PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

उदर

टिप्पणी : उदर हमारे शरीर का अत्यधिक महत्वपूर्ण  अंग है । उदर के बारे में जो कुछ पौराणिक और वैदिक साहित्य में कहा गया है, उसको महापुरुषों के उपलब्ध वचनों और क्रियाकलापों द्वारा समझने का प्रयत्न किया जा सकता है । वैदिक साहित्य में उदर को उखा / उषा ( शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.३८, ७.५.२.७ ) इडा ( शतपथ ब्राह्मण ११.२.६.८ ) तथा इडा को धारण करने वाली पात्री ( शतपथ ब्राह्मण १२.५.२.७ , जैमिनीय ब्राह्मण १.४८ , शांखायन श्रौत सूत्र ४.१४.२७ ) आदि कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण का छठां काण्ड उखा नामक पात्र का निर्माण कैसे करना है , इससे सम्बन्धित है और जो प्रक्रिया उखा के निर्माण के लिए कही गई है , वही उदर के लिए भी लागू होनी चाहिए । यदि उदर में शाश्वत उषा की प्रतिष्ठा हो जाए तो निद्रा से छुटकारा मिल सकता है । उखा का निर्माण मृदा से किया जाता है और मृदा खनन के लिए जिस अभ्रि / छेनी की आवश्यकता होती है , उसे वेणु / बांस से बनाया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.३४ के अनुसार वाक् ही अभ्रि है । इससे संकेत मिलता है कि किसी प्रकार के नाद या ओंकार रूपी वाक् की आवश्यकता इस मर्त्य शरीर में से ऐसी मृदा के , ऐसे भौतिक तत्त्वों के खनन के लिए पडती है जिसमें उषा का विकास हो सके , असत् से सत् का , तम से प्रकाश का प्रादुर्भाव हो सके । पुराणों में इस तथ्य को उदर के अन्दर लोकों के दर्शन के माध्यम से दर्शाया गया है । लोक शब्द अवलोकन से , अंग्रेजी भाषा के लुक शब्द से साम्य रखता है । इस संदर्भ में व्यावहारिक जीवन में कठिनाई यह आती है कि क्षुधा की शान्ति के लिए जो भोजन किया जाता है , उसे पचाने में ही उदर की सारी शक्ति का व्यय हो जाता है और उषा रूपी ऊर्जा या अग्नि का विकास नहीं हो पाता । तीर्थङ्कर महावीर ने इस समस्या को जल रहित भोजन के द्वारा हल किया है जिससे कि भोजन को मुख में पचने का पूर्ण अवसर मिले और वह उदर में जाकर पचने में न्यूनतम ऊर्जा को नष्ट करे । बहुत से तीर्थ स्थानों में प्राप्त होने वाला शुष्क प्रसाद भी इसी तथ्य का परिचायक हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण १.६.३.१७ , १.६.३.३१ तथा तैत्तिरीय संहिता २.४.१२.६ से संकेत मिलता है कि उदर के क्षुधा रूपी वृत्रासुर का विनाश तो तभी हो सकता है जब पूर्णिमा के चन्द्रमा का , उदान प्राण का पूर्ण विकास हो जाए ।

          यह उल्लेखनीय है कि शतपथ ब्राह्मण ६.१.२.१७ के अनुसार उखा / उषा का विकास पांच स्तरों पर करना होता है । पांच स्तरों के रूप में लोम , त्वक् , मांस , अस्थि , मज्जा नामक पांच धातुएं , अज , अवि, गौ गादि पांच पशु तथा पांच इष्टकाओं आदि का वर्णन किया गया है । उखा नामक पात्र में चार स्तनों का निर्माण किया जाता है । इससे प्रतीत होता है कि उखा कामधेनु गौ का रूप है । गौ से ऊपर के स्तरों पर अश्व और पुरुष पशु आते हैं । राजा हरिश्चन्द्र द्वारा अपने पुत्र रोहिताश्व तथा ब्राह्मण - पुत्र शुनः शेप को वरुण हेतु मेध्य पशु बनाने के सार्वत्रिक आख्यान को समझने में यह तथ्य उपयोगी हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण में रोहित अश्व को अग्नि का , उस अग्नि का जो सूर्य का रूप धारण करने जा रही है , वाहन कहा गया है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि हरित वर्ण के चन्द्रमा से रोहित / लोहित सूर्य का विकास हुआ है । अथर्ववेद १५.१.७ में नील उदर और लोहित पृष्ठ का उल्लेख है । हो सकता है कि यह उल्लेख हरिश्चन्द्र और रोहित के आख्यान का मूल हो । हरिश्चन्द्र के आख्यान में शुनःशेप शब्द में शुनम् सुख के अर्थों में आता है । ऋग्वेद ४.५७.८ में उल्लेख आता है कि शुनम् पर्जन्यो मधुना पयोभि: । अतः यह कहा जा सकता है कि उदर रोग की शान्ति तभी हो सकती है जब शुनम् अवस्था प्राप्त हो जाए , रोहित अवस्था को समाप्त करने से नहीं । रोहित का सात बार लौटने का प्रयत्न करना और ब्राह्मण वेश धारी इन्द्र द्वारा उपदेश देकर उसे वापस भेजना उदर की सात क्रमिक अवस्थाओं का परिचायक है । इस तथ्य की पुष्टि आख्यान में रोहित द्वारा श्री , भग, उदुम्बर आदि की क्रमिक प्राप्ति से होती है । शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.१ , तैत्तिरीय संहिता ६.२.१०.६ व ६.२.११.४ , ताण्ड्य ब्राह्मण ६.४.११ में उदर रूपी सद: में औदुम्बरी के रोपण का वर्णन आता है ।

          पुराणों में ब्रह्मा द्वारा विष्णु के उदर में प्रवेश करने व नाभिकमल से निर्गत होने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ८.६.२.१६ में स्वयमातृण्णा इष्टका का वर्णन आता है जिसे उखा व उलूखल अथवा उदर व योनि के बीच में स्थित कहा गया है । यह एक सुषिर स्थान है जहां से ब्रह्म रूपी सूर्य का उदय होता है । वैदिक साहित्य में आचार्य ब्रह्मचारी शिष्य को उदर में धारण करता है ( अथर्ववेद ११.५.३ ) । शुक्ल यजुर्वेद १९.८६ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.४.३ आदि में नाभि को उदर की माता कहा गया है । पद्म पुराण में शुक्राचार्य द्वारा शिव के उदर में जाने व वहां से निर्गत होने के संदर्भ में शांखायन श्रौत सूत्र १४.२७.१ में उशना कवि का वर्णन विचारणीय है ।

          पुराणों में श्रीकृष्ण द्वारा नवनीत की चोरी और यशोदा माता द्वारा उन्हें उलूखल से बांधे जाने की सार्वत्रिक कथा के संदर्भ में ब्राह्मण तथा श्रौत ग्रन्थों में आन्त्रों में ऊर्जा का विकास होने पर उनके रज्जु / रशना रूप धारण कर लेने का उल्लेख आता है (आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १५.१५.१, वैखानस श्रौत सूत्र १३.१७ ) । उलूखल व मुसल को भी उदर के समीप स्थापित करने का निर्देश है जिसका कारण यह है कि उदर को जिस अन्न की अथवा सर्वश्रेष्ठ अन्न ( अन्नाद्य ) की आवश्यकता है , उसे उदुम्बर काष्ठ से निर्मित उलूखल - मुसल द्वारा तुरन्त प्राप्त किया जा सके ।

          वाल्मीकि रामायण में महोदर नामक असुर के घण्टानिनाद वाले गज पर स्थित होने के उल्लेख के संदर्भ में गज इरा प्राण का प्रतीक है । इस गज को घण्टा निनाद वाला कहा गया है । गणेश के लम्बोदर नाम में लम्ब शब्द भी रम्भ का , नाद का प्रतीक हो सकता है । लक्ष्मीनारायण संहिता में इलोदर असुर द्वारा रस पान की कथा के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में मृत यजमान के उदर पर इडा पात्री / संवत्तधानी रखने का सार्वत्रिक उल्लेख आता है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.४८ , शतपथ ब्राह्मण १२.५.२.७ ) । उदर को सद: कहा गया है जहां ब्राह्मण ऋत्विज , जो विश्वेदेवों का रूप हैं , स्थित होकर भक्षण करते हैं , भोजन को उसके सूक्ष्म अवयवों में परिष्कृत करते हैं , उसमें रस का विकास करते हैं , उसे असत् से सत् की ओर ले जाते हैं ( शतपथ ब्राह्मण ३.५.३., ३.६.१.१, जैमिनीय ब्राह्मण १.७१ ) । इरा प्राणों की प्रकृति भी अचेतन से चेतन की ओर विकास करने की है । इलोदर असुर की कथा के माध्यम से वैदिक साहित्य की किस ग्रन्थि की व्याख्या की गई है , यह अन्वेषणीय है ।

          पुराणों में ब्रह्मा के उदर से प्रतिहर्त्ता नामक ऋत्विज के प्रादुर्भाव का सार्वत्रिक उल्लेख आता है लेकिन वैदिक साहित्य में ऐसा कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है । प्रतिहर्त्ता को भिषक् अथवा व्यान प्राण कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ४.२.५.३, गोपथ ब्राह्मण २.५.४ ) । हो सकता है कि व्यान वायु का विकास उदर से होता हो ।

           शतपथ ब्राह्मण १०.६.४.१ , १०.६.५.३, अथर्ववेद ९.३.१५, १०.७.३२, गोपथ ब्राह्मण १.१.६ आदि में सार्वत्रिक रूप से उदर को अन्तरिक्ष कहा गया है । यह अन्वेषणीय है कि ब्रह्माण्ड में अन्तरिक्ष की स्थिति , जैसे अन्तरिक्ष में वायुओं का व सूर्य का स्थित होना , को उदर के स्तर पर कैसे प्राप्त किया जा सकता है ।

Sanskrit word ‘udara’ can be translated as belly, stomach, abdomen, udder etc. In vedic literature, udara has been equated with a vessel which may contain Ushaa, the twilight, or the twilight itself, or a vessel which may contain fire, or a vessel which may contain conscious + unconscious minds. Then procedure adopted for preparation of these vessels should be applicable to udara also. The vessel which bears fire is made of earth and the earth for that purpose is dug out with a chisel made of bamboo, the same object from which a flute is made. This indicate that some type of reverberation of sound is needed to dig out particular gross elements which may form the udara, which may be able to sustain higher development of fire, higher development of twilight. Higher development here means a fire whose entropy gradually goes on decreasing, which is gradually arranged, which is gradually converted from dark to light. This fact has been depicted in puraanas in the form of looking/seeing of different lokaas in udara.

          Regarding the story of affliction of king Harishchandra with enlargement of udara from dropsy for not sacrificing his son Rohita and then healing upon attempted sacrifice of Shunahshepa, the mystery of this story can be understood on the basis of the fact that in vedic literature, a rohita quality horse has been stated to be the carrier of fire, the fire which is going to take the shape of sun. Rohit can be translated as white, or lohit, reddish, the color of rising sun. This is a story of moon and sun. The color of moon, or soma, has been stated to be hari(Harishchandra), green. This is giving rise to rohit sun, and the story tells that lord Varuna demands the sacrifice of this rohit state. One vedic mantra states blue udara and reddish back. This seems to be the origin of the story of Harishchandra. The matter settles in sacrificing of Shunahshepa. Shunah word involves shunam, peace. 

          Regarding the story of binding of the belly of child Krishna from a wooden mortar with a rope, the rope has been stated to be the intestines. Intestines have been stated to form a rope when these get energized.

          Lord Ganesha is called having long udara. Here the word long may actually signify rambha, reverberation of sound.

          Udara has been stated to be situated in sky. How udara bears the qualities of sky, is yet to be investigated. In somayaaga, Dakshinaagni is situated in sky and the quality of this fire is that this is associated both with the chance nature and cause and effect nature.

 

संदर्भ :

१ उत यो मानुषेष्वा यशस्चक्रे असाम्या । अस्माकमुदरेष्वा ॥ ( ऋ.शुनःशेपः ; दे. वरुणः ) –ऋ. १.२५.१५

२ शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम् । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥ - ऋ.१.४२.९

उदरम् अस्मदीयं "प्रासि मृष्टान्नेन सोमरसेन वा पूरय – सा.भा.

३ यदूवध्यमुदररस्यापवाति य आमस्य क्रविषो गन्धो अस्ति । सुकृता तच्छमितारः कृण्वन्तूत मेधं शृतपाकः पचन्तु ॥ - ऋ.१.१६२.१०

४ एन्द्र याहि मत्स्व चित्रेण देव राधसा । सरो न प्रास्युदरं सपीतिभिरा सोमेभिरुरु स्फिरम् ॥ -ऋ. ८.१.२३

सपीतिभिः मरुद्भिः सह पीयमानैः “सोमेभिः सोमैः "उरु विस्तीर्णं “स्फिरं वृद्धम् “उदरम् आत्मीयं जठरं "सरो “न सर इव “ “प्रासि आपूरय – सा.भा.

५ इदं वसो सुतमन्धः पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन् ररिमा ते ॥ - ऋ.८.२.१

६ क्रत्व इत् पूर्णमुदरं तुरस्यास्ति विधतः । वृत्रघ्नः सोमपाव्नः ॥ - ऋ.८.७८.७

७ इमानि त्रीणि विष्टपा तानीन्द्र वि रोहय । शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदरे ॥ - ऋ.८.९१.५

८ पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद् यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - ऋ.१०.८६.२३

९ आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोरुदरादधि । यक्ष्मं कुक्षिभ्यां प्लाशेर्नाभ्या वि वृहामि ते ॥ - अथर्ववेद २.३३.४

१० शतेन पाशैरभि धेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ् नृचक्षः । आस्तां जाल्म उदरं श्रंसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः । - अ.४.१६.७

११ ब्रह्मास्य शीर्षं बृहदस्य पृष्ठं वामदेव्यमुदरमोदनस्य । छन्दांसि पक्षौ मुखमस्य सत्यं विष्टारी जातस्तपसोऽधि यज्ञः ॥ - अ.४.३४.१

१२ यदन्तरिक्षं रजसो विमानं तत् कृण्वेऽहमुदरं शेवधिभ्यः । तेन शालां प्रति गृह्णामि तस्मै ॥ - अ.९.३.१५

१३ देवजना गुदा मनुष्या आन्त्राण्यत्रा उदरम् । - अ.९.१२.१६

१४ हरिमाणं ते अङ्गेभ्योऽप्वामन्तरोदरात् । यक्ष्मोधामन्तरात्मनो बहिर्निर्मन्त्रयामहे ॥ - अ.९.१३.९

१५ बहिर्बिलं निर्द्रवतु काहाबाहं तवोदरात् । यक्ष्माणां सर्वेषां विषं निरवोचमहं त्वत् ॥ - अ.९.१३.११

१६ उदरात् ते क्लोम्नो नाभ्या हृदयादधि । यक्ष्माणां सर्वेषां विषं निरवोचमहं त्वत् ॥ - अ.९.१३.१२

१७ यस्य भूमि: प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् । दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥ - अ.१०.७.३२

१८ ईर्माभ्यामयनं जातं सक्थिभ्यां च वशे तव । आन्त्रेभ्यो जज्ञिरे अत्रा उदरादधि वीरुधः ॥ - अ.१०.१०.२१

१९ यदुदरं वरुणस्यानुप्राविशथा वशे । ततस्त्वा ब्रह्मोदह्वयत् स हि नेत्रमवेत् तव ॥ - अ.१०.१०.२२

२० अङ्गेभ्यस्त उदराय जिह्वाया आस्याय ते । दद्भ्यो गन्धाय ते नमः ॥ - अ.११.२.६

२१ ततश्चैनमन्येनोदरेण प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन् । उदरदारस्त्वा हनिष्यतीत्येनमाह ॥ तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम् । सत्येनोदरेण । तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम् ॥ - अ.११.४.११

२२ आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः । तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः । - अ.११.५.३

२३ चक्षुः श्रोत्रं यशो अस्मासु धेह्यन्नं रेतो लोहितमुदरम् ॥ - अ.११.७.२५

२४ स एकव्रात्योऽभवत्~ स धनुरादत्त तदेवेन्द्रधनुः । नीलमस्योदरं लोहितं पृष्ठम् । नीलेनैवाप्रियं भ्रातृव्यं प्रोर्णोति लोहितेन द्विषन्तं विध्यतीति ब्रह्मवादिनो वदन्ति । - अ.१५.१.७

२५ आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोरुदरादधि । यक्ष्मं कुक्षिभ्यां प्लाशेर्नाभ्या वि वृहामि ते ॥ - अ.२०.९६.२०

२६ पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद् यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - अ.२०.१२६.२३

२७ अथ हैक्ष्वाकं वरुणो जग्राह तस्य होदरं जज्ञे तदु ह रोहितः शुश्राव सोऽरण्याद् ग्राममेयाय तमिन्द्र पुरुषरूपेण पर्येत्योवाच - ऐ.ब्रा.७.१५

२८ तस्य ह स्मर्च्यृच्युक्तायां वि पाशो मुमुचे कनीय ऐक्ष्वाकस्योदरं भवत्युत्तमस्यामेवर्च्युक्तायां वि पाशो मुमुचेऽगद ऐक्ष्वाक आस । - ऐ.ब्रा.७.१६

२९ वशं शंसति वशे म इदं सर्वमसदिति । ता एकविंशतिर्भवन्त्येकविंशतिर्हि ता अन्तरुदरे विकृतयः । अथो एकविंशो वै हीमानां प्रतिष्ठोदरमन्नाद्यानाम् । - ऐ.आ.१.५.१

३० उरू गृणीहीत्यब्रवीत्तदुदरमभवत् । उर्वेव मे कुर्वित्यब्रवीत्तदुरोऽभवत् । उदरं ब्रह्मेति शार्कराक्ष्या उपासते हृदयं ब्रह्मेत्यारुणयो - ऐ.आ.२.१.४

३१ आन्त्राणि स्थाली मधु पिन्वमाना । गुदा पात्राणि सुदुघा न धेनुः । श्येनस्य पत्रं न प्लीहा शचीभिः । आसन्दी नाभिरुदरं न माता । - तै.ब्रा.२.६.४.३

३२ पृष्टीर्म राष्ट्रमुदरमंसौ । - तै.ब्रा.२.६.५.५

३३ ये द्विपादश्चतुष्पादः । अपाद उदरसर्पिणः । सर्वास्ताः । - तै.ब्रा.३.१२.६.४

३४ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः । पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यदह्ना पापमकार्षम् । मनसा वाचा हस्ताभ्याम् । पद्भ्यामुदरेण शिश्ना । अहस्तदवलुम्पतु । - तै.आ.१०.२४

३५ सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः । पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद्रात्रिया पापमकार्षम् । मनसा वाचा हस्ताभ्याम् । पद्भ्यामुदरेण शिश्ना । रात्रिस्तदवलुम्पतु । - तै.आ.१०.२५.१

३६ यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते । अथ तस्य भयं भवति । - तै.आ.८.७.१

३७ तदाहुरुदरं वा एष स्तोमानां यत् सप्तदशो यत् सप्तदशम्मध्यतो निर्हरेयुरशनायवः प्रजाः स्युरशनायवः सत्रिण: । - तां.ब्रा.४.५.१५

३८ प्रजापतेर्वा एतदुदरं यत्सद ऊर्गुदुम्बरो यदौदुम्बरी मध्ये सदसो मीयते । मध्यत एव तत्प्रजाभ्योऽन्नमूर्जन्दधाति - तां.ब्रा.६.४.११

३९ अथैतां चितां चिन्वन्ति । - - - -कर्णयोः प्राशित्रहरणे उदरे पात्रीं संवर्तधानीम् आण्डयोर् दृषदउपले - जै.ब्रा.१.४८

४० स उदराद् एव मध्यतस् सप्तदशं स्तोमम् असृजत् जगतीं छन्दो वामदेव्यं साम विश्वान् देवान् देवतां वैश्यं मनुष्यं गां पशुम् । - जै.ब्रा.१.६९

४१ प्रजापतेर वा एतद् उदरं यत् सदः । ऊर्ग् उदुम्बरः । यन् मध्यतस् सदस औदुम्बरीम् ईयते मध्यत एवैतत् प्रजानाम् अन्नम् ऊर्जं दधाति - जै.ब्रा.१.७१

४२ सा ( अपाला ) अब्रवीत् : इमानि त्रीणि विष्टपा तानीन्द्र विरोहय । शिरस् ततस्योर्वराम् आद् इदं म उपोदरे । सर्वा ता रोमशा कृधि ॥ - जै.ब्रा.१.२२१

४३ त्रीणि ह वै यज्ञस्योदराणि गायत्री बृहत्य् अनुष्टुप् । अत्र ह्य एवावपन्त्य अत उद्धरन्ति । तद उ यथायं मध्येन पुरुषस् सुहितो वा स्याद् अशनायेद् वा तथा तत् । अथ यथेतराण्य - - -जै.ब्रा.१.३११

४४ इदम् एवोदरम् एकविंशम् अहः । सर्वे वै स्तोमा एकविंशम् अभिसंपन्नाः । सर्वम् अन्नाद्यम् उदरे प्रतिष्ठितम् । - जै.ब्रा.२.५७

४५ अथ उदरेण पापं कृत्वा मन्येत , सप्तदशेनाग्निष्टुता यजेत । एष ह वा उदरेण पापं करोति । यो ऽनाश्यान्नस्यान्नम् अत्ति । उदरं वै सप्तदश स्तोमानाम् । उदराद् एव तेन पाप्मानम् अपघ्नते । जै.ब्रा.२.१३५

४६ तस्य वा एतस्य ललाटाद् एव सिंहो ऽजायतोरसो ऽधि शार्दूल , उदराद् द्वीपी - जै.ब्रा.२.२६७

४७ स खलु पादाभ्यामेव पृथिवीं निरमिमीत , उदरादन्तरिक्षं मूर्ध्नो दिवम् । - गोपथ ब्रा.१.१.६

४८ उदरमेकविंशः । विंशतिर्ह्येवैतस्यान्तर उदरे कुन्तापानि भवन्त्युदरमेकविंशम् । तस्मादुदरमेकविंशः । - गोपथ ब्रा.१.५.३

४९ इन्द्रस्य त्वा जठरे सादयामि इत्यब्रवीत् । - - - वरुणस्योदर इति । न हि वरुणस्योदरं किं चन हिनस्तीति । २ । अथो आहुः ब्राह्मणस्योदर इति । - गोपथ ब्रा.२.१.२

५० पुरुषो वै यज्ञः । तस्य शिर एव हविर्धानम् , मुखमाहवनीयः , उदरं सदः , अन्नमुक्थानि, - - - -। गोपथ ब्रा.२.५.४

५१ तं ( वृत्रं ) द्वेधाऽन्वभिनत् , तस्य यत् सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकार । अथ यदस्यासुर्मास तेनेमाः प्रजा उदरेणाविध्यत् । अथ यदिमाः प्रजा अशनमिच्छन्ते अस्मा एवैतद् वृत्रायोदराय बलिं हरन्ति । - शतपथ ब्रा.१.६.३.१७

५२ स वै पौर्णमासेनोपवत्स्यन्न सत्रा सुहित इव स्यात् तेनेदमुदरमसुर्यं व्लिनात्याहुतिभिः प्रातर्दैवम् । एष उ पौर्णमासस्योपचारः । - मा.श.१.६.३.३१

५३ अथ व्रतं व्रतयित्वा नाभिमुपस्पृशति श्वात्रा: पीता भवत् यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः । - मा.श.३.२.२.१९

५४ अंहस इव ह्येता मुञ्चन्ति यदुदरे गुष्ठितं भवति । - - -मा.श.३.२.२.२०

५५ हविर्धान कर्म : उदरमेवास्य सदः । तस्माद् सदसि भक्षयन्ति । यद्धीदं किञ्चाश्नन्ति उदरऽएवेदं सर्वं प्रतितिष्ठति । अथ यदस्मिन् विश्वेदेवाऽअसीदन् तस्मात्सदो नाम । - मा.श.३.५.३.५

५६ औदुम्बरी : उदरमेवास्य सदः । तस्मात् सदसि भक्षयन्ति । यद्धीदं किञ्चाश्नन्ति उदर एवेदं सर्वं प्रतितिष्ठति । अथ यदस्मिन् विश्वे देवा असीदन् तस्मात् सदो नाम । - मा.श.३.६.१.१

५७ स आह अध्वर्युर्निरूहैतं गर्भम् इति । तं नोदरतो निरूहेद् । आर्ताया वै मृताया उदरतो निरूहन्ति । यदा वै गर्भः समृद्धो भवति प्रजननेन वै स तर्हि प्रत्यङ्ङैति । - मा.श.४.५.२.३

५८ गार्हपत्याग्निचयनम् : अपेत वीत वि च सर्पतात इति । अप चैवेत , वि चेत , व्यु च सर्पतात इत्येतत् । य उदरसर्पिणस्तानेतदाह । - मा.श.७.१.१.२

५९ उखोपरि होमः : उदरमुखा । योनिरुलूखलम् । उत्तरोखा भवति अधरमुलूखलम् । उत्तरं ह्युदरम् अधरा योनिः । शिश्नं मुसलम् । - - - मा.श.७.५.१.३८

६० पञ्चपशुशीर्षेष्टकोपधानम् : उदरं वाऽउखा । उदरे तदन्नं दधाति । - मा.श.७.५.२.७

६१ एकत्रिंशत्छन्दस्येष्टकोपधानम् : उदरमतिच्छन्दाः । पशवो वै च्छन्दांसि । अन्नं पशवः । उदरं वाऽन्नमत्ति । उदरं हि वाऽअन्नमत्ति । तस्माद्यदोदरमन्नं प्राप्नोति अथ तज्जग्धं यातयामरूपं भवति । - मा.श.८.६.२.१३

६२ प्राङ् ह्येषोऽग्निश्चीयते । अथो प्राग्वै प्राचऽउदरम् , प्राची योनिः । बहिस्तोमभागम् । हृदयं वै स्तोमभागाः । हृदयमु वाऽउत्तमम् । अथोदरम् , अथ योनिः । - मा.श.८.६.२.१५

६३ अथ प्रथमायां चिता उत्तरतः स्वयमातृण्णाया उदरं च योनिं चोपदधाति । यो वाऽअयं मध्ये प्राणः तदेषा स्वयमातृण्णा । एतस्य तत्प्राणस्योभयत उदरं च योनिं च दधाति । तस्मादेतस्य प्राणस्योभयत उदरं च योनिश्च । - मा.श.८.६.२.१६

६४ लोकम्पृणेष्टकोपधानम् : अथो अन्नं वै यजुष्मत्य इष्टकाः , उदरं मध्यमा चितिः । उदरे तदन्नं दधाति । - मा.श.८.७.२.१८

६५ अश्वस्य मेध्यस्य द्यौष्पृष्ठम् , अन्तरिक्षमुदरम् , पृथिवी पाजस्यम् ।- - - मा.श.१०.६.४.१

६६ दक्षिणा चोदीची च पार्श्वे । द्यौष्पृष्ठम् । अन्तरिक्षमुदरम् । इयमुरः । - मा.श.१०.६.५.३

६७ उदरमेवास्येडा । तद्यथैवाद इडायां समवद्यंति । एवमेवेदं विश्वरूपमन्नमुदरे समवधीयते । - मा.श.११.२.६.८

६८ उदरं गृहमेधीया । प्रतिष्ठा वा उदरम् । प्रतिष्ठित्या एव । - मा.श.११.५.२.४

६९ अथ यदिदमन्तरुदरे । तत्पितृयज्ञः । तद्वा अनिरुक्तं भवति । तस्मात्तदनिरुक्तम् ।- मा.श.११.५.२.५

७० गवामयनीय संवत्सरस्य पुरुषविधोपासनम् : उदरमेकविंशः । विंशतिर्वा अन्तरुदरे कुन्तापानि । उदरमेकविंशम् । तस्मादुदरमेकविंशः । - मा.श.१२.२.४.१२

७१ एकविंशमुदरं कल्पयन्ति पार्श्वे पर्शूस्त्रिणवेनाभिक्लृप्ते । - मा.श.१२.३.१.६

७२ उदरे पात्रीं समवत्तधानीं पृषदाज्यवतीम् । शिश्नस्यांते शम्याम् । - मा.श.१२.५.२.७

७३ अन्तरिक्षं वै मध्यममहः । - - - -उदरं मध्यममहः । उदरे तदन्नं दधाति । - मा.श.१३.६.१.२

७४ वाजपेयोऽवसेचनं ब्राह्मणम् : अन्तरिक्षं वा उपयमनी । अथो उदरं वा उपयमनी । उदरेण हीदं सर्वमन्नाद्यमुपयतम् । - मा.श.१४.२.१.१७

७५ घर्मोद्वासनं : अथैतद्रज्जुसंदानम् । उपयमन्यामाधाय पश्चात्प्राचीमासादयति । उदरमेवास्मिन्नेतद्दधाति । - मा.श.१४.३.१.२२

७६ उदरं वै वृत्रः क्षुत्खलु वै मनुष्यस्य भ्रातृव्यो य एवं वेद हन्ति क्षुधं भ्रातृव्यं - - - - तै.सं.२.४.१२.६

७७ इडाप्राशित्रभक्षयोरभिधानम् : सोऽबिभेत् प्राशितं मा हिंसिष्यतीति ब्राह्मणस्योदरेणेत्यब्रवीन्न हि ब्राह्मणस्योदरं किंचन हिनस्ति - - - तै.सं.२.६.८.७

७८ अश्वस्तोमीय मन्त्राः : यदूवध्यमुदरस्यापवाति य आमस्य क्रविषो गन्धो अस्ति । - तै.सं.४.६.८.४

७९ - - - -नभ उदर्येणेन्द्राणीं प्लीहना वल्मीकान्क्लोम्ना गिरीन्प्लाशिभिः समुद्रमुदरेण वैश्वानरं भस्मना । - तै.सं.५.७.१६.१

८० सदोभिधानम् : उदरं वै सद ऊर्गुदुम्बरो मध्यत औदुम्बरीं मिनोति - - - -। तै.सं.६.२.१०.६

८१ उपरवाभिधानम् : उदरं सदो यदा खलु वै जिह्वया दत्स्वधि सादत्यथ मुखं गच्छति यदा मुखं गच्छत्यथोदरं गच्छति तस्माद्धविर्धाने - - - तै.सं.६.२.११.४

८२ अश्वमेधांग मन्त्रः : समुद्र उदरमन्तरिक्षं - - - -तै.सं.७.५.२५.२

८३ अग्नेस्त्वास्येन प्राश्नामि ब्राह्मणस्योदरेण बृहस्पतेर्ब्रह्मणेन्द्रस्य त्वा जठरे सादयामि - - - आप.श्रौ.सू.३.१९.७

८४ प्रवर्ग्यः :मध्य उपयमनमुदरस्य रूपम् । तस्मिन् सर्वं रज्जुमयं समवदधात्यान्त्राणां रूपम् । - आप.श्रौ.सू.१५.१५.१

८५ इह धृतिरिह स्वधृतिरिह रन्तिरिह रमतिरित्यौदुम्बरीं परिष्वज्योदरैरुपस्पृशन्तो वाग्यतास्तिष्ठन्ति । - आप.श्रौ.सू.२१.१२.७

८६ उदरे समवत्तधानीम् । - शां.श्रौ.सू.४.१४.२७

८७ स एतमुशनस्तोमं यज्ञक्रतुमपश्यत् । तेनेष्ट्वा पाप्मानमपाहत तेन पाप्मानमजिघांसमानो यजेत । उदरव्याधितश्च । - शां.श्रौ.सू.१४.२७.१

८८ अथ हैक्ष्वाकं राजानं वरुणो जग्राह । तस्य होदरं जज्ञे । - शां.श्रौ.सू.१५.१८.१

८९ तस्य शुनःशेपस्य ह स्मर्च्यृच्युक्तायां नितरां पाशो मुमुचे । कनीय ऐक्ष्वाकस्योदरं बभूव । - शां.श्रौ.सू.१५.२२.१

९० उदरमेदोऽवशिष्टं गुदे प्रास्यति कृशश्चेत् । - का.श्रौ.सू.६.७.१२

९१ ग्रीवा वघो हृदयं स्तनस्तृतीयान्युदरप्रभृतीनि चतुर्थानि- - - । - वैखानस श्रौ.सू.१.१

९२ यद् ग्रीवायां वेपनो ऽयं निर्मन्थेद्यदुदरे ऽनारब्धो ऽस्य यज्ञो भवति । - - -वैखानस.श्रौ.सू.१.१

९३- - - -- - मध्य उपयमनमुदरो ऽभितो ऽभ्रः श्रोणी - - - -तस्मिन्सर्वं रज्जुमयं दधाति तान्यन्त्राणि । - वैखानस श्रौ.सू.१३.१७