पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Gangaa - Goritambharaa)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Gangaa - Gangaa ( words like Grihapati, Grihastha/householder etc. )

Gangaa - Gaja (Gangaa, Gaja/elephant etc.)

Gaja - Gajendra (Gaja, Gaja-Graaha/elephant-crocodile, Gajaanana, Gajaasura, Gajendra, Gana etc.)

Gana - Ganesha (Ganapati, Ganesha etc.)

Ganesha - Gadaa (Ganesha, Gandaki, Gati/velocity, Gada, Gadaa/mace etc. )

Gadaa - Gandhamaali  ( Gadaa, Gandha/scent, Gandhamaadana etc. )

Gandharva - Gandharvavivaaha ( Gandharva )

Gandharvasenaa - Gayaa ( Gabhasti/ray, Gaya, Gayaa etc. )

Gayaakuupa - Garudadhwaja ( Garuda/hawk, Garudadhwaja etc.)

Garudapuraana - Garbha ( Garga, Garta/pit, Gardabha/donkey, Garbha/womb etc.)

Garbha - Gaanabandhu ( Gavaaksha/window, Gaveshana/research, Gavyuuti etc. )

Gaanabandhu - Gaayatri ( Gaandini, Gaandharva, Gaandhaara, Gaayatri etc.)

Gaayana - Giryangushtha ( Gaargya, Gaarhapatya, Gaalava, Giri/mountain etc.)

Girijaa - Gunaakara  ( Geeta/song, Geetaa, Guda, Gudaakesha, Guna/traits, Gunaakara etc.)

Gunaakara - Guhaa ( Gunaadhya, Guru/heavy/teacher, Guha, Guhaa/cave etc. )

Guhaa - Griha ( Guhyaka, Gritsamada, Gridhra/vulture,  Griha/home etc.)

Griha - Goritambharaa ( Grihapati, Grihastha/householder etc.)

 

 

 

 

 

 

 

STORY OF GAJA AND GRAAHA(ELEPHANT AND CROCODILE)

In the 8th canto of Shrimad Bhaagawatam, there is a famous story of Gaja and Graaha, the elephant and the crocodile. The story is totally symbolic and describes a very important aspect of life. Here elephant is symbolic of a conscious being whose tendencies are extrovert. Crocodile is symbolic of pleasure from external objects. When a person forgets his own real self and lives in body consciousness, he strongly thinks that the happiness lies in the objects of his senses. This thought leads him towards that feeling and as a result, he becomes dependent on the objects for his happiness. This ignorance leads him in sorrow because the objects are transient and they have no real happiness inside themselves.

            The story says that the only way to get rid of sorrow is knowledge. When a person comes to know that his own self is the real source of happiness, he becomes free from the dependencies of objects. This freedom has been called as the ‘Emancipation of Elephant’. But this realization of self occurs only when one in intently engaged in. This realization of self is symbolized as the descendment of Shri Hari as Hari means the energy or Aatmaa who removes all our sorrows.

First published : 11-9-2009 AD( Ashvin krishna  7 , Vikrama samvat 2066)

गज - ग्राह कथा - एक विवेचन
- राधा गुप्ता
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
त्रिकूट नाम का एक सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था जिस पर हाथियों का सरदार एक गजेन्द्र निवास करता था । एक दिन वह गजेन्द्र मदमत्त होकर अपने साथियों के साथ उस पर्वत पर घूम रहा था । घूमते - घूमते तेज धूप से व्याकुल होकर उसे प्यास लगी और पानी की खोज में अपने साथियों के साथ वह उसी दिशा की ओर चल पडा जिस ओर से सुगन्धित वायु आ रही थी । थोडी ही देर में वह त्रिकूट पर्वत की तराई में स्थित भगवान् वरुण के ऋतुमान् नामक उद्यान में स्थित उस सरोवर के निकट पहुंच गया जिसमें सुन्दर - सुन्दर कमल खिले हुए थे । गजेन्द्र ने सरोवर में घुसकर पहले जल पिया, थकान मिटाई और फिर साथियों के साथ खूब क्रीडा की । क्रीडारत गजेन्द्र अपने ऊपर आने वाली विपत्ति से सर्वथा अनभिज्ञ था । तभी सरोवर में निवास करने वाले ग्राह ने उन्मत्त गजेन्द्र का पैर पकड लिया । गजेन्द्र ने पैर छुडाने की पर्याप्त कोशिश की परन्तु सर्वथा असमर्थ होकर अन्त में व्याकुल होकर भगवान् की शरण ग्रहण की । व्याकुल गजेन्द्र की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गरुडासीन भगवान् श्री हरि प्रकट हो गए और शीघ्रतापूर्वक गजेन्द्र एवं ग्राह दोनों को सरोवर से बाहर निकाल लाए । श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुंह फाडकर गजेन्द्र को छुडा लिया । ग्राह पूर्व जन्म में हू हू नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था । देवल के शाप से उसे ग्राह की गति प्राप्त हुई । अब भगवान् की कृपा से वह मुक्त होकर अपने लोक को चला गया । गजेन्द्र भी पूर्व जन्म में द्रविड देश का राजा इन्द्रद्युम्न था । वह भगवान् का श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था । एक बार जब वह राजपाट छोडकर मलयपर्वत पर रहने लगा था, तभी अगस्त्य मुनि ने प्रजापालन रूप राजधर्म का परित्याग करने वाले राजा इन्द्रद्युम्न को हाथी की योनि प्राप्त होने (गजेन्द्र होने ) का शाप दिया था । अब श्री हरि की कृपा से ग्राह के फंदे से मुक्त होकर गजेन्द्र भगवान् के ही स्वरूप को प्राप्त हो गया और भगवान् उसे लेकर अपने अलौकिक धाम को चले गए ।
कथा का प्रतीकात्मक स्वरूप
कथा के आध्यात्मिक स्वरूप को समझने के लिए सर्वप्रथम उसके प्रतीकों को समझ लेना उपयोगी होगा ।
१- त्रिकूट पर्वत : त्रिकूट पर्वत मनुष्य की त्रिगुणात्मिका (सत्, रज, तम) प्रकृति अर्थात् देह का प्रतीक है ।
२- गजेन्द्र : गजेन्द्र इस त्रिकूट पर्वत अर्थात् देह में रहने वाले देहभावस्थ बहिर्मुखी मन को इंगित करता है ।
३- वरुण का ऋतुमान् नामक उद्यान - वरुण शब्द प्रकृति तथा परमात्मा दोनों का वाचक है परन्तु यहां प्रकृति के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है । ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों की क्रियाशीलता को ही यहां वरुण अर्थात् प्रकृति का उद्यान कहकर इंगित किया गया है । इस उद्यान को ऋतुमान् नाम दिया गया है । ऋतुमान्(ऋतु + मान् ) शब्द ऋतु तथा मान् से बना है । ऋतु शब्द ऋत को इंगित करता है तथा मान् एक प्रत्यय है । अतः ऋतुमान् का अर्थ है - ऋत से युक्त । ऋत का अर्थ है - ऐसा सत्य जो ऋतु की भांति साधक की स्थिति के अनुसार बदलता रहता है । इन्द्रियां इसी ऋत से युक्त होती हैं, इसलिए इन्द्रियों के उद्यान को ऋतुमान् कहना सर्वथा उचित ही है ।
४- ऋतुमान् उद्यान में सरोवर की स्थिति - सरोवर शब्द विषय रूप जल का प्रतीक है । अतः ऋतुमान् उद्यान में सरोवर की स्थिति का अर्थ है - ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का अपने - अपने विषयों के साथ आदान - प्रदान ।
५- ग्राह : ग्राह शब्द ग्रह से बना है , जिसका अर्थ है - पकडना, जकडना, बन्धन में डालना आदि । इन्द्रिय - विषयों में प्रसन्नता अथवा आनन्द के अनुभव को ही यहां मनुष्य मन को बन्धन में डालने वाला प्रबल ग्राह कहा गया है । यह प्रसन्नता अथवा आनन्द का अनुभव ही मनुष्य मन को प्रसन्नता प्राप्ति के लिए विषयों पर निर्भर बना देता है और फिर मनुष्य एक विषय से दूसरे विषय में भटकता हुआ भी कभी तृप्त नहीं हो पाता । विषय क्षणभंगुर हैं और विषयों में वास्तव में प्रसन्नता अथवा आनन्द है ही नहीं । प्रसन्नता अथवा आनन्द का स्रोत तो आत्मा है परन्तु अज्ञानवश मनुष्य को वह प्रसन्नता विषयों से आती प्रतीत होती है । अतः बन्धनकारी न होते हुए भी अज्ञानवश विषय बन्धनकारी हो जाते हैं ।
६- हू हू गन्धर्व - गन्धर्व शब्द भाव की अनुभूति (feelings) का वाचक है और हू हू शब्द प्रसन्नता अथवा आनन्द के भाव को अभिव्यक्त करता है । अतः हू हू गन्धर्व का अभिप्राय है - प्रसन्नता अथवा आनन्द के भाव की अनुभूति ।
७ - शाप - पौराणिक साहित्य में शाप शब्द अवश्य भवितव्यता को इंगित करता है ।
८ - देवल - देवल (देव+ ल) ऋषि का अर्थ है - मनुष्य में दिव्यता का आधान करने वाली चेतना । विषयों में प्रसन्नता अथवा आनन्द का अनुभव ( हू हू गन्धर्व) मन को पतन की ओर ले जाता है । परन्तु देवल चेतना मनुष्य का पतन नहीं चाहती, इसीलिए वह विषयों में प्रसन्नता के अनुभव को बन्धनकारी (ग्राह) बनाकर मनुष्य को दु:खों में डालती है । दु:खों से त्रस्त होकर ही मनुष्य एक न एक दिन आत्मस्थ होने के लिए प्रवृत्त हो पाता है ।
९ - इन्द्रद्युम्न - राजा इन्द्रद्युम्न ( इन्द्र + द्युम्न ) आत्मभाव में स्थित प्रकाशयुक्त ( शुद्ध तथा स्थिर ) मन को इंगित करता है । ऐसा मन सर्वथा परमार्थ का पोषक होता है । परन्तु यही मन जब काल के प्रभाव से आत्म भाव को विस्मृत करके देहभाव में स्थित हो जाता है, तब परमार्थ का पोषक न होकर स्वार्थपरक हो जाता है जिसे कथा में गजेन्द्र कहा गया है । आत्मभाव को विस्मृत करके देहभाव में स्थित होने को ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि इन्द्रद्युम्न राजपाट तथा प्रजापालन को छोडकर मलयपर्वत(विषयों में अनुरक्त ) रहने लगा ।
१० - अगस्त्य - अगस्त्य ( अग + स्त्य ) का अर्थ है - चैतन्य का विस्तार । पौराणिक साहित्य में वसिष्ठ ऋषि चैतन्य की ऊर्ध्वमुखी अवस्था ( एकान्तिक साधना) और अगस्त्य ऋषि चैतन्य के विस्तार (सार्वत्रिक साधना ) को इंगित करते हैं । अगस्त्य चेतना कभी नहीं चाहती कि मन पारमार्थिक अवस्था ( आत्म भाव ) से स्वार्थ अवस्था ( देह भाव ) में रूपान्तरित हो । यदि ऐसा होता है अर्थात् मन परमार्थ से स्वार्थ में रूपान्तरित हो जाता है, तब उस स्वार्थपरक मन का ( गजेन्द्र का ) दु:खों में पडना निश्चित ही है । इस निश्चितता अथवा अवश्यम्भाविता को ही कथा में अगस्त्य मुनि का शाप प्रदान कहकर निरूपित किया गया है ।
११ - ग्राह - पीडित गजेन्द्र का व्याकुल होकर भगवान् को पुकारना यह संकेत करता है कि दु:खों से मुक्ति आत्मभाव में स्थित होकर ही सम्भव है । आत्मभाव में स्थिति के लिए मन का रूपान्तरण अनिवार्य है और मन का रूपान्तरण तब घटित होता है जब रूपान्तरित होने की प्रबल, प्रगाढ इच्छा मनुष्य के भीतर जाग्रत हो जाए और वह उसी दिशा में प्रयत्नशील हो ।
१२ - गजेन्द्र का परमधाम गमन मन की आत्मभाव में स्थिति को इंगित करता है । जो मन (गजेन्द्र ) अभी तक देहभाव से जुडा हुआ था, वही अब आत्म भाव से संयुक्त हो जाता है ।
१३ - श्रीहरि का प्राकट्य मनुष्य मन में प्रकट हुए आत्मभाव को इंगित करता है । देहभाव में स्थित मन दु:खों से व्याकुल होकर जब आत्म स्वरूप का स्मरण करता है, तभी आत्म स्वरूप प्रकट हो पाता है । आत्म - विस्मृति में आत्म स्वरूप का प्रकट होना कदापि सम्भव नहीं है । चूंकि आत्म स्मृति देहभाव और उससे उत्पन्न दु:खों का हरण कर लेती है, इसलिए आत्मा को हरि नाम देना सार्थक ही है । हरि शब्द हरण अर्थ वाली 'हृ ' धातु से निष्पन्न हुआ है । कथा में श्रीहरि को गरुडासीन कहा गया है । गरुड शब्द अत्यन्त उच्च विचार अथवा संकल्प का वाचक है । चूंकि आत्मानुभव उच्च कोटि के विचार पर ही आरूढ होकर आता है, इसलिए श्रीहरि को गरुडासीन कहा गया है ।
 

Festival associated with story of Gaja - Graaha

There is the Konhara Ghat in Sonepur where the temple of Hariharnath is located. Konhara comes from 'Kaun Hara ?" ( Who lost ?) referring to the battle of Gaj & Graah.

-           Yashendra

 

There are 2 harihara-kshetras. One is in Bihar on confluence of Gandaka(-Ki) and Ganga. The other is in Karnataka. Both are junction points of languages. The story of Gaja-Graaha is about Harihara of Bihar. The stories have 3 meanings in Vedic tradition. The geographical location might have been place of war between elephant and crocodile. But can this fight between animals be an important historic event to be recorded for posterity? How the feelings of elephant could be heard and recorded? Was he speaking in sanskrit and giving a summary of Nirakara-Brahma in his prayer? Both the recitation and its perception have to be an inner realization. Adhyatmika and Adhidaivika meanings also have to be correct                                                                                                       -           Arun Kumar Upadhyaya

 

गज-ग्राह कथा का रहस्य

-         विपिन कुमार

गज-ग्राह की कथा में कहा गया है कि यह पहले कुबेर के मन्त्री पार्श्वमौलि व घण्टानाद थे। इन्हें शापवश गज-ग्राह बनना पडा। पार्श्वमौलि का अर्थ होता है कि कोई धाराप्रवाह प्रसंग चल रहा है और उसमें बीच-बीच में कोई आकस्मिक घटना घटित हो जाती है। मौलि चिह्न, लक्षण को कहते हैं। हम कोई शुभ कार्य करने जा रहे हैं और अकस्मात् कोई अपशकुन हो जाता है। यह मुख्य घटना नहीं है, अपितु उसका उच्छिष्ट मात्र है। हस्ती या गज की उत्पत्ति इसी उच्छिष्ट ऊर्जा से कही गई है। एक कथा में कहा गया है कि मार्ताण्ड रूपी अण्ड की जो मुख्य ऊर्जा थी, उससे तो ७ या ८ आदित्य उत्पन्न हुए। जो अण्डकपाल पर रस लिप्त रह गया था, उस पर रथन्तर साम का गान करने से हस्ती उत्पन्न हुआ। इन हस्तियों को दिशापाल नियुक्त कर दिया गया। यह कहा जा सकता है कि हमारी जितनी बहिर्मुखी चेतना है, वह सब हस्ती का रूप है। हमारे नाक, कान, आंख, हाथ, पैर सब हस्ती रूपी देह के अंग हैं। यदि ऊर्जा का प्रवाह मुख्य धारा में ही हुआ होता, तो यह बहिर्मुखी चेतना रूपी हस्ती उत्पन्न न हुआ होता। तन्त्र की भाषा में इस बहिर्मुखी चेतना को ऊष्माण अक्षरों श, ष और स द्वारा प्रकट किया जाता है( दूसरी ओर, अन्तर्मुखी चेतना को अन्तस्थ अक्षरों य, र, ल, व द्वारा प्रकट किया जाता है)। इस बहिर्मुखी चेतना को पाप कहा गया है। कुछ पाप तो ऐसे होते हैं जिनका प्रायश्चित्त किया जा सकता है। लेकिन हस्ती में ऐसे पाप विद्यमान रहते हैं जिनका प्रायश्चित्त भी नहीं किया जा सकता। इन पापों को एक कथा में दुष्पण्य कहा गया है, अर्थात् इनका क्रय-विक्रय करना कठिन है। जिस मुख्य धारा का उल्लेख किया गया है, उसका स्वरूप भी अविकसित, अर्धविकसित, विकसित प्रकार का हो सकता है। यदि सारे प्राण जागे हुए हैं, तो वह घण्टानाद उत्पन्न करेंगे। तब जो ऊर्जा बहिर्मुखी होगी, वह कुबेर का मन्त्री पार्श्वमौलि होगी। जब मुख्य धारा अविकसित अवस्था में होगी, तब यह हमारी गहरी नींद की भांति होगी। गहरी नींद में हमारी सारी बहिर्मुखी वृत्तियां समाप्तप्राय हो जाती हैं। यह वर्तमान कथा के गज-ग्राह की स्थिति होगी। ग्राह गज को खा जाता है। हमारी नींद में ऐसा ही होता है। लेकिन योग में यह अभीष्ट नहीं है। इसका उपाय बताया गया है कि विष्णु सुदर्शन चक्र से ग्राह का सिर काट दें। सुदर्शन का अर्थ है कि जो चेतनाधारा गहन सुप्त अवस्था में थी, उसमें कुछ चेतना उत्पन्न कर दी जाए, उसे सुदर्शन बना दिया जाए। वैदिक साहित्य में कहा जाता है कि अग्नि सुदर्शन है क्योंकि यह रात्रि में दिखाई देती है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि रात्रि काल में पृथिवी रूपी महाभूत के अन्धकार में अग्नि रूपी चेतना को उत्पन्न करना ही सुदर्शन चक्र से ग्राह का सिर काटना है। ऋग्वेद १०.१६१.१ में ग्राहि(सायण भाष्य में ग्राहि को ग्राह का स्त्रीलिङ्ग रूप, राक्षसी कहा गया है) द्वारा गृहीत होने पर इन्द्राग्नि द्वारा मुक्त करने की प्रार्थना की गई है।

     हस्ती की सारी देह तो आसुरी है, लेकिन पृष्ठ/चर्म को दैवीय रूप दे दिया गया है जिसको शिव धारण कर लेते हैं और कृत्तिवास बन जाते हैं। कृत्ति कैंची, काटने के यन्त्र को कहते हैं। यह किस प्रकार हो सकता है, यह अन्वेषणीय है।

 

ग्राह

वैदिक संदर्भ

*तदिन्नक्तं॒ तद् दिवा॒ मह्य॑माहुस् तद॒यं केतो॑ हृ॒द आ वि च॑ष्टे। शुनः॒शेपो॒ यमह्व॑द् गृभी॒तः सो अ॒स्मान् राजा॒ वरु॑णो मुमोक्तु॥ ऋ. १.२४.१२

*शुनः॒शेपो॒ ह्यह्व॑द् गृभी॒तस् त्रि॒ष्वा॑दि॒त्यं द्रु॑प॒देषु॑ ब॒द्धः। अवै॑नं॒ राजा॒ वरु॑णः ससृज्याद् वि॒द्वाँ अद॑ब्धो॒ वि मु॑मोक्तु पाशा॑न्॥ - ऋ. १.२४.१३

*यु॒वमे॒तानि॑ दि॒वि रो॑च॒नान्य॒ग्निश्च॑ सोम॒ सक्र॑तू अधत्तम्। यु॒वं सिन्धूँ॑र॒भिश॑स्तेरव॒द्यादग्नी॑षोमा॒वमु॑ञ्चतं गृभी॒तान्॥ - ऋ. १.९३.५

*तम॑स्य पृ॒क्षमुप॑रासु धीमहि॒ नक्तं॒ यः सु॒दर्श॑तरो॒ दिवा॑तरा॒दप्रा॑युषे॒ दिवा॑तरात्। आद॒स्यायु॒र्ग्रभ॑णवद् वी॒ळु शर्म॒ न सू॒नवे॑। भ॒क्तम॑भक्त॒मवो॒ व्यन्तो॑ अ॒जरा॑ अ॒ग्नयो॒ व्यन्तो॑ अ॒जराः॑॥(दे. अग्निः) - ऋ. १.१२७.५

*तमित् पृ॑च्छन्ति॒ न सि॒मो वि पृ॑च्छति॒ स्वेने॑व॒ धीरो॒ मन॑सा॒ यदग्र॑भीत्। न मृ॑ष्यते प्रथ॒मं नाप॑रं॒ वचो॒ ऽस्य क्रत्वा॑ सचते॒ अप्र॑दृपितः॥ - ऋ. १.१४५.२

*नित्ये॑ चि॒न्नु यं सद॑ने जगृ॒भ्रे प्रश॑स्तिभिर्दधि॒रे य॒ज्ञिया॑सः। प्र सू न॑यन्त गृ॒भय॑न्त इ॒ष्टावश्वा॑सो॒ न र॒थ्यो॑ रारहा॒णाः॥(दे. अग्निः) - ऋ. १.१४८.३

*यन्निर्णिजा॒ रेक्ण॑सा॒ प्रावृ॑तस्य रा॒तिं गृ॑भी॒तां मु॑ख॒तो नय॑न्ति। सुप्रा॑ङ॒जो मेम्य॑द् वि॒श्वरू॑प इन्द्रापू॒ष्णोः प्रि॒यमप्ये॑ति॒ पाथः॑॥ - ऋ. १.१६२.२

*अपा॒ङ् प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तो ऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः। ता शश्व॑न्ता विषू॒चीना॑ वि॒यन्ता॒ न्य१॒॑न्यं चि॒क्युर्न नि चि॑क्युर॒न्यम्॥ - ऋ. १.१६४.३८

*न॒वा॒नां न॑वती॒नां वि॒षस्य॒ रोपु॑षीणाम्। सर्वा॑सामग्रभं॒ नामा॒ऽऽरे अ॑स्य॒ योज॑नं हरि॒ष्ठा मधु॑ त्वा मधुला च॑कार॥ - ऋ. १.१९१.१३

*सिन्धूँ॑रिव प्रव॒ण आ॑शु॒या य॒तो यदि॒ क्लो॒शमनु ष्वणि॑। आ ये वयो॒ न वर्वृ॑त॒त्यामि॑षि गृभी॒ता बा॒ह्वोर्गवि॑॥ - ऋ. ६.४६.१४

*प्र य॑न्ति य॒ज्ञं वि॒पय॑न्ति ब॒र्हिः सो॑म॒मादो॑ वि॒दथे॑ दु॒ध्रवा॑चः। न्यु॑ भ्रियन्ते य॒शसो॑ गृ॒भादा दू॒रउ॑पब्दो॒ वृष॑णो नृ॒षाचः॑॥ - ऋ. ७.२१.२

*गृभी॒तं ते॒ मन॑ इन्द्र द्वि॒बर्हाः॑ सु॒तः सोमः॒ परि॑षिक्ता॒ मधू॑नि। विसृ॑ष्टधेना भरते सुवृ॒क्तिरि॒यमिन्द्रं॒ जोहु॑वती मनी॒षा॥ - ऋ. ७.२४.२

*आ ते॑ सिञ्चामि कु॒क्ष्योरनु॒ गात्रा॒ वि धा॑वतु। गृभा॒य जि॒ह्वया॒ मधु॑॥ - ऋ. ८.१७.५

*आ तू न॑ इन्द्र क्षु॒मन्तं॑ चि॒त्रं ग्रा॒भं सं गृ॑भाय। म॒हा॒ह॒स्ती दक्षि॑णेन।। - ऋ. ८.८१.१

 इस ऋचा का ऋषि कुसीदी काण्व है। कुसीद ब्याज को कहते हैं। कुसीदी से संकेत मिलता है कि यह ऋणात्मक स्थिति से धनात्मक स्थिति को जाने की अवस्था है। ऋचा का अर्थ सायण भाष्य के अनुसार यह है कि हे इन्द्र, शब्दायमान(क्षुमन्तं) हमारे लिए तू चित्र धन(ग्राभ) लेकर आ। तू दक्षिण द्वारा महाहस्ती है। क्षु का वास्तविक अर्थ समझने की आवश्यकता है। ह तथा क्ष का न्यास मूर्द्धा में किया जाता है। क्षुधा की स्थिति भी क्षुमन्त हो सकती है। अथवा यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चूंकि मूलाधार पर ऊष्माण वर्णों श-ष-स का अस्तित्व होता है, अतः ऊष्णाण वर्णों की कोई विकसित अवस्था क्ष है। अग्नि पुराण ३४८ में क्ष वर्ण को क्षत्र, अक्षर, क्षेत्र, क्षेत्रपाल आदि से सम्बद्ध किया गया है।

*अ॒स्येदिन्द्रो॒ मदे॒ष्वा ग्रा॒भं गृ॑भ्णीत सान॒सिम्। वज्रं॑ च॒ वृष॑णं भर॒त् सम॑प्सु॒जित्॥ - ऋ. ९.१०६.३

*प्र॒ती॒चीने॒ मामह॒नीष्वाः॑ प॒र्णमि॒वा द॑धुः। प्र॒तीचीं॑ जग्रभा॒ वाच॒मश्वं॑ रश॒नया॑ यथा॥ - ऋ. १०.१८.१४

*विषू॑चो॒ अश्वा॑न् युयुजे वने॒जा ऋजी॑तिभी रश॒नाभि॑र्गृभी॒तान्। च॒क्ष॒दे मि॒त्रो वसु॑भिः॒ सुजा॑तः॒ समा॑नृधे॒ पर्व॑भिर्वावृधा॒नः॥ - ऋ. १०.७९.७

*मु॒ञ्चामि॑ त्वा ह॒विषा॒ जीव॑नाय॒ कम॑ज्ञातय॒क्ष्मादु॒त रा॑जय॒क्ष्मात्। ग्राहि॑र्ज॒ग्राह॒ यदि॑ वै॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्र मु॑मुक्तमेनम्॥ - ऋ. १०.१६१.१

*दश॑वृक्ष मुञ्चेमं रक्ष॑सो॒ ग्राह्या॒ अधि यैनं॑ ज॒ग्राह पर्व॑सु। अथो॑ एनं वनस्पते जी॒वानां॑ लो॒कमुन्न॑य॥ - शौ. अथर्ववेद २.९.१

*उपा॒स्मान् प्रा॒णो ह्व॑यता॒मुप॑ व॒यं प्रा॒णं ह॑वामहे। वर्चो॑ जग्राह पृथि॒व्य॑१॒न्तरि॑क्षं॒ वर्चः॒ सोमो॒ बृह॒स्पति॑र्विध॒त्ता॥ - शौनकीय अथर्ववेद १९.५८.२

 

This page was last updated on 11/20/13