पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Gangaa - Goritambharaa) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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गदा
द्वादशी तिथि http://memorial-in-hindu.blogspot.in/2011/09/blog-post_8833.html भीमगया, गोप्रचार व गदालोल में पिण्डदान गदालोल तीर्थ का विवरण नारद पुराण व वायुपुराण में उपलब्ध है। इस विवरण के अनुसार हेति असुर ने तप से अस्त्र-शस्त्रादि से अवध्यता का वर प्राप्त कर लिया और उपद्रव करना आरम्भ कर दिया। तब देवों ने विष्णु को गदा प्रदान की जिसके द्वारा विष्णु ने हेति असुर का वध किया और वध के पश्चात् जिस स्थान पर गदा का प्रक्षालन किया, वह गदालोल तीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुआ। हेति असुर क्या होता है, इसका अनुमान यह कहकर लगाया जा सकता है कि हमारे जीवन में जो भी घटित हो रहा है, वह सब हमारी चेतना के सम्यक् विकास के लिए है, हमारा हित साधन करने के लिए है। यह बात अलग है कि हम उसको स्वीकार कर पाते हैं या नहीं। उपनिषदों(बृहदारण्यक व सुबाल) में हृदय के परितः व्याप्त 72000 हिता नाडियों का उल्लेख आता है जिनमें रात्रि में प्राण, अपान आदि जाकर सो जाते हैं। प्राण का जो रूप हिता नाडियों में सोएगा, वैसे ही स्वप्न प्रकट होंगे। हरिवंश पुराण में उल्लेख आता है कि द्वादशी को स्वप्न में उषा को जो अभिभूत कर लेगा, वही उसका भावी पति होगा। इसका अर्थ हुआ कि हिता नाडी में प्राणों के विश्राम करने से जो स्वप्न दिखाई दे रहे हैं, वह सत्य हो भी सकते हैं, नहीं भी। विशेष प्रयत्नों द्वारा उनको सत्य बनाया जा सकता है। प्रयत्न के रूप में गदा का उल्लेख है। गद धातु के विषय में कहा गया है कि यह व्यक्त – अव्यक्त स्वरूप है। गदा को और अच्छी प्रकार से महाभारत शल्य पर्व के गदोपाख्यान के आधार पर समझा जा सकता है। दुर्योधन सरोवर को स्तम्भित करके उसमें विश्राम करने लगा। जब पाण्डवों को इसका पता चला तो उन्होंने उसे युद्ध के लिए ललकारा। गदायुद्ध हुआ जिसमें नाभि से नीचे गदा प्रहार से दुर्योधन का अंत हुआ। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि जब हम सोते हैं, तब सभी प्राण अचेतन में चले जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम चेतन स्वरूप को धारण करके निद्रा लें। गया श्राद्ध के संदर्भ में इसे हेति असुर पर गदा का प्रहार करना कहा गया है। ऋग्वेद १०.१६५.३ में हेति को पक्षिणी संज्ञा दी गई है(हेतिः पक्षिणी न दभात्यस्मानाष्ट्र्यां पदं कृणुते अग्निधाने । शं नो गोभ्यश्च पुरुषेभ्यश्चास्तु मा नो हिंसीदिह देवाः कपोतः ॥ )। इसका अर्थ हुआ कि हेति किसी प्रकार से शकुन से भी सम्बन्ध रखती है। गद का अर्थ होता है व्यक्त होना, व्यक्त करना, कहना। अतः गदा का अर्थ हो सकता है कि हमारे व्यक्तित्व में अभी तक जो कुछ व्यक्त नहीं हो पा रहा था, अचेतन मन में ही सुप्त रूप में स्थित था, अथवा केवल शकुन के रूप में ही व्यक्त हो रहा था, उसे व्यक्त करना गदा द्वारा हेति का वध करना है। लक्ष्मीनारायण संहिता १.५४५.३६ में एक कथा में कहा गया है कि राजा नृग के शरीर से निर्गत एकादशी कन्या ने द्वादशी रूपी हेति अस्त्र का उपयोग करके दस्युओं का नाश कर दिया(कन्या चैकादशी सा च हेतयो द्वादशी तिथिः ॥)। इसका अर्थ यह हुआ कि हेति का विद्यमान होना द्वादशी तिथि का लक्षण है। और इस हेति का उपयोग अस्त्र की भांति करना है। गया श्राद्ध के संदर्भ में अचेतन पडी हेति का रूपान्तरण गदा द्वारा किया गया है। पुराणों में कहा गया है कि गदा द्वारा हेति के सिर को द्वेधा विभाजित कर दिया गया। निहितार्थ अपेक्षित है। यह भी उल्लेखनीय है कि नारद पुराण में हेति के स्थान पर गयासुर पाठ भी आता है। अतः गयासुर का हेति से साम्य हो सकता है।
संदर्भ अपामार्ग ओषधीनां सर्वासामेक इद्वशी । तेन ते मृज्म आस्थितमथ त्वमगदश्चर ॥शौअ ४.१७.८॥ तक्मन् व्याल वि गद व्यङ्ग भूरि यावय । दासीं निष्टक्वरीमिच्छ तां वज्रेण समर्पय ॥५.२२.६॥
तदु होवाच याज्ञवल्क्यः। अश्रद्दधानेभ्यो हैभ्यो गौरपक्रामति। आर्त्यो वा आहुतिं विध्यन्ति। इत्थमेव कुर्यात्। दण्डेनैवैनां विपिष्योत्थापयेदिति। तद्यथैवादः धावयतोऽश्वो वाऽश्वतरो वा गदायेत। बलीवर्दो वा युक्तः। तेन दण्डप्रजितेन तोत्त्रप्रजितेन यमध्वानं समीप्सति तं समश्नुते। एवमेवैतया दण्डप्रजितया तोत्त्रप्रजितया यं स्वर्गं लोकं समीप्सति तं समश्नुते॥माश १२.४.१.१०॥ ऽग्निहोत्री दुह्यमानोपविशेत् -- तद् उ होवाच वाजसनेयो ऽश्रद्दधानेभ्यो हैभ्यो गौर् अपक्रामति। अवृत्त्या हि तं विध्यन्ति। इत्थम् एव कुर्यात्। दण्डम् एव लब्ध्वा तेनैनां विपिष्योत्थापयेत्। तद् यथा वा अदो धावयतो ऽश्वतरो गदायते युक्तो वा बलीवर्द उपविशति तेन दण्डप्रजितेन तोत्त्रप्रजितेन यम् अध्वानं कामयते तं समश्नुते। एवम् एवैतया दण्डप्रजितया तोत्त्रप्रजितया यं स्वर्गं लोकं कामयते तं समश्नुते। ताम् आत्मन्न् एव कुर्वीत् आत्मन्न् एव तच् छ्रियं धत्त इति॥– जै.ब्रा. १.५९॥
9.4 गर्भं स्रवन्तमगदमकरग्निरिन्द्रस्त्वष्टा बृहस्पतिः । पृथिव्यामवचुश्चोतैतन्नाभिप्राप्नोति निरृतिं पराचैरित्यग्निहोत्रस्थालीं स्रवन्तीमभिमन्त्र्य विधुं दद्राणमिति संदध्यात् आप.श्रौ.सू. ९.४.१ त्र्यहे सुत्यामागच्छ मघवन् देवा ब्रह्माण आगच्छतागच्छत(ला० श्रौ० १.३.३-७)इति निगदशेषं ब्रूयात् ।- आर्षेयकल्पः
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