraa has been stated to possess roopa/form, but she has to acquire smell. How this is accomplished, is yet to be investigated. An important quality of Apsaraa has been stated to collect the wealth won in gambling. Or, in other words, to collect ripe from raw. As has been stated by Dr. Lakshminarayan Dhoot, nature at it’s lower level is playing dice. As nature progresses, there is gradual decrease in the play of dice. Definiteness descends. Apsaraa has to acquire axial nature, while Gandharva has to acquire broad nature.

     The context of Apsaras collecting ripe from raw would have gone unnoticed without the light of Einstein’s paradox. Einstein proposed that let there be a way to concentrate high efficiency particles from low efficient ones. This work can be done by soem conscious force which traces efficient ones with the help of a torch and allows their entry into the door. Others are kept out. This way an efficiency engine could be created where there will be gain of entropy. But later findings pointed out that the expenses done in selecting the particle will outdo the gains. But this paradox has now to be thought in context of Apsaras and Gandharvas.

     One aspect of Gandharvas has been stated as the ability to detect deficiencies/defects and credits of  yagas/sacrifices and point these to the performer. There are lots of statements in vedic literature what this deficiency and credit may mean, and how to compensate these. One meaning of deficiency may mean the trouble one faces when one performs penances lonely. One has to compensate it with joy. The other meaning of deficiency may mean that we are not able to get from our life sacrifice what we want. We want something and get something. This indicates that our actions are being controlled from somewhere else. The way of compensation has been stated as formation of year by proper coupling of sun, moon and earth, or mind, intellect and praana. And the excess in a yaga has been stated in the form of appearance of the extra month /leap year or the 16th phase of moon. This 16th phase in immortal. One has to strive that excess becomes the guiding force of deficient one.

     Gandharvas are explicitly related with smell and form. But there are ample indications that they can be related with name and form also. Gandharvas are supposed to create an immortal name, then only 100 percent efficiency can be achieved. Thus smell and name are synonym to each other. Smell may be the live part, developed part of the rigid matter. And smell can not be confined to a particular level. There may be so many stages of development of rigid matter.

     Various names of Gandharvas appear in vedic and puraanic literature and their specific actions, their correlation  are yet to be done.

First published : 21-5-2009AD( Jyeshtha krishna dwaadashee, Vikrama samvat 2066)