PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

Home Page

I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

उग्र

टिप्पणी : ऋग्वेद की सौ से भी अधिक ऋचाओं में उग्र शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से इन्द्र के लिए और गौण रूप से मरुतों , इन्द्राग्नि - द्वय, इन्द्रासोम - द्वय , अश्विनौ - द्वय , मित्रावरुण - द्वय , पूषा आदि के लिए किया गया है । कईं ऋचाओं जैसे १.८४.९ , १.१००.१२ , ३.३६.४ ,५.२०.२, ६.१७.१ ,६.६६.६ , ८.१.२१ , ८.९७.१३ आदि में उग्र शब्द के साथ शव शब्द भी प्रकट हुआ है । ऋग्वेद १.१००.१२ तथा २.३३.११ आदि में उग्र के साथ भीम शब्द भी प्रकट हुआ है । इस आधार पर पुराणों में शर्व , उग्र, भीम नामक शिव की क्रमिक मूर्तियों का पृथिवी , वायु और आकाश तत्त्वों में वर्गीकरण वैदिक ऋचाओं में उग्र शब्द की प्रकृति को समझने के लिए एक नई दिशा प्रस्तुत करता है । वैदिक ऋचाओं में प्रकट हुए शव शब्द की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि अपनी चित्तवृत्तियों का निग्रह कर लेना ही शव जैसी अवस्था को प्राप्त करना है , जैसे शवासन में किया जाता है । ऋग्वेद ७.२८.२ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में इस शव अवस्था का निरूपण ब्रह्म शब्द द्वारा किया गया है जिसे प्राप्त करने का प्रयत्न ऋषिगण करते हैं । ऋग्वेद १.८४.९ , ५.२०.२ तथा ८.१.२१ में शव के साथ उग्र विशेषण का प्रयोग हुआ है । हो सकता है कि शव अवस्था में किसी कारण से विक्षोभ उत्पन्न हुई इस अवस्था को ही पुराणों में शर्व शिव का नाम दिया गया हो । इसके पश्चात् उग्र अवस्था आती है । विष्णु पुराण आदि में उग्र को ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा गया है । इसकी व्याख्या इस प्रकार संभव है कि ब्रह्म प्रकृति की नितान्त अव्याकृत, निष्क्रिय अवस्था है । इस अव्याकृत स्थिति में विक्षोभ उत्पन्न होने पर उग्र स्थिति उत्पन्न होती है । यह एक प्रकार के मद की अवस्था है ( ऋग्वेद  ८.१.२१ ) । इस अवस्था में प्रकृति के अविद्या नामक तत्त्वों में कुछ सक्रियता उत्पन्न होती है । इससे अगली अवस्था ईशान शिव की है जो २५ वां तत्त्व है , विद्या है । ऋग्वेद ६.१८.६, ८.५२.५ , ८.६५.५ तथा ८.६८.६ में इन्द्र को महां उग्र ईशानकृत् कहा गया है । अतः लिङ्ग पुराण में कथित उग्र व ईशान शिव में समानता की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यद्यपि उग्र और ईशान एक सी अवस्थाएं नहीं हैं , लेकिन यह एकता प्राप्त कर सकते हैं । उग्र की एक मात्र निरुक्ति नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद . में प्राप्त होती है जहां सब लोकों , सब देवों , सब भूतों आदि के उद्ग्रहण करने वाले को उग्र कहा गया है । भूतों में चेतना उत्पन्न होने , उन्हें ओंकार से ओत प्रोत करने की स्थिति को भूति कहा जाता है जिससे सम्भूति , विभूति आदि शब्द बनते हैं । ऋग्वेद १.११८.९ , ४.३८.१ तथा ६.१९.६ में उग्र अभिभूति का उल्लेख आया है। यह कहा जा सकता है कि अभिभूति भूति का आरंभिक रूप है ।

          प्रश्न उठता है कि साधना में उग्रता कैसे उत्पन्न हो सकती है और उससे किन - किन उद्देश्यों की पूर्ति की जा सकती है ? पुराणों में प्रायः ऋषियों द्वारा उग्र तप करने के उल्लेख आते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.९.६ में उल्लेख है कि क्षुधा और तृष्णा उग्र होकर इध्म / इन्धन का आवहन करें अर्थात् इध्म को ढोकर लाएं । इसका तात्पर्य होगा कि क्षुधा और तृष्णा शरीर में इस सीमा तक व्याप्त हो जाएं कि सारा शरीर जल उठे । ऐसी दशा में एक द्रप्स ( अंग्रेजी भाषा में ड्रांप ) का , इन्दु का , क्षरण होता है जो सारी उग्रता को शान्त कर देता है ( ऋग्वेद ९.६२.२९ , ९.१०९.११ , ८.२९.५ तथा ६.४१.३ ) । ऋग्वेद ८.४५.४ तथा ८.७७.१ में इन्द्र अपनी माता से प्रश्न करता है कि उग्र कौन हैं तथा श्रवण कौन करते हैं ? इन्हीं सूक्तों में इन प्रश्नों का उत्तर दिया गया है । शत्रुओं या वृत्र का नाश करना , श्रुत ज्ञान को प्राप्त करना , ग्राम तथा गायों को जीतना , रथ पर आरूढ होना आदि सभी कार्य उग्र होकर करने हैं । ऐतरेय ब्राह्मण ८.२ तथा ८.३ में उग्र अवस्था को क्षत्रिय का रूप कहा गया है । पुराणों में उग्र के यजमानात्मक तथा दीक्षा - पति होने के उल्लेखों के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि यह उग्र की क्षत्रिय अवस्था है । कर्मकाण्ड में यजमान ब्रह्मा नामक ऋत्विज के साथ दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख होकर बैठता है । यह यजमान की क्षत्रिय अवस्था है । अथर्ववेद १५.५.१० में उग्र के उत्तर दिशा में स्थित होने का उल्लेख है । यह उग्र की देव अवस्था है , उग्र के शिव होने की अवस्था है । ऋग्वेद १०.१५१.३ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.८.७ में देवों द्वारा उग्र असुरों में श्रद्धा उत्पन्न करने का उल्लेख महत्वपूर्ण है क्योंकि श्रद्धा भक्ति की पकी हुई अवस्था है ( शृत दधाति इति ) । यह संकेत करता है कि उग्र अवस्था से श्रद्धा की ओर अग्रसर होना है ।

          ऋग्वेद ७.५६.६-७ ,.९७.१० ,९.६६.१६ तथा १०.११३.६ आदि में उग्र और ओज के परस्पर सम्बन्धों का उल्लेख है । ऋग्वेद ९.६६.१६ से ऐसा प्रतीत होता है जैसे ओजिष्ठ होना उग्रता की पराकाष्ठा हो । वैदिक पदानुक्रम कोश ( संहिता भाग ) में उग्र और ओज , दोनों शब्दों का वर्गीकरण उज धातु के अन्तर्गत किया गया है , जबकि ऋग्वेद १.७.४ के सायण भाष्य में उग्र की निरुक्ति उच समवाये द्वारा की गई है ।     

          ऋग्वेद १.१००.१२ , २.३३.११ तथा  ४.२०.६ में उग्र व भीम शब्दों का साथ - साथ उल्लेख आता है । ऋग्वेद २.३३.११ की ऋचा में मृग के समान भीम का उल्लेख है जिसका उपयोग नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद २.४ में नृसिंह देव की व्याख्या के लिए किया गया है । आकाश तत्त्व से सम्बद्ध भीम और वायु तत्त्व से सम्बद्ध उग्र के अन्योन्य सम्बन्धों की व्याख्या अन्वेषणीय है ।

          स्कन्द पुराण में उग्रेश्वर लिङ्ग द्वारा जाति ज्ञान होने के उल्लेख के संदर्भ में ऋग्वेद ७.३८.६ तथा ७.४१.२ में उग्र व अनुग्र भग के उल्लेख हैं । उग्र भग तो शत्रुओं से रक्षा करता है, जबकि अनुग्र भग रत्न बन जाता है ।

 

Puraanic texts classify lord Shiva in a category of different names like Sharva, Ugra, Bheema etc. and associate different gross elements like earth, water, fire etc. with these names. Ugra is associated with air element. This category of names does not exist in vedic literature as such, but it ma y exist in indirect way. A combination of words out of this category is found in vedic verses. There are several verses of Rigveda where word 'Shava'/corpse has appeared along with Ugra. To make our senses inward may be the state of Shava. if any perturbation exists in this state of Shava, that will take the form of  'Sharva. Shava/corpse state may be taken to mean a non - active state of nature. When some activity develops, it may be called Ugra/ferocious. After that comes the stage of Eeshaana. Ugra may belong to the category of Avidyaa, while Eeshaana may belong to the category of Vidyaa. One can try to define Avidyaa as a combined state of ignorance along with non - existence. The only definition of Ugra is available in one Upanishada text where it has been defined as one which takes on all objects of the world - all gods, all elements etc.

    There may be two classes of Ugra - warrior types and Braahmin type. Vedic texts specify some acts which have to be performed while becoming a warrior type Ugra. One texts states that let our hunger and thirst become Ugra/ferocious and then get the feeding material for them.

First published :1999 AD; published on internet : 13-1-2008( Pausha Shukla Panchamee, Vikramee samvat 2064)

 

 

उग्र (केवल अनुद्धृत अंश) ।

इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च ।
उग्र उग्राभिरूतिभिः ॥१.७.

शुभे यदुग्राः पृषतीरयुग्ध्वम्। (दे. मरुतः)।ऋ.५.५७.३

अनु तन्नो जास्पतिर्मंसीष्ट रत्नं देवस्य सवितुरियानः ।
भगमुग्रोऽवसे जोहवीति भगमनुग्रो अध याति रत्नम् ॥७.३८.

२. सेदुग्रो अस्तु मरुतः स शुष्मी यं मर्त्यं पृषदश्वा अवाथ।- ऋ.७.४०.३ ।

प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता ।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ॥७.४१.

यामं येष्ठाः शुभा शोभिष्ठाः श्रिया सम्मिश्ला ओजोभिरुग्राः ॥७.५६.

उग्रं व ओज स्थिरा शवांस्यधा मरुद्भिर्गणस्तुविष्मान् ॥७.५६.

३. क्षेमेण मित्रो वरुणं दुवस्यति मरुद्भिरुग्रः  शुभमन्य ईयते।-ऋग्वेद ७.८२.५

४. तिग्ममेको बिभर्ति हस्त आयुधं शुचिरुग्रो  जलाषभेषजः।- ऋ.८.२९.५

आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्छद्वि मातरम् ।
क उग्राः के ह शृण्विरे ॥८.४५.

जज्ञानो नु शतक्रतुर्वि पृच्छदिति मातरम् ।
क उग्राः के ह शृण्विरे ॥८.७७.

महाँ असि सोम ज्येष्ठ उग्राणामिन्द ओजिष्ठः ।
युध्वा सञ्छश्वज्जिगेथ ॥९.६६.१६

५. आराच्छत्रुमप बाधस्व दूरमुग्रो यः शम्बः पुरुहूत  तेन।

अस्मे धेहि यवमद्गोमदिन्द्र कृधी धियं जरित्रे वाजरत्नाम् ।।-ऋ.१०.४२.

यथा देवा असुरेषु श्रद्धामुग्रेषु चक्रिरे ।
एवं भोजेषु यज्वस्वस्माकमुदितं कृधि ॥१०.१५१.

(ऋग्वेद के अन्य मन्त्र नहीं लिखे)

६. उग्रस्य मन्योरुदिमं नयामि- अ.१.१०.१

७. नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वं ह्युग्र निचिकेषि दुग्धम्। अ.१.१०.२

८. इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टो मरुद्भिरुग्रः प्रहितो न आगन्। अ.२.२९.४

९. पांच दिशाएं : वर्ष्मन् राष्ट्रस्य ककुदि श्रयस्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि।- अ.३.४.२  

१०. जायाः पुत्राः सुमनसो भवन्तु बहुं बलिं प्रति पश्यासा उग्रः।- अ.३.४.३

११. अधा मनो वसुदेयाय कृणुष्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि।- अ.३.४.४.  

१२. तास्त्वाः सर्वाः संविदाना ह्वयन्तु दशमीमुग्रः सुमना वशेह।- अ.३.४.७ ।

१३. सोमस्य पर्णः सह उग्रमागन्निन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टः।- अ.३.५.४

१४. शाला निर्माण : ऋतेन स्थूणामधि रोह वंशोग्रो विराजन्नप वृङ्क्ष्व शत्रून्। अथर्ववेद ३.१२.६

१५. यस्याञ्जन प्रसर्पस्यङ्गमङ्गं परुष्परुः। ततो यक्ष्मं विबाधस उग्रो मध्यमशीरिव।।- अ.४.९.४

१६. आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः। दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते।। (दे. चन्द्रमा) अ.४.१३.५  

१७. शतेन मा परि पाहि सहस्रेणाभि रक्ष मा। इन्द्रस्ते वीरुधां पत उग्र ओज्मानमा दधत्।। (दे. अपामार्ग) अ.४.१९.८  

१८. यः उग्रीणामुग्रबाहुर्ययुर्यो दानवानां बलमारुरोज। येन जिता: सिन्धवो येन गावः स नो मुञ्चत्वंहसः।। - अ.४.२४.२

१९. सहस्राक्षौ वृत्रहणा हुवेऽहं दूरे गव्यूति स्तुवन्नेम्युग्रौ।- अ.४.२८.३  

२०. यं ग्राममाविशत इदमुग्रं सहो मम।। पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति न पापमुप जानते।।- अ.४.३६.८ ।

२१. तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो जज्ञ उग्रस्त्वेषनृम्णः। (दे. वरुण)।- अ.५.२.१  

२२. उग्रो राजा मन्यमानो ब्राह्मणं यो जिघत्सति। परा तत् सिच्यते राष्ट्रं ब्राह्मणो यत्र जीयते।। (दे. ब्रह्मगवी)- अ.५.१९.६

२३. उग्रस्य चेत्तुः संमनसः सजाता:- अ.६.७३.१

२४. यथादित्या वसुभिः संबभूवुर्मरुद्भिरुग्रा अहृणीयमानाः- अ.६.७४.३

२५. इमं वीरमनु हर्षध्वमुग्रं इन्द्रं सखायो अनु संरभध्वम्। ग्रामजितं गोजितं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा।। अ.६.९७.३

२६. ह्वयामि उग्रं चेत्तारं पुरुणामानमेकजम्--अ.६.९९.१

२७. इदमुग्राय बभ्रवे नमो यो अक्षेषु तनूवशी। घृतेन कलिं शिक्षामि स नो मृडातीदृशे।।-अ.७.१०९.१/७.११४.१ ।।

२८. अयं मणिः सपत्नहा सुवीरः सहस्वान् वाजी सहमान उग्रः।- अ.८.५.२

२९. ऐन्द्राग्नं वर्म बहुलं यदुग्रं विश्वेदेवा नाति विध्यन्ति सर्वे।अ.८.५.१९  

३०. यस्ते गर्भं प्रतिमृशाज्जातं वा मारयाति ते। पिंगस्तमुग्रधन्वा कृणोतु हृदयाविधम्।- अ.८.६.१८

३१. गर्भम ते उग्रौ रक्षतां भेषजौ नीविभार्यौ- अ.८.६.२०

३२. वीरुधो वैश्वदेवीरुग्राः पुरुषजीवनी:--अ.८.७.४  

३३. उन्मुंचन्तीर्विवरुणा उग्रा या विषदूषणीः - अ.८.७.१०

३४. सेदिरुग्रा व्यृद्धिरार्तिश्चानपवाचना- अ.८.८.९

३५. मधुविद्या : अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ।- अ.९.१.३

३६. स्तनयित्नुस्ते वाक् प्रजापते वृषा शुष्मं क्षिपसि भूम्यामधि। अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ।। - अ.९.१.१०

३७. काम : उग्र ईशानः प्रति मुंच तस्मिन् यो अस्मभ्यं अंहूरणा चिकित्सात्।- अ.९.२.३

३८. काम : अध्यक्षो वाजी मम काम उग्रः कृणोतु मह्यमसपत्नमेव।- अ.९.२.७

३९. काम : उत पृथिव्यां अव स्यन्ति विद्युत उग्रो वो देवः प्र मृणत् सपत्नान्।- अ.९.२.१४ ।

४०. प्रियाप्रियाणि बहुला स्वप्नं सम्बाधतन्द्र्यः। आनन्दानुग्रो नन्दांश्च कस्माद् वहति पूरुषः।।अ.१०.२.९

४१. उदप्लुतमिव दार्वहीनामरसं विषं वारुग्रम्। - अ.१०.४.३, १०.४.४

४२. यमबध्नाद् बृहस्पतिर्मणिं फालं घृतश्चुतमुग्रं खदिरमोजसे। तमग्निः प्रत्यमुंचत सो अस्मै दुह आज्यं-  ।--तमिन्द्रः प्रत्यमुंचत।.... तं सोमः प्रत्यमुंचत..। ... तं सूर्यः प्रत्यमुंचत---- अ.१०.६.६  

४३. अयं यज्ञो गातुविन्नाथवित् प्रजाविदुग्रः पशुविद् वीरविद् वो अस्तु।- अ.११.१.१५ ४४. सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं  धारयन्ति।- अ.१२.१.१

४५. यूयमुग्रा मरुतः पृश्निमातरः इन्द्रेण युजा प्र मृणीत शत्रून्।- अ.१३.१.३

४६. अष्टधा युक्तो वहति वह्निरुग्रः पिता देवानां जनिता मतीनाम्। अ.१३.३.१९

४७. तस्मा उदीच्या दिशो अन्तर्देशादुग्रं देवमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन्। उग्र एनं देव इष्वास उदीच्या दिशो----  - अ.१५.५.१०

४८. पितृमेधः - स्तुहि श्रुतं गर्तसदं जनानां राजानं भीममुपहत्नुमुग्रम्।- अ.१८.१.४०

४९. आ यूथेव क्षुमति पश्वो अख्यद् देवानां जनिमान्त्युग्रः। मर्तासश्चिदुर्वशीरकृप्रन् वृधे चिदर्य उपरस्यायोः।। - अ.१८.३.२३

५०. अप्रतिरथ सूक्तम् : उग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता- अ.१९.१३.४

५१. सहस्वान् वाजी सहमान उग्रः- अ.१९.१३.५

५२. अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदाय उग्रः शतमन्युरिन्द्रः।- अ.१९.१३.७

५३. इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम्। - अ.१९.१३.१०

५४. उग्रा त इन्द्र स्थविरस्य बाहू उप क्षयेम शरणा बृहन्ता।- अ.१९.१५.४

५५. दर्भो य उग्र ओषधिस्तं ते बध्नाम्यायुषे।अ.१९.३२.१

५६. ओजो देवानां बलमुग्रमेतत् तं ते बध्नामि जरसे स्वस्तये।- अ.१९.३३.४

५७. विबाध उग्रो जंगिडः परिपाणः सुमंगलः।अ.१९.३४.७

५८. पुरा त उग्रा ग्रसत उपेन्द्रो वीर्यं ददौ। अ.१९.३४.८ ।।

५९. उग्र इत् ते वनस्पत इन्द्र ओज्मानमा दधौ-अ.१९.३४.९  

६१. काम : त्वमुग्रः पृतनासु सासहिः सह ओजो यजमानाय धेहि।- अ.१९.५२.२

६२. अव तां जहि हरसा जातवेदोऽबिभ्यदुग्रोऽर्चिषा दिवमारोह सूर्य।- अ.१९.६५.१

६३. शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रं अस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ। शृण्वन्तमुग्रं ऊतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजित धनानां।।- अ.२०.११.११

६४. स नो युवोग्रश्चक्राम यो धृषत्- अ.२०.१४.२

६५. प्रोग्रां पीतिं वृष्ण इयर्मि सत्यां- अ.२०.२५.७, २०.३३.२

६६. तमिन्द्रं जोहवीमि मघवानमुग्रं सत्रा दधानमप्रतिष्कुतं श्रवांसि।- अ.२०.५५.१

६७. य उग्रः सन्ननिष्टृत स्थिरो रणाय संस्कृतः-अ.२०.५७.१३, २०.५३.३

६८. क्रत्वा वरिष्ठं वर आमुरिमुतोग्रमोजिष्ठं तवसं  तरस्विनम्। अ.२०.५४.१

६९. उप त्वा कर्मन्नूतये स नो युवोग्रश्चक्राम यो धृषत्।- अ.२०.६२.२ ।

७०. यश्चिद्धि त्वा बहुभ्य आ सुतावाँ आविवासति । उग्रं तत्पत्यते शव इन्द्रो अङ्ग - अ.२०.६३.

७१. इन्द्र वाजेषु नो अव सहस्रप्रधनेषु च। उग्र उग्राभिरूतिभिः।- अ.२०.७०.१०

७२. कस्ते मद इन्द्र रन्त्यो भूद् दुरो गिरो अभ्युग्रो वि धाव।- अ.२०.७६.३

७३. त्वामुग्रं अवसे चर्षणीसहं राजन् देवेषु हूमहे। अ.२०.८०.२

७४. आराच्छत्रुमप बाधस्व दूरमुग्रो यः शम्बः पुरुहूत तेन।- अ.२०.८९.७

७५. अषाळहमुग्रं पृतनासु सासहिं यस्मिन् महीरुरुज्रयः।- अ.२०.९२.१९

७६. एन्द्रवाहो नृपतिं वज्रबाहुं उग्रमुग्रासस्तविषास एनम्।- अ.२०.९४.३

७७. तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो जज्ञ उग्रस्त्वेषनृम्णः।- अ.२०.१०७.४

७८. ममेदुग्रस्य चर्कृधि सर्व इत् ते पृणादरिः।अ.२०.१२७.११

७९. कुलायं कृणवादिति। उग्रं वनिषदाततम्।। अ.२०.१३५.६  

८०. तास्ते यक्ष्मं वि बाधन्तां उग्रो मध्यमशीरिव।। ऋ.१०.९७.१२, तै.सं.४.२.६.४, अथर्ववेद

८१. राक्षसों द्वारा उग्र तप का उल्लेख। प्रजापति से आदित्य से युद्ध का वर प्राप्त करना।-तैत्तिरीय आरण्यक २.२.१

८२. मित्रावरुणौ : आदित्यानां प्रसितिर्हेतिः। उग्रा शतापाष्ठाघविषा परि णो वृणक्तु।-तैत्तिरीय आरण्यक ४.२०.३

८३. अग्नि के घोर तनु : स्निक्च स्नीहितिश्च स्निहितिश्च। उष्णा च शीता च। उग्रा च भीमा च। सदाम्नी सेदिरनिरा।- तै.आ.४.२३.१

८४. मरुद्गण : उग्रश्च धुनिश्च ध्वान्तश्च ध्वनश्च ध्वनयंश्च।--- तै.आ.४.२५.१

८५. उग्र प्रतिग्रह : अत्याशनादतीपानाद्यच्च उग्रात्प्रतिग्रहात्। यन्मे वरुणो राजा पाणिना ह्यवमर्शतु।। तै.आ.१०.१.१३ ।

८६. पृतनाजितं सहमानमुग्रमग्निं हुवेम परमात्सधस्थात्। तै.आ.१०.१

८७. मृत्यु : मा छिदो मृत्यो मा वधीर्मा मे बलं विवृहो मा प्रमोषीः। प्रजां मा मे रीरिष आयुरुग्र नृचक्षसं त्वा हविषा विधेम।। तै.आ.१०.५.१ ।

८८. जनिष्ठा उग्रः सहसे तुरायेति सूक्तम् (ऋ.१०.७३.) उग्रवत्सहस्वत्तत्क्षत्रस्य रूपं।-ऐतरेय ब्राह्मण ८.२

८९. जनिष्ठा उग्रः--- -- से यजमान का देवयोनि  में जन्म।-ऐ.ब्रा.३.१९

९०. ब्रह्म वै रथंतरं क्षत्रं बृहद् ब्रह्म खलु वै क्षत्रात्पूर्वं ब्रह्म पुरस्तान्म उग्रं राष्ट्रं अव्यथ्यमसद्..... ऐ.ब्रा.८.१, ८.४  

९१. उग्रं सहोदामिह तं हुवेमेति (मरुत्वां इन्द्र  वृषभो रणाय-सूक्त ३.४७.१) हववच्चतुर्थेऽहनि  चतुर्थस्याह्नो रूपं-ऐ.ब्रा.५.४

९२. पिबा सोममभि यमुग्र तर्द इति सूक्तं (ऋ. .१७.) ऊर्वं गव्यं महि गृणान इन्द्रेति महद्वदष्टमेऽहन्यष्टमस्याह्नो रूपम्-ऐ.ब्रा.५.१८, ऐ.आ.१.२.२ ।

९३. पिबा सोमं----होता यजति माध्यंदिने---- गोपथ ब्राह्मण २.२.२१

९४. होता की याज्या : पिबा सोममभि यमुग्र तर्द इति होता यजति-ऐ.ब्रा.६.११   

९५. अषाळहमुग्रं सहमानमाभिरित्युग्रवत्सहमानवत्तत्क्षत्रस्य रूपं-ऐ.ब्रा.८.३

९६. एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण पर्वतनारदौ युधांश्रौष्टिमौग्रसेन्यं अभिषिषिचतुः तस्माद् युधां श्रौष्टिरौग्रसेन्यः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन्परीयाश्वेन च मेध्येनेजे।-ऐ.ब्रा.८.२१

९७. यतो जज्ञ उग्रस्त्वेषनृम्ण इत्यतो ह्येष जात उग्रस्त्वेषनृम्णः।-ऐ.आ.१.३.४

९८. एष स्तोमो सह उग्राय वाह इति महद्वत्या रूपसमृद्ध्या। ऐतरेय आरण्यक १.५.२ ।

९९. सोमानयनम् : श्येनो भूत्वा परापत इति। वय एवैनमेतद्भूतं प्रपातयति। यद्वाऽउग्रं-तन्नाष्ट्रा रक्षांसि नान्वयन्ति। एतद्वै वयसामोजिष्ठं-यच्छ्येनः।-शतपथ ब्राह्मण ३.३.४.१५ ।

१००. तृतीय उपयाम नामक मरुत्वतीय ग्रह ग्रहण मन्त्र : मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम्। विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह तं हुवेम।(ऋ ३.४७.५)---- श.ब्रा.४.३.३.१४, तै.ब्रा.२.८.३.४ ।

१०१. महाव्रतीय ब्राह्मणम् : विश्वकर्मन् हविषा वर्धनेन त्रातारमिन्द्रमकृणोरवध्वम्। तस्मै विशः समनमन्त पूर्वीरयमुग्रो विहव्यो यथासत्। उपयाम गृहीतोऽसि---- -- श.ब्रा.४.६.४.६

तमब्रवीदुग्रोऽसीति । तद्यदस्य तन्नामाकरोद्वायुस्तद्रूपमभवद्वायुर्वा उग्रस्तस्माद्यदा बलवद्वायुग्रो वातीत्याहुः ......तान्येतान्यष्टौ अग्निरूपाणि। कुमारो नवमः। - माश ६.१.३.१८

१०२. मधु जो दध्यङ्ग अथर्वण ने अश्विनौ को कहा : तद्वां नरा सनये दंस उग्रमाविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम्। दध्यङ् ह यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्णा प्र यदीमुवाच (ऋग्वेद १.११६.१२)।- श.ब्रा.१४.५.५.१६

१०३. ज्योति ब्राह्मणम् (देहांतर पर शरीर प्राप्ति के संदर्भ में टीका) - तद्यथा राजानमायन्तमुग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्योऽन्नैः पानैरावसथैः प्रतिकल्पन्ते। अयमायाति। अयमागच्छतीति। एवं ह, एवं विदं सर्वाणि भूतानि प्रतिकल्पन्ते। इदं ब्रह्मायाति।। - श.ब्रा.१४.७.१.४३  

१०४. तद्यथा राजानं प्रयियासन्तं उग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्य उपसमायन्ति। एवं ह, एवं विदं सर्वे प्राणा उपसमायन्ति। यत्रैतदूर्वोच्छ्वासी भवति। श.ब्रा.१४.७.१.४४  

१०५. इन्द्र वाजेषु नो अव। सहस्रप्रधनेषु च। उग्र उग्राभिरूतिभिः।-तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.८.२

अशनायापिपासे ह वा उग्रं वचः। - तै १.५.९.६

१०६. दिशा का अभिजय : उग्रा मा तिष्ठेत्याह। इन्द्रियमेवावरुन्धे। तै.ब्रा.१.७.७.२

१०७. धूनुथ द्यां पर्वतान्दाशुषे वसु। नि वो वना जिहते धामनो भिया। कोपयथ पृथिवीं पृश्निमातरः। युधे यदुग्राः पृषतीरयुग्ध्वम्।।- तै.ब्रा.२.४.४.३  

१०८. अग्निः क्षत्रभृदनिभृष्टमोजः। सहस्रियो दीप्यतामप्रयुच्छन्। विभ्राजमानः समिधान उग्रः। आऽन्तरिक्षमरुहदगन्द्याम्।।- तै.ब्रा.२.४.६.१२   

१०९. उपांशु सवन में ग्रावा द्वारा सोम अंशुओं का सवन : वृषाऽस्यंशुर्वृषभाय गृह्यसे। वृषाऽयमुग्रो नृचक्षसे। दिव्य कर्मण्यो हितो बृहन्नाम। वृषभस्य या ककुत्।। तै.ब्रा.२.४.७.१  

११०. (हे इन्द्र ! ) इममाभज ग्रामे अश्वेषु गोषु। निरमुं भज यो मित्रो अस्य। वर्ष्मन्क्षत्रस्य ककुभि श्रयस्व। ततो न उग्रो वि भजा वसूनि।। - तै.ब्रा.२.४.७.७ । १११. यूयमुग्रा मरुतः पृश्निमातरः। इन्द्रेण सयुजा प्रमृणीथ शत्रून्। आ वो रोहितो अशृणोदभिद्यवः । त्रिसप्तासो मरुतः स्वादुसंमुदः।। - तै.ब्रा.२.५.२.३

११२. सुब्रह्माणं वीरवन्तं बृहन्तम्। उरुं गभीरं  पृथुबुध्नमिन्द्र। श्रुतर्षिमुग्रमभिमातिषाहम्। अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः।।- तै.ब्रा.२.५.७.१

११३. तमिन्द्रं जोहवीमि मघवानमुग्रम्। सत्रा दधानमप्रतिष्कुतं शवांसि। मंहिष्ठो गीर्भिरा च यज्ञियोऽववर्तत्। राये नो विश्वा सुपथा कृणोतु वज्री।। तै.ब्रा.२.५.८.९

११४. मरुत्वतीय ग्रहों में तीन पुरोरुक् में से प्रथम : अग्निश्रियो मरुतो विश्वकृष्टयः। आत्वेषमुग्रमव ईमहे वयम्। ते स्वामिनो रुद्रिया वर्षनिर्णिजः। सिंहा न हेषक्रतवः सुदानवः।।- तै.ब्रा.२.७.१२.३

११५. रथारोहण मन्त्राः : अभि प्रेहि वीरयस्व। उग्रश्चेत्ता सपत्नहा।- तै.ब्रा.२.७.१६.१ ११६. यजमान का अभिषेक?: अरुणं त्वा वृकमुग्रं  खजंकरम्। रोचमानं मरुतामग्रे अर्चिषः । सूर्यवन्तं मघवानं विषासहिम्। इन्द्रमुक्थेषु नामहूतमं हुवेम।।। तै.ब्रा.२.७.१५.६

११७. राजा द्वारा औदुम्बरी आसन्दी पर आरोहण मन्त्र : आरोह प्रोष्ठं विषहस्व शत्रून्। अवास्राग्दीक्षा वशिनी ह्युग्रा। देहि दक्षिणां प्रतिरस्वाऽऽयुः। अथा मुच्यस्व वरुणस्य पाशात्।।- तै.ब्रा.२.७.१७.१

११८. हवि की याज्या : आराच्छत्रुमपबाधस्व दूरम्। उग्रो यः शम्बः पुरुहूत तेन। अस्मे धेहि यवमद्गोमदिन्द्र। कृधी धियं जरित्रे वाजरत्नाम्।। - तै.ब्रा.२.८.२.७

११९. पशोः सूक्ते वपायाः पुरोनुवाक्या : मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानम्। अकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम्। विश्वासाहमवसे नूतनाय। उग्रं सहोदामिह तं हुवेम।। तै.ब्रा.२.८.३.४

१२०. वपा की याज्या : जनिष्ठा उग्रः सहसे तुराय। मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमानः। अवर्धन्निन्द्रं मरुतश्चिदत्र। माता यद्वीरं दधनद्धनिष्ठा।।- तै.ब्रा.२.८.३.५  

१२१. पुरोडाश की पुरोनुवाक्या : क्व स्या वो मरुतः स्वधाऽऽसीत्। यन्मामेकं समधत्ताहिहत्ये। अहं ह्युग्रस्तविषस्तुविष्मान्। विश्वस्य शत्रोरनमं वधस्नैः।। तै.ब्रा.२.८.३.५

१२२. इन्द्रायाभिमातिघ्ने ललामं प्राशृंगमालभेत इत्यस्य पशोः सूक्ते वपायाः पुरोनुवाक्या : इन्द्रस्तरस्वानभिमातिहोग्रः। हिरण्यवाशीरिषिरः सुवर्षाः । तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्य। अपि भद्रे सौमनसे स्याम।। - तै.ब्रा.२.८.४.१

१२३. पुरोडाश की याज्या : तमु ष्टुहि यो अभिभूत्योजाः। वन्वन्नवातः पुरुहूत इन्द्रः। अषाड्हमुग्रं सहमानमाभिः। गीर्भिर्वर्ध वृषभं चर्षणीनाम्।। तै.ब्रा.२.८.५.८

१२४. यथा देवा असुरेषु। श्रद्धामुग्रेषु चक्रिरे। एवं भोजेषु यज्वसु। अस्माकमुदितं कृधि।।- तै.ब्रा....

१२५. वपा की याज्या : प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम। वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता। आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चित्।। राजाचिद्यं भगं भक्षीत्याह।।- तै.ब्रा.२.८.९.७

१२६. उप नो मित्रावरुणाविहावतम्। अन्वादीध्याथामिह नः सखाया। आदित्यानां प्रसितिर्हेतिः । उग्रा शतापाष्ठाघविषा परि णो वृणक्तु ।।। तै.ब्रा.३.७.१३.४

१२७. ब्रह्मा द्वारा यजमान का प्रोक्षण : शतेनाराजभिरुग्रैः सह ब्रह्मा दक्षिणत उदङ्तिष्ठन्प्रोक्षति। अनेनाश्वेन मेध्येनेष्ट्वा। अयं राजाऽप्रतिधृष्योऽस्त्विति। बलं वै ब्रह्मा। बलमराजोग्रः। बलेनैवास्मिन्बलं दधाति। तै.ब्रा.३.८.५.१

१२८. इरा पत्नी विश्वसृजाम्। आकूतिरपिनड्ढविः। इध्मं ह क्षुच्चैभ्य उग्रे। तृष्णा चाऽऽवहतामुभे।।  तै.ब्रा.३.१२.९.५

१२९. अहोरात्रे पशुपाल्यौ। मुहूर्ताः प्रेष्या अभवन्।  मृत्युस्तदभवद्धाता। शमितोग्रो विशां पतिः ।।तै.ब्रा.३.१२.९.६

१३०. हविर्होमानुमन्त्रणम् (दक्षिण परिधिः): ध्रुवोऽसि ध्रुवोऽहं सजातेषु भूयासं धीरश्चेत्ता वसुविदुग्रोऽस्युग्रोऽहं सजातेषु भूयासमुग्रश्चेत्ता वसुविदभिभूरस्यभिभूरहं सजातेषु भूयासम्----- -  तै.सं.१.६.२.१, १.६.१०.१, २.३.९.१

१३१. य उग्र इव शर्यहा तिग्मश्रृंगो न वंसगः। अग्ने पुरो रुरोजिथ।- तै.सं.२.६.११.४

१३२. अदाभ्य अंशु ग्रहापेक्षित मन्त्राः: आऽस्मिन्नुग्रा अचुच्यतुर्दिवो धारा असश्चत। तै.सं.३.३.३.२, ३.३.४.१

१३३. वृषालम्भन कर्म : वर्ष्मन्क्षत्रस्य ककुभि शिश्रियाणस्ततो न उग्रो वि भजा वसूनि। तै.सं.३.३.९.२

१३४. जय मन्त्र होमम् : इन्द्राय वृष्णे प्रायच्छदुग्रः पृतनाज्येषु तस्मै विशः समनमन्त सर्वा स उग्रः स हि हव्यो बभूव।- तै.सं.३.४.४.१

१३५. आप्री नामक प्रयाज याज्या : येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढे येन सुवः स्तभितं येन नाकः। यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।तै.सं.४.१.८.५

१३६. आहवनीय चयनार्थ ओषधि वापन : याः त आतस्थुरात्मानं या आविविशुः परुः परुः। तास्ते यक्ष्मं वि बाधन्तां उग्रो मध्यमशीरिव।। तै.सं.४.२.६.४, जै.ब्रा.२.४१०, ऋ१०.९७.१२

१३७. ऋतव्य इष्टका : उग्रा च भीमा च पितॄणां यमस्य इन्द्रस्य तै.सं.४.४.११.२ , काठ २२.५

१३८. उग्रा दिशामभिभूतिर्वयोधाः शुचिः शुक्रे अहन्योजसीनां। (द्र.: सायण टीका)- तै.सं.४.४.१२.१

१३९. सूक्ताभ्यां होमाः : विश्वकर्मन् हविषा वर्धनेन त्रातारमिन्द्रमकृणोरवध्वम्। तस्मै विशः समनमन्त पूर्वीरयमुग्रो विहव्यो यथाऽसत्।।- तै.सं.४.६.२.६

१४०. अप्रतिरथ सूक्तम् : बलविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः। अभि वीरो अभि सत्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमा तिष्ठ गोवित्।। तै.सं.४.६.४.२

१४१. इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम्। महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात्।। - तै.सं.४.६.४.३

१४२. आख्यान : गन्धर्वमुग्रं बलिनम् अश्मघातिनम् अंसलम्। भारद्वाजस्य हन्तारं विश्वज्योतिषम् आ वह।।जै.ब्रा.२.२७०  

१४३. उग्रो वा एष मध्यमशीवा यन् महाव्रतम्। यद् वा उग्रो मध्यमशीवा भवति, सर्वान् वै सो ऽन्यान् व्यकीर्याथैकश् शेते। जै.ब्रा.२.४१०

१४४. बृहत्यां बृहद् भवति, बृहत्यां रथन्तरम्। यथोग्रगाधे संरभ्यातीयाद् एवम् एवैतं तृतीयं त्रियहं देवा अत्यायन्। जै.ब्रा.३.३२९ ।

१४५. एष ह वाव स देवानाम् अधि देवो य एष तपति। तस्यैतत् सहस्रस्थूणं विमितं दृढम् उग्रं यत् संवत्सर ऋतवो मासा अर्धमासा अहोरात्राणि उषसः । सहस्रस्थूणे विमिते दृढ उग्रे यत्र देवानाम् अधिदेव आस्ते।- जै.ब्रा.३.३८५

१४६. अग्निष्टोम प्रातः सवन में अंशु आदाभ्य पात्र : आस्मिन् उग्रा अचुच्यवुर्दिवो धारा असश्चत। बौधायन श्रौत सूत्र १४.१२.१२; आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १२.८.३

१४७. अश्वमेध में मुसल से श्वान को मारने के पश्चात् : अध्वर्यु सह शतेन तल्प्यानां राजपुत्राणां पुरस्तात्, ब्रह्मा सह शतेन अराज्ञां उग्राणां दक्षिणतः, होता सह शतेन सूतग्रामणीनां पश्चात्---- (अश्व का प्रोक्षण करते हैं)। - बौ.श्रौ.सू.१५.१, १५.५; आप.श्रौ.सू.२०.४.२, २०.५.१३   

१४८. प्रवर्ग्य उपसद में य उग्र इव शर्यहा ऋक् का विनियोग- आश्वलायन श्रौ.सू.४.८.८ ।

१४९. प्रोग्रां पीतिं वृष्ण इयर्मि सत्यां इति (ऋक्) याज्या- आश्वलायन श्रौ.सू.६.४.१०

१५०. उग्रा दिशामभिभूतिर्वयोधाः --- (ऋक्)। आश्व.श्रौ.सू.४.१२.२

१५१. विश्वेदेवाः सप्तदशेन वर्च इदं क्षत्रं सलिलवातमुग्रम्।--- - आश्व.श्रौ.सू.४.१२.२

यदुग्रो देव ओषधयो वनस्पतयस्तेन – कौब्रा ६.५

स्मात्स्वमहिम्ना सर्वांल्लोकान्सर्वान्देवान्सर्वानात्मनः सर्वाणि भूतान्युद्गृह्णात्यजस्रं सृजति विसृजति वासयत्त्युद्ग्राह्यत उद्गृह्यते स्तुहि श्रुतं गर्तसदं युवानं मृगं न भीममुपहन्त्रुमुग्रम् । मृडा जरित्रे रुद्र स्तवानो अन्यन्ते अस्मन्निवपन्तु सेनाः तस्मादुच्यत उग्रमिति ॥नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषत् २.