वेद में उदक का प्रतीकवाद Symbolism of Water in Veda सुकर्मपाल सिंह तोमर Sukarmapal Singh Tomar अध्याय१ उदक की अवधारणा अध्याय२ प्राणोदक की व्यापकता अध्याय३ प्राणोदक एक चेतनतत्त्व अध्याय४ आपः का एकत्व और अनेकत्व अध्याय५ उदकनामों में विरोध अथवा असंगति का आभास अध्याय६ उदकनामों में एकसूत्रता अध्याय७ उदकनामों की उदञ्चनशीलता का उद्देश्य अध्याय८ उपसंहार अध्याय९ परिशिष्ट
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उदक की अवधारणा प्रथम अध्याय प्रस्तुत शोध-प्रबंध का लक्ष्य निघण्टु में परिगणित एक सौ एक उदकनामों का अध्ययन करते हुए वेद में उदक के प्रतीकवाद का विवेचन करना है। सामान्यतः उदक का अर्थ जल है। उक्त एक सौ एक नामों में ऐसे अनेक नाम हैं जो निघण्टु की अन्य नाम - सूचियों में भी सम्मिलित हैं। इस दृष्टि से, निम्नलिखित विवरण सुस्पष्ट है :-
नाम-सूची सम्मिलित उदक नाम १. पद नाम अररिन्दानि, अहिः, आपः, इन्दुः, ईम्, जामिः, पवित्रम्, बर्हिः, यादृश्मिन्। २. धननाम ऋतम्, क्षत्रम्, यशः, रयिः, शवः, ब्रहम् ३. महन्नाम महत्, महः, गभीरः (गभीरम्-यज्ञ उदकनाम)। ४. अन्ननाम क्षद्मः, यशः, रसः, स्वधा, पयः, ब्रह्म, प्रयः। ५. बलनाम ओजः, यहः, शवः, शम्बरम्, सहः। ६. वाङ् नाम अक्षरम्, रसः, सरः कशा (कशः-उदक नाम) गम्भीरा (गम्भीरम् - - उदकनाम। ७. गृहनाम सद्म, योनिः। ८. अन्तरिक्ष नाम आपः, बर्हिः, व्योम। ९. यज्ञनाम इन्दुः। १०. सत्यनाम ऋतम्। ११. कर्मनाम अपः १२. मेघनाम अभ्वम्, शम्बरः ( शम्बरम्-उदकनाम), अहिः। १३. सुखनाम जलाषम्, भेषजम्, कम् ( कः)। १४. संग्रामनाम सदम् १५. साधारणनाम नभः, स्वः। १६. रात्रिनाम पयः। १७. ज्वलतोनाम तेजः, पयः। १८. क्षिप्रनाम तूयम्, तोयम्। १९. हिरण्यनाम अमृतम्, हेमः। २०. दिङ्नाम व्योम। २१. रश्मिनाम वनम। २२. रूपनाम वपुः। २३. बहुनाम सलिलम्। उक्त विवरण को सामान्य दृष्टि से भी देखने पर पता चलता है कि निघण्टु के उदकनामों की सूची में जिन नामों को सम्मिलित किया गया है, उनमें से अनेक ऐसे अर्थों के द्योतक हैं जिनका किसी प्रकार भी जल से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता। यज्ञ, हिरण्य, दिक्, रश्मि और रूप के द्योतक शब्दों को उदकनामों की सूची में सम्मिलित करने के पीछे कोई भी तर्कसंगत कारण प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार नभः, स्वः, तेजः, अहिः शम्बरं तथा सद्म जैसे शब्दों को जलवाचक उदकनामों से परिगणित करना सर्वथा असंगत दिखायी देता है। कुछ ऐसे शब्द हैं जो लौकिक संस्कृत में जलवाचक होते हुए भी इस विवरण के अनुसार किसी अन्य अर्थ के भी द्योतक माने गये हैं। उदाहरण के लिए, बहुनामों में सलिलं, क्षिप्रनामों में तोयम्, रात्रिनामों में पयः तथा वाङ् नामों में रसः को लिया जा सकता है। यहां भी समस्या उत्पन होती है कि कोई भी उदकवाचक शब्द इन विविध अर्थों में किसी प्रकार प्रयुक्त हो सकता है? उदकनामों की निघण्टु सूची में ईम्, इदम् या शम्बरं क्यों सम्मिलित हैं। इसी प्रकार के अनेक शब्द इन एक सौ एक उदकनामों में हैं जिनको कदापि जल के अर्थ में ग्रहण नहीं किया जा सकता। अतः कोई आश्चर्य नहीं भाष्यकारों ने उक्त निघण्टु सूची के लिए अनेक शब्दों का अर्थ कहीं भी जल नहीं किया है। ऐसी स्थिति में, वेद भाष्यकारों के सामने कई महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित हो जाते हैं। क्या ‘निघण्टु’ नामक वैदिककोष अविश्वनीय है? यदि नहीं, तो उक्त सभी विभिन्न अर्थ रखने वाले शब्दों को उदकनामों के अन्र्तर्गत रखने का क्या कारण है? अथवा ‘‘उदक’’ शब्द का अर्थ क्या वास्तव में वहीं है, जो लौकिक संस्कृत में होता है? निघण्टु की सूची में जल शब्द भी है, परंतु इस सूची को जलनामानि न कहकर उदकनामानि क्यों कहा गया है? क्या ‘उदक’ शब्द कोई ऐसा व्यापक अर्थ रखता है, जिसके अन्तर्गत उक्त सभी एक सौ एक शब्दों के अर्थों का समावेश हो सकता है? जल, जलाष और भेजष : इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में क्या जल शब्द और उसके वाच्यार्थ से कोई सहायता मिल सकती है? ‘‘जलम्’’ शब्द पाणिनिधातु पाठ के अनुसार ‘जल् अपवारणे’’ अथवा ‘‘जल घातने’’ से निष्पन्न हुआ प्रतीत होता है। यही शब्द वैदिक ‘‘जलाष’’ में स्थित माना जाये तो जलाष में जल के वाच्यार्थ के अतिरिक्त गति, दीप्ति और आदान अर्थ वाली अष् धातु भी है। अतः जलाष शब्द एक ऐसे तत्व का वाचक हो सकता है, जो अपनी गति, दीप्ति और आदान क्रिया के द्वारा किसी अवांछनीय अथवा अशोभन वस्तु का अपवारण या घातन कर सके। निघण्टु में ‘‘जलाष’’ शब्द को उदकनामों के अतिरिक्त सुखनामों में भी परिगणित करके इसी सम्भावना की ओर संकेत किया गया है। वेद में जलाष शब्द प्रायः भेषज शब्द के साथ संयुक्त रूप से प्रयुक्त है। इस बात से भी यही संकेत मिलता है कि जल शब्द किसी ऐसे तत्व का वाचक है, जो दुःख का अपवारण करने वाली भेषज (चिकित्सा) भी बन सकता है। ‘‘जलाष’’ के साथ भेषज शब्द भी उदकनामों में परिगणित है। यह इस बात का संकेत हो सकता है कि जल और अष् धातुओं के मिश्रण से निष्पन्न ‘‘जलाष’’ शब्द भी किसी प्रकार के अशुभ और अवांछनीय तत्व के अपवारण या निवारण में सहायक होकर सुखावधायक किसी तत्व की ओर संकेत करता है। उणादिकोष में भेषजम् शब्द की व्याख्या में जो शब्द मिलते हैं, उनसे पता चलता है कि भेषज शब्द भी मूलतः किसी सुमंगल अथवा सुख से जुड़ा हुआ है।[1] अतः यह निश्चित है कि जलाष और भेषज कोई सुख अथवा सुमंगल करने वाला तत्व हैं। वेद में ‘‘भिषक्ति’’ क्रिया भी मिलती है जिसे सायणाचार्य ने ‘‘भिषज्यति’’ का रूपान्तर मानकर रोगी के रोग-निवारण के अर्थ में ही ग्रहण किया है[2]। जिस मन्त्र में यह क्रिया आयी है, उसके संदर्भ को देखें तो ज्ञात होता है कि इस क्रिया का कर्ता सोम है जिसे काव्य द्वारा कृत्नु, विश्वजित्, उदभित्, ऋषि और विप्र होने वाला बताया गया है[3] और तब कहा गया है कि वह नंगे को आच्छादित करता है और आतुर विश्व की चिकित्सा करता है, जिससे अन्धा देखने लगता है और पंगु भी चल पड़ता है[4]। अन्यत्र इन्दु नाक सोम व्यक्तित्व को ‘‘नानाधियः’’ बनाने वाला माना गया है[5] , जिसके कारण मनुष्य तक्षणकर्ता, भिषक्, ब्रह्मा आदि के भिन्न-भिन्न व्रतों को पालने करने में सक्षम होता है[6]। यही इन्दु एक सौ एक उदकनामों में भी एक है। तो क्या इन्दु नामक उदक कोई ऐसा तत्व माना जा सकता है, जो पुरुष रूपी पंगु को गतिशील करता है तथा प्रकृति रूपी अन्धे को ज्ञाननेत्र प्रदान कर सकता है? सांख्यदर्शन में पुरुष और प्रकृति के संयोग को ही यह द्विविध कार्य करने की क्षमता प्रदान की गई है। क्या वेद में पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी अन्य तत्व को भी माना गया है? निस्सन्देह इन्दु को नानासूर्याः और नानाधियाः कहकर[7] एक ऐसा ही तत्व बना दिया गया है, जो अनेक क्रियाओं को करने के कारण ‘‘नानाधियः’’ और साथ ही अनेक प्रकार की दृष्टि देने के कारण ‘‘नानासूर्याः’’ भी कहा जा सकता है। जैसा कि आगे इन्दु शब्द की व्याख्या में बताया क्या है, वह निस्सन्देह एक ऐसा अद्वैत ज्योतिर्मय तत्व है, जो सभी प्रकार के नानात्व में रूपान्तरित हो सकता है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि निघण्टु के एकसौ एक नामों को समाविष्ट करने वाला उदक शब्द इन्दु के समान ही नानात्व ग्रहण करने वाला कोई तत्व होगा। यही बात जलाष और भेषज शब्दों से ध्वनित होने वाले अपवारण, घातन, गति, दीप्ति, आदान आदि क्रियाओं से भी प्रकट होती है। जलाषभेषज रुद्र : इस प्रसंग से यह भी स्मरणीय है कि वेद में जलाषभेषज शब्द रूद्र का विशेषण होकर भी प्रयुक्त है। शुचि, उग्र और जलाषभेषज रूद्र एक है, जो अपने हाथ में एक तीखे आयुध को धारण करता है[8]। नीलशिखण्ड, कर्मकृत तथा जलाष भेषज रुद्र एक ओषधि है, जिससे प्रार्थना की गई है कि वह रसहीन पदार्थों को नष्ट कर दे[9]। जलाष भेषज रूद्र गाथपति और मेधपति है तथा शांति के इच्छुक व्यक्ति के लिए सुखरूप है[10]। कुछ ऐसे भी मन्त्र हैं, जिनसे ध्वनित होता है कि कोई ऐसा सर्वोच्च देव है, जो वसुओं के सहित इन्द्र, आदित्यों के सहित वरुण तथा रुद्रों के सहित रूद्र होकर जलाष होता हुआ हमें शांति प्रदान कर सकता है[11]। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि जिस देव को इन अनेक देवों के रूप में प्रकट होने वाला कहा गया है, वह स्वयं परब्रह्म परमात्मा ही है और उसकी ब्राह्मी शक्ति ही वह जलाषभेषज है जिसके द्वारा वह अपने को नानात्व में अभिव्यक्त करता है। वह जालाष नामक ब्राह्मी शक्ति जल अथवा उदक रूप में कल्पित की जाती है और उसके द्वारा अभिसिञ्चन और उपसिञ्चन करके जीवन प्रदान किया जा सकता है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है – जालाषेणाभिषिन्वत् जालाषेणेपसिन्चत। जालाषमुग्रं भेषजं तेन नो मृड जीवसे।। अथर्व ६,५७,२ आपानं ब्रह्म की अवधारणा : इस प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि उदकनामों में ब्रह्म शब्द भी परिगणित है और ऋ. २.३४.७ में मरुतों से प्रार्थना की गई है[12] कि वे प्रतिदिन हमारे भीतर ‘‘आपानं ब्रह्म’’ को सचेत करें। आपानं ब्रह्म का अर्थ है :- ‘‘आ समन्तात् पानं यस्य क्रियते तत् ब्रह्म’’ अर्थात् ब्रह्म का वह स्तर जिस पर उसका चारों ओर से पान किया जा सकता है। इससे ध्वनित होता है कि ब्रह्म को भी एक पेयरस के रूप में कल्पित करके उसे उदक तुल्य मान लिया गया है। चारों ओर से पान किये जाने की कल्पना को समझने के लिए हमें तैत्तिरीयोपरिषद् के ब्रह्मवल्ली में प्राप्त ब्रह्म के स्वरूप को समझना होगा। वहां मनुष्य के पंचकोशों में ब्रह्म के जिन पांच स्वरूपों का उल्लेख है, वे इस प्रकार हैं :- कोष ब्रह्म का स्वरूप १. अन्नमय अन्नं ब्रह्मेत्युपासीत २. प्राणमय प्राणं ब्रह्मेत्युपासीत ३. मनोमय मनः ब्रह्मेत्युपासीत ४. विज्ञानमय विज्ञानं ब्रह्मेत्युपासीत ५. आनन्दमय आनन्दं ब्रह्मेत्युपासीत इस वर्णन से स्पष्ट है कि यह ब्रह्म कोई ऐसी शक्ति है, जो अन्नमय कोश से उत्तरोत्तर उठती हुई अपनी गुणात्मक सूक्ष्मता का बृंहण करती जाती है। इस बृंहण के कारण ही उसका नाम ब्रह्म है। अपने अंतिम रूप में जब उसका बृंहण परिपूर्ण हो जाता है, तब उसकी परब्रह्म संज्ञा होती है और उसमें उसके अन्य सभी स्वरूपों का पान अथवा विलय माना जा सकता है। यही ‘‘आपान ब्रह्म’’ की स्थिति है, जिसकी अवधारणा उक्त मन्त्र में प्रस्तुत की गई है। इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि निघण्टु के उदकनामों में परिगणित पूर्वोक्त इन्दु शब्द के ‘‘पूर्वासः उपरासः’’ रूपान्तर भी प्रत्येक ब्रह्म का सेवन करने वाले बताये गये हैं[13] और इन्हीं अनेक रूपान्तरों के अद्वैत रूपान्तर को इन्दु कहकर उसे अपने स्वामी के सदन में (इनस्य सदने) प्रभूत आपः को जन्म देने वाले (उरूब्जम्) गर्भ का धारक बताया गया है[14]। इसका स्पष्ट अर्थ यही हो सकता है कि परब्रह्म की ब्राह्मी शक्ति आपः नामक उदक के नानात्व में रूपांतरित होती है और अन्त में उसी के भीतर समस्त नानात्व का पान अथवा विलीनीकरण माना जा सकता है। आपो वा प्राणा: जिन आपः को जन्म देने वाला यह गर्भ ब्राह्मी शक्ति के द्वारा धारण किया जाता है, वे वस्तुतः प्राण हैं[15] क्योंकि वे जलवाचक आपः के समान ही बरसने वाले हैं। अथर्ववेद के प्राणसूक्त (शौ. ११,५) के अनुसार जब प्राण बरसते हैं तो ओषधियां प्राण से संवाद करती हुई कहती हैं कि हमारी आयु का विस्तार करो और हम सबको ‘‘सुरभीः’’ बना दो। प्राण का एक भेषज तनु है, जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है।[16] इस प्रकार न केवल जलवाचक आपः का प्राणों के साथ समीकरण एवं तदाश्रित वर्षा के रूपक द्वारा जल या आपः को प्राणों का प्रतीक बना दिया गया है, अपितु प्राणों के भेषज तनु की कल्पना द्वारा जलाषभेषज की वैदिक अवधारण भी प्राणमूलक सिद्ध हो गई, इसलिए जब कहा जाता है कि आपः ही ‘‘ऊॅ भेषजीः’’ है, अमीवचातनीः’’ है और ‘‘सर्वस्य भेषजीः[17] ’’ है, तो यह सब कुछ परोक्षरूपेण प्राणों की ही स्तुति है, क्योंकि वेद में आपः प्राणों का प्रतीक है। इस प्रसंग में ‘‘ऊं भेषजीः’’ आपः विशेष रूप से ध्यातव्य है। ऊँ ब्रह्म का वाचक है, अतः ऊॅ भेषजीः आपः से वे ही प्राण अभिप्रेत हो सकते हैं जिनके ‘‘उरूब्जं गर्भ’ को धारण करने वाली ब्राह्मी शक्ति का उल्लेख ऊपर हो चुका है। अतः ऊॅ पूर्वोक्त परब्रह्म या एक रूद्र है, जिससे उद्भूत प्राणरूप आपः को अनेक ऊँ भेषजीः, ब्रह्माणि अथवा रूद्राः माना गया प्रतीत होता है। इस दृष्टि से, जो अपने एक रुद्र अथवा अद्वैत ‘‘आपान ब्रह्म्’’ रूप में ‘‘भिषजां भिषक्तमः’’ (ऋ २.३३.४)[18] कहा जा सकता है, वही नानात्व ग्रहण करके अनेक प्राणरूप उदकों, प्राणों अथवा भेषजों के रूप में प्रकट होने वाला कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, अब तक के इस विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि निघण्टु में पठित उदकनामों की सूची में जो भी शब्द आये हैं, वे सभी किसी न किसी दृष्टि से प्राण के ही द्योतक हो सकते हैं। परन्तु इस संभावना को और अधिक परिपुष्ट करने के लिए हमें स्वयं उदक शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए उसके वैदिक संदर्भों का अध्ययन आवश्यक है। उदक शब्द की व्युत्पत्ति : ऐसी स्थिति में, निघण्टु के उदकनामों को समझने के लिए ‘‘उदक’’ शब्द के निवर्चन से प्रारंभ करना अधिक उपयुक्त होगा। उदक शब्द सामान्यतः उसी परिवार का प्रतीत होता है, जिसके उदञ्च, उदीच, उदन्, उदगयन, उदीचीन, उदीची आदि वैदिक शब्द हैं। इस दृष्टि से उदक शब्द की व्युत्पत्ति उत् उपसर्ग पूर्वक गत्यर्थक अंच् धातु से हो सकती है। इस प्रकार उदक का अर्थ ऊर्ध्वगामी होगा। जै० उ० ब्रा० (२,३,३,८) के अनुसार उद् आदित्य का बोधक है और आदित्य स्वयं ओ३म् का प्रतीक है।[19] अतः उदक को आदित्य ओ३म की ओर गमन करने वाला कोई तत्व माना जा सकता है। अदिति का भावसूचक आदित्य शब्द स्वयं अखंडता का बोधक है। अतः कह सकते हैं कि उदक अखंडता की दिशा की ओर गमन करने वाला तत्व है। अखंडता की दिशा का नाम ही उदीची है, अतः उदीची दिशा को विजय करने वाले आदित्य कहे गये हैं[20] । उदीची दिशा में जो कुछ भी है, उस सबको उद्गीथ द्वारा प्राप्त किया जा सकता है[21] और उद्गीथ ऊर्ध्वगामी वाक् से संबंधित प्राण माना गया है[22] । वही ओ३म् भी है[23] । श० ब्रा० के अनुसार प्राण ही उत् है, क्योंकि प्राण से ही सब कुछ उत्तब्ध हुआ है और वाक् ही गीथ है और इन दोनों के योग से उद्गीथ शब्द निकला है[24] । उदक की प्रतीकात्मकता : उद्गीथ से सम्बन्धित उक्त प्राण का नाम ही उदान-प्राण हो सकता है, जो स्वयं ऊर्ध्वगामी होता है। उदान की दिशा भी उदीची मानी गई है[25] । उदान ही आन्तरिक यमनं करने वाला अन्तर्याम है, जो निम्न लोक से ऊर्ध्वलोक को उदन अथवा अभ्युदन करने वाला कहा जाता है[26] । इस दृष्टि से उदान प्राण को उदक के सामन ही ऊर्ध्वगामी तथा उदीची दिशा से सम्बन्धित माना जा सकता है। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि उदक शब्द पर उदान के अर्थ का भी श्लेषण कर दिया गया हो और इस प्रकार श्लिष्ट उदक उदान प्राण का प्रतीक बनाया गया हो। इस बात की पुष्टि निम्नलिखित मन्त्र से भी होती है:- एको वो देवोऽप्यतिष्ठत् स्यन्दमाना यथावशम्। उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकमुच्यते।। अथर्व ३, १३, ४; मै. सं. २, १३,१. अभिप्राय यह है कि स्वेच्छापूर्वक प्रवाहित होने वाले आपः में वस्तुतः एक ही देव (दिव्य तत्व) स्थित था, जिसने इनको महीः रूप में ऊपर अनन किया, इसलिए उसको उदक कहा जाता है, इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने ‘उदानिषुः’ को अन् प्राणने ने निष्पन्न माना है। इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि उदान शब्द की व्युत्पत्ति भी उद+अन् से ही होती है। उदान एक प्राण का नाम है और ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘‘प्राणाः वै आपः’’[27] कहकर उदकनामों में आप की प्राणरूपता स्पष्टतः स्वीकार की गई है। अतः उदक ओर उदान प्राण के समीकरण के लिए पर्याप्त सम्भावना उभरती हुई प्रतीत होती है। उदक और पर्जन्य यहां प्रश्न होता है कि यदि उदक शब्द ऊर्ध्वगामी उदान प्राण का प्रतीक है, तो निघण्टु में उदक शब्द को अन्य सभी उदकनामों का द्योतक क्यों माना गया है? क्या वे सभी उदकनाम उदान प्राण के बोधक हैं? इस प्रसंग में अथर्ववेद का ३.१३ सूक्त महत्वपूर्ण सूचना देता हुआ प्रतीत होता है। इस सूक्त में कुल सात मन्त्र हैं। इन सभी में उदक के ही विभिन्न रूपों का वर्णन किया गया है। वे नदन करते हैं, अतः उनका नाम नद्यः है और उन्हीं को सिन्धवः कहा जाता है (मन्त्र १)। वे वरुण के द्वारा प्रेषित होने पर इन्द्र द्वारा आप्त (प्राप्त या व्याप्त) हुए, इसलिए उनका नाम आपः हुआ (मन्त्र २)। इन्द्र ने उनको अपनी शक्ति के द्वारा वरण किया, अतः उनका नाम ‘‘वाः’’ अथवा ‘‘वारि’’ है (मन्त्र ३)। इनमें जो भद्र आपः थे, वे घृतस्वरूप थे, जिन्हें अग्नीसोम की संयुक्त ईकाई ने धारण किया और वे ही रस कहलाये। ये ही हिरण्यवर्णा आपः अमृत को आत्मसात् करते हैं (मन्त्र ६)। इन्हीं आपः का एक रूप ‘‘ऋतावरी आपः’’ नाम से जाना जाता है। मनुष्य का हृदय ही इनका हृदय है और यहीं शक्वरी नामक आपः प्रविष्ट किये जाते हैं (मन्त्र ७)। इसी सूक्त के मन्त्र ४ का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है, जिसमें उदक शब्द की व्युत्पत्ति उत् + उन् से की गई है और जिस पर अधिष्ठित एक ही देव माना गया है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि उदक शब्द से केवल ऊर्ध्वगामी उदान प्राण ही अभिप्रेत नहीं है, अपितु प्राणों के विभिन्न रूपों और रूपान्तरों की ओर इस उदक शब्द के द्वारा संकेत किया जा सकता है। अतः वेद में उदक शब्द को सामान्य जल का वाचक न मान कर प्राणोदक (प्राणरूपी जल) का द्योतक कहा जा सकता है। इस दृष्टि से ऋग्वेद के निम्नलिखित दो मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:- समानमेतदुदकं उच्चैत्यव चाहभिः। भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः।। दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम्। अभीपतो वृष्टिभिस्तपर्यन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि।। ऋ १, १६४, ५१-५२।। यहां, प्रथम मन्त्र मे एक ‘‘समानम् उदकम्’’ का उल्लेख है। वह ऊर्ध्वगति भी करता है और अधोगति भी। ऊर्ध्वगति द्वारा अग्नियां द्यौ (दिवः) का प्रीणन करती हैं और अधोगति में पर्जन्य भूमि का प्रीणन करते हैं। अभिप्राय यह है कि जो ‘‘समानम् उदकम्’’ मूलतः अद्वैत एक है, वह आरोहण अवरोहण क्रम में द्विविध हो जाता है। उदक के इसी अद्वैत रूप को दूसरे मन्त्र में दिव्य, सुपर्ण, वायस तथा बृहत् होता हुआ (बृहन्तं) अपां गर्भं कहा है। बृहन्तं की व्याख्या करते हुए मानों कहा गया है कि वह अपनी वर्षाओं के द्वारा तृप्त करने वाला सरस्वान् व्यक्तित्व है और उसी रूप में वह आहवनीय भी है। दूसरे शब्दों में, उस अद्वैत उदक के वर्षणशील पर्जन्यरूप को ही ‘‘बृहन्तम्’’ अपां गर्भं कहा है। इस वर्षणशील उदक का ही नाम सरः है, जिससे युक्त होने के कारण वह अपने इस बृहत् और वर्षणशील रूप में सरस्वान कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि उदक शब्द मुख्यतः प्राण की उदंचनशीलता का द्योतक है, परन्तु उसका यह ऊर्ध्वगामी रूप एक अधोगामी रूप की भी अपेक्षा रखता है। अतएव इस द्विविध गति से परे उदक के एक अन्य ऐसे रूप की कल्पना की गई है, जिसमें ऊर्ध्वगति और अधोगति का अन्त हो जाता है। यही ‘‘समानम् उदकम्’’ है। जब यह पर्जन्य वृष्टि करने लगता है, तो उसे उदकनामों में परिगणित सरः नाम दिया जाता है। ‘‘सरः’’ से युक्त व्यक्तित्व ही सरस्वान् है। उदक और वाक् : प्रश्न होता है कि ‘‘समानम् उदकम्’ की इस पर्जन्यवृष्टि का क्या तात्पर्य है? डा० फ़तहसिंह ने अपनी ‘‘ढाई अक्षर वेद के’’ नामक पुस्तक में बताया है कि योग की धर्ममेघ समाधि के मेघ को ही वेद में पर्जन्य कहा गया है।[28] इससे शुद्ध प्राणरूप आपः की वृष्टि होती है, जिसके फलस्वरूप अहंकार रूपी वृत्र का वध होता है और ‘अवर इन्द्र’’ (जीव) सबल होकर महेन्द्र कहलाता है। उनके अनुसार योग-साधना से सिद्ध होने वाली समाधि में जो आनन्दवृष्टि होती है, उसी को सोम की वृष्टि कहा जा सकता है और वही भद्र आपः अथवा शुद्ध आपः की वृष्टि भी है। इस स्थिति से पूर्व, मनुष्य के आपः (प्राण) अहंकार रूपी वृत्र के चंगुल में फंसे रहते हैं, जिससे उनमें काम, क्रोध आदि सर्पों का विष उन्हें अभद्र विषाक्त तथा अशुद्ध बना देता है। यह विष शब्द भी उदकनामों में परिगणित है। यह वस्तुतः शुद्ध उदक (प्राण) का ही अशुद्ध हुआ रूप है, जिसे विष कहा जाता है। स्वयं वेदमंत्रों में, इस शुद्ध उदक का पान करना साधना का वह लक्ष्य है, जिसको प्राप्त करके साधक भगवान होने की कामना कर सकता है :- सूयवसाद्भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम। अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती।। ऋ १, १६४, ४०, इस मन्त्र में आत्मा की वाक् शक्ति को अघ्न्या कह कर यह संकेत किया गया है कि उसे अहंकार रूपी वृत्र से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, अतः उससे निश्चिन्त होकर अहंकार जनित कषाय रूपी तृण को खाने और शुद्ध उदक पीकर आचरणशीला होने की अपेक्षा की गई है। यही आत्मशक्ति भगवती कही गई है और उसके भगवती रूप को पाकर ही साधक भगवान हो सकते हैं। इस मन्त्र से अगले मन्त्र में, उसी आत्मा की वाक् शक्ति को गौरी कहा गया है, जो उक्त ‘‘समानम् उदकम्’’ को अनेक ‘‘सलिलानि’’ में परिणत करती हुई एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी और नवपदी हो जाती है, यद्यपि वह मूलतः परम व्योम में स्थित सहस्राक्षरा वाक् है- गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्।। ऋ १, १६४,४१. निघण्टु के उदकनामों में परिगणित ‘‘सलिलम्’’ के अनेक रूपान्तरों को ही यहां सलिलानि कहा गया है। आत्मशक्ति इस अनेकता की सृष्टि करती हुई एकपदी से नवपदी हो जाती है। डा० फ़तहसिंह ने आगम-ग्रन्थों के आधार पर सहस्राक्षरा वाक् के इन नौ पदों को इस प्रकार परिभाषित किया है[29] :- १. काल : - निमेष से लेकर प्रलय तक, जिसके अन्तर्गत चन्द्र तथा सूर्य भी आ जाते हैं। २. कुल :- रूप (आकृति) रखने वाली सारी वस्तुएं। ३. नाम :- नामधारिणी सभी वस्तुएं। ४. ज्ञान :- दो प्रकार का सविकल्पक और निर्विकल्पक। ५. चित् : - अहंकार, बुद्धि, चित्त, मन और उन्मन। ६. नाद :- राग, इच्छा, कृति, प्रयत्न, जो क्रमशः परा, पश्यन्ती मध्यमा तथा वैखरी के समकक्ष है। ७. बिन्दु :- (आध्यात्मिक बीज) षट्चक्र (मूलाधार से आज्ञा तक) ८. कर्म :- मूलाधार से आज्ञा तक पचास वर्ण। ९. जीव :- मायाबद्ध आत्मा। वाक् के उक्त नौ पदों की कल्पना ब्रह्माण्डीय सृष्टि के परिप्रेक्ष्य में की गई है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’’ की उक्ति के अनुसार इन नौ पदों के समानान्तर पिण्डाण्ड में भी नौ पद हैं, जिनमें पांच ज्ञानेंद्रियां, मन और अहंबुद्धि के सप्तक के अतिरिक्त आठवां महत् और नवम मूल प्रकृति माना जा सकता है। इन नौ पदों से परे आत्मा ‘‘अनिपद्यमान गोपा’’[30] कहलाता है, जो परा पथों पर विचरण करता हुआ इन नौ पदों को ग्रहण करता है। अनिपद्यमान से पद्यमान होने का अभिप्राय है - आत्मा में अन्तर्निहित वाक् का नवपद ग्रहण करना। आत्मा की अनिपद्यमान अवस्था इन नव पदों से प्रकृष्ट होने के कारण आत्मा को इस अवस्था में प्र + णव कहा जाता है। ईम् और इदम्: उक्त नवपदों की पृष्ठभूमि में जो क्रिया होती है, उसका बोध कराने वाली ‘‘पद’’ धातु है, इस पद का प्रयोग वेदों में अनेक रूपों में हुआ है। उदक के प्रसंग में भी निम्नलिखित मन्त्र को देखा जा सकता है:- इह ब्रवीतु य ईमंग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः। शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापुः।। ऋ १,१६४,७।। इस मन्त्र में वाक् की गौरूप में कल्पना करके उसके अनेक रूपान्तरों को ऐसी गायें कहा गया है, जो मनुष्य-व्यक्तित्व के रूप (वव्रिं) को आच्छादित किये हुए हैं। ये गायें नवपदों में व्यक्त होने वाली उक्त पद नामक गति के द्वारा उदक को प्राप्त करती हैं। यह वाक् की अधोगामिनी गति है। इसके विपरीत इन गायों की एक ऊर्ध्वगामिनी गति भी है जो शीर्ष स्थानीय हिरण्ययकोश तक पहुंचती है। इस शीर्ष से इन गायों को क्षीर दोहन करने वाला बताया गया है। यहां स्मरणीय है कि क्षीर और उदक निघण्टु के उदकनामों में परिगणित हैं। इन दो नामों के अतिरक्त इस मन्त्र में एक अन्य उदकनाम ‘‘ईम’’ भी आया है। यह ईम् आत्मरूपी वामपक्षी का निहित पद कहा गया है। यह छिपा हुआ है, अतः इसको जानने वाले विरले ही होते हैं। इसको जो जानता है, वह बतलावे, ऐसी कामना यहां की गई है। इस पूरे मन्त्र का सारांश यह है कि जिस उदक को ईम् कहा गया है, वह वस्तुतः आत्मा रूपी वामपक्षी का निहित पद है, जिस पद पर विराजमान होकर आत्मा अनिपद्यमान गोपा कहा जाता है। इसी ईम् को वाक् अपनी ऊर्ध्वगामिनी गति में उसी के उदकरूप को पाती है। एक अन्य मन्त्र 1 में अधोगामिनी गति से प्राप्तव्य को ‘‘इदम् उदकम्’’ कहा गया है, जबकि ऊर्ध्वगामिनी गति से प्राप्त उदक को ‘‘मुन्जनेजनम्’’ नाम दिया गया है, जो वस्तुतः सोम है। इस मन्त्र के ‘‘इदम् उदकम्’’ के लिए निघण्टु के उदकनामों की सूची में इदम् की भी गणना की गई है। इस दृष्टि से, पहले जिसको क्षीर कहा गया है, वही हिरण्ययकोश से आने वाला मुन्जवान् सोम सिद्ध होता है। इसके विपरीत, मनुष्य के व्यक्ति के स्थूलरूप से संबंधित उदक का नाम ‘‘इदम्’’ होगा। ‘‘इदम्’’ नामक उदक भी वस्तुतः इन्द्र की वह परम इन्द्रिय है, जिसे कवियों (क्रान्तदर्शी प्राणों) ने अपनी पराशक्तियां द्वारा धारण किया था। वह स्थूलदेहरूपी क्षमा (पृथिवी) और कारण-देह रूपी दिव में दो भिन्न रूपों में होते हुए भी पिण्डाण्ड में इस प्रकार सम्पृक्त हो रहा है कि मानों वह ‘‘समना केतु’’ (मानसिक स्तर की प्रज्ञा) हो- तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम्। क्षमेदमन्यद् दिव्यन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः।। ऋ. १,१०३,१ इसी ‘इदं’ नामक उदक को विपश्यना द्वारा देखने पर वह हमें अत्यन्त पुष्टश्रत् (सत्य) के रूप में प्राप्त होता है, जिसको वीर्यवान् होने के लिए धारण करने की आवश्यकता होती है।[31] 1 इसको धारण करने वाला अन्य आध्यात्मिक शक्तियों के साथ ‘‘अपः’’ और वनानि’’ को भी हस्तगत करता है। अपः और वनानि की गणना भी उदकनामों में की गई है। आप् धातु से निष्पन्न आपः शब्द जहां उदकप्राण के व्यापनशील रूप का द्योतक है, वहां ‘वन’’ वन् कान्तौ से निष्पन्न इच्छात्व का सूचक है। अतः ‘‘अपः वनानि’’ से यहां इच्छातत्व के व्यापनशील रूप की ओर संकेत है। रहस्यमय ‘‘ईम्’’ नामक उदक ही दु गतौ धातु के योग से इन्दु बन जाता है, जो कि उदक नामों में परिगणित होने के साथ ही सोम का भी एक नाम है। इच्छातत्वात्मक वन नामक उदक में क्रीड़ा करता हुआ यह ईम् ही वह इन्दु बन जाता है, जिसका मण्डन वाणी रूपी नौकाएं करने लगती हैं:- समी सखायो अस्वरन् वने क्रीळन्तमत्यविम्। इन्दुं नावा अनूषता।। ऋ. ९,४५,५ यह ‘‘ईम्’ अथवा ‘‘इन्दु’’ वह वाजी हरि है जिसका मार्जन नाडियों रूपी नदियों में आयवः नामक प्राण करते हैं।[32] ‘‘ईम्’’ नामक उदक का यह सोम रूप मरुत्वान् इन्द्र के लिए सहस्रधार होकर अव्यय-तत्व को अत्यधिक गतिशील कर देता है।[33] इस सोम नामक ईम् को जब मननशील ज्ञानी (मतुथाः) जन्म देते है, तो वे कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के रूप में दोनों हाथों की दश अंगुलियों के समान उसको रथवत् अदिति के उपस्थ में भेज देते हैं और तब वह अदिति रूपी गौ के अन्तर्हित पद पर पहुंच जाता है।[34] विष का शोधन : उदक के उपर्युक्त क्षीर, इन्दु आदि शुद्ध रूपों की निरन्तर उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि उसके विष को दूर किया जाये। इस कार्य को इक्कीस मयूरियां और सात अग्रुवः स्वसारः करती हैं। वे ‘विष’ उदक को उसी प्रकार अलग से ग्रहण कर लेती हैं, जिस प्रकार जलकुम्भी नामक ओषधी जल को ग्रहण करती है।[35] इस मन्त्र में उल्लिखित इक्कीस मयूरियां ब्रह्मवाक की वे चेतन धारायें हैं, जो निम्नलिखित तीन चेतना सप्तकों में प्रवाहित होने लगती हैं :- १. अहं बुद्धि, मन और पंच ज्ञानेद्रियां। २. अहं बुद्धि, मन और पंच कर्मेन्द्रियां। ३. अहं बुद्धि, मन और पंच प्राण। इनके अतिरिक्त देश-काल से परे चेतना की अग्रभूमि तक जाने वाली भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः तथा सत्यम् नामक सात अन्य शक्तियां हैं, जो आत्मा के ‘स्व’ का सरण करने के कारण ‘‘स्वसारः’’ तथा चेतना की अग्रभूमि पर होने के कारण ‘अग्रुवः’’ कही जाती हैं। उपर्युक्त शोधक-शक्तियों को ही पावमानी कहा गया है। ऋ ९, ६७, ३२ में इनके अध्येता को ऋषियों द्वारा-समाहित जिस ‘‘रस’’ को प्राप्त करने वाला बताया गया है, वह भी एक प्रकार का उदक ही है। इसलिए ‘‘रस’’ शब्द की गणना भी उदकनामों में हुई है। पावमानी के अध्येता के लिए सरस्वती उदक के अन्य जिन रूपों का दोहन करती है, उनको क्षीर, सर्पि तथा मधु कहा गया है :- पावमानीर्यो अध्येत्यृषिभिः संभृतं रसम्। तस्मै सरस्वती दुहे क्षीरं सर्पिर्मधूदकम्।। ऋ ९, ६७, ३२ यहां जिन पावमानी नामक शोधक-शक्तियों का उल्लेख किया गया है, वे वस्तुतः उस पावमान नामक परब्रह्म की शक्तियां हैं, जिनको एक खिलसूक्त में सनातन शुक्रज्योति कहा गया है और जो क्षीर, सर्पि मधु तथा उदक होकर मनुष्य व्यक्तित्व की पितर नामक सहज शक्तियों को प्राप्तव्य होती है : पावमानं परंब्रह्म शुक्रं ज्योतिः सनातनः। पितॄंस्तस्योपतिष्ठे तत्क्षीरं सर्पिर्मधूदकम्।। १७, १८ उदक का विषरूप वस्तुतः मनुष्य-व्यक्तित्व के अघों में से एक है। इन अघों को देखने-परखने ओर शीघ्र मिटाने वाले सुषुप्त द्रुघण ‘‘युन्ज’’ को देखने की दृष्टि जब तक नहीं मिलती, तब तक आन्तरिक देवासुर-संग्रामों में ब्राह्मीचेतनाएं रूपी गाएं नहीं जीती जा सकती[36] । अतः प्रश्न होता है कि इन अघों का द्रष्टा कौन है? उत्तर में कहा जाता है कि वह ‘‘युन्ज’’ ऊँ है, जिससे साधक लोग युक्त होते हैं और जिस को अपने भीतर सर्वत्र स्थापित करते हैं। वही हमारे व्यक्तित्व रूपी रथ का धुर वहन करता है और उसको दिशा देता है। वह ऐसा सहज सुलभ तत्व है, जिसको बुलाने के लिए न तो तृण की आवश्यकता पड़ती है, न उदक की- आरे अघा को न्वित्था ददर्श यं युञ्जन्ति तम्वा स्थापयन्ति। नास्मै तृणं नोदकमा भरन्त्युत्तरो धुरो वहति प्रदेदिशत्।। ऋ १०, १०२,१० यद्यपि ऊँ को तृण या उदक की आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु ईम् नामक उदक स्वयं ही उस ऊॅ को प्राप्त हो जाती है और इस प्रकार वह सर्ववासयिता (वसु) उसका अनादर न करता हुआ सुमना हो जाता है –
अद्येदु प्राणीदममन्निमाहापीवृतो अधयन्मातुरूधः । अद्य इत् ऊँ प्र आनीत् अममन् इमा अहा अपिवृतः अधयत् मातुः ऊधः। आ ईम् एनम् आप जरिमा युवानमहेळन्वसुः सुमना बभूव।। ऋ १०, ३२, ८ यह मन्त्र अति महत्वूर्ण है। इसमें ऊँ के साथ प्र+आनीत का प्रयोग करके संकेत दिया गया है कि ऊँ प्राण रूप होकर आता है। इसी प्रकार ईम् के साथ, उसी आप् धातु का प्रयोग किया गया है, जिससे कि आपः शब्द निष्पन्न है। इस प्रसंग में स्मरणीय है कि ईम् और अपः दोनों निघण्टु के उदकनामों में परिगणित हैं। यहां ईम् के लिए ‘‘जरिमा’’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जो जार अथवा जारिणी का पयार्यवाचक है। आपः शब्द भी स्त्रीलिंग ही है। इसलिए ईम् रूप आपः को जरिमा कह कर और ऊँ को युवा कह कर ऊँ और ईम् में पुरुष तथा स्त्री अथवा प्रेमी और प्रेमिका के रूपक होने का संकेत कर दिया गया है। ईम् वस्तुतः बाह्यजगत् में व्याप्त ब्रह्म की वह ब्राह्मी शक्ति है जो ऊर्ध्व गति करती हुई व्यष्टिगत व्यक्तित्व में प्रवेश करती जाती है। ब्रह्म अन्दर बाहर सभी का वासयिता होने से ऐसा ‘‘वसु’’ कहा गया है, जो ईम् को अपना ही मान कर सुमना होकर स्थित हो जाता है। ऊँ व्यष्टिगत जीव का तेजोमय पिता है। इसलिए उसके आगमन से उत्पन्न प्रकाशों (इमाः अहाः) का उसको ज्ञान (अममन्) हो जाता है। और साथ ही वह उस प्रकार से आवृत होकर ईम् रूप माता का स्तनपान करने लगता है। जीवात्मा के उक्त माता-पिता (ईम् ऊँ) की तीन शक्तियां हैं, जो उन्होंने अपने सभी पुत्रों (जीवों) को प्रदान की हैं (वेद में इनको ऋभुः, विभ्वा और वाज नाम दिया गया है।[37] और साथ ही ब्रह्मवाक् रूपी एक गौ भी दी है। उक्त तीनों में एक उस गाय को उदक लाता है, दूसरा उसके मांस को अलंकृत करता है और तीसरा उसके शकृत् (गोबर) को दूर फेंकता है- श्रोणामेक उदकं गामवाजति मांसमेकः पिंशति सूनयाभृतम्। आ निम्रुचः शकृदेको अपाभरत् किं स्वित् पुत्रेभ्यः पितरा उपावतुः।। १.१६१.१० डा० फ़तहसिंह के अनुसार[38] ऋभुः, विभ्वा और वाज क्रमशः ज्ञान शक्ति, भावना शक्ति और क्रियाशक्ति के द्योतक हैं और गौ उस ब्राह्मी वाक् की प्रतीक है जो प्रत्येक जीवात्मा को मिली हुई है। क्रियाशक्ति (वाज) इस गाय के लिए बाह्य जगत् से प्राणोदक लाती है, भावना शक्ति (विभ्वा) उसके मांस (स्थूल अभिव्यक्ति) का अलंकरण करती है और ज्ञानशक्ति (ऋभुः) अज्ञानरूप शकृत को निकाल फेंकती है। इस प्रकार सभी जीवों को, उन्हें प्राप्त ब्रह्मवाक् रूपी गाय की सेवा के लिए तीन सेवक मिले हुए हैं। उदक और उदन् : उदक की प्राणरूपता की ओर इंगित करने के लिए ऋग्वेद में उदन् शब्द भी आता है, जिसको भाष्यकारों ने उदक के अर्थ में ग्रहण किया है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित मन्त्रों में प्रयुक्त इस शब्द के अनेक रूपों का सायण द्वारा स्वीकृत अर्थ द्रष्टव्य है :- १. उदन् = उदके[39] (ऋ. १, १०४, ३) २. उदान = उदके[40] (ऋ. १, ११६, २४ ऋ. १०,६७,८) ३. उदनिमान = उदकमान[41] (ऋ ५, ४२, १४) ४. उदन्यजाः इव = उदके भवं उदन्यं, तस्मात् जाताः उदन्यजाः[42]। ऋ. १०, १०६, ६. ५. उदन्यन् = उदकं दातुमिच्छन्[43] (ऋ० १०,९९,८) ६. उदन्यवः = उदकेच्छवः[44] (ऋ ५, ५४, २, ९, ८६, २७) ७. उदन्यवे = उदकेच्छवे[45] (५, ५७,१) ८. उदन्या इव = उदक सम्बन्धिनीव[46] (ऋ २, ७, ३) ९. उदन्वता = उदकवता[47] (ऋ. ५, ८३, ७) १०. उदन्वतीः = उदकयुक्ताः[48] (ऋ ७, ५०, ४) ११. उदनः इव = उदकान् इव[49] (ऋ ८, १९, १४) १२ उद्ना = उदकेन[50] (ऋ० ५, ४५, १०, ८५, ६; ८, १००, ९; ४, २०, ६, १०, ६८, ४) यह उदन् शब्द निस्संदेह उसी उत् और अन् धातु से बना है, जिससे उदान बना है। दोनों में अन्तर यह है कि उदान उद+अन् से निष्पन्न है और उदन् उत् (उद्) + अन् से निष्पन्न है। उदान का उद पूर्वोक्त जै० उ० ब्रा० के अनुसार आदित्य का वाचक है। अतः उदान प्राण आदित्य से प्राप्त होने वाले प्राणों की ओर संकेत करता प्रतीत होता है, परन्तु उदन् का उत् ऊर्ध्व दिशा का द्योतक है। अतः उदन् शब्द मूलतः ऊर्ध्वगामी प्राण का द्योतक रहा होगा। उदक शब्द इन दोनों प्राणों का प्रतीक मान लिया गया प्रतीत होता है। इसीलिए अथर्ववेद में पूर्वोक्त ‘‘उदानिषुः’’ के प्रयोग द्वारा उदक शब्द की व्युत्पत्ति उदान के समान उद+उन् से निष्पन्न है। यदि उदन् शब्द को उत् पूर्वक अन् प्राणने से निष्पन्न किया जाता है, तो इसका अर्थ होगा - ऊपर को सांस लेता हुआ। इससे किंचित् भिन्न उदान शब्द है, जिसको उद् + अन् से निष्पन्न किया जाता है अैर यह उद, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आदित्य का वाचक है। अतः उदान का अर्थ होगा - अखंडता सूचक आदित्य की ओर सांस लेना। दूसरे शब्दों में, उदान का सम्बन्ध साधना के उच्चतर स्तर से है, जबकि उदन् का सम्बन्ध किंचित् निम्न स्तर से है। जिस उच्चतर स्तर की ओर उदान शब्द संकेत करता है, उस स्तर के प्राणोदक के लिए निघण्टु सूची का अर्णः शब्द प्रयुक्त होता है। जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट हैः- आ सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णो अयुक्त यद्धरितो वीतपृष्ठाः। उद्ना न नावमनयन्त धीरा आशृण्वतीरापो अर्वागतिष्ठन्।। ऋ ५, ४५,१० अर्णः, आपः और प्राणोदक :- यहां जिस शुक्र अर्ण पर सूर्य को आरोहण करते हुए बताया गया है, उसी को पूर्वोक्त आदित्यवाचक उद कहा जा सकता है, जो कि उदान शब्द के मूल में हैं। अर्णः के विपरीत, इसी मन्त्र में आपः का भी उल्लेख है, जिनको अर्वाक् स्थित बताया गया है। इसका अर्थ है कि जहां उच्चतर स्तर पर व्याप्त प्राणों को शुक्र अर्णः कहा गया है, वहां व्यापनशील अर्वाक् प्राणों को आपः कहा गया है। इस विषय में एक बड़ी रोचक बात ऋ० १,१०४,३ में मिलती है[51] । वहां केतवेदा को ऊर्ध्व साँस लेते हुए (उदन्) अपनी आत्मा द्वारा फेन भरने वाला बताया गया है। इसके फलस्वरूप उत्पन्न क्षीर से वह स्नान करता है, तो कुयव नामक असुर की दो स्त्रियों का निधन हो जाता है और वे दोनों निम्नगामी शिफा (नदी) में गिर जाती हैं। यहां जिस क्षीर से केतवेदा को स्नान किये हुए बताया जाता है, वह भी उदकनामों की सूची में आता है। केतवेदा का अर्थ है, जिसने वेद को जान लिया है। इसका अभिप्राय यह है कि क्षीर उस प्राणशक्ति का वाचक है, जो केतवेदा को प्राप्त होती है, सम्भवतः केतवेदा के क्षीरस्नान के पश्चात् कुयव नाम असुर की जिन दो स्त्रियों का उल्लेख है, वह अहंकार की अस्मिता और ममता नामक दो शक्तियां हैं, जो केतवेदा के क्षीर स्नान के पश्चात् तिरोहित हो जाती हैं। इस मन्त्र के केतवेदा को ही इससे अगले मन्त्र[52] में उपर - आयुः कहा गया है, जिसकी नाभि को छिपा हआ बताया गया है, क्योंकि वह पूर्ववती प्राणोदकों से प्रवृद्ध हो चुका है और जिसकी अन्जसी, कुलिशी तथा वीरपत्नी नामक शक्तियां पयः नामक आदित्य प्राणों से भरपूर हो रही हैं। इस वर्णन से ऐसा लगता है कि यहां जिनके लिए ‘पूर्व’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, वे पूर्वोक्त अर्वाक् ‘आपः’ हैं और जिनके लिए ‘उद’ शब्द का यहां प्रयोग हुआ है, उनसे पूर्वोक्त ‘अर्णः’ नामक प्राणोदक अभिप्रेत हैं और इसी से सम्बधित प्राणोदक के दूसरे रूप का संकेत पयः शब्द करता है, जो स्वयं भी उदकनामों में परिगणित है। हम देख चुके हैं कि अर्ण नामक उदक पर सूर्य आरूढ होता है। अतः जब इन्द्र से प्रार्थना की जाती है कि तुम हमें सूर्य और आपः दोनों में भागीदार बनाओ[53] , तो तात्पर्य यही होता है कि अर्णः और आपः दोनों ही वाञ्छनीय समझे गये हैं। इसलिए यह समझना भूल होगी कि अर्वाक् प्रदेश अथवा उसके आपः कोई निम्नकोटि की वस्तु हैं। वास्तव में अर्वाक् से अभिप्राय साधक के उस बहिर्मुखी व्यक्तित्व से है जहां वह अपने श्रद्धासिक्त हृदय में भगवत-प्रेत रूपी सोम (इन्दु) का सवन करके, अपने भगवान् को उसका पान करने के लिए बुलाता है :-
अर्वाङेहि सोमकामं त्वाहुरयं सुतस्तस्य पिबा मदाय । दूसरे शब्दों में, जो अर्ण अथवा सलिल कहा जाता है, वही जब अर्वाक् गति ग्रहण करके धाराओं का रूप ग्रहण करता है तो उसके लिए आपः जैसे बहुवचन शब्दों का प्रयोग होता है। सारांश रूप में यह कह सकते हैं कि उक्त अर्ण अथवा सलिल प्राणरूपी उदक की ऊर्ध्वगति का परिणाम हैं, क्योंकि इसके फलस्वरूप प्राणोदक के बहिर्मुखी प्रवाह अन्तर्मुखी होते हुए अपनी नानात्व को अन्ततोगत्वा सलिलं के एकत्व में विलीन कर देते हैं। प्राणोदक की इस प्राक् गति का प्रारम्भ और प्रेरणा मनुष्य-व्यक्तित्व के अहि गोपा और दासपत्नी कहें जाने वाले प्राणों में अहंकार रूपी वृत्र के बन्धन से निकल भागने की इच्छा का परिणाम है। अतः मूलतः उदक शब्द उन प्राणों का प्रतीक है, जो वृत्र से ऋस्त होकर मानुषी त्रिलोकी के ऊपर जाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। यही साधना का प्रारम्भ है। जो सर्वप्रथम प्राणायाम या ध्यान के साधारण प्रयास में देखा जा सकता है। जैसा कि गीता में कहा है कि इस प्रकार का प्रयास व्यर्थ नहीं जाता और इसका थोड़ा-सा भी अभ्यास हमें महान् भय से बचाने में समर्थ होता है। इस प्रकार के निरन्तर अभ्यास से जीवात्मा में अहंकार के बन्धन से मुक्त होने की अभिलाषा बढ़ती हुई अन्त में उसे अपने दिव्य स्वरूप का बोध कराकर एक नया जन्म दे देती है। यही इन्द्र-जन्म है। इसके साथ ही दिव्य प्राण रूपी आपः की वर्षा करने वाले उस पर्जन्य का निर्माण होता है जिसे योग की धर्ममेघ समाधि कहा जा सकता है। पर्जन्य- वृष्टि के फलस्वरूप जिन प्राणों की वर्षा होती है, वही सप्त आपः अथवा सप्त सिन्धवः कहे जाते हैं। यही वे आपः हैं, जिन्हें ऋग्वेद में सलिल के मध्य से प्रवाहित होता हुआ बताया गया है। ये अर्वाक् गति करने वाले प्राण हैं, जिनका अवतरण पूर्वोक्त उन ऊर्ध्वगामी प्राणों के प्रवाह का परिणाम है, जिनको उदक, उदन् या उदान कहा जा सकता है। तात्विक दृष्टि से प्राक् और अर्वाक् गति करने वाले प्राणरूपी उदक वस्तुतः एक ही हैं, इसी दृष्टि से उदक शब्द उन सभी प्रकार के प्राणों का प्रतीक बन गया, जो ऊर्ध्वगामी और अधोगामी प्राणों के विविध रूपों के द्योतक हो सकते हैं। अतएव हम उदकनामों में जिस मूलभूत प्राणतत्व को निहित पाते हैं, उसके लिए प्राणोदक शब्द का प्रयोग सुसंगत लगता है। यद्यपि उन नामों में आपः शब्द मूलतः ‘आपो देवीः’ का द्योतक होने के कारण साधना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझा गया है, क्योंकि इनके अवतरण पर ही वृत्रवध तथा उसकी सभी समसामयिक घटनाएं अवलम्बित हैं, फिर इनके अवतरण का श्रेय जिस पर्जन्य को दिया जायेगा, वह वस्तुतः प्राणों की उस उदंचनशीलता का ही परिणाम है, जिसके कारण प्राणोदक नाम से ही आगे प्राणतत्व की व्यापकता पर विचार करने जा रहे हैं।
[1] सुमंगल भेषजाच्चेति निपातना गुणे कृतभेषजम्, भेषजमेव भैषज्यम्। (१.१३८) [5] कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना । नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ ९.११२.३ [6] नानानं वा उ नो धियो वि व्रतानि जनानाम् । तक्षा रिष्टं रुतं भिषग्ब्रह्मा सुन्वन्तमिच्छतीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ ९.११२.१ [7] सप्त दिशो नानासूर्याः सप्त होतार ऋत्विजः । देवा आदित्या ये सप्त तेभिः सोमाभि रक्ष न इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ऋ. ९.११४.३, कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना ।नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥९.११२.३ [11]शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः । शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा ग्नाभिरिह शृणोतु ॥ अथर्व(शौ) १९.१०.६, गृभ्णामि ब्रह्मणा नाम धामधाम परुष्परु: । शीतिका नाम ते माता जलाषो नाम ते पिता ।।अथर्व(पै) ९.७.५, १३.८.६, क्व तेषु रुद्र हस्तो मृडयाको जलाषः ।अपभर्ता रपसो दैव्यस्य । १५.२०.५ [12] तं नो दात मरुतो वाजिनं रथ आपानं ब्रह्म चितयद्दिवेदिवे ।इषं स्तोतृभ्यो वृजनेषु कारवे सनिं मेधामरिष्टं दुष्टरं सहः ॥ ऋ. २.३४.७ [13] ते नः पूर्वास उपरास इन्दवो महे वाजाय धन्वन्तु गोमते ।ईक्षेण्यासो अह्यो न चारवो ब्रह्मब्रह्म ये जुजुषुर्हविर्हविः ॥ ऋ. ९.७७.३ [14] अयं नो विद्वान्वनवद्वनुष्यत इन्दुः सत्राचा मनसा पुरुष्टुतः ।इनस्य यः सदने गर्भमादधे गवामुरुब्जमभ्यर्षति व्रजम् ॥ऋ. ९.७७.४ [15] प्राणा वा आपः (तां ९.९.४, प्राणा वा आपः प्राणा वसवः । प्राणा रश्मयः । प्राणैरेव प्राणान्त्संपृणक्ति ।तै.ब्रा. ३.२.५.२ , या एवैता अवोक्षणीया आपस्ता एव स ततोऽनुसं भवति प्राणं वेव प्राणो ह्यापः। जैउ.ब्रा ३.२.५.९ [16] या ते प्राण प्रिया तनूर्यो ते प्राण प्रेयसी। अधो यद् भेषजं तव तस्य नो धेहि जीवसे।। अथर्व ११.४.९ [18] मा त्वा रुद्र चुक्रुधामा नमोभिर्मा दुष्टुती वृषभ मा सहूती । उन्नो वीराँ अर्पय भेषजेभिर्भिषक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि ॥ऋ.२.३३.४ [24] एषः (प्राणः) उ वा उद्गीथः। प्राणो वा उत्प्राणेन हीदं सर्वं उत्तब्धं वागेव गीथाच्च गीथा चेति स उद्गीथः माश १४.४.१.२५ [26] प्राणो ह्युपांशुरिमाँ ह्येव प्राणन्नभि प्राणिति असावेवान्तर्याम उदानो ह्यन्तर्यामो .. ह्येव लोकमुदनन्नभ्युदनिति अन्तरिक्षमेवोपाँशु सवन व्यानो ह्युपाँशु सवनन्तिक्षं ह्येव व्यनन्नभि व्यनिति।। मा.श. ४.१.२.२७, तु . का.श. ५.१२, तै.सं. ६.४.६, मैसं. ४.५.६, काठ.सं. २७.१, २, कपि. ४१.९.४२.२ [27]तां. ९.९.४, तै.ब्रा. ३.२.५.२, जै.उ.ब्रा. ३.२.५.९
[28] पृ.सं. १५, ७९-८०.
[29] देखिए – वैदिक दर्शन – पृ. १५८
[30] अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्। स सध्रीची स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः॥ ऋ. १.१६४.३१॥
[31] तदस्येदं पश्यता भूरि पुष्टं श्रदिन्द्रस्य धत्तन वीर्याय । स गा अविन्दत्सो अविन्ददश्वान्स ओषधीः सो अपः स वनानि ॥ ऋ. १.१०३.५५५५ [34] समी रथं न भुरिजोरहेषत दश स्वसारो अदितेरुपस्थ आ । जिगादुप ज्रयति गोरपीच्यं पदं यदस्य मतुथा अजीजनन् ॥ ९.७१.५ [36] इमं तं पश्य वृषभस्य युञ्जं काष्ठाया मध्ये द्रुघणं शयानम् । येन जिगाय शतवत्सहस्रं गवां मुद्गलः पृतनाज्येषु ॥ ऋ. १०.१०२.९ [37] ढाई अक्षर वेद के। पृ.सं. १०० [38] ढाई अक्षर वेद के। पृ.सं. १०० [39] अव त्मना भरते केतवेदा अव त्मना भरते फेनमुदन् । क्षीरेण स्नातः कुयवस्य योषे हते ते स्यातां प्रवणे शिफायाः ॥ ऋ. १, १०४, ३ [40] दश रात्रीरशिवेना नव द्यूनवनद्धं श्नथितमप्स्वन्तः । विप्रुतं रेभमुदनि प्रवृक्तमुन्निन्यथुः सोममिव स्रुवेण ॥ ऋ. १, ११६, २४ [41] प्र सुष्टुति स्तनयन्तं रुवन्तमिळस्पतिं जरितर्नूनमश्याः । यो अब्दिमाँ उदनिमाँ इयर्ति प्र विद्युता रोदसी उक्षमाणः ॥ ऋ ५, ४२, १४ [42] सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका । उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु ॥ ऋ. १०, १०६, ६ [43] सो अभ्रियो न यवस उदन्यन्क्षयाय गातुं विदन्नो अस्मे । उप यत्सीददिन्दुं शरीरैः श्येनोऽयोपाष्टिर्हन्ति दस्यून् ॥ ऋ० १०,९९,८ [44] प्र वो मरुतस्तविषा उदन्यवो वयोवृधो अश्वयुजः परिज्रयः । सं विद्युता दधति वाशति त्रितः स्वरन्त्यापोऽवना परिज्रयः ॥५, ५४, २ असश्चतः शतधारा अभिश्रियो हरिं नवन्तेऽव ता उदन्युवः । क्षिपो मृजन्ति परि गोभिरावृतं तृतीये पृष्ठे अधि रोचने दिवः ॥९, ८६, २७ [45] आ रुद्रास इन्द्रवन्तः सजोषसो हिरण्यरथाः सुविताय गन्तन । इयं वो अस्मत्प्रति हर्यते मतिस्तृष्णजे न दिव उत्सा उदन्यवे ॥ ५, ५७,१ [47] अभि क्रन्द स्तनय गर्भमा धा उदन्वता परि दीया रथेन । दृतिं सु कर्ष विषितं न्यञ्चं समा भवन्तूद्वतो निपादाः ॥ ऋ. ५, ८३, ७ [48] याः प्रवतो निवत उद्वत उदन्वतीरनुदकाश्च याः ।ता अस्मभ्यं पयसा पिन्वमानाः शिवा देवीरशिपदा भवन्तु सर्वा नद्यो अशिमिदा भवन्तु ॥ ऋ ७, ५०, ४ [49] समिधा यो निशिती दाशददितिं धामभिरस्य मर्त्यः । विश्वेत्स धीभिः सुभगो जनाँ अति द्युम्नैरुद्न इव तारिषत् ॥ ऋ ८, १९, १४ [50] आ सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णोऽयुक्त यद्धरितो वीतपृष्ठाः । उद्ना न नावमनयन्त धीरा आशृण्वतीरापो अर्वागतिष्ठन् ॥ऋ.५, ४५, १० समुद्रे अन्तः शयत उद्ना वज्रो अभीवृतः । भरन्त्यस्मै संयतः पुरःप्रस्रवणा बलिम् ॥ ऋ. ८, १००, ९ गिरिर्न यः स्वतवाँ ऋष्व इन्द्रः सनादेव सहसे जात उग्रः । आदर्ता वज्रं स्थविरं न भीम उद्नेव कोशं वसुना न्यृष्टम् ॥ ऋ. ४, २०, ६, आप्रुषायन्मधुन ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः । बृहस्पतिरुद्धरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥ऋ. १०, ६८, ४ |