PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

Literal meaning of Uttaraayana is "later creation of a safe haven". It means that the first stage is the earlier creation of a safe haven, which is called Dakshinaayana. This can be understood in the way that efforts to eliminate the fear of death is Dakshinaayana. Several upanishadic texts state that the situation of a thousand headed person is the state of Uttaraayana/uttarayana. From yoga point of view, acquiring the state of third eye is the state of Dakshinaayan, while reaching into thousand petal chakra is the state of Uttaraayana. This is state of vast expanse of consciousness.  In broader sense, we can include the states of ten and hundred heads also in the category of transition from Dakshinaayana to Uttaraayana. In the story of Raamaayana, there are two characters connected with ten - Dashamuka and Dasharatha. This may be a transition to later state. The earlier state may be Daksha mukha and Daksha ratha, or efficient mouth and efficient chariot. So, creating efficiency comes in the earlier state. Spreading this efficiency throughout comes in later state.  The story of Raamaayana indicates that slaying of demon Dashamukha in Lankaa may fall in the first stage, while performing of Ashvamedha sacrifice after returning from forests is the later state. Ashvamedha and human sacrifice  are  the last of all the sacrifices. And Ashvamedha has been equated with Uttaraayana. This means that all the sacrifices earlier than Ashvamedha will fall into the category of earlier state - Dakshinaayana. 

    One upanishadic text states that the rituals being performed while living in a village fall under Dakshinaayana, while those which can be performed only after going in a forest fall under Uttaraayana. It has been stated that our senses are the village, and crossing this state of village by dissolving these senses gradually in mind, mind in inner voice, voice in Omkaara etc. leads to the later state.

    The story of Bheeshma throws a new light on the meaning of Uttaraayana. For the first time the concept of freedom from fear of death has been introduced. This is the first stage. Fear of death may be in the form of thirst, hunger etc., our basic needs which shake our very existence. After this comes the later stage - Uttaraayana, about which not much has been said in the story.

    Uttaraayana is also called the udaka - ayana, which means that waters become a safe haven (for whom?, perhaps the sun). At Uttaraayana,  the sun starts it's transition to 3 zodialcal signs which reside in water - Capricorn, Aquarius and Pisces. This means that when the waters/life forces become a safe haven for the sun, the higher consciousness, that is the state of Uttaraayana. In vedic hymns, there is a hymn whose seer is Naaraayana and the deity is man. Here Naaraayana also means the consciousness for whom the waters have become a safe haven to reside. Detailed comments on Satyanaaraayana  can be seen.

First published : 1999 AD; published on internet : 13-1-2008 AD( Pausha Shukla Panchamee, Vikramee Samvat 2064)

उत्तरायण

टिप्पणी : पुराणों में मुख्य रूप से तीन आख्यानों को दक्षिणायन - उत्तरायण से सम्बद्ध किया जा सकता है : एक तो दक्ष के यज्ञ में सती का भस्म होना और पुनः हिमवान व मेना की पुत्री के रूप में जन्म लेकर शिव को प्राप्त करना । दूसरा आख्यान महाभारत में भीष्म के दक्षिणायन में युधिष्ठिर से संवाद और उत्तरायण आरम्भ होने पर मृत्यु होने का है । तीसरा आख्यान पूरी रामायण की कथा है । इसके अतिरिक्त मृग द्वारा ब्राह्मण की अरणि व मन्थ के हरण और युधिष्ठिर - यक्ष संवाद को भी दक्षिणायन - उत्तरायण से सम्बद्ध माना जा सकता है । इस अनुक्रमणिका के अन्वाहार्य शब्द शीर्षक के अन्तर्गत उल्लेख आता है कि वीरभद्र द्वारा दक्ष के सिर की आहुति दक्षिणाग्नि में दे दी गई । दक्ष प्रजापति का मार्ग दक्षता प्राप्त करने का मार्ग है - प्राणों की दक्षता प्राप्त करना , किस प्रकार प्राण हमारे लिए आनन्ददायी बनें । बौद्ध मार्ग की विपश्यना साधना के अन्तर्गत वर्णन आता है कि बाहर जाने वाला श्वास भी आनन्दकारक हो गया है , भीतर जाने वाला भी । पुराणों की कथा यह संकेत करती है कि यद्यपि इस स्थिति में सती रूपी ओंकार वाक् की पुत्री रूप में प्राप्ति की जा सकती है , लेकिन यह स्थिति शिव के कल्याणकारी रूप को नहीं देख पाती , केवल भयंकर रूप को ही देख पाने में समर्थ होती है । यह दक्षिण अयन है । उत्तर अयन वह है जब ओंकार वाक् मेना रूपी मन की शक्ति की पुत्री रूप में जन्म लेती है । यज्ञ कार्य में ब्रह्मा नामक ऋत्विज दक्षिण दिशा में स्थित होकर मन से अथर्ववेद का जप करता रहता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि मन ही ब्रह्मा है , अर्थात् मन ब्रह्मा बन सकता है । उत्तर दिशा में उद्गाता नामक ऋत्विज साम गान करता है । ब्रह्मा और उद्गाता ऋत्विजों को दक्षिणायन व उत्तरायण से कैसे सम्बद्ध किया जा सकता है , यह अन्वेषणीय है ।

          महाभारत में भीष्म को दक्षिणायन से सम्बद्ध करके महाभारतकार ने वैदिक रहस्यों को आश्चर्यजनक रूप से उद्घाटित किया है । भीष्म का अर्थ ऐसे किया जा सकता है कि भी - शम् , जिसने भय का शमन कर लिया हो । जब देवव्रत ने पिता शन्तनु के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने की प्रतिज्ञा की तो पिता ने उसे वर दिया कि वह स्वच्छन्द मृत्यु प्राप्त कर सकेगा , अर्थात् अब उसे मृत्यु से भय नहीं रहेगा । दक्षिणायन को भय के शमन की , मृत्यु से भय के शमन की प्रक्रिया कहा जा सकता है । अयन का अर्थ ही यह होता है कि जहां कोई भय न रहे , चारों ओर से कवच का निर्माण हो गया है , जैसे स्वस्ति - अयन । उत्तर अयन का आरंभ भी-शम्(भीष्म) के पश्चात् होता है । उत्तर अयन के रूप में पुराणों में शमी वृक्ष में अश्वत्थ वृक्ष की उत्पत्ति होने का सार्वत्रिक कथन आता है , जैसे पुरूरवा - उर्वशी की कथा में । इन दोनों वृक्षों की अरणियां बनाकर मन्थन करने पर अग्नि प्रकट होती है । अश्वत्थ वृक्ष के स्वरूप को समझने के लिए अश्वत्थ शब्द पर टिप्पणी पठनीय है । अश्वत्थ को विराट पुरुष के रूप में समझ सकते हैं । नारद परिव्राजकोपनिषद ७.१ , त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषद तथा श्वेताश्वरोपनिषद ३.८ आदि के अनुसार सहस्रशीर्षा पुरुष की स्थिति ही उत्तरायण है । उस स्थिति में अपने और पराये में कोई भेद नहीं रह जाता , सब कुछ विराट पुरुष के अन्दर समाहित हो जाता है । बृहदारण्यक उपनिषद ६.२.९ तथा छान्दोग्योपनिषद ५.४.१ में अर्चि व धूम का वर्णन करते हुए संभवतः इसी सहस्रशीर्षा पुरुष को प्रकट करने की क्रियाविधि को दर्शाया गया है । श्वेताश्वरोपनिषद ३.१३ से प्रतीत होता है कि उत्तरायण स्थिति में एक ओर आत्मा में अङ्गुष्ठ मात्र पुरुष का अस्तित्व रहता है तो दूसरी ओर परमात्मा के सहस्रशीर्षा स्वरूप को व्यक्त करने की सामर्थ्य भी रहती है । भीष्म की उत्तरायण में मृत्यु को अहंकार के विसर्जन के रूप में समझ सकतेहैं ( त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद १६ ) । चूंकि दक्षिणाग्नि को पुराणों में तीसरे चक्षु का रूप दिया गया है जो आज्ञा चक्र के अन्तर्गत आता है , अतः सहस्रशीर्षा पुरुष की स्थिति को सिर में सहस्रार चक्र के उद्घाटन की स्थिति कहा जा सकता है ।

          जिस प्रकार भागवत पुराण में इष्टापूर्त कर्म आदि द्वारा दक्षिणायन मार्ग प्राप्त होने का कथन आता है , उसी प्रकार का वर्णन प्रश्नोपनिषद १.९ में भी उपलब्ध है । लेकिन भागवत में तो इससे भी आगे जाकर अग्निहोत्र , दर्शपूर्ण मास , चातुर्मास आदि यज्ञों द्वारा भी दक्षिणायन प्राप्त होने का उल्लेख है । यह उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों और श्रौत सूत्रों में जहां विभिन्न यज्ञों के संदर्भ में अयन प्राप्ति होने के उल्लेख आए हैं , उनकी प्रकृति के सम्बन्ध में प्रकाश डालता है । उदाहरण के लिए दर्श - पूर्णमास यज्ञ के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण २.९८ तथा बौधायन श्रौत सूत्र १८.५३ में सूर्य व चन्द्र का अयन प्राप्त होने का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण २.२.१.२१ में अग्निहोत्र के संदर्भ में धेनु के अयन की प्राप्ति का तथा २.५.३.१० में चातुर्मास यज्ञ में साकमेध पर्व के अन्तर्गत इडा के अयन तथा अन्य अयन की प्राप्ति का उल्लेख है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५० में अग्निष्टोम यज्ञ के अयन का कथन है जहां मन को प्रायण ( प्र - अयन ) कहा गया है । बौधायन श्रौत सूत्र १८.५२ में दिशाओं , ऋतुओं , ऋषियों व देवताओं के अयनों का वर्णन है । बौधायन श्रौत सूत्र २६.२४ में सर्पों के अयन का वर्णन है । बौधायन श्रौत सूत्र १६.३०.१ में मुनि अयन का उल्लेख है । गायों के संवत्सर सत्र से प्राप्त अयन ( गवामयन ) को आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २६.१४.१० में आदित्यों व अंगिरसों का अयन कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.४३ में संवत्सर दीक्षा के अन्तर्गत प्रथम चार मासों द्वारा अग्नि के अयन , दूसरे ४ मासों द्वारा वायु के और तीसरे ४ मासों द्वारा आदित्य के अयन प्राप्त होने का वर्णन है । भागवत के कथनानुसार यह सब अयन दक्षिणायन प्रकृति के हैं ।

          एक ओर जहां इष्टापूर्त कर्म द्वारा दक्षिणायन की प्राप्ति होती है तो दूसरी ओर अरण्य में जाकर श्रद्धा और सत्य की उपासना करने से अर्चि मार्ग से देवयान मार्ग अथवा उत्तरायण की प्राप्ति होती है (बृहदारण्यक उपनिषद ६.२.१५ ) , छान्दोग्य उपनिषद ५.१०.१ तथा मुण्डकोपनिषद १.११.२ ) । आश्वलायन श्रौत सूत्र ८.१४.३ में भी उत्तरायण में ग्राम से बाहर जाकर कृत्य करने का उल्लेख है । इसका अर्थ हुआ कि इष्टापूर्त के अन्तर्गत जो यज्ञ आते हैं, वैदिक साहित्य में उन्हें ग्राम के अन्तर्गत माना जाता है । रामचरितमानस ७.११७.११ के अनुसार इन्द्रियां ही ग्राम हैं । और भागवत ७.१५.५३ में भी उत्तरायण मार्ग की प्राप्ति के लिए इन्द्रियों को मन में , मन को वाक् में , वाक् को वर्ण में , वर्ण को ओंकार आदि में लय करने का निर्देश है । उपरोक्त वर्णन के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण रामायण ( राम - अयन ) उत्तरायण का ही निरूपण है । दशरथ का पूर्व रूप दक्ष - रथ और दशमुख का पूर्व रूप दक्ष - मुख है । राम पहले अयोध्या रूपी ग्राम से निकल कर अरण्य में जाते हैं और वहां से दक्षिण दिशा में लङ्का पर विजय प्राप्त करते हैं । लङ्का कर्मों के फल की , अंग्रेजी भाषा के लक की तथा संस्कृत में चक्षुओं के निमेष - उन्मेष की , अलख से विपरीत स्थिति का प्रतिनिधित्व करती है , ऐसा कह सकते हैं । हनुमान ( हन् - मनः ) मन के निग्रह का तथा मन के विराट रूप मान का परिचायक है । उत्तरायण का वास्तविक आरम्भ रामायण के उत्तरकाण्ड से होता है । अयोध्या में आगमन के पश्चात् राम अश्वमेध यज्ञ करते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.२२.३ का कथन है कि जो अश्वमेध करता है , वह देवों के अयन से यात्रा करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अज , अवि, गौ , अश्व और पुरुष नामक ५ ग्राम्य पशुओं में से अज , अवि और गौ तक की साधना तो दक्षिणायन से संबंधित है और इसके पश्चात् अश्व और पुरुषमेध की साधना उत्तरायण से । पुरुषमेध की साधना के अन्तर्गत ऋग्वेद १०.९० के पुरुष सूक्त के ऋषि नारायण और देवता पुरुष हैं । नारायण ( नारा - अयन ) की व्याख्या पुराणों ने स्वयं `आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनव: । अयनं तस्य ता: पूर्वं तेन नारायण: स्मृतः' ।। ( विष्णु पुराण १.४.६ इत्यादि ) कह कर दी है । उत्तरायण को उदक - अयन भी कहा जाता है । ज्योvतिष में जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है , तब उत्तरायण का आरंभ माना जाता है । मकर , कुम्भ व मीन राशियां जल में निवास करने वाली राशियां हैं । ऋग्वेद ३.३३.७ के अनुसार जब इन्द्र वज्र से वृत्र का वध कर देता है तभी आपः मुक्त होकर अयन की इच्छा करते हैं । शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.५० , तैत्तिरीय संहिता ४.३.१.१ तथा काठक संहिता १६.१८ आदि में अग्निचयन के अन्तर्गत प्रथम चिति में आपस्य नामक इष्टिकाओं की स्थापना की जाती है । इनमें से एक आपस्य इष्टिका को आपः के अयन में स्थापित किया जाता है । इसकी व्याख्या के रूप में शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि यह पृथिवी ही आपः का अयन बन सकती है , ऐसा अयन जिसमें वासनाओं के कारण आपः का क्षय न हो , अपितु वह ओषधियों व अन्न के रूप में परिवर्तित होकर आयुवर्धक बनें । यह उल्लेखनीय है कि यास्क के निरुक्त में वेदमन्त्रों में जहां भी आयु शब्द प्रकट हुआ है , उसका अर्थ अयन किया गया है ( १०.४१ , ११.४९ ) । नार के अयन नारायण ऋषि और आपः की अयन पृथिवी में कैसे सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है , यह विचारणीय है । छान्दोग्य उपनिषद ५.४.१ तथा बृहदारण्यक उपनिषद ६.२.९ में पर्जन्य से पुरुष की उत्पत्ति की क्रमिक अवस्थाओं का वर्णन किया गया है जिनमें अन्तिम अवस्था में स्त्री की योनि में गर्भ का विकास होता है और ९ या १० मास बाद वह पुरुष रूप में जन्म लेता है । इन आख्यानों को आध्यात्मिक रूप में समझने की आवश्यकता है । हो सकता है कि पृथिवी रूपी योषा पत्नी जिस सहस्रशीर्षा पुरुष को जन्म देती है , उसके लिए नारायण के वीर्य की आवश्यकता पडती हो ।

          पुराणों में दक्षिणायन व उत्तरायण की शिशुमार देह के दक्षिण व उत्तर पाश्वोमें स्थिति के उल्लेख के संदर्भ में काठक संहिता २०.९ का यह कथन महत्वपूर्ण है कि ( मस्तिष्क का? ) दक्षिणार्ध मनस्वितर है , मन को धारण करता है । इसके अनुसार उत्तर पक्ष भावना से सम्बन्धित होना चाहिए । लेकिन काठक संहिता में उत्तर में श्रोत्र की स्थिति कही गई है । जाबालदर्शनोपनिषद ४.४० में पिंगला नाडी से इडा नाडी में प्राण के संक्रमण को उत्तरायण तथा इससे विपरीत स्थिति को दक्षिणायन कहा गया है ।

संदर्भ

१मनोजवा अयमान आयसीमतरत् पुरम्। - ऋ.८.१००.८

२नीचायमानं जसुरिं न श्येनं श्रवश्चाच्छा पशुमच्च यूथम्। - ऋ.४.३८.५

३कृत्याः यस्ते परूंषि संदधौ रथस्येवर्भुर्धिया। तं गच्छ तत्र ते ऽयनमज्ञातस्तेऽयं जनः ॥ - अथर्ववेद१०.१.८७

४ईर्माभ्यामयनं जातं सक्थिभ्यां च वशे तव। - अ.१०.१०.२१

५अङ्गिरसामयनं पूर्वो अग्निरादित्यानामयनं गार्हपत्यो दक्षिणानामयनं दक्षिणाग्निः। - अ.१८.४.८

६पूर्वो अग्निष्ट्वा तपतु शं पुरस्ताच्छं पश्चात् तपतु गार्हपत्यः। दक्षिणाग्निष्टे तपतु शर्मवर्मोत्तरतो मध्यतो अन्तरिक्षाद्, दिशोदिशो अग्ने परि पाहि घोरात् ॥ - अ.१८.४.९

७अग्निर्होताध्वर्युष्टे बृहस्पतिरिन्द्रो ब्रह्मा दक्षिणतस्ते अस्तु। हुतोऽयं संस्थितो यज्ञ एति यत्र पूर्वमयमनं हुतानाम् ॥ - अ.१८.४.१५

८पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे। - अ.१९.७.२

९तस्माद्धेनुर्दक्षिणा। एतन्न्वेकमयनम्। - शतपथ ब्राह्मण २.२.१.२१

१०पिण्डपितृयज्ञः : तस्माद्यो मनुष्याणां मेद्यति - अशुभे मेद्यति विहूर्च्छति हि न हि अयनाय चन भवति। - मा.श.२.४.२.६

११साकमेध पर्व : अथेडामेवावद्यति, न प्राशित्रम्। उपहूय, मार्जयन्ते। एतन्न्वेकमयनम्। अथेदं द्वितीयम्। - - - मा.श.२.५.३.१०

१२अवभृथ स्नानम् : ता वा एता षडाहुतयो भवन्ति। षड्वा ऋतवः संवत्सरस्य। - - - -एतदादित्यानामयनम्। - - -एतानेव चतुरः प्रयाजानपबर्हिषो यजेत् - - - एतदङ्गिसामयनम् (पुरोडाशाहुति)। अतोन्यतरत्कृत्वा - - - मा.श.४.४.५.१९

१३या ह दीक्षा - सा निषत्, तत्सत्रम्, तदयनम्, तत्सत्रायणम्। - मा.श.४.६.८.२

१४राजानं प्रणयति। उद्यत एवैष आग्नीध्रीयोऽग्निर्भवति। तऽएकैकमेवोल्मुकमादाय यथाधिष्ण्यं विपरायन्ति। तैरेव तेषामुल्मुकैः प्रघ्नन्तीति ह स्माह - - - -एतन्न्वेकमयनम्। अथेदं द्वितीयम्। अरणिष्वेवाग्नीन्त्समारोह्योपसमायन्ति - यत्र प्राजापत्येन पशुना यक्ष्यमाणा भवन्ति। - - -अथेदं तृतीयम् - गृहपतेरेवारण्यो सम्वदन्ते - य इतोग्निर्जनिष्यते - स नः सह, - - -मा.श.४.६.८. ७

१५रात्रि में भोजन करने का प्रश्न : तदाहुः किमयनमिति। स्वयं हैवैते रात्री अग्निहोत्रं जुहुयात्। स यद्धुत्वा प्राश्नाति, तेनापितृदेवत्यो भवति। - मा.श.११.१.७.३

१६समेन ह वा अस्या व्यृद्धेनान्यूनेनानतिरिक्तेनायनेनेतं भवति। - मा.श.१२.३.५.१३

१७श्रीमन्थकर्मब्राह्मणम् : स यः कामयेत। महत्प्राप्नुयामिति। उदगयन आपूर्यमाणपक्षे पुण्याहे द्वादशाहमुपसद्व्रती भूत्वा, औदुम्बरे कंसे चमसे वा सर्वौषधं फलानीति संभृत्य, परिसमुह्य - - - -- मा.श.१४.९.३.११

१८विराट पुरुष : धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार। - - -प्रविद्वान्प्रदिशश्चतस्रः। तमेवं विद्वानमृत इह भवति। नान्यः पन्था अयनाय विद्यते। - तैत्तिरीय आरण्यक ३.१२.७

१९वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेवं विद्वानमृत इह भवति। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय - तै.आ.३.१३.१

२०हरिं हरन्तमनुयन्ति देवाः। विश्वस्येशानं वृषभं मतीनाम्। ब्रह्म सरूपमनु मेदमागात्। अयनं मा विवधीर्विक्रमस्व। - तै.आ.३.१५.१, ४९.१

२१एतद्वै जरामर्यमग्निहोत्रं सत्रं य एवं विद्वानुदगयने प्रमीयते देवानामेव महिमानं गत्वाऽऽदित्यस्य सायुज्यं गच्छत्यथ यो दक्षिणे प्रमीयते पितृणामेव महिमानं गत्वा चन्द्रमसः सायुज्यं गच्छत्येतौ वै सूर्याचन्द्रमसोर्महिमानौ ब्राह्मणो विद्वानभिजयति - - -। तै.आ.१०.६४.१

२२अयं पुरो भूस्तस्य प्राणो भौवायनो वसन्तः प्राणायनो गायत्री वासन्ती गायत्र्या गायत्रं - काठ. सं.१६.१८

२३गायों द्वारा संवत्सर सत्र के अनुष्ठान से शृङ्ग व ऊर्ज आदि प्राप्त करना : दशसु मास्सूत्तिष्ठन्त ऋध्नुवन्ति द्वादशसु य एवं विदुस्तदेतदृद्धमयनं तस्मादेतेन यन्ति।- - -काठ. सं.३३.१

२४अथ हाप श्रेयसीर् मेनिरे। ताः प्रति त्वा वयम् आतपाम इति यात्रां च प्रयां च प्रायच्छन्। अद्भिर् ह वा एष आदित्यः एतद् एत्य् अपाम् एवायनेन। - जै.ब्रा.२.२६

२५तद् आहुः किं संवत्किं सरं किम् अयनम् इति। - - - वाग् एव सरः। वाचा हि पुरुषस् सरति। प्राण एवायनम्। स ह्य् अस्मिन् सर्वस्मिन्न् एति। - - - - जै.ब्रा.२.२९

२६संवत्सर दीक्षा : ततो यांश् चतुरो मासो यन्त्य् अग्नेर् एव तान् अयनेन यन्ति। - - - अथ यान् अपरांश् चतुरो मासो यन्ति वायोर् एव तान् अयनेन यन्ति। - - - -यान् अपरांश् चतुरो मासो यन्त्य् आदित्यस्यैव तान् अयनेन यन्ति। - जै.ब्रा.२.४३

२७पौर्णमासेन हविषेष्ट्वा आदित्याय चरुं निर्वपति। - - -तस्यां अमावास्यायां दीक्षोपरिष्टात् सुत्या। तद् वा एतत् सूर्याचन्द्रमसोर् एवायनम्। - जै.ब्रा.२.९८

२८स एष समानप्रायणस् समान संबन्धनस् संवत्सरः। तस्य मन एव प्रायणं, वाक् संबन्धनम्। - - -स एष संवत्सरोऽग्निष्टोमान् एवाभिसंपद्यते। - जै.ब्रा.२.५०

२९इन्द्र द्वारा बल असुर का निग्रह करके गायों की रक्षा का वर्णन : ता हान्तर एव तस्थुर् अयनम् अविन्दमानाः। ता होत्सेधेनैवोत्सिषिधुः। - जै.ब्रा.२.९०

३०पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतींषीत्येष वा आत्मोक्थं पंचविधमेतस्माद्धीदं सर्वमुत्तिष्ठत्येतमेवाप्येति। अयनं वै समानानां भवति य एवं वेद - ऐतरेय आरण्यक २.३.१

३१गवामयनेन यन्ति गावो वा आदित्या आदित्यानामेव तदयनेन यन्ति। - - - - यथा वा प्रायणीयोतिरात्रश्चतुर्विंश उक्थ्यः सर्वेऽभिप्लवाः षडहा आक्ष्यन्त्यन्यान्यहानि तदादित्यानामयनम्। प्रायणीयोऽतिरात्रश्चतुर्विंश उक्थ्यः सर्वे पृष्ठ्याः षडहा आक्ष्यन्त्यन्यान्यहानि तदङ्गिरसामयनम्। - ऐतरेय ब्राह्मण ४.१७

३२षट्-त्रिंशदहो वा एष यद्द्वादशाहः षट्-त्रिंशदक्षरा वै बृहती बृहत्या वा एतदयनं यद्द्वादशाहो - - - -ऐ.ब्रा.४.२४

३३षट्पदान्यनुनिष्क्रामति षडहं वाङ्नाति वदत्युत संवत्सरस्यायने यावत्येव वाक्तामव रुन्धे - तैत्तिरीय सं.६.१.८.१

३४गर्ग त्रिरात्रः :अथाहुर्या द्विरूपोभयत एनी सा देयेति सहस्रस्य परिगृहीत्यै तद्वा एतत्सहस्रस्यायनं सहस्रं स्तोत्रीयाः  - - - - -तै.सं.७.१.५.७

३५उदगयनस्याद्यन्तयोरैन्द्राग्नेन पशुना यजेत संवत्सरे संवत्सरे वा। - वाराह श्रौ.सू.१.६.१

३६अथातो मुन्ययनमित्याचक्षते श्रमणः खारीविवधी - - -बौ.श्रौ.सू.१६.३०

३७महाव्रतवान्विश्वजित्सर्वपृष्ठोवतिरात्रः सारस्वतेनायनेनैष्यन्तो द्वयीर्गा उपकल्पयन्त - - - - बौ.श्रौ.सू.१६.२९

३८ततो ह जज्ञे भुवनस्य गोपा इत्यग्निष्टोमैर्वाव ते तदीयुस्तदेतदृद्धमयनं प्रजननं यदग्निष्टोमाः। - बौ.श्रौ.सू.१७.१९

३९कुण्डपायिनामयनेनैष्यन्तो दीक्षन्ते पञ्च सर्वतो धुराः - - - -बौ.श्रौ.सू.१७.२०

४०ऽग्निश्चतुर्होता वायुः पञ्चहोता चन्द्रमा षड्होता प्रजापतिः सप्तहोतासावादित्यो नवहोतैता वै देवता एतेनायनेनायंस्ततो वै ता आर्ध्नुवन्सुवर्गं लोकमायन्य एवं विद्वांस एतेनायनेन यन्त्यृध्नुवन्त्येव सुवर्गं लोकं यन्ति। - बौ.श्रौ.सू.१७.२१

४१उत्सर्गिणामयनेनैष्यन्तो दीक्षन्ते।- बौ.श्रौ.सू.१७.२२

४२तपश्चितामयनेनैष्यन्तो दीक्षन्ते तेषामियमेव प्रज्ञाता - - -बौ.श्रौ.सू.१७.२३

४३अयुजां चैव युग्मानां चैव सायुज्यं सलोकतामाप्नुवन्ति य एतेनायनेन यन्ति - - - बौ.श्रौ.सू.१८.५१

४४यथैतदग्निष्टोमायनं सारस्वतमयनं विश्वसृजामयनमिति कथमु खल्वेषां संनिवापः स्यादिति - - - बौ.श्रौ.सू.२६.१२

४५अथेदं संसदामयनमच्छन्दोमं भवतीति विज्ञायत - - - बौ.श्रौ.सू.२६.२१

४६अथेदं सर्पाणामयनं स्तोमतो विकृतं भवत्यथेदं विश्वसृजामयनं कथमिदानीन्तनेषु स्याद् - बौ.श्रौ.सू.२६.२४

४७अथेदं कुण्डपायिनामयनमग्निहोत्रपूर्वमेके ब्रुवते सोमपूर्वमुपयन्ति - बौ.श्रौ.सू.२६.२५

४८व्रीह्याग्रयणस्य कालाच्छ्यामाकाग्रयणस्य कालो नातीयादा यवाग्रयणयस्य कालाद् व्रीह्याग्रयणस्य - - - - दक्षिणायन पशोः कालादुत्तरायणपशोः कालो नातीयादोत्तरायणपशोर्दक्षिणायनपशोः - - - -बौ.श्रौ.सू२८.१२

४९त्रिषंवत्सरं गवामयनमादित्यानामङ्गिरसाम्। - आप.श्रौ.सू.२३.१४.१०

५०उदगयनस्याद्यन्तयोरैन्द्राग्नो निरूढपशुबन्धः। - शां.श्रौ.सू.६.१.१८

५१खर्गला इव पत्वरीरपामुग्रमिवायनम्। - कौ.सू.१०७

५२त्रिरयनमह्नामुपतिष्ठन्ते हविषा च यजन्ते - कौ.सू.१४०

५३उत्तरे पक्षस्ययनविकल्पाः : अभिप्लवपृष्ठ्यान् प्रतिलोमानुपयन्त्यहरावृत्तकारिणः। - न्न.श्रौ.सू.८.३.२३

५४समौ पक्षौ चिकीर्षन् पञ्चायनमासान् कृत्वा दशरात्रमिश्रं मासमुद्धरेत्। - न्न.श्रौ.सू.८.३.३१

५५तदेतदृद्धमयनं भूतोपसृष्टानां राष्ट्रभृतः - - - -। तदेतदृद्धमयनं हुतप्रहुतानुकृतयोऽन्ये होमाः - - - -बौधा.गृह्य.सू.३.७.२७

५६प्रायश्चित्तानि : अथ यत्रैतत् कालातीतासु क्रियास्वतीत उत्तरायणे आज्यभागान्ते - - - -- अथर्ववेद परिशिष्ट ३७.१२.१

५७शक्रः प्रविद्वान्प्रदिशश्चतस्रः तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था अयनाय विद्यते। - महावाक्योपनिषत्

५८अयने दक्षिणे प्राप्ते प्रपञ्चाभिमुखं गतः। अहंकाराभिमानेन जीवः स्याद्धि सदाशिवः। - - - - ततः कालवशादेव ह्यात्मज्ञानविवेकतः। उत्तराभिमुखो भूत्वा स्थानात्स्थानान्तरं क्रमात्। - - - - त्रिशिखब्राह्मणोपनिषत् १६

५९स्वयमेव तु संपश्येद् देहे बिन्दुं च निष्कलम्। अयने द्वे च विषुवे सदा पश्यति मार्गवित्। - ब्रह्मविद्योपनिषत् ५४

६०ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेपि च। दर्शेषु पूर्णमासे च पूर्णेषु दिवसेषु च। - रुद्राक्षजाबालोपनिषत् १८

६१हंसस्य परमहंसस्य च न क्षौरम्। अस्ति चेदयनक्षौरम् - - -नारदपरिव्राजकोपनिषत् ७.३

६२पादत्रयात्मकं ब्रह्म कैवल्यं शाश्वतं परमिति। वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेवंविद्वानमृत इह भवति। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय - त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ४

६३पक्षद्वयं मासो भवति मासद्वयमृतुर्भवति। ऋतुत्रयमयनं भवति। अयनद्वयं वत्सरो भवति। - - -त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ३.४

६४अन्योऽसावन्योहमस्मीति ये विदुस्ते पशवो न स्वभावपशवस्तमेवं ज्ञात्वा विद्वान्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। - नारदपरिव्राजकोपनिषत् ९.१

६५वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। - - - श्वेताश्वतरोपनिषत् ३.८

६६एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय - श्वेताश्वतरोपनिषत् ६.१५

६७शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषामयनं न्यायो - - - -सुबालोपनिषत् २

६८सा गायत्री किं गोत्रा कत्यक्षरा कतिपादा। कति कुक्षयः। कानि शीर्षाणि। सांख्यायनगोत्रा सा चतुर्विंशत्यक्षरा - - - गायत्रीरहस्योपनिषत्

६९कला काष्ठा मुहूर्ताश्च ऋतवोऽयनमेव च - - - - कफोणिर्मणिबन्धश्च तदूरुकटिबन्धनाः। - गुह्यकाल्युपनिषत् २०