पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Pitaato Puurnabhadra ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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जम्बू द्वीप क्षीरोद प्लक्ष द्वीप इक्षु समुद्र शाल्मलि द्वीप सुरा समुद्र कुश द्वीप दधि समुद्र शाक द्वीप क्षीर समुद्र पुष्कर द्वीप शुद्धोदक/स्वादूदक समुद्र लोकालोक पर्वत ब्राह्मण ग्रन्थों में पुष्कर के अतिरिक्त पुष्कर पर्ण के उल्लेख आते हैं । यज्ञ हेतु मृत्तिका ग्रहण करते समय उसे कृष्णाजिन व पुष्करपर्ण पर ग्रहण करते हैं । शतपथ ब्राह्मण ६.४.३.६ का कथन है कि पुष्करपर्ण योनि है । पुष्करपर्ण पर मृदा ग्रहण इस प्रकार है जैसे योनि में रेतः का सिंचन । यह संकेत करता है कि पुष्कर पर्ण पर मृदा के रूप में मृदा के रस अग्नि को ग्रहण किया जाता है और पुष्कर पर्ण उस अग्नि का वर्धन करता है, अग्नि का चयन करता है, उसकी अव्यवस्था/एण्ट्रांपी को कम करता है, अग्नि को वास्तविक अगि| बनाता है । पुष्कर पर्ण क्या हो सकता है, इस विषय में छान्दोग्य उपनिषद ४.१४.३ का कथन है कि जिस प्रकार आपः पुष्कर पलाश का क्लेदन नहीं करते, उसी प्रकार पाप कर्म नहीं चिपकते ( किसे? अङ्गुष्ठ पुरुष को?) । शतपथ ब्राह्मण १०.५.२.२२ तथा १०.५.४.१५ में रुक्म और पुष्करपर्ण का उल्लेख आता है । ऐसा कहा जा सकता है कि अङ्गुष्ठ पुरुष के साथ - साथ पुष्कर पर्ण का अपना योगदान है और वह यह है कि वह पृथिवी की अग्नि को ऊर्ध्वमुखी बनाता है । यह आश्चर्यजनक है कि पद्म पुराण १.३४.२५२ में कृत युग में पुष्करों को श्रेष्ठतम तीर्थ कहा गया है जबकि कूर्म पुराण १.३७.३७ में त्रेता में पुष्कर को श्रेष्ठतम तीर्थ कहा गया है ( कृतयुग में नैमिष, द्वापर में कुरुक्षेत्र, कलियुग में गङ्गा ) । अथर्ववेद शौनक संहिता १२.१.२४ में पुष्कर में गन्ध के प्रवेश करने का उल्लेख है । शौनक संहिता ८.१४.६/८.५.६ में गन्धर्व गण विराज गौ का दोहन करते हैं । वह पुष्करपर्ण को पात्र बनाते हैं और उसमें गन्ध का दोहन करते हैं । यह गन्ध क्या हो सकती है, यह अन्वेषणीय है । पुराणों में भी पुष्कर में अजोगन्ध शिव की आराधना के वर्णन प्राप्त होते हैं । पुराणों में ज्येष्ठ, मध्यम व कनिष्ठ पुष्करों का वर्णन आता है । यह तीन पुष्कर क्या हो सकते हैं, इसका वैदिक मूल अन्वेषणीय है । इन तीन पुष्करों की प्रकृति का अनुमान पुराणों के कथनों से लगाया जा सकता है । नारद पुराण २.७१.१९ के अनुसार तीन पुष्करों के अधिपति क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र हैं । कार्तिक मास में ज्येष्ठ पुष्कर में गौ दान का निर्देश है, मध्य में मही तथा कनिष्ठ में कांचन । ज्येष्ठ पुष्कर का महत्त्व तब अधिक होता है जब कार्तिक में चन्द्रमा आग्नेय नक्षत्र( कृत्तिका ) पर होता है । मध्य पुष्कर का महत्त्व तब होता है जब चन्द्रमा यम अधिपति वाले नक्षत्र( भरणी) पर होता है । कनिष्ठ पुष्कर का महत्त्व तब होता है जब चन्द्रमा प्राजापत्य नक्षत्र ( रोहिणी ) पर होता है । स्कन्द पुराण ६.४५.२९ में तपोरत विश्वामित्र ऋषि ने जिज्ञासा प्रकट की कि उन्हें कैसे पता लगेगा कि कौन सा ज्येष्ठ पुष्कर है, कौन सा मध्य व कौन सा कनिष्ठ । इसका उत्तर यह दिया गया है कि जहां पुष्कर ऊर्ध्व - वक्त्र हो, वह ज्येष्ठ पुष्कर है । जहां पार्श्व - वक्त्र हो, वह मध्य पुष्कर है । जहां अधो - वक्त्र हो, वह कनिष्ठ पुष्कर है । योग ग्रन्थों में केवल सहस्रार चक्र में ही अधोमुखी कमल दिखाया जाता है । अतः यह कनिष्ठ पुष्कर होना चाहिए । पार्श्व - वक्त्र वाला पुष्कर अन्वेषणीय है । ऋग्वेद ८.७२.११-१२ में पुष्कर में मधु सिञ्चन का उल्लेख आता है : अभ्यारमिदद्रयो निषिक्तं पुष्करे मधु । अवतस्य विसर्जने ।। गाव उपावतावतं मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ।। इस ऋचा समूह का विनियोग प्रवर्ग्य इष्टि में प्रवर्ग्य की उत्पत्ति के पश्चात् महावीर पात्र को उसके नियत स्थान पर स्थापित करते समय होता है और सायणाचार्य द्वारा इसकी व्याख्या उसी प्रसंग के अनुरूप की गई है । विषय को समझने हेतु प्रवर्ग्य को समझना उपयुक्त होगा । सोमयाग के पूर्व प्रवर्ग्य इष्टियां सम्पन्न की जाती हैं । इन इष्टियों में मृत्तिका से एक पात्र बनाया जाता है और उसमें घी भरकर उसे अग्नि पर पकाया जाता है । पकते हुए घृत में दुग्ध का सिंचन किया जाता है जिससे एक ऊंची ज्वाला का जन्म होता है । इसे प्रवर्ग्य निर्माण कहते हैं । जब एक निश्चित संख्या में प्रवर्ग्यों का निर्माण हो चुके, उसके पश्चात् ही सोमयाग के लिए प्रस्थान किया जाता है । यह मधु सिञ्चन उस समय घटित होता है जब अवत/महावीर पात्र का विसर्जन किया जाता है । सायणाचार्य का कथन है कि महावीर पात्र को आसन्दी पर स्थापित करने से पूर्व उपयमनी पात्र में घृत/मधु का सिंचन किया जाता है और यह ऋचा उसी संदर्भ में है । ऋग्वेद की इस ऋचा के महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि दो प्रक्रियाएं साथ - साथ चल रही हैं - एक तो अग्नि का प्रवर्ग्य के रूप में ऊर्ध्वमुखी विकास और दूसरे तिर्यक् रूप में पुष्कर के रूप में विकास । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ पुष्कर में गौ का दान अपेक्षित है, मध्यम में मही का तथा कनिष्ठ में काञ्चन का । मधु सिञ्चन के संदर्भ में जिस ऋग्वेद की ऋचा का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके पश्चात् घटित होने वाली ऋचा में कहा गया है कि गायों की रक्षा किए जाने पर वह गाएं अवत/महावीर पात्र की रक्षा करें । तथा कि वह? यज्ञ की मही हैं । तथा कि दोनों कर्ण हिरण्यय हैं । जैसा कि उक्थ की टिप्पणी में कहा जा चुका है, गौ अवस्था वह है जब सोए हुए प्राणों को सर्वाधिक रूप में जाग्रत बना दिया गया हो, दूसरे शब्दों में, सूर्य मध्याह्न पर पहुंच गया हो । अन्य शब्दों में, मन के स्तर पर इसको इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब अचेतन मन को चेतन में रूपान्तरित कर दिया गया हो । पुराणों में इसे ज्येष्ठ पुष्कर की स्थिति कहा गया है । मध्य पुष्कर में इससे अगली स्थिति मही स्थिति घटित होती है जिसमें मनुष्य विज्ञानमय कोश की वाक् को सुनने, समझने में समर्थ होने लगता है, अपने पूर्व जन्म का स्मरण होने लगता है ( उदाहरण के लिए, परशुराम की कथा में मृग - मृगी द्वारा अपने पूर्व जन्म का स्मरण, गालव द्वारा मत्स्य के प्रबोधन का श्रवण आदि ) । पुष्कर से सम्बन्धित कथाओं में ब्रह्माण्ड पुराण की परशुराम की कथा महत्त्वपूर्ण है जहां मध्यम पुष्कर में तपोरत परशुराम मृग और मृगी का वार्तालाप सुनते हैं जिससे उन्हें अपने तप में त्रुटि का ज्ञान होता है । वास्तविकता यह है कि मृग और मृगी का वार्तालाप साधक की अपनी ही अन्दर की अवस्था है जो उसे दिशाबोध कराती है । मृग और मृगी कहते हैं कि यदि परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में जाकर अगस्त्य से कृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र का ज्ञान प्राप्त कर ले तो उसे अपनी साधना में सफलता मिल सकती है । कनिष्ठ पुष्कर में इससे अगली स्थिति, स्वर्णिम स्थिति आती है । ऋचा में लगता है कि उसका संकेत 'उभा कर्णा हिरण्यया' कह कर दिया गया है । दोनों कर्ण हिरण्यय बनने से तात्पर्य यह हो सकता है कि अब श्रुति और स्मृति में कोई अन्तर नहीं रह गया है । दोनों एक जैसे हो गए हैं । पुराणों में कनिष्ठ पुष्कर में अगस्त्य के आश्रम का वर्णन है जबकि मध्यम पुष्कर में मार्कण्डेय के आश्रम का । परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में अगस्त्य से कृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र प्राप्त करने के पश्चात् ही उन अस्त्रों को प्राप्त करने में समर्थ हो पाते हैं जो कार्तवीर्य अर्जुन के वध के लिए आवश्यक हैं । तीन पुष्करों की प्रकृति के संदर्भ में अग्नि पुराण व शिव पुराण में दीक्षा के संदर्भ में षड्ध्व शोधन विधि का वर्णन उपयोगी हो सकता है । इस वर्णन के अनुसार पांच कलाओं का शोधन करना पडता है जिनमें से पहली कला निवृत्ति कला है । यह जाग्रत अवस्था है और इस अवस्था में कारण ब्रह्मा है । दूसरी कला प्रतिष्ठा कला है जो स्वप्न स्थिति है और इसका कारण विष्णु है । तीसरी विद्या कला है जो सुषnप्ति स्थिति है और कारण रुद्र है । चौथी शान्ति कला है जो तुरीयावस्था है और कारण से रहित है । पांचवी शान्त्यतीत कला है जो तुरीयातीत अवस्था है और यह भी कारण से रहित है । जिस प्रकार तीन पुष्करों के अधिपति ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र कहे गए हैं, उसी प्रकार यहां कारण - कार्य के तीन स्तर कहे गए हैं । इससे आगे कारण समाप्त हो जाता है । इस संदर्भ को कुण्डलिनी और सात शरीर नामक पुस्तक शृंखला में श्री रजनीश द्वारा व्यक्त विचारों के आधार पर समझा जा सकता है । व्यावहारिक रूप से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि तीन पुष्करों के जो तीन अधिपति कहे गए हैं, वह वर्तमान में नहीं हैं, उन्हें साधना द्वारा स्थापित करना है । और जहां कारण - कार्य समाप्त हो जाते हैं, कोई अधिपति नहीं रहता, वह स्थिति आकाश की होगी, अन्तरिक्ष के पुष्कर की नहीं । ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्कर का सम्बन्ध सामगान के रथन्तर नामक सामगान से है । इसका आभास इस तथ्य से होता है कि पद्म पुराण में पुष्कर द्वीप के राजा पुष्पवाहन का वर्णन रथन्तर कल्प के अन्तर्गत कहा गया है । इस कथा में कहा गया है कि राजा पुष्पवाहन को देवों ने एक दिव्य पुष्कर प्रदान किया था जिस पर आरूढ होकर वह कहीं भी भ्रमण कर सकता था । अतः उसका नाम पुष्पवाहन पडा । पुष्कर व रथन्तर के अर्थों में कितनी समानता या असमानता है, यह नीचे वर्णित है । कहा गया है कि मनुष्यों के लिए रथ होता है, देवों के लिए रथन्तर । वैदिक साहित्य के रथन्तर को इस प्रकार समझा जा सकता है कि ६ या १२ दिवसीय पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग में ६ दिवसों को एक विशेष संज्ञा दी गई है जो उन दिवसों में गाए जाने वाले पृष्ठ साम पर आधारित है । प्रथम दिवस में गाए जाने वाले साम को रथन्तर साम कहते हैं । दूसरे दिवस के साम को बृहत् साम, तीसरे दिवस के साम को वैरूप साम, चौथे को वैराज, पांचवें को शाक्वर तथा छठे को रैवत कहते हैं । रथन्तर साम की आरम्भिक पंक्ति है - अभि त्वा शूर नोनुमो ऽदुग्धा इव धेनव: इत्यादि । ऐसा कहा जा सकता है कि तीसरे दिवस का वैरूप साम तथा पांचवें दिवस का शाक्वर साम भी रथन्तर साम के ही रूप हैं ( ऐतरेय ब्राह्मण ४.१३, ताण्ड्य ब्राह्मण १२.२.५, ९, १३.२.८ आदि ) । इस प्रकार रथन्तर साम के तीन रूप हो गए जो पुष्कर के तीन प्रकारों से सम्बन्धित हो सकते हैं । प्रथम प्रकार के रथन्तर में अग्नि की प्रधानता होती है । तप? की अग्नि को मन्थन द्वारा उत्पन्न करना होता है । इससे धूम, अंगार आदि की स्थितियां उत्पन्न होती हैं । दूसरे वैरूप प्रकार (यद्याव इन्द्र ते शतम् इत्यादि ) में वायु की प्रधानता होती है जो अभ्र, गर्जन, विद्युत, वर्षा आदि उत्पन्न करती है । और तीसरे शाक्वर प्रकार( विदा मघवन् विदा गातुमनुशंसिषो दिशः इत्यादि ) में आपः की प्रधानता होती है । शाक्वर प्रकार को आपः में स्थित अवाक् स्थिति कहा गया है । इस साम के वर्णन के संदर्भ में कहा जाता है कि शक्वरियों ने अपने पिता प्रजापति से पांच बार नाम देने की मांग की । पुष्कर का निरुक्ति होगी - पू: - कर, एक पुर का निर्माण जहां हम बिल्कुल सुरक्षित रहें, मृत्यु आदि से कोई भय न हो । शतपथ ब्राह्मण ७.४.१.१३ में आख्यान है कि वृत्र वध के पश्चात् इन्द्र भय से आपः में छिप गया । वहां भय निवारण के लिए आपः के रस से एक पुर का निर्माण किया गया । वही रसन्तर/रथन्तर है । वायु पुराण १.२१.७० का कथन है कि रथन्तर स्थिति में एक अभेद्य सूर्यमण्डल की स्थिति होती है । इस अभेद्य सूर्यमण्डल का भेदन बृहत् साम द्वारा होता है । |