वेद में उदक का प्रतीकवाद Symbolism of Water in Veda सुकर्मपाल सिंह तोमर Sukarmapal Singh Tomar अध्याय१ उदक की अवधारणा अध्याय२ प्राणोदक की व्यापकता अध्याय३ प्राणोदक एक चेतनतत्त्व अध्याय४ आपः का एकत्व और अनेकत्व अध्याय५ उदकनामों में विरोध अथवा असंगति का आभास अध्याय६ उदकनामों में एकसूत्रता अध्याय७ उदकनामों की उदञ्चनशीलता का उद्देश्य अध्याय८ उपसंहार अध्याय९ परिशिष्ट
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प्रस्तावना यास्ककृत निघण्टु प्राचीनतम वैदिक शब्दकोश है। इस शब्दकोश में अनेकार्थक शब्दों के साथ-साथ ऐसे शब्दों का भी संकलन किया गया है। जिनके अनेक पर्याय होते हैं। ये अनेक पर्याय शब्द विभिन्न नामसूचियों में रखे गये हैं। एक ही शब्द को अनेक नामसूचियों में भी सम्मिलित कर दिया गा है। उदाहरणार्थ ‘अदिति’ शब्द को पृथिवीनामों, वाङ्नामों, गोनामों और पदनामों के अन्तर्गत, ‘अपः’ शब्द को उदकनामों और कर्मनामों के अन्तर्गत, ‘अमृत’ को हिरण्यनामों और उदकनामों के अन्तर्गत; ‘आपः’ को अन्तरिक्षनामों और पदनामों के अन्तर्गत, ‘इन्दु’ शब्द को उदकनामों, यज्ञनामों और पदनामों के अन्तर्गत; ‘इडा’ शब्द को पृथिवीनामों, वाङ्नामों, अन्ननामों, गोनामों और पदनामों के अन्तर्गत; ‘उर्वी’ को पृथिवीनामों और द्यावापृथिवीनामों के अन्तर्गत; ‘ऋतं’ शब्द को उदकनामों, धननामों और सत्यनामों के अन्तर्गत, ‘गौ’ शब्द को पृथिवीनामों, साधारणनामों, वाङ्नामों, स्तोतृनामों और पदनामों के अंतर्गत रखा गया हैं यहां यह महत्वपूर्ण प्रश्न होना स्वाभाविक है कि एक ही शब्द विभिन्न नामों का वाचक कैसे हो सकता है। दूसरी महत्वपूर्ण समस्या यह है कि एक ही नामसूची में न केवल विभिन्न अर्थवाले शब्दों को सम्मिलित किया गया है, अपितु परस्पर विरोधी अर्थवाले शब्दों को भी सम्मिलित कर दिया गया है। ‘ऊधः’ (स्तन) और ‘पयः’ दोनों रात्रिनामों में रखे गये हैं; जबकि स्वयं ‘रात्रि’ शब्द को रात्रि नामों में सम्मिलित न करके पदनामों में सम्मिलित किया गया है। ‘अदितिः’ को गोनामों में और ‘गौ’ शब्द को पृथिवीनामों, साधारणनामों आदि में रखा गया है। उदकनामों में ऋतं और सत्यं; अमृतं और विषं, अहिः और शम्बरं जैसे शब्दों के सम्मिलित करने से यास्क का क्या उद्देश्य हो सकता है? क्या आचार्य यास्क ने बिना सोचे समझे, बिना किसी आधार के निघंटु की इन नाम सूचियों का निर्माण कर दिया था? वास्तव में निघंण्टु की नामसूचियों के रहस्यपूर्ण उद्देश्य को समझने के लिये इन सब नामों का वैदिक अध्ययन अपेक्षित है। इस दिशा में सर्वप्रथम के लिये इन सब नामों का वैदिक अध्ययन अपेक्षित है। इस दिशा में सर्वप्रथम डाँ. श्रद्धा चौहान ने १९७० में राजस्थान विश्व विद्यालय से निघण्टु के धननामों का अध्ययन करते हुए ‘वेद में धन की परिकल्पना’ शीर्षक से शोधप्रबन्ध पर पीएच० डी० की उपाधि प्राप्त की। इसी प्रयास को आगे बढ़ाते हुए डाँ. प्रतिभा शुक्ला ने १९८९ में जोधपुर विश्वविद्यालय से ‘हिरण्य नामों का प्रतीकवाद’ और डाँ. माधुरी गुप्ता ने १९९१ में राजस्थान विश्वविद्यालय से ‘ वेद में अश्वनामों का प्रतीकवाद ’ शीर्षक से अपने शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत करके पीएच० डी० की उपाधि प्राप्त की। इसी प्रकार सुश्री अरुणा शुक्ला ने ‘ वेद में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद ’ शीर्षक से और सुश्री ललिता सिंह ने ‘वेद में गृहनामों का प्रतीकवाद’ शीर्षक से क्रमशः जोधपुर और राजस्थान विश्वविद्यालयय में अपने शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किये, जो सम्भवतः परीक्षकों के पास भेजे जा चुके है। दो अन्य शोध छात्र निघण्टु के ‘सुखनामों’ और ‘प्रज्ञानामों’ पर क्रमशः जोधपुर और अजमेर से कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार, वेदाध्ययन की उस प्राचीनतम अध्ययनशैली के पुनरुद्धार को नई दिशा दी जा रही है, जिसका प्रारंभ सहस्रों वर्ष पूर्व यास्काचार्य ने किया था। यास्क ने प्रत्येक पर्यायसूची में से कुछ शब्दों की व्याख्या करके मार्गदर्शन किया था। परन्तु उपर्युक्त शोध-प्रबंधों में न केवल सम्बधित सूची के सभी शब्दों को लिया गया है अपितु वे वेद में जहां जहां प्रयुक्त हैं उन सभी स्थलों का अध्ययन करते हुए यह बताने का प्रयास किया गया है कि उस नामसूची के सभी शब्दों के पीछे आधारभूत प्रतीकवाद क्या है? इससे वेद के दार्शनिक पक्ष को समझने में बड़ी सहायता मिली है। इसी दिशा में, निघंटु के उदकनामों का वैदिक अध्ययन प्रस्तुत शोध-प्रबंध में किया जा रहा है। इस शोध-प्रबंध में एक सौ एक वैदिक शब्दों का अध्यन प्रस्तुत किया गया है, जो निघंटु नामक प्राचीनतम शब्दकोश में ‘उदकनामानि’ में संगृहीत हैं। संस्कृत में उदक शब्द के जलवाचक होने के कारण स्वाभाविक रूप से इन सभी उदकनामों का अर्थ भी जल ही मानना चाहिये। परंतु ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि वेद के प्राचीन अथवा आधुनिक भाष्यकारों में से किसी ने भी इन सभी शब्दों को जल के अर्थ में ग्रहण नहीं किया है। कुछ ऐसे शब्द उदकनामों में अवश्य सम्मिलित हैं, जिन्हें लौकिक संस्कृत में भी जलवाचक माना गया है। ‘‘आपः’’,, ‘‘तोयम्’’, ‘‘सत्’’, ‘‘स्वः’’, ‘‘ब्रह्म’’, ‘‘अहिः’’, शम्बर’’, तथा ‘‘घृत’’ जैसे शब्द भी हैं, जिन्हें जलवाचक मानना असम्भव नहीं तो अति कठिन अवश्य है। इसके अतिरिक्त, निघंटु में जो विभिन्न नाम-सूचियां दी गयी है उनमें तेईस नाम-सूचियों में कुछ उदकनामों को भी सम्मिलित किया गया है। उदकनामों को जलवाचक मानने में कठिनाई अतः इन सभी शब्दों को जल अर्थ में ग्रहण करना कितना दुष्कर कार्य है, इसके लिये दो ही उदाहरण पर्याप्त होंगे। ‘‘अहिः’’, और ‘‘शम्बर’’ दो ऐसे शब्द हैं जो वृत्र के लिये प्रयुक्त होते हैं, जिसे वेद में इन्दशत्रु कहा जाता है और जिसने आपः (जल) को अवरूद्ध कर रखा है। अतः ‘‘आपः’’ को प्रवाहित करने के लिये अहि अथवा शम्बर का वध करना इन्द्र का सुविदित कार्य है। प्रायः वैदिक मंत्रों में अहि का वध और आपः का प्रवाहित करना इन दोनों घटनाओं का वर्णन एक साथ ही मिलता है। जो आपः (उदक) का अवरोधक है, उस अहि को उदकवाचक स्वीकार करना सर्वथा असंगत प्रतीत होता है, साथ ही अहि और शम्बर से सम्बंधित कुछ ऐसी ही अन्य बातें भी हैं, जो इस बेतुकेपन की और वृद्धि करती हैं। अहि और शम्बर ने निन्यानवे पुर बना रखे हैं, जिनका भेदन करके इन्द्र पूर्भिद् कहलाता है। साथ ही एक सौवें (शततमं) पुर का भी उल्लेख मिलता है। इस प्रकार सौ पुर हो जाते हैं। इन सभी पुरों के ध्वस्त होने के बाद ही आपः (उदक) प्रवाहित होते हैं। ये पुर ही वे अवरोधक हैं जिनके भेदन से धाराएं प्रवाहित होने लगती हैं। यह संभावना इसलिए निस्सन्देह बलवती हो जाती है कि उदकनामों में परिगणित ‘‘इन्दु’’ शब्द जिस सोम का भी वाचक है वह वेद में प्रायः ‘शतधार होकर प्रवाहित होने वाला कहा जाता है। यदि इन सौ धाराओं का मूलस्रोत कोई एक अन्य हो तो निस्सन्देह एक सौ एक उदकनामों का आधार भी प्राप्त हो जाता है। इस एक सौ एकवें स्रोत को हम ‘इन्दु’ सत्यं सत्यम् इन्द्रः’ जैसी वैदिक उक्तियों में देख सकते हैं, क्योंकि एक स्थान पर आपः (उदक) इन्द्र में प्रतिष्ठित कहे गए हैं। यदि उसे स्वीकार्य माना जाए, तो न केवल इन्द्र रूप सत्यम् से इन्दु रूप सत्यं का शतधार होकर प्रवाहित होने की बात समझ में आ सकती है, अपितु सत्यम् को ‘उदकनामानि’ में परिगणित करने का औचित्य भी स्पष्ट हो जाता है। उदकनामों का प्रतीकवाद ऐसा स्वीकार करने की सम्भावना तभी बन सकती है, जब निघंटु के उदकनामों में परिगणित सभी शब्दों को उन एक सौ एक तत्वों का प्रतीक माना जाए जिनमें आदि स्रोत वही इन्दु रूप सत्य है, जिससे ‘इन्दु’ सत्य’ शतधार होकर प्रवाहित हो रहा है। इस सम्भावना की ओर संकेत करते हुए शतपथ ब्राह्मण कहता है, ‘‘तद्यत्सत्यम् आप एव, तदापो हि वै सत्यम्’’ (मा. श. ७,४,१६)। साथ ही प्राण को इन्द्र और सोम भी कहा गया है (मा. श. ६,१,१,२; कौ ९,६ माश. ७,३,१,२)। इसका अर्थ होगा कि सभी आपः मूलतः इन्द्र में प्रतिष्ठित थे और उसी से वे सोम (इन्दु) रूप में शतधार होकर प्रवाहित हो गए। ऐसी स्थिति में, हमें इन्द्र को वह ‘ऊँ’ सत्यम्’ स्वीकार करना पड़ेगा, जिसमें ‘आपः’ प्रतिष्ठित माने जाते हैं (जैउ १,२,३,२)। निस्सन्देह वेद में इन्द्र के साथ-साथ इन्दु को भी सत्यम् कहने का अर्थ भी यही हो सकता है कि जो सत्य इन्द्र सर्वेश्वर प्राण है, उसी से इन्दु रूप सत्य प्राण शतधार होकर प्रवाहित होता है। अतः इन्दु को सत्य इन्द्र की सत्यशक्ति कह सकते हैं। इन्द्र शक्तिमान है और इन्दु शक्ति है। ऐसा स्वीकार करने के लिये अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जिनकी पुनरावृति न तो यहाँ सम्भव है और न ही उचित है। अतः प्रतीकवादी आवरण को हटाते हुए पूरे शोध-प्रबन्ध के प्रतिपाद्य को उसके अध्यायानुसार संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रथम अध्याय में सर्वप्रथम यह बताया गया है कि अनेक ऐसे उदकनाम हैं, जो निघंटु में तेईस अन्य नामसूचियों में भी सम्मिलित किये गये हैं और जिनमें से अधिकांश का जल से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता। इन सब नामों की सार्थकता जलवाचक उदक के संदर्भ में किस प्रकार हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये ‘जल’ शब्द के यौगिक अर्थ पर विचार करते हुए प्रतिपादित किया गया है कि ‘जल’ शब्द के साथ ‘जलाष’ और ‘भेषज’ शब्द भी कोई सुख और सुमंगल करने वाले तत्व हैं। इनके अतिरिक्त ‘‘जलाषभेषज’’, ब्रह्म ‘‘इन्दु’’, और ‘‘आपः’’ मूलतः जलवाचक नहीं कहे जा सकते अपितु वेद और ब्राह्मणग्रंथों के आधार पर इन सबको प्राण के प्रतीकरूप में ही स्वीकार किया गया है। वैदिक प्रमाणों का विवेचन करके स्वयं ‘उदक’ शब्द को भी प्राण का ही प्रतीक प्रतिपादित किया गया है जो आरोहण और अवरोहण क्रम में भिन्न-भिन्न रूप ग्रहण करता है और इस प्रकार यह उदक प्राण तत्व के एकत्व और अनेकत्व को व्यक्त करने में समर्थ है। इसी कारण उदकनामों को प्राणोदक के विभिन्न रूपान्तर कहने का प्रस्ताव किया गया है, क्योंकि प्राणोदक से इन नामों के परोक्ष अर्थ की ओर संकेत हो जाता है तथा उनकी विधिरूपता की ओर इंगित करने वाले ‘सलिलानि’ अथवा ‘आपः’ जैसे बहुवचन शब्दों के लिये भी औचित्य सिद्ध हो जाता है। द्वितीय अध्याय में प्राण रूप उदक की व्यापकता का प्रतिपादन करते हुए प्राण रूप उदक का ‘‘कः’’ प्रजापति के साथ समीकरण करके एक सौ एक देवकर्मों द्वारा नियन्त्रित प्राजापत्य यज्ञ की संगति एक सौ एक उदकनामों के साथ की गई है। यह प्राजापत्य यज्ञ वस्तुतः सृष्टियज्ञ है, जो प्राणों के द्वारा ही सम्पादित होता है। प्राण द्वारा होने वाली सृष्टि को ही प्रजापति की वाक् द्वारा होने वाली सृष्टि कहा गया है। इसी अध्याय में ‘‘उदकनामों’’ में पदनाम’’ शीर्षक के अन्तर्गत अन्य अनेक उपशीर्षकों में प्रतिपादित किया गा है कि ‘‘अरिरिन्दानि’’, ‘‘इन्दु’’, ‘‘पवित्रम्’’, ‘‘पयः’’, ‘‘जामि’’, ‘‘हवि’’, ‘‘अप’’, ‘‘स्तोम’’, ‘‘तुग्र्या’’, ‘‘ब्रह्म’’ और ‘‘बर्हिः’’ उसी प्राणोदक के विभिन्न स्तरों और रूपों के वाचक हैं जिनके माध्यम से वेदों में उस प्राणतत्व के विविध, व्यापक और विराट् स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है और जिसमें जगत् का सारा नानात्व प्रतिष्ठित बताया गया है। तृतीय अध्याय में इस सर्वव्यापक प्राणोदक का चेतनत्व प्रतिपादित करने के लिये ऋग्वेद में सुप्रसिद्ध ‘‘अस्यवामीय’’ सूक्त (१.१६४) में आये सभी उदकनामों का विवेचन किया गया है इसी अध्याय में ‘‘प्राणोदक वाम का ईमपद’’ नामक शीर्षक के अन्तर्गत ‘‘वाम’’, ‘ईम’’, ‘‘सोम’’, ‘‘साम’’ भी चेतनप्राण के विभिन्न स्तरों के रूप में विवेचित किये गये हैं। ‘‘आपश्चन्द्रा’’ शीर्षक अथर्ववेद ९०.५ में उल्लिखित जिष्णुयोग के प्रमुख साधनों में ‘‘ब्रह्म’’ क्षत्र और ‘‘अपः’’ (कर्म) जैसे उदकनामों के आधार पर कल्पित क्रमशः ब्रह्मयोगों, क्षत्रयोगों और अप्सुयोगों की भूमिका भी स्वीकार की गई है। इनके साथ ही इन्द्रयोगों और अप्सुयोगों का भी उल्लेख किया गया है। उक्त पांच प्रकार के योगों का संबंध मनुष्यव्यक्तित्व के पांच कोशों से है, जिनमें स्थित प्राणोदकों को आपश्चन्द्राः ‘बलं’, ‘वीर्य’, और ‘नृम्णं’ नाम देकर इन सबको संयुक्त करने के निमित्त उक्त विभिन्न योगों के साथ जिष्णुयोगों की आवश्यकता बतायी गयी है। चतुर्थ अध्याय में उदकनामों में सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण ‘‘आपः’’ का एकत्व प्रतिपादित करने के लिये अन्य उदकनामों, ‘‘सलिल’’, ‘‘महत्’’, ‘‘नाम’’, का विवेचन किया गया है। सलित (महत्) से उत्पन्न अष्टाचक्र सृष्टि को ही वास्तव में प्राण-सृष्टि कहा गया है और यही प्रजापति की वाक् से उत्पन्न सृष्टि भी है। महत् के सहित अहंबुद्धि, मन और पंच ज्ञानेन्द्रियों की अष्टाचक्र सृष्टि का समीकरण आपः की अष्ट काष्ठाओं से करते हुए आपः का अनेकत्व प्रतिपादित किया गया है। वास्तव में, प्राणोदक का नानात्व एकत्व की अपेक्षा अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है क्योंकि एकत्व, अव्यक्त होने के कारण, परोक्ष रहता है। अतः प्राणों के वैविध्य और नानात्व को प्रकट करने वाला आपः शब्द सर्वोत्तम और अत्यधिक लोकप्रिय प्रतीक बन गया। ‘‘उदकनामों में विरोध व असंगति का आभास’’ नामक पंचम अध्याय में परस्पर विरूद्ध दिखाई देने वाले अनेक उदकनामों का विचेचन करते हुए इन उदकनामों में आभासित विरोध का प्रतिपादन किया गया है। इस अध्याय में ‘‘सत्’’ ‘‘विश्वं’’, ‘‘स्वः’’, ‘‘नाम’’, ‘‘ऋतम्’’ ‘‘जन्म’’ ‘‘प्रयस्’’ ‘‘योनि’’ और ‘‘वपुः’’ के वैदिक सन्दर्भों का विवेचन करते हुए, अन्त में धननामों और उदक नामों की तुलना करके यह सिद्ध किया गया है कि परस्पर विरूद्ध दिखायी देने वाले सभी उदकनाम हमारी आध्यात्मिक शक्ति के प्रतीक हैं। इस बात की पुष्टि के लिये ‘‘अमृतं’’, ‘‘विषम्’’, ‘‘अहि’’, ‘‘शम्बरं’’, ‘‘ब्रह्म’’ आदि शब्दों के वैदिक सन्दर्भो का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। उदकनामों में प्रतीयमान इस विरोधाभास का स्तरभेद, गुणवत्ताभेद अथवा कोई अन्य दृष्टिभेद हो सकता है। वास्तव में, मूलतः प्राणोदक एक हैं और सभी उदकनामों में एकसूत्रता देखी जा सकती है। उदकनामों की इसी एकसूत्रता का प्रतिपादन षष्ठ अध्याय में विभिन्न शीर्षकों - ‘‘अक्षर का क्षरण ओर उदकनाम’’, ‘‘क्षोद, आपः और अपः’’ ‘‘अपः, ईम्, रेतस् और नाम’’, ‘‘अन्नं, अक्षितं और घृतवत् पयः’’, ‘‘ऋग्वेद ४,५८ में घृतं, मधु, अमृतं और नाम’’; ‘‘भुवनं; कवन्धं, घृतं और पूर्णम्’’, ‘‘भुवनं भूतं, भविष्यत् और सर्वम्’’; ‘‘त्रित, द्वित और एकतः’’; ‘‘त्रित का रहस्यः’’, ‘‘पूर्ण की उपलब्धि’’ः- के अन्तर्गत किया गया है। उत्+अञ्च् से निष्पन्न उदक शब्द जिस ऊर्ध्वगामिता की ओर संकेत करता है, वह प्राण रूप उदक की, अपनी पूर्व स्थिति से उत्तरोत्तर नवीन एवं श्रेष्ठ स्थिति की ओर यात्रा है। सप्तम अध्याय मे उदक नामों की इस उदञ्चनशीलता के उद्देश्य का अध्ययन किया गया है। इस अध्याय में देवासुरसंग्राम, पूर्भिद, इन्द्र और गातु, निन्यानवें धाराओं, गोविन्द और गवेषणा, शाश्वत आपः और विश्वामित्र-नदी-संवाद के प्रतीकात्मक रहस्योदघाटन करने के पश्चात् विभिन्न उदकनामों ‘‘बृबूकं’’, शुभं’’, ‘‘सुखं’’, ‘‘सतीन’’, ‘‘सर्णीक’’, सिरा’’, ‘‘कृपीटम्’’, ‘‘आयुधानि’’, ‘‘धरुणम्’’, ‘‘यहः’’, ‘‘शवः’’; ‘‘सहः’’ ‘‘क्षपः’’ ‘‘तृप्ति’’, ‘‘तूयं’’, ‘‘तोयम्’’, ‘‘आवयाः’’ के वैदिक सन्दर्भों का अध्ययन किया गया है। अन्त में, ‘‘उपसंहार’’ नामक अष्टम अध्याय में पूरे शोध-प्रबंन्ध का संक्षेप करते हुए शोध-प्रबन्ध के निष्कर्षों का उल्लेख किया गया है। सबसे अन्त में, सहायक ग्रंथों की सूची भी दी गई है। अस्तु, इस शोध-प्रबंध में एक सौ एक उदकनामों का जो अध्ययन किया गया है, यह निघंटु में दी गई विभिन्न नामसूचियों के आधार को स्पष्ट करने में सहायक सिद्ध होगा और साथ ही इस अध्ययन से जहां वेदव्याख्या को एक नया आयाम मिलने की सम्भावना है, वहीं इसके द्वारा परवर्तीयोग, विशेषकर गीतायोग और पातञ्जलयोग को भी समझने में सहायक मिलेगी। वेदों के विषय में बाल्यकाल से ही थोड़ा बहुत पढ़ने सुनने का अवसर मिलता रहा है। स्नातक स्तर से पूर्व मेरे श्रद्धेय पिताश्री महावीर सिंह तोमर ने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार के आचार्य अभयदेव शर्मा की ‘वैदिक विनय’ (तीन भाग) उपलब्ध करायी। इंटर के स्तर तक विद्यालय की ओर से पुरस्कार रूप में दी जाने वाली पुस्तकों में स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तकें ‘सत्यार्थ प्रकाश’ और ‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका भी मुझे मिल गई थी। इन सबके स्वाध्याय से वेदों के प्रति मेरी रूचि और जिज्ञासा बढ़ती गई। लेकिन स्नातकोत्तर स्तर पर मेरठ विश्वविद्यालय में वेद के लिये स्वीकृत पुस्तक में सायण, और पाश्चात्य विद्वानों के भाष्य पर आधारित वेदव्याख्या को पढ़कर लगा कि या तो वेद वास्तव में साधारण सी कविताओं के संकलन हैं अथवा सायण और तदनुसारी पाश्चात्य विद्वान् वेद के वास्तविक अर्थ को जानबूझकर स्पष्ट नहीं कर पाये अथवा उनमें इसकी योग्यता नहीं थी। सौभाग्यवश, दिल्ली विश्वविद्यालय में एम०फिल्० में प्रवेश लिया। वहां श्रद्धेय गुरुवरों डा० सत्यकाम वर्मा, डा० कृष्णलाल और डा० वाचस्पति उपाध्याय के वेद विषयक व्याख्यान सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। एम. फिल्० के अपने लघु शोध-निबन्ध में ‘‘सायणकृत वेदभाष्य भूमिकाओं का समीक्षात्मक अध्ययन’’ प्रस्तुत करते हुए सायण की वेदविषयक मान्यताओं, पूर्वाग्रहों और सीमाओं को विस्तृत रूप से जानने का अवसर प्राप्त हुआ। इसके पश्चात् छुटपुट रूप से दयानंदभाष्य और श्री अरविंद की वेदविषयक पुस्तकों को पढ़ता रहा। श्रद्धेय गुरुवर डा० कृष्णलाल वेद के प्रति मेरी रूचि को बढ़ाते हुए वेदसंगोष्ठियों में मुझे उपस्थित होने का अवसर प्रदान करते रहे। इन संगोष्ठियों में वेदज्ञान की प्राप्ति के साथ ही वेद के आधुनिक ऋषि, वेद-संस्थान, नई दिल्ली के तत्कालीन शोध-निदेशक, प्रातः स्मरणीय डा० फ़तह सिंह के पुण्यदर्शन और सान्निध्य का सुयोग प्राप्त हुआ। उन्होंने मुझे वेदाध्ययन के लिये प्रेरणा दी और वेदों में प्रतीकवाद पर कार्य करने का सुझाव दिया। मैंने दिगम्बर जैन कालिज, बड़ौत के संस्कृत विभाग के प्राध्यापक श्रद्धेय डा० श्रीकान्त पाण्डेय जी से इस संबंध में माग्दर्शन और सहयोग प्रदान करने की प्रार्थना की। उन्होंने तत्काल मेरी प्रार्थना को स्वीकार किया और गुरुजनों के आदेश-निर्देश को शिरोधार्य करके मैं अध्ययन में प्रवृत्त हुआ। इस शोधकार्य के पूर्ण होने में अनेक महानुभावों का योगदान रहा है। श्रद्धेय गुरुवर डा० कृष्णलाल वेदसंगोष्ठियों में सम्मलित होने का अवसर देते हुए वेदों के प्रति मेरी जिज्ञासा और अभिरूचि को बढ़ाते रहे। गुरुजी की प्रेरणा और उत्साहवर्धन के कारण ही यह कार्य सफल हो पाया है। अतएव सर्वप्रथम उन्हीं को धन्यवाद देना आश्वयक समझता हूं। वेदमूर्ति डा० फ़तहसिंह जी ने अपनी अस्सी वर्ष से भी अधिक की अवस्था में भी आशातीत परिश्रम करके शोध-कार्य को पूर्ण कराने में अपना महान योगदान देकर मेरा कल्याण किया है। उसके लिये उन्हें धन्यवाद देता हुआ प्रभु से प्रार्थना करता हूं कि उनके ऋषि-चरणों में बैठने का सौभाग्य प्रदान करें, जिससे मैं अपनी वेदविषयक जिज्ञासाओं का समाधान पा सकूं। मेरे अन्तर्निर्देशक श्रद्धेय गुरूवर डा० श्रीकान्त पांडेय जी ने अनेक पारिवारिक समस्याओं और व्यस्तताओं के होते हुए भी अमूल्य निर्देशन और पुस्तकीय सहायता प्रदान करते हुए शोध-कार्य को पूर्ण कराया है, एतदर्थ श्रद्धापूर्वक गुरुजी को धन्यवाद अर्पित करते हुए भविष्य में भी गुरुकृपा को पाते रहना चाहता हूं। वेद-संस्थान, नई दिल्ली के अध्यक्ष डा० अभयदेव शर्मा, जनता वैदिक कालिज के संस्कृत प्राध्यापक श्रद्धेय गुरुवर डा० वेदपाल विद्या भास्कर और कृषक डिग्री कालिज, मवाना के संस्कृत प्रवक्ता डा० विजेन्द्र सिंह तोमर ने पुस्तकीय सहायता और महत्वपूर्ण सुझाव देकर इस कठिन कार्य को सुगम किया है। दिगम्बर जैन कालिज बड़ौत के प्राचार्य और पुस्तकालय अध्यक्ष ने भी पुस्तकालय से मुझे पूरी सुविधा प्रदान की थी एतदर्थ मैं इन सबका हृदय से आभारी हूं। नागपाल कमर्शियल कालेज, लक्ष्मी नगर, दिल्ली ११० ०९२ के श्री किशनलाल नागपाल जी ने कम समय से उत्तम टंकण-कार्य किया है, इसके लिये श्री नागपाल जी का भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। दिनांक २५-०६-१९९५
सुकर्म पाल सिंह तोमर ग्राम व डाकघर बावली मेरठ, पिन कोड २५० ६२१ |