PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

The nearest analogy in our body with the rise of sun in the sky is the development of third eye. But mere development of third eye will not be sufficient until it becomes able to emit rays like sun. Our normal eyes see because they receive sun's reflected rays. So, modern science says that whatever we see, is not exactly true. The truth can be revealed only when our eyes themselves become sun, i.e., become their own source of light. 

    Upanishadic texts say that let us be able to arouse our sleeping desires by which we may get rid of ignorance. One upanishadic text has named the rising desires as mind. Let us gradually delete these desires, which will eliminate ignorance. When ignorance is completely eliminated, then our intellect becomes like a chaste wife for us. Otherwise, it wanders aimlessly throughout the world.

    The sun of outer world rises in east and sets in west. But the sun of spirituality has been stated to rise and set in all the directions. Which direction one has to choose for his penancest, depends on his basic qualities - like whether he is brahmin like, or a warrior like, or a businessman like, or a serviceman like. 

    In vedic literature, life forces/praanaas at microcosmic level have been equated with sun at macrocosmic level.

First published : 1999 AD; published on internet : 14-1-2008 AD(Pausha Shukla Shashthee, Vikramee Samvat 2064)

The nearest analogy in our body with the rise of sun in the sky is the development of third eye. But mere development of third eye will not be sufficient until it becomes able to emit rays like sun. Our normal eyes see because they receive sun's reflected rays. So, modern science says that whatever we see, is not exactly true. The truth can be revealed only when our eyes themselves become sun, i.e., become their own source of light.

    Upanishadic texts say that let us be able to arouse our sleeping desires by which we may get rid of ignorance. One upanishadic text has named the rising desires as mind. Let us gradually delete these desires, which will eliminate ignorance. When ignorance is completely eliminated, then our intellect becomes like a chaste wife for us. Otherwise, it wanders aimlessly throughout the world.

    The sun of outer world rises in east and sets in west. But the sun of spirituality has been stated to rise and set in all the directions. Which direction one has to choose for his penancest, depends on his basic qualities - like whether he is brahmin like, or a warrior like, or a businessman like, or a serviceman like.

    In vedic literature, life forces/praanaas at microcosmic level have been equated with sun at macrocosmic level.

 

उदय

टिप्पणी : जिस प्रकार भौतिक जगत में सूर्य के उदय - अस्त का दर्शन होता है , इसी प्रकार मनुष्य देह में भ्रूमध्य में तीसरे चक्षु के स्थान पर सूर्य के उदय - अस्त का दर्शन कुछ लोग करने में समर्थ हो जाते हैं । भ्रूमध्य में तीसरे चक्षु के रूप में स्थित ज्योति का दर्शन तो बहुत व्यक्ति कर लेते हैं , लेकिन यह चक्षु सूर्य की भाति किरणें फैलाने वाला हो , सारे ब्रह्माण्ड को अपनी ज्योति से प्रकाशित कर दे , यह कठिन कार्य प्रतीत होता है । भायला ग्राम स्थित श्री राजपाल जी का कहना है कि इस तीसरे चक्षु से इतनी ज्योति निकलती है कि अन्धा व्यक्ति भी घोर अन्धकार में गिरी हुई सुई तक उठा सकता है । ऋग्वेद १०.८८.६ में सूर्य के उदय होने के लिए अपेक्षित स्थिति का कथन इस प्रकार किया गया है कि रात्रि की अग्नि यदि भुव: लोक की मूर्धा बन जाए तो तब प्रातः सूर्य का उदय होता है । मानव देह में भुव: / अन्तरिक्ष लोक की मूर्धा संभवतः तीसरे चक्षु का स्थान ही है । अतः तीसरे चक्षु का पूर्ण विकास सूर्य के उदय के लिए अनिवार्य है ( उपनिषदों आदि में तीसरे चक्षु के दर्शन की विधि यह बताई गई है कि अपने हाथ के दोनों अंगूठों से दोनों कान बंद कर ले, दोनों तर्जनी अंगुलियों को दोनों  आंखों के ऊपर रख ले, अनामिका अंगुलियों से नासा छिद्र बन्द कर ले और भ्रूमध्य में ध्यान का प्रयास करे । ऐसा करने से , प्रातःकाल जब पेट स्वच्छ होता है , तब तीसरे चक्षु के दर्शन हो जाते हैं । वैदिक ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से (उदाहरणार्थ ऋग्वेद६.५१.१ , ७.३५.८, ७.६०.२ , ७.६१.१ , ७.६३.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.७.३ ) उदय होते हुए सूर्य को उरुचक्षा आदि कहा गया है जो सारे अदृष्ट विश्व के दर्शन करा देता है । साधारण चक्षुओं में बाहर से प्रकाश जाता है , तभी वह दर्शन करने में समर्थ होते हैं । लेकिन तीसरा चक्षु स्वयं प्रकाशित है , वह औरों को भी प्रकाशित करता है । यह देह के और ब्रह्माण्ड के कण- कण का दर्शन करा देता है ( ऋग्वेद १.१९१.८ , शतपथ ब्राह्मण ८.१.२.१ , ११.३.८.४ ) । आजकल के विज्ञान में सूक्ष्म दर्शन की एक्स - रे आदि जो विधियां हैं , तीसरा चक्षु उनसे भी उत्कृष्ट है । पुराणों में उदय पर्वत के सम्मुख सुदर्शन पर्वत की स्थिति के उल्लेख के पीछे यही कारण हो सकता है ।

          मैत्रायणी उपनिषद ७.६ , नादबिन्दूपनिषद २२, त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषद ५.२ व ८.१२ , महोपनिषद ४.१०८ , अन्नपूर्णोपनिषद ४.४८ तथा मुक्तिकोपनिषद २.८ में वासना , अविद्या , तत्त्वज्ञान , कार्य - कारण आदि के उदयों का कथन है । मुक्तिकोपनिषद के अनुसार तो जब साधना द्वारा व्यक्ति वासना का उदय कराने में समर्थ हो जाए , तभी साधना की सफलता समझनी चाहिए । महोपनिषद ने उदय होने वाली वासना को मन नाम दिया है जिसका क्रमशः हरण करने से अविद्या का क्षय होता है । त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषद के अनुसार चिरन्तन अति सूक्ष्म वासना के कारण पुनः - पुनः अविद्या का उदय होता है जिससे यथापूर्व अविद्या कार्य होते रहते हैं । इस प्रकार  जीव में कार्य और कारण का चक्र चलता रहता है । जब अविद्या का नाश हो जाता है तो हमारी धी एक पतिव्रता की भांति अन्त:पुर रूपी हमारे शरीर में ही व्याप्त हो जाती है । इससे पूर्व वह बाहर भागी - भागी फिरती रहती है ।

          भौतिक जगत में तो सूर्य का उदय केवल पूर्व दिशा में ही होता है । लेकिन पुराणों में सार्वत्रिक रूप से चार दिशाओं में इन्द्र आदि की पुरियों में सूर्य के उदयास्त का वर्णन मिलता है । इसी से साम्य रखने वाला वर्णन मैत्रायणी उपनिषद ७.१ तथा छान्दोग्य उपनिषद ३.६.४ से ३.११.२ में मिलता है जो एक प्रकार से पुराणों के कथन की अध्यात्म में व्याख्या करता है । प्रत्येक दिशा में सूर्य के उदय का स्वरूप क्या होगा , कौन सा छन्द , कौन सा साम , कौन सी ऋतु , कौन सा देवता आदि आदि , यह सब उपनिषदों के वर्णन में दिया गया है । शतपथ ब्राह्मण २.१.३.५ में वसन्त , ग्रीष्म व वर्षा ऋतुओं को क्रमशः ब्राह्मण , क्षत्रिय व वैश्य से सम्बद्ध किया गया है । अत साधना में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम किन गुणों का - ब्राह्मण के , क्षत्रिय के अथवा वैश्य के गुणों का आश्रय लेकर साधना का आरम्भ कर रहे हैं । उसी के अनुसार सूर्योदय की स्थिति में परिवर्तन हो जाएगा । उदयनीय अतिरात्र के संदर्भ में दिशाओं का वर्णन शतपथ ब्राह्मण ३.२.३.१५ में द्रष्टव्य है । अथर्ववेद १३.२.३४ आदि में भी सूर्य के प्रदिशाओं में उदय का उल्लेख है । इस प्रश्न का अन्वेषण महत्वपूर्ण है कि उपनिषदों और पुराणों में जो ६ अथवा ४ दिशाओं में सूर्य के उदय का वर्णन किया गया है , क्या उस वर्णन के संकेत ऋग्वेद व अथर्ववेद की ऋचाओं में भी मिलते हैं और क्या यह वर्णन ऋग्वेद व अथर्ववेद की ऋचाचों को समझने में भी सहायक हो सकता है ?

          पुराणों में सार्वत्रिक रूप से उदय पर्वत पर मेघों द्वारा वर्षण करने के उल्लेख मिलते हैं । इस संदर्भ को समझने में ऋग्वेद १.१६४.५१ की ऋचा उपयोगी हो सकती है जहां अग्नि और पर्जन्य , दोनों को संभवतः उदक कहा गया है । इनमें से एक उदक अग्नि ऊपर जाकर उदित होता है और दूसरा उदक पर्जन्य नीचे आकर भूमि को तृप्त करता है। भौतिक जगत में सूर्य जल का कर्षण करता है जिससे मेघ बनता है और तब वर्षण होता है । अध्यात्म का सूर्य  प्राण  रूपी  उदक का कर्षण कर सकता है ( द्रष्टव्य - भागवत पुराण २.३१.७ में उदय  होते  हुए  सूर्य  द्वारा पुरुषों की आयु का हरण )। जिन प्राणों का सूर्य द्वारा कर्षण किया गया है , उनका वर्षण सूर्य ऐसे रूप में करेगा जिससे यह देह रूपी भूमि आनन्द से परिप्लावित हो जाएगी । शतपथ ब्राह्मण २.३.३.७ के अनुसार यह जो सूर्य है , यह मृत्यु है । यह अपने से नीचे की प्रजा का हनन कर देता है । जो ऊपर की प्रजाएं हैं , वह देव हैं , अमृत हैं । अग्निहोत्र को मृत्यु से बचने का उपाय कहा गया है ।

          सूर्योदय उषा के आगमन के पश्चात् होता है । उषा शब्द की टिप्पणी में उषा को आधुनिक भौतिक विज्ञान की एन्ट्रांपी के तुल्य कहा गया है । एन्ट्रांपी में वृद्धि होने के पश्चात् जड पदार्थ का प्रावस्था रूपान्तरण , अंग्रेजी भाषा में फेज ट्रांसफार्मेशन हो सकता है , उदाहरण के लिए ठोस पदार्थ द्रव रूप में , द्रव गैस में , चुम्बकीय पदार्थ अचुम्बकीय पदार्थ में रूपान्तरित हो सकता है । चेतना के विज्ञान में उदय रूपी प्रावस्था रूपान्तरण का रूप क्या होगा , यह विचारणीय है ।

          स्कन्द पुराण में उदयाद्रि के नितम्ब रूप के उल्लेख के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १०.६.४.१ में मेध्य अश्व के अवयवों के लिए कहा गया है कि उषा मेध्य अश्व का शिर हो सकता है , सूर्य चक्षु , - - - -उद्यन् पूर्वार्ध: , निम्लोचन् जक्षनार्धः ।

          पुराणों में उदय पर्वत के स्वर्णिम होने के उल्लेख के संदर्भ को समझने में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१०.७ का यह उल्लेख सहायक हो सकता है कि उदय होकर आदित्य अह रूपी सुवर्णा कुशी में लीन होता है , जबकि अस्त होकर रात्रि रूपी रजता कुशी में ।

          ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से ( उदाहरण के लिए , शतपथ ब्राह्मण २.३.१.१ , ऐतरेय ब्राह्मण ५.२९ , तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.४.३ , २.१.२.७ , २.१.९.३, जैमिनीय ब्राह्मण २.३७ ) यह विस्तृत चर्चा की गई है कि सूर्य रूपी अग्निहोत्र के लिए अग्नि में आहुति सूर्योदय से पूर्व दी जाए अथवा सूर्योदय के पश्चात् ।

 

उदयसिंह

टिप्पणी : भविष्य पुराण में उदयसिंह के अनुज आह्लाद होने के संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.९.४ का यह कथन युक्तिसंगत है कि सूर्य के उदय होने पर सारी प्रजा आनन्द को प्राप्त होती है । ताण्ड्य ब्राह्मण ५.८.५ व १४.५.१७ के अनुसार गवामयन एवं द्वादशाह यज्ञ ऐसे हैं जैसे समुद्र में स्नान करना । लेकिन इस समुद्र से उदित होने में केवल वही समर्थ होता है जो प्लव का , तैरने के साधन का आश्रय लेकर स्नान करता है । उपरोक्त संदर्भ में प्लव साम है और समुद्र समुद , आनन्द का समुद्र है ।

 

संदर्भ:

उदय

१एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि । शतं रथेभिः सुभगोषा इयं व यात्यभि मानुषान् ॥ - ऋ.१.४८.७

२यदिन्द्राग्नी उदिता सूर्यस्य मध्ये दिवः स्वधया मादयेथे । अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥ - ऋ.१.१०८.१२

३प्रत्यङ् देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् । प्रत्यङ् विश्वं स्वर्दृशे ॥ - ऋ.१.५०.५

४अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात् । - ऋ.१.११५.६

५उषा उच्छन्ती समिधाने अग्ना उद्यन्त्सर्य उर्विया ज्योतिरश्रेत् । देवो नो अत्र सविता न्वर्थं प्रासावीद् द्विपत् प्र चतुष्पदित्यै ॥ - ऋ.१.१२४.१

६अबोध्यग्निर्ज्म उदेति सूर्यो व्युषाश्चन्द्रा मह्यावो अर्चिषा । - ऋ.१.१५७.१

७यदक्रन्द: प्रथमं जायमान उद्यन् त्समुद्रादुत वा पुरीषात् । ( अश्व ) - ऋ.१.१६३.१

८समानमेतदुकमुच्चैत्यव चाहभिः । भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः ॥ - ऋ.१.१६४.५१

९उत् पुरस्तात् सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा । अदृष्टान् त्सर्वाञ्जम्भयन् त्सर्वाश्च यातुधान्यः ॥ - ऋ.१.१९१.८

१०ते विद्वांसः प्रतिचक्ष्यानृता पुनर्यत उ आयन् तदुदीयुराविशम् ॥ - ऋ.२.२४.६

११त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूर उदिते बोधि गोपाः । - ऋ.३.१५.२

१२तं जानतीः प्रत्युदायन्नुषासः पतिर्गवामभवदेक इन्द्रः ॥ - ऋ.३.३१.४

१३यातमश्विना सुकृतो दुरोणमुत् सूर्यो ज्योतिषा देव एति ॥ - ऋ.४.१३.१

१४यन्मरुतः सभरसः स्वर्णरः सूर्य उदिते मदथा दिवो नरः । - ऋ.५.५४.१०

१५हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयःस्थूणमुदिता सूर्यस्य । - ऋ.५.६२.८

१६प्रातर्देवीमदितिं जोहवीमि मध्यंदिन उदिता सूर्यस्य । - ऋ.५.६९.३

१७उता यातं संगवे प्रातरह्नो मध्यंदिन उदिता सूर्यस्य । ( अश्विनौ ) - ऋ.५.७६.३

१८यज्ञस्य वा निशितिं वोदितिं वा तमित् पृणक्षि शवसोत राया ॥ ( अग्निः ) - ऋ.६.१५.११

१९उदु त्यच्चक्षुर्महि मित्रयोराf एति प्रियं वरुणयोरदब्धम् । - ऋ.६.५१.१

२०आ देवो ददे बुध्न्या वसूनि वैश्वानर उदिता सूर्यस्य । - ऋ.७.६.७

२१सत्रे ह जाताविषिता नमोभिः कुम्भे रेतः सिषिचतुः समानम् । ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥ - ऋ.७.३३.१३

२२शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु । - ऋ.७.३५.८

२३उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम् । उतोदिता मघवन् त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ॥ - ऋ.७.४१.४

२४यदद्य सूर्य ब्रवोऽनागा उद्यन् मित्राय वरुणाय सत्यम् । वयं देवत्रादिते स्याम तव प्रियासो अर्यमन् गृणन्तः ॥ - ऋ.७.६०.१

२५एष स्य मित्रावरुणा नृचक्षा उभे उदेति सूर्यो अभि ज्मन् । विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च गोपा ऋजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन् ॥ - ऋ.७.६०.२

२६उद् वां चक्षुर्वरुण सुप्रतीकं देवयोरेति सूर्यस्ततन्वान् । अभि यो विश्वा भुवनानि चष्टे स मन्युं मर्त्येष्वा चिकेत ॥ - ऋ.७.६१.१

२७उद्वेति सुभगो विश्वचक्षाः साधारणः सूर्यो मानुषाणाम् । चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य देवश्चर्मेव यः समविव्यक् तमांसि ॥ - ऋ.७.६३.१

२८उद्वेति प्रसवीता जनानां महान् केतुरर्णवः सूर्यस्य । - ऋ.७.६३.२

२९विभ्राजमानः उषसामुपस्थाद् रेभैरुदेत्यनुमद्यमानः । - ऋ.७.६३.३

३०दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति दूरेअर्थस्तरणिर्भ्राजमानः । - ऋ.७.६३.४

३१प्रति वां सूर उदिते विधेम नमोभिर्मित्रावरुणोत हव्यै: ॥ - ऋ.७.६३.५

३२प्रति वां सूर उदिते सूक्तैर्मित्रं हुवे वरुणं पूतदक्षम् । - ऋ.७.६५.१

३३यदद्य सूर उदिते ऽनागा मित्रो अर्यमा । सुवाति सविता भगः ॥ - ऋ.७.६६.४

३४प्रति वां सूर उदिते मित्रं गृणीषे वरुणम् । अर्यमणं रिशादसम् ॥ - ऋ.७.६६.७

३५तद् वो अद्य मनामहे सूक्तै: सूर उदिते । - ऋ.७.६६.१२

३६उदु त्यद्दर्शतं वपुर्दिव एति प्रतिह्वरे । यदीमाशुर्वहति देव एतशो विश्वस्मै चक्षसे अरम् ॥ - ऋ.७.६६.१४

३७तानीदहानि बहुलान्यासन् या प्राचीनमुदिता सूर्यस्य । - ऋ.७.७६.३

३८उदुस्रियाः सृजते सूर्यः सचाf उद्यन्नक्षत्रमर्चिवत्। तवेदुषो व्युषि सूर्यस्य च सं भक्तेन गमेमहि ॥ - ऋ.७.८८.२

३९इन्द्रासोमा दुष्कृतो वव्रे अन्तरनारम्भणे तमसि प्र विध्यतम् । यथा नातः पुनरेकश्चनोदयत् तद् वामस्तु सहसे मन्युमच्छवः ॥ - ऋ.७.१०४.३

४०मम त्वा सूर उदिते मम मध्यंदिने दिवः । मम प्रपित्वे अपिशर्वरे वसवा स्तोमासो अवृत्सत ॥ - ऋ.८.१.२९

४१हवे त्वा सूर उदिते हवे मध्यंदिने दिवः । जुषाण इन्द्र सप्तिभिर्न आ गहि ॥ - ऋ.८.१३.१३

४२यदद्य सूर्य उद्यति प्रियक्षत्रा ऋतं दध । यन्निम्रुचि प्रबुधि विश्ववेदसो यद्वा मध्यंदिने दिवः ॥ - ऋ.८.२७.१९

४३यदद्य सूर उदिते यन्मध्यंदिन आतुचि । वामं धत्थ मनवे विश्ववेदसो जुह्वानाय प्रचेतसे ॥ - ऋ.८.२७.२१

४४नाभाकस्य प्रशस्तिभिर्यः सिन्धूनामुपोदये। सप्तस्वसा स मध्यमो नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ.८.४१.२

४५सोमस्य मित्रावरुणोदिता सूर आ ददे । तदातुरस्य भेषजम् ॥ - ऋ.८.७२.१७

४६उद्धेदभि श्रुतामघं वृषभं नर्यापसम् । अस्तारमेषि सूर्य ॥ - ऋ.८.९३.१

४७उदिता यो निदिता वेदिता वस्वा यज्ञियो ववर्तति । - ऋ.८.१०३.११

४८सप्त वीरासो अधरादुदायन्नष्टोत्तरात्तात् समजग्मिरन्ते । नव पश्चातात् स्थिविमन्त आयन् दश प्राक् सानु वि तिरन्त्यश्न: ॥ - ऋ.१०.२७.१५

४९देवानां माने प्रथमा अतिष्ठन् कृन्तत्रादेषामुपरा उदायन् । - ऋ.१०.२७.२३

५०विश्वा इदुस्रा: स्पळुदेति सूर्यः स्वस्त्यग्निं समिधानमीमहे ॥ - ऋ.१०.३५.८

५१विश्वमन्यन्नि विशते यदेजति विश्वाहापो विश्वाहोदेति सूर्यः ॥ - ऋ.१०.३७.२

५२मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्निस्ततः सूर्यो जायते प्रातरुद्यन् । मायामू तु यज्ञियानामेतामपो यत् तूर्णिश्चरति प्रजानन् ॥ - ऋ.१०.८८.६

५३त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्~ पुनः । ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥ - ऋ.१०.९०.४

५४उद्वृत्रहन् वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतां यन्तु घोषाः ॥ - ऋ.१०.१०३.१०

५५दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीर् ऋतेन । - ऋ.१०.१०८.११

५६यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ - ऋ.१०.१२१.६

५७अनु सूर्यमुदयतां हृद्द~योतो हरिमा च ते । गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परि दध्मसि ॥ - अथर्व १.२२.१

५८उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्रोचन् हन्तु रश्मिभिः । ये अन्तः क्रिमयो गवि ॥ - अ.२.३२.१

५९आ त्वा गन् राष्ट्रं सह वर्चसोदिहि प्राङ् विशां पतिरेकराट् त्वं वि राज । - अ.३.४.१

६०उतोदितौ मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ॥ - अ.३.१६.४

६१उद्धर्षन्तां मघवन् वाजिनान्युद् वीराणां जयतामेतु घोषः । - अ.३.१९.६

६२तव व्रते नि विशन्ते जनासस्त्वय्युदिते प्रेरते चित्रभानो । - अ.४.२५.३

६३अहं तमस्य नृभिरग्रभं रसं तमस इव ज्योतिरुदेतु सूर्यः ॥ - अ.५.१३.३

६४उत् पुरस्तात् सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा । - अ.५.२३.६

६५उत् सूर्यो दिव एति पुरो रक्षांसि निजूर्वन् । आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ॥ - अ.६.५२.१

६६संप्रेद्धो अग्निर्जिह्वाभिरुदेतु हृदयादधि ॥ - अ.६.७६.१

६७यद्देवा देवान् हविषायजन्तामर्त्यान् मनसामर्त्येन । मदेम तत्र परमे व्योमन् पश्येम तदुदितौ सूर्यस्य ॥ - अ.७.५.३

६८यथा सूर्यो नक्षत्राणामुद्यंस्तेजांस्याददे । एवा स्त्रीणां च पुंसां च द्विषतां वर्च आ ददे ॥ यावन्तो मा सपत्नानामायन्तं प्रतिपश्यथ । उद्यन्त्सूर्य इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आ ददे ॥ - अ.७.१४.१

६९अस्मै मृत्यो अधि ब्रूहीमं दयस्वोदितोयमेतु । - अ.८.२.८

७०इन्द्रासोमा दुष्कृतो वव्रे अन्तरनारम्भणे तमसि प्र विध्यतम् । यतो नैषां पुनरेकश्चनोदयत् तद् वामस्तु सहसे मन्युमच्छवः ॥ - अ.८.४.३

७१वत्सो विराजः सलिलादुदैतां तौ त्वा पृच्छामि कतरेण दुग्धा ॥ - अ.८.९.१

७२ततः षष्ठादामुतो यन्ति स्तोमा उदितो यन्त्यभि षष्ठमह्नः ॥ - अ.८.९.६

७३उद्यन्नादित्यो द्रविणेन तेजसा नीचैः सपत्नान् नुदतां मे सहस्वान् ॥ - अ.९.२.१५

७४यो वा उद्यन्तं नामर्तुं वेद । उद्यतीमुद्यतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते ।एष वा उद्यन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः ॥ - अ.९.५.३५

७५तस्मा उद्यन्त्सूर्यो हिङ्कृणोति संगवः प्र स्तौति । मध्यंदिन उद्गायत्यपराह्णः प्रति हरत्यस्तंयन् निधनम् । - अ.९.१०.४

७६उद्यन्नादित्य रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगमनीनशोऽङ्गभेदमशीशमः ॥ - अ.९.१३.२२

७७यस्त्वोवाच परेहीति प्रतिकूलमुदाय्यम् । तं कृत्येऽभिनिवर्तस्व मास्मानिच्छो अनागसः ॥ - अ.१०.१.७

७८राद्धिः समृद्धिव्यृद्धद्धिर्मतिरुदितयः कुतः ॥ - अ.१०.२.१०

७९यतः सूर्य उदेत्यस्तं यत्र च गच्छति । तदेव मन्येऽहं ज्येष्ठं तदु नात्येति किं चन ॥ - अ.१०.८.१६

८०येन देवा ज्योतिषा द्यामुदायन् ब्रह्मौदनं पक्त्वा सुकृतस्य लोकम् । तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥ - अ.११.१.३७

८१तवेमे पृथिवि पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं मर्त्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति ॥ - अ.१२.१.१५

८२उद्यंस्त्वं देव सूर्य सपत्नानव मे जहि । अवैनानश्मना जहि ते यन्त्वधमं तमः ॥ - अ.१३.१.३२

८३प्रत्यङ् देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषीः । प्रत्यङ् विश्वं स्वर्दृशे ॥ - अ.१२.२.२०

८४केतुमानुद्यन्त्सहमानो रजांसि विश्वा आदित्य प्रवतो वि भासि ॥ - अ.१३.२.२८

८५चित्रं देवानां केतुरनीकं ज्योतिष्मान् प्रदिशः सूर्य उद्यन् । - अ.१३.२.३४

८६स वरुणः सायमग्निर्भवति स मित्रो भवति प्रातरुद्यन् । - अ.१३.३.१३

८७पश्चात् प्राञ्च आ तन्वन्ति यदुदेति वि भासति । रश्मिभिर्नभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः ॥ - अ.१३.४.७

८८उदिह्युदिहि सूर्य वर्चसा माभ्युदिहि । द्विषंश्च मह्यं रध्यतु मा चाहं द्विषते रधं तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि । - अ.१७.१.६

८९उदिह्युदिहि सूर्य वर्चसा माभ्युदिहि । यांश्च पश्यामि यांश्च न तेषु मा सुमतिं कृधि तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि । - अ.१७.१.७

९०उद्यते नम उदायते नम उदिताय नमः । विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजे नमः ॥ - अ.१७.१.२२

९१अग्निर्मा गोप्ता परि पातु विश्वत उद्यन्त्सूर्यो नुदतां मृत्युपाशान् । व्युच्छन्तीरुषसः पर्वता ध्रुवाः सहस्रं प्राणा मय्या यतन्ताम् ॥ - अ.१७.१.३०

९१ये अग्रवः शशमानाः परेयुर्हित्वा द्वेषांस्यनपत्यवन्तः । ते द्यामुदित्याविदन्त लोकं नाकस्य पृष्ठे अधि दीध्यानाः ॥ - अ.१८.२.४७

९२शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नो भवन्तु प्रदिशश्चतस्रः । - अ.१९.१०.८

९३भिन्द्धि दर्भ सपत्नानां हृदयं द्विषतां मणे । उद्यन्त्वचमिव भूम्याः शिर एषां वि पातय ॥ - अ.१९.२८.४

९४कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः ॥ - अ.१९.५४.१

९५उद् घेदभि श्रुतमघं वृषभं नर्यापसम् । अस्तारमेषि सूर्य । - अ.२०.७.१

९६प्रत्यङ् देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषीः । - अ.२०.४७.१७

९७चित्रं देवानां केतुरनीकं ज्योतिष्मान् प्रदिशः सूर्य उद्यन् । - अ.२०.१०७.१३

९८पूर्णिमा : तद्धैके दृष्ट्वोपवसन्ति । श्वो नोदेतेति । अदो हैव देवानामविक्षीणमन्नं भवति , - - - - - शतपथ१.६.४.१४

९९तद्वा एष एवेन्द्रो य एष तपति । अथैष एव वृत्रो यच्चन्द्रमाः । - - -तस्माद् यद्यपि पुरा विदूरमिवोदितः , अथैनमेतां रात्रिमुपैव न्याप्लवते । - श.१.६.४.१८

१००दर्शोपचारः : तं ( चन्द्रमसं ) ग्रसित्वोदेति । स न पुरस्तान्न पश्चाद् ददृशे । - - - - -श.१.६.४.१९

१०१हवनक्लृप्तिः : तद्वा एष एव वषट्कारः - य एष तपति । स उद्यन्नेवामूमधिद्रवति , अस्तं यन्निमामधिद्रवति । - श.१.७.२.११

१०२नक्षत्रब्राह्मणम् : अमी ह्युत्तराहि सप्तर्षय उद्यन्ति , पुर एताः (कृत्तिकाः ) । - श.२.१.२.४

१०३नाना ह वा एतान्यग्रे क्षत्राण्यासुः - यथैवासौ सूर्य , एवम् । तेषामेष उद्यन्नेव वीर्य्यं क्षत्रमादत्त । तस्मादादित्यो नाम - यदेषां वीर्य्यं क्षत्रमादत्त । - श.२.१.२.१८

१०४ऋतुब्राह्मणम् : सूर्य एवैषां पाप्मनोऽपहन्ता । उद्यन्नेवैषामुभयेषां पाप्मानमपहन्ति । - श.२.१.३.९

१०५अग्निमन्थनब्राह्मणम् : तद्धैकेऽनुदिते मथित्वा , तमुदिते प्राञ्चमुद्धरन्ति । - - - - - -तदु तथा न कुर्यात् - उभौ हैवास्य तथाऽनुदित आहितौ भवतः । अनुदिते हि मथित्वा तमुदिते प्राञ्चमुद्धरन्ति । स य उदित आहवनीयं मन्थेत् - स ह तत्पर्याप्नुयात् । - श.२.१.४.८

१०६पुरा हायुषो मि|यते - योऽनुदिते मन्थति । - - - -यशो ह भवति , य एवं विद्वानुदिते मन्थति । - श.२.१.४.९

१०७स स्वाहेत्येवाजुहोत् - तस्मादु स्वाहेत्येव हूयते । तत एष उदियाय - य एष तपति । - श.२.२.४.६

१०८सूर्यो ह वा अग्निहोत्रम् । तद्यदेतस्या अग्रे आहुतेरुदैत् , तस्मात्सूर्योऽग्निहोत्रम् । - श.२.३.१.१

१०९अथ यत् प्रातरनुदिते जुहोति - प्रजनयत्येवैनमेतत्सोऽयं तेजो भूत्वा विभ्राजमान उदेति । शश्वद्ध वै नोदियात् - यदस्मिन्नेतामाहुतिं न जुहुयात् । - श.२.३.१.५

११०अथ यत्प्रातरनुदिते जुहोति - अप्रेतेभ्य एवैभ्य एतज्जुहोति । तस्मादुदितहोमिनां विच्छिन्नमग्निहोत्रं मन्यामह - इति ह स्माहासुरिः । - श.२.३.१.९

१११यदा ह्येव सूर्योऽस्तमेति - अथाग्निर्ज्योतिः । यदा सूर्य उदेति - अथ सूर्यो ज्योतिः । -श.२.३.१.३०

११२अग्नावेवैतत्सायं सूर्यं जुहोति , सूर्ये प्रातरग्निमिति । तद्वै तदुदितहोमिनामेव । यदा ह्येव सूर्योऽस्तमेति - अथाग्निर्ज्योतिः । यदा सूर्य उदेति - अथ सूर्यो ज्योतिः । - श.२.३.१.३६

११३स यस्य कामयते - तस्य प्राणमादायोदेति - स मि|यते । -श.२.३.३.८

११४अथ यत् प्रातरनुदिते द्वे आहुती जुहोति - तदेताभ्यामपराभ्यां पद्भ्यामेतस्मिन् मृत्यौ प्रतितिष्ठति । स एनमेष उद्यन्नेवादायोदेति । तदेतं मृत्युमतिमुच्यते । - श.२.३.३.९

११५अथ प्राङिवोदङ्ङुत्क्रामति - उदिदाभ्यः शुचिरापूत एमि इति । - श.३.१.२.१२

११६पुरास्तमयादाह - दीक्षित वाचं यच्छेति । - - - -पुरोदयादाह - दीक्षितं वाचं यच्छेति । तामुदिते वाचं विसृजते - सन्तत्या एव । - श.३.२.२.२६

११७- - - -अमृतमायुर्हिरण्यम् । तद् अमृतऽआयुषि प्रतितिष्ठति । तथा त उदेति । तथा सञ्जीवति । - श.३.८.२.२७, ३.८.३.२६

११८घ्नन्ति वाऽएनमेतद् , यदभिषुण्वन्ति । तमेतेन घ्नन्ति । तथा त उदेति , तथा सञ्जीवति । तस्मादश्ममया ग्रावाणो भवन्ति । - श.३.९.४.२, ३.९.४.८, ३.९.४.१७

११९अन्तर्यामग्रहः : प्राणोदानौ ह वाऽअस्यैतौ ग्रहौ । तयोरुदितेऽन्यतरं जुहोति - अनुदितेऽन्यतरम् । -श.४.१.२.११

१२०अहोरात्रे ह वाऽअस्यैतौ ग्रहौ । तयोरुदितेऽन्यतरं जुहोति , अनुदितेऽन्यतरम् । अहोरात्रयोर्व्याकृत्यै । -श.४.१.२.१२

१२१रात्रिं सन्तमन्तर्यामं, तमुदिते जुहोति । रात्रिमेवैतदहन्दधाति । तेनो हासावादित्य उद्यन्नेवेमाः प्रजा न प्रदहति । - श.४.१.२.१४

१२२शुक्रामन्थिनौ ग्रहौ : एतौ ह वाऽआसां प्रजानां चक्षुषी । स यद्धैतौ नोदियाताम् - न हैवेह स्वौ चन पाणी निर्जानीयुः । - श.४.२.१.२

१२३ग्रहोपासनाब्राह्मणम् : स य एष सोमग्रहः । - - - -स उद्यन्तं वाऽऽदित्यमुपतिष्ठते, अस्तं यन्तं वा  -- - - - - - । - श.४.६.५.५

१२४इदं वाऽअसावादित्य उद्यन्नेव - यथाऽयमग्निर्निर्दहेद् एवमोषधीरन्नाद्यं निर्दहति । तदेता आपोऽभ्यवयत्यः शमयन्ति । - श.५.३.४.१६

१२५अथ बाहूऽउद्गृह्णाति - हिरण्यरूपाऽउषसो विरोकऽउभाविन्द्राऽउदिथः सूर्यश्च । आरोहतं वरुण मित्र गर्तम्, ततश्चाक्षाथाम् - अदितिम्, दितिं च इति । - श.५.४.१.१५

१२६यथाग्निर्धूम उदयते - एवमेषामूष्मोदयते ( पशूनाम् ) । - श.६.२.१.५

१२७अथोऽएषैव हव्यम् । अरिष्टा त्वमुदिहि यज्ञेऽअस्मिन् इति । यथैवारिष्टाऽनार्तैतस्मिन्यज्ञऽउदियादेवमेतदाह । - श.६.६.२.६

१२८अथ प्रातरुदितऽआदित्ये भस्मैव प्रथममुद्वपति । एतद्वाऽएनमेतेनान्नेन प्रीणाति - एतया समिधा, यच्च रात्र्योपसमादधाति । तस्यान्नस्य जग्धस्यैष पाप्मा सीदति - भस्म । श.६.६.४.२

१२९प्रासावीद्भद्रं द्विपदे चतुष्पदे इति । उद्यन्वाऽएष द्विपदे चतुष्पदे च भद्रं प्रसौति । वि नाकमस्यत् सविता वरेण्य इति । स्वर्गो वै लोको नाकः । तमेष उद्यन्नेवानुविपश्यति । - श.६.७.२.४

१३०स यदहः सन्निवप्स्यन्त्स्यात् - तदहः प्रातरुदित ऽआदित्ये भस्मैव प्रथममुद्वपति । - श.६.७.४.१४

१३१दर्भस्तम्बोपधानम् : या वै वृत्राद्बीभत्समाना आपो धन्व दृभन्त्य उदायन् - ते दर्भा अभवन् । यद्दृभन्त्य उदायन् - तस्माद्दर्भाः । - श.७.२.३.२

१३२ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद् इति । - - - -वि सीमतः सुरुचो वेन आवः इति । - - - -तानेष सीमतो मध्यतो विवृण्वन्नुदेति । - श.७.४.१.१४

१३३असौ वाऽआदित्यो विश्वव्यचाः । यदा ह्येवैष उदेति - अथेदं सर्वं व्यचो भवति । - श.८.१.२.१

१३४उपवसथीयेऽहन्प्रातरुदित आदित्ये वाचं विसृजते । - श.९.२.१.१

१३५आपप्रिवान्रोदसी अन्तरिक्षम् इति । उद्यन्वा एष इमांल्लोकानापूरयति । - श.९.२.३.१७

१३६अग्निरेव पुरः । - - - -आदित्य एव चरणम् । यदा ह्येवैष उदेति - अथेदं सर्वं चरति । तदेतद्यजु: सपुरश्चरणमधिदेवतम् । - श.१०.३.५.३

१३७अश्वावयवेषु विराडवयवोपासनं ब्राह्मणम् : उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः, - - - - -उद्यन्पूर्वार्धः, निम्लोचञ्जघनार्धः, यद्विजृम्भते - तद् विद्योतते । - श.१०.६.४.१

१३८नैमित्तिकी त्रिहविष्का अभ्युदयेष्टिः : तद्धैके दृष्ट्वोपवसंति । श्वोनोदेतेति । अभ्रस्य वा हेतोः । - - - - -- । श.११.१.४.१

१३९नैमित्तिकी दर्शयागे पुरस्ताच्चन्द्रदर्शने त्रिहविष्का अभ्युदयेष्टिसंज्ञिका प्रायश्चित्तेष्टिः : अथ यदैव नोदियात् । अथोपवसेत् ।- श.११.१.४.४

१४०दर्शयागे पश्चाच्चंद्रदर्शने त्रिहविष्का अभ्युदितेष्टिः : - - - - - -न ह्यन्यदपक्रमणं भवति । श्वः श्वऽएवैष ज्यायानुदेति । - श.११.१.५.४

१४१अश्वमेधीयप्रायश्चित्तानि : सूर्यो वै प्रजानां चक्षुः । यदा ह्येवैष उदेति । अथैतं सर्वं चरति । चक्षुषैवास्मिंस्तच्चक्षुर्दधाति । - श.१३.३.८.४

१४२अन्नहोमब्राह्मणम् :व्युष्ट्यै स्वाहेत्यनुदित आदित्ये जुहोति । स्वर्गाय स्वाहेत्युदिते । अहोरात्रयोरव्यतिमोहाय । श.१३.२.१.७

१४३अथ ह एनं निवपति । इयं वै पृथिवी प्रतिष्ठा । अस्यामेवैनमेतत् प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापयति । पुराऽऽदित्यस्योदयात् । - श.१३.८.३.२

१४४त्र्यन्नब्राह्मणं वा अविद्या विषयसंसारतत्त्वप्रदर्शकं ब्राह्मणं : अथैष श्लोको भवति - यतश्चोदेति सूर्यः । अस्तं यत्र च गच्छति - इति । प्राणाद्वा एष उदेति । प्राणे अस्तमेति । - श.१४.४.३.३४

१४५तम् ( यूपं ) अवाचीनाग्रं निमित्योर्ध्वा उदायंस्ततो वै मनुषाश्च ऋषयश्च देवानां यज्ञवास्तभ्यायन् - - - - - -। - ऐतरेय ब्रा. २.१

१४६तम् ( कवषं ऐलूषं ) आपोऽनूदायंस्तं सरस्वती समन्तं पर्यधावत्। ऐ.२.१९

१४७अग्निष्टोमः : तस्य संस्तुतस्य नवतिशतं स्तोत्रियाः सा या नवतिस्ते दश त्रिवृतोऽथ या नवतिस्ते दशाथ या दश तासामेका स्तोत्रियोदेति त्रिवृत्परिशिष्यते - - - - --मध्य एष एकविंश उभयतोऽध्याहितस्तपति तद्याऽसौ स्तोत्रियोदेति सैतस्मिन्नध्यूह्ळा स यजमानस्तद्दैवं क्षत्त्रं सहो बलम् । - ऐ.३.४१

१४८स एतमेव शस्त्रेणानु पर्यावर्तेत यदा वा एष प्रातरुदेत्यथ मन्द्रं तपति तस्मान्मन्द्रया वाचा प्रातःसवने शंसेत् - - - । - ऐ.३.४४

१४९अथ यदेनं प्रातरुदेतीति मन्यन्ते रात्रेरेव तदन्तमित्वाऽथाऽऽत्मानं विपर्यस्यतेऽहरेवावस्तातकुरुते रात्रिं परस्तात् । - ऐ.३.४४

१५०चित्रं देवानामुदगादनीकमिति त्रैष्टुभमसौ वाव चित्रं देवानामुदेति तस्मादेतच्छंसति । - ऐ.४.९

१५१उदित आदित्ये प्रातरनुवाकमनुब्रूयात्सर्वं ह्येवैतदहर्दिवाकीर्त्यं भवति । - ऐ.४.१९

१५२अब्जा इत्येष व अब्जा अद्भ्यो वा एष प्रातरुदेत्यपः सायं प्रविशति । - ऐ.४.२०

१५३प्रति वां सूर उदिते सूक्तैः - - - -- प्रउगं प्रतिवदन् - - - -अष्टमेऽहन्यष्टमस्याह~नो रूपम् । -ऐ.५.१८

१५४एतद्वा अग्निहोत्रमन्येद्युर्हूयते यदस्तमिते सायं जुहोत्यनुदिते प्रातरथैतदग्निहोत्रमुभयेद्युर्हूयते यदस्तमिते सायं जुहोत्युदिते प्रातः । तस्मादुतिते होतव्यम् । चतुर्विंशे ह वै संवत्सरेऽनुदितहोमी गायत्रीलोकमाप्नोति द्वादश उदितहोमी स यदा द्वौ संवत्सरावनुदिते जुहोत्यथ हास्यैको हुतो भवत्यथ य उदिते जुहोति संवत्सरेणैव संवत्सरमाप्नोति य एवं विद्वानुदिते जुहोति तस्मादुदिते होतव्यम् । एष ह वा अहोरात्रयोस्तेजसि जुहोति योऽस्तमिते सायं जुहोत्युदिते प्रातरग्निना वै तेजसा रात्रिस्तेजस्वत्यादित्येन तेजसाऽहस्तेजस्वत् । अहोरात्रयोर्हास्य तेजसि हुतं भवति य एवं विद्वानुदित जुहोति । तस्मादुदिते होतव्यम् । - ऐ.५.३०

१५५एते ह वा एनं देवते ब्रध्नस्य विष्टपं स्वर्गं लोकं गमयतो य एवं विद्वानुदिते जुहोति तस्मादुदिते होतव्यम् । - - - - - एवं यन्ति ते बहवो जनासः पुरोदयाज्जुह्वति येऽग्निहोत्रमिति । - ऐ.५.३०

१५६एतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नगरी जानश्रुतेय उदितहोमिनमैकादशाक्षं मानुतन्तव्यमुवाच - - - -तस्यो हैकादशाक्षे राष्ट्रमिव प्रजा बभूव राष्ट्रमिव ह वा अस्य प्रजा भवति य एवं विद्वानुदिते जुहोति तस्मादुदिते होतव्यम् । -ऐ.५.३०

१५६ उद्यन्नु खलु वा आदित्य आहवनीयेन रश्मीन्संदधाति स योऽनुदित जुहोति यथा कुमाराय वा वत्साय वाऽजाताय स्तनं प्रतिदध्यात्तादृक्तदथ य उदिते जुहोति यथा कुमाराय वा वत्साय वा जाताय स्तनं प्रतिदध्यात्तादृक्तत्त - - - - -- - -स योऽनुदिते जुहोति यथा पुरुषाय वा हस्तिने वाऽप्रयते हस्त आदध्यात्तादृक्तदथ य उदिते जुहोति यथा पुरुषाय वा हस्तिने वा प्रयते हस्त आदध्यात्तादृक्तत्तमेष एतेनैव हस्तेनोर्ध्वं हृत्वा स्वर्गे लोक आदधाति य एवं विद्वानुदिते जुहोति तस्मादुदिते होतव्यम् । उद्यन्नु खलु वा आदित्यः सर्वाणि भूतानि प्रणयति तस्मादेनं प्राण इत्याचक्षते प्राणे हास्य संप्रति हुतं भवति य एवं विद्वानुदिते जुहोति तस्मादुदिते होतव्यम् । एष ह वै सत्यं वदन्सत्ये जुहोति योऽस्तमिते सायं जुहोत्युदिते प्रातर्भूर्भुव स्वरोम- - - - -ऐ.ब्रा.५.३१

१५७तदाहुर्यस्याग्निहोत्रमधिश्रितममेध्यमापद्येत का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सर्वमेवैनत्स्रुच्यभिपर्यासिच्य प्राङुदेत्याऽऽहवनीये हैतां समिधमभ्याधाति - - - -- - -। - ऐ.७.५

१५८प्राजापत्योऽश्वः । यदश्वं पुरस्तान्नयति । स्वमेव चक्षुः पश्यन्प्रजापतिरनूदेति । - तैत्तिरीय ब्राह्मणम्  १.१.५.५

१५९नि वा एतस्याऽऽहवनीयो गार्हपत्यं कामयते । नि गार्हपत्य आहवनीयम् । यस्याग्निमनुद्धृतँ सूर्योऽभ्युदेति । - - - - -। तै.ब्रा.१.४.४.३

१६०पराची वा एतस्मै व्युच्छन्ती व्युच्छति । यस्याग्निमनुद्धृतँ सूर्योऽभ्युदेति । - - - - - - -। तै.ब्रा.१.४.४.५

१६१अन्तमेष यज्ञस्य गच्छति । यस्याग्निमनुद्धृतँ सूर्योऽभ्युदेति । - - - । - तै.ब्रा.१.४.४.६

१६२यस्याग्निमनुद्धृतँ सूर्योऽभ्युदेति । मैत्रं चरुं निर्वपेत् तेनैव यज्ञं निष्क्रीणीते । - तै.ब्रा.१.४.४.६

१६३यदा वै सूर्य उदेति । अथ नक्षत्रं नैति । - तै.ब्रा.१.५.२.१

१६४यावद्वा अग्नेर्दहतो धूम उदेत्यानुव्येति । तावती त्रिवृतो मात्रा । - तै.ब्रा.१.५.१०.४

१६५स यदादित्य उदेति । एतामेव तत्सुवर्णां कुशीमनुसमेति । अथ यदस्तमेति । एतामेव तद्रजतां कुशीमनुसंविशति । - तै.ब्रा.१.५.१०.७

१६६यन्मरुद्भ्यः क्रीडिभ्यः प्रथमf हविर्निरुप्यते विजित्यै । साकँ सूर्येणोद्यता निर्वपति । - तै.ब्रा.१.६.७.५

१६७यदनुदिते सूर्ये प्रातर्जुहुयात् । उभयमेवाऽऽग्नेयँ स्यात् । उदिते सूर्ये प्रातर्जुहोति । तथाऽग्नये सायँ हूयते । सूर्याय प्रातः । - तै.ब्रा.२.१.२.७

१६८उदिते सूर्ये प्रातर्जुहोति । प्रत्येव तेन तिष्ठति । प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति । स एतदग्निहोत्रं मिथुनमपश्यत् । तदुदिते सूर्येऽजुहोत् । यजुषाऽन्यत् । तूष्णीमन्यत् । ततो वै स प्राजायत । यस्यैवंविदुष उदिते सूर्येऽग्निहोत्रं जुह्वति प्रैव जायते । - तै.ब्रा.२.१.२.८

१६९उद्यन्तं वावाऽऽदित्यमग्निरनुसमारोहति । तस्माद्धूम एवाग्नेर्दिवा ददृशे । - तै.ब्रा.२.१.२.१०

१७०यदुदिते सूर्ये प्रातर्जुहुयात् । यथाऽतिथये प्रद्रुताय शून्यायाऽऽवसथायाऽऽहार्यं हरन्ति । तादृगेव तत् । - तै.ब्रा.२.१.२.१२

१७१रेतो वा एतस्य हितं न प्रजायते । यस्याग्निहोत्रमहुतँ सूर्योऽभ्युदेति । - तै.ब्रा.२.१.९.२

१७२अङ्गारा भवन्ति । तेभ्योऽङ्गारेभ्योऽर्चिरुदेति । प्रजापतिस्तर्ह्यग्निः । - तै.ब्रा.२.१.१०.३

१७३स ( इन्द्रः ) प्रजापतिरेव भूत्वा प्रजा आवयत् । - - - -मुखं पश्चात् । मुखमुत्तरतः । ऊर्ध्वा उदायन् । - तै.ब्रा.२.२.१०.७

१७४उद्यता सूर्येण कार्यः । उद्यन्तं वा एतँ सर्वाः प्रजाः प्रतिनन्दन्ति । - तै.ब्रा.२.७.९.४

१७५उदसावेतु सूर्यः । उदिदं मामकं वचः । उदिहि देव सूर्य । सह वग्नुना मम । - तै.ब्रा.२.७.१६.४

१७६हविषो याज्या : दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति । दूरे अर्थस्तरणिर्भ्राजमानः । नूनं जनाः सूर्येण प्रसूताः । आयन्नर्थानि कृणवन्नपाँसि । - तै.ब्रा.२.८.७.३

१७७पुरोडाशस्य याज्या :- - -उतोदिता मघवन्सूर्यस्य । वयं देवानाf सुमतौ स्याम । - तै.ब्रा.२.८.९.८

१७८उषोदेवताके यागे याज्या : तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी । उदुस्रियाः सचते सूर्यः सचा । उद्यन्नक्षत्रमर्चिमत् । तवेदुषो व्युषि सूर्यस्य च - तै.ब्रा.३.१.३.२

१७९नक्षत्रदेवताया इष्टिः : नक्षत्राय स्वाहोदेष्यते स्वाहा । उद्यते स्वाहोदिताय स्वाहा । - तै.ब्रा.३.१.६.४

१८०आहवनीयेऽन्वाधीयमाने जप्यं मन्त्रत्रयम् : अग्निं गृह्णामि सुरथं यो मयोभूः । य उद्यन्तमारोहति सूर्यमह्ने । - - - - - -। - तै.ब्रा.३.७.४.३

१८१उद्यन्नद्य मित्रमहः । सपत्नान्मे अनीनशः । दिवैनान्विद्युता जहि । निम्रोचन्नधरान्कृधि । उद्यन्नद्य वि नो भज । पिता पुत्रेभ्यो यथा । दीर्घायुत्वस्य हेशिषे । तस्य नो देहि सूर्य । उद्यन्नद्य मित्रमहः । आरोहन्नुत्तरां दिवम् । हृद्रोगं मम सूर्य । हरिमाणं च नाशय । - तै.ब्रा.३.७.६.२१

१८२उषसे स्वाहा व्युष्ट्यै स्वाहोदेष्यते स्वाहोद्यते स्वाहेत्यनुदिते जुहोति । उदिताय स्वाहा सुवर्गाय स्वाहा लोकाय स्वाहेत्युदिते जुहोति अहोरात्रयोरव्यतिमोहाय । - तै.ब्रा.३.८.१६.४

१८३निष्पन्नायाश्चितेरध्वर्योरुपस्थानम् : सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्यददावुदेति । - तै.ब्रा.३.१०.३.१

१८४सा ( आग्ला ) पृथिवीमुदैत् । सा पृथिवीं व्यदहत् । - गोपथ ब्रा.१.२.२१

१८५एषा ह वै सुमना नामेष्टिः । यमद्येजानं पश्चाच्चन्द्रमा अभ्युदियात्, अस्मा अस्मिँल्लोक आर्धुकं भवति । - गो.ब्रा.२.१.११

१८६तेषामेतदायतनं चोदयनं च यदाग्नीध्रं च सदश्च । तद् योऽविद्वान् संचरति, आर्तिमार्छति । - गो.ब्रा.२.२.१७

१८७यद्वेव मैत्रावरुणानि शंसति - प्रति वां सूर उदिते विधेम नमोभिर्मित्रावरुणोत हव्यैः । - गो.ब्रा.२.३.१३

१८८ते ये नक्तं जुह्वति रात्रिम् एव ते समुद्रं प्रविशन्ति । अथ य उदिते जुह्वत्य् अहर् एव ते समुद्रं प्रविशन्ति । - जै.ब्रा.१.५

१८९ते ये नक्तं जुह्वति रात्रिम् एव ते श्यामं प्रविशन्ति । अथ य उदिते जुह्वत्य् अहर् एव ते शबलं प्रविशन्ति । तयोर् एतद् एवात्ययनम् - अस्तम् इते पुरा तमिस्रायै सुव्युष्टायां पुरोदयात् । - जै.ब्रा.१.६

१९०स यथा हस्ती हरत्यासनम् उपर्य् आसीनम् आदायोत्तिष्ठेद् एवम् एवैषा देवतैतद् विद्वांसं जुह्वतम् आदायोदेति । - जै.ब्रा.१.११

१९१अथो खल्व~ आहुर् यद् आहवनीयम् अनुद्धृतम् अभ्युदियात् किं तत्र कर्म का प्रायश्चित्तिर् इति । एतस्माद् ध वै विश्वे देवा अपक्रामन्त यस्याहवनीयम् अनुद्धृतम् अभ्युदेति । - - - - -स यो वा त्वै गतश्रीस् स्याद् यो वास्माल~ लोकात् क्षिप्रे प्रजिगांसेत् स उदितहोमी स्यात् । - जै.ब्रा.१.६३

१९२प्रतिकूलम् इव वा इतस् स्वर्गो लोकः । तद् यथा वा अदः प्रतिकूलम् उद्यन् प्रावभ्र इव भवत्य् एवम् एवैतत् । - जै.ब्रा.१.८५

१९३तन् नासृजत । तद् ऊर्ध्वम् उदैषद् यथा पृष्ठं यथा ककुद् एवम् । तद् देवास् संगृह्योर्ध्वा उदायन् । - जै.ब्रा.१.१४४

१९४ताव् अकामयेताम् उद् इत इयाव गातुं नाथं विन्देवहि सम् अयं कुमारो जीवद् इति । - जै.ब्रा.१.१५१

१९५गायत्री वा एषा वयो भूत्वोदेति । - जै.ब्रा.१.१६९

१९६सो ऽकामयतोद् इत इयां गातुं नाथं विन्देय न मायम् अग्निर् दहेद् इति । स एतत् सामापश्यत् । - जै.ब्रा.१.१७१, १.१८४

१९७आ सूर्यस्योदेतोर् आश्विनम् अनुशस्यते ऽहोरात्रयोर् एव संतत्या अहोरात्रयोस् समारम्भाय । - जै.ब्रा.१.२०९

१९८तस्माद् आहुर् नोदिते सूर्य आश्विनम् अनुशस्यम् इति । - जै.ब्रा.१.२१२

१९९अनुदिते सूर्ये परिदध्याद् यं कामयेत पापीयान् स्याद् इति । पापीयान् एव भवति । - - - - - - - - उदिते परिदध्याद् यं कामयेत श्रेयान् स्याद् रुचम् अश्नुवीतेति । - जै.ब्रा.१.२१३

२००तेभ्यस् संतप्तेभ्यस् त्रीणि शुक्राण्य~ उदायन्न् अग्निः पृथिव्या वायुर् अन्तरिक्षाद् आदित्यो दिवः । - - - - तेभ्यस् संतप्तेभ्यस् त्रीण्य~ एव शुक्राण्य~ उदायन्न् ऋग्वेद एवाग्नेर् यजुर्वेद वायोस् सामवेद आदित्यात् । - - - - -तेभ्यस् संतप्तेभ्यस् त्रीण्य~ एव शुक्राण्य~ उदायन् भूः इत्य् एवर्ग्वेदात् भुवः इति यजुर्वेदात् स्वः इति सामवेदात् । - जै.ब्रा.१.३५७

२०१राजसूय : सेयं प्राची दिक् प्रायच्छन् मद् उदयेत्य् अहश् च सत्यं च । माम् अभ्य् उदयेत्य् ऊर्ध्वा दिक् प्रायच्छत् क्षत्रं च राष्ट्रं च । - - - - - जै.ब्रा.२.२५

२०२अस्यै प्राच्यै दिश उदेति । अभ्य् उदेतीमाम् ऊर्ध्वां दिशम् । - - - - - जै.ब्रा.२.२६

२०३तस्यैष श्लोकः - - मद् एवोदेति सूर्यो ऽस्तं मद् उ च गच्छति । मां सर्वे देवा अन्वायत्ता माम् उ नात्येति किं चन ॥ इति । मद् एवोदेति सूर्य इत्य् एवंविदो ह वाव सूर्य उदेति । - जै.ब्रा.२.२८

२०४जागतो ऽसाव् आदित्यः । यदा ह्य् एष उदेत्य् अथ जगद् एतस्यैव प्रयाणम् अनु प्रैति । - जै.ब्रा.२.३६

२०५तद् धैतद् एक उदित एवाज्यग्रहान् गृह्णन्ति । उदिते प्रातरनुवाकम् उपाकुर्वन्ति । - जै.ब्रा.२.३७

२०६प्राणापानाव् उपांश्वन्तर्यामौ । उदिते ऽन्यं जुह्वत्य् अनुदिते ऽन्यम् । - - - - तद् यद् उदिते ऽन्यं जुह्वत्य् अनुदिते ऽन्यं, बहिस् सन्तं प्राणम् उपजीवामान्तस् सन्तम् अपानम् इति । अथ य एताव् उदिते जुह्वति, प्राणापानाव् उत्खिदन्ति । - जै.ब्रा.२.३७

२०७यद् उपाश्वन्तर्यामाव् उदिते ऽन्यं जुह्वत्य् अनुदिते ऽन्यं, तेन सुत्यायाम् । - जै.ब्रा.२.३८

२०७षड् वा एतयोर् इति ऊर्ध्वा स्तोमा उद्यन्ति । - जै.ब्रा.२.१०६

२०८उदेयायेन्द्रः । स हविर्धानयोर् एव द्रोणकलशे सोमं राजानं संपवितुम् उपेयाय । - - - - - -सहस्रेषु मात्रमूर्ध्वमुददिति । - - - - जै.ब्रा.२.१५५

२०९क्रतवः पुनर् ऊर्ध्वा उद्यन्ति यथा निह्नवानं ब्रूयात् व्येहि मापक्रमीर् इति तादृक् तत् । - जै.ब्रा.२.२०४

२१०ताम् अब्रुवन् -- सोमायोदेहि तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्येति । सा बभ्रुः पिंगाक्ष्य~ उदैत्, तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्य । सैषा सोमक्रयणी । - - - - -ताम् अब्रुवन्न् -- इन्द्रायोदेहि तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्येति । सा शबली पष्ठौह्य् उदैत् तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्य । - - - - -ताम् अब्रुवन् -- यमायोदेहि तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्येति । सा धूम्रा दित्यौह्य् उदैद् - - - - - -जै.ब्रा.२.२५०

२११यद् एव ते किं च पितु स्वं, तस्य सर्वस्य पुरा सूर्यस्योदेतोश् शिरश् छिन्द्धि । - - - - - - -घ्नन्तम् एवैनं सूर्यो ऽभ्युदियाय । तस्योदिते स एव गन्धर्वः प्रजघानेत्य् एके । - जै.ब्रा.२.२७१

२१२तस्माद् असाव् आदित्य आ च परा च संचरति । यत एवाद्योदगात् तत श्व उदेता । - जै.ब्रा.३.७१

२१३सो ऽकामयतोद् इत इयां, गातुं नाथं विन्देय । - जै.ब्रा.३.९५

२१४सो ऽकामयतोद् इत इयां गातुं प्रतिष्ठां विन्देयेति । - जै.ब्रा.३.९९

२१५सो ऽकामयतोद् इत इयां, गातुं प्रतिवचनं विन्देयेति । - जै.ब्रा.३.१०१

२१६तद् या ह वै प्राचीर् आपो धावन्त्य् एतम् एव ता उद्यन्तम् अभीप्सतीर् धावन्ति । - - - - - - - जै.ब्रा.३.११४

२१७च्यवन - सुकन्या - अश्विनौ आख्यानम् : स ( च्यवनः ) होवाच -- कुमारि, सर्वे वै सदृशा उदेष्यामो, ऽनेन मा लक्ष्मकेण जानीताद् इति । ते ह सर्व एव सदृशा उदेयुर् यत् कल्याणतमं रूपाणां तेन रूपेण । - जै.ब्रा.३.१२५

२१८तिसृभ्यो हिङ्करोति सप्रथमया, तिसृभ्यो हिङ्करोति समध्यमया, तिसृभ्यो हिङ्करोति स उत्तमयोद्यती त्रिवृतो विष्टुतिः । - ताण्ड्य ब्राह्मण २.१.१

२१९- - - - - - -नवभ्यो हिङ्करोति स तिसृभिस्स तिसृभिस्स तिसृभिरुद्यती सप्तदशस्य विष्टुतिः । - तां.ब्रा.२.१२.१

२२०- - - -स पञ्चभिरेकादशभ्यो हिङ्करोति स पञ्चभिः स तिसृभिः स तिसृभिरुद्यती त्रिणवस्य विष्टुतिः । - तां.ब्रा.३.२.१

२२१- - - - - -स सप्तभिस्त्रयोदशभ्यो हिङœरोति स सप्तभिस्स तिसृभिस्स तिसृभिरुद्यती त्रयस्त्रिंशस्य विष्टुतिः । - तां.ब्रा.३.५.१

२२२समुद्रं वा एते प्रस्नान्ति ये संवत्सरमुपयन्ति यो वा अप्लवः समुद्रं प्रस्नाति न स तत उदेति यत् प्लवो भवति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै । - तां.ब्रा.५.८.५

२२३गायत्र्यास्त्रिरात्रत्रयव्याप्तिः : तेजसा वा एते प्रयन्ति तेजो मध्ये दधति तेजोऽभ्युद्यन्ति, ज्योतिषा वा एते प्रयन्ति ज्योतिर्म्मध्ये दधति ज्योतिरभ्युद्यन्ति, चक्षुषा वा एते प्रयन्ति चक्षुर्मध्ये दधति चक्षुरभ्युद्यन्ति, प्राणेन वा एते प्रयन्ति प्राणम्मध्ये दधति प्राणमभ्युद्यन्ति, ये गायत्र्या प्रयन्ति गायत्रीम्मध्ये दधति गायत्रीमभ्युद्यन्ति । - तां.ब्रा.१०.५.५

२२४आर्भव पवमानः : समुद्रं वा एते प्रस्नान्तीत्याहुर्य्ये द्वादशाहमुपयन्तीति यो वा अप्लवः समुद्रं प्रस्नाति न स तत उदेति यत् प्लवो भवति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै । - तां.ब्रा.१४.५.१७

२२५यदद्य सूर उदित इति सूरवन्मैत्रावरुणमन्तो वै सूरोऽन्त एतद्दशममह्नाम् -तां.ब्रा.१५.८.३

२२६वारवन्तीयमग्निष्टोमसामम् : तस्य यदपूतं तदग्निः क्षापयत्यथेतरः शुचिः पूत उदेति । - तां.ब्रा.१७.५.७

२२७एष वा उदेति न वा एनमन्यत् ज्योतिषां ज्योतिः प्रत्युदेति । नैनमन्यः स्वेषु प्रत्युदेति य एवं वेद । - तां.ब्रा.२०.५.४

२२८यदेवासावुदेति तन्मुखं ये अभितोऽग्नी तौ पक्षौ यन्मध्यममहः स आत्माग्निः पुच्छं । यदेवासावुदेति तन्मुखं ये अभितोग्नी तौ पक्षौ यन्मध्यममहः स आत्मा यदस्तमेति तत्पुच्छं । - तां.ब्रा.२०.१६.३

२२९- - - - तेऽब्रुवन्नंशानाहरामहै यस्मै न इयं प्रथमायोदेष्यति इति ते अंशानाहरन्त सोमस्य प्रथम ऐदथेन्द्रस्याथ यमस्य । - तां.ब्रा.२१.१.२

२३०तेऽब्रुवन् सोमाय राज्ञ उदेहि तृतीयेन चात्मनस्तृतीयेन च सहस्रस्य पयस इति सा बभ्रुः पिङ्गाक्ष्येकवर्षोदैत्तृतीयेन चात्मनस्तृतीयेन च सहस्रस्य पयस सा या सोमक्रयणी सैव सा । - - - - - - - -तेऽब्रुवन्निन्द्रायोदेहि तृतीयेन चात्मनस्तृतीयेन च सहस्रस्य पयस इति सा शबलीपष्ठौह्युदैत् तृतीयेन चात्मनस्तृतीयेन च सहस्रस्य पयसः सा येन्द्रियैष्पा सैव सा । - तां.ब्रा.२१.१.५

२३१ ऋतुमण्डल इष्टकाः हेतोः द्वितीयम्मन्त्रम् : अन्योन्यं तु न हिँस्रातः । सतस्तद्देवलक्षणम् । लोहितोऽक्ष्णि शार शीर्ष्णिः । सूर्यस्योदयनं प्रति । - तैत्तिरीय आरण्यकम् १.६.१

२३२निरयवतीः हेतोः द्वितीयम्मन्त्रम् : कश्यपादुदिताः सूर्याः । पापान्निर्घ्नन्ति सर्वदा । रोदस्योरन्तर्देशेषु । तत्र न्यस्यन्ते वासवैः । - तै.आ.१.८.६

२३३निगदव्याख्याता : समानमेतदुदकम् । उच्चैत्यव चाहभिः । भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति । दिवं जिन्वन्त्यग्नयः ॥ - तै.आ.१.९.५

२३४प्रजयिष्णुः प्रजया च पशुभिश्च भवति । य एवं वेद । एतमुद्यन्तमपियन्तं चेति । आदित्यः पुण्यस्य वत्सः । - तै.आ.१.११.७

२३५योऽसौ तपन्नुदेति स सर्वेषां भूतानां प्राणानादायोदेति । मा मे प्रजाया मा पशूनाम् । मा मम प्राणानादायोदगाः । - तै.आ.१.१४.१

२३६ब्रह्मयज्ञेन यक्ष्यमाणः प्राच्यां दिशि ग्रामादछदिर्दर्श उदीच्यां प्रागुदीच्यां वोदित आदित्ये दक्षिणत उपवीयोपविश्य हस्ताववनिज्य त्रिराचामेत्।- तै.आ.२.११.१

२३७य एवं विद्वान्महारात्र उषस्युदिते व्रजfस्तिष्ठन्नासीनः शयानोऽरण्ये ग्रामे वा - - - - -। - तै.आ.२.१५.१

२३७त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः। पादोऽस्येहाऽऽभवत्पुनः। ततो विष्वङ्व्यक्रामत्। साशनानशने अभि। - तै.आ.३.१२.२

२३८- - - - -यावदितः पुरस्तादुदयाति सूर्यः। तावदितोऽमुं नाशय। योऽस्मान्द्वेष्टि। यं च वयं द्विष्म:। - तै.आ.४.३९.१

२३९शमुषा नो व्युच्छतु शमादित्य उदेतु नः। शिवा नः शंतमा भव सुमृडीका सरस्वति। - तै.आ.४.४२.१

२४०शिरो वा एतद्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। असौ खलु वा आदित्यः प्रवर्ग्यः। - - - प्राञ्चमुद्वासयति। तस्मादसावादित्यः पुरस्तादुतेति। - तै.आ.५.९.२

२४१पुरो वा पश्चाद्वोद्वासयेत्। पुरस्ताद्वा एतज्ज्योतिरुदेति। तत्पश्चान्निम्रोचति। - तै.आ.५.१०.६

२४२भीषाऽस्माद्वातः पवते। भीषोदेति सूर्यः। भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रश्च।मृत्युर्धावति पञ्चमः। - तै.आ.८.८.१

२४३यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति। तं देवाः सर्वेऽर्पितास्तदु नात्येति कश्चन, एतद्वै तत्। - कठोपनिषद२.१.९

२४४इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत्। पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति। - कठोपनिषद२.३.७

२४५अथादित्य उदयन्यत्प्राचीं दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान्प्राणान्रश्मिषु संनिधत्ते यद्दक्षिणां यत्प्रतीचीं - - - - - - - - - -। स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्राणोऽग्निरुदयते। तदेतदृचाभ्युक्तम्। विश्वरूपं हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम्। सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।- प्रश्नोपनिषद१.६

२४६आदित्यो ह वै बाह्यः प्राणं उदयत्येष ह्येनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णानः। - प्रश्नोपनिषद३.८

२४७यथा गार्ग्य मरीचयोऽर्कस्यास्तं गच्छतः सर्वा एतस्मिंस्तेजोमण्डल एकीभवन्ति ताः पुनः पुनरुदयतः प्रचरन्त्येवं ह वै तत्सर्वं परे देवे मनस्येकीभवति। - प्रश्नोपनिषद४.२

२४८भीषाऽस्माद्वातः पवते। भीषोदेति सूर्यः। - - - - - तैत्तिरीयोपनिषद२.८.१

२४९अथाधिदैवतं य एवासौ तपति तमुद्गीथमुपासीतोद्यन्वा एष प्रजाभ्य उद्गायति उद्यंस्तमोभयमपहन्त्यपहन्ता ह वै भयस्य तमसो भवति य एवं वेद। - छान्दोग्योपनिषद१.३.१

२५०तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी तस्योदिति नाम स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित उदेति ह वै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेद। - छा.उ.१.६.७

२५१तस्मिन्निमानि सर्वाणि भूतान्यन्वायत्तानीति विद्यात्तस्य यत्पुरोदयात्स हिंकारस्तदस्य पशवोऽन्वायत्तास्तस्मात्ते हिंकुर्वन्ति हिंकारभाजिनो ह्येतस्य साम्नः। अथ यत्प्रथमोदिते स प्रस्तावस्तदस्य मनुष्या अन्वायत्ताः - - - -- -- छां.उ.२.९.२

२५२उद्यन्हिंकार उदितः प्रस्तावो मध्यन्दिन उद्गीथोऽपराह्णः प्रतिहारोऽस्तं यन्निधनमेतद्बृहदादित्ये प्रोतम्। - छां.उ.२.१४.१

२५३त (वसवः) एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति। - - - -- - - - स यावदादित्यः पुरस्तादुदेता पश्चादस्तमेता वसूनामेव तावदाधिपत्यँ स्वाराज्यं पर्येतो। - छां.उ.३.६.२

२५४त (रुद्राः) एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति। - - - - - - स यावदादित्यः पुरस्तादुदेता पश्चादस्तमेता द्विस्तावद्दक्षिणत उदेतोत्तरतोऽस्तमेता रुद्राणामेव तावदाधिपत्यँ स्वाराज्यं पर्येतो। - छां.उ.३.७.३

२५५त (आदित्याः) एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति। - - - - - स यावदादित्यो दक्षिणत उदेतोत्तरतोऽस्तमेता द्विस्तावत्पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेताऽऽदित्यानामेव तावदाधिपत्यँ स्वाराज्यं पर्येतो। - छां.उ.३.८.२

२५६त (मरुतः) एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति। - - - - - -स यावदादित्यः पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेता द्विस्तावदुत्तरत उदेता दक्षिणतोऽस्तमेता मरुतामेव तावदाधिपत्यँ स्वाराज्यं पर्येतो। - छां.उ.३.९.३

२५७त (साध्याः) एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति। - - - - -स यावदादित्य उत्तरत उदेता दक्षिणतोऽस्तमेता द्विस्तावदoर्ध्व उदेताऽर्वाङस्तमेता साध्यानामेव तावदाधिपत्यँ स्वाराज्यं पर्येतो। - छां.उ.३.१०.२

२५८अथ तत ऊर्ध्व उदेत्य नैवोदेता नास्तमेतैकल एव मध्ये स्थाता तदेष श्लोकः। - - - - - न ह वा अस्मा उदेति न निम्लोचति सकृद्दिव हैवास्मै भवति य एतामेवं ब्रह्मोपनिषदं वेद। - छां.उ.३.११.१

२५९प्रातसवनं :- - - - माऽहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति। - - - -। माध्यंदिनं सवनं :- - - माऽहं प्राणानाf रुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति - - - -। तृतीयसवनं : माहं प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो हैव भवति। - छा.उ.३.१६.२

२६०अथ यत्तदजायत सोऽसावादित्यः - - - - - -तस्मात्तस्योदयं प्रति प्रत्यायनं प्रति घोषा उलूलवोऽनूत्तिष्ठन्ति सर्वाणि च भूतानि सर्वे चैव कामाः। - छां.उ.३.१९.३

२६१उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः। - - - - - - - -उद्यन् पूर्वार्धो निम्लोचञ्जघनार्धो यद्विजृम्भते तद्विद्योतते - - - - - बृहदारण्यकोपनिषद१.१.१

२६२सैषाऽनस्तमिता देवता यद्वायुः। अथैष श्लोको भवति यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छतीति प्राणाद्वा एष उदेति प्राणेऽस्तमेति - - - -बृह.उ.१.५.२३

२६३अतः खानीमानि भित्त्वोदितः पञ्चभी रश्मिभिर्विषयानत्तीति बुद्धीन्द्रियाणि यानीमान्येतान्यस्य रश्मयः कर्मेन्द्रियाण्यस्य हया - - - - - -मैत्रायण्युपनिषद२.६

२६४सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः। - मैत्रा.उ.६.८

२६५अग्निर्गायत्रं त्रिवृद्रथंतरं वसन्तः प्राणो नक्षत्राणि वसवः पुरस्तादुद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति - - - - - - - इन्द्रस्त्रिष्टुप्पञ्चदशो बृहद्ग्रीष्मो व्यानः सोमो रुद्रा दक्षिणत उद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति- - - - -विश्वे देवा अनुष्टुबेकविंशो वैराजः शरत्समानो वरुणः साध्या उत्तरत उद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति - - - -- शनिराहुकेतु उरगरक्षोयक्षनर विहगशरभेभादयोऽधस्तादुद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति - - - -मैत्रा.उ.७.१

२६६अनेनैव तदुद्बुध्यत्युदयत्युच्छ्वसित्यजस्रं ब्रह्मधीयालग्बं वात्रैव। - मैत्रा.उ.७.११

२६७यो वेद गहनं गुह्यं पावनं च तथोदितम्। अग्नीषोमपुटं कृत्वा न स भूयोऽभिजायते। - बृहज्जाबालोपनिषद२.१५

२६८वाग्वा अनुष्टुब्वाचैव प्रयन्ति वाचैवोद्यन्ति - - - नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद१

२६९हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति। नास्तमेति न चोदेति कथं संध्यामुपास्महे। - मैत्रेय्युपनिषत् २.१४

२७०अथ शुद्धं भवेद्वस्तु यद्वै वाचामगोचरम्। उदेति शुद्धचित्तानां वृत्तिज्ञानं तत परम्। - तेजोबिन्दूपनिषद१.४९

२७१ततः परतरं शुद्धं व्यापकं निर्मलं शिवम्। सदोदितं परं ब्रह्म ज्योतिषामुदयो यतः। - - - -नादबिन्दूपनिषत् १७

२७२तत्त्वज्ञानोदयादूर्ध्वं प्रारब्धं नैव विद्यते। - नादबिन्दूपनिषतद् २२

२७३संख्यारूपेण संकल्प्य वैखानसऋषेः पुरा। उदितो यादृशः पूर्वं तादृशं शृणु मेऽखिलम्। -सीतोपनिषत्५

२७४अनवरतसहाश्रयिण्युदितानुदिताकारा - - - -(क्रियाशक्तिः) -सीतोपनिषत् ६

२७५रवेरुदयास्तमययोः किल कर्म कर्तव्यम्। एवंविधश्चिदादित्यस्य उदयास्तमयाभावात्सर्वकर्माभावः। - मण्डलब्राह्मणोपनिषत् २.२

२७६प्रबोधपूर्णपात्रे तु ज्ञप्तिदीपं विलोकयेत्। मोहान्धकारे निःसारे उदेति स्वयमेव हि। - दक्षिणामूर्त्युपनिषत्१६

२७७- - - -आदिनारायणस्योन्मेषनिमेषाभ्यां मूलाविद्योदयस्थितिलया जायन्ते। - त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् २.१५

२७८स चानन्तकोटिब्रह्माण्डानाम् उदयस्थिति लयाद्यखिल कार्यकारणजाल परमकारणकारणभूतो महामायातीतस्तुरीयः परमेश्वरो जयति। -त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् २.१५

२७९त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः। पादोऽस्येहाभवत्पुनः। - -- - - त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ४.९

२८०यथा उन्मेषो जायते तथा चिरंतनातिसूक्ष्मवासनाबलात्पुनरविद्याया उदयो भवति। - त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत्४.१२

२८१भगवन् सर्वात्मना नष्टाया अविद्यायाः पुनरुदयः कथम्। - - - - - -प्रावृट्कालप्रारम्भे यथा मण्डूकादीनां प्रादुर्भावस्तद्वत्सर्वात्मना नष्टाया अविद्याया उन्मेषकाले पुनरुदयो भवति। - त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ५.१

२८२ततो दृढतरा वैष्णवी भक्तिर्जायते। ततो वैराग्यमुदेति। - त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ५.९

२८३कुक्कुटाण्डाकारं महदादिसमष्ट्याकारमण्डं तपनीयमयं तप्तजाम्बूनदप्रभमुद्यत्कोटिदिवाकराभं - - - - -त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ६.३

२८४कारणेन विना कार्यं नोदेति। भक्त्या विना ब्रह्मज्ञानं कदापि न जायते। - त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत्८.१२

२८५उद्वेगानन्दरहितः समया स्वच्छया धिया। न शोचति न चोदेति स जीवन्मुक्त उच्यते। - महोपनिषत्२.५७

२८६रमते धीर्यथाप्राप्ते साध्वीवाऽन्तःपुराजिरे। सा जीवन्मुक्ततोदेति स्वरूपानन्ददायिनी। - महोपनिषद४.३८

२८७सर्वात्मवेदनं शुद्धं यदोदेति तवात्मकम्। भाति प्रसूतिदिक्कालबाह्यं चिद्रूपदेहकम्। - महोपनिषत् ४.४२

२८८उदितौदार्यसौन्दर्यवैराग्यरसगर्भिणी। आनन्दस्यन्दिनी यैषा समाधिरभिधीयते। - महोपनिषत् ४.६१

२८९या योदेति मनोनाम्नी वासना वासितान्तरा। तां तां परिहरेत्प्राज्ञस्ततोऽविद्या क्षयो भवेत्। - महोपनिषत् ४.१०८

२९०अयं सोऽहमिदं तन्म इति जन्मान्तरोदितः। पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजाग्रदिति स्फुटम्। - महोपनिषत् ५.१३

२९१अल्पकालं मया दृष्टमेतन्नोदेति यत्र हि। परामर्शः प्रबुद्धस्य स स्वप्न इति कथ्यते। चिरं संदर्शनाभावादप्रफुल्लं बृहद्वचः। चिरकालानुवृत्तिस्तु स्वप्नो जाग्रदिवोदितः। - महोपनिषत् ५.१६

२९१- - - -सकलामलसंसारस्वरूपैकात्मदर्शनी। नास्तमेति न चोदेति नोत्तिष्ठति न तिष्ठति। न च याति न चायाति न च नेह न चेह चित्। - महोपनिषत् ५.१०२

२९२ग्राह्यग्राहकसंबन्धे क्षीणे शान्तिरुदेत्यलम्। - संन्यासोपनिषत्२.४२

२९३आनन्दितोपशमता सदा प्रमुदितोदिता। पूर्णतोvदारता सत्या कान्तिसत्ता सदैकता। इत्येवं चिन्तयन्भिक्षुः स्वरूपस्थितिमञ्जसा। - संन्यासोपनिषत् २.५७

२९४भीषणमित्याह भीषा वा अस्मादादित्य उदेति भीतश्चन्द्रमा भीतो वायुर्वाति - - - -अव्यक्तोपनिषत् २

२९५धीरधीरुदितानन्द: पेशलः पुण्यकीर्तनः। प्राज्ञः प्रसन्नमधुरो दैन्यादपगताशयः। - अन्नपूर्णोपनिषत् २.३१

२९६ज्वालाजालपरिस्पन्दो दग्धेन्धन इवानलः। उदितोऽस्तं गत इव ह्यस्तंगत इवोदितः। - अन्नपूर्णोपनिषत् ३.११

२९७न चोदयो नास्तमयो न हर्षामर्षसंविदः। न तेजो न तमः किंचिन्न संध्यादिनरात्रयः। - अन्नपूर्णोपनिषत् ४.२२

२९८अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः। अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा। - अन्नपूर्णोपनिषत् ४.४८

२९९यत्र नाभ्युदितं चित्तं तद्वै सुखमकृत्रिमम्। क्षयातिशयनिर्मुक्तं नोदेति न च शाम्यति। - अन्नपूर्णोपनिषत् ५.४५

३००सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः पुरुषः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः। - अक्ष्युपनिषत् १

३०१संतोषामोदमधुरा प्रथमोदेति भूमिका। भूमिप्रोदितमात्रोऽन्तरमृताङ्कुरिकेव सा। - अक्ष्युपनिषत्२८

३०२सत्त्वावशेष एवास्ते पञ्चमीं भूमिकां गतः। जगद्विकल्पो नोदेति चित्तस्यात्र विलापनात्। - अक्ष्युपनिषत्३५

३०३मध्यमायां मुकुलिता वैखर्यां विकसीकृता। पूर्वं यथोदिता या वाग्विलोमेनास्तगा भवेत्। - योगकुण्डल्युपनिषत्३.१९

३०४- - -प्रमथान्सुरानपि सोऽन्वीक्ष्य पूतं प्रातरुदयाद्गोमयं ब्रह्मपर्णे निधाय त्र्यम्बकमिति मन्त्रेण शोषयेत्। - भस्मजाबालोपनिषत् १

३०५प्रागुदयान्निर्वर्त्य शौचादिकं ततः स्नायात्। - - - - -उद्यन्तमादित्यमभिध्यायन्नुद्धूलिताङ्गछ कृत्वा यथास्थानं भस्मना त्रिपुण्ड}छ ष्ठोतेनैव रुद्राक्षाञ्छ~वेतान्बभृयात्। - भस्मजाबालोपनिषत् २

३०६नोदेति नास्तमायाति सुसे दुःसे मनःप्रभा। यथाप्राप्तस्थितिर्यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते। - वराहोपनिषत् ४.२२

३०७न्नहाभ्यासवशाद्याति यदा ते वासनोदयम्। तदाभ्यासस्य सोúल्यं विद्धि त्वमरिर्मदन। - मुक्तिकोपनिषत् २.८

३०८अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः। अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा। - मुक्तिकोपनिषत्२.२९

३०९यदिदमितश्चेतश्चाण्डकोशा उदयन्ति नापद्यन्त इव न विस्रंसन्त इव न स्खलंतीव न पर्यावर्तन्त इव। - आर्षेयोपनिषत्

३१०न ह वा एष परमतीवोदेति। यस्त्वेनं परमतीवोद्यन्तं पश्यन्नुपास्ते पापीयान् भवति वीवपद्यत आर्तिमृच्छति। यस्त्वेनं परमनूद्यन्तं वेदाथ तथोपास्ते परं ज्योतिरुपसंपद्यते सर्वमायुरेति वसीयान् भवति। - आर्षेयोपनिषत्

३११विश्वस्य योनिं प्रतपन्तमुग्रं पुरः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः। - चाक्षुषोपनिषत्

३१२ततो हासुरा पुनरेवोदयन्ति। ते ह माध्यंदिनस्यैव सवनस्य पवमानेषु यज्ञवास्त्वभ्यायन्। - शौनकोपनिषत्

३१३कश्यपः पश्यको भवति। यत्सर्वं परिपश्यतीति सौक्ष्म्यात्। कश्यपादुदिताः सूर्याः पापान्निर्घ्नन्ति सर्वदा। - सूर्यतापिन्युपनिषत् १.८

३१४योऽसौ तपन्नुदेति। असौ योऽस्तमेति। - - - - -सूर्यतापिन्युपनिषत् १.९

३१५- - - - उदयाद्रिसमारूढमुदयन्तं पद्मकरं पद्मासनं - - - -सूर्यतापिन्युपनिषत् १.२६

३१६उद्यन्नद्यमित्र महः। आरोहन्नुत्तरां दिवम्। हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय। - - - - - उद्यन्नद्येत्ययं तृचो रोगघ्नः - - -सूर्यतापिन्युपनिषत् २.६

३१७उद्यन्नद्य मित्रमहः। सपत्नान्मे अनीनशः। दिवैनान्विद्युता जहि। - सूर्यतापिन्युपनिषत् ३

३१८पुण्यां च पुण्यः पुरुषे पुरग्रे तां राजिमन्तां निशि चोदितानां निदधाति पुष्ट्यै हरन् पराय स्वाहा। - पारमात्मिकोपनिषत्९.८

३१९अञ्जनागर्भसंभूत उदयभास्करबिम्बानलग्रासक देवदानव ऋषिमुनिवन्द्य - - - -लाङ्गूलोपनिषत्

३२०- - - -पीतचन्द्रार्धमनुबिभ्रतीमुद्यद्दिवाकरोद्योतां स्वर्णसिंहासनमध्यकमलसंस्थां - -- -पीताम्बरोपनिषत्

३२१उद्यद्भास्वत्समाभां विधृतनवजपामिन्दुखण्डावबद्धां - - - -वनदुर्गोपनिषत्४

३२२यावदितः पुरस्तादुदयाति सूर्यः। तावदितोऽमुं नाशय। योऽस्मान् द्वेष्टि। यं च वयं द्विष्मः। - वनदुर्गोपनिषत्

३२३दर्शपूर्णमासः : अग्निं गृह्णामि सुरथं यो मयोभूर्य उद्यन्तमारोहति सूर्यमह्ने। आदित्यं ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमं श्वोयज्ञाय रमतां देवताभ्यः ॥ - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ४.१.८

३२४उद्यन्नद्य मित्रमहः सपत्नान्मे अनीनशः। दिवैनान्विद्युता जहि निम्रोचन्नधरान्कृधि। उद्यन्नद्य वि नो भज पिता पुत्रेभ्यो यथा। दीर्घायुत्वस्य हेशिषे तस्य नो देहि सूर्य। उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्। हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय। - आप.श्रौ.सू.४.१५.१

३२५उद्यत्सु रश्मिषु दशहोत्रारणी समवदधाति। - आप.श्रौ.सू.५.१०.८

३२६- -- - -हरस्ते मा विगादुद्यन्सुवर्गो लोकस्त्रिषु लोकेषु रोचयेति। - आप.श्रौ.सू.६.६.८

३२७अङ्गारा भवन्ति तेभ्यो ऽङ्गारेभ्यो ऽर्चिरुदेति प्रजापतावेव। शरो ऽङ्गारा अध्यूहन्ते ततो नीलोपकाशो ऽर्चिरुदेति ब्रह्मणि हुतं भवति। - आप.श्रौ.सू.६.९.१

३२८अग्नये ऽनीकवते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपति साकं सूर्येणोद्यता। साकं वा रश्मिभिः प्रचरन्ति। - आप.श्रौ.सू.८.९.२

३२९मरुद्भ्यः क्रीडिभ्यः स्वतवद्भ्यो वा पुरोडाशं सप्तकपालं निर्वपति। साकं सूर्येणोद्यता साकं वा रश्मिभिः प्रचरन्ति। - आप.श्रौ.सू.८.११.२२

३३०अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : उदाभ्यः शुचिरापूत एमीत्युद्गाहमानो जपति। अपो ऽश्नाति। - आप.श्रौ.सू.१०.६.२

३३१उदितेषु नक्षत्रेषु पूर्ववद्वाचो विसर्गः। एवमुपोदयं यमयति। उदित आदित्ये विसृजते। - आप.श्रौ.सू.१०.१७.१

३३२उदेत प्रजामायुर्वर्चो दधाना अध स्यामसुरुभयोर्गृहेषु।- - - - - - -अहते वसानावुदितः - आप.श्रौ.सू.१३.२२.१

३३३यदा पुरस्तादरुणा स्यादथ प्रवृज्यः। उपकाश उपव्युषं समयाविषित उदितानुदित उदिते वा। - आप.श्रौ.सू.१५.१८.१३

३३४आग्निचयनम् :येन देवा ज्योतिषोर्ध्वा उदायन्निति प्रादेशमात्रैः काष्ठैरुख्यमुपसमिन्द्धे। - आप.श्रौ.सू.१६.११.१

३३५अग्निचयनम् : दिवो रुक्म उरुचक्षा उदेति दूरे अर्थस्तरणिर्भ्राजमानः। - आप.श्रौ.सू.१६.१२.१

३३६एकविधः प्रथमो ऽग्निः। द्विविधो द्वितीयः। त्रिविधस्तृतीयः। त एवमेवोद्यन्त्यैकशतविधात्। - आप.श्रौ.सू.१६.१७.१५

३३७उद्वदस्युदितिरसि उद्यत्यस्याक्रममाणास्य आक्रामन्त्त्यस्याक्रान्तिरसि- - - - - -आप.श्रौ.सू.१६.३०.१

३३८उदेष्यते स्वाहेत्युपोदयम्। उद्यते स्वाहेत्युद्यति। उदिताय स्वाहा सुवर्गाय स्वाहा लोकाय स्वाहेत्युदिते हुत्वा प्रज्ञातानन्नपरिशेषान्नि दधाति। - आप.श्रौ.सू.२०.१२.१०

३३९तेभ्यो यन्नवनीतमुदियात्तदाज्ये ऽवनयेत्। - आप.श्रौ.सू.२२.२.१९

३४०परि मा सेन्या इति द्वे वाचयित्वोत्तराभिः तिसृभिरभिमन्त्र्योसावेत्वित्यादित्यमुदीक्षयति। - आप.श्रौ.सू.२२.२८.२३

३४१अग्निष्टोम प्रातसवनम् : तेन तथा कृतेनादित्यस्योदयमाकाङ्क्षन्त उदित आदित्ये ऽन्तर्यामं गृह्णाति- - - - बौधायन श्रौत सूत्र ७.६

३४२अग्निचयनम् : अथोख्यमुपसमिन्द्धे येन देवा ज्योतिषोर्ध्वा उदायन्निति- - - - - -अथ प्रातरुदित आदित्ये विसृष्टायां वाचि वात्सप्रेणोपतिष्ठते दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरिति - बौ.श्रौ.सू.१०.१६

३४३राजसूयः : चार्मपक्ष्यावुपानहौ प्रप्लाव्य वाराही चार्मपक्षीभ्यामुदेति सो ऽपामन्ते जुहोति - - - - बौ.श्रौ.सू.१२.१६

३४४अश्वमेधः : इन्द्राणसमधिद्रुत्य चतस्रः स्रुवाहुतीर्जुहोत्युषसे स्वाहा व्युष्ट्यै स्वाहोदेष्यते स्वाहोद्यते स्वाहेति प्रसिद्धो ऽभिषवः -बौ.श्रौ.सू.१५.२२

३४५गवामयनम् :तद्धैतदेके दिवैवैतेनाह्ना प्रतिपद्यन्त उदित आदित्ये दिवाकीर्त्यमहरिति वदन्तो - - बौ.श्रौ.सू.१६.१३

३४६अग्निष्टोमा एवैते चतुर्विंशाः पवमाना उद्यत्स्तोमाः स्युरित्येतदेकम्- बौ.श्रौ.सू.१६.२८

३४७अथादित्यमुद्यन्तमुपतिष्ठत उदसावेतु सूर्य उदिदं मामकं वचः।- बौ.श्रौ.सू.१८.१८

३४८आनीकवतस्य निर्वपण इति। पाणिसंमर्शनेन आदित्यस्योदयमाकाङ्क्षेतेति आचार्योर्मुष्टिमेव ग्रहीष्यन्नित्यौपमन्यव साकँ रश्मिभि प्रचरेदित्यौपमन्यवीपुत्रः। - बौ.श्रौ.सू.२१.३

३४९उद्यत्स्तोमेष्विति। पूर्वः कल्पो बौधायनस्योत्तरः शालीकेः। - बौ.श्रौ.सू.२३.१२

३५०ऽथोद्यत्स्तोमेषु त्रिवृत्प्रथममहः स्यात्पञ्चदशं द्वितीयँ सप्तदशं तृतीयमेकविंशं चतुर्थमिति -- - - - -बौ.श्रौ.सू.२६.२०

३५१उदयास्तमयावभ्याश्रावणं च बहिर्वेदि प्रसृते वर्जयेयुः। - द्राह्यायण श्रौत सूत्र ७.३.२८

३५२अत ऊर्ध्वमाहिताग्निर्व्रतचार्याऽऽहोमात्। अनुदितहोमी चोदयात्। अस्तमिते होमः। - आश्वलायन श्रौ.सू.२.२.८

३५३उपोदयं व्युषित उदिते वा। - आ.श्रौ.सू.२.४.२४

३५४प्रातरनुवाकन्यायेन तस्यैव समाम्नायस्य सहस्रावममोदेतोः शंसेत् - आ.श्रौ.सू.६.५.८

३५५यां पर्यस्तमयं पूर्ण उदियाद्यां चास्तमिते ते पौर्णमास्यौ। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र१.३.५

३५६ज्योतिष्टोमे आश्विनशस्त्रप्रकरणम् : उत्तमेन पाङ्क्तेन पादेनोदयं काङ्क्षेत्। उदिते सौर्याणि। - - - - -शां.श्रौ.सू.९.२०.१९

३५७होत्रशस्त्रप्रकरणम् : उद्धेदभीति ब्राह्मणाच्छंसिनः - शां.श्रौ.सू.१२.२.७