वेद में उदक का प्रतीकवाद Symbolism of Water in Veda सुकर्मपाल सिंह तोमर Sukarmapal Singh Tomar अध्याय१ उदक की अवधारणा अध्याय२ प्राणोदक की व्यापकता अध्याय३ प्राणोदक एक चेतनतत्त्व अध्याय४ आपः का एकत्व और अनेकत्व अध्याय५ उदकनामों में विरोध अथवा असंगति का आभास अध्याय६ उदकनामों में एकसूत्रता अध्याय७ उदकनामों की उदञ्चनशीलता का उद्देश्य अध्याय८ उपसंहार अध्याय९ परिशिष्ट
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सप्तम अध्याय उदकनामों की उदञ्चनशीलता का उद्देश्य पिछले अध्याय में उदकनामों की एकसूत्रता पर दृष्टिपात करते हुए हमने विविध उदकनामों को अन्ततोगत्वा ‘पूर्णत्व की ओर उन्मुखं’ पाया। इस दृष्टि से यह प्रसंग उदकनामों की उस उदञ्चनशीलता का दिशाज्ञान कराता है, जिसे हमने प्रथम अध्याय में उदक शब्द के निवर्चन में पाया था। उत+अन्व से निष्पन्न उदक शब्द जिस ऊर्ध्वगामिता की ओर संकेत करता है, वह प्राणरूप उदक की, अपनी पूर्व स्थिति से उत्तरोत्तर नवीन एवं श्रेष्ठ स्थिति की ओर यात्रा है। यह यात्रा, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वस्तुतः उस अपाद (अगतिमय) तथा पतित अहि नामक स्थिति से उबरने के लिए है जिससे प्राणोदक दिव्य आपः के प्रवाह से वञ्चित होकर वृत्र (अहि) बन गया है अन्यथा यह कभी स्वर्ग में स्थित श्वित आङ्गिरस नामक प्राण ही था।[1] इन्द्रवृत्र संग्राम साथ ही यह विचित्र बात है कि यह अहि अपनी वर्तमान दुर्दशा के उस मूल कारण को भूल गया है, जिसने उसे अहित्व प्रदान किया। अब यह अपादहस्त होता हुआ भी चारों और फैले हुए मनुष्य व्यक्तित्व की अस्थिर काष्ठाओं के मध्य में अपने शरीर को निहित करके दीर्घतमः इन्द्रशत्रु (इन्द्रशक्ति) के रूप में शयन कर रहा है तथा उसके इस गुप्त (निण्य) शरीर को पूर्व प्राप्त आपः किंचित् गति प्रदान कर रहे हैं।[2] अहि के इस गुप्त शरीर को गति देने वाले आपः वस्तुतः वह निरूद्ध प्राणोदक हैं, जिनको दासपत्नी और अहिगोपा कहा जाता है और जिनकी तुलना पणियों द्वारा निरूद्ध गायों से की जाती है। इस अहि अथवा वृत्र के द्वारा दिव्य आपः का जो मार्ग अवरूद्ध कर दिया गया था, उसको पुनः खोलने का अर्थ है - वृत्र का वध तथा उसका परिणाम है शुद्ध आपः का प्रभावित होना। यह प्रसंग निम्नलिखित मन्त्र में इस प्रकार दिया गया है -- दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः । अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥ऋ १, ३२, ११ जैसा कि इस मंत्र से स्पष्ट है, प्राणोदक की अहि नामक स्थिति आत्मा रूपी इन्द्र की शत्रु है, यद्यपि इस स्थिति के उत्पन्न होने का कारण यह है कि आत्मा ने अपने निजस्वरूप को भूल कर त्रिगुणात्मक प्रकृति-जन्य, मानुषी त्रिलोकी (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय कोश) में स्थित अहि-दानु-शम्बर नामक त्रिविध वृत्र को ही अपना निज स्वरूप स्वीकार कर रखा था।[3] आत्मा जब अपनी इस भूल को पहचान कर शुद्ध आपः की सृष्टि करने के लिए तैयार हो जाता है, तो इस त्रिविध वृत्र और आत्मा के बीच युद्ध छिड़ जाता है। इसी को वेद और पुराण में देवासुरसंग्राम कहा जाता है और इसमें अन्ततोगत्वा इन्द्र की ही जीत होती है। यही बात ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्र में संकेतित है – इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥ ऋ १, ३२, १३ इस संग्राम की ओर इंगित करते हुए भी वैदिक कवि यह नहीं भूलता कि इस आत्मा का एक ऐसा स्वरूप भी है, जिसे शृंगी शम का राजा कहा जा सकता है और जो स्वयं वही ऊँ है जो सभी प्राणों में उसी प्रकार निवास करता है, जिस प्रकार पहिये की परिधि ने सभी अरों को अपने अन्तर्गत कर रखा है-
इन्द्रो
यातोऽवसितस्य
राजा
शमस्य
च
शृङ्गिणो
वज्रबाहुः
। आत्मा के इस शमप्रधान स्वरूप की ओर संकेत करते हुए ही इससे पूर्ववर्ती मन्त्र विनोदपूर्वक पूछता है, कि ‘हे इन्द्र। क्या तुमने अहि के किसी पक्षधर को देख लिया है, जो तुम अपने हृदय में हत्या से भयभीत हो गये हो और बहती हुई निन्यानबे नदियों को भयभीत श्येन के समान पार कर गये हो-
अहेर्यातारं
कमपश्य
इन्द्र
हृदि
यत्ते
जघ्नुषो
भीरगच्छत्
। इन्हीं निन्यान्वे नदियों का उल्लेख एक अन्य मन्त्र में है, जिसमें कहा गया है कि जो सप्त दिव्य आपः हैं, उनके द्वारा इन्द्र ने सिन्धु को पार किया और निन्यानबे नदियों को देवों और मनु के लिए ‘गातु’ (योगमार्ग) के रूप में प्राप्त किया--
सप्तापो
देवीः
सुरणा
अमृक्ता
याभिः
सिन्धुमतर
इन्द्र
पूर्भित्
। इसका अभिप्राय है कि सप्त आपः अथवा सप्त सिन्धवः आत्मा रूपी इन्द्र के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन सप्त सिन्धुओं की सृष्टि करके ही वह उनकी सहायता से जहां एक सिन्धु (महत् सलिल) को पार करके पूर्वोक्त शृंगी शम को पाने में समर्थ होता है, वहीं दूसरी ओर अवरोहण करके वह निन्यानवे चेतनाप्रवाहों को भी इन्हीं सप्त आपः की सहायता से गातु के रूप में परिणत करके देवों और मनुष्यों का उपकार करता है। इसलिए कवि आगे कहता है कि हे इन्द्र! तूने जिन महीः अपः को वृत्रवध करके मुक्त किया, उनके द्वारा तुमने शरीर (तन्वं) का पोषण कर दिया।[4] पूर्भिद् इन्द्र और गातु पूर्भिद् इन्द्र कौन है? वे देव और मनुस् कौन हैं, जिनके लिए वह ‘गातु’ को प्राप्त करता है? गातु क्या है और इस प्रसंग में निन्यानवें धारायें क्या हैं? सप्त आपः का इस कार्य में क्या और किस प्रकार योगदान होता है? ये और ऐसे ही अन्य प्रश्नों का यहां उठना स्वभाविक है। इनका उत्तर हम पूर्भिद् इन्द्र से प्रारम्भ करते हैं। वृत्र (शंबर, अहि, दानु) के निन्यानवे पुर वेद में प्रसिद्ध[5] हैं। इनका भेदन करने के कारण इन्द्र (आत्मा) पूर्भिद् कहलाता है। इन पुरों का भेदन, वृत्रवध तथा ‘सप्त आपः देवीः’ (सिन्धवः) की मुक्ति के साथ होता है, जिसके परिणामस्वरूप उक्त निन्यानवें धाराएं शरीर के मेरुदण्ड में निहित स्थूल शरीर के तैंतीस केन्द्रों से प्रवाहित होने वाली भावना, ज्ञान और क्रिया शक्तियों की त्रिविध चेतना धाराएं हैं, जो वृत्रजनित कलुष का निवारण करने वाली सप्तः ‘आपः देवीः’ के माध्यम से सिन्धु (महत्, सलिलं) के अवतरण से यज्ञ (श्रेष्ठतम कर्म) अथवा दिव्य ‘अपः’ में प्रवृत्त में हो जाती है। यह यज्ञ गीता का कर्मयोग अथवा ‘योगयज्ञ’ है, जिसे वेद में ‘गातु’ कहा गया है। जैसा कि उक्त मन्त्रों में कहा गया, इस दिव्य कर्म (यज्ञ) रूप गातु से शरीर (तन्वं) का पोषण होने के साथ-साथ मननशील जीवात्मा (मनुस्) का ही नहीं, अपितु उन प्राणदेवों का भी हित-सम्पादन होता है, जिन्हें वसवः, आदित्या, रुद्राः, आदि कहा जाता है और जो हमारी वासनाओं, रूप-रसादि के आदान तथा दुरितविनाशक रौद्रकर्म करने में लगते हैं। इन निन्यानवें धाराओं का उद्धार करने वाले, अष्टम काष्ठा के सिन्धु (महत् सलिलं) और पूर्वोक्त अव्यक्त तत्व सहित कुल एक सौ एक प्राणोदक हैं, जो वृत्रवध के पश्चात् सभी दिव्यता ग्रहण कर लेते हैं। यह कार्य वस्तुतः पूर्भिद् इन्द्र उन सप्त आपः के माध्यम से करता है, जिन्हें उसने वृत्रवध करके मुक्त किया था। अथवा यह भी कह सकते हैं कि इन्द्र ने उन आपः की सृष्टि करने के साथ ही उस दिव्य ‘अपः’ (कर्म) की भी सृष्टि कर दी जो कर्म को यज्ञीय अथवा योगयज्ञ में परिणत कर देता है। इस घटना के घटित होने से पूर्व, दिव्यता केवल सौवें सिन्धु और एक सौ एकवें (अव्यक्त) में थी, जबकि अन्य निन्यानवें प्राणोदक ‘आपः देवी’ के साथ सम्पर्क न होने से अहिगोपा और दासपत्नी होकर दुरित और अनृत के वाहक बने हुए थे। अतएव वृत्रवध के साथ आपः की मुक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से ‘आद्या सृष्टि’ है, जिसे कालिदास शाकुन्तलम के मंगलाचरण में प्रथम स्थान देता है।[6] इसी को मनुस्मृति में ‘अप एव ससर्जादौ’ कह कर याद किया गया है। इस प्रकार ‘अपः’ का श्लिष्टार्थ जहां आपः की द्वितीया विभक्ति के बहुवचन (अपः) का बोध कराता है, वहीं वह कर्मवाचक अपः (एकवचन) का भी द्योतक है। अतः वैदिक सृष्टि के प्रसंग में वृत्रवध द्वारा होने वाली ‘आपः’ देवी’ के विमोचन को आद्यासृष्टि माना गया है। यह आद्यासृष्टि वस्तुतः एक आध्यात्मिक घटना है, जिसके अनुसार अष्टम काष्ठा का सिन्धु (महत्) अहंबुद्धि, मन तथा पंच ज्ञानेन्द्रियों की चेतना-धाराओं को दिव्यता प्रदान करता है, क्योंकि अष्टम काष्ठा वह महत् है, जिसे इन्द्र का गुह्य नाम तथा सांख्यमतानुसार मूल व्यक्त (प्रकृति) की१ प्रथम विकृति कहा गया है। यही काष्ठा वह समुद्र है, जिसमें घृत की मधुमान् ऊर्मि[7] के रूप में ब्रह्मानन्द-रस रूप इन्द्र (सोम) उदभूत होता हैं अथवा इन्द्र के लिए परिस्रवित होने के लिए आहूत किया जाता है।[8] यही वह ऋतं की धारा है, जो गुहा (ऋ १.६७, ८)[9] में उठती हुई कही जाती है। वह महत् नामक बुद्धि है अथवा सुमति और दुर्गति के द्वन्द्व से परे सविता की हिरण्ययी अमति (ऋ १. ३०, ८; ७.३८,१)[10] अथवा विविध प्रकार की अनेकताओं से युक्त हिरण्ययी सिन्धु है।[11] यह वह अकेली गौ है, जो अनेक गायों द्वारा लाये हुए मधुमत् अग्नि को ऋत के सदन में घेरे हुए (ऋ. ३.७, २)[12] है, महान् ज्योति को धारण किये हुए है[13], अथवा घृतयुक्त स्वाद्म मधु (३.३१, ११) को दुहने वाली है[14], यह वह गौ है जो ऋतं के पद में गुहा के भीतर उषा के देदीप्यमान अनीक (ऋ ४.५, ९) का सेवन करती है[15] और हमारे लिए सहस्र धाराओं के दोहन (ऋ ४.४१,५)[16] की क्षमता रखती है। यही सौवां (शततमं) पुर है जो संवेश्यम् है (ऋ. ४.२९.३ , अथर्व ३.८.१[17])। गोविन्द और गवेषणा -- इसी गौ की खोज में मनुष्य को प्रयत्नशील होना है। यही एक गौ, एक ऋषि, एक धाम, एकवृत् यक्ष और एक ऋतु है। यह गौ नवमी काष्ठा में वह पराकाष्ठा वा परागति कहाती है, जिसके ऊपर और कुछ भी नहीं है।[18] यही गौ अष्टम काष्ठा में इन्द्र, और उसके लिए प्रथम पीयूष दुहनेवाली गाय का युञ्ज बन जाती है और उससे नीचे की काष्ठाओं में देवों, ऋषियों, मनुष्यों और असुरों को चार भिन्न-भिन्न ढंग से तृप्त करने वाली चतुर्धा बन जाती है अथवा असुरों, पितरों, मनुष्यों, देवों, ऋषियों, गन्धर्वाप्सराओं, इतरजनों और सर्पों आदि को तृप्त करने वाली गाय बन जाती है।[19] हमारा जीवन मूलतः नवमीं काष्ठा का अमृतस्वरूप आत्मा ही है, जो अब उस कामधेनु से ऊर्ज, अन्न, माया, विष आदि नाना प्रकार की वस्तुओं की इच्छा करता रहता है। जब इन सबसे वीतराग होकर गाय के उस रूप को ही चाहता है, जो निष्पाप अदिति, सभी बुद्धियों का आधार और अमृतस्य नाभिः कहलाता है[20] तभी उसकी गवेषणा सच्ची होती है, क्योंकि यही वह गाय है, जिसके भीतर हिरण्यय चक्र[21] अर्थात् उस जीव का अपना ही सूर्य रूप है। गाय का यह रूप इस प्रकार जीव को उसके अपने ही उस रूप का साक्षात्कार करा देता है, जो इस गाय का स्वामी गोपति वा गोविन्द है। इस गवेषण का चित्र वेदों में अनेक स्थलों पर विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से उपस्थित किया गया है। साधारण भाषा में, सत्य मन से ध्यान करते हुए क्रतुस्वरूप ‘स्वः’ ये युक्त होना ही यह गवेषणा है।[22] सत्य मन का अर्थ है सत्य भाव और सत्य विचार, जिसके लिए सत्य आचरण की आवश्यकता है। इसलिए ध्यान-प्रक्रिया को बताते हुए जब मनीषियों से कहा गया कि ‘जैसे-जैसे विचार (मतयः) उठें, वैसे-वैसे वे उनसे अपनी मनीषा को परिपूर्ण करें; तो साथ ही यह भी कह दिया गया कि ‘इन्द्र को सत्यं कृत्यों के द्वारा (सत्येभिः कृतेभिः) हम सत्य मन के लिए प्रेरित[23] करते हैं। ऐसा होने पर ही, ऋत के सदस् (अष्टम काष्ठा वा सिन्धु) की धीति कौंधती है और हमारी गृष्टि (अदिति) का पुत्र, (आत्मा) गायों (शुद्ध बुद्धियों) से युक्त[24] होता है। उक्त धीति की ही वेद में श्रुति संज्ञा है, जिससे आत्मा (इन्द्र) के उस रूप को जाना जा सकता है, जो विष्णु है और जो सूर्य के लिए पथिकृत है और जिसको प्राप्त करके जीव अच्युत और अनुपम गोपति[25] हो जाता है। तब वृत्र द्वारा खड़े किये गये, महान् अर्णव (सिन्धु) के बाड़ों को आत्मा (इन्द्र) अपनी शक्ति से नष्ट करता है, जिससे सत्यसृष्टि (सत्यताता) में आधरभूत अनेक गतिविधियां फैल पड़ती हैं[26] , वज्र द्वारा वृत्र का वध हो जाता है और उस अदेव की माया दूर होती है।[27] उषाएं (बुद्धियां) सूर्य से युक्त होती हैं और तब वे चित्रा रा (अपना संयुक्त रूप) प्राप्त करती हैं[28] , जिसके फलस्वरूप ऐसा लगता है कि ‘‘इन्द्र जन्म’’ पर जो आपः (बुद्धियां) प्रवाहित हो पड़ीं, उनमें से जो प्रथमा थी, उसका तो कहीं पता ही नहीं लगता (निश्चय ही, कहीं दूर चली गईं) पर हे आपः। तुम अन्यों के भी शिखर, मूल, मध्य अथवा अन्त का कोई चिह्न नहीं दिखायी पड़ता [29]। ये सभी आपः (बुद्धियां) एकजुट (सध्रीचीः) ललकती हुई सी सिन्धु को जा रही हैं, क्योंकि सिन्धुगत पूर्भिद् इन्द्र इनका जार हो गया, जीव की सारी पार्थिव सम्पदाएं अस्त हो गई और अनेक स्थान पर दिव्य पूर्वी सुमतियां आ गई।[30] गवेषणा का फल यह है चित्र गवेषणा और उसके परिणामस्वरूप मानव व्यक्तित्व में होने वाले परिवर्तनों का। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप मनुष्यव्यक्तित्व पूर्णतः समन्वित और सन्तुलित होता है। इसका अर्थ है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का मर्य-स्तर अहंबुद्धि के माध्यम से उस अतिमानसिक और अतिवैयक्तिक अहंपूर्वबुद्धि से आलोकित होकर कार्य करता है, जिसे महत्, सिन्धु आदि नाम दिये गये हैं। इस अहंपूर्व बुद्धि में ऐसा सामर्थ्य है कि वह मनुष्य के भीतर नवम् काष्ठा का जो मधु वा अमृत (आत्मानन्द) है, उसको लाकर अहंबुद्धि, मन और पांच अर्थों के मर्यस्तर पर सप्त आपः (बुद्धियों) को प्रदान कर सके। इस दृष्टि से, इन सप्त बुद्धियों को सप्त मर्यादा कहा जाता है, क्योंकि इन्हीं के द्वारा मर्य जीवन अमरस्तर के मधु का आदान करता है। सप्त मर्यादाओं का निर्माण करने वाले ‘कवयः[31] आत्मा की वे विभूतियां हैं, जिन्हें सप्त अदिति पुत्र कहा गया है। इन मर्यादाओं का सिन्धु के समान एक अष्टम रूप भी है, जिसको मधुला[32] नाम दिया गया है। यह निस्सन्देह अष्टम काष्ठा की मर्यादा है, जहां आपः के समिथ (योग) में मधुमान ऊर्मि प्राप्य है[33] । इस समिथ को अनीक विशेषण दिया गया है, जो अन और दूक (एक) से मिल कर बना है, पर इसका अर्थ अनेक से इस बात में भिन्न है कि इसमें मर्यस्तर की पूर्ण अनेकता नहीं होती, साथ ही इसमें अनेकता का बीज होने से, इसको एक भी नहीं कहा जा सकता। एकानेक विलक्षण अष्टम काष्ठा वस्तुतः आत्मा का वह योजन (युञ्ज) है, जिसे सिन्धु वा मधुला कहा जाता है और जिसके मधु को पाकर यह मर्य जीवन अमर हो सकता है। इसी दृष्टि से मर्यजीवों की ओर से कहा गया है-- सूर्ये विषमा सजामि दृतिं सुरावतो गृहे ।सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥ऋ १.१९१, १० शाश्वत आपः अब कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। यदि अष्टम काष्ठा के सिन्धु से अन्य सिन्धुओं द्वारा मधु का आदान करने के कारण, उन्हें मर्यादाएं कहा जाता है, तो उनकी सप्त काष्ठाओं में ऐसा कौन सा विष है जो मर्य जीवन को दुःख और नैराश्य से भरे रखता है? और यदि सहज है, तो मधु का अभाव क्यों अनुभव होता है? अथवा आपः वा सिन्धवः की सृष्टि के लिए इन्द्र से बार-बार प्रार्थना क्यों की जाती है? इन प्रश्नों के मूल में शाश्वत आपः और दिव्य आपः के भेद की अनदेखी करना है। वेद में जिन आपः की सृष्टि के लिए प्रार्थना की जाती है, वे दिव्य आपः हैं, जो मनुष्य के लिए वरदान हैं। इनके विपरीत शाश्वत आपः[34] हैं, जिनको इन्द्र की सहायता से ही पार किया जा सकता है। ये आपः मनुष्य की उन बुद्धियों अथवा शक्तियों की प्रतीक हैं, जो उसकी अहंबुद्धि, मन और पांच अर्थों में सदैव रहती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनका मूल भी वही अष्टमकाष्ठा का महत् वा सिन्धु है, जहां से दिव्य आपः आते हैं। इस दृष्टि से आरम्भ में ये भी दिव्य होते हैं, पर अहंबुद्धि में अनृत विकसित होता हुआ अत वा दीर्घतमः का रूप धारण कर लेता है, तो उस अहि का विष उन आपः को विषाक्त करते करते उनकी सारी दिव्यता नष्ट कर लेता है और ताजे दिव्य आपः को नहीं आने देता। इस प्रकार शाश्वत आपः दुःख के सागर का रूप धारण कर लेते हैं जिनसे पार पाने के लिए वृत्रवध, दिव्य आपः के रुके प्रवाह को प्रवाहित करना और इससे भी अधिक इंन्द्रजन्म या सूर्य (आत्मा) के दर्शन आवश्यक हैं। शाश्वत आपः जब अहिगोपा वा वृत्र की दासपत्नी बन जाती हैं, तो उनको पार करने के लिए मनुष्य को किसी वाह्यपुल की प्राप्ति नहीं हो सकती, अपितु इस निमित्त उसे अपने को ही स्वसेतु विप्र[35] बनना पडेगा। इसका अभिप्राय है कि ये आपः हमारी ही दूषित चित्त-वृत्तियां हैं, जिनसे ऊपर उठने के लिए हमें स्वयं ही प्रयत्न करना पड़ेगा। नदियों से संवाद इस प्रयत्न का एक चित्र विश्वामित्र – नदी संवाद ऋग्वेद ३.३३ में मिलता है। इस संवाद में विश्वामित्र ऐसे व्यक्ति का प्रतीक है, जो विश्वमैत्री का व्रती होने से भरतजनों की सहायता करने में दत्तचित्त है। स्वयं ऐसे व्यक्ति की मानसिक चेतना द्विधा होती है। प्रथम तो वह शु (चंचलता) का तोदन करने से शुतुद्रु संज्ञा ग्रहण करती है, दूसरे अहंबुद्धि की संकीर्णताओं का विपादन करने से विपाट् संज्ञा ग्रहण करती है। इन दोनों के युग्म को यहां विपाट्शुतुद्री कहा गया है के कल्याण के लिए, उनकी मनीषा को सिन्धु की ओर भेजना चाहता है, तो लहरों से प्रवृद्ध होती हुई और एक दूसरे से संयुक्त होती हुई इन्द्रप्रसव की भिक्षा मांगती हुई वे पाशरहित (विपाश), उर्वी और मातृतमा सिन्धु तक पहुंच जाती हैं, तो उसको ऐसे चाटने लगती हैं, जैसे माताएं अपने वत्स को।[36] पर वहां पहुंचकर जब विप्र विश्वामित्र अपने मन्तव्य के संकेतों को भरतजनों की चित्त वृत्तियां रूपी नदियों तक पहुंचाने में समर्थ होता है, तो वे कहती हैं कि ‘हम लोग तो पय से प्रवृद्ध होती हुई देवनिर्मित योनि की ओर जा रही हैं, पर यह विप्र क्या चाहता हुआ ‘नदियों’ कह कर हमारे सर्गतक्त प्रसव को रोकने के लिए (न वर्तवे) हमें संबोधित कर रहा है? यह सुन कर विश्वामित्र उनसे क्षण-भर सौम्य वचन सुनने हेतु रुकने के लिए कहता है और अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए बतलाता है कि हमारी जो बृहती मनीषा भरत-जनों के कल्याण के लिए सिन्धु की ओर जा रही हैं, उसमें मैं तुम्हारी सहायता का इच्छुक (अवस्युः) हूं। नदियों (भरतजन की चित्तवृत्तियों) को यह प्रस्ताव मान्य नहीं है। उनका कहना है, ‘इन्द्र ने नदियों के अवरोध की काटा, वृत्र को मारा, हमको बाहर निकाला और सविता देव हमें ले आया। इस प्रकार हम उसके जन्म पर, चौड़ी होकर जा रही हैं, इन्द्र ने जो अहि का वध किया उस वीरकर्म का हमें सदा (शश्वधा) बखान करना है। विश्वामित्र फिर भी आग्रह करता है कि वे उसके कहने को ठुकरायें नहीं। उसका कहना है, ‘हे बहिनों। इस कवि की बात सुनो। तुम बहुत दूर से गाड़ी वा रथ द्वारा चल कर आयी हो। इसके साथ ही वह भरतजनों से कहता है, ‘ओ आंखें नीची किये हुए सिन्धुजन (अधोअक्षाः सिन्धवः)। तुम अच्छी प्रकार नमस्कार करो और इन नदियों द्वारा (स्रोत्याभिः) ही तुम अच्छी तरह पार हो जाओ (भवता सुपाराः)। इस पर नदियां विश्वामित्र की बा त मान लेती हैं, अर्थात् भरतजनों की चित्तवृत्तियां शान्त हो जाती हैं और गवेषणा परायण होकर भरतजन उनको पार कर लेते हैं, विप्र को उन चित्तवृत्तियों की सुमति मिलती है और वह उनको आशीर्वाद देता है कि अब तुम सुराध को चाहती हुई खूब बढो। साथ ही वह कहता है कि ‘हे शमनीय आपः। तुम्हारी ऊर्मि ऊपर उठे, तुम (वृत्र के) जुओं को उतार फेंको, जिससे (भरतजन की) दूषित हुई दोनों गाएं (अहंबुद्धि और चंचलबुद्धि) सुख-शांति को नष्ट न करें। इस संवाद में शाश्वती आपः की सबसे बड़ी विशेषता सर्गतक्त प्रसव बतायी गई है। इसका उल्लेख दो बार हुआ है। सर्ग का अर्थ है सृष्टि और तक्त का अर्थ है पीड़ा (कृच्छ्र जीवन) को प्राप्त। अतः सर्गतक्त प्रसव से अभिप्राय जीवन की उन उपलब्धियों से है, जिन्हें सृष्टि में निहित स्वाभाविक दुःख कहा जा सकता है। विश्वामित्र भरत-जनों की चित्तवृत्तियों (शाश्वती आपः) से चाहता है कि वे इस पर रोक लगाने के लिए (न वर्तवे) ठहरें, पर वे नहीं ठहरती क्योंकि वे इसको अपना शाश्वत कर्तव्य मानती हैं। इस पर विश्वामित्र का कहना है कि यदि भरतजन इन शश्वती आपः को पार कर जाएं तो इसका अर्थ होगा कि पूरा ग्राम (भरत-जनों का समूह) इन्द्र प्रेरित गवेषक बन गया और तब सर्गतक्त प्रसव चले तो कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि सब नदियां चित्तवृत्तियां यज्ञियां हो जायेंगी और उनकी दुर्गति के स्थान पर सुगति मिल जायेगी-
यदङ्ग
त्वा
भरताः
संतरेयुर्गव्यन्ग्राम
इषित
इन्द्रजूतः
। जब तक यह सुमति नहीं आती, तब तक उनकी अहंबुद्धि और मन, पाप से दुष्कृत दो अघ्न्याओं (गायों) की तरह वृत्र (अघ) के जुए को अपने ऊपर लादे रहते हैं। इस कारण इन शश्वती आपः की वह ऊर्मि नहीं उठ पाती, जिसे सुमति कहा जा सकता है। इसलिए इनको शम्या (शमनीय) आपः कहा जाता है, जिनके शान्त और स्थिर होने पर ही दीर्घंतमः से मुक्ति मिलती है और पाप से दूषित अहंबुद्धि और मन सुख-शांति को नष्ट नहीं कर पाते। तभी इन आपः को पार करके सिन्धु (महत्, अहंपूर्व बुद्धि) तक पहुंचा जा सकता है। इसका उपाय इन शश्वतीः आपः को दुत्कारना वा दबाना नहीं, अपितु बहिन समझ कर उनको नमस्कार करके अधोअक्षा होना (आंखे नीची करना) है। दूसरे शब्दों में, दूषित चित्तवृत्तियों को दबाना या उनके लिए दुःखी होना कोई उपाय नहीं है, अपितु उनका आत्मीयतापूर्वक उदात्तीकरण करने और ध्यानस्थ होने के अभ्यास से ही उन्हें पार करके मातृतमा, उर्वी और विपाश सिन्धु तक पहुंचा जा सकता है और वहां से दिव्य आपः को लाया जा सकता है। राष्ट्रजन का संकेत : इस सिन्धुरूप में यहां राष्ट्रजन (भरताः) एवं राष्ट्रभूमि का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उसमें उसके स्थूल और सूक्ष्म दोनों पक्ष आ गये। राष्ट्र-जन का जो व्यष्टिगत ‘महत्’ नामक सूक्ष्म स्तर है, वही समाजिक समष्टि के सन्दर्भ में बृहत् बन कर उस निरन्तर वर्धमान ब्रह्माण्डीय तत्व का अंग बनता है, जिसका नाम ब्रह्म है। व्यष्टि की दृष्टि से जो महः अथवा महत् है, वही समष्टि के सन्दर्भ में बृहत् अथवा ब्रह्म है। एक व्यक्तिगत कर्म का स्रोत होता हुआ भी अप्रत्यक्ष रूप से समष्टिगत बृहत् में आत्मसात् होकर ब्रह्म की वर्धमानता में योग देता है, तो दूसरा समष्टिगत कार्यकलाप का मूलभूत तत्व होकर भी व्यष्टि के कार्यकलाप को प्रभावित करता है। इस प्रकार जिस असु या असृक् आत्मा को सप्त अश्वों द्वारा वहन किये जाने वाले एक चक्ररथ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है[37] , वही अब द्विबर्ह इन्द्र (ऋ ८.१५, २; १.१७६, ५) बन जाता है।[38] इसी दृष्टि से उसको द्विबन्धु अग्नि (ऋ १०.६१, १७)[39] कहा गया है और इन्द्र के राष्ट्र को द्विता (ऋ ४.४२, १)[40] कहा जाता है। इसका अभिप्राय यही है कि एक ही चेतना व्यष्टि और समष्टि के परिप्रेक्ष्य से दो भिन्न रूपों में काम कर रही है। आज के समाज शास्त्र की भाषा में इन दोनों को क्रमशः वैयक्तिक और सामाजिक चेतना कह सकते हैं। वही अग्नि की शक्ति रूपी यह सबर्दुघा धेनु है, जो व्यष्टि की दृष्टि से स्व कही जाती है, पर समष्टि की दृष्टि से अस्व (ऋ १०.६१, १७) बन जाती है, जिसको मित्रावरुण संयुक्त रूप से राष्ट्र के उन अनेक संयुक्त व्यापारों के रूप में प्रकट करते हैं, जिनको ज्येष्ठ वरूथ उक्थ (ऋ १०, ६१, १७) कहा जाता है। ये ही सब उन अनेक सामग्रियों और सेवाओं का रूप ग्रहण कर लेते हैं, जिनकी अपेक्षा समाज को होती है।इन ज्येष्ठ वरूथ उक्थ नामों से इन अनेक समाजापेक्षित सामग्रियों और सेवाओं का इस प्रकार निर्माण होता है, उसके सन्दर्भ में चेतना का एक नया रूप खड़ा हो जाता है, जिसका नाम है-अर्यमा। अर्यमा का अभिधेयार्थ है - अर्य का निर्माण करने वाला। अर्य को बनाने वाली अरमति नाम की बुद्धि है। ऊपर इन्द्र को एक स्थान पर आपः का आरित जार कहा गया है (ऋ. १०.१११.१०)। ‘आरित जार’ का अर्थ है, वह जार जो अपनी अनेक प्रियाओं से ऐसे संबद्ध हो, जैसे चक्रनाभि चक्र के अरों से संबद्ध होती है। इस प्रकार के सम्बन्ध के लिए जो व्यक्ति योग्य होता है, उसी को अर्य कहते हैं। अर्य बनने की मति को अर-मति कहते हैं और इस प्रकार, अर्यों का निर्माण करने वाले तत्व को अर्यमा नाम दिया गया है। सामाजिक संगठन के संवनन (इण्टीग्रेशन) के लिए यह अपरिहार्य है। अतः उक्त ज्येष्ठ, वरूथ उक्थों के माध्यम से मित्रावरुण द्वारा अर्यमा के प्रादुर्भाव का भी उल्लेख मिला है (ऋ १०, ६१, १७)। पर इन निर्मित अर्यों को एकत्र करने वाले चेतन का नाम वृषा अग्नि है, जिससे ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त (१०.१९१) में प्रार्थना की गई है कि वह पूर्ण संवनन वा संगमन के लिए सब अर्यों को एकत्र कर दे और उनके सभी वसुओं (उपर्युक्त उक्थों) को भी समाहृत कर दे। इस अग्नि का राष्ट्र-जन को आदेश है कि इस निमित्त तुम लोगों में एक साथ पारस्परिक गमनागमन, संभाषण और संज्ञान होना चाहिए, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार व्यष्टिगत विविध अंग-रूपी पूर्व देव संज्ञानपूर्वक एक दूसरे के निकट रहते हैं। उदञ्चनशीलता का प्रयोजन इस प्रकार व्यष्टिगत और समष्टिगत जीवन का जो समवेत निर्माण होता है, उसी की ओर हमारे वे प्राण उदञ्चनशील होते हैं, जिनको अहंकार रूपी अहि की दासता के कारण वेद में दासपत्नीः और अहिगोपाः कहा जाता है। वेद की भाषा में, इसी निर्माण को देवनिर्माण भी कह सकते हैं, क्योंकि इसके अन्तर्गत हमारा प्राण ज्ञानाग्नि अदेवत्व से वेदत्व अथवा अमृतत्व की ओर गमन करता है अथवा स्व को छोड़ कर अपनी उस केन्द्रीभूत (नाभि) सत्ता की ओर जाता है, जिस शिवत्वपूर्ण अवस्था को वह अशिव होने पर छोड़ दिया करता है।[41] इस प्रक्रिया द्वारा हमारे प्राणों को देव बनाने का जो कार्य होता है, उसमें सर्वप्रथम स्थान उन प्राणों का है, जो वृत्र द्वारा किये जाने वाले कर्तन-विकर्तन से ऊपर उठे हुए होते हैं। ये हमारे हिरण्ययकोश, आनन्दय कोश और विज्ञानमय कोश के त्रिविध अनुपम प्राण हैं, जो हमारे अन्नमय कोश रूपी पृथ्वी को तपस्वी बनाते हैं। इनके अतिरिक्त द्यावापृथिवी नामक हमारा चेतना-युग्म उस बृबूकं (उदकनाम) पुरीषं (उदकनाम) को बहा ले जाता है, जो वृत्र के कर्तन-विकर्तन क्रिया के द्वारा दूषित हो चुका था-
देवानां
माने
प्रथमा
अतिष्ठन्कृन्तत्रादेषामुपरा
उदायन्
। इसके साथ ही इन्द्र (आत्मा) से प्रार्थना है कि वह उस स्वः (उदकनाम) नामक ज्योति को अभिव्यक्त करे तथा प्राणोदक को छिपा दे।[42] यही स्वः वह सु है, जिसके खनन में प्रयत्नशील होने वाले प्राणोदक को ‘सुखं’ कहा जा सकता है और इसी ‘सुख’ नामक रथ पर विराजमान आत्मा को ‘सुखरथ’ कहा जाता है। यही वह स्थिर सुखरथ है, जिस पर अधिष्ठित होकर इन्द्र सोम को प्राप्त करता है।[43] अपने इस सुखरथ को मरुद्गण ‘शुभ’ नामक प्राणोदक में प्रयुक्त करते हैं।[44] इसी शुभ में विश्वरूप मरुद् देव समानं ‘कम्’ (उदकनाम और सुखनाम) कहे जाने वाले आभूषण को धारण करते हैं अथवा अग्निरूप विश्ववेद मरुत् परस्पर सम्मिलित गणबद्ध होते हैं। हिरण्यय ‘कम्’ का निर्माण इसी शुभ में राजा वरुण द्वारा किया जाता है और इसी में तीनों द्यौ और भूमियां निहित मानी जाती हैं। इसका अभिप्राय यह है कि यह शुभ नामक प्राणोदक हिरण्यय कोश की ज्योति का द्योतक है, जिसमें देवी त्रिलोकी के तीनों लोक और मानुषी त्रिलोकी के तीनों लोक निहित माने गए हैं। दूसरे शब्दों में, यह वह सत्यलोक अथवा परमब्रह्म लोक है जिससे सम्पृक्त होकर साधक का आत्मा अपने व्यष्टिगत सभी कोशों की चेतना शक्ति को केन्द्रभूत कर लेता है। अतः जातवेदा अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि ‘तुम’ हमारी रक्षा करो’ और हे प्रचेतस। मित्रों सहित हमारे लिए शुभ (उदकनाम) में अमृतत्व प्राप्त हो।
नैतावदन्ये
मरुतो
यथेमे
भ्राजन्ते
रुक्मैरायुधैस्तनूभिः
।
प्र
यन्तु
वाजास्तविषीभिरग्नयः
शुभे
सम्मिश्लाः
पृषतीरयुक्षत
।
तिस्रो
द्यावो
निहिता
अन्तरस्मिन्तिस्रो
भूमीरुपराः
षड्विधानाः
। शुभं और सुखं इस सब का अर्थ यह है कि भू, भुवः, स्वः जन, तपः और सत्यं नामक जो सात लोक सुप्रसिद्ध हैं, उनमें अन्तिम जो सातवां लोक है, वही शुभ नामक प्राणोदक माना गया है। यह ब्रह्मात्म सायुज्य का स्तर है, जिसको ‘सधमादम्’ (सह माद्यन्ते यत्र) नाम दिया गया है, क्योंकि यहां आत्मा और परमात्मा एक साथ होकर आनन्द मनाते हैं। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए साधक को ब्रह्मसाधना द्वारा ऊर्ध्वमुखी और अधोमुखी चेतनायुग्म रूपी उन आशु हरिद्वय को युक्त करना पड़ता है, जो स्वयं ब्रह्म से जुड़े हुए हैं।[45] परन्तु इस स्थिति तक पहुंचने के लिए एक अन्य त्रिचक्र सुखरथ को तैयार करना पड़ता है, जिसको ‘ज्येतिष्मन्तं केतुमन्तं कहा जाता है और जिसका आह्वान अतिरिक्त सोमपान के लिए किया जाता है।[46] निस्सन्देह, यह त्रिचक्र रथ स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में विद्यमान चेतना रथ है जिसको ब्रह्मसाधना द्वारा ज्योतिर्मय बनाया जाता है और जिस अतिरिक्त सोमपान का यहां संकेत दिया गया है, उससे वह सप्तम (सत्य) लोक का आनन्द अभिप्रेत है, जो उक्त तीन देवों से परे ब्रह्मात्म-सायुज्य का सूचक है। अन्यत्र, इस सुखरथ को चारों ओर गतिशील होने वाला कहा गया है, जिसको नासत्या (अश्विनौ) नामक चेतनायुग्म द्वारा बनाया जाता है और संभवतः इसी को एक ‘सबर्दुघा धेनु’ के रूप में परिणत किया जाता है।[47] इस सबर्दुघों की तुलना कामधेनु से की जा सकती है, जो अमृतपर्यन्त सब कुछ देने वाली कही जाती है। अतः उक्त सुखरथ को इस धेनु में परिणत करने का तात्पर्य यह हो सकता है कि उक्त त्रिचक्ररथ की चेतना को वह उत्तम रूप प्रदान किया जाये, जो ब्रह्मात्मसायुज्य की अवस्था में प्राप्त होता है। यही वह सुखतमरथ है, जिसमें बैठकर इन्द्र दैवी त्रिलोकी रूप परावत और मानुषी त्रिलोकी रूप अर्वावत के बीच आने के लिए आमन्त्रित किया जाता है।[48] यही वह सुखतम रथ है, जिसमें सब देवों को लाने के लिए अग्नि से प्रार्थना की जाती है।[49] इस रथ पर आरूढ़ परमात्मा रूप इन्द्र को सर्वथा अदृश्य माना जाता है। इसलिए एक मन्त्र में कहा गया है कि इस रथ का वीर कहां गया? किसने उस इन्द्र को देखा, जो सुखरथ के द्वारा ले जाया जाता है।[50] सतीन का अर्थ इस अदृश्य परमात्मा रूप इन्द्र की तुलना उस सतीनमन्यु[51] और सतीनसत्वा[52] इन्द्र से कर सकते हैं जिसके साथ सतीन (उदकनाम) विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। यदि इस सतीन शब्द का अर्थ सामान्य जल किया जाये तो उससे किसी भी सुसंगत अर्थ की उपलब्धि नहीं होती। वास्तव में सतीन शब्द का यौगिक अर्थ सती का इनः (स्वामी) है और सती सच्चिदानन्द परमात्मा की वह शक्ति है, जो सत् और असत् के द्वन्द्व से परे है। उसी शक्ति का स्वामी होने वाला प्राणोदक सतीन समझा जाना चाहिए। उपर्युक्त सन्दर्भों में सतीन शब्द को समझने में विघ्नोपनिषद् कहे जाने वाले सूक्त ऋग्वेद १.१९१ से सहायता मिल सकती है। इसका प्रथम मन्त्र इस प्रकार है- कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः ।द्वाविति प्लुषी इति न्यदृष्टा अलिप्सत ॥ यहां गत्यर्थक कङ्क (ककि) से निष्पन्न ‘कङ्कतः शब्द अस्+ अत् से निष्पन्न असत् का बोधक है। इसके विपरीत ‘न कङ्कतः’ कह कर अस् धातु से निष्पन्न सत् शब्द की ओर संकेत किया गया है। इन दोनों के अतिरिक्त ‘सतीन कंङ्कतः’ शब्द उस अवस्था का द्योतक हो सकता है, जिसकी ओर सत् और असत् दोनों एक दूसरे के पूरक होने से पूरणार्थक प्लुष धातु से निष्पन्न प्लुषी कहे गये हैं, परन्तु एक ऐसी भी अवस्था है, जिसमें ये तीनों विशेषरूप से अदृष्ट होकर एक दूसरे की लिप्सा रखते हैं। द्वन्द्वातीत अवस्था से अवरोहण करने वाली (आयती) चेतना और नीचे से आरोहण करने वाली चेतना अदृष्ट शत्रुओं को नष्ट कर देती है और उनके द्वारा लायी गई जो द्वन्द्वातीत चेतना है वह उन शत्रुओं को पीस डालती है ।[53] परन्तु इन शत्रुओं का सामना करने के लिए वे ज्ञानशक्तियां रूपी गायें भी एकत्र हो जाती हैं और शत्रु की खोज (मार्गण) करने वाली शक्तियां भी पूर्णरूप से प्रविष्ट हो जाती हैं[54] और इस प्रकार शत्रु विरोधी शक्तियों की ध्वजाएं अदृष्ट रूप में पूर्णरूपेण एकत्र हो जाती हैं।[55] ये सब विश्वदृष्टा अदृष्ट रहते हुए प्रतिबुद्ध हो जाते हैं और उन शत्रुओं को उसी प्रकार देखते हैं, जिस प्रकार तस्कर सायंकाल को देखते हैं।[56] इन सब शत्रुविरोधी दिव्यशक्तियों में द्यौ पिता है, पृथ्वी माता, सोम भ्राता और अदिति स्वसा है। ये सभी विश्वदृष्टा अदृष्ट रहते हुए सुन्दर (सु) कम् (उदकनाम) का ईडन (पूजन) करने लगते हैं।[57] इसके परिणामस्वरूप मनुष्यव्यक्तित्व के विविध अंगों में गतिशील सभी शत्रु अदृष्ट रूप में सब एक साथ पूर्णरूप से नष्ट हो जाते हैं।[58] इस प्रकार अदृष्ट शत्रुओं को नष्ट करने वाला विश्वदृष्टा आत्मा रूपी सूर्य सभी यातुधानियों और सभी अदृष्ट शत्रुओं का हनन करता हुआ सामने प्रकट हो जाता है[59] । इस रूप में जो मनुष्यव्यक्तित्व सुरा (उदकनाम) से युक्त था, उसमें स्थित विष और उसकी धारक दृति को सूर्य में समर्पित कर दिया जाता है और इस प्रकार व्यक्ति मृत्यु के भय से दूर हो जाता है, क्योंकि उसके लिए ‘मधुला’ नामक चेतना उस मधु को ले जाती है, जो उसके लिए योग (योजनं) का काम करता है।[60] यह मधुला निस्सन्देह वही द्वन्द्वातीत शक्ति है, जो ब्रह्मानन्द रूप मधु अथवा पूर्वोक्त ‘सु कम्’ को लाकर व्यष्टिगत विष अथवा असुर समूह को नष्ट करने का योग (नुस्खा) प्रस्तुत करती है। सुवेदना, अर्ण और सिरा इस दृष्टि से सतीन नामक द्वान्द्वातीत प्राणोदक मनुष्यव्यक्तित्व के सभी रोगों की चिकित्सा प्रस्तुत करता है, अतः कोई आश्चर्य नहीं कि सतीन प्राणोदक से युक्त मन्यु अथवा सत्व को धारण करने वाले आत्मा रूप इन्द्र को महान् द्यौ और पृथिवी का ऐसा सम्राट् कहा जाये, जो आनन्दवृष्टि करने वाले मरुत नामक प्राणों से युक्त होकर वृषा कहा जाता है।[61] अथवा उससे याचना की जाती है कि जो चेतना अहंकार रूपी वृत्र के दासत्व काल में एक अभेद्य पहाड़ (अद्रि) बनी हुई थी, उसे एक ‘सुवेदना’ रूपी गाय में परिणत कर दे।[62] यह अभेद्य पर्वत जब उक्त गाय के रूप में परिणत होता है, तो उसकी तुलना उस सरस्वती नामक चेतना से की जा सकती है, जो बुद्धियों को प्रकृष्ट चेतना देने वाली ‘महो अर्णः’ (अर्णः उदकनाम) कही जाती है।[63] इसी महो अर्णः का एक रूपान्तर ‘सर्णीकम्[64] प्रतीत होता है। यही उस ‘सिरा’ शब्द के मूल में देखा जा सकता है, जिसे निघण्टु के उदकनामों में सम्मिलित किया गया है। ऋग्वेद १.१२१, ११[65] में बहुवचनान्त ‘सिरासु’ शब्द उन आपः के लिए प्रयुक्त है, जिनमें सोते हुए वृत्र पर इन्द्र वज्र का प्रहार करता है। वृत्र जिन आपः में शयन करता है, वे ऐसे प्राणोदक हैं, जो केवल निम्नगामी होते हैं, ऊर्ध्वगामी नहीं, न वे कल्याण करने वाले हैं और न सोम का अभिषवण करने वाले, अपितु वे ऐसे प्राणोदक हैं, जिनके तन्त्र को अज्ञानी अपनी पापबुद्धि के कारण फैलाया करते हैं।[66] यही वह पापजन्य कृपीट नामक प्राणोदक है जिसको दग्ध करने की आवश्यकता होती है और जिस निमित्त देवलोग नाना प्रकार के आयुधों से सुसज्जित होकर तथा वनों (उदकनामों) को काटते हुए अपनी प्रज्ञाओं के साथ आते हैं।[67] इसी दृष्टि से आयुधानि को भी उदकनामों में सम्मिलित किया गया है। आयुधानि इस आयुधानि की कल्पना के मूल में वे प्रकाश धारायें हैं जो दीर्घंतमः कहे जाने वाले वृत्र को नष्ट करने वाली हैं। ऋग्वेद १.९२.१ में इन्हीं प्रकाश धाराओं को माताओं और अरुषी गायों के रूप में कल्पित किया गया है, जो उषाकाल में आयुधों के समान निकलती हुई बतायी गई हैं।[68] इन्हीं आयुधों को लेकर भयंकर इन्द्र शत्रु के पुरों को नष्ट करता हुआ और अनेक पौरुष कर्म करता हुआ और जानता हुआ आता है।[69] इन्हीं आयुधों के विस्तार के लिए रुद्र को नमस्कार किया जाता है।[70] ये सात्विक शक्तियों के आयुध हैं, जिनको बुद्धियों के द्वारा अभिव्यक्त और प्रोत्साहित किया जाता है ओर फिर मित्रों के द्वारा अमित्रों का नाश किया जाता है।[71] अतः वृत्रहन् इन्द्र से प्रार्थना है कि हे मघवन्! मेरी इन सात्विक शक्तियों के मानसिक आयुधों को प्रोत्साहित करो, जिससे कि सर्वत्र जयघोष सुनाई पड़े।[72] इन आयुधों को धारण करते हुए कोई ऊर्ध्वगन्धर्व उस नाम (उदकनाम) को उत्पन्न करता है, जो स्वः के समान ‘कम्’ (उदकनाम) कहलाता है।[73] इन्दु देव (सोम) एकाएक इन्द्र से युक्त जायमान होता हुआ पणि को नष्ट कर देता है और अपने पिता के आयुध लेकर अशिव (पणियों की मायाओं) को दूर कर देता है। जब इन्द्र दस्यु की हत्या करता है, तो शत्रु की जो दासपत्नी कही जाने वाली स्त्रियां (आपः) होती हैं, वे ही उसके आयुध रूप होती हैं, परन्तु इस अबला सेना से वह भला क्या कर सकता है।[74] क्योंकि इन्द्र अमृतरूप तनु को धारण किये हुए हाथी अथवा सिंह के समान भयंकर आयुधों को धारण किये हुए अपने बल को प्रकट करता हुआ आता है।[75] इसी प्रकार के ज्योतिर्मय आयुधों से युक्त अन्न (पाथः) को ध्वस्मन्वत् (उदकनाम) कहा गया है।[76] जिसे अग्नि तक सम्यक् रूपेण पहुंचाने की पार्थना की गई है। ध्वस्मन्वत् का अर्थ सायण ने ध्वस्तदोषं किया है। अतः इस मन्त्र में जिसको ध्वस्मन्वत् पाथः कहा गया है, उसे हम दोषरहित अन्न नामक प्राणोदक कह सकते हैं। धरुणं, यहः, शवः पूर्णरूपेण निर्दोष प्राणोदक को ही हम पहले ‘स्वः’ नामक ज्योति कह चुके हैं, जिसे ऋग्वेद में वह ‘धरुणम् अच्युतं रजः’ कहा गया है, जिसमें स्थित होकर वह वृत्रवध करके आपः के अर्णव को बाहर निकालता है। साथ ही इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वह अपने ओज के द्वारा उस धरुणं को द्युलोक से पृथिवी में सदनों में धारण करे, जिससे वह अभिषुत सोम के मद में वृत्र से आपः को छीन ले।[77] इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि ‘धरुण’ नामक प्राणोदक वस्तुतः सोम है, जिससे युक्त होकर इन्द्र के सारे पौरुष संभव होते हैं। इस संभावना की पुष्टि इस बात से भी होती है कि स्वयं सोम को दिव्यऊधस् का प्रिय प्रत्न मधु’ और ‘आपृच्छयं धरुणं’ कहा गया है।[78] ऋग्वेद ८.७२, १५ में इसी को द्युलोक का धरुण कहते हुए इन्द्र तथा अग्नि में स्थित स्वः बतलाया गया है।[79] ऋ १०.८३, ७ में यही वृत्रघ्न मन्यु का ‘मध्वः धरुणं’ कहा जाता है, तो इसे सोम का ही धारक आधार माना जा सकता है।[80] अतः कोई आश्चर्य नहीं कि इसे द्यौ का धारण करने वाला स्तम्भ माना जाय।[81] इस धरुण का इन्द्र के उस ‘शवस्’ से भी सम्बन्ध प्रतीत होता है, जो स्वयं निघण्टु के उदकनामों में परिगणित है।[82] इन्द्र का यह शवस् नामक प्राणोदक द्यौ के समान फैला हुआ है।[83] वह दो प्रकार का है, जिसके द्वारा एक तो ऊपर की ओर विज्ञान गिराओं का विस्तार होता है और दूसरे के द्वारा काष्ठाओं का विस्तार होता है।[84] ‘सुदानवः मरुतः’ इन्द्र के पूर्ण ओज को धारण करते हैं, जबकि ‘धूतयः मरुतः’ उसके पूर्ण शवस् को धारण करते हैं[85], क्योंकि ओज और शवः दोनों ही उदकनामों में परिगणित हैं, इसलिए यह भी संभव हो सकता है कि प्राणोदक के इन्हीं दोनों रूपों को पहले इन्द्र का द्विविध शवस् कहा गया हो। इसी प्रकार शवः के साथ जिस सहः का उल्लेख है, वह भी उदकनामों में सम्मिलित होने से एक प्रकार का प्राणोदक ही सिद्ध होता है। सहः से वही नभ नामक प्राणोदक अभिप्रेत है, जो सनातन आपः के नव्य प्रवाहों का सामूहिक रूप है और जिसके द्वारा प्राणियों को विनाश से बचाने के लिए इन्द्र अदेवीः (आसुरी) पुरों का भेदन करता है। आपः के इसी सहः के द्वारा इन्द्र आसुरी शक्तियों के निन्यानवें आवासों को नष्ट करता है।[86] इन्द्र का जो सत् नामक प्राणोदक है, वही सहिष्ठ सहः है, उग्र से भी उग्र है, तवस् (बल) से तवीय है।[87] सहः नामक प्राणोदक के इस वर्णन का कारण यह हो सकता है, कि आपः के जिस नव्य प्रवाहों का वह सामूहिक रूप है, वह वृत्र द्वारा जनित आध्यात्मिक मरूभूमि में एक ऐसे स्रोत (उदकनाम) को उत्पन्न करता है, जो शुक्र ऊर्मियों द्वारा स्थूल अन्नमय कोश रूपी पृथिवी में गतिशील हो जाता है तथा आन्तरिक प्रदेशों में भी विचरण करने लगता है।[88] इसी स्रोत के द्वारा इन्द्र शुष्ण के दृढ़ पुरों को नष्ट करता है।[89] इसी दृष्टि से इन स्रोतों को स्पष्टतः दिव्य आपः[90] कहा गया है। ये ही वे सप्त ‘आपो देवीः’ हैं, जिनके द्वारा पूर्भित् इन्द्र सिन्धु को अवतीर्ण करने में समर्थ होता है, साथ ही वह देवों और मनु के लिए निन्यानवें प्रवाहों को गातु (योगमार्ग) के रूप में परिणत कर देता है।[91] जब तक इनको गातु रूप नहीं मिलता, तब तक ये निन्यानवें प्रवाह ‘सुपाराः’ नहीं होते, इसीलिए इन प्रवाहों को स्वसारः कह कर सम्बोधित करता हुआ ऋषि इनसे सुपाराः होने की प्रार्थना करता है।[92] क्या सभी उदकनाम संज्ञाएं हैं? उदकनामों की उपर्युक्त व्याख्या में एक विशेष बात यह दिखायी दी कि इनमें से बहुत से नाम मूलतः प्राणोदक के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए होंगे, जिन्हें कालान्तर में संज्ञा मान लिया गया। शुभं, नभः, महः, महत् आदि ऐसे अनेक शब्द गिनाये जा सकते हैं। जो शब्द स्पष्टतः संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हुए हैं, उनमें से भी कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका नामकरण प्राणोदक की किसी न किसी विशेषता के कारण हुआ है। उदाहरणार्थ क्षपः शब्द है, जिसका प्रयोग वैदिक मन्त्रों में अनेक बार हुआ है। प्रेरणार्थक अथवा संयमार्थक क्षप् धातु से निप्पन्न क्षपः शब्द उस प्रेरणा या संयम का बोधक है, जो दिव्य प्राणों के उदय होने पर साधक को प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.६४,८[93] में मरुतों को अपने शवस द्वारा जिस क्षपः को प्रेरित करने वाला कहा गया है, उसे संयम के अर्थ में लेना उचित प्रतीत हेाता है। इसी प्रकार जिन विभिन्न उदयों में सविता, उषा, अश्विनौ, भग और अग्नि के साथ क्षपः को गिनाया गया है, उसे भी संयम के अर्थ में ही ग्रहण करना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।[94] जब महान् उषाओं के प्रिय क्षपः के रूप में अग्नि का उल्लेख होता है, तो भी ज्ञानाग्नि जनित संयम से ही अभिप्राय हो सकता है जिस क्षपः की रक्षा करने वाले वाजिनीवसु अश्विनौ कहे गये हैं, उसे संयम जैसी किसी संज्ञा के अर्थ में ग्रहण करके ही संगति बैठायी जा सकती है।[95] संयम की इस अवस्था या चेतना का नाम ही वह ‘क्षपः’ है, जिसे प्रायः रात्रि के अर्थ में भाष्यकारों ने ग्रहण किया है। क्षपः को आच्छादित करने वाला तथा सूर्य को विभक्त करने वाला इन्द्र[96] जब बुद्धि के समान (छिपणेव) किसी भाग या बल को देने वाला कहा जाता है, तो भी सूर्य को ज्ञानरूप सूर्य के अर्थ में ग्रहण करके उसके विभाजन द्वारा उत्पन्न संयम चेतना को क्षपः कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। उदकनामों में परिगणित ‘तृप्तिः’ शब्द भी स्पष्टतः भाववाचक संज्ञा है, परन्तु इसका प्रयोग जब ऋग्वेद में ९.११३,१०[97] में स्वधा, अमृतं और इन्दुः जैसे उदकनामों के साथ होता है, तो यही स्वीकार करना पड़ता है कि यहां तृप्ति से अभिप्राय उस सन्तुष्टि से होगा, जो ब्रह्मानन्द रस रूपी इन्दु के परिस्रवण से संभव होती है। यही बात उस समय लागू होती है, जब इन्द्र से प्रार्थना की जाती है कि वह सोम को ग्रहण करके पीति और तृप्ति को प्राप्त करे।[98] उदकनामों में पठित ‘तूयं’ ओर ‘तोयं’ का समावेश निघण्टु के क्षिप्रनामों में भी किया गया है। ये दोनों शब्द संभवतः गति, बुद्धि और हिंसार्थक ‘तु’ धातु से निष्पन्न किये जा सकते हैं। अतः जो प्राणोदक गति अथवा बुद्धि के आधिक्य से युक्त हो, उसको तूयं अथवा तोयं कहा जाना उचित होगा। ऋ ३.४३,३[99] और ऋ ७.२९,२[100] में एक ऐसे यज्ञ का उल्लेख है, जिसको ‘तूयं’ तथा ‘मधूनां सधमादं’ कहा गया है। इससे यह संकेत मिलता है कि जब सोम नामक प्राणोदक से संपन्न होने वाला यज्ञकर्म बहुत तीव्रता को प्राप्त होता है, तो उसका नाम ‘तूयं’ होगा। यह अर्थ तभी बोधगम्य हो सकता है जब हम सोमयज्ञ को आध्यात्मिक अर्थ में ग्रहण करें और सोम को आत्मा रूपी इन्द्र का ‘युज्यः सखा’[101] मानते हुए ब्रह्मानन्द रस रूपी सोम को ‘सर्वाः देवताः’[102] स्वीकार करें। यज्ञ से संबंधित प्रसंग में प्रयुक्त होने वाला ‘आवयाः’ शब्द भी एक ऐसा उदकनाम है, जिसका अर्थ सायण ने ‘आभिमुख्येन गमयिता’ किया है।[103] एक दूसरे स्थान पर सोम को अभिषुत होने पर इन्द्र से ‘भूरि आवयः’ होने की प्रार्थना की गई है।[104] इन प्रसंगों में ‘आवयाः’ शब्द को ‘आ समन्तात् गमयिता’ अर्थ में ग्रहण करके उसे प्राणोदक के चतुदिक् गतिशील होने का बोधक भी माना जा सकता है। अतएव उदकनामों की उदञ्चनशीलता के प्रयोजन, आकार-प्रकार तथा परिणाम आदि के सन्दर्भ में प्राणोदक की जो विशेषताएं दिखायी पड़ी, उन्हीं से प्रेरित होकर ही अनेक विशेषणों अथवा संज्ञाओं की सृष्टि हुई प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में एक सौ एक उदकनामों में से प्रायः सभी नामों की सार्थकता और सुसंगति सिद्ध की जा सकती है, परन्तु यह तभी संभव है जब ब्राह्मण ग्रन्थों के ‘प्राणा वा आपः’ जैसे उक्ति को स्वीकार करें और अग्नि, इन्द्र, सोम आदि देवों को प्राणरूप में स्वीकार करें। इस प्रसंग को हम ‘उपसंहार’ में अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में समर्थ होंगे।
[1] अनृतं ह्य् अब्रवीत्, स एष श्वित्रो ऽभवत्। एते ह वा अहयो यच् छ्वित्राः। यद् अहीयत तद् अहीनाम् अहित्वम्। जैब्रा ३.७७
[2]अपादहस्तो
अपृतन्यदिन्द्रमास्य
वज्रमधि
सानौ
जघान
।
अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां
काष्ठानां
मध्ये
निहितं
शरीरम्
। [3] देखिए पंचम अध्याय पृ.सं. १८
[4]
अपो
महीरभिशस्तेरमुञ्चोऽजागरास्वधि
देव
एकः
।
[5]अहं
पुरो
मन्दसानो
व्यैरं
नव
साकं
नवतीः
शम्बरस्य
।
[6]
या
सृष्टिः
स्रष्टुराद्या
वहति
विधिहुतं
या
हविर्या
च
होत्री
[7]
समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ
उदारदुपांशुना
सममृतत्वमानट्
।
[8]
यत्र
ब्रह्मा
पवमान
छन्दस्यां
वाचं
वदन्
।
[9]
य
ईं
चिकेत
गुहा
भवन्तमा
यः
ससाद
धारामृतस्य
॥७॥
[10]
उदु
ष्य
देवः
सविता
ययाम
हिरण्ययीममतिं
यामशिश्रेत्
।
[11]
स्वश्वा
सिन्धुः
सुरथा
सुवासा
हिरण्ययी
सुकृता
वाजिनीवती
।
[12]
दिवक्षसो
धेनवो
वृष्णो
अश्वा
देवीरा
तस्थौ
मधुमद्वहन्तीः
।
[13]
महि
ज्योतिर्निहितं
वक्षणास्वामा
पक्वं
चरति
बिभ्रती
गौः
।
[14]
स
जातेभिर्वृत्रहा
सेदु
हव्यैरुदुस्रिया
असृजदिन्द्रो
अर्कैः
।
[15]
इदमु
त्यन्महि
महामनीकं
यदुस्रिया
सचत
पूर्व्यं
गौः
।
[16]
इन्द्रा
युवं
वरुणा
भूतमस्या
धियः
प्रेतारा
वृषभेव
धेनोः
।
[17]
आ
यातु
मित्र
ऋतुभिः
कल्पमानः
संवेशयन्
पृथिवीमुस्रियाभिः
।
[18]को
नु
गौः
क
एकऋषिः
किमु
धाम
का
आशिषः
।
[19]सोदक्रामत्साहवनीये
न्यक्रामत्।
[20]
माता
रुद्राणां
दुहिता
वसूनां
स्वसादित्यानाममृतस्य
नाभिः
।
[22]
मन्द्रं
होतारमुशिजो
यविष्ठमग्निं
विश
ईळते
अध्वरेषु
।
[23]मनीषिणः
प्र
भरध्वं
मनीषां
यथायथा
मतयः
सन्ति
नृणाम्
।
[24]
ऋतस्य
हि
सदसो
धीतिरद्यौत्सं
गार्ष्टेयो
वृषभो
गोभिरानट्
।
[25]
इन्द्रः
किल
श्रुत्या
अस्य
वेद
स
हि
जिष्णुः
पथिकृत्सूर्याय
।
[26]
इन्द्रो
मह्ना
महतो
अर्णवस्य
व्रतामिनादङ्गिरोभिर्गृणानः
।
[27]
वज्रेण
हि
वृत्रहा
वृत्रमस्तरदेवस्य
शूशुवानस्य
मायाः
।
[28]सचन्त
यदुषसः
सूर्येण
चित्रामस्य
केतवो
रामविन्दन्
।
[29]
दूरं
किल
प्रथमा
जग्मुरासामिन्द्रस्य
याः
प्रसवे
सस्रुरापः
।
[30]सध्रीचीः
सिन्धुमुशतीरिवायन्सनाज्जार
आरितः
पूर्भिदासाम्
।
[31]
सप्त
मर्यादाः
कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो
गात्
।
[32]
सूर्ये
विषमा
सजामि
दृतिं
सुरावतो
गृहे
।
[33]
समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ
उदारदुपांशुना
सममृतत्वमानट्
।
[34]
मा
नो
अज्ञाता
वृजना
दुराध्यो
माशिवासो
अव
क्रमुः
।
[35]
इयं
मे
नाभिरिह
मे
सधस्थमिमे
मे
देवा
अयमस्मि
सर्वः
।
[36]
प्र
पर्वतानामुशती
उपस्थादश्वे
इव
विषिते
हासमाने
।
[37]सप्त
युञ्जन्ति
रथमेकचक्रमेको
अश्वो
वहति
सप्तनामा
।
[38]
यस्य
द्विबर्हसो
बृहत्सहो
दाधार
रोदसी
।
आवो
यस्य
द्विबर्हसोऽर्केषु
सानुषगसत्
।
[39]
स
द्विबन्धुर्वैतरणो
यष्टा
सबर्धुं
धेनुमस्वं
दुहध्यै
।
[40]
मम
द्विता
राष्ट्रं
क्षत्रियस्य
विश्वायोर्विश्वे
अमृता
यथा
नः
।
[41]
अदेवाद्देवः
प्रचता
गुहा
यन्प्रपश्यमानो
अमृतत्वमेमि
।
[42]
सा
ते
जीवातुरुत
तस्य
विद्धि
मा
स्मैतादृगप
गूहः
समर्ये
।
[43]
ब्रह्मणा
ते
ब्रह्मयुजा
युनज्मि
हरी
सखाया
सधमाद
आशू
।
[44]
रथं
युञ्जते
मरुतः
शुभे
सुखं
शूरो
न
मित्रावरुणा
गविष्टिषु
।
[45]
ब्रह्मणा
ते
ब्रह्मयुजा
युनज्मि
हरी
सखाया
सधमाद
आशू
।
[46]ज्योतिष्मन्तं
केतुमन्तं
त्रिचक्रं
सुखं
रथं
सुषदं
भूरिवारम्
।
[50]
क्व
स्य
वीरः
को
अपश्यदिन्द्रं
सुखरथमीयमानं
हरिभ्याम्
।
[51]
प्र
त
इन्द्र
पूर्व्याणि
प्र
नूनं
वीर्या
वोचं
प्रथमा
कृतानि
।
[52]स
यो
वृषा
वृष्ण्येभिः
समोका
महो
दिवः
पृथिव्याश्च
सम्राट्
।
[57]
द्यौर्वः
पिता
पृथिवी
माता
सोमो
भ्रातादितिः
स्वसा
।
[59]उत्पुरस्तात्सूर्य
एति
विश्वदृष्टो
अदृष्टहा
।
[60]
सूर्ये
विषमा
सजामि
दृतिं
सुरावतो
गृहे
।
[61]
स
यो
वृषा
वृष्ण्येभिः
समोका
महो
दिवः
पृथिव्याश्च
सम्राट्
।
[62]
प्र
त
इन्द्र
पूर्व्याणि
प्र
नूनं
वीर्या
वोचं
प्रथमा
कृतानि
।
[65]
अनु
त्वा
मही
पाजसी
अचक्रे
द्यावाक्षामा
मदतामिन्द्र
कर्मन्
।
[66]
इमे
ये
नार्वाङ्न
परश्चरन्ति
न
ब्राह्मणासो
न
सुतेकरासः
।
[67]
देवास
आयन्परशूँरबिभ्रन्वना
वृश्चन्तो
अभि
विड्भिरायन्
।
[68]एता
उ
त्या
उषसः
केतुमक्रत
पूर्वे
अर्धे
रजसो
भानुमञ्जते
।
[69]
भीमो
विवेषायुधेभिरेषामपांसि
विश्वा
नर्याणि
विद्वान्
।
[71]
धीभिः
कृतः
प्र
वदाति
वाचमुद्धर्षय
सत्वनामायुधानि
।
[72]उद्
धर्षय
मघवन्न्
आयुधान्य्
उत्
सत्वनां
मामकानां
मनाꣳसि
।
[73]
ऊर्ध्वो
गन्धर्वो
अधि
नाके
अस्थात्प्रत्यङ्चित्रा
बिभ्रदस्यायुधानि
।
[74]स्त्रियो
हि
दास
आयुधानि
चक्रे
किं
मा
करन्नबला
अस्य
सेनाः
।
[75]
सूर
उपाके
तन्वं
दधानो
वि
यत्ते
चेत्यमृतस्य
वर्पः
।
[76]त्वमग्ने
वनुष्यतो
नि
पाहि
त्वमु
नः
सहसावन्नवद्यात्
।
[77]
वि
यत्तिरो
धरुणमच्युतं
रजोऽतिष्ठिपो
दिव
आतासु
बर्हणा
।
[78]
दुहान
ऊधर्दिव्यं
मधु
प्रियं
प्रत्नं
सधस्थमासदत्
।
[80]
अभि
प्रेहि
दक्षिणतो
भवा
मेऽधा
वृत्राणि
जङ्घनाव
भूरि
। [81] १.१८१.२
[82]वाजो
नु
ते
शवसस्पात्वन्तमुरुं
दोघं
धरुणं
देव
रायः
।
[84]स्थिरं
हि
जानमेषां
वयो
मातुर्निरेतवे
।
[85]असाम्योजो
बिभृथा
सुदानवोऽसामि
धूतयः
शवः
।
[86]
अहं
सप्तहा
नहुषो
नहुष्टरः
प्राश्रावयं
शवसा
तुर्वशं
यदुम्
।
[87]
सदिद्धि
ते
तुविजातस्य
मन्ये
सहः
सहिष्ठ
तुरतस्तुरस्य
।
[88]
धन्वन्स्रोतः
कृणुते
गातुमूर्मिं
शुक्रैरूर्मिभिरभि
नक्षति
क्षाम्
।
[89]मन्दिष्ट
यदुशने
काव्ये
सचाँ
इन्द्रो
वङ्कू
वङ्कुतराधि
तिष्ठति
।
[91]
सप्तापो
देवीः
सुरणा
अमृक्ता
याभिः
सिन्धुमतर
इन्द्र
पूर्भित्
।
[92]
ओ
षु
स्वसारः
कारवे
शृणोत
ययौ
वो
दूरादनसा
रथेन
।
[93]
सिंहा
इव
नानदति
प्रचेतसः
पिशा
इव
सुपिशो
विश्ववेदसः
।
[94]
सवितारमुषसमश्विना
भगमग्निं
व्युष्टिषु
क्षपः
।
[96]
धर्ता
दिवो
रजसस्पृष्ट
ऊर्ध्वो
रथो
न
वायुर्वसुभिर्नियुत्वान्
।
[97]
यत्र
कामा
निकामाश्च
यत्र
ब्रध्नस्य
विष्टपम्
।
[99]
आ
नो
यज्ञं
नमोवृधं
सजोषा
इन्द्र
देव
हरिभिर्याहि
तूयम्
।
[100]
ब्रह्मन्वीर
ब्रह्मकृतिं
जुषाणोऽर्वाचीनो
हरिभिर्याहि
तूयम्
। [102] ऽग्निः सर्वा देवताः सोमः सर्वा देवताः स यदग्नीषोमीयं पशुमालभते सर्वाभ्य एव तद्देवताभ्यो यजमान आत्मानं निष्क्रीणीते ऐब्रा २.३ |