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वेद में उदक का प्रतीकवाद Symbolism of Water in Veda सुकर्मपाल सिंह तोमर Sukarmapal Singh Tomar अध्याय१ उदक की अवधारणा अध्याय२ प्राणोदक की व्यापकता अध्याय३ प्राणोदक एक चेतनतत्त्व अध्याय४ आपः का एकत्व और अनेकत्व अध्याय५ उदकनामों में विरोध अथवा असंगति का आभास अध्याय६ उदकनामों में एकसूत्रता अध्याय७ उदकनामों की उदञ्चनशीलता का उद्देश्य अध्याय८ उपसंहार अध्याय९ परिशिष्ट
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अध्याय ६ उदकनामों में एकसूत्रता पिछले अध्याय में, उदकनामों में विराधाभास के प्रश्न को उठाते हुए हमें पता चला कि वह विरोधाभास प्राणोदक के ही दो भिन्न पक्षों का द्योतक है। इसी की पुष्टि में प्राणापानौ, प्राणोदानौ आदि के रूप में प्राप्त प्राण के पक्षद्वय का भी उल्लेख किया। इससे पूर्व चतुर्थ अध्याय में आपः का विवेचन करते हुए उसके सलिलं और सलिलानि में द्रष्टव्य एकत्व और बहुत्व पर भी हमारी दृष्टि गई और इस प्रसंग में आपः की उन विभिन्न काष्ठाओं पर विचार किया गया, जो प्राण रूप आपः के ही विभिन्न स्तर हैं और जिनके साथ अन्य अनेक उदकनामों का समावेश भी दिखायी पड़ा। इस सबसे यह धारणा बनती है कि सभी उदकनामों में एकसूत्रबद्धता है, परन्तु उसे हम तभी समझ सकते हैं, जब हमें ‘प्राणाः वा आपः’ की उक्ति याद रहे और यह सर्वथा भूल जायें कि प्राण एक सांस का नाम है। निस्सन्देह, प्राण वह जीवनतत्व है, जिसका एक रूप वैदिक वाक् भी है, जिसे ‘प्राणानाम् उत्तमाज्योति’ कहा जाता है। यही कारण है कि निघण्टु के उदकनाम वेद में अग्नि, सोम, सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिर्मय तत्वों से भी सम्बन्ध रखते हुए पाये जाते हैं। वस्तुतः यह प्राण नामक ज्योतिर्मय जीवनतत्व विश्व के सारे नानात्व के मूल में है। इसीलिए अथर्ववेद अपने प्राणसूक्त के प्रारम्भ में ही उसे ऐसा सर्वश्वर मानता है, जिसके वश में सब कुछ है और जिसमें सब कुछ प्रतिष्ठित है- प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्वसर्वं प्रतिष्ठितम्।। अथर्व ११.४.१ अक्षर का क्षरण और उदकनाम यहां जिस सर्वेश्वर प्राण में ‘इदंसर्वं’ प्रतिष्ठित बताया गया है, उसकी तुलना उस ‘ओमसत्यं’ नाम अक्षर से कर सकते हैं, जिसमें सभी आपः प्रतिष्ठित बताये गये हैं।[1] यह अक्षर वह प्राणतत्व है, जो सभी भूतों के लिए क्षरित होता है, परन्तु फिर भी उसका अतिक्षरण नहीं हो पाता।[2] जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार यह अक्षर तत्व ही इन्द्र है, जो क्षरित होते हुए भी क्षीणता को प्राप्त नहीं होता।[3] यह अक्षर तत्व उस विराज का ही आदि रूप है [4], जो विविध रूप ग्रहण करने वाली तथा विविध प्रकार का दूध देने वाली एक गाय है। अथर्ववेद ८, १० में यह विराज नामक गौ निरन्तर उत्क्रमण करती हुई जब देवों से लेकर सर्पों तक के विभिन्न स्तरों पर अपना दूध देती है, तो उस दूध को जो नाम दिये जाते हैं, उनको अपः, स्वधा, ब्रह्म तथा विष जैसे उदकनामों की संज्ञा दी जाती है। ऐतरेय आरण्यक[5] के अनुसार उस अक्षर तत्व के रूपान्तरों (अक्षराणि) को अधिदेव और अध्यात्म में विविधरूपेण उपस्थित माना गया है। अतः यह स्वाभाविक ही है कि पूर्वोक्त अक्षर तत्व में प्रतिष्ठित जो आपः बताये गये हैं, उनको वेद में वर्णित सहस्राक्षरा वाक् द्वारा उत्पन्न किये गए सलिलानि[6] अथवा उन आपः[7] से समीकृत किया जाये, जिन्हें सिन्धु अपने ओज (उदकनाम) द्वारा अतिक्रान्त कर लेता है। इन्हीं आपः को सिन्धवः भी कहा गया , जो अपसामपस्तमा, वपुषी हिरण्ययी (१०, ७५, ७-८) कही जाने वाली सिन्धु में एकीभूत होती हैं, सिन्धु के विशेषण ‘वपुषी’ में ‘वपु’ शब्द विद्यमान है, जो उदकनामों के अतिरिक्त निघण्टु के रूपनामों में भी परिगणित है। ‘वपु’ के विपरीत ‘नाम’ शब्द भी उदकनामों की सूची में है, जिसकी चर्चा चतुर्थ अध्याय में हो चुकी है। इन दोनों का युग्म ‘नामरूप’ भारतीय दर्शन का सुपरिचित शब्द है, जिसे भी वैदिक नाम तथा वपु के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जाना चाहिए। क्षोद आपः और अपः आपः अथवा सिन्धु की एक विशेषता को प्रकट करने वाला क्षोद शब्द है जो उदकनामों में पठित है। ‘क्षोदो न शंभु’ (ऋ १.६५,५)[8] कहने से क्षोद का शांतिस्वरूप होना सिद्ध है और साथ ही वह ईम् (उदकनाम) को वरण करने वाला कः (प्रजापति) (ऋ १, ६५,६)[9] भी कहा गया है। यह क्षोद अपने इस एकत्व विधायक रूप में नदीनां महिवृतं परिष्ठितम्’ है, वही अनेकत्व की ओर उन्मुख होकर ‘अपाम् उर्मिम्’ की सृष्टि करता है, जिनके निम्नगामी पथ को इन्द्र अनुप्रवर्तित करता है, तो कर्मसमुद्र (अपसः समुद्रम्) की रचना हो जाती है।[10] क्षोद का यह वर्णन अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें एक ओर तो शान्त कः प्रजापति ऊर्ध्वगामी ईम् का वरण होता है तथा दूसरी ओर अधोगामी आपः (उदकनाम) की ऊर्मि की परिणति अपः (उदकनाम और कर्मनाम) के समुद्र में होती है। प्रथम में प्राणोदक की उर्ध्वगामी तरंग है, ठहराव है, जबकि दूसरी में प्राणशक्ति का वह प्रवाह-प्रवणता है जो प्राणरूप आपः को कर्मरूप अपः में परिणत करने वाला है। अतः क्षोद प्राणोदक का वह रूप है जिसे ‘महत्’ स्तर पर उठने वाला प्राणोदक का वह क्षोभ कह सकते हैं जो उर्ध्वगामी और अधोगामी शक्ति-प्रवाह के संगम से उत्पन्न होता है। जैसा कि पिछले अध्याय में देख चुके हैं, यह महत् वह अष्टम काष्ठा तथा सिंधु है जिससे उद्भूत अहंबुद्धि, मन और पांच इंद्रियों की चेतना के रूप में सप्तसिंधवः रूप आपः प्रवाहित होकर ‘अपः’ (कर्म रूप प्राणोदक) के समुद्र का रूप धारण करते हैं। ‘अपः’ (कर्म) का यह समुद्र वही है, जिसके परिप्रेक्ष्य में आपः को ‘समुद्रार्था’ होकर प्रवाहित होने वाला कहा गया है।[11] अपः के इसी समुद्र को वह सिन्धु मानना होगा, जो अपसामपस्तमा (अर्थात् क्रियाशीलों में सबसे अधिक कर्म वाली) है और इसीलिए उसको एक वपुषीव (शरीरिणी सदृश) व्यापनशील (अश्वा) चित्रधारा कहते हुए इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है: -
ऋजीत्येनी
रुशती
महित्वा
परि
ज्रयांसि
भरते
रजांसि
। स्वश्वा सिन्धु सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती। ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्।। ऋ १०, ७५, ८ यह कर्म-समुद्र उस पूर्व समुद्र से भिन्न है, जो अहंकार रूप वृत्र की अधीनता में उसके विषय से हिंसित होता रहता है और साथ ही मानुषी त्रिलोकी (मनोमय, प्राणमय, अन्नमय) तक ही सीमित रहता है। अब यह सिन्धु वह प्राणधारा है, जो उस कारु[12] (आत्मा) की अभिव्यक्ति है, जो ‘सदन‘ (उदकनाम) नामक प्रकृष्टतम प्राणोदक स्तर से प्रकट होती है और अन्ततोगत्वा उस सोमरूप प्राणोदक का वर्धन करती है, जिसे उदकनामों में ‘मधु‘(ऋ १०, ७५, ८) कहा गया है। वह सदन वस्तुतः हिरण्ययकोश है, अतः वहां से प्रकट होने के कारण इसे ‘हिरण्ययी‘ कहा गया है। हिरण्ययकोश के सुब्रह्म की अभिव्यक्ति होने के कारण ही उसको सु-अश्वा, सुरथा, सुवासा और सुकृता जैसे विशेषण दिये गये हैं। वह वास्तव में वाज नामक बल को देने वाली वाजिनी (उषाज्योति) से युक्त है औा साथ ही अनेकता को एकता में समाहित करने वाली सीलमा (सिल् उञ्छे से निष्पन्न) शक्ति से भी युक्त है। वह अन्य सप्तसिन्धुओं को अच्छादित करने वाली है, अतः उसको ऊर्णावती (ऊर्णुन् आच्छादने) से निष्पन्न कहा गया है। यह दिव्य आपः की धारा है, जो सदा अदब्धा (अहिंसिता) और युवती रहती है। इसीलिए इसके द्वारा सम्पादित कर्म को अपः कहा गया है, जो अहंकार की अधीनता में किये जाने वाले कर्म से विपरीत दिव्य प्राणोदक की दिव्य अभिव्यक्ति युक्त कर्म है। अतः इस ‘अपसः समुद्र‘ को ही वह ‘उत्तरं सधस्थं (ऋ १.१५४, १)[13] भी कह सकते है, जिसे विष्णु धारण करता है, क्योंकि यह अहंकार-सीमित पूर्व सधस्थ की अपेक्षा उच्चतर है। अपः, ईम, रेतस् ओर नाम यह कर्म-समुद्र उत्तर सधस्थ तब बनता है, जब पूर्वोक्त ‘सीलमावती‘ सिन्धु (प्राणोदक धारा) बिखरी हुई प्राणोदक तरंगो को बीन बीन कर व एकत्र करती हुई उसे पर्याप्त ऊॅचाई तक ले जाती है। इस कार्य में विष्णु को इन्द्र का सहयोग अपेक्षित है और साथ ही इन्द्र को भी वृत्रवध में विष्णु का सहयोग चाहिए। इसीलिए विष्णु को ‘इन्द्रस्य युज्यः सखा‘[14] कहा गया है। इन दोनों के सहयोग से उस ईम् नामक महान् ‘पौंस्यम्‘ की वृद्धि होती है, जो द्यावा-पृथिवी नामक ‘मातरा‘ को ‘रेतस्‘ नामक प्राणोदक भोगने के लिए पूर्णरूप से सहायक होता है और जिसके फलस्वरूप यह ईम् नामक पुत्र अपने पिता के अवर और पर ‘नाम‘ (उदकनाम) को धारण करता हुआ अन्त में दिव्यप्रकाश में तृतीय ‘नाम‘ को धारण करता है -- ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं नि मातरा नयति रेतसे भुजे। दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिवः।। ऋ १.१५५, ३, अपः नामक दिव्य प्राणोदक के ‘कर्मसमुद्र‘ के प्रसंग में यहां ईम् के अतिरिक्त रेतस् तथा नाम का भी उल्लेख है, जो स्वयं निघण्टु के उदकनामों में परिगणित है। ‘ईम्‘ यहां उस प्राणोदक क्रिया के लिए प्रयुक्त है, जिसे अहंकार रूप अहि का वध तथा दिव्य आपः (सिन्धवः) की मुक्ति कराने वाला इन्द्र-पौंस्य कहा जाता है। यह कार्य एकाएक नही हो जाता। इसके पीछे उस आरोही तथा अवरोही चेतना-युग्म की लम्बी साधना रहती है, जिसे मन्त्र में ‘मातरा‘ कहा गया है और जिसे द्यावापृथिवी के युग्म के रूप में भी कल्पित किया गया है। यह चेतना-युग्म जिस रेतस् को भोगना चाहता है, उसे ‘सोम‘, ‘ब्रह्म‘ और ‘परमव्योम‘ कहा गया है।[15] यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जहां ब्रहम और व्योम स्वयं उदकनामों में हैं, वहीं सोम-बोधक इन्दु भी एक उदकनाम है। इसका अर्थ है कि जिस ‘रेतस्‘ को उक्त चेतना-युग्म भोगना चाहता है, वह ब्रह्मानन्द रस है, जिसे मनुष्य व्यक्तित्व के तीन भिन्न स्तरों पर सोम, ब्रह्म तथा परम व्योग कहा गया है। संभवतः ये ही वे तीन नाम हैं, जिनको ईमः क्रमशः ग्रहण करता हुआ बताया गया है। यह ईम् वह प्राणोदक है, जिसे पुत्र माना गया है, क्योंकि यह उस ईम् का एक रूपान्तर है, जिसे वामपक्षी का अर्धस्तरीय ‘अपीच्यं‘ अथवा निहितं‘ पदम् कहा है, और जिसे उक्त ‘रेतस्‘ माना जा सकता है। पुत्र ईम् के द्वारा पिता ईम् के उक्तनामों को ग्रहण करने का अर्थ है-अहंकार रूप अहि के बन्धक में पड़े हुए उदक (आपः) का उत्तरोत्तर दिव्यता ग्रहण करते हुए आरोहण करना। यही विष्णु का विक्रमण कहलाता है। इसके फलस्वरूप होने वाली जो चेतना के अवरोहण वाली संधि है, उसके परिणामस्वरूप ‘आपः देवीः‘ का समावेश करने वाले सिन्धु का अवतरण उस दिव्य कर्म-समुद्र के उद्भव और विकास में सहायक होता है, जिसे इन्द्रजन्म, वृत्रवध और दिव्य आपः या सिन्धुओं की मुक्ति कहा जाता है। ‘ईम्‘ नामक प्राणोदक[16] का यही वह स्तर है, जो अपनी मातृयुग्म (मातरा) को रेतस् नामक ब्रह्मानन्द तक पहुंचा देता है। इस स्तर तक पहुंचने के लिए ऊर्ध्वगामी ईम् (पुत्र) को जो पिता ईम् के तीन नाम ग्रहण करने पड़े, उन्हें ‘यज्ञियानि नामानि‘ कहा जाता है, क्योंकि वे ईम् के उत्तरोत्तर दिव्यता-सम्पन्न होने वाले रुपान्तर हैं। अन्नं, अक्षितं और घृतवत्पयः इस प्रकार जिस प्राणोदक को आरोहवरोह क्रम से पुत्र और पिता रूप में द्विविध कल्पित किया गया है, वही क्रमशः अन्नं तथा अक्षितं जैसे उदकनामों के प्रसंग में भी दिखायी पड़ता है। अन्नं शब्द के भक्षणार्थक अद् धातु से निष्पन्न होने के कारण प्रायः जौ, गेहूँ, चना अथवा उनसे निर्मित भक्ष्य पदार्थ ही अन्न समझे जाते हैं, परन्तु वैदिक एटिमालोजी[17] नामक ग्रन्थ के विद्वान लेखक डा० फतहसिंह की व्याख्या के अनुसार वेद में ‘अन्नं‘ एक व्यापक अर्थ का बोध कराता है। तदनुसार अन्नं के अन्तर्गत न केवल भौतिक भोज्यपदार्थ, अपितु आध्यात्मिक अनुभव भी आ जाते हैं। स्थूल से सूक्ष्म की ओर विकासशील प्राणोदक इस दृष्टि से, वह अन्न है, जिसे ‘अन्नवेत्ता‘ कृषक (साधक) उसी प्रकार संयममार्ग बना लेते है, जिस प्रकार ब्रह्मविद्या द्वारा संभव होता है, यही ‘अन्न‘ मधु (इन्दु रूप प्राणोदक) से युक्त होने के कारण वासनाहीन व्यक्तित्व से उत्पन्न यम-संयम (वैवस्वते राजनि) के उपयुक्त होता है
यद्यामं
चक्रुर्निखनन्तो
अग्रे
कार्षीवणा
अन्नविदो
न
विद्यया
। इस मन्त्र में ‘यज्ञियं मधुमत् अन्नम्‘ कहकर जिस प्राणोदक का उल्लेख हुआ है, उसी का बोध कराने वाला शब्द ‘अक्षितं‘ है। ‘अक्षितं‘ को भाष्यकारों ने प्रायः अक्षीण अर्थ में ग्रहण किया है। यह प्राणोदक के उस ‘अक्षितम् उत्सं‘ का बोधक है, जिसका दोहन सुब्रहम् प्रदान करने वाले (सुदानवः) मरुत नामक प्राण करते हैं और जिसको घृत (उदकनाम) से युक्त पयः (उदकनाम) भी कहा गया है पिन्वन्त्यपो मरुतः सुदानवः पयो घृतवद्विदथेष्वाभुवः। अत्यं न मिहे वि नयन्ति वाजिनमुत्सं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितम्।। ऋ १.६४,६ ‘अक्षितं‘ प्राणोदक को ‘घृतवद् पयः‘ कहकर स्पष्ट कर दिया है कि उक्त ‘मधुमत् अन्नं‘ का समीकरण ‘अक्षितं‘ के साथ करना सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि पयः का समीकरण जहां पूर्वोक्त रेतः[18] तथा सोम[19] से किया गया है, वहीं उसे प्राण भी कहा गया है।[20] इसी पयः को जब अजन्मा का क्षीर कहा जाता है[21] तो निस्सन्देह इसे उस क्षीर का पर्यायवाची समझना चाहिए, जो पयः के समान ही उदकनामों में संगृहीत है। प्राणोदक के जिस रूप को पयः कहा जाता है, वही अन्ततोगत्वा उस घृत का बोध कराता है, जिसको पयः नामक प्राण से उत्पन्न ज्ञानचक्षु कहा जा सकता है[22]। इसी चक्षु को धारण करने वाले प्राणों को ‘पश्यन्तीति पशवः कहा जा सकता है, अतः घृतं को पशुओं का तेज (उदकनाम) कहा गया है।[23] इसी दृष्टि से ब्राह्मणग्रन्थ तेजो वै घृतं, ‘तेजश्चक्षु‘[24] की रट लगाते हैं, तथा घृत को पशुरूप मानते हैं[25]। साथ ही घृत को पूर्वोक्त अन्न का रस और तेज कहा गया है।[26] घृत नामक प्राणोदक वह वज्र[27] भी माना जा सकता है, जिसका प्रहार अहंकार रूप अहि पर होता है, तो प्राण रूप आपः प्रवाहित होने लगते हैं अथवा जिससे युक्त इन्द्र वज्री होकर ‘सलिल‘ रूप प्राणोदक को ‘सलिलानि‘ बनाता है। ऋग्वेद ४, ५८ में घृतं, मधु, अमृतं और नाम ऋग्वेद ४.५८, १[28] में जिसे ‘घृतस्य नाम गुहयं,‘ अमृतस्य नाभिः तथा समुद्र से उठने वाली ‘मधुमान् ऊर्मि‘ रूप में प्रस्तुत किया गया है, उसी घृतस्य नाम को अगले ही मन्त्र में बहुविध नमः द्वारा (नमोभिः) ‘यज्ञ‘ में धारण करने की बात कही गई है।[29] काठक संहिता[30] ‘घृतं‘ वै देवानां मधु‘ कहकर जहां घृत और मधु को एक ही बताती है, वहीं अन्यत्र[31] घृतं और अमृतं का भी समीकरण उपलब्ध है। इन तीनों उदकनामों से संकेतित तत्व को ‘गुहयंनाम‘ कहने से पूर्वोक्त उस मह्त् की याद आती है, जिसे इन्द्र का ‘महत् नाम गुह्यं‘ कहा गया और जिसे हमने सांख्य का महत् तत्व माना है और जिससे प्राणोदक की उन सप्तसिन्धवः धाराओं को प्रवाहित होते स्वीकार किया है, जो इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्तियों के स्तरों के परिप्रेक्ष्य में त्रिसप्त आपः‘ अथवा त्रिसप्त नामानि के रूप में याद की जाती हैं। अतः घृतस्य गुहयंनाम्, मधु और अमृतं को उक्त ‘महत्तत्व‘ का बोधक माना जा सकता है, जो उक्त सात चेतना-धाराओं का रूप ग्रहण करके यज्ञकर्म (अपः) में प्रकट होता है। यज्ञ में जब इस नाम को बहुविध नमः के द्वारा (नमोभिः) धारण करने की बात आती है, तो इससे संकेत मिलता है कि उकत गुह्य नाम को कर्म के स्तर पर अवतीर्ण करके यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म‘ की उक्ति चरितार्थ की जा सकती है। इसका कारण यह है कि प्राणोदक के उक्त नाम उस दिव्य स्तर के बोधक हैं जिससे ‘आपो देवीः‘ कहे जाने वाली प्राणधारायें अथवा सिन्धवः प्रवाहित होती है और जो हमें ‘शं‘ प्रदान करने वाली भी है। अतः निस्सन्देह, इन्हें ही हमारे उस श्रेष्ठतम आचरण के साधन माना जायेगा, जिसे यज्ञ कहा जा सकता है। इस श्रेष्ठ कर्मरूप यज्ञ को जिस ‘गौर‘ का वमन बताया गया है, वह हिरण्ययकोश है, जो विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमयरूप श्रृंगों को धारण करने वाला चतुश्शृङ्ग (ऋ ४, ५८, २) है, इच्छा, ज्ञान और क्रियाशक्तियां उसके तीन पाद हैं, पुरुष और प्रकृति उसके दो शीर्ष हैं, पूर्वोक्त सप्त नामानि उसके सात हस्त हैं और सत्व, रजः और तमः नामक तीन बन्धनों से बद्ध होकर वह सभी मर्त्यों में प्रविष्ट है (ऋ ४, ५८, ३)[32]। प्रकृति के ये तीन गुण ही वे पणि है, जिन्होंने पूर्वोंक्त विराज् वाक् रूप गौ में उक्त घृत नामक दिव्य प्राणोदक छिपा रखा है, परन्तु जिसे व्यष्टिगत कर्मरूप यज्ञ में क्रियापरक इन्द्र, ज्ञानपरक सूर्य तथा भावनापरक वेन नामक आत्मपक्ष उसे अपनी अपनी ‘स्वधा‘ द्वारा (ऋ ४, ५८ ४,)[33] व्यक्त करते हैं, तो वे हृद्य-समुद्र से त्रिविध ‘घृतस्य धाराः‘ होकर निकल पड़ते है, जिनके मध्य हिरण्ययकोश में स्थित ‘हिरण्ययवेतस्‘ को हिरण्ययकोश का प्रकाश कह सकते हैं[34] क्योंकि उक्त हृद्य-समुद्र वह हिरण्ययकोश नामक गहराई है, जिसके बोधक गहन, गंभीर और गम्भर जैसे शब्द उदकनामों में पठित हैं। उक्त धाराओं को पुनः आन्तरिक गहराई सहित मन द्वारा (अन्र्तर्हृदा मनसा) पवित्र होती हुई ‘घृतस्य ऊर्मयः‘[35] तथा काष्ठाओं को अपनी ऊर्मियों से भेदन करने वाली ‘घृतस्य धाराः‘[36] भी बतलाया गया है। ऋग्वेद ४, ५८, ८[37] में इन्हीं प्राणोदक धाराओं को कल्याणी युवतियों के रूप में कल्पित किया गया है जो एकमन होकर और मुस्कुराती हुई सी जातवेदस् अग्नि को प्राप्त होती हैं और जिन्हें वह प्रेम करता है। यहां जातवेदस् से अभिप्राय क्रियापरक इन्द्र, आन्नदपरक सोम तथा ज्ञानपरक आत्मा की वह संयुक्त इकाई है, जिसे हम प्रस्तुत प्रसंग में इन्द्र, वेन तथा सूर्य के रूप में विभिन्न प्रकार से वर्णित पाते हैं। यह जातवेदस् ही वह ‘ऊॅ सत्यं‘ है, जिसमें आपः नामक प्राण प्रतिष्ठित कहे जाते है। इसी दृष्टि से ‘घृतस्य धाराः‘ के रूप में कल्पित प्राणोदकों को सुसज्जित कन्याओं के समान ‘ऊॅ‘ की ओर लाने वाली तथा उससे उद्भूत सोम एवं यज्ञ को अभितः क्षरण करने वाली बताया गया है।[38] ये मधुमती घृतधारायें हैं, प्राणदेवता हैं, जिनसे हमारे भीतर ‘गव्यसुष्टुति, आजि‘ तथा द्रविणानि को हमारे भीतर देने तथा उक्त यज्ञ को लाने की प्रार्थना की गई है-- अभ्यर्षत सुष्टुतिं गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त। इमं यज्ञं नयत देवता नो घृतस्य धारा मधुमत्पवन्त।। ऋ ४, ५८, १० इस मन्त्र में ‘गव्यं‘ सुष्टुतिं‘ से अभिप्राय पूर्वोक्त विराज् गौ के उन विविध दोहनों की प्रस्तुति अभिप्रेत है, जिन्हें अथर्ववेद में विविध उदकनामों से अभिहित किया गया है। यह ‘गव्यं सुष्टुति‘ कही जा सकती है, क्योंकि वैदिक मन्त्रों में इनकी प्रस्तुति अथवा प्राप्ति को देवासुर-संग्राम के रूप में भी कल्पित किया गया है। संग्राम, गव्यं सुष्टुतिं रूप में वर्णित उक्त यज्ञ का खेल है। अतः सूक्त का उपसंहार करते हुए उसी से निवेदन किया गया है कि तेरा धाम अन्तः समुद्र तथा अन्तरायुष में स्थित कहलाता है, उसी में विश्वं ‘भुवनं‘ (उदकनाम) अधिश्रित है और जो स्वयं आपः की समष्टि में (अपामनीके समिथे) में है, उस मधुमान ऊर्मिस्वरूप तुझको मैं प्राप्त करूं - धामन् ते विश्वं भुवनमधिश्रितमन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुषि। अपामनीके समिथे य आभृतस्तमश्याम मधुमन्तं त ऊर्मिम्।। ऋ ४, ५८, ११ ऋग्वेद के उपर्युक्त सूक्त की मीमांसा में जहां विभिन्न उदकनामों को व्यष्टिगत ‘हृद्य समुद्र‘ अथवा ‘अन्तरायु‘ में स्थित किसी एक तत्व से संबंधित बताया गया है, वहीं इस बात का भी पर्याप्त संकेत है कि विभिन्न प्राणदेवताओं के मूल में किस प्रकार एक ही तत्व विद्यमान माना गया है। यह बात जहां प्रथम मन्त्र की मधुमान ऊर्मि की विविधरूपेण कल्पित अनेकता द्वारा बतायी गई है, वही इस सम्पूर्ण सूक्त के देवता के पंचविध विकल्प में भी भली भांति देखी जा सकती है। जो लोग वैदिक मन्त्रों के देवताओं को उपास्य देवों के रूप में मानते है, वे उस परम्परा को सर्वथा बेतुकी समझते है, जो इस सूक्त के देवता को ‘अग्निः सूर्यो वाऽपो गावो वा घृतस्तुतिर्वा‘ कहकर पांच प्रकार से समझना आवश्यक समझता है। स्वयं सायणाचार्य जैसे परम्परावादी विद्वान के शब्द इस विषय में विशेष रूप से ध्यातव्य हैं-- ‘यद्यपि सूक्तस्यास्यग्नि सूर्यादिपंच देवताकत्वात्पंचधायं मन्त्रो व्याख्येयस् तथापि निरुक्तावुक्तनीत्या यज्ञात्मकाग्नेः सूर्यस्य च प्रकाशकत्वेन तत्परतया व्याख्यायते।[39] प्रश्न होता है कि जब सूक्त पंचविधव्याख्येय है, तो दो रूप में ही इसकी व्याख्या करने की प्रथा क्यों चल पड़ी? क्या यह कारण था कि जिन पांच देवताओं को इस सूक्त में एक ही तत्व पर केन्द्रित करते हुए भी सूक्त में जातवेदा, अग्नि, सूर्य, आपः, घृतस्तुति तथा धेनवः एवं ‘गव्य‘ सुष्टुतिं‘ कहकर उसी एक तत्व को उक्त पांच रूपान्तरों में कल्पित किया है और उसके अन्तर्गत विविध उदकनामों को भी समाविष्ट कर लिया गया है? भुवनं, कबन्धं, घृतं और पूर्ण इसी संभावना की पुष्टि वैदिक शब्द कबन्ध से होती है। इसीलिए सायण प्रभृति भाष्यकारों ने कबन्ध शब्द को मेघ अथवा उदक के अर्थ में ग्रहण किया है। कबन्ध का यौगिक अर्थ है --‘क‘ से बंधा हुआ। ‘कः‘ प्रजापति पिण्डाण्ड में आत्मारूप इन्द्र है और ब्रहमाण्ड में परमात्मा रूप इन्द्र। अतः व्यष्टि की दृष्टि से कबन्ध से शरीरी प्राण अभिप्रेत होता है, जो ‘क‘ नामक आत्मा (इन्द्र) से बंधा हुआ होता है। इसी प्रकार पूरा ब्रह्माण्डीय प्राण कः प्रजापति (परमात्मा रुपी इन्द्र) से बन्धा हुआ है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे‘ के नियम के अनुसार इस अवधारणा को व्यष्टि की दृष्टि से समझना ही यहां सुगम होगा। अतः कबन्ध को हम वह मूल प्राणोदक कह सकते है, जो कारण, सूक्ष्म औा स्थूल शरीरों में स्थित तीन प्राण सरोवरों का उत्स है। समाधि की स्थिति में यह कबन्ध मधु (सोम) का उत्स बन जाता है जिसका उक्त तीन सरोवरों के लिए शरीर की विविध नाड़ियां रुपी गायें मधु का दोहन करने लगती हैं।[40] ऋग्वेद ९.७४ में इस कबन्ध का विविधरूपेण चित्र उपस्थित किया गया है, जिसके प्रसंग में स्वः, रेतस्, पयः, ईम्, रसं, वनं, आपः, मधु, ऋतं, घृतं, अमृतं, नभः, हविः जैसे उदकनामों का उल्लेख भी प्राप्त होता है। आन्नदयमय कोश के स्तर पर यह प्राणोदक रूप आनन्द सर्वाधिक वननीय होने से वन (उदकनाम) कहलाता है और इस वन रूप में वह स्वः नामक ज्योति के स्वरूप में होता है। पयः नामक प्राणोदक का वर्धन करने वाले रेतः द्वारा जो हिरण्यकोश रुपी द्युलोक से शिशु के समान जन्म लेकर नीचे की ओर आता है,[41] वह सुब्रह्म से विस्तारित सर्वथा पूर्ण (आपूर्ण) अंशु है, जो उक्त द्युलोक के खम्भे के समान आन्तरिक विष्णु से गतिशील होता है।[42] इसी कबन्ध नामक प्राणोदक को आत्मा से युक्त नभ कहा गया है, जो घृत तथा पयः नामक प्राणोदक के रूप में दुहा जाता है तथा उसी को ‘ऋतस्य‘ नाभिः‘ एवं अमृतरूप में उत्पन्न होने वाला कहा जाता है।[43] सूक्त के अन्य मन्त्र में उस प्राणोदक के लिए हविः और अमृतं (दोनों उदकनाम) प्रयुक्त हैं[44] और एक मन्त्र में इसी को श्वेत रूप धारण करने वाला सोम और अन्नमय कोश रुपी भूमि का वर्षणशील असुर कहा गया है, जो ‘ईम‘ नामक प्राणोदक की सहायता ‘धी‘ द्वारा करता है और कबन्ध नामक द्युलोक के उत्स का अवदारण करता है।[45] इस वर्णन में, निघण्टु के जिन उदकनामों का प्रयोग हुआ है, उनमें ‘स्वः‘ और ‘नभः‘ विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। स्वः का कुछ परिचय पंचम अध्याय में दिया जा चुका हैं। यहां स्वः से अभिप्राय उस उत्तर स्वः से है, जिसे उत्तमज्योति भी कहा गया है और जिसको प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा वैदिक मन्त्रों में प्रायः व्यक्त की गई है।[46] इसके अतिरिक्त एक निम्न स्तरीय स्वः है, जिसे वस्तुतः सुवः नामक व्यान समझना चाहिए।[47] इन दोनों को एक ही समझना भूल होगी, क्योंकि तैतरीय संहिता[48] में जब ‘ज्योतिश्च मे सुवश्च मे यज्ञेन कल्पताम्‘ कहा जाता है, तो ‘सुवः‘ से भिन्न जिस ज्योति का उल्लेख है, वह स्वः नामक पूर्वोक्त उत्तम ज्योति ही है। इसी को ऋग्वेद में वाम, प्रकाश तथा उरु अन्तरिक्ष कहा गया है।[49] स्वः की उत्पत्ति सु+अस से मानी जा सकती है, जिसमें सु से सुब्रहम की ओर संकेत है और अस् धातु से उसकी सत्ता अभिप्रेत है। इस प्रकार इसकी तुलना सु+अस्ति से निष्पन्न स्वस्ति शब्द से की जा सकती है, जो सुब्रह्म की उस परम सत्ता की ओर संकेत करता है, जहाँ ‘अस्ति‘ से भिन्न विकार बोधक ‘भवति‘ क्रिया अपेक्षित नहीं होती। अस् और भू दोनों को ही सत्ता का बोधक माना जाता है, परन्तु अस् घातु जहां अपेक्षाकृत निर्विकार सत्ता की द्योतक है, वहीं भू धातु से विकार अथवा परिवर्तनयुक्त सत्ता सूचित होती है, जबकि स्वस्ति (सु+अस्ति) उस द्वन्द्वातीत सत्ता की द्योतक है जहाँ स्वस्ति-भवति का सापेक्षिक द्वन्द्व नहीं होता। स्वः और स्वस्ति जिस द्वन्द्वातीत सत्ता के बोधक हैं, उसी का द्योतक ‘भवति’ का निषेध करने वाला उदकनाम ‘नभ’ है। ‘न भवतीति नभः’ के अनुसार यह निर्विकार प्राणोदक का नाम है। योग की धर्ममेघ समाधि के बोधक पर्जन्य द्वारा वह ‘वर्ष्यम्[50] और ‘वरेण्यं’[51] है, नामरूपात्मक सृष्टि के रूपपक्ष का हिंसक (ऋ. १.७१.१०)[52], ऊर्जा-पति (ऋ ५.४१, १२)[53] और कर्षणशील होने से कृष्ण[54] कहलाता है। नभ नामक प्राणोदक आत्मा से युक्त (आत्मन्वत्) और पूर्वोक्त घृत तथा पयः को दोहन करने वाला तथा ‘ऋतस्य नाभिः’ और अमृत रूप में जन्मने वाला (ऋ. ९.७४, ४)[55] ‘दिव्य ‘सद्मः’ (उदकनाम) और महान् हविः है (ऋ ९.८३, ५)[56]। अन्यत्र नभः के लिए उदकनामों में परिगणित ‘अर्णः और रयिः’ शब्द भी (ऋ ९.९७, २१)[57] प्रयुक्त हुए हैं। नभ नामक प्राणोदक एक ऐसा दिव्यतत्व है, जहां इन्द्र हवि, घृत (दोनों उदकनाम), आदित्यों, वसुओं, मरुतों तथा विश्वदेवों से युक्त होकर पहुंचता है।[58] भुवनं, भूतं, भविष्यत् और सर्वम् उक्त स्वः और नभः नामक निर्विकार अस्तित्व वाले प्राणोदक के स्वरूप से भिन्न, ‘भवति‘ की ‘भू‘ धातु से निष्पन्न भुवनं, भूतं और भविष्यत् शब्द हैं, जिनका उल्लेख उदकनामों में हुआ है। इनमें से ‘भुवनं‘ शब्द प्रायः ‘विश्व‘ शब्द के साथ प्रयुक्त है[59], जबकि ‘भविष्यत्‘ तथा ‘भूतं‘ के साथ विश्वं‘ का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है। जैसा कि आगे स्पष्ट होगा कि भाव विकार परक भुवनं का सम्बन्ध विश्व और सर्व दोनों से है, जबकि भूतं और भविष्यत् में से प्रथम (भूतं) अस्ति - भवति के द्वन्द्व से परे है और भविष्यत् केवल ‘भू‘ धातु से संकेतित् परिवर्तनशील सत्ता का सूचक होने से सृ धातु से निष्पन्न सार्थक सर्व ही है। भूतं वह प्राण है जिसका पालक कः प्रजापति अथवा हिरण्यगर्भ नामक प्राणोदक है और जिसकी छायास्वरूप मृत्यु और अमृत का द्वन्द्व (ऋ १०.१२१, १-२)[60] माना गया है। इसका तात्पर्य है कि ‘भूतं‘ नामक प्राणोदक ‘भवति‘ और ‘अस्ति‘ के सापेक्ष द्वन्द्व से परे है। इसके विपरीत, उदकनामों में पठित ‘सर्वम्‘ शब्द गतिशील प्राण का बोधक है। अतः ‘सर्व‘ अपने में वृजिन तथा साधु के द्वन्द्व को समेटे हुआ कहा गया है, जबकि द्वन्द्वतीत अवस्था को ‘परमा‘ कहा गया है।[61] द्वन्द्व के कारण ‘सर्वम्‘ ‘परिक्रोश‘ रूप है, जिसका त्याग अथवा विनाश वाञ्छनीय[62] है। ‘सर्व‘ पणि का वह ‘भोजन‘ है, जो भावरूप अश्व और ज्ञानरूप गौ से युक्त एक ‘पश्यक‘ होने से पशु कहलाता है, परन्तु उसे पणि नामक असुर के चंगुल से छुड़ाकर ही सम्यक् रूपेण प्राप्त किया जा सकता है (ऋ १.८३, ४)[63]। द्वन्द्वातीत ज्ञानस्वरूप जातवेदस् अग्नि मर्त्यों के ‘सर्व‘ को ‘अमृतं‘ (उदकनाम) बना सकता है, क्योंकि वह प्रवेशार्थक विश् धातु से निष्पन्न विश्व‘ संज्ञा वाली सत्ता (ऋ ३.१४, ७)[64] है, जो भीतर ही भीतर प्रविष्ट होने वाला पूर्वोक्त ‘भूतं‘ संज्ञक प्राणोदक है। इसी विश्व को अपः नामक प्राणोदक से उद्भूत तीन आप्त्यों में से अन्यतम को त्रित नाम दिया गया है, जिसमें उक्त ‘सर्व‘ नामक प्राणोदक का समस्त द्वन्द्वात्मक ‘दुःस्वप्न्यं‘ समाप्त (ऋ ८.४७, १५)[65] हो जाता है। त्रित से भिन्न ‘एकत‘ भविष्यत् ‘सर्व‘ का द्योतक है[66], जबकि द्वित उस ‘भुवनं‘ का सूचक है, जो उक्त ‘विश्व‘ तथा ‘सर्व‘ दोनों से सम्बन्ध रखने वाले वर्तमान प्राणोदक का प्रतीक है। इसीलिए वेदमन्त्रों में प्रायः भुवनं के पूर्व विश्वं विशेषण रहता है[67], परन्तु जब उसको ‘द्विधारा आपः‘ से युक्त ‘भुवनं‘ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो उसमें विश्वं के साथ सर्वं का भी समावेश मानना होगा --
आवर्वृततीरध
नु
द्विधारा
गोषुयुधो
न
नियवं
चरन्तीः
। द्विधाराओं में से एक धारा अन्तर्मुखी विश्व की ओर तथा दूसरी बहिर्मुखी सर्व की ओर जाती हुई मानी गई है। प्रथम धारा वर्तमान ‘भुवनं‘ को पारकर ‘भूतं‘ नामक द्वन्द्वातीत प्राणोदक तक प्रवेश करने का लक्ष्य रखती है, जबकि दूसरी भविष्यत् ‘सर्व‘ की ओर निरन्तर गतिशील रहती है, जिसे सर्वगण नामक देवसमूह से युक्त भुवनं‘माना गया है। सर्व (भविष्यत्) से संबंधित प्राणरूप देवों के इस सर्वगण को ही सर्वेदेवाः तथा भूतं की ओर अग्रसर प्राणरूप देवों को विश्वे देवाः कहा जाता है और इन दोनों को शांतियुक्त करना वांछनीय समझा जाता है[68]। विश्वे देवाः शर्म-प्रदाता है और सर्वे देवाः भी शर्म प्रदान करते हैं।[69] यह तभी संभव है, जब हमारी ऋक‘ नामक अन्तश्चेतना के ‘अक्षर‘ तथा ‘परमव्योम‘ नामक प्राणोदक में विश्वेदेवाः अधिष्ठित हों।[70] यह ‘अक्षर‘ अथवा ‘परम व्योम‘ वस्तुतः ‘भूतं‘ की चरमावस्था है, जहाँ अधिष्ठित विश्वेदेवाः समासीन अथवा समाहित हो जाते है। विश्वेदेवाः को इस स्तर पर पहुंचाने के लिए हमारी ऋक नामक चेतना को ‘भुवनं‘ स्तर पर विश्व‘ के साथ-साथ ‘सर्व‘ से भी युक्त होना पड़ेगा, क्योंकि इस विधि से ही वह ऋक् हमारे कर्म को यज्ञरूप देने में सहायक होगी:-
या
पुरस्ताद्युज्यते
या
च
पश्चाद्या
विश्वतो
युज्यते
या
च
सर्वतः
। जब हमारा कर्म यज्ञ बनेगा, तभी हमारे निरन्तर वर्तमान ‘भुवनं‘ के सभी (भुवनानि) पर हमारी ज्ञानमयी आन्तरिक उषा की कृपा-दृष्टि होगी तथा हमारे ‘विश्व‘ रूप जीव को बोध प्राप्त होगा[71] और हमारे सभी विश्व भुवन (विश्वा भुवनानि) परमात्मा रूप इन्द्र का संधान करने में समर्थ होंगे[72]। इसके फलस्वरूप हमारा मन ऐसा शिव संकल्पस्वरूप हो जायेगा जो भूतं, भुवनं तथा भविष्यत् सर्वं तक अमृत-परिवेष्टित हो जायेगा और यज्ञ विस्तारित होगा रहेगा[73] । इसी दृष्टि से यज्ञ द्वारा भूत और भविष्यत् के सम्पन्न होने[74] अथवा इन्द्र द्वारा विश्वं भुवनं के विकास की बात कही जाती है।[75] त्रित, द्वित और एकत उक्त ‘विश्वं भुवनं‘ अपने सुविकसित रूप में उस अन्तश्चेतना में अधिष्ठित हो जाता है, जिसे ऋग्वेद ४, ५८ के सन्दर्भ में हृदय-समुद्र तथा सभी प्राणोदकों (आपः) का ‘समिथ अनीक‘ कहा गया है[76] और जिस उद्भूत मधुमान ऊर्मि को स्पृहणीय माना गया है[77] और जिसका सवन विश्वं भुवनं वृत्रभय के कारण वृत्रहन्ता इन्द्र को बुलाने के निमित्त करता है[78], क्योंकि मनुष्य सामान्यतः वर्तमान (विश्वं भुवनं) के अन्धकार में छिपा हुआ अर्थात दीर्घतमः रूप अहि द्वारा निगला हुआ होता है, जिसे पूर्वोक्त ‘स्वः‘ रूप में आविर्भूत करना परमावश्यक है[79]। अन्धकार-निगलित ‘विश्वं भुवनं‘ ही ऋग्वेद १.१०५ में कूपस्थित‘ त्रित के रूप में कल्पित हुआ है। अन्धकारमय कूप से वह तभी बाहर निकलता है, जब वह वृत्र का वध करने में समर्थ होता है। वृत्रवध की यह सामर्थ्य ही वह दक्षिणा (दक्षता) है, जो साधक को न केवल ‘विश्वं भुवनं‘ को इदम् (व्यक्त प्राणोदक) के वर्तमान रूप में प्रदान करती , अपितु उस स्वः नामक प्राणोदक को भी, जो ‘भविष्यत् है।[80] इस प्रकार वृत्रवध का सामर्थ्य होने पर जो त्रिकाल स्थित त्रित अन्धकार रूप कूप में था, वह प्रकट होकर भूतं, भुवनं (वर्तमान) तथा भविष्यत् तीनों को संभालने में समर्थ हो जाता है। ये ही वे ‘भुवनानि‘ हैं जिनको देखता हुआ सविता हिरण्ययकोशीय ज्योतिरूप रथ द्वारा आता हुआ, मर्त्य और अमृत नामक दोनों स्तरों को निवेशित करता हुआ, कर्षण-रहित ‘रजः‘ द्वारा वर्तमान होता है।[81] मानव जीवन के त्रिकाल का यह आदर्श सुविकसित रूप है, जिसकी प्राप्ति त्रित जीवात्मा को उक्त दीर्घतमः रूप कूप से बाहर आने पर होती है। त्रित का रहस्य इस प्रकार त्रित के पूर्वोक्त आख्यान का रहस्य और अधिक स्पष्ट होता है। तदनुसार अहंकार रूप अहि के प्रभाव में पड़ा हुआ प्राण (आत्मा) का त्रित रूप वह ‘विश्वं भुवनं‘ है, जो अपने भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों रूपों को संभालने में असमर्थ है, क्योंकि उसकी सारी आध्यात्मिक शक्ति या तो विश्वं‘ (भूतं) और ‘सर्वं‘ (भविष्यत्) के द्वन्द्व की चिन्ता करने वाले द्वित ‘भुवनं‘ (वर्तमान) ने हड़प ली है, अथवा एकमात्र ‘सर्वम्‘ (भविष्यत्) पर दृष्टि रखने वाले एकत ने हथिया ली है, जिसके परिणामस्वरूप त्रित अपने त्रिकालात्मक सनातन स्वरूप को भूलकर अज्ञानान्धकार रुपी कूप में पड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में एकत नामक आप्त्य अन्नमय कोश का सूचक हो जाता है, जिसे अपने को भविष्य (सर्व) में सुरक्षित रखने की चिन्ता रह जाती है और द्वित आप्त्य उस प्राणमय ‘सर्व’ का द्योतक हो जाता है, जो प्राणन् और अपानन् क्रिया के द्वारा विश्वं और सर्वं दोनों के लिए चिन्तित रहता है, जबकि त्रित आप्त्य उस मनोमय आत्मा की ओर संकेत करता है, जो अपने त्रिकालातीत सनातन स्वरूप के हिरण्यनेमयः विद्युतः की यदाकदा झलक भले ही पा लेता हो, परन्तु उसके आपश्चन्द्राः अथवा हिरण्यवर्णाः आपः से सर्वथा अपरिचित हो जाता है, जो उसके सनातन स्वरूप की विशेषता है। त्रित आप्त्य को इस अन्धकारमय कूप में गिराने वाले, उक्त वर्तमान और भविष्यत् पर ही दृष्टि रखने वाले क्रमशः द्वित और एकत नामक उसी के भाई हैं। उन्होंने उस मनोमय आत्मा रूप त्रित को अहंकार जनित अन्धकार के कूप में ढकेला है। त्रित आप्त्य की इस दुर्दशा का कारण यह है कि उसने प्राणमय द्वित और अन्नमय एकत की प्यास बुझाने के लिए उस कूप में गिरना स्वीकार कर लिया और इस बात को सर्वथा भुला दिया कि उसका वास्तविक स्वरूप त्रिकालात्मक सनातन है, जो स्वः, स्वस्ति तथा हिरण्ययी ज्योति से आलोकित रहता है। पूर्ण की उपलब्धि- त्रित, द्वित और एकत का उस समय कायापलट हो जाता है, जब दीर्घतमः कहलाने वाले अहंकार रूपी वृत्र का अन्त हो जाता है और त्रित की अन्धकार के कूप से बाहर निकलने की वह प्रार्थना स्वीकृत हो जाती है, जिसे वह ऋग्वेद १. १०५ में बड़े करुण स्वर से विलाप करता हुआ कर रहा था। उस सूक्त के प्रत्येक मन्त्र की टेक ‘वित्तं में अस्य रोदसी’ है। इसका अर्थ है कि हे रोदसी, मेरी इस अवस्था को जानो। रोदसी द्यावापृथिवी नामक उस चेतनायुग्म का नाम है, जिसने प्रजापति को रुलाया था[82], क्योंकि अहंकार रूप अहि से आक्रान्त होने पर रोदसी की रुलाने वाली अवस्था हो जाती है। त्रित रोदसी से अपनी दशा को जानने के लिए इसीलिए कहता है, क्योंकि रोदसी ही वस्तुतः उसको भी रुलाने के लिए उत्तरदायी है। उसकी इस प्रार्थना को बृहस्पति सुन लेता है[83] । बृहती नामक उदार बुद्धि का स्वामी होने से वह बृहस्पति कहलाता है। बृहस्पति द्वारा प्रार्थना सुने जाने का संकेत यह है कि अब उस अहंकार जन्य संकीर्णता और क्षुद्रता का अन्त होना संभव है, क्योंकि बृहती बुद्धि का स्वामी अब उसका पक्षधर होने वाला है। ऋग्वेद ८, ४७.१६-१८ में पुनः त्रित सभी आदित्यों से निवेदन करता हुआ उनकी निष्पाप ऊतियों (रक्षणोपायों) की कामना करता हुआ प्रत्येक मन्त्र में ‘अनेहसा व ऊतयः सु ऊतयो व ऊतयः’ की टेक दोहराता है और अन्त में अपने समस्त दुष्वप्न (दुःष्वप्न्यं सर्वं) से मुक्त होने के लिए उषा देवी से निवेदन करता है।[84] इन सब प्रार्थनाओं के फलस्वरूप त्रित को जो उपलब्धि होती है, उसकी झलक हमें उसके उन सूक्तों से मिलती है, जो ऋग्वेद के नवें[85] और दशम[86] मण्डल में प्राप्य हैं। नवम मण्डल में उसे इस इन्दु (सोम) के पवमान रूप की प्राप्ति होती है, जिसका उल्लेख हमें निघण्टु के उदकनामों में भी मिलता है। पूर्व प्रार्थना से त्रित के जो ‘वन’ नामक प्राणोदक उभरे थे, उनकी ओर ज्ञानमय सोम बिन्दुओं (सोमासो विपश्चितः) की ऊर्मियां आने लगती हैं।[87] ऋत धातु के साथ शुक्र और बभ्रु सोमलहरियां वाज नामक बल का क्षरण करने लगती हैं। तब इन्द्र, वरुण, विष्णु और मरुतों के लिए सोम प्रवाहित होने लगता है।[88] इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति नामक तिस्रो वाचः ऊपर उठने लगती हैं और वे ‘ऋतस्य मातरः’ होकर सोम नामक दिव्य शिशु का परिमार्जन करने लगती हैं[89] , परन्तु फिर भी त्रित सहस्री सोम (सहस्रार चक्र से प्राप्त होने वाले आनन्द रस) से प्रार्थना करता है कि वह हमारे लिए भीतर से (विश्वतः) चार समुद्रों (विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय, अन्नमय कोशों) को भरने के लिए क्षरित हो। ऋग्वेद ९.३४ से ज्ञात होता है कि पवमान सोम ने यह प्रार्थना सुन ली है। अतः वह कहता है कि इन्दु गतिशील हो गया है और अपने ओज से अत्यन्त दृढ़ बाधाओं को भी नष्ट कर रहा है।[90] अब इन्द्र, वायु, वरुण, मरुतों और विष्णु के निमित्त पयः नामक प्राणोदक शक्तिपूर्वक दुहा जा रहा है तथा विभिन्न रूपों में सम्यक् गतिशील होता हुआ, दुरित को हरण करने वाला हरि नामक सोम, जो त्रित के लिए अन्वेषणीय था, वह आत्मा रूपी इन्द्र के लिए मत्सर (मस्त, मद) करने वाला हो गया।[91] अब ईम् नामक प्राणोदक ‘ऋतस्य विष्टपं’ तथा ‘चारु प्रियतमं हविः हो गया, जिसका दोहन मरुत् नामक प्राण कर रहे हैं।[92] इस प्रकार ब्रह्मानन्द रूप सोम की कृपा उपलब्ध होने पर त्रित अपने आध्यात्मिक विकास की उस चरम सीमा तक पहुंच जाता है, जिसकी झलक ऋ १०.१-१०.७ में भली भांति प्राप्त होती है। ये सात सूक्त जिस अग्नि को सम्बोधित हैं, वह जातवेदस् अग्नि है, जिसका विज्ञान विप्रों को मतियों के द्वारा (मतिभिः) प्राप्त होता है।[93] क्योंकि यह अग्नि आत्मा के उस रूप का द्योतक है, जिसमें क्रियापरक इन्द्र, ज्ञानपरक अग्नि में सोम को उदरस्थ किये हुए चित्रित किया जाता है।[94] इन्द्र, अग्नि और सोम नामक इन तीन पक्षों को ही त्रित के ‘त्रीणि योजनानि’ कहा गया है, जिनका निर्माण सुक्रतु सोम अपनी धारा से एक रयि के रूप में करता है।[95] वास्तव में इस विविधता के कारण ही जीवात्मा को त्रित कहा जाता है, परन्तु उसकी यह त्रिविधता एकीभूत जातवेदस् का रूप तभी ग्रहण कर सकती है, जब वह अहंकार जन्य कूप से बाहर निकल पाता है। आत्मा का यह एकीभूत रूप वह रयि है, जिसे सभी आध्यात्मिक धनों का ध्रुव (ध्रुवों रयीणां) कहा जाता है और जो उस जायमान इन्दु को जानता है, जिसका वर्णन अब अहंबुद्धि, मन तथा पांच ज्ञानेन्द्रियों रूपी सप्त माताएं करती हैं।[96] यह ब्रह्मानन्द रस रूप सोम ईम् नामक प्राणोदक का वह चारु गर्भ है, जिसको वे विश्वेदेवाः ही जन्म दे पाते हैं, जो उसके व्रती होने से द्रोहरहित, परस्पर प्रीति-सम्पन्न होकर स्पृहणीय, रमणीय और ऋत का वर्धन करने वाले कहे जाते हैं। अब यह अनुभूति द्वित की उस स्थिति से भिन्न है, जिसमें वह त्रित की सारी संपत्ति हरण करके उसे कूप में ढकेलने वाला बना था। अब प्राणमय आत्मा रूप द्वित आप्त्य भी अपने सूक्त (ऋ ९, १०३) में अनुभव करता है कि मन और बुद्धि सहित पंच प्राण भी ऋषियों की सप्त वाणी बन गये हैं, क्योंकि अब पवमान सोम उसके (प्राणमय कोश के) स्तर को भी मधुश्चुत (कोशं मधुश्चुतं) बना रहा है और वह स्वयं मतियों का नेता (नेता मतीनां) तथा विश्वदेव हो गया है।[97] फिर भी उसकी प्रार्थना है कि वह अमर्त्य इन्द्र के साथ सरथ होकर पवमान होता हुआ सर्वत्र व्याप्त हो जाये।[98] द्वित के समान एकत आप्त्य भी परिवर्तित परिस्थितियों में बदला हुआ दिखाई पडता है। अतः ऋग्वेद १०.१५७ के ऋषि के रूप में भुवन आप्त्य साधनों का भौवन कहा जाता है। इसका तात्पर्य है कि अब वह सम्पूर्ण भुवनं का साधन रूप हो गया है और पहले जैसा स्वार्थी और क्षुद्र नहीं रहा। तदनुसार वह कामना करता है कि इन्द्र आदित्यों और मरूतों के साथ हम सब के तनुओं का (अस्माकं तनूनां) रक्षक बने तथा जो भी असुर आयें, देव उनका हनन करके देवत्य की रक्षा करे।[99] इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह भुवन आप्त्य, अन्नमय शरीरों की (तनूनां) रक्षा चाहने वाला वही एकत आप्त्य है, जिसे हमने अन्नमय कोश का प्राण कहा था, परन्तु अब इसको एक बदली हुई मनोवृत्तिवाला व्यक्ति बतलाने के लिए देवों का हितचिन्तक तथा असुरत्व का विरोधी बताया गया है। इसी दृष्टि से उसकी यह भी प्रार्थना है कि देव लोग अपनी शक्तियों के द्वारा (शचीभिः) आरोहण करने वाले सूर्य को पुनः वापिस लायें और जिसके पश्चात् हम लोग अपनी एषणीय स्वधा (वृष्ट्युदक) को सर्वत्र देखें।[100] इस प्रकार अहंकार रूप अहि के प्रभाव से मुक्त होने पर जो त्रित, द्वित और एकत क्रमशः अपने मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोश को अलग समझ रहे थे अब वे सब एकभूत होकर आनन्द सोम की उस दिव्य ऊधस् से सिंचित हो रहे हैं, जिसको पूर्ण और सर्वताति अदिति कहा जाता है तथा जिसकी प्राप्ति होने पर सोम का अभिषवण करने वाले ‘भद्रा प्रमतिः’ के अधिकारी बन जाते हैं।[101] यहां उसे पूर्ण ऊधस् अदिति कहने से जहां उसकी अद्वैत अखण्डता का बोध होता है, वहीं सर्वताति कहने से उसकी बहुमुखी व्याप्ति की ओर संकेत होता है। इसका तात्पर्य है कि जब विश्वगत आन्तरिक अखण्डता के साथ सर्वगत व्याप्ति भी होती है, तभी मनुष्य व्यक्तित्व वह पूर्ण कुम्भ बनता है, जिसे अमृतयुक्त धारा से पूर्ण माना जा सकता है।[102] इस प्रकार जब अवरोहण करता हुआ पवमान सोम आत्मा रूपी इन्द्र के निमित्त मनुष्य-व्यक्तित्व को एक पूर्ण चमस के रूप में परिवर्तित कर देता है, तभी इन्दु सर्वतः प्रवाहित होकर पुण्यात्मा व्यक्ति का भोजन बन जाता है।[103] दूसरे शब्दों में, जो परब्रह्म परमात्मा का पूर्ण ब्रह्मानन्द रस है, उस पूर्ण से संयुक्त होकर व्यष्टिगत आनन्द भी पूर्णरूप में प्राप्त हो जाता है। इसी बात को लक्ष्य करके कहा जाता है कि पूर्ण से पूर्ण को प्राप्त किया जाता है, परन्तु फिर भी साधक की यह अभिलाषा रहती है कि हम उस स्रोत को जान सकें, जिससे यह परिसिंचन हो रहा है-
पूर्णात्पूर्णमुदचति
पूर्णं
पूर्णेन
सिच्यते
। इस प्रकार इस ब्रह्मानन्द रस से ओतप्रोत और एकीभूत मनुष्य व्यक्तित्व के आत्मा रूपी इन्द्रं में सभी लोक तप तथा ऋत प्रत्यक्ष रूप से प्रतिष्ठित हो जाते हैं [104] और उसके भीतर वह ‘नाम’ (उदकनाम) स्थापित हो जाता है, जो ज्ञानरूप सूर्य तथा बुद्धि रूप उषा से भी पूर्व स्थान रखता है[105] , वह अजन्मा है, जो सर्वप्रथम प्रादुर्भूत हुआ और जिससे उच्चतर न कोई हुआ और न है, वह इस व्यक्तित्व में अपना स्वराज्य स्थापित कर लेता है।[106] इस व्यक्तित्व वाला साधक अपने आन्तरिक सलिल (महत्) में स्थित हिरण्यय कोश की उस ज्योति को जान लेता है, जिसको वेद में हिरण्यय वेदस्’ कहा जाता है और इसका ज्ञाता होकर वह स्वयं गुह्य प्रजापति बन जाता है।[107] मनुष्य के व्यक्तित्व में जो ऊर्ध्वगमिनी और अधोगामिनी चेतना धाराएं हैं, वे अब वृत्रवध के बाद युवती होकर परस्पर एकता स्थापित करके, सेन्द्रिय मन की छह मयूखों द्वारा जीवनपट को बुनने लगती हैं, उनमें से एक तन्तुओं को फैलाती है और दूसरी न उसको हिंसित होने देती है, न ही उसका अन्त होने देती है। इस प्रकार मनुष्य व्यक्तित्व एकसूत्रता में आबद्ध सुसम्पन्न और समर्थ बन जाता है। यही सूत्रबद्धता, प्राणोदक की उदञ्चनशीलता का वह लक्ष्य है, जिसे अगले अध्याय में प्रस्तुत किया गया है।
[1] तदेतत्सत्यमक्षरं यदोमिति तस्मिन्नापः प्रतिष्ठिता अप्सु पृथिवी पृथिव्यामिमे लोकाः (जैउब्रा १,२.३.२, तद् एतत् सत्यम् अक्षरं यद् ओम् इति। जैब्रा १.३२३ [5] अथाध्यात्मं यान्यक्षराण्यधिदैवतमवोचामास्थीनि तान्यध्यात्मं यानूष्मणोऽधिदैवतमवोचाम मज्जानस्तेऽध्यात्मम्, इति ।ऐआ ३.२.२.४
[6]
गौरीर्मिमाय
सलिलानि
तक्षत्येकपदी
द्विपदी
सा
चतुष्पदी
।
[7]
प्र
सु
व
आपो
महिमानमुत्तमं
कारुर्वोचाति
सदने
विवस्वतः
।
[10]
आ
क्षोदो
महि
वृतं
नदीनां
परिष्ठितमसृज
ऊर्मिमपाम्
।
[11]
या
आपो
दिव्या
उत
वा
स्रवन्ति
खनित्रिमा
उत
वा
याः
स्वयंजाः
।
[12]
प्र
सु
व
आपो
महिमानमुत्तमं
कारुर्वोचाति
सदने
विवस्वतः
।
[13]
विष्णोर्नु
कं
वीर्याणि
प्र
वोचं
यः
पार्थिवानि
विममे
रजांसि
।
[15]इयं
वेदिः
परो
अन्तः
पृथिव्या
अयं
यज्ञो
भुवनस्य
नाभिः
।
[16]
ता
ईं
वर्धन्ति
मह्यस्य
पौंस्यं
नि
मातरा
नयति
रेतसे
भुजे
। [18] प्राणोदाना उ वै रेतः सिक्तं विकुरुतः पयस्या भवति पयो हि रेतो । माश ९.५.१.५६ (तु. यत् पयस् तद् रेतस् तद् अग्नौ देवयोन्यां रेतो ब्रह्ममयं धत्ते प्रजननाय - गोब्रा. २.२.६, रेतो वै पयो योनिर् इयम्। योन्याम् एवैतद् रेतः प्रतिष्ठापयति। - जैब्रा १.५३, योनिर्वा इयम्। रेतः पयः। तदस्यां योनौ रेतो दधाति। अनुष्ठ्या हास्य रेतः सिक्तं प्रजायते। - माश १२.४.१.७) [19] सोमः पयः। तैसं ६.२.११.४, माश १२.७.३.१३, पयो वै सोमः पयः सांनाय्यम् पयसैव पय आत्मन् धत्ते - तैसं २.५.५.१, पयो वै पुरुषः, पय एष इच्छति यो भूतिमिच्छति - मैसं २.३.१, जैब्रा ३.१४५ [20] कौब्रा १०.६, शिर एतद्यज्ञस्य यदुखा प्राणः पयः शीर्षंस्तत्प्राणं दधाति - माश ६.५.४.१५, शिर एतद्यज्ञस्य यदग्निः प्राणः पयः शीर्षंस्तत्प्राणं दधाति – माश ९.२.३.३१ [26] मब्रा २.६.१५
[28]
समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ
उदारदुपांशुना
सममृतत्वमानट्
।
[29]
वयं
नाम
प्र
ब्रवामा
घृतस्यास्मिन्यज्ञे
धारयामा
नमोभिः
। [30] घृतं वै देवानां मधु काठ.सं २६.५, तु. क सं. ४१.१.३, एतद्वै देवानां मधु यद् घृतं , सवितॄप्रसूत एवैनं मध्वानक्ति - मैसं. ३.९.३
[33]
त्रिधा
हितं
पणिभिर्गुह्यमानं
गवि
देवासो
घृतमन्वविन्दन्
।
[34]एता
अर्षन्ति
हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा
रिपुणा
नावचक्षे
।
[35]
सम्यक्स्रवन्ति
सरितो
न
धेना
अन्तर्हृदा
मनसा
पूयमानाः
।
[36]
सिन्धोरिव
प्राध्वने
शूघनासो
वातप्रमियः
पतयन्ति
यह्वाः
।
[37]
अभि
प्रवन्त
समनेव
योषाः
कल्याण्यः
स्मयमानासो
अग्निम्
।
[38]
कन्या
इव
वहतुमेतवा
उ
अञ्ज्यञ्जाना
अभि
चाकशीमि
।
[41]शिशुर्न
जातोऽव
चक्रदद्वने
स्वर्यद्वाज्यरुषः
सिषासति
।
[42]
दिवो
य
स्कम्भो
धरुणः
स्वातत
आपूर्णो
अंशुः
पर्येति
विश्वतः
।
[43]
आत्मन्वन्नभो
दुह्यते
घृतं
पय
ऋतस्य
नाभिरमृतं
वि
जायते
।
[44]
सहस्रधारेऽव
ता
असश्चतस्तृतीये
सन्तु
रजसि
प्रजावतीः
।
[45]श्वेतं
रूपं
कृणुते
यत्सिषासति
सोमो
मीढ्वाँ
असुरो
वेद
भूमनः
।
[46]
तु.
उद्
वयं
तमसस्
परि
स्वः
पश्यन्त
ऽ
उत्तरम्
।
[49]इदं
स्वरिदमिदास
वाममयं
प्रकाश
उर्वन्तरिक्षम्
।
[50]रथीव
कशयाश्वाँ
अभिक्षिपन्नाविर्दूतान्कृणुते
वर्ष्याँ
अह
।
[52]
मा
नो
अग्ने
सख्या
पित्र्याणि
प्र
मर्षिष्ठा
अभि
विदुष्कविः
सन्
।
[53]
शृणोतु
न
ऊर्जां
पतिर्गिरः
स
नभस्तरीयाँ
इषिरः
परिज्मा
।
[54]द्रप्समपश्यं
विषुणे
चरन्तमुपह्वरे
नद्यो
अंशुमत्याः
।
[55]
आत्मन्वन्नभो
दुह्यते
घृतं
पय
ऋतस्य
नाभिरमृतं
वि
जायते
।
[56]
हविर्हविष्मो
महि
सद्म
दैव्यं
नभो
वसानः
परि
यास्यध्वरम्
।
[57]
एवा
न
इन्दो
अभि
देववीतिं
परि
स्रव
नभो
अर्णश्चमूषु
।
[58]
सं
बर्हिर्
अङ्क्ताꣳ
हविषा
घृतेन
सम्
आदित्यैर्
वसुभिः
सं
मरुद्भिः
।
[59]
धारयन्त
आदित्यासो
जगत्स्था
देवा
विश्वस्य
भुवनस्य
गोपाः
।
[60]
हिरण्यगर्भः
समवर्तताग्रे
भूतस्य
जातः
पतिरेक
आसीत्
।
[61]
त
आदित्यास
उरवो
गभीरा
अदब्धासो
दिप्सन्तो
भूर्यक्षाः
।
[62]
सर्वं
परिक्रोशं
जहि
जम्भया
कृकदाश्वम्
।
[63]
आदङ्गिराः
प्रथमं
दधिरे
वय
इद्धाग्नयः
शम्या
ये
सुकृत्यया
।
[64]
तुभ्यं
दक्ष
कविक्रतो
यानीमा
देव
मर्तासो
अध्वरे
अकर्म
।
[65]
निष्कं
वा
घा
कृणवते
स्रजं
वा
दुहितर्दिवः
।
[66]
येनेदं
भूतं
भुवनं
भविष्यत्
परिगृहीतम्
अमृतेन
सर्वम्
।
अनड्वान्
इन्द्रः
स
पशुभ्यो
वि
चष्टे
त्रयां
छक्रो
वि
मिमीते
अध्वनः
।
[67]
यान्राये
मर्तान्सुषूदो
अग्ने
ते
स्याम
मघवानो
वयं
च
।
त्रिविष्टिधातु
प्रतिमानमोजसस्तिस्रो
भूमीर्नृपते
त्रीणि
रोचना
।
न
प्रमिये
सवितुर्दैव्यस्य
तद्यथा
विश्वं
भुवनं
धारयिष्यति
।
धर्मणा
मित्रावरुणा
विपश्चिता
व्रता
रक्षेथे
असुरस्य
मायया
।
प्र
वाता
वान्ति
पतयन्ति
विद्युत
उदोषधीर्जिहते
पिन्वते
स्वः
। [68] पृथिवी शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिर्द्यौः शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिर्वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे मे देवाः शान्तिः सर्वे मे देवाः शान्तिः शान्तिः शान्तिः शान्तिभिः । -अथर्व १९.९.१४
[69]
तैर्मे
कृतं
स्वस्त्ययनमिन्द्रो
मे
शर्म
यच्छतु
ब्रह्मा
मे
शर्म
यच्छतु
।
[70]
ऋचो
अक्षरे
परमे
व्योमन्यस्मिन्देवा
अधि
विश्वे
निषेदुः
।
[71]
विश्वानि
देवी
भुवनाभिचक्ष्या
प्रतीची
चक्षुरुर्विया
वि
भाति
।
[72]
यः
शूरेभिर्हव्यो
यश्च
भीरुभिर्यो
धावद्भिर्हूयते
यश्च
जिग्युभिः
।
[73]येनेदं
भूतं
भुवनं
भविष्यत्
परिगृहीतम्
अमृतेन
सर्वम्
। [74] वित्तं च मे वेद्यं च मे भूतं च मे भविष्यच् च मे सुगं च मे सुपथ्यं च म ऽ ऋद्धं च म ऽ ऋद्धिश् च मे क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश् च मे मतिश् च मे सुमतिश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥वा.सं. १८.११
[75]
त्रिविष्टिधातु
प्रतिमानमोजसस्तिस्रो
भूमीर्नृपते
त्रीणि
रोचना
।
[76]
धामन्ते
विश्वं
भुवनमधि
श्रितमन्तः
समुद्रे
हृद्यन्तरायुषि
। [77] वही
[78]
वृक्षेवृक्षे
नियता
मीमयद्गौस्ततो
वयः
प्र
पतान्पूरुषादः
।
[79]
गीर्णं
भुवनं
तमसापगूळ्हमाविः
स्वरभवज्जाते
अग्नौ
।
[80]
न
भोजा
मम्रुर्न
न्यर्थमीयुर्न
रिष्यन्ति
न
व्यथन्ते
ह
भोजाः
।
[81]
आ
कृष्णेन
रजसा
वर्तमानो
निवेशयन्नमृतं
मर्त्यं
च
। [82]यदप्स्ववापद्यत । सा पृथिव्यभवत् । यद्व्यमृष्ट । तदन्तरिक्षमभवत् । यदूर्ध्वमुदमृष्ट । सा द्यौरभवत् । यदरोदीत् । तदनयो रोदस्त्वम्। य एवं वेद । नास्य गृहे रुदन्ति । तैब्रा २.२.९.४
[83]
त्रितः
कूपेऽवहितो
देवान्हवत
ऊतये
।
[84]
तदन्नाय
तदपसे
तं
भागमुपसेदुषे
।
[88]
अभि
द्रोणानि
बभ्रवः
शुक्रा
ऋतस्य
धारया
।
[93]
तमुस्रामिन्द्रं
न
रेजमानमग्निं
गीर्भिर्नमोभिरा
कृणुध्वम्
।
[94]
अयं
सो
अग्निर्यस्मिन्सोममिन्द्रः
सुतं
दधे
जठरे
वावशानः
।
[97]परि
कोशं
मधुश्चुतमव्यये
वारे
अर्षति
।
[98]परि
दैवीरनु
स्वधा
इन्द्रेण
याहि
सरथम्
।
[99]
इमा
नु
कं
भुवना
सीषधामेन्द्रश्च
विश्वे
च
देवाः
॥१॥
[100]हत्वाय
देवा
असुरान्यदायन्देवा
देवत्वमभिरक्षमाणाः
॥४॥
[101]
क्रतुप्रावा
जरिता
शश्वतामव
इन्द्र
इद्भद्रा
प्रमतिः
सुतावताम्
।
[102]
पूर्णं
नारि
प्र
भर
कुम्भमेतं
घृतस्य
धाराममृतेन
संभृताम्
।
[103]
अथर्वा
पूर्णं
चमसं
यमिन्द्रायाबिभर्वाजिनीवते
।
[104]
इन्द्रे
लोका
इन्द्रे
तप
इन्द्रेऽध्यृतमाहितम्
।
[105]
नाम
नाम्ना
जोहवीति
पुरा
सूर्यात्पुरोषसः
। |