वेद में उदक का प्रतीकवाद

Symbolism of Water in Veda

सुकर्मपाल सिंह तोमर

Sukarmapal Singh Tomar

गृहपृष्ठ

प्रस्तावना

अध्याय१ उदक की अवधारणा

अध्याय२ प्राणोदक की व्यापकता

अध्याय३ प्राणोदक एक चेतनतत्त्व

अध्याय४ आपः का एकत्व और अनेकत्व

अध्याय५ उदकनामों में विरोध अथवा असंगति का आभास

अध्याय६ उदकनामों में एकसूत्रता

अध्याय७ उदकनामों की उदञ्चनशीलता का उद्देश्य

अध्याय८ उपसंहार

अध्याय९ परिशिष्ट

विषयसूची


 

 

 

पंचम अध्याय

उदकनामों में विरोध अथवा असंगति का आभास

उदकनामों में जहां इन्दुः, स्वः, शुक्रः, तेजः जैसे दिव्य प्रकाश की ओर संकेत करने वाले शब्द हैं, वहीं अहिः और शम्बरं जैसे आसुरी अन्धकार के द्योतक शब्द भी हैं। इसी प्रकार अमृत के साथ विषं और आपः तथा स्वः के साथ उन दोनों को अवरूद्ध करने वाला अहिः भी देखा जा सकता है। इन परस्पर विरोधी अवधारणों की ओर संकेत करने वाले शब्दों का पर्याय उदक शब्द इस दृष्टि से सत्य के साथ तुलनीय हो सकता है, जो स्वयं एक उदकनाम है।

सत् और असत् :-

सत्यं शब्द सत् और असत् के द्वन्द्व से अतीत प्रतीत होता है। इसीलिए परस्पर विरोधी सत् और असत् दोनों के सत्य को ऋजीय कहा गया है,जिसकी सोम रक्षा करता है, जबकि वह सत् का वध कर देता है।[1]  परस्पर स्पर्धा करने वाले सत और असत् परम व्योम में अखण्डता की प्रतीक अदिति की गोद में दक्ष नामक ब की उत्पत्ति के समय पहुंचते हैं, तो वे दोनों अग्नि का रूप धारण कर लेते हैं-

असच्च सच्च परमे व्योमन् दक्षस्य जन्मन्नदितेरपस्थे।

अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश् धेनुः।। ऋ. १०.५.७

परम व्योम के इस अव्यक्त अग्नि को एक धारक समुद्र कहा गया है, जो कि व्यक्त रूप में भूरिजन्मा होकर प्रकट होता है और प्रकाश-अन्धकार अथवा सत्-असत् का ऊधस् अथवा स्रोत कहलता है।[2]  प्रस्तुत मंत्र में अग्नि को तस्य प्रमजा कहा गया है,- जो पूर्व आयु में वृषभ तथा धेनु की जोड़ी के रूप में स्थित बताया जाता है। यहां पूर्व आयु से अभिप्राय साधना के प्रारम्भिक काल से प्रतीत होता है, जब सत्य सदसत् के द्वन्द्वरूप में प्रकट होता है। यही बात अन्यत्र एक दूसरे ढंग से कही गई है। वहां पूर्व आयु के स्थान पर पूर्व्य युग का प्रयोग हुआ है। अथवा उसे प्रथम युग कहा गया है जबकि असत् से सत की उत्पत्ति होती है।[3]  दूसरे शब्दों में, साधक जब अपने भीतर दिव्य शक्तियों को प्रादुर्भूत करने के लिए साधना करता है तो प्रथ तो असत की प्रधानता होती है, जो साधना के फलस्वरूप सत् को जन्म देता है और इस सत् के विकास के फलस्वरूप ही यति लोग अपने भीतर चेतना-समुद्र में छिपे हुए सूर्य का साक्षात्कार करते हैं।[4] तत्पश्चात् ही वे दिव्य शक्तियां प्रकट होती है, जिनको आठ आदित्य कहा जाता है।[5]  यही सूर्य पूर्वोक्त अग्नि है, जिसका भूरिजन्मा रूप अष्टआदित्यों से तुलनीय है।

विश्वं और सर्वम्:

 उक्त अग्नि अथवा सर्व का उद्भव ऋत के परिणामसवरूप होता है तथा इसको प्रथमजा ऋतस्य कहा गया है। यह साधना के प्रारम्भ में (पूर्व्य आयुनि) द्विविध होकर वृषभ और धेनु के रूप में कल्पित किया गया है।[6]  ये दोनों ही अपने संकोचन के फलस्वरूप उस गुह्य सत् का रूप धारण कर लेते हैं, जिसमें हमारे आन्तरिक विश्व की सम्पूर्ण विविधता एकनीड हो जाती है, जबकि वही इस विविधता को प्राप्त होकर उस र्वरूप को धारण कर लेता है, जो इच्छाओं, क्रियाओं, भावनाओं आदि की अनेकता में ओतप्रोत हो जाता है।[7]  यह गुहा में छिपा हुआ सत् ही वह अमृत है, जिसमें निहित तीन पदों को पूर्वोक्त सत्यं, सत् और असत् कहा जा सकता है। इसी ओर संकेत करते हुए प्रसिद्ध नासदीय सूक्त में कहा गया है कि वहां न असत् था, न सत् और न उन दोनों से परे रहने वाला रजः व्योम था।[8]  इस रजः व्योम से सम्भवतः पूर्वोक्त् अग्नि अथवा सूर्य कहा जाने वाला परम सत्य ही अभिप्रेत है। इसी को अगले मन्त्र में तदेकं कहा गया है। सूक्त के तीसरे मन्त्र में इसी एकं की उत्पत्ति स्पष्टतः त की महिमा से बतायी गई है और तप से पूर्व एक ऐसे घोर अन्धकार की कल्पना की गई है, जिसमें इदं सर्व एक अव्याकृतं सलिलं के रूप में कल्पित किया गया है। उस एकं सत् की उत्पत्ति का मूल कारण वह अतिमानसिक काम है, जिसे मनसो रेतः’  तथा असत् में सत का बन्धु कहा गया है, और जिसे कवि लोग अपनी मनीषा के द्वारा हृदय में प्राप्त करते हैं।[9]  ही एकं सत्’ (अग्नि-सूर्य) वह रश्मि है, जो चेतना की विविध धाराओं के रूप में ऊपर नीचे सर्वत्र अनेक किरणों के रूप में फैल जाती है और इसी के अनेक रूप ही उस अग्नि-सूर्य के रेत महिमानः कह गये हैं, जिनके कारण अधोगामी और उर्ध्वगाी शक्ति सक्रिय होती है।[10]  इन महिमानः की तुलना पुरुष सूक्त के उन महिमानः से की जा सकती है, जो साध्याः हुए पूर्वे देवाः के साथ नाक में स्थित कहे जाते हैं। ये ही वे देव अथवा आदित्य हैं, जो एकं सत् से नानारूपात्मक चेतना-सृष्टि को जन्म देते हैं। परन्त यह विविधतामयी सृष्टि आयी कहां से ? कौन इसको बताये ? कौन जानता है इसक? क्योंकि जिन देवों से यह विविधता उत्पन्न होती है, वे भी तो इस सृष्टि के मूलकारण से नीचे की (वाक्) की अवस्था में ही होते हैं---उस एकं सत में तो उनका पता भी नहीं होता है। अतः ऋषि कहता है--क वेद एता आबभूव अर्थात् जहां से यह नानारूपात्मक सृष्टि आती है, उसके मूल परम सत को कौन जानता है [11] जिस तत्व से इसका प्रादुर्भाव हुआ, वह इसको धारण करता है या नहीं करता, इसको भी शायद इसका वह अध्यक्ष जनता हो, जो परम व्योम में बैठा है अथवा हो सकता है कि वह भी न जानता हो।[12]

सत्य और त्रिदेव

यहां परम व्योम में स्थित जिस देव को अध्यक्ष कहा गया है, वही अन्यत्र[13]   वस्तुतः पूर्वोक्त एक समुद्र कहलाने वाला अग्नि है। इसी को समान नीड़ तथा ऋतस्य पद’ (ऋ १०, , )[14] भी कहा गया है, जिससे अनेक ऋतप्रवर्तक तत्व प्रादुर्भत होते हैं[15]  इस एकीभूत अग्नि की तुलना उस जातवेदस अग्नि से की जा सकती है, जिसमें स्थित इन्द्र सोम को जठरस्थ किये हुए बताया गया है-

अयं सोऽग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः सुतं दधे जठरे वावशानः।

सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्ति ससवान्न्त्स्तूसे जातवेदः।। [16]

यही अमृत जातवेदस् है, जो सभी अन्धकारों से परे दृश्यमान[17]  है और जिसको वृत्रहन्तमं ज्येष्ठमाग्निं कहा जाता है।[18]  इस अग्नि को ज्येष्ठ और वृत्रहन्तम कहने का उद्देश्य यह है कि इसके अन्तर्गत जो इन्द्र और इन्दु बताये गये हैं, वे भी अग्नि के समान न  केवल वृत्रघ्न हैं, अपितु उसी के समान सत्य भी कहे गये हैं-

स ईं ममाद महि कर्म कर्तवे महामुरुं सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः।। ऋ , २२,

धत्तान्यं जठरे प्रेमरिच्यत सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः ।। ऋ , २२,

दाता राधः स्तुवते काम्यं वसु सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः २.२२.३

अमृत जातवेदस् कलाने वाला यह अग्नि अपने भीतर ऋत को भी समाहित किये हुए है। अतएव इसको ऋतस्य पदं भी कहा गया है। यही अग्नि सत्यं और ऋतं के रूप में द्विविध होकर ब गतिशील होता है, जब साधक अभीद्ध तप करने में समर्थ होता है।[19] इसके फलस्वरूप साधक की आन्तरिक चेतना सर्वप्रथम उस अद्भत ज्योतिर्मयी रात्रि का रूप धारण करती है, जिसका वर्णन प्रसिद्ध रात्रिसूक्त [20] में किया गया है। इसी सूक्त में उसको र्म्यः कह कर चेतना के जिसे स्वरूप की ओर संकेत किया गया है, उसी को ऋ १०, १९०, १ में ऊर्मिलः समुद्र’ (अर्णवः) कहा गया है। इसी अर्णव के साक्षात्कार के पश्चात् आत्मा रूपी वत्स अपने परमात्मा रूपी पिता से युक्त होकर सवत्सर कहलाता है, जिसके परिणामस्वरूप वह (आत्मा) अपने आन्तरिक विश्व में अन्धकार और प्रकाश के उस मिथुन की सृष्टि करता है, जिसको अहोरात्र[21]  कहा जाता है। डा० फ़तहसिंह के अनुसार इस वर्णन से साधक की चेतना में होने वाले उन परिवर्तनों की झलक मिलती है, जो समाधि के पश्चात्  व्युत्थान की अवस्था में होते हैं। समाधि की अवस्था में साधक अपने व्यक्तित्व को सर्वथा भूल जाता है और उसके शरीर और मन की सभी क्रियाएं शान्त हो जाती है, परन्तु पूर्वोक्त व्युत्थानावस्था में होने वाले उक्त परिर्वतों के फलस्वरूप पहले के समान ही साधक के सूर्य और चन्द्र स्वर चल पड़ते हैं और द्यौ, अन्तरिक्ष तथा पृथिवी कहलाने वाले क्रमशः मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों का ज्ञान साधक को फिर हो जाता है, परन्तु साथ ही इन सब में स्वः नामक दिव्य ज्योति भी होती है[22] यहां यह भी उल्लेखनीय है कि स्वः भी एक उदकनाम है।

स्व और स्वः

इस प्रकार जो स्वः अतीन्द्रिय और अतिमानसिक ज्योति के रप में हमारे भीतर छिपा रहता है, वह समाधि के उपरान्त च्युत्थानावस्था में साधक को प्रत्यक्ष हो जाता है। अङ्िरसों द्वारा स्वः की सुप्रसिद्ध खोज वस्तुतः इस निहित ज्योति के प्रत्यक्षीकरण  क क्रिया है। यह स्वः स्व के लिए सुहृदयतम[23]  कहा जाता है। यह स्व अग्नि की एक दिव्य ऊर्जा (माश ५, , , १२,)[24] है। यह ऊर्जा रसस्वरपा (र्जं धत्स्वेति रसं धत्स्वेत्येवैतदाह- माश , , , १८) है। इसी स्वः को धारण करके साधक की चेतना स्वधासंज्ञक उदकनाम को ग्रहण करती है, अतः स्वधा को भी रस के र ें कल्पित किया गया है, (अव्यथायै त्वा स्वधायै त्वेत्यनार्त्यै त्वेत्येवैतदाह यदाहाव्यथायै त्वेति स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतदाह - माश , , , )। यही स्वः देवों के रप में भी कल्पित है, अतः देवाः व स्वः[25]  कहा जाता है। यही स्वः मनुष्य में निरन्तर विकसित होते हुए स्वधिति नामक वज्र बन जाता है (वज्रो वै स्वरु , र्वज्रः स्वधिति , र्यत् स्वधितिनानक्ति वज्रेणैवैनं स्तृणुते-मैसं , , ) जो सभी आसुरी शक्तियों को नष्ट करके मानव व्यक्तित्व को स्वर्गोपम बना देता है, क्योंकि स्वर्गलोक वस्तुतः स्वः ही है।[26]  ऐसी स्थिति में शरीर रपी असुर स्वर्ि‘ (स्वः का ज्ञाता) हो जाता है, जिसको दिव्य और पितृ शक्तियां मानुष नामक तृतीय कर्म से युक्त कर देती है। इस प्रकार वे अपने पैतृक दिव्यबल को तथा अपनी निजी प्रजा क अवर प्राणों में स्थापित करके अपने तन्तु को फैला देती है [27]

नाम और नमानि

इस स्थिति को लाने के लिए साधक को अपने आत्मा रुपी ऊॅ की अग्नि, इन्द्र और सोम नामक तीनों ज्योतियों का देवों के उस परम जनित्र में सवेशन[28]  करना होता है, जिसको पहले जातवेद्स कह चुके है। इसी परम जनित्र के प्रसंग में नाम शब्द को भी लिया जा सकता है, जो उदकनामों के सूची में परिगणित है। असुर नामक शरीर के लिए प्राप्तव्य चार असुरत्व अथवा चत्वारि असुर्याणि[29]  नाम कहे जाते है। ये चारों नाम आत्मा रुपी इन्द्र के है। इनमें से एक तो अत्यन्त दूरस्थ गुह्य नाम है, जिसमें शरीर रुपी पृथ्वी और मन रुपी आकाश ऊपर उठकर समाहित हो जाते है और साथ ही आत्मा के भ्रातृरप शरीर की सभी शक्तियां (पुत्र) तेजोमय हो जाती है[30]  इसी गुह्य नाम को मह्त भी कहते है, जो स्वय उदकनामों में परिगणित है और जिससे भूत-भव्य सभी की उत्पत्ति होती है और जो एक ऐसी प्रत्न और प्रिय ज्योति है, जिसमें अन्नम, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोशों सहित आत्मा के पांच रुपों का समावेश हो जाता है।[31]  आत्मा रूपी इन्द्र अपने इन पाचों दिव्य स्वरपों सहित, तन-मन रपी पृथ्वी- के संयुक्त सप्तक की दृष्टि से अनेक रपों में ज्योति द्वारा प्रकट होता है।[32]  उसकी ज्योतियों की जो प्रथम उषा साधक के भीतर जन्म लेती है और जिससे आध्यात्मिक पोषण प्राप्त होता है, उससे मनुष्य व्यक्तित्व की पर ज्योति का अवर पक्ष के साथ होने वाल सम्बन्ध एक असुरत्व है।[33]  महती ज्योति का यह आध्यात्मिक चन्द्रमा शरीर की अनेक शक्तियां के समूह में इस प्रकार फैल कर लुप्त हो जाता है, मानो इस पुराने वृद्ध पलित (शरीर) ने युवा (दिव्य ज्योति) को निगल लिया हो, परन्तु कैसी महिमा है इस दिव्य काव्य की, कि वह साधन के भीतर पुनः नया रप धारण करता रहता है।[34]  इस चमत्कार का कारण यह है कि एक ऐसा शक्तिमान अनीड अरुण सुपर्ण है, जो उस स्पृहणीय और अचूक वसु का दाता है, जिसे आत्मा सत्य के रप में जानता है। [35] यह इसी सत्य का प्रताप है कि आत्मारुपी इन्द्र वज्री होकर वृत्रवध के लिए अनेक पौरुष करता है और उसके परिणास्वरुप साधक के दिव्य प्राण क्रियमाण कर्म क शक्ति के द्वारा ऋतकर्म को सम्पन्न करने लगते है [36] और आत्मा रुपी इन्द्र दिव्य सोम को पीकर निरन्तर वर्धमान होता हुआ दस्युओं को नष्ट कर देता है।[37] 

उदकनामों में ऋतम :

उक्त विवरण से स्पष्ट है कि आत्मा रुपी इन्द्र जिस स्वः नामक दिव्य सत्य को जानता है, उसी के फलस्वरुप ऋतकर्म होने लगता है ऋत शब्द के भी उदकनामों में परिगणित होने से यह एक महत्वपूर्ण बात है।

पहले ही देख चुके है कि साधक अपने अभिद्ध तप के द्वारा स्वः नामक परम सतय को ऋतं और सत्यं के मिथुन रुप में प्राप्त करता है। ऋत के उपासक का मार्ग सुगम हो जाता है और उसमें कोई विघ्न (अवखाद)[38]  नहीं होता। ऋतं वस्तुतः मनुष्य के कर्मक्षेत्र में अवतरित होने वाला वह देवत्व है, जिसके आश्रय से पूर्वोक्त स्वः या अमृतं सत्य को प्राप्त किया जा सकता है।[39]  ऋतकर्म के अभ्यास से जिस ऋत बृहत् नामक उदक की प्राप्ति होती है, उससे साधक का स्व सभी विरोधी शक्तियों का दमन करने के कारण दमः कहा जाता है।[40]  ऋतं बृहत् ही बहत् दिव का वह गातु हैं, जिसके निर्माण से साधक की प्राणशक्तियां रपी उषाएं (उस्राः) स्वः पी दिन को प्राप्त करती है[41]  और ऋत को धारण करती हुई तथा अपः‘ (कर्म) नामक उदकनाम से तृष्णारहित होती हुई प्रयस् के द्वारा जन्म को बढ़ती हुई देवों की ओर जाती है

निघण्टु में जन्म और प्रयस् को भी उदकनामों में समाविष्ट किया गया है। यहां अपस् (कर्म) से तृष्णारहित होकर जन्म का वर्धन प्रयस के द्वारा बताया गया है इससे स्पष्ट है कि जन्म और प्रयस् शब्द दोनो ऐसे उदकनाम है, जो कर्मतृष्णा की समाप्ति पर प्रकट होते है। अतः जन्म और प्रयस् की अवधारणा को भी जान लेना आवश्यक है।

जन्म और प्रयस्

उदकनामों के सूची में परिगणित जन्म शब्द के सामान्य लौकिक अर्थ को ही भष्यकार मानते रहे है, परन्तु अन्य उदकनामों के सन्दर्भ में, जब इस शब्द को वैदिक मन्त्रों में खोजते है, तो इसका अर्थ कुछ अन्य ही प्रतीत होता है। हां क ओर अग्नि के नित्य जन्म[42]  का उल्लेख है और जिसे सम्भवतः परम जन्म[43]  भी कहा जाता है, वहां उसके अनेक दैव्य और पार्थिव जन्मों (ऋ ५, ४१, १४) की भी सूचना मिलती है, अग्नि जिन उभय जन्मों को जानते हुए साधक के भीतर गतिशील है[44] उन्हीं को सम्भवतः दैव्य औा पार्थिव जन्म भी कहा जाता है। वास्तव में, ये दोनों जन्म मूलतः ब्रह्मज्योति नामक अग्नि का द्विविध प्रादुर्भाव है, जिसे उसका परम जन्म और अवर जन्म भी कहा गया है, परन्तु ये दोनों जन्म साधक के भीतर तभी अस्तित्व में जाते है, जब उसका व्यक्तित्व इस कार्य के लिए उपयुक्त योनि बन जाता है।[45]  अग्नि के इस द्विविध प्रादुर्भाव के फलस्वरुप ही साधक के भीतर भी मानुष और दिव्य भेद से द्विविध जन्म[46]  माना गया है। अतः इस जन्म से अभिप्राय वस्तुतः अग्नि नामक उस परम ज्योति का आविर्भाव ही समझना चाहिए, जिसको पहले स्वः आदि उदकनामों के द्वारा भी प्रस्तुत किया जा चुका है।

 इसीलिए जब मानुष जनम और दिव्य न्म की बात[47]  होती है, तो साथ ही अग्नि को स्वः का दाता तथा कर्मो को सत्य बनाने वाला कहा जाता है और प्रार्थना की जाती है कि विश्वेदवाः हमें स्वः की बलि प्रदान करें और परमात्मा रुपी जिव्री (वृद्ध) पिता के वेदस् विशेष रुप से प्रदान करें।[48]  यह वेदस् स्वः नामक वह ज्योति है, जिसको अङ्गिरस एक शब्दपूर्वक अन्धकार रूपी पर्वत का भेदन करके बृहत् स्वर्ग के गातु  के साथ-साथ हम लोगों के लिए प्राप्त करते है।[49]  इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि इसी के साथ साधक की दिव्य शक्तियां अपने भीतर ऋतं को भी धारण करती है और कर्म (अपः) से विमुख होकर देवों की ओर जाती हुई जन्म‘ (ज्योति के प्रादुर्भाव) को प्रयस् के द्वारा बढ़ती है[50] 

इससे स्पष्ट है कि यह जन्म नामक उदक-ज्योति कर्म के वैराग्य होने पर प्रयस् के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होती है और तब स्वय अग्नि नामक ज्योति साधक व्यक्तित्व के उन सभी अंगों में प्रादुर्भूत हो जाता है, जो उसक ग्रहण करने योग्य होने से ग्रह कहे जा सकते है।[51]  साथ ही यह भी कहा जाता है कि जब साधक के मनोमय कोशरुपी दिव्य महान पिता के लिए वह ज्योति रस (आन्नद) रूप में प्राप्त होती है, तो यह जानकर आसुरी शक्तियां पलायन कर जाती है तथा र्षणशील अग्निरपी धनुर्धारी अपनी दीप्ति प बाण को छोड़ता है और फिर साधक की उस तनु में तेजस् (त्विषि) का संचार कर देता है, जिसको उसका दोहन करने में समर्थ होने के कारण उसकी दुहिता कहा जाता है।[52]  यही वह रेतस् है, जिसका सिञ्चन अन्यत्र (ऋ १०.६१, ) पिता अपनी दुहिता में करता है[53] और जिसके फलस्वरप देवगण ब्रह्म को उत्पन्न करते है और वास्तोष्पति व्रतपा का निर्माण करते है। इसका अभिप्राय है कि जन्म नामक उदक वस्तुतः एक अग्निज्योति है, जो मनोमयकोश में रस नामक उदक बनाती है और वही देह में रेतस् नामक तेजोमय उदक कही जाती है। यहां ध्यातव्य है कि रस और रेतस् रुप उदक का आविर्भाव तब होता है, जब प्रयस द्वारा जन्म नामक उदक की वृद्धि होने लगती है।

जन्म, रेतस् और प्रयस् :

रेतस् नामक उदक के लिए कई बार प्रजावत विशेषण का प्रयोग हुआ है।[54]  इसका तात्पर्य यह है कि इस रेतस् के फलस्वरुप साधक के व्यक्तित्व में श्रेष्ठ इच्छाओं, विचारों और क्रियाओं के रुप में प्रजाएं (प्रकृष्ट उत्पत्तियां) प्रकट हो जाती है। इन प्रजाओं का उद्भव आरोहावरोहात्मक शक्ति-संचार के समस्त व्यक्तित्वक्षेत्र में होता है, क्योंकि जब साधक अपने शरीर रुपी वेदि को आसुरी शक्तियों के विनाश और दिव्य शक्तियों के दान के लिए उपयुक्त बना लेता है, तो उक्त रेतस् एक क्षोद (बाढ़) के समान इत-ऊति होकर सिञ्चित होता है।[55]  यहां प्रयुक्त इति-ऊति शब्द सार्थक है। मूलाधार से उठनेवाली ईम नामक उदकज्योति के आरोहण से लेकर (इतः) ऊॅ नामक ज्योति के अवरोहण (ऊति) पर्यन्त उमड़ने वाली ज्योति क जिस क्षोद से उपमा दी गई है वह भी उदकनामों में पठित है। यह क्षोद शं (शान्ति) रप ग्रहण करने वाली अग्निज्योति का ही व्यापक प्रसार है,[56]  जिसकी तुलना सिन्धु[57]  से भी की गई है। एक मन्त्र में इस क्षोद को नदियों का महान व्रत तथा उन आपः की परिष्ठित ऊमिः कहा गया है, जिनके पथ को इन्द्र ने कर्म-समुद्र (अपसः समुद्रम) तक पहुंचा दिया है।  इससे स्पष्ट है कि यह क्षोद दिव्य प्राणरुपी आपः को कर्म-सिन्धु में परिवर्तित करने वाली शक्ति की बाढ़ है।

इस क्षोद को उत्पन्न करने के लिए साधक को बड़ी तैयारी करनी पड़ती है, इसके लिए जो प्रयास किया जाता है, उसी के लिए उपसर्ग पूर्वक यस् धातु से निष्पन्न प्रयस शब्द का प्रयोग वेद में हुआ प्रतीत होता है। यह प्रयस् जहां प्रकृष्टता के लिए आयास् है, वहा मयस्‘ ‘मा नामक प्रकाश के लिए प्रयास है

त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे
यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय सूरये १.३१.७

इस मन्त्र में मयस् और प्रयस् दोनों का प्रयोग क्रमशः पूर्वोक्त उन दो कर्मो के लिए हुआ है, लेकिन इन दोनों जन्मों के साथ इस मन्त्र में सूरि‘ (ब्रह्मज्ञानी) होने के लिए भी साधक की प्यास का उल्लेख है और इसी प्रसंग में मर्त (अवर) जीव को अग्नि द्वारा उत्तम अमृतत्व में स्थापित करने की बात है। सम का अभिस्रवण करने वाले विप्र जब अग्नि को प्रयस् रुप में लाते है, तो वह अग्नि साधक भक्त को ऐसी हविः प्रदान करता है, जो बृहत् आभा से युक्त होती है।[58]  ऋषि स्पष्ट कहता है कि ऊॅ रुपी इन्द्र के आशुकारी बल और महिमा के निमित्त वह स्तोम को प्रयस् की तरह प्रयुक्त करता है।[59]  इसी ऊॅ रुपी इन्द्र के लिए वह अपने हृदय, मन और मनीषा के द्वारा अपने सुष्ठु आवर्जक स्तोत्र का प्रयोग प्रयस् के रुप में करता है और इस प्रकार वह अपनी बुद्धियों का मार्जन करता है।[60] स्वः ज्योति को दिलने वाा यह श्रेष्ठम स्तोत्र है, जिसका प्रयोग वह अपने में महिष्ठ सूरि के वर्धन के लिए करता है।[61]  इसका अभिप्राय है कि पहले मयस् और प्रयस् के साथ जिस सूरि के लिए प्रयत्नशील होने की बात कही गई थी, उसको भी निरन्तर विकसित करते हुए श्रेष्ठतम (महिष्ठ) रुप देना साधना का लक्ष्य है। इस हिष्ठ सूरि का उदय तभी संभव है, जब पूर्वोक्त दिव्य रेतस् की इति-ऊति हो जाये।

इस निमित, हमें एक अन्य उदकनाम की शरण लेनी पड़ेगी, जिसे योनिः कहते हैं। रेतः का सिञ्च योनि में होगा, तभी सूरि गर्भरुप में आकर धीरे-२ बढ़ना प्रारम्भ करेगा। मनुष्य व्यक्तित्व ही ऐसी योनिः हो सकता है, जिसमें इस दिव्य रेतस् का सिञ्चन हो, परन्तु हमारा व्यक्तित्व सामान्यतः जैसा होता है, उसको जैउब्रा (३, , , ) ‘अन्धमिव तमो योनिः कहकर याद करता है, अतः आवश्यकता इस बात की है कि ब्रह्मज्योति रपी अग्नि की उपयुक्त योनि के रप में हम अपने व्यक्तित्व का निर्माण करे। अतएव दीर्घतमः से युक्त व्यक्तित्व की ओर से ऋषि प्रार्थना करता है कि हम उस अग्नि के लिए योनि तैयार करें, जो वेदि में बैठा हुआ है और फिर उस ज्योतिरथ‘, ‘शुक्रवर्ण और तमोहन अग्नि को अपने मन्म (मन के आरोहावरोह) द्वारा ऐसे आच्छादित कर दें, जैसे किसी को वस्त्र के द्वारा ढ़का जाता है-

वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये
वस्त्रेणेव वासया मन्मना शुचिं ज्योतीरथं शुक्रवर्णं तमोहनम् १.१४०.१

यहां    वेदि में अग्नि के स्थित होने की बात कही गई है, वह हमारे व्यक्तित्व का अतिमानसिक स्तर है, जिसको वेद में अन्यत्र उत्तरवेदि कहा जाता है। यहां बैठा हुआ अग्नि द्विजन्मा कहलाता है जो सामान्यतः मानव व्यक्तित्व में कारण, सूक्ष्म और स्थूल स्तर पर साधारण त्रिवृत्त अन्न अवश्य देता है, परन्तु जब ब्रह्मरूपी पिता का आत्मा रूपी वत्स से मिलन कराने वाली संवत्सर नामक स्थिति आती है, तो वह अन्न .. वृद्धि को प्राप्त होता है, जिसके फलस्वरूप वह एक ओर तो अतिमानसिक व्यक्तित्व की जि... (अभिव्यञ्जनाशक्ति) द्वारा उत्पाद्य बन जाता है तथा दूसरी ओर वही मानसिक स्तर पर हमारी हिंसक आसुरी शक्तियों का निवारक होता है।[62]  अग्नि के ही दो रूपों का जन्म संज्ञक उदकनाम से विवेचन करते हुए हमने इन्हीं दोनों को क्रमशः परम और अथवा दैव्य और पार्थिव जन्म कहा है। अग्नि के ये दोनों रूप एक घर में रहने वाली जोड़ी है, जो ईम् संज्ञक उदकनाम की पूजा एक ही (समान) योनि में करते हैं। हमारे व्यक्तित्व  का पलित (जीर्ण) हुआ अवर व्यक्ति भी युवा बन जाता हैं और    ..हित मानुषी योजनाओं में अनेक रूप में विचरण करने लगता है-

यमीं द्वा सवयसा सपर्यतः समाने योना मिथुना समोकसा
दिवा नक्तं पलितो युवाजनि पुरू चरन्नजरो मानुषा युगा १.१४४.४

मानवव्यक्तित्व के इन्हीं दो पक्षों के सन्दर्भ में सयोनिः मिथुना समोकसा कहे जाने वाले द्यावापृथिवी की कल्पना की गई है और इस जोड़ी से परे एक दिव्य चेतनासिन्धु  (दिव्ये समुद्र) के भीतर मेधावी साधक नये-नये प्रजातन्तुओं का विस्तार करते है[63]  इसी चेतना सिन्धु को ऋतस्य योनिः तथा वर्षणशील अग्नि (वृषभ) का नीड कहा जाता है और जब इस तक मरुत प्राणों का समूह (शर्धः) पहुंच जाता है, तब उस वर्षणशील के निमित्त मनुष्य व्यक्तित्व विभावान, स्पृहणीय और वपुष्य युवा हो जाता है और उसकी पांचों ज्ञानेन्द्रियों सहित मन और अहंबुद्धि का सप्तक प्रिय बन जाता है।[64]  यहां प्रयुक्त वपुष्य विशेषण वपुः संज्ञक उदकनाम की याद दिलाता है, जिससे युक्त होकर मनुष्यव्यक्तित्व वपुष्य बनता है।

वपुः और उदकनाम

वपुः शब्द सामान्यतः शरीरवाचक माना जाता है, परन्तु निघण्टु में उदकनामों में परिगणित यह शब्द अग्निमन्त्रों में प्रायः अन्य उदकनामों के साथ प्रयुक्त पाया जाता है उदाहरणार्थ ऋ १.१४१, १ में यह शब्द सहस्, ईम् और ऋतं के साथ प्रयुक्त हुआ है--

बळित्था तद्वपुषे धायि दर्शतं देवस्य भर्गः सहसो यतो जनि
यदीमुप ह्वरते साधते मतिरृतस्य धेना अनयन्त सस्रुतः .१४१,

इसके अनुसार सहस् संज्ञक उदकनाम से देव का जो दर्शनीय भर्ग पैदा होता है, वह वपु के लिए धारण किया जाता है। वह ईम् है, जिसको मति सिद्ध करती है, तो ऋत की धाराएं उसको ले जाती है। दूसरे मन्त्र में उस देव का वपुः त्रिविध ताया गया है एक रप में वह नित्य है, दूसरे रप में सात शिवा माताओं में शयन करता है और तीसरे का नाम दशप्रमति है, जिसे कोई योषाएं वृषभ के दोहन के निमित्त उत्पन्न करती है। इसी सूक्त के तीसरे मन्त्र में उदकनाम ईम् को दो सन्दभों में रखा गया है। प्रथम में ईम् को अग्नि के बुध्न से सूरि (ज्ञानी लोग  शवस् कहे जाने वाले उदक के द्वारा निकालते है। दूसरे रुप में ईम् जि प्रदिव की गुहा में मातरिश्वा द्वारा मथा जाता है,  उसके लिए मधु शब्द का प्रयोग हुआ है, जो कि एक उदकनाम है। इसी प्रकार इन्द्रसूक्तों में भी वपुः शब्द अनेक उदकनामों के साथ प्रयुक्त हुआ है। उदाहरणार्थ, ऋ १.१०२, २ में वह स् उदकनाम के साथ प्रयुक्त है[65], जबकि ऋ ४.२३,६ में वह स्वः के साथ देखा जा सकता है[66] और ऋ ६.४४,८ में ऋतं‘ ‘नाम और महः जैसे उदक पर्यायों के साथ दिखाई पड़ता है।[67] ऋ ७.६६,१४ में सूर्य को दर्शतं वपुः कहा गया है[68] और ऋ ५.४७,५ में एक अनिर्नीय वपुः का उल्लेख है[69], जो नदियों के रुप में विचरण करने वाला तथा आपः के रप में स्थिर रहने वाला कहा जा सकता है। इसीलिए बुद्धियां कर्मो को विविध रुप में फैलाती है और ये माताएं है, जो कर्म रप वस्त्र बुनती है[70]  एक सूर्यसूक्त (ऋ , ६६,१४) में सूर्य को ही ऊॅ त्यद्, दर्शतं वपुः कहा गया है। ऋ ७.८८, २ में ऊॅ स्वः के साथ जिस अन्धः वपुः को दर्शनार्थ लाने के लिए वरुण को प्रार्थना की गई है[71], वह भी अन्धकार में छिपा सूर्य ही है।

ह सब कहने का अभिप्राय है कि अग्नि, इन्द्र और सूर्य के सन्दर्भ में प्रयुक्त वपुः शब्द निस्सन्देह वही है, जिसे एक अन्य उदकनाम तेजस् के द्वारा जाना जाता है यह तेजोमय स्वरप ऊपर जिन नदियों और आपः के रप में दिखायी पड़ा है, वे भी तेजोमय प्राण की धाराएं-प्रतीत होती है। ब्राह्मणग्रन्थों में प्राणाः वा आपः[72]  कहकर  इसी ओर बार-बार संकेत किया गया ै। निघण्टु में वपुः शब्द रपनामों में भी परिगणित है और रप का भी सम्बन्ध तेज से है, अतः वपुषः वपुष्टरं[73]  की बात करके इन्द्र से तत् सधस्थं चारु को दीप्त करने की प्रार्थना की जाती है[74]  और इसी प्रसंग में, जिस एक पद की ओर एक (इन्द्र) को रुद्रों के साथ आने की बात (ऋ १०.३२, ) ही जाती है[75], वह आपः के भीतर छिपा हुआ (१०.३२, ) है।[76] इसके विषय में जब अग्नि से पूछा जाता है, तो साधक को इन्द्र के पास भेज दिया जाता है। अतः साधक कहता है--

अक्षेत्रवित्क्षेत्रविदं ह्यप्राट् प्रैति क्षेत्रविदानुशिष्टः
एतद्वै भद्रमनुशासनस्योत स्रुतिं विन्दत्यञ्जसीनाम् १०.३२,

अर्थात् क्षेत्र को न जानने वाले ने क्षेत्रवेत्ता से पूछा और क्षेत्रवेत्ता से उपदेश पाकर वह प्रगति के पथ पर चल रहा है। उपदेश की भद्रता इसी बात में है कि वह उषाओं के स्रोत को पा लेता है। अगले मन्त्र में इसी स्रोत को माता का ऊधस् कहा गया है, जिसको ज्योतिर्मण्डित जीवात्मा पता है और उन ज्ञानज्योतियों को जानता है, जिको इमा अहाः कहा गया है। यह सब इसलिए हुआ कि आज ही ऊं नामक बह्मज्योति सक्रिय हो गई, जिसके परिणामस्वरप साधक ने ईम नामक उदक को प्राप्त का लिया, जो युवा है। इस प्रकार वह क्रोधरहित वसुः सुमनाः हो गया --

अद्येदु प्राणीदममन्निमाहापीवृतो अधयन्मातुरूधः
एमेनमाप जरिमा युवानमहेळन्वसुः सुमना बभूव १०,३२,

इस विवरण को देने का अभिप्राय यह है कि उदकनामों और रपनामों में परिगणित वपुः  शब्द मूलतः किसी आध्यात्मिक तेज का प्रतीक है, जिसका स्रोत ब्रहमज्योतिरप अग्नि से माना जाना चाहिए। उसी को आन्नदरप में प्राप्त करके साधक उसे पीने वाला कहा जा सकता है और प्रकाशरुप में उसी को ज्ञानधाराओं रपी उषाओं का स्रोत माना जा सकता है। इसी को उदकनामों में ईम रुप में स्वीकार किया गया है। इसलिए कहा जाता है कि अग्नि दर्शनीय वपुः को विविध रूपों में प्रकाशित करता है[77]  यह वह दर्शनीय वपु अथवा रपवान वसु है, जिसको सरस्वती मन द्वारा और नासत्यों द्वारा बुना करती है।[78] 

नासत्य अश्विन है, जो देवभिषक् और रुद्रवर्तनी कहे जाते हैं तथा जिनके साथ एक अन्य मन्त्र (मा १९.८२) में सरस्वती आन्तरिक र को पूजने वाली कही जाती है(तद् अश्विना भिषजा रुद्रवर्तनी सरस्वती वयति पेशो अन्तरम् । अस्थि मज्जानं मासरैः कारोतरेण दधतो गवां त्वचि ) । ब्राह्मणग्रन्थों में प्राणपान को अश्विन कहा गया है (जैब्रा , ३३४) अतः मन के सहित अश्विन द्वारा जि वपु को बुनने की बात यहां कही गई है, वह प्राणायाम तथा ध्यानयोगजन्य आध्यात्मिक यज्ञ सविता, सरस्वती और वरुण मन रुपी शीर्ष और ऊर्णासूत्र से बुनते हुए कहे जाते हैं। इसी को रसं, शुक्रं, पयः, सोम, सत्यं, अमृतं, मधु और इदं जैसे उदकनाम भी दिये गये है।[79]

एक मन्त्र में सुत और असुत रपों को प्रजापति वेद के द्वारा पीता है और ऋत के द्वारा सत्यमिन्द्रियं, विपानं, शुक्रं, पयः, अमृतं, मधु, और इदमिन्द्रिय कहे जाने वाले उदक को पीता हुआ कहा जाता है,[80]  तो ऐसा प्रतीत होता है कि यहां उदकवाचक जन्म के ही प्रथम दो रुप अभिप्रेत है और फिर उन्हीं में एक को ऋतं कहकर उसके द्वारा उक्त विविध नाम वाले सत्य को पीने की बात कही गई है।

इस बात को स्पष्ट करने के लिए यह आवश्यक है कि जिस वेद को यहां साधन बनाया गया है, उसके स्वरप को पहचान लिया जाये। इस आध्यात्मिक पेय को पीने के लिए वही वेद अभीष्ट प्रतीत होता है, जिसको साधक के अन्तस्तम कोश में स्थित (अथर्व १९, ७२ ) बताया गया है और जिसको प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने व्यक्त और अव्यक्त दोनों स्तरों के उस बिल को खोल देता है, जिसमें से दिव्य आपः (प्राण) निकल पड़ते है[81]  यजुर्वेद में कहा गया है कि हे देव। तू वेद है और जिस प्रकार तू अन्य देवों के लिए वेद होता है, उसी प्रकार तू मेरे लिए भी वेद हो जा -- वेदो ऽसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोऽ भवस् तेन मह्यं वेदो भूयाः (वा.सं. २.२१)  इस मन्त्र में देव निस्सन्देह परब्रह्म परमात्मा है और देवशबद के वर्णविर् के द्वारा उसी की अभिव्यञ्जक शक्ति को वेद कहा गया है, जो सभी देवों को ब्रह्मशक्ति से युक्त कर देती है। इसीलिए जब साधक यह प्रार्थना करता है कि उसी प्रकार से तू मेरे लिए भी वेद हो जा, ‘ तो वह उसी वेदनामक ब्रह्मशक्ति को आत्मसात करना चाहता है। इस दृष्टि से इस मन्त्र का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि पूर्वोक्त सत्य, मधु आदि उदकनामों द्वारा अभिप्रेत तत्व का साक्षात्कार उसी ब्रह्मज्योति नामक वेद को आत्मसात करके ही हो सकता है।

धन और उदकनामों की तुलना

निघण्टु में यह वेद शब्द स्वयं उन अट्ठाईस धननामों में परिगणित है, जिनमें मघम्, भग, मेध और यश के साथ ब्रह्म भी एक है।[82] जोधपुर विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत पीएच. डी. के शोधप्रबन्ध में डा० श्रद्धा चहान का निष्कर्ष है कि सभी धननाम दो ध्रुवों के बीच स्थित चेतना-ज्योति कहे जा सकते है। इन ध्रुवों में से एक का नाम ब्रह्म है और दूसरे का वृत्र। इन धननामों तुलना उन्होने पुराण के चदह रत्नों से की है और बताया   है कि वहा भी एक सिरे पर अमृत है और दूसरे पर विष। इसी प्रकार हमने ऊपर देखा कि निघण्टु के उदकनामों में जहां क्रमशः अमृत और विष जैसे दो ध्रुव माने गये है, वहां एक ओर स्वः, इन्दुः, शुक्रम, तथा तेजः जैसे नाम है, तो दूसरी ओर अहिः और शम्बर भी है, जो सभी प्रकार के प्रकाशदि के आवरक कहे जा सकते है

इस दृष्टि से उदकनामों के प्रसंग में अहिः विशेष रप से उल्लेखनीय है। अहिः शब्द निघण्टु में उदकनामों के अतिरिक्त पदनामों की सूची में भी विद्यमान है। अहि को न या दण्ड द्वारा मारा जा सकता है[83] तो शवस्[84]  , ओजस्[85]  आदि उदकनामों द्वारा भी अहि का वध किया जाता है। न-दण्ड और उदकनामों की इस समानता का कारण यही है कि दोनों प्रकार के शब्द हमारी ध्यत्मिक शक्तियों के प्रतीक है, जबकि अहि, जैसा कि डा. फतहसिंह ने अपने ग्रन्थों में बार-बार बतलाया है, अहंकार रुपी वृत्रासुर का नाम है, जो उन शक्तियों को विकृत करने वाला शत्रु है। वह आपः (उदकनाम) को आवृत्त करने वाला अहि है, जिसका वध करके ही इन्द्र आपः अथवा सिन्धुओं की मुक्त कराता है।

इस प्रकार उदकतत्व के सूचक, आपः आदि के आवरक अहिः को भी उदकनामों की सूची में समाविष्ट करना कुछ विचित्र सा लगता है, परन्तु जिस प्रकार उदकनामों में विष शब्द एक दूसरे उदकनाम अमृत का शत्रु कहा जा सकता है, उसी प्रकार अहंकार रप अहिः भी शुद्ध आपः (प्राणाः) का आवरक कहा जा सकता है। जिस प्रकार अन्धकार भी प्रकाश का ही एक पक्ष है, उसी प्रकार अहंकार रप अहि उसी मूल उदकत्व का ही एक ध्रुव है, जो दूसरे ध्रुव से आने वाली प्राणधारा का वरक शत्रु बन जाता है। अहंकार रुप अहि भी हमारी उसी अध्यात्मिक चेतना की विकृति है, जो हमें अमृत आदि नामधारी उदकतत्व में देखने को मिलत है। अतः उसे भी उदकतत्व का ही एक रप माना जाता है, परन्तु साथ ही आपः और अमृत जैसे उदकतत्व का वह विरोधी है, अतः उसके निवारण होने पर ही उदकतत्व का शुद्ध रप (देवी आपः) अभिव्यक्त हो सकता है।

अहि नामक उदकतत्व के विषय में जो कुछ यहां कहा गया, वही शम्बर नामक उदकतत्व पर भी लागू होता है, क्योंकि वदिकमन्त्रों में शम्बर का जो वर्णन मिलता है, वह अहि अथवा वृत्र के वर्णन की छाया मात्र है। इसीलिए कभी-कभी तो अहि शब्द का प्रयोग शंबर के लिए ही हुआ प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, निम्नलिखित मन्त्र को ले सकते हैं

यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दत्
ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं जनास इन्द्रः (ऋ .१२, ११)

यहां शम्बर शांतिपरक है, ओजायमान अहि क्रियापरक है और दानुं शयानं निष्क्रियता परक है। अतः एक दृष्टि से, यहां एक ही तत्व क्रमशः सत, रजस् और तमस् की प्रधानता से त्रिविध हुआ माना जा सकता है। अन्नमयकोश के अतयन्त तमोमय होने से उसमें स्ित अहि को ही दानुः शये[86]  अथवा दीर्घतमः[87]  कहा जाता है, प्राणमयकोश में रजःगुण अपेक्षाकृत अधिक होता है, अतः वहां अहि क सक्रियता को देखते हुए उसे ओजायमान अहि कहा जाता है अथवा उसके शरीर को गतिशील काष्ठाओं के मध्य निहित[88]  कहा जाता है। मनोमय कोश के अहितत्व में अपेक्षाकृत सत्व अधिक होने से उसे शंबर‘ (शान्तिपरक) माना जाता है। डा० फतहसिंह के अनुसार मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोश के दश स्थूल प्राण, दश सूक्ष्म, दश इन्द्रियां, पंच तन्मात्रा और पंच महाभूतों में अहि के कारण शारदी जड़ता आ जाती है। इन्ही को चालीस शरद माना जाता है। इन चालीस में से मनोमय कोश का जो शिखरभूत अन्तिम शरद है, उसी में इन्द्र शंबर को प्राप्त कर पाता है, क्योंकि अन्यत्र त वह विविध प्रकार के पर्ववान् अंगों (पर्वतों) में निवास करता है, जबकि शारदी जड़ता के चालीसवें स्तर पर वह इनसे बाहर आ जाता है। ब्रह्म के प्रभाव से उक्त तीनों कोशों में आनन्दवृष्टि होती है, अतः कोशत्रय के सभी स्तर जो अहि के प्रभाव से शरद् थे, सब वर्ष कहे जाते है।

एक दूसरी दृष्टि से ब्रह्म और अहि से प्रभावित होने के कारण मनुष्य व्यक्तित्व के कोशत्रय को क्रमशः सत्यं और अनृतम् से युक्त कहा जाता है। सत्य का अर्थ मनुष्य में देवशक्तियों का उत्कर्ष है और अनृतम् का अर्थ असुरत्व प्रधान मनष्यत्व का उत्कर्ष। इसी दृष्टि से शतपथ ब्राह्मण (, , , , , , , ) ने कहा है --सत्यमेव देवाः अनृतं मनुष्याः। इसी बात को मैत्रायणी सहिता (१, , ) कहती है-- देवाः सत्यमभवन् अनृतमसुराः। अनृत ही अहि या वृत्र नामक असुर का असुरत्व है, जबकि ऋत (सत्य) ही ब्रह्म का ब्रह्मत्व है -- ब्रह्म वा ऋतम् (माश , , , १०, जैउब्रा ३, , , ,)

इस प्रसंग में यह भी ध्यातव्य है कि अहि और ब्रह्म दोनो ही उदकनामों में परिगणित है। अहि वह अड्गिरस् प्राण है, जो स्वर्ग से पतित होकर अहि बन गया है[89]  एक अन्य निर्वचन के अनुसार वह अपाद है, इसलिए आपको अहि कहा गया।[90]  दूसरे शब्दों में अहि प्राण की उस पतित अवस्था का द्योतक है, जो तमस् गुण से अत्यन्त पूर्ण होने के कारण रजोगुण की सक्रियता को लगभग खो बैठा है और जो भी सक्रियता शेष है, वह त्व गुण की आत्यन्तिक न्यूनता के कारण सत्य का हनन एवं दुरित की बुद्धि में सहायक होती है। इसी दृष्टि से उणादि कोष (, १३) में अहि की व्युपत्ति आः+ हन् से करके अहि को पूर्णरपेण हनन करने वाला कहा गया है।[91] इसलिए जब अहि शब्द को पदनामों में सम्मिलित किया गया तो उसका उद्देश्य संभवत यह दिखाना था कि अहि शब्द प्राणोदक के उस पद‘ (स्थान) का द्योतक है जो तमस से पूर्ण होने के कारण तामसिक क्रियाओं का स्रोत होकर सात्विक क्रियाओं का बाधक बन जाता है।

इस स्थिति से उबारने वाले तथा इस उबारने क कार्य में सहायता करने वाले अथवा बाधा डालने वाले अनेक प्राण रपी उदकों का होना भी संभव है, जिनका उल्लेख उदकनामों में विविध रप से हुआ है और जिनमें से अनेकों पर विचार किया जा चुका है तथा अन्यों पर आगे विचार किया जायेगा। परन्तु जैसा आगे स्पष्ट किया जायेगा, इन सभी नामों के द्वारा एक ही प्राणतत्व की विविधता अथवा अनेकता को देखा जा सकता है।

 


 

[1]सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते
तयोर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्  ७.१०४.१२

[2] एकः समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद्धृदो भूरिजन्मा वि चष्टे
सिषक्त्यूधर्निण्योरुपस्थ उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः १०.५.१

[3] ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत्
देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सदजायत ॥२॥
देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत
तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि १०.७२.२-३

[4] देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत
तदाशा अन्वजायन्त तदुत्तानपदस्परि १०.७२.७

[5]अष्टौ पुत्रासो अदितेर्ये जातास्तन्वस्परि
देवाँ उप प्रैत्सप्तभिः परा मार्ताण्डमास्यत् १०.७२.८

[6] असच्च सच्च परमे व्योमन्दक्षस्य जन्मन्नदितेरुपस्थे
अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनुः १०.५.७

[7] वेनस् तत् पश्यन् निहितं गुहा सद् यत्र विश्वं भवत्य् एकनीडम्
तस्मिन्न् इद सं वि चैति सर्व ओतः प्रोतश् विभूः प्रजासु मा ३२.८

[8] नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्॥१०.१२९.१

[9]कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥ १०.१२९.४

[10] तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात्॥१०.१२९.५

[11] को अद्धा वेद इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव॥१०.१२९.६

[12] इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा वेद॥१०.१२९.७

[13]एकः समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद्धृदो भूरिजन्मा वि चष्टे
सिषक्त्यूधर्निण्योरुपस्थ उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः १०.५.१,

असच्च सच्च परमे व्योमन्दक्षस्य जन्मन्नदितेरुपस्थे
अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनुः १०.५.७

[14] समानं नीळं वृषणो वसानाः सं जग्मिरे महिषा अर्वतीभिः
ऋतस्य पदं कवयो नि पान्ति गुहा नामानि दधिरे पराणि १०.५.२

[15] ऋतस्य हि वर्तनयः सुजातमिषो वाजाय प्रदिवः सचन्ते
अधीवासं रोदसी वावसाने घृतैरन्नैर्वावृधाते मधूनाम् १०.५.४

[16] अयं सो अग्निर्यस्मिन्सोममिन्द्रः सुतं दधे जठरे वावशानः
सहस्रिणं वाजमत्यं सप्तिं ससवान्सन्स्तूयसे जातवेदः ३.२२.१

[17] अमृतं जातवेदसं तिरस्तमांसि दर्शतम्
घृताहवनमीड्यम् ८.७४.५

[18]आगन्म वृत्रहन्तमं ज्येष्ठमग्निमानवम्
यस्य श्रुतर्वा बृहन्नार्क्षो अनीक एधते ८.७४.४

[19] ऋतं सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः १०.१९०.१

[21] समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि १०.१९१.३

[22] सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्
दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः १०.१९०.३

[23] एतमादित्येभ्यो भुवद्वद्भ्यश्चरुं निरवपत् स्वो वै स्वाय नाथिताय सुहृदयतमः - काठ.सं ११.६

[24] औदुम्बरं भवति तेन स्वोऽभिषिञ्चत्यन्नं वा ऊर्गुदुम्बर ऊर्ग्वै स्वं यावद्वै पुरुषस्य स्वं भवति नैव तावदशनायति - माश ,,,१२

[25] अगन्म स्वरिति देवा वै स्वरगन्म देवानित्येवैतदाह - माश  १.९.३.१४

[26] पशवो वा इळा स्वर्गो लोक स्वः। पशुषु वाव ते तद् आस्थाय स्वर्गं लोकं अगच्छन् - जैब्रा  ३.६९

[27] द्विधा सूनवोऽसुरं स्वर्विदमास्थापयन्त तृतीयेन कर्मणा
स्वां प्रजां पितरः पित्र्यं सह आवरेष्वदधुस्तन्तुमाततम् १०.५६.६

[28] इदं एकं पर एकं तृतीयेन ज्योतिषा सं विशस्व
संवेशने तन्वश्चारुरेधि प्रियो देवानां परमे जनित्रे १०.५६.१

[29] चत्वारि ते असुर्याणि नामादाभ्यानि महिषस्य सन्ति
त्वमङ्ग तानि विश्वानि वित्से येभिः कर्माणि मघवञ्चकर्थ १०.५४.४

[30] दूरे तन्नाम गुह्यं पराचैर्यत्त्वा भीते अह्वयेतां वयोधै
उदस्तभ्नाः पृथिवीं द्यामभीके भ्रातुः पुत्रान्मघवन्तित्विषाणः १०.५५.१

[31] महत्तन्नाम गुह्यं पुरुस्पृग्येन भूतं जनयो येन भव्यम्
प्रत्नं जातं ज्योतिर्यदस्य प्रियं प्रियाः समविशन्त पञ्च १०.५५.२

[32] रोदसी अपृणादोत मध्यं पञ्च देवाँ ऋतुशः सप्तसप्त
चतुस्त्रिंशता पुरुधा वि चष्टे सरूपेण ज्योतिषा विव्रतेन १०.५५.३

[33]यदुष औच्छः प्रथमा विभानामजनयो येन पुष्टस्य पुष्टम्
यत्ते जामित्वमवरं परस्या महन्महत्या असुरत्वमेकम् १०.५५.४

[34] विधुं दद्राणं समने बहूनां युवानं सन्तं पलितो जगार
देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार ह्यः समान १०.५५.५

[35] शाक्मना शाको अरुणः सुपर्ण यो महः शूरः सनादनीळः
यच्चिकेत सत्यमित्तन्न मोघं वसु स्पार्हमुत जेतोत दाता १०.५५.६

[36] ऐभिर्ददे वृष्ण्या पौंस्यानि येभिरौक्षद्वृत्रहत्याय वज्री
ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह्न ऋतेकर्ममुदजायन्त देवाः १०.५५.७

[37] युजा कर्माणि जनयन्विश्वौजा अशस्तिहा विश्वमनास्तुराषाट्
पीत्वी सोमस्य दिव वृधानः शूरो निर्युधाधमद्दस्यून् १०.५५.८

[38] सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते
नात्रावखादो अस्ति वः १.४१.४

[39] भजन्त विश्वे देवत्वं नाम ऋतं सपन्तो अमृतमेवैः १.६८.२

[40] यजा नो मित्रावरुणा यजा देवाँ ऋतं बृहत्
अग्ने यक्षि स्वं दमम् १.७५.५

[41] वीळु चिद्दृळ्हा पितरो उक्थैरद्रिं रुजन्नङ्गिरसो रवेण
चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अहः स्वर्विविदुः केतुमुस्राः १.७१.२

[42] त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूर उदिते बोधि गोपाः
जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात ३.१५.२

[43] प्रतूर्तं वाजिन्न् द्रव वरिष्ठाम् अनु सम्वतम्
दिवि ते जन्म परमम् अन्तरिक्षे तव नाभिः पृथिव्याम् अधि योनिर् इत् मा ११.१२

[44] अन्तर्ह्यग्न ईयसे विद्वाञ्जन्मोभया कवे
दूतो जन्येव मित्र्यः २.६.७

[45] विधेम ते परमे जन्मन्नग्ने विधेम स्तोमैरवरे सधस्थे
यस्माद्योनेरुदारिथा यजे तं प्र त्वे हवींषि जुहुरे समिद्धे २.९.३

[46] वनेम पूर्वीरर्यो मनीषा अग्निः सुशोको विश्वान्यश्याः ॥१॥
दैव्यानि व्रता चिकित्वाना मानुषस्य जनस्य जन्म ॥२॥

हि क्षपावाँ अग्नी रयीणां दाशद्यो अस्मा अरं सूक्तैः ॥५॥
एता चिकित्वो भूमा नि पाहि देवानां जन्म मर्ताँश्च विद्वान् ॥६॥१.७०.१-२, ५-६

[47] हि क्षपावाँ अग्नी रयीणां दाशद्यो अस्मा अरं सूक्तैः ॥५॥
एता चिकित्वो भूमा नि पाहि देवानां जन्म मर्ताँश्च विद्वान् ॥६॥१.७०.५-६

[48] वर्धान्यं पूर्वीः क्षपो विरूपा स्थातुश्च रथमृतप्रवीतम् ॥७॥
अराधि होता स्वर्निषत्तः कृण्वन्विश्वान्यपांसि सत्या ॥८॥१.७०.७-८

[49] गोषु प्रशस्तिं वनेषु धिषे भरन्त विश्वे बलिं स्वर्णः ॥९॥
वि त्वा नरः पुरुत्रा सपर्यन्पितुर्न जिव्रेर्वि वेदो भरन्त ॥१०॥१.७०.९-१०

[50] दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दिधिष्वो विभृत्राः
अतृष्यन्तीरपसो यन्त्यच्छा देवाञ्जन्म प्रयसा वर्धयन्तीः १.७१.३

[51] मथीद्यदीं विभृतो मातरिश्वा गृहेगृहे श्येतो जेन्यो भूत्
आदीं राज्ञे सहीयसे सचा सन्ना दूत्यं भृगवाणो विवाय १.७१.

[52] महे यत्पित्र ईं रसं दिवे करव त्सरत्पृशन्यश्चिकित्वान्
सृजदस्ता धृषता दिद्युमस्मै स्वायां देवो दुहितरि त्विषिं धात् १.७१.५

[53] पिता यत्स्वां दुहितरमधिष्कन्क्ष्मया रेतः संजग्मानो नि षिञ्चत्
स्वाध्योऽजनयन्ब्रह्म देवा वास्तोष्पतिं व्रतपां निरतक्षन् १०.६१,

[54] अविष्टं धीष्वश्विना आसु प्रजावद्रेतो अह्रयं नो अस्तु
वां तोके तनये तूतुजानाः सुरत्नासो देववीतिं गमेम ७.६७.६,

इन्द्रस्य सोम राधसे शं पवस्व विचर्षणे
प्रजावद्रेत भर ९.६०.४

[55] इद्दानाय दभ्याय वन्वञ्च्यवानः सूदैरमिमीत वेदिम्
तूर्वयाणो गूर्तवचस्तमः क्षोदो रेत इतऊति सिञ्चत् १०.६१.२

[56] पुष्टिर्न रण्वा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिर्न भुज्म क्षोदो शम्भु १.६५.५

[57] तं वश्चराथा वयं वसत्यास्तं गावो नक्षन्त इद्धम् ॥९॥
सिन्धुर्न क्षोदः प्र नीचीरैनोन्नवन्त गावः स्वर्दृशीके ॥१०॥१.६६.९-१०

[59] अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो हर्मि स्तोमं माहिनाय
ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा १.६१.१

[60] अस्मा इदु प्रय इव प्र यंसि भराम्याङ्गूषं बाधे सुवृक्ति
इन्द्राय हृदा मनसा मनीषा प्रत्नाय पत्ये धियो मर्जयन्त १.६१.२

[61]  अस्मा इदु त्यमुपमं स्वर्षां भराम्याङ्गूषमास्येन
मंहिष्ठमच्छोक्तिभिर्मतीनां सुवृक्तिभिः सूरिं वावृधध्यै १.६१.३

[63] श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे
देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु १.४४.४

[64] प्र शर्ध आर्त प्रथमं विपन्यँ ऋतस्य योना वृषभस्य नीळे
स्पार्हो युवा वपुष्यो विभावा सप्त प्रियासोऽजनयन्त वृष्णे .१.१२

[65] इमां ते धियं प्र भरे महो महीमस्य स्तोत्रे धिषणा यत्त आनजे
तमुत्सवे प्रसवे सासहिमिन्द्रं देवासः शवसामदन्ननु .१०२,

[66] किमादमत्रं सख्यं सखिभ्यः कदा नु ते भ्रात्रं प्र ब्रवाम
श्रिये सुदृशो वपुरस्य सर्गाः स्वर्ण चित्रतममिष गोः .२३,

[67] ऋतस्य पथि वेधा अपायि श्रिये मनांसि देवासो अक्रन्
दधानो नाम महो वचोभिर्वपुर्दृशये वेन्यो व्यावः .४४,

[68] उदु त्यद्दर्शतं वपुर्दिव एति प्रतिह्वरे
यदीमाशुर्वहति देव एतशो विश्वस्मै चक्षसे अरम् .६६,१४

[69] इदं वपुर्निवचनं जनासश्चरन्ति यन्नद्यस्तस्थुरापः
द्वे यदीं बिभृतो मातुरन्ये इहेह जाते यम्या सबन्धू .४७,

[70] पृक्षो वपुः पितुमान्नित्य शये द्वितीयमा सप्तशिवासु मातृषु
तृतीयमस्य वृषभस्य दोहसे दशप्रमतिं जनयन्त योषणः १.१४१.२

[71] अधा न्वस्य संदृशं जगन्वानग्नेरनीकं वरुणस्य मंसि
स्वर्यदश्मन्नधिपा अन्धोऽभि मा वपुर्दृशये निनीयात् .८८,

[72] प्राणा वा आपोऽमृतं हिरण्यममृत एवास्य प्राणान् दधाति - तांब्रा ९.९.४,

वसोः सूर्यस्य रश्मिभिरित्याह प्राणा वा आपः प्राणा वसवः प्राणा रश्मयः प्राणैरेव प्राणान्त्संपृणक्ति तैब्रा ३.२.५.२,

या एवैता अवोक्षणीया आपस्ता एव ततोऽनुसं भवति प्राणं वेव प्राणो ह्यापः - जैउब्रा. ३.२.५.९

[73] तदिन्मे छन्त्सद्वपुषो वपुष्टरं पुत्रो यज्जानं पित्रोरधीयति
जाया पतिं वहति वग्नुना सुमत्पुंस इद्भद्रो वहतुः परिष्कृतः १०.३२.३

[74] तदित्सधस्थमभि चारु दीधय गावो यच्छासन्वहतुं धेनवः
माता यन्मन्तुर्यूथस्य पूर्व्याभि वाणस्य सप्तधातुरिज्जनः १०.३२.४

[75] प्र वोऽच्छा रिरिचे देवयुष्पदमेको रुद्रेभिर्याति तुर्वणिः
जरा वा येष्वमृतेषु दावने परि ऊमेभ्यः सिञ्चता मधु १०.३२,

[76] निधीयमानमपगूळ्हमप्सु प्र मे देवानां व्रतपा उवाच
इन्द्रो विद्वाँ अनु हि त्वा चचक्ष तेनाहमग्ने अनुशिष्ट आगाम् १०.३२,

[77] इरज्यन्नग्ने प्रथयस्व जन्तुभिरस्मे रायो अमर्त्य
दर्शतस्य वपुषो वि राजसि पृणक्षि सानसिं क्रतुम् १०.१४०.४

[78] सरस्वती मनसा पेशलं वसु नासत्याभ्यां वयति दर्शतं वपुः
रसं परिस्रुता रोहितं नग्नहुर् धीरस् तसरं वेम वा.सं.  १९.८३

[79] दृष्ट्वा परिस्रुतो रस शुक्रेण शुक्रं व्यपिबत् ।पयः सोमं प्रजापतिः

ऋतेन सत्यम् इन्द्रियं विपान शुक्रम् अन्धस इन्द्रस्येन्द्रियम् इदं पयो ऽमृतं मधु वासं. १९.७९

[80] वेदेन रूपे व्यपिबत् सुतासुतौ प्रजापतिः
ऋतेन सत्यम् इन्द्रियं विपान शुक्रम् अन्धस इन्द्रस्येन्द्रियम् इदं पयो ऽमृतं मधु वा.सं. १९.७८

[81] यस्मात्कोशादुदभराम वेदं तस्मिन्न् अन्तरव दध्म एनम्
कृतमिष्टं ब्रह्मणो वीर्येण तेन मा देवास्तपसावतेह अथर्व १९.७२.१

[82] निघण्टुशास्त्रम् २.१०

[83] अरसास इहाहयो ये अन्ति ये दूरके
घनेन हन्मि वृश्चिकमहिं दण्डेनागतम् अथर्व १०.४.९

[84] त्वमपामपिधानावृणोरपाधारयः पर्वते दानुमद्वसु
वृत्रं यदिन्द्र शवसावधीरहिमादित्सूर्यं दिव्यारोहयो दृशे १.५१.४

[85] इत्था हि सोम इन्मदे ब्रह्मा चकार वर्धनम्
शविष्ठ वज्रिन्नोजसा पृथिव्या निः शशा अहिमर्चन्ननु स्वराज्यम् १.८०.१

[86] नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार
उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा धेनुः १.३२.९

[87] अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्
वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः १.३२.१०

[88] अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्
वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥ १.३२.१०

[89]  एते वा अहयो यच् छ्वित्राः। यद् अहीयत तद् अहीनाम् अहित्वम्।– जैब्रा ३.७७

[90] यदपांत्समभवत्तस्मादहिः (माश १.६.३.९)

[91] आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च  इण् स्यात्स डित् आङो ह्रस्वश्च स्त्रियः पाल्यश्रिकोटयः सर्पे वृत्रासुरेऽप्यहिः - उणादिकोशः ४.१३७