पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Pitaa to Puurnabhadra  )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

HOME PAGE

Pitaa- Pitriyaana ( words like  Pitaa / father, Pitaamaha / grandfather etc. )

Pitrivartee - Pishangajata ( Pinaaki, Pipeelikaa / ant, Pippalaa, Pippalaada etc.)

Pishaacha - Peevari ( Pishaacha, Pishta / ground, Peetha / chair, Peeta / yellow, Peevari etc.)

Punshchalee - Punyajana ( Punjikasthalaa, Pundareeka, Pundra, Punya etc.)

Punyajani - Punarvasu ( Punyasheela, Putra / son, Putri / Putree / daughter, Punarvasu etc.)

Punnaaga - Pureesha (Pura / residence, Puranjana, Puranjaya, Purandara, Puraana, Pureesha etc. ) 

Puru - Purusha ( Puru, Purukutsa, Purusha / man etc. )

Purusha - Pulaka  ( Purushasuukta, Purushaartha, Purushottama, Puruuravaa, Purodaasha, Purohita etc.)

Pulastya - Pulomaa ( Pulastya, Pulinda, Pulomaa etc.)

Pulkasa - Pushkaradweepa (  Pushkara etc. )

Pushkaraaksha - Pushpa ( Pushkaraavarta, Pushkarini /pushkarinee, Pushkala, Pushti, Pushpa / flower etc.)

Pushpaka - Pushya ( Pushpaka, Pushpadanta, Pushpabhadra, Pushya etc.)

Pushyamitra - Puujaa (Puujaa / worship)

Puutanaa - Puurnabhadra (  Puurana, Puuru /pooru, Puurna / poorna / complete, Puurnabhadra /poornabhadra etc.)

 

 

पुष्कर

शतपथब्राह्मणे ७.४.१.१३ कथनमस्ति यत् वृत्रस्य भयतः इन्द्रः अप्सु प्राविशत् एवं स्वरक्षार्थं अपसः रसेन पुरस्य निर्माणमकरोत्। अस्य कृत्यस्य नामधेयं पूःकर अथवा पुष्करः अस्ति। पुराणेषु पुष्करः क्षत्रियः एवं कर्मतत्त्वात्मकः अस्ति। व्यवहारे, जीवः स्वरक्षार्थं पुरस्य निर्माणं करोति यस्य संज्ञा चित्तमस्ति। अन्येषु शब्देषु, अयं अचेतनमनः अस्ति। रजनीशमहोदयः स्वव्याख्यानेषु प्रतिपादयति यत् आध्यात्मिक उत्थानाय अचेतनमनसः रूपान्तरणं चेतनमनसि करणस्य आवश्यकता अस्ति। पुराणेषु अस्य कृत्यस्य व्याख्यानं परशुरामेण ब्रह्मणा पृथिव्योपरि क्षत्रियजात्याः एकविंशतिवारेण संहाररूपेण अस्ति। आधुनिकचिकित्साविज्ञानानुसारेण, प्लीहा (तिल्ली, स्प्लीन) अङ्गः ग्लोबुलिन आदीनां रक्षाकराणां कोशिकानां सृजनं करोति। यकृत अङ्गः रुधिरस्य निर्माणं करोति एवं सुरायाः (एल्कोहल) निर्माणं करोति। क्षत्रियस्य कर्तव्यं ललाटतः रुधिरस्य प्रवहणम् एवं सुरासम्पादनं, सेवनं अस्ति। यदि देहमध्ये क्षत्रस्य हानिः भवति, तदा यः नवीनकोशिकानां जननं अस्ति, तत् अव्यवस्थितं भविष्यति। ब्रह्मणः प्रयत्नं सुरापेक्षया पयःजननस्य अस्ति। ब्राह्मणः क्षत्रबलस्य यः संहारं कर्तुमिच्छति, तदा क्षत्रबलेन संपादितानां शरीररक्षातन्त्राणां किं भविष्यति। ऋग्वेदस्य ६.१६.१४ कथनमस्ति – त्वमु त्वा दध्यङ्ङृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरंदरं।। पुराणेषु सार्वत्रिक आख्यानमस्ति (ब्रह्मपुराणम् २.४०, लक्ष्मीनारायणसंहिता १.५३७.३८)  यत् देवाः केनापि कारणेन स्वस्व अस्त्राणि दधीचिऋषेः समीपे स्थापयन्ति एवं तेषां रक्षाभारं तमेव प्रदायन्ति। कालान्तरेण यदा देवाः न पुनरायान्ति, तदा दधीचिः अस्त्राणां तेजसः पानं कृत्वा तं तेजं स्वअस्थिषु धारयति। कालान्तरे यदा वृत्रस्य वधहेतु वज्रस्य आवश्यकता भवति, तदा दधीचेः अस्थिभ्यः वज्रस्य निर्माणं भवति। एष आख्यानः देहस्य रक्षातन्त्रस्य विकल्पः प्रस्तौति, यद्यपि अस्य तन्त्रस्य व्यावहारिकपक्षः किमस्ति, अयं अज्ञातमेवास्ति। क्षत्रियस्य पराकाष्ठा आदित्यः अस्ति यस्य रश्मयः रुधिररूपाः सन्ति। रुधिरस्य विकल्पः आदित्यस्य श्वेत एवं कृष्ण रश्मयः सन्ति। किं रुधिरः वर्तमानकालिकः अवरक्त रश्मयः अस्ति, अन्वेषणीयः।

 

टिप्पणी : ऋग्वेद ६.१६.१३ की सार्वत्रिक ऋचा निम्नलिखित है :

त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ।।

          शतपथ ब्राह्मण ६.४.२.२ का कथन है कि इस ऋचा में आपः ही पुष्कर है, प्राण अथर्वा है । प्राण ने ही सबसे पहले आपः से अग्नि को मन्थन करके प्राप्त किया । इस कथन को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है कि पुष्कर का अर्थ क्या हो सकता है । सामान्य रूप से पुष्कर की निरुक्ति पाणिनीय उणादि कोश तथा वैदिक पदानुक्रम कोश के आधार पर पुष - विकासे, पुष्टौ, पूजायाम् + कृ - करणे के आधार पर की जा सकती है । अर्थात् पुष्कर वह है जो विकास करता हो, पुष्टि करता हो आदि । यह कहा जा सकता है कि प्राण पुष्टि करते हैं, अन्न पुष्टि करता है । वैदिक निघण्टु में पुष्कर शब्द का वर्गीकरण अन्तरिक्ष नामों में किया गया है । लेकिन ब्राह्मण ग्रन्थों ने पुष्कर की एक और निरुक्ति भी की है । वह है - पू: कर इति पुष्कर । शतपथ ब्राह्मण ७.४.१.१३ में आख्यान है कि वृत्र हत्या के पश्चात् इन्द्र आपः में छिप गया । लेकिन उसे संतोष नहीं हुआ । उसने देवों से कहा कि उसके लिए पुर का निर्माण करो । देवों ने आपः के रस से उसके लिए पुर का निर्माण किया जो पुष्कर कहलाया । ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा को समझने के लिए हमें पुष्कर के निम्नतम स्तर के अर्थ से आरम्भ करना होगा । योगवासिष्ठ का यह कथन बहुत सार्थक है कि संसार वन में चित्त पुष्कर है जिसमें अनुभवों के बीज रहते हैं । यहां चित्त शब्द को स्पष्ट कर देना उपयुक्त होगा । एक शुद्ध चित् शक्ति, परमात्मा की शक्ति है जो मर्त्य लोक में अवतरण करने पर चित्त बन जाती है । आधुनिक काल की भाषा में हम चित्त का अर्थ चेतन और अचेतन मन के मिश्रण के रूप में करते हैं । यही हमारे शरीर की रक्षा करते रहते हैं । हमारा यह शरीर पुर है जिसकी असुरों से रक्षा सभी शक्तियां मिल कर  रही हैं । चूंकि असुरों से रक्षा करने में ही सारी शक्ति का व्यय हो जाता है, अतः इन शक्तियों को ऊर्ध्वमुखी विकास का अवसर नहीं मिल पाता । यह कैसे हो सकता है कि इन शक्तियों के ऊपर से रक्षा का भार हटाया जा सके ? ऋग्वेद की ऋचा का कहना है कि अथर्वा प्राण में वह शक्ति है कि वह मन्थन करके ऊर्ध्वमुखी अग्नि को निकाल सकता है । फिर यह अग्नि शरीर में अन्य विकास करने में समर्थ हो सकेगी, अन्य पुष्करों का निर्माण हो सकेगा । अथर्वा प्राण क्या हो सकता है, इसकी निरुक्ति डा. फतहसिंह अथ - अर्वाक्, अर्थात् निर्विकल्प समाधि से व्युत्थान के रूप में करते हैं । उसी चैतन्य अथर्वा प्राण में इतनी शक्ति है कि वह सर्वोच्च स्तर के पुष्कर का निर्माण कर सके । यह कहा जा सकता है कि पुराणों में जो देव ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुआ है, वैदिक साहित्य में वही अथर्वा रूप में प्रकट हुआ है । इस परिकल्पना का एक प्रमाण कूर्म पुराण १.५० है जहां कहा गया है कि महेश्वर की स्थिति पर - अव्यक्त है । यह चेतना के अनन्त विस्तार की स्थिति है । इस 'पर - अव्यक्त' से अव्यक्त अण्ड उत्पन्न होता है । इस अव्यक्त अण्ड से ब्रह्मा उत्पन्न होता है जो अर्वाक् सृष्टि करता है । अथर्वा के ब्रह्मा होने का दूसरा प्रमाण यह हो सकता है कि सोमयाग में किसी कृत्य के निष्पादन के समय ब्रह्मा नामक ऋत्विज यजमान के साथ उत्तरवेदी की मुख्य (आहवनीय?) अग्नि के दक्षिण में तथा सदोमण्डप के दक्षिण में उत्तराभिमुख होकर बैठा रहता है और मन में अथर्ववेद का पाठ करता है । ब्रह्मा नामक ऋत्विज अथर्ववेद के ४ ऋत्विजों में प्रमुख होता है । जब पुराणों में ब्रह्मा द्वारा पुष्कर क्षेत्र में सम्पन्न सोमयाग का वर्णन आता है तो यह संदेह होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जहां वैदिक साहित्य में ब्रह्मा ऋत्विज और यजमान को अलग - अलग व्यक्तित्व के रूप में दर्शाया गया है, वहां पुराणों ने इन दोनों का एकीकरण कर दिया हो । पद्म पुराण १.३४.१३ में जहां ब्रह्मा के यज्ञ के ऋत्विजों के नाम आते हैं, वहां नारद को यज्ञ का ब्रह्मा कहा गया है ।

          यास्काचार्य ने अपने निरुक्त ५.१४ में पुष्कर शब्द की निरुक्ति (पुष्करमन्तरिक्षम् । पोषति भूतानि । उदकं पुष्करम् । पूजाकरम् । पूजयितव्यम् । इदमपीतरत्पुष्करमेतस्मादेव । पुष्करं वपुष्करं वा । पुष्पं पुष्पतेः । वयुनं वेतेः । कान्तिर्वा । प्रज्ञा वा ) के लिए ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा को आधार बनाया है -

उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या ब्रह्मन् मनसोऽधि जातः । द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वे देवा: पुष्करे त्वाददन्त ।। - ऋ. ७.३३.११

इस ऋचा की व्याख्या प्रायः मित्रावरुण के वीर्य से वसिष्ठ ऋषि की उत्पत्ति के रूप में की जाती है । इस ऋचा के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि मन के ऊर्ध्वमुखी विकास से वसिष्ठ का जन्म हो सकता है जबकि तिर्यक् विकास से पुष्कर का । प्रस्तुत प्रसंग में ऋचा की दूसरी पंक्ति महत्त्वपूर्ण है जिसमें कहा गया है कि ब्रह्म के द्वारा द्रप्स/वीर्य/शक्ति बिखेरा गया जिसे विश्वे देवों ने पुष्कर में ग्रहण किया ( जिससे वह पृथिवी पर गिरकर व्यर्थ न जाए ) । यह संकेत करता है कि रक्षार्थ निर्मित पुर को इतना सक्षम होना चाहिए कि वह ऊपर से क्षरित शक्ति को धारण करने में समर्थ हो सके । कहा जाता है कि कुछ व्यक्तियों में जब अचानक शक्तिपात हो जाता है तो वह पागल तक हो जाते हैं । कोई - कोई बहुत दिन तक संभल नहीं पाते हैं ।

          पुराणों में, जैसे मत्स्य पुराण में पृथिवी पर नैमिष तीर्थ तथा अन्तरिक्ष में पुष्कर तीर्थ को श्रेष्ठ कहा गया है । वैदिक निघण्टु में पुष्कर शब्द का वर्गीकरण अन्तरिक्ष के पर्यायवाची नामों के अन्तर्गत किया गया है । अन्तरिक्ष का एक अर्थ, डा. फतहसिंह के अनुसार, अन्त: ईक्षण, अपने अन्दर झांकना, अन्तर्मुखी होना भी होता है । अन्तरिक्ष की प्रकृति को आगे सोमयाग की वेदी में अन्तरिक्ष के स्थान से समझ सकते हैं । सोमयाग में दो वेदियां होती हैं - प्राग्वंश और उत्तरवेदी । प्राग्वंश में मुख्य रूप से तीन अग्नियों के स्थान होते हैं - पृथिवी पर गार्हपत्य अग्नि, अन्तरिक्ष में अन्वाहार्यपचन अग्नि और द्युलोक में आहवनीय अग्नि । इनमें से अन्वाहार्यपचन अग्नि का अधिपति नल नैषध कहा गया है ( पुराणों में पुष्कर को नल का अनुज कहा गया है । द्र. दमयन्ती पर टिप्पणी ) । उत्तरवेदी में स्थांतरित होने पर यह अग्नि आग्नीध्र नामक ऋत्विज का स्थान बन जाती है जो आधा वेदी के बाहर और आधा अन्दर होता है । इसका अर्थ यह लिया जाता है कि आग्नीध्र नामक ऋत्विज अपनी चेतना को बहिर्मुखी भी कर सकता है, अन्तर्मुखी भी । दमयन्ती आदि की टिप्पणियों में यह स्पष्ट किया गया है कि अन्तरिक्ष की स्थिति में इस विश्व की किसी घटना को द्यूत के सिद्धान्त के आधार पर घटित भी माना जा सकता है और कारण के आधार पर भी । पृथिवी रूपी गार्हपत्य पर जो घटना घटित होगी, उसको द्यूत के सिद्धान्त के आधार पर ही घटित माना जाना चाहिए । वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप में तो पुष्कर और नल के सम्बन्ध का उल्लेख नहीं आया है । अतः यह समझने की आवश्यकता है कि पुराणों ने पुष्कर को नल का अनुज कहकर किस निहितार्थ को सिद्ध किया है । जैसा कि सत्यनारायण शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया गया है, नर/नल की स्थिति में चेतना में परस्पर संघात/संगति नहीं होती । नर से अगली अवस्था नार की होती है जहां चेतना में परस्पर संघात/संगति उत्पन्न हो जाती है । नार जल या आपः को कहते हैं । पुष्कर के नर का अनुज होने के कारण उसकी स्थिति नार जैसी मानी जा सकती है । और पौराणिक साहित्य में पुष्कर/कमल की उत्पत्ति जल से ही होती है ।

          पुराणों (शिवपुराण .१८.५९) में पुष्कर द्वीप पर मानस वर्ष और न्यग्रोध वृक्ष की स्थिति के उल्लेख आते हैं । यह मानस पर्वत चित्त की विकसित अवस्था हो सकती है । न्यग्रोध की निरुक्ति ब्राह्मण ग्रन्थों में न्यङ् - रोह, नीचे की ओर रोहण करने वाले के रूप में की जाती है । अतः यह भी संभव है कि मानस वर्ष के रूप में समाधि की ओर आरोहण और न्यग्रोध के रूप में अवरोहण का प्रदर्शन किया गया हो ।

          पौराणिक साहित्य में पुष्कर/पद्म में विराजमान अङ्गुष्ठ पुरुष का वर्णन आता है, जैसे स्कन्द पुराण ६.४५.४० में वर्णन आता है कि राजा बृहद्बल ने पुष्कर और उसमें विराजमान अङ्गुष्ठ पुरुष को देखकर अशुचि अवस्था में ही उस पुष्कर को ग्रहण करने का प्रयत्न किया जिससे वह कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो गया । वैदिक साहित्य में भी इस अङ्गुष्ठ पुरुष के संकेत मिलते हैं । मैत्रायणी उपनिषद ६.२ का कथन है कि जिस प्रकार आदित्य के अन्दर विराजमान हिरण्मय पुरुष इस भूमि को देखता है, उसी प्रकार हृत्पुष्कर में विराजमान पुरुष भी अन्न का सेवन करने वाला है । यह संभव है कि पुराणों में पुष्कर में विराजमान जिस ब्रह्मा का वर्णन किया गया है, वह पुष्कर में विराजमान अङ्गुष्ठ पुरुष से ही सम्बन्धित हो । यदि यह वास्तविकता है कि ब्रह्मा का सम्बन्ध अङ्गुष्ठ पुरुष से है तो नारद पुराण २.७१.१९ में ज्येष्ठ, मध्य तथा कनिष्ठ पुष्करों में ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र की स्थिति कही गई है । अतः यह तीनों अङ्गुष्ठ पुरुष से सम्बन्धित होने चाहिएं ।

          पुराणों में पुष्कर द्वीप की स्थिति चेतना के निम्नतम स्तर पर दिखाई गई है जिसके लिए कूर्म पुराण १.५० के आधार पर चित्र निर्मित किया गया है । पुष्कर से निचले स्तरों पर नरक आदि की स्थिति कही गई है । पुराणों में पुष्कर द्वीप की स्थिति अन्य द्वीपों के सापेक्ष इस प्रकार है :

जम्बू द्वीप

क्षीरोद

प्लक्ष द्वीप

इक्षु समुद्र

शाल्मलि द्वीप

सुरा समुद्र

कुश द्वीप

दधि समुद्र

शाक द्वीप

क्षीर समुद्र

पुष्कर द्वीप

शुद्धोदक/स्वादूदक समुद्र

लोकालोक पर्वत

          ब्राह्मण ग्रन्थों में पुष्कर के अतिरिक्त पुष्कर पर्ण के उल्लेख आते हैं । यज्ञ हेतु मृत्तिका ग्रहण करते समय उसे कृष्णाजिन व पुष्करपर्ण पर ग्रहण करते हैं । शतपथ ब्राह्मण ६.४.३, का कथन है कि पुष्करपर्ण योनि है । पुष्करपर्ण पर मृदा ग्रहण इस प्रकार है जैसे योनि में रेतः का सिंचन । यह संकेत करता है कि पुष्कर पर्ण पर मृदा के रूप में मृदा के रस अग्नि को ग्रहण किया जाता है और पुष्कर पर्ण उस अग्नि का वर्धन करता है, अग्नि का चयन करता है, उसकी अव्यवस्था/एण्ट्रांपी को कम करता है, अग्नि को वास्तविक अग्नि बनाता है । पुष्कर पर्ण क्या हो सकता है, इस विषय में छान्दोग्य उपनिषद ४.१४.३ का कथन है कि जिस प्रकार आपः पुष्कर पलाश का क्लेदन नहीं करते उसी प्रकार पाप कर्म नहीं चिपकते ( किसे? अङ्गुष्ठ पुरुष को?) । शतपथ ब्राह्मण १०.५.२.२२ तथा १०.५.४.१५ में रुक्म और पुष्करपर्ण का उल्लेख आता है । ऐसा कहा जा सकता है कि अङ्गुष्ठ पुरुष के साथ - साथ पुष्कर पर्ण का अपना योगदान है और वह यह है कि वह पृथिवी की अग्नि को ऊर्ध्वमुखी बनाता है ।

          यह आश्चर्यजनक है कि पद्म पुराण .३४.२२५ में कृत युग में पुष्करों को श्रेष्ठतम तीर्थ कहा गया है जबकि कूर्म पुराण .३७.३७ में त्रेता में पुष्कर को श्रेष्ठतम तीर्थ कहा गया है (कृते तु नैमिषं तीर्थं त्रेतायां पुष्करं परम् द्वापरे तु कुरुक्षेत्रं कलौ गङ्गां विशिष्यते ।। ) ।

          अथर्ववेद शौनक संहिता १२.१.२४ में पुष्कर में गन्ध के प्रवेश करने का उल्लेख है । शौनक संहिता ८.१४.६/८.५.६ में गन्धर्व गण विराज गौ का दोहन करते हैं । वह पुष्करपर्ण को पात्र बनाते हैं और उसमें गन्ध का दोहन करते हैं । यह गन्ध क्या हो सकती है, यह अन्वेषणीय है । पुराणों में भी पुष्कर में अजोगन्ध शिव की आराधना के वर्णन प्राप्त होते हैं ।

           पुराणों में ज्येष्ठ, मध्यम व कनिष्ठ पुष्करों का वर्णन आता है । यह तीन पुष्कर क्या हो सकते हैं, इसका वैदिक मूल अन्वेषणीय है । इन तीन पुष्करों की प्रकृति का अनुमान पुराणों के कथनों से लगाया जा सकता है । नारद पुराण २.७१.१९ के अनुसार तीन पुष्करों के अधिपति क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र हैं । कार्तिक मास में ज्येष्ठ पुष्कर में गौ दान का निर्देश है, मध्य में मही तथा कनिष्ठ में कांचन । ज्येष्ठ पुष्कर का महत्त्व तब अधिक होता है जब कार्तिक में चन्द्रमा आग्नेय नक्षत्र( कृत्तिका ) पर होता है । मध्य पुष्कर का महत्त्व तब होता है जब चन्द्रमा यम अधिपति वाले नक्षत्र( भरणी) पर होता है । कनिष्ठ पुष्कर का महत्त्व तब होता है जब चन्द्रमा प्राजापत्य नक्षत्र ( रोहिणी ) पर होता है । स्कन्द पुराण ६.४५.२९ में तपोरत विश्वामित्र ऋषि ने जिज्ञासा प्रकट की कि उन्हें कैसे पता लगेगा कि कौन सा ज्येष्ठ पुष्कर है, कौन सा मध्य व कौन सा कनिष्ठ । इसका उत्तर यह दिया गया है कि जहां पुष्कर ऊर्ध्व - वक्त्र हो, वह ज्येष्ठ पुष्कर है । जहां पार्श्व - वक्त्र हो, वह मध्य पुष्कर है । जहां अधो - वक्त्र हो, वह कनिष्ठ पुष्कर है । योग ग्रन्थों में केवल सहस्रार चक्र में ही अधोमुखी कमल दिखाया जाता है । अतः यह कनिष्ठ पुष्कर होना चाहिए । पार्श्व - वक्त्र वाला पुष्कर अन्वेषणीय है ।

           ऋग्वेद ८.७२.११-१२ में पुष्कर में मधु सिञ्चन का उल्लेख आता है :

अभ्यारमिदद्रयो निषिक्तं पुष्करे मधु । अवतस्य विसर्जने ।। गाव उपावतावतं मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ।।

          इस ऋचा समूह का विनियोग प्रवर्ग्य इष्टि में प्रवर्ग्य की उत्पत्ति के पश्चात् महावीर पात्र को उसके नियत स्थान पर स्थापित करते समय होता है और सायणाचार्य द्वारा इसकी व्याख्या उसी प्रसंग के अनुरूप की गई है । विषय को समझने हेतु प्रवर्ग्य को समझना उपयुक्त होगा । सोमयाग के पूर्व प्रवर्ग्य इष्टियां सम्पन्न की जाती हैं । इन इष्टियों में मृत्तिका से एक पात्र बनाया जाता है और उसमें घी भरकर उसे अग्नि पर पकाया जाता है । पकते हुए घृत में दुग्ध का सिंचन किया जाता है जिससे एक ऊंची ज्वाला का जन्म होता है । इसे प्रवर्ग्य निर्माण कहते हैं । जब एक निश्चित संख्या में प्रवर्ग्यों का निर्माण हो चुके, उसके पश्चात् ही सोमयाग के लिए प्रस्थान किया जाता है । यह मधु सिञ्चन उस समय घटित होता है जब अवत/महावीर पात्र का विसर्जन किया जाता है । सायणाचार्य का कथन है कि महावीर पात्र को आसन्दी पर स्थापित करने से पूर्व उपयमनी पात्र में घृत/मधु का सिंचन किया जाता है और यह ऋचा उसी संदर्भ में है । ऋग्वेद की इस ऋचा के महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि दो प्रक्रियाएं साथ - साथ चल रही हैं - एक तो अग्नि का प्रवर्ग्य के रूप में ऊर्ध्वमुखी विकास और दूसरे तिर्यक् रूप में पुष्कर के रूप में विकास ।

          जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ पुष्कर में गौ का दान अपेक्षित है, मध्यम में मही का तथा कनिष्ठ में काञ्चन का । मधु सिञ्चन के संदर्भ में जिस ऋग्वेद की ऋचा का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके पश्चात् घटित होने वाली ऋचा में कहा गया है कि गायों की रक्षा किए जाने पर वह गाएं अवत/महावीर पात्र की रक्षा करें । तथा कि वह? यज्ञ की मही हैं । तथा कि दोनों कर्ण हिरण्यय हैं । जैसा कि उक्थ की टिप्पणी में कहा जा चुका है, गौ अवस्था वह है जब सोए हुए प्राणों को सर्वाधिक रूप में जाग्रत बना दिया गया हो, दूसरे शब्दों में, सूर्य मध्याह्न पर पहुंच गया हो । अन्य शब्दों में, मन के स्तर पर इसको इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब अचेतन मन को चेतन में रूपान्तरित कर दिया गया हो । पुराणों में इसे ज्येष्ठ पुष्कर की स्थिति कहा गया है । मध्य पुष्कर में इससे अगली स्थिति मही स्थिति घटित होती है जिसमें मनुष्य विज्ञानमय कोश की वाक् को सुनने, समझने में समर्थ होने लगता है, अपने पूर्व जन्म का स्मरण होने लगता है ( उदाहरण के लिए, परशुराम की कथा में मृग - मृगी द्वारा अपने पूर्व जन्म का स्मरण, गालव द्वारा मत्स्य के प्रबोधन का श्रवण आदि ) । पुष्कर से सम्बन्धित कथाओं में ब्रह्माण्ड पुराण की परशुराम की कथा महत्त्वपूर्ण है जहां मध्यम पुष्कर में तपोरत परशुराम मृग और मृगी का वार्तालाप सुनते हैं जिससे उन्हें अपने तप में त्रुटि का ज्ञान होता है । वास्तविकता यह है कि मृग और मृगी का वार्तालाप साधक की अपनी ही अन्दर की अवस्था है जो उसे दिशाबोध कराती है । मृग और मृगी कहते हैं कि यदि परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में जाकर अगस्त्य से कृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र का ज्ञान प्राप्त कर ले तो उसे अपनी साधना में सफलता मिल सकती है । कनिष्ठ पुष्कर में इससे अगली स्थिति, स्वर्णिम स्थिति आती है । ऋचा में लगता है कि उसका संकेत 'उभा कर्णा हिरण्यया' कह कर दिया गया है । दोनों कर्ण हिरण्यय बनने से तात्पर्य यह हो सकता है कि अब श्रुति और स्मृति में कोई अन्तर नहीं रह गया है । दोनों एक जैसे हो गए हैं । पुराणों में कनिष्ठ पुष्कर में अगस्त्य के आश्रम का वर्णन है जबकि मध्यम पुष्कर में मार्कण्डेय के आश्रम का । परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में अगस्त्य से कृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र प्राप्त करने के पश्चात् ही उन अस्त्रों को प्राप्त करने में समर्थ हो पाते हैं जो कार्तवीर्य अर्जुन के वध के लिए आवश्यक हैं ।

          तीन पुष्करों की प्रकृति के संदर्भ में अग्नि पुराण व शिव पुराण में दीक्षा के संदर्भ में षड्ध्व शोधन विधि का वर्णन उपयोगी हो सकता है । इस वर्णन के अनुसार पांच कलाओं का शोधन करना पडता है जिनमें से पहली कला निवृत्ति कला है । यह जाग्रत अवस्था है और इस अवस्था में कारण ब्रह्मा है । दूसरी कला प्रतिष्ठा कला है जो स्वप्न स्थिति है और इसका कारण विष्णु है । तीसरी विद्या कला है जो सुषुप्ति स्थिति है और कारण रुद्र है । चौथी शान्ति कला है जो तुरीयावस्था है और कारण से रहित है । पांचवी शान्त्यतीत कला है जो तुरीयातीत अवस्था है और यह भी कारण से रहित है । जिस प्रकार तीन पुष्करों के अधिपति ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र कहे गए हैं, उसी प्रकार यहां कारण - कार्य के तीन स्तर कहे गए हैं । इससे आगे कारण समाप्त हो जाता है । इस संदर्भ को कुण्डलिनी और सात शरीर नामक पुस्तक शृंखला में श्री रजनीश द्वारा व्यक्त विचारों के आधार पर समझा जा सकता है । व्यावहारिक रूप से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि तीन पुष्करों के जो तीन अधिपति कहे गए हैं, वह वर्तमान में नहीं हैं, उन्हें साधना द्वारा स्थापित करना है । और जहां कारण - कार्य समाप्त हो जाते हैं, कोई अधिपति नहीं रहता, वह स्थिति आकाश की होगी, अन्तरिक्ष के पुष्कर की नहीं ।

          ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्कर का सम्बन्ध सामगान के रथन्तर नामक सामगान से है । इसका आभास इस तथ्य से होता है कि पद्म पुराण में पुष्कर द्वीप के राजा पुष्पवाहन का वर्णन रथन्तर कल्प के अन्तर्गत कहा गया है । इस कथा में कहा गया है कि राजा पुष्पवाहन को देवों ने एक दिव्य पुष्कर प्रदान किया था जिस पर आरूढ होकर वह कहीं भी भ्रमण कर सकता था । अतः उसका नाम पुष्पवाहन पडा । पुष्कर व रथन्तर के अर्थों में कितनी समानता या असमानता है, यह नीचे वर्णित है । कहा गया है कि मनुष्यों के लिए रथ होता है, देवों के लिए रथन्तर । वैदिक साहित्य के रथन्तर को इस प्रकार समझा जा सकता है कि ६ या १२ दिवसीय पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग में ६ दिवसों को एक विशेष संज्ञा दी गई है जो उन दिवसों में गाए जाने वाले पृष्ठ साम पर आधारित है । प्रथम दिवस में गाए जाने वाले साम को रथन्तर साम कहते हैं । दूसरे दिवस के साम को बृहत् साम, तीसरे दिवस के साम को वैरूप साम, चौथे को वैराज, पांचवें को शाक्वर तथा छठे को रैवत कहते हैं । रथन्तर साम की आरम्भिक पंक्ति है - अभि त्वा शूर नोनुमो ऽदुग्धा इव धेनव: इत्यादि । ऐसा कहा जा सकता है कि तीसरे दिवस का वैरूप साम तथा पांचवें दिवस का शाक्वर साम भी रथन्तर साम के ही रूप हैं ( ऐतरेय ब्राह्मण ४.१३, ताण्ड्य ब्राह्मण १२.२.५, , १३.२.८ आदि ) । इस प्रकार रथन्तर साम के तीन रूप हो गए जो पुष्कर के तीन प्रकारों से सम्बन्धित हो सकते हैं । प्रथम प्रकार के रथन्तर में अग्नि की प्रधानता होती है । तप? की  अग्नि को मन्थन द्वारा उत्पन्न करना होता है । इससे धूम, अंगार आदि की स्थितियां उत्पन्न होती हैं ।  दूसरे वैरूप प्रकार (यद्याव इन्द्र ते शतम् इत्यादि ) में वायु की प्रधानता होती है जो अभ्र, गर्जन, विद्युत, वर्षा आदि उत्पन्न करती है । और तीसरे शाक्वर प्रकार( विदा मघवन् विदा गातुमनुशंसिषो दिशः इत्यादि ) में आपः की प्रधानता होती है । शाक्वर प्रकार को आपः में स्थित अवाक् स्थिति कहा गया है । इस साम के वर्णन के संदर्भ में कहा जाता है कि शक्वरियों ने अपने पिता प्रजापति से पांच बार नाम देने की मांग की । पुष्कर क निरुक्ति होगी - पू: - कर, एक पुर का निर्माण जहां हम बिल्कुल सुरक्षित रहें, मृत्यु आदि से कोई भय न हो । शतपथ ब्राह्मण ,,,१३ में आख्यान है कि वृत्र वध के पश्चात् इन्द्र भय से आपः में छिप गया । वहां भय निवारण के लिए आपः के रस से एक पुर का निर्माण किया गया । वही रसन्तर/रथन्तर है । वायु पुराण १.२१.७० का कथन है कि रथन्तर स्थिति में एक अभेद्य सूर्यमण्डल की स्थिति होती है । इस अभेद्य सूर्यमण्डल का भेदन बृहत् साम द्वारा होता है ।

 

यथा वातः पुष्करिणीं समिङ्गयति सर्वतः।

एवा ते गर्भ एजतु निरैतु दशमास्यः॥ .०७८.०७

त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत।

मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः॥ .०१६.१३

उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या ब्रह्मन्मनसोऽधि जातः।

द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वे देवाः पुष्करे त्वाददन्त॥ .०३३.११

अभ्यारमिदद्रयो निषिक्तं पुष्करे मधु।

अवतस्य विसर्जने॥ .०७२.११

भोजायाश्वं सं मृजन्त्याशुं भोजायास्ते कन्या शुम्भमाना।

भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम्॥ १०.१०७.१०

गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि सरस्वति।

गर्भं ते अश्विनौ देवावा धत्तां पुष्करस्रजा॥ १०.१८४.०२

यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश यं संजभ्रुः सूर्याया विवाहे ।
अमर्त्याः पृथिवि गन्धमग्रे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥शौअ १२.१.२४

सोदक्रामत्सा गन्धर्वाप्सरस आगच्छत्तां गन्धर्वाप्सरस उपाह्वयन्त पुण्यगन्ध एहीति ।
तस्याश्चित्ररथः सौर्यवर्चसो वत्स आसीत्पुष्करपर्णं पात्रम् ।
तां वसुरुचिः सौर्यवर्चसोऽधोक्तां पुण्यमेव गन्धमधोक्।
तं पुण्यं गन्धं गन्धर्वाप्सरस उप जीवन्ति पुण्यगन्धिरुपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥शौअ ८.१४.६

  

पुष्कर

१. अवभृथाद् उदेयुषे द्वादशपुष्करां स्रजं प्रतिमुञ्चति। आपो वै दैवानां पत्नय आसन्। ता मिथुनम् ऐच्छन्त। ता देवा उपायन्। ता गर्भम् अदधत। ततः पुष्कराण्य् अजायन्त। सत्यं वा आपः। सत्यं दीक्षा। सत्यस्यैव तत् सत्यं यत् पुष्कराणि। सत्यस्यैवास्मै तत् सत्येन तपो दीक्षां प्रतिमु्ञ्चति। सा द्वादशपुष्करा भवति। द्वादश मासास् संवत्सरः। संवत्सरो यज्ञः। यज्ञम् एवास्मिंस् तत् प्रतिमुञ्चति। अथो आहुस् सप्तपुष्करैव स्याद् इति। सप्त वै छन्दांसि। छन्दोभिर् यज्ञस् तायते। यज्ञम् एवास्मिंस् तत् प्रतिमुञ्चति। अथो आहुष् षट्पुष्करैव स्याद् इति। षड् वा ऋतवस् संवत्सरः। संवत्सरो यज्ञः। यज्ञम् एवास्मिंस् तत् प्रतिमुञ्चति। अथो आहुः पञ्चपुष्करैव स्याद् इति। पांक्तो यज्ञः। पांक्ताः पशवः। पशवो यज्ञः। यज्ञम् एवास्मिंस् तत् प्रतिमुञ्चति। अथो आहुश् चतुष्पुष्करैव स्याद् इति। चतस्रो दिशः। चतुष्पदाः पशवः। पशवो यज्ञः। यज्ञम् एवास्मिंस् तत् प्रतिमुञ्चति। अथो आहुस् त्रिपुष्करैव स्याद् इति. त्रिषवणो यज्ञः। यज्ञम् एवास्मिंस् तत् प्रतिमुञ्चति। तद् उ वा आहुर् द्वादशपुष्करैव स्याद् इति। द्वादशसु वावैतानि सर्वाणि। तस्माद् द्वादशपुष्करैव स्याद् इति- जै ,२००

प्रतिष्ठा वै पुष्करपर्णमियं वै पुष्करपर्णमियमु वै प्रतिष्ठा यो वा अस्यामप्रतिष्ठितोऽपि दूरे सन्नप्रतिष्ठित एव स रश्मिभिर्वा एषोऽस्यां प्रतिष्ठितोऽस्यामेवैनमेतत्प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापयति - ७.४.१.१२

२. इन्द्रो वृत्र हत्वा नास्तृषीति मन्यमानोऽपः प्राविशत्ता अब्रवीद्बिभेमि वै पुरं मे कुरुतेति

स यो ऽपा रसमासीत्तमूर्ध्व समुदौहंस्तामस्मै पुरमकुर्वंस्तद्यदस्मै पुरमकुर्वंस्तस्मात्पष्करं

पूष्कर ह वै तत्पुष्करमित्याचक्षते परोऽक्षम् । माश ,,,१३

३. इन्द्रो वृत्रमहंस्तस्येयं (पृथिवी) चित्राण्युपैद्रूपाण्यसौ ( द्यौः ) नक्षत्राणामवकाशेन पुण्डरीकञ्जायते यत् पुष्करस्रजं प्रतिमुञ्चते वृत्रस्यैव तद्रूपं क्षत्रम् प्रतिमुञ्चते । तां १८,,

४. ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे । गो ,,१६

[र- अप्- १०३  माश ७.३.१.९, ६.४.२.२, ७.४.१.८

त्रियुते शाकवर्षे तु चतुर्भिः शेषिते क्रमात् । आवर्त्तं विद्धि संवर्त्तं पुष्करं द्रोणमम्बुदम् । आवर्त्तो निर्जलो मेघः संवर्त्तश्च बहूदकः । पुष्करो दुष्करजलो द्रोणः शस्यप्रपूरकः - ज्योतिस्तत्त्वम् ।

पुष्कर-पर्ण

१. अपा ह्येतत् पृष्ठं, योनिरग्नेः । क ३१,७ ।

२. इयं (वै [माश..) पुष्करपर्णम् (पृथिवी)। काठ १९,; क ३०,; माश ७,,, १२।।

३.  तदुत्तरं कृष्णाजिनादुपस्तृणाति । यज्ञो वै कृष्णाजिनमियं वै कृष्णाजिनमियमु वै यज्ञोऽस्यां हि यज्ञस्तायते द्यौष्पुष्करपर्णमापो वै द्यौरापः पुष्करपर्णमुत्तरो वा असावस्यै माश ,,,

४. न पुष्करपर्णानि हिरण्यं वाधितिष्ठेत् ( आरुणकेतुकचित् )। एतस्याग्नेरनभ्यारोहाय । तैआ

,२६,

५. प्रतिष्ठा वै पुष्करपर्णम् । माश ७,,,१२ ।

६. अथैनं(मृदं) पुष्करपर्णे सम्भरति । योनिर्वै पुष्करपर्णं योनौ तद्रेतः सिञ्चति यद्वै योनौ रेतः सिच्यते तत्प्रजनिष्णु भवति तन्मन्त्रेणोपस्तृणाति वाग्वै मन्त्रो वाक्पुष्करपर्णम्। माश ,,, ;

अथ कृष्णाजिनं च पुष्करपर्णं च समुद्गृह्णाति । योनिर्वै पुष्करपर्णं योन्या तद्रेतः सिक्तं समुद्गृह्णाति ६.४.३,,  

यद्वेव गार्हपत्यमुपदधाति । योनिर्वै पुष्करपर्णमथ वा एष बहिर्योनि चितो भवति बहिर्द्धो वा एतद्योनेरग्निकर्म यत्पुरा पुष्करपर्णात् – माश ,,,

७. वाक् पुष्करपर्णम् । माश ६, , , ७ ॥

ते वा एते। उभे एष च रुक्म एतच्च पुष्करपर्णमेतं पुरुषमपीत उभे ह्यृक्सामे यजुरपीत एवम्वेकेष्टकः माश १०.५.२.२२

तस्यैते प्रतिष्ठे रुक्मश्च पुष्करपर्णं चापश्चादित्यमण्डलं च – माश १०.५.४.१५

[र्ण- अग्नि- ६६७ तैसं ५.१.४.२, २.६.५, मै ३.१.५, २.६

अपाम् पृष्ठम् असीति पुष्करपर्णम् आ हरत्य् अपां वा एतत् पृष्ठं यत् पुष्करपर्ण रूपेणैवैनद् आ हरति पुष्करपर्णेन सम् भरति योनिर् वा अग्नेः पुष्करपर्ण सयोनिम् एवाग्नि सम् भरति  - तैसं ...,

यद् अश्वम् आक्रमयति प्रजापतिनैवाग्निं चिनुते पुष्करपर्णम् उप दधाति योनिर् वा अग्नेः पुष्करपर्णम् । सयोनिम् एवाग्निं चिनुते । - तैसं ५.२..,

६६ माश ६.४.१.९,

यदेतन्मण्डलं तपत्ययं स रुक्मोऽथ यदेतदर्चिर्दीप्यत इदं तत्पुष्करपर्णमापो ह्येता आपः पुष्करपर्णमथ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषोऽयमेव स योऽयं हिरण्मयः पुरुषः - १०...

आपो वा इदमासन्त्सलिलमेव । स प्रजापतिरेकः पुष्करपर्णे समभवत् । तस्यान्तर्मनसि कामः समवर्तत । इदँ सृजेयमिति । तस्माद्यत्पुरुषो मनसाऽभिगच्छति । तद्वाचा वदति । तत्कर्मणा करोति ।  तैआ .२३. ;

१०३; -

गन्ध- २ मै ४.२.१३ ;

 तपस्- २२ तैआ १.२५.१;

दिव्- २८ तैसं ५.१.४.३ द्र.] ।

पुष्कर-साद- कलविङ्क- २ मै ३.१४.१२ द्र.।

पुष्कल-,> पौष्कल ( सामन् )

१. अथैतत्पौष्कलमेतेन वै प्रजापतिः पुष्कलान्पशूनसृजत तेषु रूपमदधाद्यदेतत्साम भवति

पशुष्वेव रूपं दधाति । तां , ,

२. तदेतत्पशव्यं साम... यदु पुष्कल आङ्गिरसो ऽपश्यत् तस्मात् पौष्कलम् इत्याख्यायते ।

जै , १६०

३. तान् (पशून्) एकरूपान् (प्रजापतिः) न व्यजानात् स एतत् पौष्कलं सामापश्यत्

तेनैषां रूपाणि व्यकरोत् । ते नानारूपा अभवन् ....। एकरूपा ह वाव ते ततः परास्

रोहिता एव । जै , १६०

अथ य एषोऽन्तरे हृत्पुष्कर एवाश्रितोऽन्नमत्ति स एषोऽग्निर्दिवि श्रितः सौरः कालाख्योऽदृश्यः सर्वभूतान्यन्नमत्तीति। कः पुष्करः किंमयो वेति। इदं वाव तत्पुष्करं योऽयमाकाशोऽस्येमाः चतस्रो दिशश्चतस्र उपदिशो दलसंस्था आसम्। अर्वाग्विचरत एतौ प्राणादित्या एता उपासीतोमित्येतदक्षरेण व्याहृतिभिः सावित्र्या चेति ॥ मैत्रायण्युपनिषत् ६.२

यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यत इति – छां.उ. ४.१४.३

आधत्त पितरो गर्भं(वा.सं. २.३३) कुमारं पुष्करस्रजम्। यथेह पुरुषो ऽसदिति तं पत्नी प्राश्नाति। पुमांसं ह जानुका भवतीति विज्ञायते। - आप.श्रौ.सू. १.१०.१०

यदश्विनावितीमे ह वै द्यावापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनाविमे हीदं सर्वमाश्नुवातां पुष्करस्रजौ इत्यग्निरेवास्यै पुष्करमादित्योऽमुष्यै माश ४.१.५.१६

गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि सरस्वति ।
गर्भं ते अश्विनौ देवावा धत्तां पुष्करस्रजा ॥ऋ. १०.१८४.

कृष्णाजिनेन संभरति यज्ञो वै कृष्णाजिनं यज्ञेनैव यज्ञँ संभरत्यस्कन्दाय हि यज्ञे यज्ञस्स्कन्दत्येतद्वै ब्रह्मणो रूपं यत् कृष्णाजिनं ब्रह्मणा चैवैनमृक्सामाभ्यां संभरति शर्म स्थो वर्म स्थ इति सँस्तृणातीयं वै पुष्करपर्णमसौ कृष्णाजिनम। काठ १९.

वरुणस्य वै सुषुवाणस्य भर्गोऽपाक्रामत् स त्रेधापतद्भृगुस्तृतीयमभवच्छ्रायन्तीयं तृतीयमपस्तृतीयं प्राविशत् यद्भार्गवो होता भवति तेनैव तदिन्द्रियं वीर्यमाप्त्वावरुन्धे यत् श्रायन्तीयं ब्रह्मसाम भवति तेनैव तदिन्द्रियं वीर्यमाप्त्वारुन्धे यत् पुष्करस्रजं प्रतिमुञ्चते तेनैव तदिन्द्रियं वीर्यमाप्त्वावरुन्धे....... यत् पुष्करस्रजं प्रतिमुञ्चते वृत्रस्यैव तद्रूपं क्षत्रं प्रतिमुञ्चते द्वादश पुष्करा भवन्ति द्वादश मासाः संवत्सरः संवत्सरेऽन्तर्भूतं च भव्यं च भूतेन चैवैनं भव्येन च समर्धयति – तांब्रा. १८.९

 

The origin of the puraanic contexts of lord Brahmaa as the presiding deity of Pushkara can be traced into a verse of Rigveda which states that fire manifested due to the churning of Pushkara by Atharvaa. According to Dr. Fatah Singh, word atharvaa signifies coming down to conscious state from abstract trance. This atharvaa is able to rejuvenate the mortal human consciousness. It is a guess that what has been said through Atharvaa in Rigveda , it has been transformed into Brahmaa, the lord of manifestation, in puraanic literature. Word Pushkara may mean formation of a protective field around oneself, an armor. In somayaaga, there are mainly 16 priests, out of which a priest named Brahmaa is the main priest associated with Atharva veda. He is always sitting beside the yajamaana in yaaga. Priest Brahmaa is supposed to quietly chant mantras of Atharvaveda. When puraanic texts talk of lord Brahmaa as the yajamaana himself in the yaaga at Pushkara, it seems that what was a duality of Brahmaa and yajamaana in soma yaaga, it has been converted into a unity in puraanas. But at the same time, there is mention of sage Naarada becoming the Brahmaa priest in the yaaga at Pushkara.

          One puraanic text states that in the beginning, there was an all pervading force called Shiva. From this appeared an egg with confined dimensions. From this egg appeared lord Brahmaa. This again confirms the Atharvaa nature of lord Brahmaa.

          There is frequent mention of three levels of Pushkara region – eldest, middle and lower. The origin of this classification is yet to be traced in vedic literature. Puraanic texts state signs of these three regions. In eldest region, there is appearance of a lotus facing upwards. In middle region, the lotus is facing horizontally. In lower region, the lotus is facing downwards. In yoga texts, there is frequent reference of the highest lotus chakra, called thousand petal lotus chakra, facing downwards. A lotus facing horizontally is not known. Other lotus chakras have an upward face. Puraanic texts further state what is to be donated in these three regions. One is supposed to donate a cow in the eldest region, earth/vast expanse in middle region and gold in lower region. Cow means the most awakened state of life forces, in other words, the sun at noon.

          Puraanic texts talk of a lotus in the center of which there appears a man having the size of a thumb. It seems that lord Brahmaa in Pushkara is symbolic of this thumb size person. This person will control the surrounding web, while the web itself should also contribute to the person. What may the quality of this web or the lower leaf of this lotus, has been stated in an upanishada. Just as water does not stick to lotus leaf, in the same way sins should not affect ( to whom?, to thumb size person?). 

          It can be guessed that there may be several stage of Pushkara with different types of thumb persons situated in these. This situation is most akin to what has been said by Rajaneesha in Seven Bodies Seven Chakras.

 First published : 12 - 1- 2008AD( Pausha Shukla 4, Vikramee Samvat 2064)

The origin of the puraanic contexts of lord Brahmaa as the presiding deity of Pushkara can be traced into a verse of Rigveda which states that fire manifested due to the churning of Pushkara by Atharvaa. According to Dr. Fatah Singh, word atharvaa signifies coming down to conscious state from abstract trance. This atharvaa is able to rejuvenate the mortal human consciousness. It is a guess that what has been said through Atharvaa in Rigveda , it has been transformed into Brahmaa, the lord of manifestation, in puraanic literature. Word Pushkara may mean formation of a protective field around oneself, an armor. In somayaaga, there are mainly 16 priests, out of which a priest named Brahmaa is the main priest associated with Atharva veda. He is always sitting beside the yajamaana in yaaga. Priest Brahmaa is supposed to quietly chant mantras of Atharvaveda. When puraanic texts talk of lord Brahmaa as the yajamaana himself in the yaaga at Pushkara, it seems that what was a duality of Brahmaa and yajamaana in soma yaaga, it has been converted into a unity in puraanas. But at the same time, there is mention of sage Naarada becoming the Brahmaa priest in the yaaga at Pushkara.

          One puraanic text states that in the beginning, there was an all pervading force called Shiva. From this appeared an egg with confined dimensions. From this egg appeared lord Brahmaa. This again confirms the Atharvaa nature of lord Brahmaa.

          There is frequent mention of three levels of Pushkara region – eldest, middle and lower. The origin of this classification is yet to be traced in vedic literature. Puraanic texts state signs of these three regions. In eldest region, there is appearance of a lotus facing upwards. In middle region, the lotus is facing horizontally. In lower region, the lotus is facing downwards. In yoga texts, there is frequent reference of the highest lotus chakra, called thousand petal lotus chakra, facing downwards. A lotus facing horizontally is not known. Other lotus chakras have an upward face. Puraanic texts further state what is to be donated in these three regions. One is supposed to donate a cow in the eldest region, earth/vast expanse in middle region and gold in lower region. Cow means the most awakened state of life forces, in other words, the sun at noon.

          Puraanic texts talk of a lotus in the center of which there appears a man having the size of a thumb. It seems that lord Brahmaa in Pushkara is symbolic of this thumb size person. This person will control the surrounding web, while the web itself should also contribute to the person. What may the quality of this web or the lower leaf of this lotus, has been stated in an upanishada. Just as water does not stick to lotus leaf, in the same way sins should not affect ( to whom?, to thumb size person?). 

          It can be guessed that there may be several stage of Pushkara with different types of thumb persons situated in these. This situation is most akin to what has been said by Rajaneesha in Seven Bodies Seven Chakras.

 First published : 12 - 1- 2008AD( Pausha Shukla 4, Vikramee Samvat 2064)