वेद में उदक का प्रतीकवाद Symbolism of Water in Veda सुकर्मपाल सिंह तोमर Sukarmapal Singh Tomar अध्याय१ उदक की अवधारणा अध्याय२ प्राणोदक की व्यापकता अध्याय३ प्राणोदक एक चेतनतत्त्व अध्याय४ आपः का एकत्व और अनेकत्व अध्याय५ उदकनामों में विरोध अथवा असंगति का आभास अध्याय६ उदकनामों में एकसूत्रता अध्याय७ उदकनामों की उदञ्चनशीलता का उद्देश्य अध्याय८ उपसंहार अध्याय९ परिशिष्ट
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द्वितीय अध्याय प्राणोदक की व्यापकता प्रथम अध्याय इस प्रश्न से प्रारम्भ हुआ कि एक सौ एक वैदिक शब्दों को निघण्टु में ‘उदकनामानि’ क्यों कहा गया है और उन नामों में उदक और जल दोनों ही हैं, परन्तु उनकी समष्टि को ‘जल’ न कह कर ‘उदक’ कहने के पीछे क्या रहस्य हो सकता है? इस जिज्ञासा को तीव्रता प्रदान करने वाला करने वाला यह तथ्य भी था कि उदकनामों के अन्तर्गत कुछ ऐसे शब्द भी हैं, जिन्हें निघण्टु में तेईस अन्य सूचियों में भी सम्मिलित किया गया है और यहां उनका प्रत्यक्षतः जल से कोई सम्बन्ध दिखायी नहीं पड़ता। ‘उक्त समस्या का समाधान खोजने के लिए, हमें स्वभावतः वैदिक साहित्य की सहायता लेनी पड़ी, क्योंकि निघण्टु वैदिक शब्दकोश है, अतः उसकी प्रामाणिकता वैदिक ग्रन्थों से ही सिद्ध हो सकती है। प्राणरूप उदक इस प्रसंग में जो विवेचन किया गया, उसका निष्कर्ष यह निकलता है कि जलवाचक उदक शब्द निघण्टु में प्राण का प्रतीक होकर प्रयुक्त है और इस दृष्टि से उदकनामों के अन्तर्गत सभी शब्द संभवतः प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में किसी न किसी प्राण के द्योतक हो सकते हैं। इस सभ्भावना की पुष्टि इस बात से भी हो सकती है कि वेद में प्राण को एक अत्यन्त व्यापक तत्व माना गया है। यद्यपि सामान्यतः बोलचाल में सांस को ही प्राण कहा जाता है, परन्तु वेद में प्राण एक ऐसा तत्व है, जिसके वश मे सब कुछ है। और जिसे सर्वेश्वर भी कहा गया है... प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्।। अथर्व ११.४.१ यही नहीं, प्राण विराट है, जिसकी सभी उपासना करते हैं और वही सूर्य चन्द्रमा और प्रजापति कहा गया है[1]। प्राण ही मातरिश्वा और वात है और उसी में भूत, भव्य सब कुछ प्रतिष्ठित है[2]। प्राण का एक गर्भरूप है जो सभी देवताओं के भीतर स्थित है और साथ ही उसका एक भूत (जात) रूप है, जिसमें वह पुनः उत्पन्न होता है। वह प्राण ही भूत, भुवन, भविष्यत् पिता रूप है, जो अपने पुत्र में अपनी शक्तियों के द्वारा प्रविष्ट है[3] । दूसरे शब्दों में, प्राण एक गर्भरूप है, जो एकपुत्र, द्विपुत्र, चतुष्पुत्र, पंचपुत्र, षट्पुत्र, सप्तपुत्र, नवपुत्र और दशपुत्र ही नहीं, अपितु बहुपुत्र भी कहा जाता है- एकपुत्र इति चेकितानेयः। एको हयेवेष पुत्रो यत्प्राणः। स उ एव द्विपुत्र इति द्वौ हि प्राणापानौ। स उ एव त्रिपुत्र इति त्रयो हि प्राणो अपानो व्यानः। स उ एव चतुष्पुत्र इति चत्वारो हि प्राणोऽपानो व्यानस्समानः। स उ एव पञ्चपुत्र इति प्राणोपानो व्यानस्समानोऽवानः। स उ एव षट्पुत्र इति सप्त हीमे शीर्षण्याः प्राणाः । स उ एव नवपुत्र इति सप्त हि शीर्षण्याः प्राणाः द्वाववाञ्चौ नाभ्यां दशमः। स उ एव बहुपुत्र इति। एतस्य हीयं सर्वा प्रज्ञाः। जैउब्रा २,२,३,२ -११ यहां यह स्मरणीय है कि उदकनामों में भूतं, भुवनम् और भविष्यत् शब्द भी परिगणित हैं, जिससे जहां यह स्पष्ट होता है कि प्राण के अन्तर्गत काल के विविध रूप समाविष्ट हैं, वहां यह भी सिद्ध होता है कि इन कालवाचक नामों का समावेश करने वाली उदकनामों की सूची भी प्राणतत्व के विविध पक्षों की सूचक हो सकती है। इस दृष्टि से एक सौ एक नामों को समाविष्ट करने वाला निघण्टु का उदक शब्द त्रिकालव्यापी प्राण का ही प्रतीक माना जा सकता है। इस प्रसंग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जैउब्रा (४,११,२,४) ‘प्राणा’ वाव कः’ कहकर प्राण का समीकरण उस अनिर्वचनीय तत्व से करती है जिसे संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रजापति का वाचक माना जाता है[4] । यही अनिर्वचनीय तत्व निघण्टु[5] के पदनामों में ‘कः’ बन कर बैठा है ओर इसी का ‘कम’ रूप निघण्टु (१,१२) के उदकनामों और सुखनामों (निघण्टु ३,६) में भी मिलता है, जबकि ‘सुख’ स्वयं उदकनामों की सूची में सम्मिलित है। अतः प्राणरूप उदक ही वह अनिर्वचनीय तत्व है, जो न केवल सभी प्रजाओं में रूपान्तरित होने वाला प्रजापति भी कल्पित है, जो उन अनेक भावों के रूप में प्रकट होता है, जिन्हें सुख और दुःख नामक दो ध्रुवों के बीच में रखा जा सकता है। इस दृष्टि से निघण्टु के सभी उदकनामों को इसी अनिर्वचनीय प्राणोदक के अनेक रूपान्तर माना जा सकता है, जिस प्रकार सभी प्रजाएं कः प्रजापति की प्रजाएं हैं, अनिर्वचनीय पिता के बहुपुत्र हैं। कः प्रजापति और प्राजापत्य यज्ञ इस प्रसंग में ऋ १०, १२९ विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसमें आदि प्रजापति को हिरण्यगर्भ और कः नाम दिया गया है। इस सूक्त के सातवें मन्त्र में उदकनामों में परिगणित आपः का भी उल्लेख है, जो गर्भ धारण करते हुए अग्नि को जन्म देते हैं। आठवें मन्त्र में यही आपः दक्ष को धारण करते हुए यज्ञ को उत्पन्न करते हैं। यही यज्ञ प्राजापत्य यज्ञ के नाम से ऋ० १,१३० में वर्णित है। इस विषय में उल्लेखनीय यह भी है कि वह यज्ञ एक सौ एक देवकर्मों द्वारा नियन्त्रित होकर तन्तुओं द्वारा विश्वतः प्रसारित बताया जाता है[6]। यह उल्लेख इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि निघण्टु की सूची में ये उदकनाम भी एक सौ एक ही हैं, और जो प्राजापत्य यज्ञ एक सौ एक देवकर्मों द्वारा नियन्त्रित बताया गया है, उसके जनक का नाम उदकनामों में परिगणित आपः ही है तथा ‘आपो वा प्राणः’ की उक्ति, जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ब्राहमण-ग्रन्थों में सुप्रसिद्ध है। अतः इसकी बहुत बड़ी सम्भावना प्रतीत होती है कि निघण्टु में उल्लिखित एक सौ एक उदकनाम वस्तुतः प्राणोदक के विविध रूपान्तरों की ओर संकेत करते हैं, साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राणों को ही देव भी माना गया है[7] । अतः विविध प्राणों की गतिविधियों को उन देवकर्मों के रूप में भी माना जा सकता है, जिनके द्वारा प्राजापत्य यज्ञ (ऋ० १०, १३०,१) नियन्त्रित माना गया है। दूसरे शब्दों में, प्राजापत्य यज्ञ वस्तुतः सृष्टियज्ञ है। प्रजापति द्वारा नाना प्रकार की सृष्टि के रूप में जो यज्ञ किया जाता है, वह मै सं. १,९,३ के अनुसार प्राणों के द्वारा ही सम्पादित होता है। ‘आपो वे प्राणः’ की बहुचर्चित ब्राह्मणोक्ति के आधार पर जिन प्राणों के द्वारा प्रजापति सृष्टि करता है, वे निस्सन्देह प्राणोदक के रूपान्तर हैं। तैआ १,२३,१ कहता है कि आरम्भ में आपः सलिल रूप में थे, वही एक प्रजापति था, जो पुष्कर पर्ण में उद्भूत हुआ। उसके अन्तर्मन में इच्छा पैदा हुई कि मैं सृष्टि करूं[8] । इस विषय में स्मरणीय है कि आपः और सलिल दोनों ही निघण्टु के उदकनामों में परिगणित हैं और इसलिए बहुवचनान्त आपः को जहां अनेक प्राणों (प्रजाओं) के रूप में कल्पित किया जा सकता है, वहीं उसके सलिल रूप को एक प्रजापति कहा जा सकता है। कभी-कभी जब आपः को ही प्रजापति कहा जाता है[9], तो आपः से उसका सलिल रूप ही अभिप्रेत होता है।
प्राण, वाक् और प्रजापति :- इस प्रकार प्रजापति को जहां प्राणरूपी आपः द्वारा सृष्टि करता हुआ माना जा सकता है, वहीं कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिसके अनुसार प्रजापति का सृष्टिकार्य उसकी वाक् शक्ति द्वारा होता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य हैं ः- १. ‘प्रजापतिर्वा इदमग्र आसीन् नान्यं द्वितीयं पश्यमान स्तस्य। वागेव स्वमासीद् वाग् द्वितीया स ऐक्षत हन्तेमां वाचं विसृजे। इयं वावेदं विसृष्टा सर्वं विभवन्त्य एष्यतीति’। जैब्रा० २, २४४[10] । २. ‘प्रजापतिर्वा इदमासीत्तस्य वाग् द्वितीयासीत्, ता मिथुनं समभवत् सा गर्भमधत्त, सास्माद् (प्रजापतेः) अपाक्रमत्, सेमाः प्रजा असृजत, सा प्रजापतिमेव पुनः प्राविशत्[11] ।(काठ १२.५, २७.१, क ४२.१ इन उद्धरर्णों से स्पष्ट है कि प्रजापति आरम्भ में अकेला था और उससे उद्भूत उसकी वाक् नामक शक्ति नानात्व का गर्भधारण करके सृष्टिकर्म करती है और फिर उसी प्रजापति में प्रवेश कर जाती है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये उद्धरण इस बात का खंडन करते हैं कि प्रजापति की सृष्टि आपः रूप प्रार्णों से हुई है, परन्तु वैदिक साहित्य अपनी विचित्र शैली के द्वारा प्रतिपादित करता है कि वाक् द्वारा सृष्टि वस्तुतः प्राण द्वारा होने वाली सृष्टि ही है, क्योंकि वाक् शक्ति प्राणों में सर्वोत्तम मानी गई है--‘प्राणानां वागुत्ता’ (तैसं ५, १, ९, १; ६.६, ११,६) अतः कोई आश्चर्य नहीं कि मैसं ‘प्राणो वै वाक्’ कह कर दोनों को एक ही तत्व मानती है [12] और स्वयं निघण्टु भी अनेक उदकनामों (अक्षरं, रसः, सरः) को वाड्नामों में परिगणित करता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि वाक् को भी वैदिक परम्परा में प्राणोदक का ही एक रूपान्तर माना गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ब्रह्माण्ड और पिण्डाण्ड दोनों में ही वाक्-शक्ति एकपदी से नवपदी होकर सारी सृष्टि करती है। अतः कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उदकनामो में से नौ शब्दों को निघण्टु के पदनामों में भी स्थान मिला है। वे हैं......१. अररिन्दानि २. अहिः ३. आपः ४. इन्दुः ५. ईम् ६. जामिः ७. पवित्रम् ८. बर्हिः ९. यादः (यादृश्मिन्)। इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि निघण्टु में सभी पदनामों को प्रस्तुत करने वाले अध्यायों की संख्या भी नौ ही है। अस्तु प्राणोदक के रूपान्तरों में इन पदनामों का विशेष स्थान होने से, उनके विषय में कुछ विवेचन करना समीचीन होगा। उदकनामों में पदनाम हम पहले ही कह चुके हैं कि भाष्यकारों ने उदक शब्द को सोम के अर्थ में भी ग्रहण किया है। अतः यह स्वाभाविक है कि सोमवाचक इन्दुः शब्द भी उदकनामों की सूची में है। इन्दुः शब्द उदकनामों के अतिरिक्त पदनामों में भी परिगणित है। पदनामों में इन्दु के साथ ‘सोम’ भी सम्मिलित है। इन्दुः के साथ अन्य उदकनामों में बर्हि, अहिः, आपः, ईम्, जामिः, पवित्रम् और अरिरिन्दानि का प्रयोग पूरे वैदिक साहित्य में केवल एक बार ऋ १,१३९ मे हुआ है। इस सूक्त का पद्यानुवाद यहां दिया जा रहा है.. ऋ. १.१३९ (डा. फतहसिंह द्वारा अनूदित) शब्दश्रवण सामने करें, धी से अग्नि करें धारण। दिव्यशर्ध का वरण करें, इन्द्रवायु का यही वरण। वासनारहित केन्द्रस्थल में, नव क्रियाशक्ति का उदय हुआ। हब सब की ध्यानवृत्तियों का, तब देवों के प्रति गमन हुआ।।१ अनृतम् को ऋत के पद से जब अन्तर्मुख गति से ग्रसित किया। मित्रवरुण ने निजी मन्यु से दक्षमन्यु से ग्रहण किया।। तुम दोनों का सत्य हिरण्यय, तभी धियों से, मन से हमने। निज नेत्रों से सोमचक्षु से, दर्शन कर पाया था हमने।।२। हे विश्ववेद अश्विनो! मानो सुनाते हुए तुमको। आयुप्राणों ने किया रव, मानो किया आह्वान तुमको। हिरण्ययरथ में ही तुम्हारे, नेमियां तब स्निग्ध होती। श्री-पुष्टि की नदियां तभी, बहती हुई गतिशील होतीं।।३। तभी ऊँ भी ज्ञेय हुआ, स्वर्ग गये तुम दोनों ही। ध्वंसन रहित तुम्हारे रथ के, घोड़े नभ की यात्राओं में।। हो जाते हैं युक्त, और हम, बैठे हिरण्ययरथ बन्धुर में, मानों पथगामी दोनों के, अनुशासन में, शासन में।।४। रात-दिवस! हे शक्तिधन! बल शक्तितरंगों से हमको दो। रुके न पल भर देन तुम्हारी, और न हमसे कभी दूर हो।।५। हे वृषन्! इन्द्र! ये इन्दु-बिन्दु, ये धर्ममेघ उद्भूत! तुम्हारे। लिए करूँ वृषपान-योग्य, प्रस्तुत अभिषुत ये सारे।। महादान में विविध रूप के, आराधन हित, तुम्हें करें आनन्दित। हे सुप्रसन्न! विज्ञान गिरा से, सुस्तुत आजा.. अभिनन्दित।। ६।। हे अग्नि सुनो तुम ‘ओ सु! हमारा, राजा यज्ञिय देवों से तुम, खूब बोलते हो जी भर कर, अग्नि सुनो तुम ‘ओ सु’! हमारा- देवों, और अंगिराओं को, जो प्रदत्त थी उसको दुहता, विविधरूप में देव अर्यमा, कर्ता के भीतर साथ यथा, वही धेनु को पाये मुझमें।। ७। प्रस्तुत ‘मो षु’! तुम्हें हे मरुतो, दूर नहीं हो हमसे पलभर वे पौरुषमय कर्म तुम्हारे, ज्योतिर्मय जो सत्य सनातन क्षीण नहीं हों वीर कर्म वे, और नहीं नव घोष तुम्हारे जो युगयुग में विविध रूप के, अमरनाद हम सबके भीतर धारण करो, बनें वे दुस्तर!।।८। पूर्व अंगिरा, दध्यङ् ने, प्रियमेध-अत्रि-मनु-कण्वों ने, जाना मेरा वह जन्म ओर, वह मनुस् महत् जिन पितरों ने, देवों में उनका केन्द्रस्थल, हो और हमारा भी उनमें, जिससे उनके पद से ही हम, आनमन करें विज्ञान गिरा से, इन्द्राग्नी! उस महत् तत्व का।।९। होता हो गतिशील, और, वरणीय तत्व की जिज्ञासा पैदा हो सबके ही भीतर, वेन बृहस्पति यजन करे उन बहु-वरणीय बिन्दुओं से, धर्ममेघ का दूरागत वह घोष किया मैंने सब धारण, चेष्टाप्रद प्राणों सद्मों को धारण किया सुकृत ने भीतर।। १०। एकादश आकाशीय देव, एकादश, पृथिवी के वासी। अन्तरिक्ष में एकादश, सब देवयज्ञ स्वीकार करें।।११।
इस सूक्त में प्रयुक्त अररिन्दानि और सद्मानि दोनों ही उदकनामों में परिगणित हैं। सायण ने ‘आपोमयः प्राणाः (छांउ ६,५,४) को उद्धृत करते हुए ‘अरिरिन्दानि सद्मानि का अर्थ चेष्टाप्रदायक उदक (प्राण) किया है। इन्हीं प्राणोंदकों के लिए मन्त्र ६ में ‘इन्दवः’ शब्द प्रयुक्त है, जो स्वयं उदकनाम होने के साथ-साथ पदनाम भी है। वृषन् इन्द्र को आनन्दित करने वाले होने से, इन ‘इन्दवः’ को वृषपानासः कहा गया है। सुक्रतु (शोभनकर्मा) साधक इन चेष्टाप्रद प्राणों को धारण करता है और साथ ही दूर से प्राप्त एक नाद को भी अपने भीतर ग्रहण करता है। यह नाद वही है, जो मन्त्र ८ में हमारे भीतर मरुतों द्वारा धारण किये जाते हुए प्रत्येक युग (ध्यान-प्रयास) में नवीनता लिए हुए घोष करता है। मन्त्र ९ के अनुसार साधक का यह जन्म (जनुषं) है, जिसके जानकार दध्यङ्, पूर्वङ्गिरा, प्रियमेध, कण्व, अत्रि तथ मनु हैं। अतः नाद द्वारा घोषित यह जन्म (जनुषं) वस्तुतः इन सबका पद (चेतनास्तर) है, जिससे साधक इन्द्राग्नि नामक देवमिथुन को समर्पित होता है। इन्द्राग्नि को समर्पित होने से पूर्व, प्रथम प्रथम मन्त्र में ऋषि साधक के सामने अग्नि को ‘धी’ द्वारा धारण करने तथा उस क्रिया के नाद (शब्द) को श्रवण करने का प्रस्ताव करता है, जो वासनारहित केन्द्र (विवस्वति नाभा) में सम्यक् रूपेण प्राप्त होती है। मन्त्र ७ में, यही वाक् अंगिराओं को प्रदत्त धेनु के रूप में कल्पित हुई है। इससे पूर्व, मन्त्र तीन में, आयु-प्राणों (आयवः) ने एक नाद इस प्रकार से किया कि मानों वे अश्विनौ को सुना रहे हों। यह सब तब होता है, जब मित्रावरुण ‘ऋत’ नाम उदकप्राण पर अधिष्ठित होकर अपने और दक्ष के मन्यु द्वारा अनृत का आदान कर लेते हैं और सर्व नामक उदकों में मित्रवरुण का वह हिरण्ययस्वरूप दिखाई पड़ता है, जिसे ध्यानप्रयासों (धीभिः) के माध्यम से मन तथा आन्तरिक सोमीय चक्षुओं द्वारा देखा जा सकता है। इन्दु और इन्दवः इस सूक्त का सारांश यह है कि अरिरिन्दानि शब्द का प्रयोग उन चेष्टाप्रदायक प्राणोंदकों के लिए हुआ है, जो एक अतीन्द्रिय नाद से जुड़े हुए हैं, परन्तु जिनको साधना के फलस्वरूप मन द्वारा भी धारण किया जा सकता है। इन्हीं प्राणोदकों के लिए वेद में इन्दवः शब्द भी प्रयुक्त हुआ है, जो प्रायः सोमासः विशेषण से युक्त होकर अथवा अलग से (स्वयं, स्वतन्त्र रूप से) भी सोम बिन्दुओं का वाचक होता है।[13] ये इन्दवः अहंबुद्धि, मन और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के रूप में कल्पित सप्त सिन्धुओं के पद से सम्बन्धित है, परन्तु इस स्तर पर प्रश्न होता है कि वे अपने मूल अद्वैत रूप (स्वं वव्रिं) को कहां रख देते हैं[14] ? यहां इन्दवः के जिस स्वरूप की ओर संकेत किया गया है, उसी का वाचक एकवचन शब्द इन्दुः है, जिसके अन्तर्गत सभी इन्दवः धी (अतीन्द्रिय बुद्धि) के द्वारा एक ही में संयुक्त कर दिये जाते हैं[15]। इसका अभिप्राय यह है कि इन्दुः शब्द को जब पदनाम कहा जाता है, तो उसका सम्बन्ध दो भिन्न प्रकार के पदों से होता है। इनमें से एक तो अतीन्द्रिय तथा अतिमानिसिक चेतना का स्तर है, जिसमें इन्दुः शब्द एकवचन में प्रयुक्त होता है। इससे भिन्न पद मानसिक स्तर की चेतना है, जहाँ इन्दवः बहुवचन रूप में प्रयुक्त है। एक दूसरे पद अथवा स्तर के सोम को शरीररूपी पुर से सम्बन्ध रखने के कारण ‘पौर’ कहा जाता है, जिसको पीने के लिए जहां इन्द्र से बार-बार आग्रह किया जाता है, वहीं सोम (इन्दु) से इन्द्र को तृप्त करने के लिए प्रार्थना की जाती है।[16] पौर स्तर के इन्दवः मनुष्य व्यक्तित्व के निचले स्तर से उठते हुए ऊपर की ओर जाते हैं। अतः इनको ‘उद्भिदः’ कहा जाता है, जिनके लिए वृषपानासः विशेषण प्रयुक्त होता है, क्योंकि वे जिस इन्द्र के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं, वह ऊपर से आनन्दवृष्टि करने वाला वृषन् इन्द्र है।[17] ये इन्द्रवः नामक प्राणोदक जब ‘सत्पति’ इन्द्र के निवास को पहुंचते हैं, तो वे अपनी धवलता के कारण ‘चन्द्र इन्दव’ कहे जाते हैं।[18] यही वरेण्य सोम है, जिसको उदरस्थ करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना की जाती है और कहा जाता है कि हे इन्द्र! ये इन्दवः द्युलोक के रहने वाले हैं।[19] इस प्रसंग में, इन्द्र से अभिप्राय उस व्यष्टिगत आत्मा से है जो मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों में बिखरा हुआ रहता है, परन्तु सोपान करने के लिए उसे अपने बिखराव को समेटकर अपने अन्तस्तम में प्रवेश करना पड़ता है। इसीलिए प्रायः इन्द्र को अर्वावत् (अन्नमय) और परावत् (मनोमय) अथवा इन दोनों के अतिरिक्त उनके अन्तर्वर्ती प्राणमय कोश से भी सोमपान के लिए बुलाया जाता है। आत्मा रूपी इन्द्र के अतिमानसिक रूप को बृहस्पति कहा जाता है और दोनों के संयुक्तरूप को इन्दा-बृहस्पति नाम दिया जाता है। ये दोनों ही दिव्य आनन्दरूपी वसु की वर्षा करने वाले होकर जब सोम को पीते हैं तो इन्दवः उनके भीतर प्रवेश कर जाते हैं और तब साधक को ‘सर्ववीर रयि’ प्राप्त होती है।[20] ये इन्द्रवः चारों ओर से खींच कर समेटे जाने के कारण ‘कृष्टयः’ कहलाते हैं, जो ऊर्ध्वमुखी होकर इन्द्र के अतीन्द्रिय स्वरूप को प्राप्त होते हैं।[21] पवित्रम् , पयः और जामि आत्मारूपी इन्द्र के अतिरिक्त स्वरूप से अभिप्राय उसके उस स्वरूप से है, जो आनन्दमय कोश में विद्यमान है। इस स्वरूप तक पहुंचने में ‘इन्दव’ को अन्नमय कोश से ऊर्ध्वगति करते हुए प्राणमय और मनोमय कोश के द्वारा विज्ञानय कोश में पहुंचकर पवित्र होना पड़ता है। अतः विज्ञानमयकोश ही वह ‘पवित्रम्’ अथवा ऊर्ध्व पवित्रम् है, जिसमें जाकर अन्नमय आदि कोशों से आए हुए प्राणोदकरूपी इन्द्रवः या सोम बिन्दवः शुद्ध होते हैं। इस प्रकार विज्ञानमय कोश ही वह पद है, जिसके प्रसंग से पवित्रम् शब्द को उदकनामों के साथ-साथ पदनामों में भी सम्मिलित किया गया है। ‘दूसरे शब्दों में, यह कह सकते हैं कि स्थूल और सूक्ष्म शरीर का मिश्रित ‘सोम’ विज्ञानमय कोश की पवित्र (छलनी) में पवन (छनवा) होने के बाद शुद्ध होता है। इसीलिए विज्ञानमय (देव) कोश के प्रेरक को अथर्ववेद में पवमान (पवनेवाला या छनने वाला) कहा गया है और ऋग्वेद का नवम मण्डल इसी पवमान सोम के स्तवन से भरा पड़ा है। हमारा स्थूल शरीर तो इस सोम (आनन्द) की बूंदों को भी तरसा करता है, परन्तु यहां वह सहस्रधारा होकर पवित्र (छलनी) से निकलता है। सारे सोम का मूल तो आनन्दमय कोश ही है। यहीं आकर सोम अन्य कोशों के अस्थायित्व को छोड़कर स्थितर हो जाता है और अमृत कहलाता है। परन्तु विवित्र है यह अमृत, जो ऊपर की ओर छनता है और शरीर रूप वृक्ष का प्रेरक भी है:- अहं वृक्षस्य रेरिवः कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव। ऊर्ध्व पवित्र वाजिनीवस्वमृतमास्मि। द्रविणं सवर्चसं, सुमेधाऽमृतोक्षितः।तैआ. ७.१०.१० सुमेधा अमृतोऽक्षितं।’ वैदिक दर्शन पृ. २०-२१। इस प्रकार ऊपर की ओर छनने अथवा शुद्ध होने वाला यह ऊर्ध्व-पवित्र इन्दु (सोम) जिस आनन्दमय कोश में पहुंचता है, वही हमारी चेतना भी ‘समानं योनिः’[22] कही गई है। संयोग से यह ‘योनिः भी एक उदकनाम है। यहीं से प्रवाहित होने वाले आपः (प्राणोदक) हमको शुद्ध और पवित्र करते हुए सारे आन्तरिक कल्मष को बाहर निकाल सकते हैं।[23] इसी सोम का जो स्वरूप विज्ञानमयरूपी पवित्र (छलनी) से शुद्ध होकर निकलता है, उसी की आहुति आनन्दमय कोश में स्थित ब्रह्म को प्रदान की जाती है।[24] आनन्दमय कोश से सर्वथा शुद्ध होकर सोम का जो बिन्दु अवतरित होता है, उसी को बृहस्पति देव राधस् प्रदान करने के लिए, मनुष्य व्यक्तित्व में सर्वत्र सिंचित करते हैं।[25] इसी को पयः नामक उदक कहा जाता है, जिसके द्वारा शुद्ध किये जाने के लिए प्रार्थना की जाती है और जिसके परिणामस्वरूप हमारे भीतर पयस्वती ओषधियां प्रादुर्भूत होती हैं और हमारा वचन (अभिव्यक्ति) भी पयस्वान् माना जाता है।[26] आनन्दमय कोश ही गन्धर्व का ध्रुव पद कहा जाता है, जहां प्राप्त उक्त पयः एक अन्य उदकनाम ‘घृतं’ से युक्त होता है और उसे विप्रलोग केवल अपनी ध्यानवृत्तियों के द्वारा (धीतिभिः) ही चाहते हैं।[27] आनन्दमय आत्मा ही वह गन्धर्व है, जो वहां से प्रादुर्भूत आपः में अपनी ‘अप्याः’ नामक शक्ति से युक्त होता है और जिसके लिए नाभिः तथा ‘जामिः’ जैसे उदकनामों का भी प्रयोग होता है।[28] इस जामि को आयुध भी कहते हैं, जो स्वयं एक उदकनाम है। इसके विषय में कहा जाता है कि जब इन्द्र को यज्ञ का साधन बनाया गया तो उसके आयुध को भी जामि कहा गया है[29] । एक अन्य मन्त्र[30] (ऋ १०,८,७) में कहा गया है कि आत्मा रूपी त्रित ने अपने क्रतु द्वारा उस परम पिता परमेश्वर (इन्द्र) के संरक्षण द्वारा आन्तरिक ध्यान करने की इच्छा की तो उसने ‘जामि’ कहते हुए आयुधों को जान लिया। यहां भी जामि और आयुध दोनों ही उदकनाम पुनः प्रयुक्त हुए हैं। इससे अगले मन्त्र में उसी त्रित को अपने पिता के उन आयुधों का जानता हुआ तथा इन्द्र से प्रेरित होकर त्वष्ट्रपुत्र त्रिशिरा का वध करने वाला ओर उसके पास से गायों को मुक्त करने वाला बताया गया है। इच्छा-ज्ञान-क्रिया के क्षेत्रों में व्याप्त असुरत्व ही त्रिशिरा है, जिसका वध करने के लिए त्रित अपने पिता इन्द्र (आनन्दमय ब्रह्म) के जिन आयुधों को प्रयोग करता है, वे वस्तुतः वही प्राणोदक बिन्दु हैं, जो उत्तरोत्तर शुद्ध होते हुए अन्ततोगत्वा आनन्दमय कोश में पूर्ण पवित्र होकर उक्त त्रिशिरा के वध के लिए आयुध बनते हैं और तभी पवित्र इन्दवः कहे जाते हैं। जब पवित्र शब्द का प्रयोग एकवचन में होता है, तो आनन्दमय या विज्ञानमय का इन्दु अभिप्रेत है और बहुवचन में वही मनोमयी स्तरों के इन्दवः के सन्दर्भ का बोधक होता है। इसी दृष्टि से, जब अनेक सोम बिन्दुओं को पवित्रों के माध्यम से पवमान होता हुआ (ऋ ९,८७,५) कहा जाता है[31], तो तात्पर्य आनन्दमय कोश के अद्वैत इन्दु के विज्ञानमयी, मनोमयी और प्राणमयी त्रिविध पवित्रों द्वारा प्रवाहित होने से होता है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित मन्त्र प्रस्तुत हैं:- पवित्रेभिः पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत मर्त्यानाम्। द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत् सुभृतं चार्विन्दुः।।[32] इस मन्त्र में इन्दु को देवों और मर्त्यों का राजा कहा गया है, जो देवशक्तियों और मर्त्यशक्तियों की दृष्टि से दो प्रकार के धनों का स्वामी है और ऋतं का भरणपोषण करने वाला है। इसका अभिप्राय है कि इस इन्दु के उक्त त्रिविध पवित्रों में प्रवहमान होने से मनुष्यव्यक्तित्व की दोनों प्रकार की शक्तियां ऋतं के पोषण में लग जाती हैं और इस प्रकार से सोम मानव के नैतिक आयाम को समृद्ध करने वाला ‘चारु इन्दु’ हो जाता है। त्रिविध पवित्र, अग्नि और हवि :- इस प्रसंग में अग्नि की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि प्रायः अन्यत्र ‘पवित्र’ का सम्बन्ध, जैसा कि पहले दिखाया जा चुका है, पवमान सोम से ही होता है। कहा जाता है कि अग्नि ने तीन पवित्रों के द्वारा अर्क को पवित्र किया और हृदय से मानसिक ज्योति को विशेष रूप से जानते हुए अपनी स्वधाओं के द्वारा सर्वाधिक वर्षणशील रत्न (वर्षिष्ठं रत्नं) को पैदा किया और तत्पश्चात् द्यावापृथिवी को चारों ओर से देखा - त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन। वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरा दिद्द्यावा पृथिवी पर्यपश्यत।। [33] यहां जिसको ‘वर्षिष्ठं रत्नम्’ कहा गया है, वह सोम का इन्दु रूप ही है, जो अन्यत्र (ऋ. ९.९६. ३) आपः को बरसाता हुआ मनोमय, प्राणमय और अन्नमय रूपी आकाश, अन्तरिक्ष और पृथिवी को ओतप्रोत करता हुआ कहा जाता है[34], तो इसका तात्पर्य है कि अग्नि सोम का जनक है। इस बात का स्पष्टीकरण करने के लिए यह ध्यान में रखना होगा कि उक्त मन्त्र के पूर्व ही अग्नि अपना परिचय देता हुआ कहता है कि मैं जन्म के द्वारा जातवेद हूं, घृत मेरा चक्षु है, अमृत मेरा मुख है और मैं रजस् का विविधरूप में निर्माण करने वाला त्रिधातु अर्क, अजस्र धर्म हूं और मेरा नाम हवि है- अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं चक्षुरमृतं म आसन्। अर्कस्त्रि धातु रजसो विमानोऽजस्रो धर्मो हविरस्मि नाम।। [35] यहां जिस अग्नि का उल्लेख है, वह वही जातवेदस है, जिसे हम पहले ही अग्नि, इन्द्र और सोम की संयुक्त इकाई के रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। अतः इस जातवेदस् के द्वारा सोम को उत्पन्न करना कोई आश्चर्य की बात नहीं: इसी दृष्टि से सोम को अग्नि[36] अथवा अर्चिवत् अग्नि[37] कहकर सम्बोधित किया गया है और उससे प्रार्थना की गई है कि वह अपने ब्रह्मसवों द्वारा (ब्रह्मसवैः) हमें पवित्र करें। यहां जिन ब्रह्मसवों का उल्लेख है, वे ही दो पूर्वाद्धृत मन्त्रों में स्वधायें हैं, जिनके द्वारा अग्नि को ‘वर्षिष्ठं रत्नं’ की सृष्टि करने वाला कहा गया है। ब्रह्म और स्वधा दोनों ही उदकनामों में परिगणित हैं। अतः मूलाधार से उत्तरोत्तर उठती हुई प्राणाग्नि अपने में ब्रह्म के जिस उत्तरोत्तर स्वः को ग्रहण करता है, वही उसका ब्रह्मसव अथवा स्वधा है। इस प्रकार अन्नमय कोश से ऊर्ध्वगामी होकर विभिन्न कोशों की दृष्टि से अग्नि के अनेक ब्रह्मसव अथवा स्वधाएं कही जा सकती हैं, जिनके द्वारा अन्ततोगत्वा इन्दुः रूपी ‘वर्षिष्ठं रत्नं’ की सृष्टि हो जाती है। यहां यह शंका हो सकती है कि जब जातवेदस् अग्नि को सोम का जनक मानने में उसे विज्ञानमय स्तर के इन्द्र, अग्नि ओर सोम की संयुक्त इकाई कहा गया, तो उससे पूर्व वह उक्त ब्रह्म अथवा स्वधा नामक सोम की सृष्टि कैसे कर सकता है? इसका निराकरण वेद ने स्वयं वैश्वानर अग्नि की कल्पना द्वारा कर दिया है। उक्त वर्षिष्ठ रत्न की सृष्टि के प्रसंग में जिस मन्त्र को उद्धृत किया गया है, वह वस्तुतः वैश्वानर अग्नि का है। यह सूक्त अपने प्रथम मन्त्र में मनसा ज्ञातव्य, स्वर्विद, सुदानु, अनुसत्य वैश्वानर अग्नि का उल्लेख करता है। उसी को दूसरे मन्त्र में शुभ्र, मातरिश्वा तथा बृहस्पति अतिथि आदि के रूप में भी स्मरण करता है। तीसरे मन्त्र में यही अग्नि प्रत्येक ध्यानयोग के प्रयास में (युग-युग) अधिकाधिक प्रज्ज्वलित होता है और अन्त में अमृतों में जागरूक होकर वही उक्त वर्षिष्ठं रत्न प्रदान करता है। चौथे मन्त्र में इसी अग्नि के अनेक रूपान्तरों को विश्ववेदसः मारुतः अग्नयः’ कहा गया है और पांचवे में फिर ‘अग्निश्रियः मरुतः विश्वकृष्टयः’ कहकर , छठे मन्त्र में मरुतो के प्रत्येक व्रात (समूह) और गण से अग्नि के उस तेज की कामना की गई है, जिसे उसी मन्त्र में ‘मरुताम् ओजः’ भी कहा गया है। सातवें मन्त्र में यही वैश्वानर अग्नि अपने ‘अग्निरस्मि जातवेदा’ की घोषणा करता है, जिसके चक्षु को आनन्दमय स्तर का घृत नामक उदक और मुख को उसी स्तर का अमृत नामक उदक बतलाया गया है। इस सबका अभिप्राय यह है कि विज्ञानमय स्तर पर इन्द्र, अग्नि और सोम की जिस संयुक्त इकाई को जातवेदा कहा जाता है, वही वस्तुतः मानसिक स्तर पर मनसा ज्ञातव्य वैश्वानर है, जिसकी विभिन्न रश्मियां मरुद्गणों के रूप में प्रस्फुटित होने लगती हैं। इसी दृष्टि से, उपर्युक्त सूक्त का उपसंहार करते हुए अग्नि के ‘शतधारम् अक्षीयमाणं विपश्चितम् उत्सम्’ रूप को प्रस्तुत करते हुए, उसे सब अभिव्यक्तियों का पिता तथा सत्यवाक् कहा गया है। दूसरे शब्दों में, मानसिक स्तर पर जो मरुतों के विभिन्न गणों के रूप में प्रकट होने वाला वैश्वानर अग्नि था, वही अन्ततोगत्वा विज्ञानमयकोश में पहुंचकर शतधार उत्स कहे जाने वाले इन्दु अथवा सोम को प्रस्तुत करने वाला जातवेदस् अग्नि बन गया। हम देख चुके हैं कि यही जातवेदस् अपने को हवि कहता है। सामान्यतः हवि को द्रव्य-यज्ञ की आहुति-सामग्री के रूप में ही ग्रहण किया जाता है, परन्तु स्वयं वेद में उसके एक आध्यात्मिक तत्त्व होने के प्रमाण विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए, एक मन्त्र में देवों के लिए चेतनहवि की सृष्टि का उल्लेख है।[38] आपः देवी से प्रार्थना की जाती है कि वह अहंबुद्धि, मन तथा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय रूपी सिन्धुओं को क्रियात्मक हवि प्रदान करे।[39] मन, बुद्धि आदि शाश्वत तत्वों से विभिन्न देवों को दी जाने वाली जो हवि अग्नि के लिए ही मानी जाती है, वह भी कोई आध्यात्मिक तत्व ही होना चाहिए।[40] अग्नि मानवी भक्त के लिए जिस बृहद्भा हवि को धारण करता है, वह भी आन्तरिक ज्योति ही प्रतीत होता है।[41] इसी प्रकार हवि के लिए प्रयुक्त ब्रह्मवाहः[42] सत्यराधा तथा त्रिधासमक्तं[43] जैसे विशेषण भी उसी आध्यात्मिक हवि के लिए उपयुक्त लगते हैं, जिसे बुद्धियों द्वारा (धीभिः) उत्पन्न किया जाता है।[44] ब्रह्ममणस्पति को सम्बेधित करते हुए, वृत्रवध के लिए मन को भद्र करने हेतु तथा हवि तैयार करने के लिए कहा जाता है, तो भी हवि को किसी भौतिक अर्थ में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि वृत्र स्वयं हमारा अहंकार नामक आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसका वध किसी आध्यात्मिक साधन के द्वारा ही हो सकता है।[45] शक्तिदाता अग्नि देवजन्मों को जानने के लिए जिस हवि को उत्पन करता है,[46] वह भी क्या कोई भौतिक द्रव्य हो सकता है? इसी प्रकार दक्षिणा दिशा को जाने वाली वाजशक्ति से प्राची तथा घृताची कही जाने वाली हवि के स्वरूप को भी तभी समझा जा सकता है, जब इसके प्रतीकवादी अर्थ को समझकर उसे आनन्दमयकोश के घृतरूपी आनन्द की ओर जाने वाली और उससे दक्षतायुक्त होने वाली आध्यात्मिक शक्ति के रूप में ग्रहण किया जाये।[47] जातवेदा अग्नि के लिए, जिस पुरोडाश को हवि[48] के रूप में दिया जाता है, वह ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार मनुष्य का मस्तिष्क है।[49] इसीलिए उक्त मन्त्र में जातवेदा अग्नि को धियावसु कह कर सम्बोधित किया जाता है। हृदय द्वारा निर्मित हवि (ऋ ६, १६, ४७)[50] तथा हवियों में वन्दनीय हवि (ऋ ९, ७, २)[51] और देवों के लिए उत्तम हवि (ऋ ९, ६७, २८)[52] जैसे उल्लेख भी उसी आनन्दरस रूपी सोम की ओर संकेत करते प्रतीत होते हैं, जिसको स्पष्टतः उत्तम हवि कहा जाता है। जिस हवि को शतधार वायु, अर्क, तथा स्वर्विद कहा जाता है और जो सप्तमातरदक्षिणा का दोहन करने में सहायक हो सकती है, वह भी ऐसे दक्षता होनी चाहिए, जो अहंबुद्धि और मन सहित पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के सशक्त होने से प्राप्त होती है ( ऋ १०, १०७, ४)[53] जिस हवि को उरु अन्तरिक्ष, वननीय प्रकाश, स्वः तथा सोम कहा जा सकता है [54] और जिसका आह्वान श्रद्धा द्वारा होता है[55], वह भी निस्सन्देह वही उत्त्म हवि कहलाने वाला आनन्दरस रूपी सोम ही हो सकती है। इसी प्रकार वेदों से अनेक ऐसे मन्त्र उद्धृत किये जा सकते हैं जो हवि के आध्यात्मिक स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। उदकनाम हवि के विषय में सर्वाधिक विचित्र एक बात यह है कि इसके अर्भ (अल्प) और महत् नाम से दो रूप हैं और इन दोनों में ही विद्यमान एक ही ‘समान’ अग्नि है, जिसे मेधाकार और मति कहा गया है:-
मेधाकारं विदथस्य प्रसाधनमग्निं होतारं परिभूतमं मतिम् । इसका स्पष्ट अभिप्राय है कि जिस हवि में ‘मेधाकार’ और ‘मति’ कहलाने वाली अग्नि होगी, वह भी कोई आध्यात्मिक तत्व ही होगा। साथ ही इस हवि का एक अर्भ (बीज) रूप है और दूसरा महत्, जिसमें वही एक अग्नि समानरूप से विद्यमान है। कुछ इसी प्रकार, यही बात आपः (उदकनाम) के विषय में कही जा सकती है, क्योंकि आपः भी अपने एक रूप में अहिगोपाः (अहि के द्वारा गुप्त) है और दूसरे रूप में वही मुक्त रूप से प्रवाहित होने वाले आपः अथवा सिन्धवः है। ये आपः अग्नि को गर्भरूप में धारण करते हुए तथा उसे जन्म देकर यज्ञरूप प्रदान करते हैं (ऋ १०, १२१, ७-८) तो वे ‘आपः’ ‘चन्द्राः बृहतीः’ (वही मन्त्र ९) कहे जाते हैं। साथ ही प्रासंगिक यह भी है कि यह वृत्तान्त जिस सूक्त ( ऋ १०.१२१) में प्राप्त है, उसकी टेक है ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’। निस्सन्देह, यह वही सोम है, जिसे उत्तम हवि कहा जाता है। इस टेक के देव और हवि को हम पुनः (ऋ १०, ८१, ५) के क्रमशः विश्वकामों तथा उस हवि में पाते हैं, जिसमें विश्वकर्मों के परम, अवम, मध्यम और ये (इमाः) धाम स्थित हैं कहे जा सकते हैं। अप, हविर्धानम्, ईम् और अहिः विश्वकर्मा के अंगभूत ‘कर्म’ नाम तत्व को एक अन्य उदकनाम ‘अपः’ में देखते हैं, जो स्वयं कर्मवाचक भी है। यह कर्मनाम और उदकनाम अपः शब्द वस्तुतः प्राणवाचक ‘आपः’ (उदकनाम) का ही एक रूपान्तर माना जा सकता है, क्योंकि हमारी प्राणशक्ति ही तो कर्मरूप में प्रकट होती है। यही अपः (कर्म) वह ऊं है, जो यज्ञरूप में विस्तार पाकर ‘समुद्र विश्वदेव्य’ बनता है, तो स्वादिष्ठाधीति को अभिव्यक्ति मिलती है। ततं मे अपस्तद् ऊं तायते पुनः स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते। अयं समुद्र इह विश्वदेव्यः स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभवः।। [56] ‘स्वादिष्ठा धीति’ से संकेत यहां सोम नामक आनन्दानुभूति से है, जो स्वादिष्ठा धारा द्वारा इन्द्र हेतु पवमान होता हुआ (ऋ ९, १, १) कहा जाता है। यह सोम ही हवि और हविर्धान कहा जाता है।[57] हविर्धान यज्ञ का शिर है (माश ३, ५, ३, २) और हविर्धान का प्रतीक पुरुष का शिर (क्रौब्रा १७, ७) है, क्योंकि ‘स्वादिष्ठा धीति’ रूप में सोम (हविर्धान) का मनुष्य के शिर से अभिन्न सम्बन्ध है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि यज्ञ रूप में विस्तार योग्य आपः और स्वादिष्ठा धीति रूप में हविर्धान सोम भी निस्सन्देह आध्यात्मिक तत्व ही हैं। पूर्वोक्त अपः (कर्म) के विस्तार होने के साथ ही ऊं के भी विस्तार की बात कही गई है-तद् ऊं तायते पुनः । यहां यह संकेत है कि अपः रूप में वस्तुतः ऊँ का ही अस्तृत (संकुचित) लघुरूप है, जो यज्ञरूप में विस्तार पाकर ‘समुद्र विश्वदेव्यः’ हो जाता है। अपः हविः और इन्द्र (परमेश्वर) रूप में ऊं के अर्भरूपों के प्रतीक क्रमशः उनके आदिवर्ण अ, ह, तथा इ हो सकते हैं। अतः इन तीनों आदिवर्णों की संयुक्त इकाई होने से, अहिः शब्द अपः, हविः और इन्द्र के अर्भत्व (ऋणात्मक स्वरूप) का द्योतक हो सकता है। अतः अहिः चेतना के जिस पद का नाम है, उसमें अपः हविः और इन्द्र लगभग नहीं के बराबर है। अतः अहिः में जहां ‘शयानः इन्द्रशत्रुः’ कह कर अपः की सक्रियता तथा इन्द्र के इन्द्रत्व का विरोधी ‘ध्रुव’ माना गया है, वहीं उसे दीर्घतमः कह कर उसमें हवि (सोम) की ज्योतिर्मयता का विरोधी ध्रुव भी देखा गया है। दूसरे शब्दों में, अहिः प्राणोदकधारा का वह पद है, जिसमें शुक्रम् जैसे ज्योतिसूचक उदकनामों की दीप्ति का लगभग पूर्ण अभाव होता है। अपः, हविः (सोम) और ईम् के वर्धमान होते रहने का नाम ब्रह्म अथवा इन्द्रजन्म है, जिसका ही दूसरा नाम है अहि का वध, क्योंकि इन्द्रजन्म, वस्तुतः अहि पद का दूसरा (विरोधी) ध्रुव है। ‘इन्दवः की इसी ओर निरन्तर ऊर्ध्वगति का नाम है-इन्दु का इन्द्र के लिए परिस्रवण करना[58] अथवा इन्दु देव को व्याप्त कर लेना [59] विभिन्न स्तोम और तुग्र्या :- इन्दवः की ऊर्ध्वमुखी प्रगति के विभिन्न स्तर होते हैं और उनमें से प्रत्येक स्तर एक प्रकार का स्तोम होता है और उसके साथ-साथ ये इन्दवः ‘पवित्रं’ (छलनी) से ऊपर सरकते हुए तीव्रगामी होकर इन्दु को आनन्दित करते हैं।[60] इन इन्दवः को तुग्र्या नामक उदक से वर्धमान होते हुए कहा जाता है। तुग्र्या शब्द आदित्यवाचक तुग्र शब्द से निष्पन्न हो सकता है।[61] तदनुसार तुग्र्या से आदित्यमूलक प्राण अभिप्रेत होंगे। ज्यों-ज्यों साधना बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों आदित्यप्राण प्रकट होते जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इन्दवः अधिक परिष्कृत और उत्कृष्ट होते जाते हैं। अतः उनको तुग्र्यावृधः कहा जाता है।[62] अहंकार के स्तर से अहंपूर्व के स्तर की ओर जो साधना चलती है, उसमें परिष्कृत प्राणापन के रूप में परमेश्वर प्रजापति का प्रस्तुतीकरण हो जाता है। इसी की ओर लक्ष्य करके जैब्रा स्तोम शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार करता है...... ‘स प्रजापतिः इन्द्रम् अब्रवीत् कथं न्व अहम् इतः पुनरन्वाभवेयम् इति। किं खलु वै तेऽस्तीत्य् अब्रवीत् स्तो न्वे म इमो प्राणापानाव इति। यत् स्तोम इत्य् अब्रवीत् तत् स्तोमस्य स्तोमत्वम्।[63] दूसरे शब्दों में साधना के स्तर विशेष पर मनुष्य व्यक्तित्व में प्राणापान का जो स्वरूप होता है, उसी का नाम स्तोम है। इसी दृष्टि से ब्राह्मण ग्रंथ[64] पराक् और पूर्वाक् प्राण स्तोम रूप में प्रस्तुत करता हुआ उन्हें क्रमशः प्राणापानौ, अहोरात्रे, पूर्वपक्षापरपक्षौ, द्यावापृथिव्यौ, इन्द्राग्नि, मित्रावरुणौ तथा अश्विनौ नाम देता है। इस प्रकार अहंकार से अहंपूर्व की ओर बढने से निरन्तर उच्चतर स्तोमों की सृष्टि होती जाती है। इसी प्रसंग में ऋग्वेद का यह मन्त्र है - तुञ्जे तुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणः। न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्।। ऋ १, ७,७ इसके अनुसार परमेश्वर इन्द्र के ध्यान का प्रत्येक संकल्प उसी वज्री इन्द्र का तुञ्ज (वज्र) है और इस प्रकार प्रत्येक बार एक नया उच्चतर स्तोम बन जाता है, परन्तु वह परमेश्वर अनन्त है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौन से स्तोम में उसकी सुष्टुति (शोभन प्रस्तुति) हो जायेगी। परन्तु यह सुष्टुति होती है, इस बात का प्रमाण यह है कि उस समय अनेक अग्नियां चमक उठती हैं, सूर्य प्रकट हो जाता है, सोम नामक इन्द्रियरस प्रादुर्भूत हो जाता है तथा अन्तरिक्ष से महान् अहि (अहंकार रूपी वृत्र) निष्कासित कर दिया जाता है। यह सब इन्द्र का सबसे बड़ा पराक्रम है-
निरग्नयो रुरुचुर्निरु सूर्यो निः सोम इन्द्रियो रसः । यह वस्तुतः इन्द्र और मरुतों का एक विशेष शोभिष्ठ दान है, जिसको परिपक्व साधना वाले और कर्मयोगी साधक (पाकस्थामा कौरयाणः) द्युलोक में दौड़ते हुए सा पाते हैं।[65] इसी दान को आध्यात्मिक धनों का बोध कराने वाला (रायो विबोधनम्) रोहित कहा जाता है।[66] उसके लिए दस इन्द्रियों की प्राणाग्नियां एक दूसरा भाग लाती हैं, जिसको घर आये हुए आदित्य बल के समान (वयो न तुग्र्यम्) कहा जा सकता है। वैदिक ऋषि के शब्दों में, इस आदित्यबल को हम परमेश्वर पिता की आत्मा, सूक्ष्म आच्छादन, ओज प्रदाता व्यापक लेप कह सकते हैं, अथवा यह उसी रोहित के तुरीय, परिपक्व भोज को देने वाला कहा जा सकता है-
आत्मा पितुस्तनूर्वास ओजोदा अभ्यञ्जनम् । भुज्यु का तुरीयं भोजम :- यहां जिस ‘तुरीयं भोजं’ की बात की गई है, वही साधक का परम लक्ष्य है। अहंकार के वशीभूत होकर आत्मा अपने इस लक्ष्य को भूल जाता है और नाना प्रकार के इन्द्रिय-भोगों का प्रेमी होकर भुज्यु कहलाता है। यह भुज्यु वस्तुतः तुग्र नामक आदित्यरूपी परब्रह्म का पुत्र है, इसलिए इसको तौग्र्य कहा जाता है। लक्ष्य-भ्रष्ट होने के कारण, वह जब भवसागर के बीच डूबने लगता है, तो वह अपनी रक्षा के लिए अश्विनौ को पुकरता है।[67] और यह देवयुगल एक अद्भुत नाव का प्रयोग करके उसकी रक्षा करता है।[68] इस नौका को कभी तो आत्मन्वत् पक्षी कहा जाता है (ऋ १, १८२, ५) और कभी उसे समुद्र के बीच में स्थित एक रहस्यमय वृक्ष कहा जाता है, जिससे तौग्र्य चिपट जाता है (वही मन्त्र ७)। साथ ही, एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि यह तौग्र्य एक ऐसे अनन्त अन्धकार में आपः के भीतर पीड़ित रोता है, तो अश्विनौ के द्वारा प्रेषित चार नौकाएं उसको पार लगाती हैं-- अवविद्धं तौग्र्यमप्स्वन्तरनारम्भणे तमसि प्रविद्धम्। चतस्रो नावो जठलस्य जुष्टा उदश्विभ्यामिषिताः पारयन्ति।। ऋ १, १८२, ६ डा० फतहसिंह के अनुसार ये चार नौकाएं साधनायुक्त अन्नमय, प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय कोश हैं, जो जीवात्मा रूपी तौग्र्य या भुज्यु को परमपिता परमेश्वर रूपी इन्द्र के पास पहुंचा देते हैं। उस समय परमेश्वर इन्द्र अपनी शक्ति से साधक के भीतर सूर्य को देदीप्यमान कर देता है और साधक के सभी आन्तरिक भुवन उसी इन्द्र में नियन्त्रित हो जाते हैं।[69] इसका अभिप्राय है कि साधक के भीतर आनन्दरस रूपी सोमबिन्दुओं की उत्पत्ति और प्रसार का जीवात्मारूपी तौग्य्र की साधनायात्रा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः तौग्य्र के उद्धार की घटना को सभी सोमसवनों में प्रवाच्य माना जाता है।[70] ये इन्दवः (सोम बिन्दु) वस्तुतः साधक के हृदय में उत्पन्न भावतरंगे हैं, जो उस परमपिता रूपी इन्द्र को भी प्रसन्न करती हैं। इसलिए इन्द्र से प्रार्थना की जाती है कि वह ज्येष्ठ सोम को बलात् पी ले और साधक को सहः अथवा राधस् नामक बल प्रदान करे।[71] इन्द्रः और सहः - इस प्रसंग में सहः का उल्लेख महत्वपूर्ण है, क्योंकि सहः भी उदकनामों में परिगणित है। इन्द्र स्वयं कहता है कि मैं अपने इस सहस् के द्वारा एक-एक को सहस्कार बनाता हूं।[72] एक मन्त्र में, अनेक सहः नामक बलों में जातवेदस् की भी गिनती की गई है।[73] इससे संकेत मिलता है कि यह सहः नामक बल उस जातवेदस् नामक संयुक्त इकाई का बल है, जिसमें अग्नि, इन्द्र और सोम तीनों ही एकत्र कहे जाते हैं। एक अन्य मन्त्र में इस सहः को बलवान इन्द्र का एक ऐसा सत् बताया गया है, जो उग्र का उग्र, शक्तिशाली का शक्तिमान तथा शीघ्र की शीघ्रता है।[74] यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं कि सत् शब्द भी उदकनामों की सूची में परिगणित है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। सहः शब्द के साथ-साथ अन्य अनेक उदकनाम प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरणार्थ निम्न मन्त्र प्रस्तुत है- नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः। नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्।। ऋ १, २४, ६ इस मन्त्र में क्षत्रं, सहः, आपः और अभ्वम् जैसे उदकनामों का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार अन्य मन्त्रों में सहः के साथ शवस्[75], अप[76], महत्[77], इन्दवः[78], ओज[79], मह[80] और ब्रह्म[81] आदि अनेक उदकनामों का उल्लेख हुआ है। वास्तव में इन उदकनामों की परिणति ब्रह्म में होती है। ब्रह्म के पानपर्यन्त उत्तरोत्तर वर्धमान इस उदक अथवा इन्दु (सोम) की अनुभूति के विभिन्न स्तरों को ही विभिन्न उदकनामों से अभिहित किया गया प्रतीत होता है। इसीलिए मरुतों से प्रार्थना की जाती है कि वे हमें दिन-प्रतिदिन उस आपान-ब्रह्म का पान करायें और इस निमित्त आपत्ति में पड़े हुए अपने स्तोताओं को मेधा तथा सहः प्रदान करें-- तं नो दात मरुतो वाजिनं रथ आपानं ब्रह्म चितयद्दिवेदिवे। इषं स्तोतृभ्यो वृजनेषु कारवे सनिं मेधामरिष्टं दुष्टरं सहः।[82] आपानंब्रह्म कहने का तात्पर्य यह है कि ये जितने-उदकनाम हैं, वे सब उसी वर्धमान तत्व के विभिन्न स्तरों के द्योतक हैं, जो अन्ततोगत्वा ऐसे ब्रह्म में परिणत हो जाता है, जिसका आपान (सर्वतोमुखी पान) साधक स्वयं करने लगता है। ‘आपान ब्रह्म की अवस्था में साधक इन्द्र (ब्रह्म) और इन्दु (ब्रह्म) के उस अभेद की अनुभूति करता है, जिसको व्यक्त करने के लिए इन्द्रदेव और इन्दुदेव दोनों को ही सत्य कहा जाता है, क्योंकि सत्य इन्द्र, सत्य इन्दु को उस अवस्था में व्याप्त किये होता है - सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः ( २, २२, १-३) ब्रह्म और बर्हि: - इन्द्र और इन्दु के उक्त अभेदपद की प्राप्ति के लिए साधक को पहले बर्हि स्तीर्ण करनी पड़ती है। उस बर्हि को प्राचीन-बर्हि कहा जाता है, जिसको वस्तुतः पवमान सोम ही अपने ओज के द्वारा स्तीर्ण करता हुआ विभिन्न देवशक्तियों में गतिशील रहता है- बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः। देवषु देव ईयते।। ऋ ९, ५, ४ इस प्राचीन बर्हिः को ‘सहस्रवीर’ भी कहते हैं, जिस पर आदित्यगण विराजमान होते हैं।[83] इसका अभिप्राय है कि आनन्दमय कोश से जिस अनुपात में परब्रह्म के आनन्दरसरूपी सोम अथवा इन्दु का अवतरण होता है, उसी अनुपात में यह बर्हि स्तीर्ण होने लगती है। यह प्राची नामक कार्यज्ञान की दिशा की ओर उन्मुख होकर दक्षशील होती है, अतएव इसको ‘प्राचीन बर्हिः’ कहा जाता है। बर्हिः शब्द उद्यगानार्थक वृद्ध्यर्थक और उद्यमानार्थक बृह् धातु से निष्पन्न होने के कारण ऊपर की ओर वर्धमान अथवा गतिशील तत्व है। इसके उत्तरोत्तर स्तरों को सूचित करने वाला ‘ब्रह्माणि’ शब्द भी उसी बृह् धातु से निष्पन्न है। आन्तरिक ध्यानयज्ञ की प्रक्रिया के अन्तर्गत देवशक्तियों को आकर्षित करने वाली तथा शुद्धिकरण के फलस्वरूप उसको मेघरूप देनेवाली यह समस्त गतिविधि परमेश्वर इन्द्र के आह्वान के लिए की जाती है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र में संकेतित है- अयं यज्ञो देवया अयं मियेध इमा ब्रह्माण्ययमिन्द्र सोमः। स्तीर्णं बर्हिरातु शुक्र प्र याहि पिबा निषद्य विमुचा हरी इह।।[84] यह बर्हिः वस्तुतः साधक का अन्तकरण है। अतएव बर्हिः को अन्तरिक्ष नामों में भी सम्मिलित किया गया है। वही अन्तःकरण रूपी बर्हिः देवव्यचा कही जाती है, क्योंकि यही वह ऊर्ध्वगातु है, जो अध्वर नामक आन्तरिक यज्ञ में बनाया जाता है और जिसके परिणामस्वरूप देदीप्यमान रजःकणों का प्रारम्भ होने लगता है तथा हमारा ज्ञानाग्निरूपी होता मनोमय आकाश के केन्द्र में आसीन हो जाता है।[85] बर्हिः के इसी स्वरूप के सम्बन्ध में साधक के प्राण परिबृहंण करने लगते हैं, तो उनको भी बृह् धातु से निष्पन्न बृहन्ता कहा जाता है ।[86] इसी प्रकार साधक का मनोमय कोश रूपी द्यौ तथा प्राणान्नमय रूपी पृथिवी की संयुक्त इकाई द्यावापृथिवी भी बृहती कही जाती है।[87] अन्तःकरण रूपी बर्हिः का विस्तार मनीषी लोग वहां तक करते हैं, जहां तक वह बर्हि आनन्दरूपी घृत से सराबोर होकर घृतपृष्ठ कही जाती है और जहां ब्रह्म के अमृततत्व का साक्षात्कार हो जाता है।[88] सम्भवतः इसी स्तर को वह बर्हि पद कहा जाता है, जिसके कारण इस शब्द की गणना पदनामों में की गई है। इसी बर्हि पर उस दैव्य जन को आसीन किया जाना साधना का लक्ष्य है, जिसे हम परमेश्वर इन्द्र अथवा परब्रह्म कह सकते हैं ।[89] बर्हि के स्तरण को ही, एक दृष्टि से अनावरण भी कहा जा सकता है, क्योंकि वस्तुतः बर्हि की यह बर्हण-प्रक्रिया अहंकार के प्रभाव में आवृत तथा बद्ध रहती है, जो कि साधना के फलस्वरूप अनावृत्त तथा मुक्त होकर स्तीर्ण होने लगती है, जिसके फलस्वरूप आपः भी मुक्त होकर अपने पद को ग्रहण करते हैं अर्थात् प्रवाहित होने लगते हैं[90] । यहां यह भी स्मरणीय है कि इस बर्हि को त्रिधातु कहा जाता है, क्योंकि अहंकार के प्रभाव में वह केवल अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश की शक्तियों से ही सम्बन्ध रखती है और अहंकार से मुक्त होने पर वह विज्ञानमय कोश की ओर भी गतिशील होती है। इसी दृष्टि से, अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह आनन्दमय कोश रूपी दिव से और विज्ञानमय कोश रूपी अन्तरिक्ष से वरुण और इन्द्र को ले आयें और सब देवों को उक्त त्रिधातु पर आसीन करें[91] । अन्तरिक्षरूपी बर्हि के सम्बन्ध से ही पवमान को बर्हिः कहा गया प्रतीत होता है[92] । पवमान सोम तथा इन्द्र के प्रभाव से ही शुष्ण कुयव जैसी सहस्रों आसुरी शक्तियों का वर्धन (या बर्हण) रूक जाता है। अतः उस आसुरी शक्ति को रोकने के लिए निबर्हीः क्रिया का प्रयोग किया जाता है, जो उसी धातु से निष्पन्न है, जिससे कि बर्हिः।
व्यापक प्राणतत्व उक्त विवरण से स्पष्ट है कि उदकनामों के माध्यम से वेदों में उस प्राणतत्व के विविध व्यापक तथा विराट् स्वरूप का दिग्दर्शन करया गया है, जिसे वेदमन्त्रों में सर्वेश्वर तथा विश्वेश्वर तक कहा गया है और जिसमें जगत् का सारा नानात्व प्रतिष्ठित बताया गया है। इस दृष्टि से वेदमन्त्रों में जहां आपः, सलिलानि, अररिन्दानि, नद्यः, सिन्धवः आदि बहुवचन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वहीं सलिलं, महत्, इन्दुः, सत्यं, शुभं और स्वः जैसे एकवचन शब्द भी हैं। गुणात्मकता की दृष्टि से जहां बुसं और विषं जैसे शब्दों का प्राणोदक के लिए प्रयोग हुआ है, वहीं अमृतं ऋतं तथा तृप्तिः जैसे शब्द भी प्रयुक्त हैं। प्राणतत्व की यह विराटता, विविधता और व्यापकता निस्सन्देह स्वाभाविक है, क्योंकि जिसको प्राणानाम् उत्तमा ज्योतिः कहा जाता है, वह वाक् ही तो प्रजापति के उस सृष्टियज्ञ का मूलाधार है, जिसे प्राजापत्य यज्ञ कहा जाता है और जो एक सौ एक देवकर्मों द्वारा आयत कहा जाता है। इन एक सौ एक देवकर्मों से निस्सन्देह एक सौ एक उदकनामों की याद आ जाती है।
[1] प्राणो विराट् प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते। प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राणमाहुः प्रजापतिम्।। अथर्व ११.४.१२ [2] प्राणमाहुर्मातरिश्वानं वातो ह प्राण उच्यते ।प्राणे ह भूतं भव्यं च प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ ११.४.१५ [3] अन्तर्गर्भश्चरति देवतास्वाभूतो भूतः स उ जायते पुनः ।स भूतो भव्यं भविष्यत्पिता पुत्रं प्र विवेशा शचीभिः ॥ ११.४.२० [4] प्रजापतिर्वै कः – तैसं. १.६.८.४, मैसं १.१०.१० ऐब्रा २.३.८ जैब्रा १.२९० माश ६.४.३.४ कौ ५.४, गोब्रा २.१.२२ इत्यादि [6] यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः ।इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते ॥ऋ. १०.१३०.१ [7] पूर्यद्वै प्राणान्प्राणयत्तस्मात्प्राणा देवा अथ यत्प्रजापतिः प्राणयत्तस्मादु प्रजापतिः प्राणो - माश ७.५.१.२१, प्राणा वै देवा द्रविणोदाः - मैसं ३.२.१, प्राणा वै देवा अपाव्याः । - तैब्रा ३,८.१७,५ इत्यादि। [8] आपो वा इदमासन् सलिलमेव। स प्रजापतिरेक पुष्करपर्णे समभवत्। तस्यान्तर्मनसि कामः समवर्तत। इदं सृजेयमिति। तैआ १,२३,१ [10] तु. प्रजापतिर्वा इदमेक आसीत् तस्य वागेव स्वमासीद्वाग्द्वितीया स ऐक्षतेमामेव वाचं विसृजा इयं वा इदं सर्वं विभवन्त्येष्यतीति- तां २०.१४.२ [16] पिबापिबेदिन्द्र शूर सोमं मन्दन्तु त्वा मन्दिनः सुतासः। पृणन्तस्ते कुक्षी वर्धयन्त्वित्था सुतः पौर इन्द्रमाव॥ २.११.११
[17]
वृषन्निन्द्र वृषपाणास इन्दव इमे सुता अद्रिषुतास उद्भिदस्तुभ्यं सुतास उद्भिदः
।ते त्वा मन्दन्तु दावने महे चित्राय राधसे । [19] इन्द्रश्च सोमं पिबतं बृहस्पतेऽस्मिन्यज्ञे मन्दसाना वृषण्वसू । आ वां विशन्त्विन्दवः स्वाभुवोऽस्मे रयिं सर्ववीरं नि यच्छतम् ॥४.५०.१० [20]इन्द्रश्च सोमं पिबतं बृहस्पतेऽस्मिन्यज्ञे मन्दसाना वृषण्वसू । आ वां विशन्त्विन्दवः स्वाभुवोऽस्मे रयिं सर्ववीरं नि यच्छतम् ॥ ४.५०.१० [22] द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः ।समानं योनिमनु संचरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्राः ॥१०.१७.११ [23] आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु ।विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि ॥१०.१७.१० [24]यस्ते द्रप्स स्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात् ।अध्वर्योर्वा परि वा यः पवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम् ॥ १०.१७.१२ [25] यस्ते द्रप्स स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्रुचा ।अयं देवो बृहस्पतिः सं तं सिञ्चतु राधसे ॥१०.१७.१३ [28]न यत्पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम ।गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ ॥ १०.१०.४ [30] अस्य त्रितः क्रतुना वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवैः परस्य ।सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥१०,८,७ [31] एते सोमा अभि गव्या सहस्रा महे वाजायामृताय श्रवांसि । पवित्रेभिः पवमाना असृग्रञ्छ्रवस्यवो न पृतनाजो अत्याः ॥९,८७,५ [32]पवित्रेभिः पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत मर्त्यानाम् ।द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत्सुभृतं चार्विन्दुः ॥ ९.९७.२४ [33] त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन् ।वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद्द्यावापृथिवी पर्यपश्यत् ॥३.२६.८ [34] स नो देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरस इन्द्रपानः ।कृण्वन्नपो वर्षयन्द्यामुतेमामुरोरा नो वरिवस्या पुनानः ॥९.९६.३ [35] अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं मे चक्षुरमृतं म आसन् ।अर्कस्त्रिधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम ॥३.२६.७ [42]त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः ।अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥ १.१०१.९ [43] वनस्पतिरवसृजन्नुप स्थादग्निर्हविः सूदयाति प्र धीभिः ।त्रिधा समक्तं नयतु प्रजानन्देवेभ्यो दैव्यः शमितोप हव्यम् ॥२.३.१० [44] वनस्पतिरवसृजन्नुप स्थादग्निर्हविः सूदयाति प्र धीभिः ।त्रिधा समक्तं नयतु प्रजानन्देवेभ्यो दैव्यः शमितोप हव्यम् ॥२.३.१० [45] २.६२.७ [46] वनस्पतेऽव सृजोप देवानग्निर्हविः शमिता सूदयाति ।सेदु होता सत्यतरो यजाति यथा देवानां जनिमानि वेद ॥३.४.१० [47] प्र कारवो मनना वच्यमाना देवद्रीचीं नयत देवयन्तः ।दक्षिणावाड्वाजिनी प्राच्येति हविर्भरन्त्यग्नये घृताची ॥३.६.१ [53] शतधारं वायुमर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस्ते अभि चक्षते हविः ।ये पृणन्ति प्र च यच्छन्ति संगमे ते दक्षिणां दुहते सप्तमातरम् ॥१०.१०७.४ [54]इदं स्वरिदमिदास वाममयं प्रकाश उर्वन्तरिक्षम् ।हनाव वृत्रं निरेहि सोम हविष्ट्वा सन्तं हविषा यजाम ॥ १०.१२४.६ [57] अथ यदस्मिन्त्सोमो भवति हविर्वै देवानां सोमस्तस्मात् हविर्धानं नाम माश ३.५.३.२ [60] यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥८.१.१५ [61] अन्वेति तुग्रः(आदित्यः) तैआ १.१०.४ [62]यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥ ८.१.१५ [64] ताव् एवैतौ स्तोमाव् अभवतां पराङ् च पूर्वाङ् च। तौ प्राणापानौ, ते ऽहोरात्रे, तौ पूर्वपक्षापरपक्षौ, ताव् इमौ लोकौ, ताव् इन्द्राग्नी, तौ मित्रावरुणौ, ताव् अश्विनौ, तद् दैव्यं मिथुनं, यद् इदं किं च द्वन्द्वं तद् अभवताम्।जैब्रा ३.३३४ [67] अजोहवीदश्विना तौग्र्यो वां प्रोळ्हः समुद्रमव्यथिर्जगन्वान् ।निष्टमूहथुः सुयुजा रथेन मनोजवसा वृषणा स्वस्ति ॥१.११७.१५, आ वां दानाय ववृतीय दस्रा गोरोहेण तौग्र्यो न जिव्रिः । अपः क्षोणी सचते माहिना वां जूर्णो वामक्षुरंहसो यजत्रा ॥१.१८०.५, कः स्विद्वृक्षो निष्ठितो मध्ये अर्णसो यं तौग्र्यो नाधितः पर्यषस्वजत् । पर्णा मृगस्य पतरोरिवारभ उदश्विना ऊहथुः श्रोमताय कम् ॥१.१८२.७, कदा वां तौग्र्यो विधत्समुद्रे जहितो नरा ।यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥८.५.२२ [68] १.१५.३, युवमेतं चक्रथुः सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्र्याय कम् । येन देवत्रा मनसा निरूहथुः सुपप्तनी पेतथुः क्षोदसो महः ॥१.१८२.५ [69] इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छव इन्द्रः सूर्यमरोचयत् ।इन्द्रे ह विश्वा भुवनानि येमिर इन्द्रे सुवानास इन्दवः ॥८.३.६ [70]युवं च्यवानं सनयं यथा रथं पुनर्युवानं चरथाय तक्षथुः ।निष्टौग्र्यमूहथुरद्भ्यस्परि विश्वेत्ता वां सवनेषु प्रवाच्या ॥ १०.३९.४ [71]मन्दन्तु त्वा मघवन्निन्द्रेन्दवो राधोदेयाय सुन्वते । आमुष्या सोममपिबश्चमू सुतं ज्येष्ठं तद्दधिषे सहः ॥ ८.४.४ [72] अहं सप्तहा नहुषो नहुष्टरः प्राश्रावयं शवसा तुर्वशं यदुम् । अहं न्यन्यं सहसा सहस्करं नव व्राधतो नवतिं च वक्षयम् ॥१०.४९.८ [74] सदिद्धि ते तुविजातस्य मन्ये सहः सहिष्ठ तुरतस्तुरस्य। उग्रमुग्रस्य तवसस्तवीयोऽरध्रस्य रध्रतुरो बभूव॥ ६.१८.०४ [75]तक्षद्यत्त उशना सहसा सहो वि रोदसी मज्मना बाधते शवः । आ त्वा वातस्य नृमणो मनोयुज आ पूर्यमाणमवहन्नभि श्रवः ॥ १.५१.१० [76] त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन्पर्वशश्चकर्तिथ । अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ॥१.५७.६ [77] इन्द्रो वृत्रस्य तविषीं निरहन्सहसा सहः । महत्तदस्य पौंस्यं वृत्रं जघन्वाँ असृजदर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१.८०.१० [79] स जातूभर्मा श्रद्दधान ओजः पुरो विभिन्दन्नचरद्वि दासीः । विद्वान्वज्रिन्दस्यवे हेतिमस्यार्यं सहो वर्धया द्युम्नमिन्द्र ॥१.१०३.३ [80] यस्मादिन्द्राद्बृहतः किं चनेमृते विश्वान्यस्मिन्सम्भृताधि वीर्या । जठरे सोमं तन्वी सहो महो हस्ते वज्रं भरति शीर्षणि क्रतुम् ॥२.१६.२ [81]तं नो दात मरुतो वाजिनं रथ आपानं ब्रह्म चितयद्दिवेदिवे । इषं स्तोतृभ्यो वृजनेषु कारवे सनिं मेधामरिष्टं दुष्टरं सहः ॥ २.३४.७ [84] अयं यज्ञो देवया अयं मियेध इमा ब्रह्माण्ययमिन्द्र सोमः । स्तीर्णं बर्हिरा तु शक्र प्र याहि पिबा निषद्य वि मुचा हरी इह ॥१.१७७.४ [85] ऊर्ध्वो वां गातुरध्वरे अकार्यूर्ध्वा शोचींषि प्रस्थिता रजांसि । दिवो वा नाभा न्यसादि होता स्तृणीमहि देवव्यचा वि बर्हिः ॥३.४.४ [86] बृहन्त इन्नु ये ते तरुत्रोक्थेभिर्वा सुम्नमाविवासान् । स्तृणानासो बर्हिः पस्त्यावत्त्वोता इदिन्द्र वाजमग्मन् ॥२.११.१६ [87] त्वं ह्यग्ने दिव्यस्य राजसि त्वं पार्थिवस्य पशुपा इव त्मना । एनी त एते बृहती अभिश्रिया हिरण्ययी वक्वरी बर्हिराशाते ॥१.१४४.६ |