PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

उत्थान

टिप्पणी : भारतीय संस्कृति में विशिष्ट अतिथि के आगमन पर उठकर खडे हो जाने और उसे दण्डवत् प्रणाम करने का प्रचलन है। उत्थान क्यों किया जाता है, इसका उत्तर यह दिया जाता है कि अतिथि के आगमन पर सारे प्राण उत्थित हो जाते हैं, उसी के प्रतीक रूप में उत्थान किया जाता है। लेकिन महाभारत सौप्तिक पर्व में अदैव उत्थान तथा दैव अनुत्थान के विवेचन से यह प्रश्न उठता है कि उत्थान स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा किया जाता है अथवा वह अतिथि द्वारा, देवशक्तियों द्वारा किया जाता है? महाभारत के विवेचन से हमें यह उत्तर मिलता है कि यद्यपि प्राणों का उत्थान स्वयं करना होता है, लेकिन जब तक देवशक्तियां उसमें सहायक न हों, वह व्यर्थ होता है।

     प्राणों के उत्थान का क्या तात्पर्य है, इसका संकेत ऐतरेय ब्राह्मण ७.२९ से मिलता है जहां कहा गया है कि शूद्र व्यक्तित्व काम द्वारा उत्थाप्य है। सारी जड प्रकृति उत्थान के लिए लालायित है। इसी के फलस्वरूप पेड-पौधों पर पुष्पों का विकास होता है। पुष्प प्राणों की उत्थित अवस्था है। स्वयं पेड-पौधे भी प्रकृति का उत्थान दर्शाते हैं। मनुष्य व्यक्तित्व में मुख का विकास उत्थान की इस प्रक्रिया की उच्च अवस्था है। लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा अपने व्यक्तित्व के कण-कण को पुष्पित कर दे, उसका उत्थान कर दे। जहां पुरुषार्थ का अभाव होता है, वहां उत्थान का कार्य प्रकृति की कामना शक्ति के अनुसार होता है, कामदेव के बाणों के द्वारा होता है। ऐसे व्यक्तित्व को ब्राह्मण ग्रन्थों में शूद्र या क्षुद्र, तुच्छ कहा गया है। मनुष्य द्वारा अपने व्यक्तित्व को पुष्पित करने की प्रक्रिया को वैदिक भाषा में ओदन पकाना या उदान प्राण की वृद्धि करना कहा जाता है। अथर्ववेद १२.३.३० के अनुसार पात्र के जल में जो तण्डुल नीजं पेंदी में पडे हैं, उन्हें पकाकर शृत करके पेंदी से ऊपर उठाना है। शतपथ ब्राह्मण १३.३.६.६ के अनुसार संवत्सर के १२ मासों के अनुसार १२ ब्रह्मौदनों को पकाना पडता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में तण्डुलों को पुरुष के वीर्य के समान कहा गया है। यह वास्तविकता है कि पुरुष वीर्य में ही ऐसी महिमा है कि यदि उसे शृत होने का अवसर मिल जाए तो वह पुष्प की भांति खिलता चला जाता है, ऊपर की ओर अग्रसर होता चला जाता है। शतपथ ब्राह्मण ३.८.३.३० में उत्थित होने वाली वस्तु को मेध नाम दिया गया है। इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद १.१२३.१ व ७.७७.२ आदि में उषा के उत्थान का, २.३८.४, ६.७१.४ व ८.२७.१२ आदि में सविता देव के उत्थान का तथा अथर्ववेद ९.७.१९ में अश्विनौ के उत्थान का उल्लेख है। लेकिन शतपथ ब्राह्मण ६.४.३.९ तथा जैमिनीय ब्राह्मण १.११ व २.२३ आदि का कथन है कि आसीन होने वाले/शयन करने वाले देवों में अग्नि श्रेष्ठ है, जबकि उत्थान करने वाले देवों में आदित्य श्रेष्ठ है। गोपथ ब्राह्मण २.४.११ के अनुसार ५ देवता प्राणों के उत्थापन में भाग लेते हैं अग्नि वाक् का उत्थापन करता है, वरुण प्राण का, इन्द्र मन का, बृहस्पति चक्षु का तथा विष्णु श्रोत्र का। इस कथन का व्यावहारिक रूप अन्वेषणीय है।

     उपनिषदों में उत्थान की प्रक्रिया के यौगिक पक्ष पर विचार किया गया है। योगतत्त्वोपनिषद १२१, जाबालदर्शनोपनिषद ६.३३ तथा हंसोपनिषद १ में अपान प्राण को उत्थित करके क्रमशः सात चक्रों की यात्रा करते हुए ब्रह्मरन्ध्र तक पहुंचने का उल्लेख है। महोपनिषद ५.३८ में भी ७ भूमिकाओं में उत्थान का उल्लेख है। शरीर के इन चक्रों को भी पुष्पों का रूप ही कहा जा सकता है। त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.१०४ तथा जाबालदर्शनोपनिषद ६.१४ व ६.४४ में उत्तम प्रकार के प्राणायाम द्वारा शरीर के उत्थान का उल्लेख है। त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.७० में सुषुम्ना, इडा, पिंगला आदि नाडियों के उत्थान का उल्लेख है। छान्दोग्य उपनिषद ७.८.१ में बल को तथा बृहदारण्यक उपनिषद ५.१३.१ में प्राण को उत्थाता अर्थात् उत्थान करने वाला कहा गया है। प्राण के अन्तर्गत यजु, साम तथा क्षत्र को प्राण कहा गया है।

     पुराणों में सार्वत्रिक रूप से भक्त द्वारा प्रकट हुए देवता को दण्डवत् प्रणाम करने तथा देवता द्वारा भक्त के उत्थापन का उल्लेख आता है। इन्द्रयाग में इन्द्रध्वज के उत्थापन में भी दण्ड का ही उत्थापन किया जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में उत्थापन और दण्ड का एक साथ उल्लेख केवल इस संदर्भ में आता है कि यदि अग्निहोत्र कार्य के लिए दुग्ध प्रदान करने वाली अग्निहोत्री गौ बैठ जाए तो दण्ड से उसे उत्थापन के लिए प्रेरित करते हैं कि हे अदिति, उत्थापन करो और यज्ञपति को आयु प्रदान करो आदि(शतपथ ब्राह्मण १२.४.१.९, जैमिनीय ब्राह्मण १.५९, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.३.१, ऐतरेय ब्राह्मण ७.३). दण्ड दमन के अर्थों में आता है। यह एकान्तिक साधना का प्रतीक हो सकता है, जबकि उत्थापन सार्वत्रिक साधना का। जब वृक्ष के स्कन्ध से शाखाओं और पत्तों/पर्णों को काट दिया जाता है, तब दण्ड बनता है। स्कन्द पुराण ६.२६३ के अनुसार योगी तीन दण्डों को धारण करता है मन दण्ड, वाक् दण्ड व कर्म दण्ड। मन की विजय अश्वमेध यज्ञ के तुल्य है, वाक् की विजय गोमेध यज्ञ के और कर्म/कल्पना की विजय सौत्रामणी यज्ञ के। वाक् दण्ड ब्राह्मण का अस्त्र होता है, वह वाक् द्वारा शाप और वरदान दे सकता है। यह कल्पना की जा सकती है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में जिस दण्ड द्वारा गौ के उत्थापन का उल्लेख है, वह वाक् दण्ड होगा। वैसे भी, ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि वाक् ही धेनु है। अतः यह परावाक् के उत्थापन का, परावाक् को वैखरी वाक् के स्तर तक लाने का प्रयत्न है, ऐसी वाक् जो कल्पवृक्ष की भांति हो। जब पुराणों में इन्द्रध्वज के उत्थापन का वर्णन आता है तो उसे मन दण्ड के उत्थापन के रूप में समझा जा सकता है क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्द्र का सम्बन्ध मन से कहा गया है (यद् मनः स इन्द्रः गोपथ ब्रा. २.४.११, इन्द्राय मन्युमते मनस्वते तै.सं. २.२.८.२)। श्रीकृष्ण द्वारा इन्द्रयाग के स्थान पर गोवर्धन की पूजा के निर्देश को समझने में भी यह तथ्य उपयोगी हो सकता है। भविषय पुराण ३.४.२५.१६५ में गोकुल आदि १० ग्रामों को १० इन्द्रियों का तथा गोवर्धन को मनस् प्रकृति का प्रतीक कहा गया है। इन्द्रध्वज में ध्वज दण्ड मन के नियन्त्रण से सम्बन्धित हो सकता है, जबकि गोवर्धन पर्वत के रूप में मन को नियन्त्रित करने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है, वह इन्द्रियों रूपी गायों का वर्धन करने वाला है और उससे भी परे जाकर श्रीकृष्ण उसे धारण कर लेते हैं। कर्मदण्ड के उत्थापन को क्या पुराणों में चातुर्मास में विष्णु के शयन के पश्चात् एकादशी को उनके उत्थापन के रूप में प्रदर्शित किया गया है, यह अन्वेषणीय है। डा. फतहसिंह के अनुसार पुराणों में सांकृति मुनि के तप में वृक असुर द्वारा विघ्न और विष्णु द्वारा चातुर्मास में वृक के ऊपर शयन की कथा में सांकृति को कृति, सर्वोत्तम कर्म का प्रतीक तथा वृक को अहंकार का प्रतीक मान लेने पर विष्णु के उत्थापन को कर्म दण्ड के उत्थापन का प्रतीक कहना सरल हो जाता है। योगशिखोपनिषद १.८ तथा योगतत्त्वोपनिषद १२ में जीव में अहंकार के उत्थान के कारण काम, क्रोध, भय, मोह, क्षुधा, तृष्णा आदि आदि दोषों के उदय होने का उल्लेख आता है। यह सब वृक असुर के रूप हैं।

     स्कन्द पुराण के प्रभास खण्ड में पिप्पलाद ऋषि द्वारा कृत्या के उत्थापन और कृत्या के सूचीमुख होकर समुद्र के जल के भक्षण की कथा के संदर्भ में अथर्ववेद १०.१.२९ में भी छिपी हुई कृत्या के उत्थापन का वर्णन है।

     जैमिनीय ब्राह्मण १.३२२ तथा १.३३६ में भक्ति की प्रतिहार अवस्था के पश्चात् की अवस्था को उत्थापन करने वाली कहा गया है( हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन, यह साम की पांच अवस्थाएं हैं)। जैमिनीय ब्राह्मण २.४१८, ३.२८३ तथा ३.२९३ में द्वादशाह यज्ञ के संदर्भ में दशम अह को उत्थापन करने वाला अह कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७९ में दस दिनों की क्रमिक अवस्थाओं का वर्णन किया गया है।

     अथर्ववेद सूक्त १५.२ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि आसीन स्थिति और उत्थान स्थिति के बीच एक उदतिष्ठन् स्थिति है (तुलनीय : भागवत पुराण ३.२६.५१ में विराट् का उदतिष्ठन्) जिसमें अन्तरिक्ष में दिशाओं में क्रमण किया जाता है। वैदिक साहित्य में उदतिष्ठन् स्थिति का विस्तृत उल्लेख आता है जिसे इस टिप्पणी में सम्मिलित नहीं किया गया है।

प्रथम प्रकाशन : १९९९ ई.

संदर्भ

१कृष्णादुदस्थादर्या विहायाश्चिकित्सन्ती मानुषाय क्षयाय ॥ (उषा) - ऋग्वेद १.१२३.१

२उदु ष्य देवः सविता सवाय शश्वत्तमं तदपा वह्निरस्थात्। - ऋ.२.३८.१

३उत संहायास्थाद् व्यृतूंरदर्धररमतिः सविता देव आगात् ॥ - ऋ.२.३८.४

४ऊर्ध्व ऊ षु णो अध्वरस्य होतरग्ने तिष्ठ देवताता यजीयान्। - ऋ.४.६.१

५स्तीर्णे बर्हिषि समिधाने अग्ना ऊर्ध्वो अध्वर्युर्जुजुषाणो अस्थात्। - ऋ.४.६.४

६आ भात्यग्निरुषसामनीकमुद् विप्राणां देवया वाचो अस्थुः।। (अश्विनौ) - ऋ.५.७६.१

७उदु श्रिय उषसो रोचमाना अस्थु रपां नोर्मयो रुशन्तः। -ऋ.६.६४.१

८उदु ष्य देवः सविता दमूना हिरण्यपाणिः प्रतिदोषमस्थात्। - ऋ.६.७१.४

९उदस्य शोचिरस्थादाजुह्वानस्य मीळ्हुषः। उद् धूमासो अरुषासो दिविस्पृश समग्निमिन्धते नरः ॥ - ऋ.७.१६.३

१०उद् वां पृक्षासो मधुमन्तो अस्थुरा सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णः। - ऋ.७.६०.४

११विश्वं प्रतीची सप्रथा उदस्थाद् रुशद् वासो बिभ्रती शुक्रमश्वैत्। (उषसः) - ऋ.७.७७.२

१२उदु ष्य वः सविता सुप्रणीतयो ऽस्थादूर्ध्वो वरेण्यः। - ऋ.८.२७.१२

१३उत् ते शुष्मासो अस्थू रक्षो भिन्दन्तो अद्रिवः। नुदस्व याः परिस्पृधः ॥ (पवमान सोम) - ऋ.९.५३.१

१४इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम्। महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥ - ऋ.१०.१०३.९

१५अतो भूरत आ उत्थितं रजो ऽतो द्यावापृथिवी अप्रथेताम् ॥ - ऋ.१०.१४९.२

१६ये ऽमावास्यां रात्रिमुदस्थुर्व्राजमत्रिण:। अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि ब्रवत्॥ - अथर्ववेद १.१६.१

१७इदं हव्यं संविदानौ जुषेथां शुनं नो अस्तु चरितमुत्थितं च ॥ - अ.३.१५.४

१८आ पर्जन्यस्य वृष्टयोदस्थामामृता वयम्। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥ - अ.३.३१.११

१९दर्भः पृथिव्या उत्थितो मन्युशमन उच्यते। - अ.६.४३.२

२०विषाणका नाम वा असि पितॄणां मूलादुत्थिता वातीकृतनाशनी - अ.६.४४.३

२१मा घोषा उत् स्थुर्बहुले विनिर्हते मेषुः पप्तदिन्द्रस्याहन्यागते। - अ.७.५२.२/७.५४.२

२२गुदा आसन्त्सिनीवाल्याः सूर्यायास्त्वचमब्रुवन्। उत्थातुरब्रुवन् पद ऋषभं यदकल्पयन् ॥ अ.९.४.१४

२३अग्निरासीन उत्थितोऽश्विना। इन्द्रः प्राङ् तिष्ठन् दक्षिणा तिष्ठन् यमः। (गौ) - अ.९.७.१९

२४अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः। यत्रयत्रासि निहिता ततस्त्वोत्थापयामसि पर्णाल्लक्षीयसी भव। - अ.१०.१.२९

२५उत्थापय सीदतो बुध्न एनानद्भिरात्मानमभि सं स्पृशन्ताम्। अमासि पात्रैरुदकं यदेतन्मितास्तण्डुलाः प्रदिशो यदीमाः ॥ (स्वर्गौदनः) - अ.१२.३.३०

२६अवः परेण पर एनावरेण पदा वत्सं बिभ्रती गौरुदस्थात् ॥ - अ.१३.१.१४

२७महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात्। - अ.१९.१३.१०

२८ग्रामणीरसि ग्रामणीरुत्थायाभिषिक्तो ऽभि मा सिञ्च वर्चसा। (औदुम्बर मणिः) - अ.१९.३१.१२

२९महामत्स्य द्वारा प्रलय में मनु की सहायता :अथ इतिथीं समां तदौघ आगन्ता, तन्मा नावमुपकल्प्योपासासै, स औघ उत्थिते नावमापद्यासै, ततस्त्वा पारयितास्मि। - - - - स औघ उत्थिते नावमापेदे। - शतपथ ब्रा.१.८.१.४

३०इतो वाऽअयमूर्ध्वो मेध उत्थितः, यमस्या इमं रसं प्रजा उपजीवन्ति, अर्वाचीनं दिवः। रसो वै वसाहोमः। रसो मेधः। रसेनैवैतद्रसं तीव्रीकरोति। - मा.श.३.८.३.३०

३१सत्रोत्थानम् :- - - -या ह दीक्षा - सा निषत्, तत्सत्रम्, तदयनम्, तत्सत्रायणम्। अथ यत्ततो यज्ञस्योदृचं गत्वोत्तिष्ठन्ति - तदुत्थानम्। तस्मादेनानुदस्थुरित्याहुः - इति नु पुरस्ताद्वदनम्। - मा.श.४.६.८.२

३२अथैनमादायोत्तिष्ठति। असौ वाऽआदित्यः एषोऽग्निः। अमुं तदादित्यमुत्थापयति। उदु तिष्ठ स्वध्वर। अध्वरो वै यज्ञः। उदु तिष्ठ सुयज्ञियेत्येतत्। - मा.श.६.४.३.९

३३अथैनां (उखां) उद्यच्छति - उत्थाय बृहती भव इति। उत्थाय हीमे लोका बृहन्तः। उदु तिष्ठ ध्रुवा त्वम् इति। उदु तिष्ठ स्थिरा त्वं प्रतिष्ठितेत्येतत्। - मा.श.६.५.४.१३

३४मण्डलपुरुषोपासनं ब्राह्मणम् : तमेतमग्निरित्यध्वर्यव उपासते यजुः - इति एष हीदं सर्वं युनक्ति। साम - इति छन्दोगाः - - - -। उक्थमिति बह्वृचाः, एष हीदं सर्वमुत्थापयति। - - - -मा.श.१०.५.२.२०

३५द्वादश ब्रह्मौदनानुत्थाय निर्वपति। द्वादशभिर्वेष्टिभिर्यजते। - - - - प्रजापतिर्वा ओदनः। प्रजापतिः संवत्सरः। - - - - मा.श.१३.३.६.६

३६एतस्यां उक्तायां उत्थाय सदसो अधि प्राञ्चो यजमानमभ्यायेति। - - - -मा.श.१३.५.२.१६

३७अग्निहोत्र :अथ यद् एते प्रातराहुती जुहोत्य् उत्थापयत्य् एवैनं ताभ्याम्। स यथा हस्ती हरत्यासनम् उपयद् आसीनम् आदायोत्तिष्ठेद् एवम् एवैषा देवतैतद् विद्वांसं जुह्वतम् आदायोदेति। - जै.ब्रा.१.११

३८ते होत्थाय प्रवव्रजुर् नमो ऽस्मै ब्राह्मणायास्तु विदां वा अयम् इदं चकारेति - जै.ब्रा.१.७५

३९अथ मैधातिथम्। काण्वायनास् सत्राद् उत्थायायन्त आयुञ्जानाः। - - - -जै.ब्रा.१.२२६

४०- - - स यद् ऊर्ध्वं प्रतिहाराद् उद्गृह्णाति तद् उत्थापयतीति। - - - -जै.ब्रा.१.३२२, १.३३६

४१अग्निं देवतानां दीक्षमाणा अनुनिषीदन्त्य् आदित्यम् अनूत्तिष्ठन्तीति। - - - - -जै.ब्रा.२.२३

४२तान् उक्थैर् उत्थापयति। तद् उक्थानां उक्थत्वम् - जै.ब्रा.२.२४

४३स यद् एवास्मिन् दीक्षिते यशो भवति, तद् अस्मिन् उत्थिते यशो भवति। - जै.ब्रा.२.६८

४४अथैष पुनस्तोमः। स हायम् ऋषिर् आगत्य न शशाकोत्थातुम् असुराशनेन। गरो हैनम् आविवेश, - - - -जै.ब्रा.२.८३

४५पोषयिष्णुर् वैश्यो रयिमान्, उत्थाता शूद्रो दक्षः कर्मकर्ता - - - - जै.ब्रा.२.२६६

४६तस्यै हायःकूटहस्तं गन्धर्वम् ईर्ष्युम् उत्थापयांचकार। - जै.ब्रा.२.२७०

४७तद् आहुर् न दीक्षितेनासन्द्य् अधिरुह्येति। उत्थिता ह खलु वा एतद् अहर् आगच्छन्ति। यद् वावादो दशमम् अहस् तद् एवोक्थानि। -- - - -जै.ब्रा.२.४१८

४८ते य एवं विद्वांसो ऽभिप्लवम् उपयन्ति सहस्रसनयो हैवोत्थिता भवन्ति। - जै.ब्रा.२.४४२

४९उच्चा ते जातम् अन्धसेत्य् उद्वतीर् उत्थानीये ऽहन् भवन्त्य् अथो स्वर्गस्यैव लोकस्याभ्युत्क्रान्त्यै। स्वर्गो ह्य् एष लोको यद्दशमम् अहः। - जै.ब्रा.३.२८३

५०अथैता भवन्ति आ जागृविर् विप्र ऋतं मतीनां इत्य् आवतीर् उत्थानीये ऽहन्। यत् प्रवतोः कुर्युः पराञ्चो अतिपद्येरन्। -- - - - तद् आहुर् अपेव वा एते भ्रंशन्ते य आवतीर् उत्थानीये ऽहन् कुर्वन्तीति। - - - जै.ब्रा.३.२९१

५१उद् उ त्ये मधुमत्तमा इत्य् उद्वतीर् उत्थानीये ऽहन् भवन्त्य्, अथो स्वर्गस्यैव लोकस्याभ्युत्क्रान्त्यै। स्वर्गो ह्य् एष लोको यद्दशमम् अहः। - जै.ब्रा.३.२९३

५२अथ यद् धा इत्य् एष हीदं सर्वं हरति। स एष एवोक्थम्। एष हीदं सर्वम् उत्थापयतीव। - जै.ब्रा.३.३७९

 ५३ते होचुः - देवा म्लानो ऽयं पिता मयोऽभूः। पुनरिमं समीर्योथापयामेति - गोपथ ब्रा.२.४.१२

५४छन्दोभिधेष्टकाभिधानम् : उदस्य शोचिरस्थादाजुह्वान मीळुषः। - तैत्तिरीय संहिता ४.४.४.५

५५अप्रतिरथ सूक्ताभिधानम् : महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात्। - तै.सं.४.६.४.३

५६अश्वमेध मन्त्र : उत्थास्यते स्वाहोत्तिष्ठते स्वाहोत्थिताय स्वाहा - - तै.सं.७.१.१९.३

५७षड्रात्रकथनम् : यदा दश शतं कुर्वन्त्यथैकमुत्थानं शतायुः पुरुषः शतेन्द्रिय आयुष्येवेन्द्रिये प्रतितिष्ठन्ति यदा शतं सहस्रं कुर्वन्त्यथैकमुत्थानं सहस्रसंमितो वा असौ लोको ऽमुमेव लोकमभि जयन्ति यदैषां प्रमीयेत यदा वा जीयेरन्नथैकमुत्थानं तद्धि तीर्थम्। - तै.सं.७.२.१.४

५८द्वादशरात्र : सर्वासां वा एते प्रजानां प्राणेरासते ये सत्रमासते तस्मात्पृच्छन्ति किमेते सत्रिण इति प्रियः प्रजानां उत्थितो भवति य एवं वेद। - तै.सं.७.२.९.३

५९यो वै नः श्रेष्ठोऽभूत्। तमवधिष्म। - - - -उक्थैरुदस्थापयन्। तदुक्थानामुक्थत्वम्। - - - - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.२.८.७

६०- - - अपूतायै वाचो वदितारो यच्छ्यापर्णा इमानुत्थापयतेमे मेऽन्तर्वेदि माऽऽसिषतेति तथेति तानुत्थापयांचक्रुः। ते होत्थाप्यमाना रुरुविरे ये तेभ्यो भूतवीरेभ्योऽसित मृगाः - - - -। रामो हाऽऽस मार्गवेयो ऽनूचानः श्यापर्णीयस्तेषां होत्तिष्ठतामुवाचापि नु राजन्नित्थं विदं वेदेरुत्थापयन्तीति यस्त्वं कथं वेत्थ ब्रह्मबन्धविति। - ऐतरेय ब्राह्मण ७.२७

६१- - -यः क्षत्रस्य सोमपीथेन व्यृद्धस्य येन क्षत्रं समृध्यते कथं तं वेदेरुत्थापयन्तीति। - ऐ.ब्रा.७.२८

६२उक्थं प्राणो वा उक्थं प्राणो हीदं सर्वमुत्थापयति - - - बृहदारण्यक उपनिषद ५.१३.१

६३बलं वाव विज्ञानाद्भूयोऽपि ह शतं विज्ञानवतामेको बलवानाकम्पयते स यदा बली भवति अथोत्थाता भवति - - - - छान्दोग्योपनिषद ७.८.१

६४यथा फेनतरंगादि समुद्रादुत्थितं पुनः। समुद्रे लीयते तद्वज्जगन्मय्यनुलीयते। - जाबालदर्शनोपनिषद१०.६

६५अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य प्रणवेन शनै: शनै:। - जाबालदर्शनोपनिषद६.३३

६६कम्पनं मध्यमं विद्यादुत्थानं चोत्तमं विदुः - जाबलदर्शनोपनिषद६.१४

६७सर्वभावपदातीतं ज्ञानरूपं निरञ्जनम्। वारिवत्स्फुरितं तस्मिंस्तत्राहंकृति उत्थिता। - योगतत्त्वोपनिषद१०

६८अथ खलु प्राण एव प्रज्ञात्मेदं शरीरं परिगृह्योत्थापयति। - कौशीतकिब्राह्मणारण्यकोपनिषद३.३

६९चतुरो मासान्ध्रुवशीलतः स्यात्स यावत्सुप्तोऽन्तरात्मा पुरुषो विश्वरूपः। अन्यानथाष्टौ पुनरुत्थिते ऽस्मिन्स्वकर्मलिप्सुर्विहरेद्वा वसेद्वा। - शाट्यायनीयोपनिषद२०

७०सुप्तेरुत्थाय सुप्त्यन्तं ब्रह्मैकं प्रविचिन्त्यताम्। - वराहोपनिषद२.६४

७१मुक्तयोः संभवत्येव तुर्यातीतपदाभिधा। व्युत्थितस्य भवत्येषा समाधिस्थस्य चानघ। - अन्नपूर्णोपनिषद१.२५

७२प्रणम्य दण्डवद्भूमावुत्थाय सपुनर्मुनिः। आत्मतत्त्वमनुब्रूहीत्येवं पप्रच्छ सादरम्। - अन्नपूर्णोपनिषद१.१

७३मोघो मेऽस्त्विति चिन्ताऽन्तर्जातो चेदुत्थितं मनः। मननोत्थे मनस्येष बन्धः सांसारिको दृढः ॥ - अन्नपूर्णोपनिषद२.२४

७४अकर्तृकमरङ्गं च गगने चित्रमुत्थितम्। अद्रष्ट्रकं स्वानुभवमनिद्र स्वप्नदर्शनम्। - महोपनिषद५.५४

७५उत्थितानुत्थितानेतानिन्द्रचारीन्पुनः पुनः। हन्याद्विवेक दण्डेन वज्रेणेव हरिर्गिरीन्। - महोपनिषद६.२१

७६सर्वात्मा समरूपात्मा शुद्धात्मा त्वहमुत्थितः। - तेजोबिन्दूपनिषद४.३४

७७उत्थाय प्रणिपत्येशं त्यक्त्वाशेष परिग्रहः। परब्रह्मपयोराशौ प्लवन्निव ययौ तदा। - शुकरहस्योपनिषद१९

७८उत्थाप्य गां प्रयत्नेन गायत्र्या मूत्रमाहरेत्। - बृहज्जाबालोपनिषद३.६

७९अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य योनिबन्धोऽयमुच्यते। - योगतत्त्वोपनिषद१२१

८०गुदमवष्टभ्याधारात्रयुमुत्थाप्य स्वाधिष्ठानं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य - - - -हंसोपनिषद१

८१आचारमाचरन्त्येव सुप्तबुद्धवदुत्थिताः। - महोपनिषद ५.३८

८२उदुम्बराः प्रातरुत्थाय यां दिशमभि प्रेक्षन्ते तदाहृतोदुम्बर बदर नीवारश्यामाकैरग्निपरिचरणं कृत्वा - - - आश्रमोपनिषद३

८३नोत्थापयेत् सुखासीनं शयानं न प्रबोधयेत्। आसीनो गुरुमासीनमभिगच्छेत् प्रतिष्ठितम् ॥ - शिवोपनिषद७.३१

८४यदुत्थितं भवति तत्सर्वं शमय शमय स्वाहा। - वनदुर्गोपनिषद