PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

उदक

There are indications that one has to make his body worthy of retaining udaka/water. In this connection, it has been stated that if one tries to retain udaka in an earthen vessel made of unfired clay, it will break. It is necessary to fire the clay. Similarly, one has to fire his own body with truth, effort, penance etc.

     Udaka is variously interpreted in vedic literature. One interpretation is that udaka is one which has upward motion. One other reference indicates that fire has upward motion, and this fire is best visible in the form of it's flames, such as our eyes, ears, nose etc. This fire attracts udaka/water. The type of udaka depends on the type of flame.

    One more fact has to be understood with regard to fire and water. When fire is produced in our body, as at the time of hunger, this fire burns our body parts wherever it goes. In this burning / melting process, an udaka is also produced which has upward motion and whose ultimate place is our head.

    Vedic literature states drinking udaka by feet. On the other hand, there is well known story of the holy Ganges manifesting from the toe of lord Vishnu.

 

टिप्पणी : पितरों के तर्पण हेतु अथवा अतिथि के पाद प्रक्षालन हेतु जो उदक पात्र लाया जाता है , इस संदर्भ में साधना के दृष्टिकोण से हमें अपनी देह को ही उदक पात्र बनाना है । शतपथ ब्राह्मण १२.१.३.२३ तथा गोपथ ब्राह्मण १.४.१३ का कथन है कि यदि आम / कच्चे पात्र को उदक से सिंचित करने का प्रयत्न किया जाएगा तो पात्र टूट जाएगा , मृत्यु हो जाएगी । इस देह रूपी पात्र को उदक धारण करने योग्य बनाने के लिए इसे सत्य , श्रम , तप , श्रद्धा , यज्ञ , आहुतियों आदि द्वारा पकाना है। महाभारत वनपर्व में उदक पान से पूर्व यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से प्रश्नों का पूछा जाना संभवतः इसी तथ्य की ओर संकेत करता है । विष्णु धर्मोत्तर पुराण में उदक का शोषण न करने वाली भूमि के वास्तु प्रतिष्ठा हेतु उत्कृष्ट होने का कथन भी इसी तथ्य से संबंधित हो सकता है ।

           उदक शब्द की निरुक्ति बहुत प्रकार से की जाती है , जैसे उदञ्चति इति उदक , अर्थात् जो ऊपर की ओर गति करता है, वह उदक है । अथर्ववेद ३.१३.४ में भी उदक की निरुक्ति की गई है । लेकिन सबसे बोधगम्य संकेत हमें महाभारत अनुशासन पर्व में उदर्क और उदक के पाठभेद से मिलता है । उदर्क अर्थात् उत् - अर्क , अग्नि की ऊपर की ओर जाने वाली अर्चियां या लपटें । जैसा कि अर्क शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, हमारी आंख , नाक , कान आदि यह सब अर्क के ही रूप हैं । अग्नि की यह अर्चियां उदक का आहरण करने में, वर्षा कराने में समर्थ हैं । अग्नि का जैसा रूप होगा, वैसे ही उदक की प्राप्ति होगी । एक सामान्य अनुभव के रूप में , जब हमारी क्षुधा हमारे उदर के अवयवों को और उसके पश्चात उदर से नीचे पादों आदि को जलाती है तो वह  अंग भी मोम की भांति द्रवित होकर उदक की सृष्टि करते हैं । फिर यह उदक ऊपर की ओर गति करके शीर्ष भाग में पंहुच कर शीतल उदक की वृष्टि करता है । उपवास में क्षुधा के कारण सिर में दर्द होना इस प्रक्रिया की आरंभिक अनुभूति ही है । पितृ तर्पण कर्म के संदर्भ में मत्स्य पुराण १९.२६ में वर्णन आता है कि वासना के अनुसार पितर ( डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार हमारा पालन करने वाले , हमारे स्व को धारण करने वाले आवेग अथवा स्वधा ) सर्प , यक्ष , राक्षस, दानव , मनुष्य आदि आदि का रूप धारण कर सकते हैं । उन सबको उनके यथायोग्य उदक से तृप्त करना है । इसके अतिरिक्त पितरों को वसु , रुद्र और आदित्य , इन तीन श्रेणियों में बांटा गया है । वसुगण ( वासनाओं का रूपांतरित रूप जो अब धन बन गया है ) पृथिवी लोक व गार्हपत्य अग्नि से , रुद्रगण अन्तरिक्ष लोक व दक्षिणाग्नि से तथा आदित्यगण स्वर्गलोक तथा आहवनीय अग्नि से संबंध रखते हैं । क्रमशः पिता , पितामह तथा प्रपितामह नामक इन तीन पितृगणों के लिए तीन बार उदक से तर्पण किया जाता है (शतपथ ब्राह्मण २.४.२.१६, २.४.२.२३ , २.६.१.४१, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १.८.१० ) । स्वाभाविक रूप से , यह समझा जा सकता है कि तीनों बार जिस उदक का उपयोग किया जाता है , उसका स्वरूप प्रत्येक बार अलग - अलग होगा । ऐतरेय ब्राह्मण ७.१२ , आश्वलायन श्रौत सूत्र २.२.१३ तथा शांखायन श्रौत सूत्र २.६१२ आदि में गार्हपत्य अग्नि से आहवनीय अग्नि तक अविच्छिन्न उदकधारा ले जाने का निर्देश है । आश्वलायन श्रौत सूत्र के अनुसार दक्षिणाग्नि पिता , गार्हपत्य अग्नि पुत्र और आहवनीय अग्नि पौत्र स्वरूप है । आहवनीय अग्नि पर उदक का स्वरूप गर्ग संहिता के इस कथन से समझा जा सकता है कि गरुड ने गंगा जल से आहवनीय अग्नि को शांत किया । आहवनीय अग्नि की वेदी पर सिर पर केशों के प्रतीक रूप में प्रस्तर नामक तृणों से आच्छादन किया जाता है । अतः आहवनीय अग्नि पर गंगा जल की स्थिति को पौराणिक साहित्य में शिव की जटाओं में गंगा की स्थिति के तुल्य माना जा सकता है । गार्हपत्य अग्नि पर बर्हि नामक तृण द्वारा आच्छादन किया जाता है । बर्हि उदक के १०१ नामों में से एक है । लेकिन प्रश्न यह है कि वैदिक साहित्य में तो गार्हपत्य से आहवनीय तक अविच्छिन्न उदक धारा ले जाने का निर्देश है , जबकि पौराणिक साहित्य में भागीरथ आदि अपने पितरों के उद्धार के लिए गंगा को स्वर्ग से भूतल पर लाते हैं ।

           जैमिनीय ब्राह्मण १.३३४, ३.३४७ , ३.३४८ व ३.३८४ में उपोदक , ऋत , अपराजित , अधिद्यु , प्रद्यु , रोचन , विष्टप / सत्य आदि लोकों का वर्णन है । उदक के १०१ नामों में ऋत और सत्य की भी गणना की गई है ।

          भारतीय साहित्य में सार्वत्रिक रूप से अतिथि के पाद प्रक्षालन हेतु उदक प्रस्तुत करने के उल्लेख आते हैं । इस संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण ८.२४ का कथन है कि अतिथि वैश्वानर अग्नि का रूप है और पाद प्रक्षालन का उद्देश्य यह है कि अतिथि के पादों में जो मेनि / क्रोध रूपा शक्ति विद्यमान है , वह शान्त हो जाए । अथर्ववेद ९.६.४ तथा ९.१०.८ में कहा गया है कि जो अतिथि से उदक की याचना की जाती है वह भक्ति के हिंकार , प्रस्ताव , उद्गीथ, प्रतिहार और निधन , इन पांच प्रकारों में से उद्गीथ प्रकार का रूप है । उपनिषदों में ओंकार को ही उद्गीथ कहा गया है । ऋग्वेद १.१६४.७ तथा अथर्ववेद ९.१४.५ में एक ऐसी गौ का उल्लेख है जो सिर से तो दूध देती है और पद से उदक का पान करती है । सहज योग आंदोलन की प्रवर्तक माता निर्मला देवी के अनुसार जब भक्त अपने चरण किसी सिद्ध तीर्थ या स्थान की ओर बढाता है तो उसके चरण दिव्य तरंगों को ग्रहण करने लगते हैं और सूचना देते हैं कि वह किसी दिव्य स्थान की ओर बढ रहा है । पदों द्वारा दिव्य तरंगों का ग्रहण करना उदक पान के तुल्य ही है । एक ओर पदों द्वारा उदक का पान है तो दूसरी ओर विष्णु के पदों / पादांगुष्ठ से गंगा के उद्भव का उल्लेख आता है । यह कहा जा सकता है कि जब साधक के समक्ष दिव्य शक्ति अथवा अतिथि का अवतरण होता है तो उसके पदों से उदक निकल कर शीर्ष की ओर गति करता है । यही पादोदक का पान है ।

          वायु पुराण में उदय पर्वत पर उदक वर्ष की स्थिति के उल्लेख के संदर्भ में शांखायन गृह्य सूत्र ६.२.४ में अनुदित अवस्था में उदक ग्रहण करने का निर्देश है । षड्-विंश ब्राह्मण में भक्ति की हिंकार , प्रस्ताव , उद्गीथ व प्रतिहार अवस्थाओं को क्रमशः सूर्य की अनुदित व उदित तथा चन्द्रमा की अनुदित व उदित अवस्थाओं से सम्बद्ध किया गया है । अथर्ववेद में अतिथि से उदक की याचना को उद्गीथ / ओंकार से सम्बद्ध किया गया है । अतः यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि चन्द्रमा की कलाओं के साथ उदक की स्थितियों का निरूपण वैदिक व पौराणिक साहित्य में किस प्रकार किया गया है ? अतिथि से प्राप्त उदक को उदक की वह स्थिति मान सकते हैं जो कलाओं से रहित है , पूर्ण है ।

 

संदर्भ

 

१अश्विनौ द्वारा समुद्र में भुज्यु की रक्षा :

तमूहथुर्नौभिरात्मन्वतीभिरन्तरिक्षप्रुद्भिरपोदकाभिः ॥ - ऋग्वेद १.११६.३

२इदमुदकं पिबतेत्यब्रवीतनेदं वा घा पिबता मुञ्जनेजनम् । - ऋ.१.१६१.८

३श्रोणामेक उदकं गामवाजति । - ऋ.१.१६१.१०

४अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती । - ऋ.१.१६४.४०

५समानमेतदुकमुच्चैत्यव चाहभिः । भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः ॥ - ऋ.१.१६४.५१

६उदप्रुतो मन्दिनो मन्दिनिस्पृशो मध्वो न मक्षः सवनानि गच्छथः । दे. अश्विनौ । - ऋ.४.४५.४

७ पौरं चिद्ध्युदप्रुतं पौर पौराय जिन्वथ । दे. अश्विनौ । - ऋ.५.७४.४

८अहन् दासा वृषभो वस्नयन्तोदव्रजे वर्चिनं शम्बरं च ॥ - ऋ ६.४७.२१

९प्र धेनव उदप्रुतो नवन्त युज्यातामद्री अध्वरस्य पेशः । - ऋ.७.४२.१

१०तव द्रप्सा उदप्रुत इन्द्रं मदाय वावृधुः । त्वां देवासो अमृताय कं पपुः ॥ ऋ.९.१०६.८

११आ सोता परि षिंचताऽश्वं न स्तोममप्तुरं । वनक्रक्षमुदप्रुतम् ॥ - ऋ.९.१०८.७

१२उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा वावदतो अभ्रियस्येव घोषाः । दे. बृहस्पतिः। - ऋ.१०.६८.१

१३अधस्पदान्म उद्वदत मण्डूका इवोदकान्मण्डूका उदकादिव ॥ - ऋ.१०.१६६.५

१४ये सर्पिषः संस्रवन्ति क्षीरस्य चोदकस्य च । - अथर्ववेद १.१५.४

१५एको वो देवोऽप्यतिष्ठत् स्यन्दमाना यथावशम् । उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकमुच्यते ॥ - अ.३.१३.४

१६चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि क्षीरेण पूर्णां उदकेन दध्ना । - अ.४.३४.६

१७अग्निरिवैतु प्रतिकूलमनुकूलमिवोदकम् । सुखो रथ इव वर्ततां कृत्या कृत्याकृतं पुनः ॥ - अ.५.१४.१३

१८तद् वै राष्ट्रमा स्रवति नावं भिन्नामिवोदकम् । ब्रह्माणं यत्र हिंसन्ति तद् राष्ट्रं हन्ति दुच्छुना । - अ.५.१९.८

१९उदप्रुतो मरुतस्तां इयर्त वृष्टिर्या विश्वा निवतस्पृणाति । - अ.६.२२.३

२०श्मश्रु वपनम् : आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि । आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः । - अ.६.६८.१

२१यद्वो देवा उपजीका आसिंचन् धन्वन्युदकम् । तेन देव प्रसूतेनेदं दूषयता विषम् ॥ ऋ. गरुत्मान , दे. वनस्पतिः। - अ.६.१००.२

२२यथोदकमपपुषोऽपशुष्यत्यास्यम् । एवा नि शुष्य मां कामेनाथो शुष्कास्या चर ॥ - अ.६.१३९.४

२३अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ॥ - अ.७.७७.११

२४अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः । व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णशृङ्गयः ॥ अ.८.७.९

२५अग्निर्होत्रेण प्र णुदे सपत्नांछम्बीव नावमुदकेषु धीरः ॥ दे. कामः। - अ.९.२.६

२६ऋचा कुम्भीमध्यग्नौ श्रयाम्या सिंचोदकमव धेह्येनम् । दे.पञ्चोदनो अजः। अ.९.५.५

२७अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती । - अ.९.१५.२०

२८प्रजानां प्रजननाय गच्छति प्रतिष्ठां प्रियः प्रजानां भवति य एवं विद्वानुदकमुपसिच्योपहरति ॥ - अ.९.९.१०

२९अव श्वेत पदा जहि पूर्वेण चापरेण च । उदप्लुतमिव दार्वहीनामरसं विषं वारुग्रम् ॥ ऋ. गरुत्मान , दे. तक्षक । - अ.१०.४.४

३०उत्थापय सीदतोv बुध्न एनानद्भिरात्मानमभि सं स्पृशन्ताम् । अमासि पात्रैरुदकं यदेतन्मितास्तण्डुलाः प्रदिशो यदीमाः ॥ दे. ओदनः । - अ.१२.३.३०

३१यदेनमाह व्रात्योदकमित्यप एव तेनाव रुन्द्धे ॥ - अ.१५.११.४

३२अस्यै देवतायै उदकं याचामीमां देवतां वासय -- - - - - । - अ.१५.१३.१३

३३उत् त्वा वहन्तु मरुत उदवाहा उदप्रुतः । अजेन कृण्वन्तः शीतं वर्षेणोक्षन्तु बालिति ॥ - अ.१८.२.२२

३४उदप्रुतो न वयो रक्षमाणा - - - - । - अ.२०.१६.१

३५ऋषियों द्वारा कवष ऐलoष के लिए सरस्वती का उदक पान करने से प्रतिषेध करना , कवष द्वारा अपो नप्त्रीय सूक्त से सरस्वती का आवाहन । - ऐतरेय ब्राह्मण २.१९

३६गार्हपत्य और आहवनीय के बीच रथ व श्वान के आ जाने पर प्रायश्चित्त कथन : गार्हपत्यादविच्छन्नामुदक धारां हरेत्तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहीत्याहवनीयात् । - ऐतरेय ब्राह्मण ७.१२

३७प्रह्लादो ह वै कायाधवः । विरोचनं स्वं पुत्रमुदास्यत् । स प्रदरोऽभवत्~ । तस्मात्प्रदरादुदकं नाऽऽचामेत् । - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१०.७

३८आ वो यन्तूदवाहासो अद्य । वृष्टिं ये विश्वे मरुतो जुनन्ति । - तै.ब्रा. २.५.५.३

३९स्तोकानामिन्दुं प्रति शूर इन्द्रः । वृषायमाणो वृषभस्तुराषाट् । घृतप्रुषा मधुना हव्यमुन्दन् । मूर्धन्यज्ञस्य जुषतां स्वाहा ॥ - तै.ब्रा. २.६.८.४

४०यन्मृन्मयेनापिदध्यात् । पितृदेवत्यं स्यात् । अयस्पात्रेण वा दारुपात्रेण वाऽपिदधाति । तद्धि सदेवम् । उदन्वद्भवति । - तै.ब्रा. ३.२.३.१२

४१एतां ह वै मुण्डिभा औदन्यवः । भ्रूणहत्यायै प्रायश्चित्तिं विदांचकार । - तै.ब्रा. ३.९.१५.२

४२भृगु द्वारा षष्ठम् लोक का दर्शन : पंच नदीः पुष्करिणीः पुण्डरीकिणीर् मधूदकास् स्यन्दमानाः । - जै.ब्रा. १.४२, १.४४

४३उदपात्रं वैवोदकमण्डलुं वादाय गार्हपत्याद् आहवनीयान् निनयन्न इयात् इदं विष्णुर् विचक्रमे इत्य् एतयैवर्चा । - - - -। जै.ब्रा. १.५२

४४अथो यत्रैतद् विभिन्नं तद् उदपात्रं वैवोदकमण्डलुं वोपनिनयेत् भूर् भुवस् स्वः इत्य् एताभिर् व्याहृतिभिः । - जै.ब्रा. १.५३

४५उपावहायोदकम् आचामेद् , उपावहाय तृणान्य् आछिन्द्यात् । - - - अनडुहो ह लोकं जयति । - जै.ब्रा. २.११३

४६तेन हैतेन मौण्डिभ उदन्युर् ईज उदन्यूनां राजा । - - - -। अथ ह मौण्डिभ उदन्युस् त्रय्यै विद्यायै कस्सवित आस । - जै.ब्रा. २.२६९

४७तस्माद् अश्व एकैकं पादम् उदंकन/उदकन् तिष्ठति । - जै.ब्रा. २.२७२

४८यस्मिन्न एव मे संवत्सरे समाना दास्य् उदकं चौदनं चाहरत् तस्मिन् एव मे संवत्सरे - - - - । जै.ब्रा. २.३५२

४९सुप्त्वोदकम् आचामेत् । पाप्मानम् एव तद् धते । - जै.ब्रा. २.३७०

५०स यथा प्र स्पष्टं तृणोदकम् अन्ववस्येत् तादृक् तत् । - जै.ब्रा. ३.१७

५१तम् अब्रवीद् आद्रवन्तं दृष्ट्वा - इमां मे भस्त्राम् उदके प्रास्यत , इमम् अहं तं पश्यामि यो मां प्रत्युच्याति- प्रक्ष्यतीति । - जै.ब्रा. ३.१०१

५२एतेनैव साम्ना च्यवनो भार्गवो यद् यद् अशनं चकमे तत् तद् ध स्म सरस्वत्यै शैशवाद् उदचति । - जै.ब्रा. ३.१२८

५३तम् उ ह स्वयम् एवोपोत्थाय संवृश्च्योदके प्रचकार । - जै.ब्रा. ३.२०१

५४कुत्सो ह वै म औरवः पुत्रं संवृश्च्योदके प्राकारीद् इति । - जै.ब्रा. ३.२०२

५५मममता के गर्भ में दीर्घतमा का कथन : - - - -कथोदन्वः पणायसि । - जै.ब्रा.३.२३९

५६तव द्रप्सा उदप्रुत इन्द्रं मदाय वावृधुर् इति वृद्धं ह्य् एतद् अहः । - जै.ब्रा. ३.२६६

५७अथ होवाचामलक - उदस्तोकम् अहं मन्य । - - - - - उदकाध्य् एवेदं सर्वं जायते । - - - -। - जै.ब्रा. ३.३५०

५८ततो य उदस्तोक इमां स प्रविशत्य् , ओषधीर् घृतस्तोको , वनस्पतीन् मधुस्तोकः । - जै.ब्रा.३.३५०

५९- - - - ताभ्यो अवर्षत् । तत ओदनो ऽजायत । तम् अशित्वोदानन् । स उदनो ऽभवत्~ । तद् उदनस्योदनत्वम् । - - - जै.ब्रा. ३.३४६

६०उपोदको नाम लोको अन्ने विष्टो , मनुष्या गोप्तारो , अग्निर् अधिपतिर् , यद् अर्चिषो रूपं तद् रूपं , अप्सु प्रतिष्ठितः । - - - - -। - जै.ब्रा. ३.३४८

६१अथो दक्षिणासंस्थो वै पितृयज्ञः तमेवैतदुदक्संस्थं कुर्वन्ति । ( दो बार ) - गोपथ ब्राह्मण २.१.२५

६२यदप्रक्षालितयोदकं स्रुचा न्यनैषं सर्पेतरजनांस्तेनाप्रैषं, यत् प्रक्षालितया सर्पपुण्यजनांस्तेन । यदपरेणाहवनीयमुदकं स्रुचा न्यनैषं गन्धर्वाप्सरसस्तेनाप्रैषम् । - गो.ब्रा. १.३.१२

६३अथ तमश्मानं उदहरणे अवधाय एतां दिशं हरन्ति । एषा वै नैर्ऋती दिक् । - शतपथ ब्राह्मण ९.१.२.९

६४सान्नाय्य संपादनम् : अथोत्तमां दोहयित्वा येन दोहयति पात्रेण - तस्मिन्नुदस्तोकमानीय पल्यङ्ग्य , प्रत्यानयति । मा.श. १.७.१.१८

६५अथोदकवतोत्तानेन पात्रेणापिदधाति । नेदेनदुपरिष्टान्नाष्ट्रा रक्षांस्यवमृशानिति । - मा.श. १.७.१.२०

६६मत्स्य द्वारा मनु को निर्देश : तं तु त्वा मा गिरौ सन्तमुदकमन्तश्छैत्सीत् , यावद् यावदुदकं समवायात् तावत्तावदन्ववसर्पासि । - मा.श. १.८.१.६

६७मनु द्वारा अवनेजन व मत्स्य को पाना : स होवाच - अपीपरं वै त्वा , वृक्षे नावं प्रतिबध्नीष्व , तं तु त्वा मा गिरौ सन्तमुदकमन्तश्छैत्सीत् , यावद् यावदुदकं समावायात् तावत्तावदन्ववसर्पासि । - मा.श. १.८.१.६

६८तस्माद् यद्येनं क्षीरं केवलं पानेऽभ्याभवेत् - उदस्तोकमाश्चोतयितवै ब्रूयात् - शान्त्यै न्वेव रसस्यो चैव सर्वत्वाय । - मा.श. २.३.१.१६

६९तद्दुग्ध्वाऽधिश्रयति । शृतमसदिति । तदाहुः यर्ह्युदन्तं तर्हि शृतं तर्हि जुहुयादिति । तद्वै नोदन्तं कुर्यात् , उप ह दहेद् यदुदन्तं कुर्यात् - अप्रजज्ञि वै रेत उपदग्धम् - तस्मान्नोदन्तं कुर्यात् । - मा.श. २.३.१.१४

७०पितरों के हाथ धुलाना : अथोदपात्रमादायावनेजयति - असाववनेनिक्ष्य इत्येव यजमानस्य पितरम् । असाववनेनिक्ष्वेति पितामहम् । असावनेनिक्ष्वेति प्रपितामहम् । तद् यथा ऽशिष्यते अभिषिञ्चेदेवं तत् । - मा.श. २.४.२.१६ , २.४.२.२३

७१स उदपात्रमादाय अपसलवि त्रिः परिषिञ्चन्पर्येति । स यजमानस्य पितरमवनेजयति - असाववनेनिक्ष्व इति । असाववनेनिक्ष्व इति पितामहम् । असाववनेनिक्ष्व इति प्रपितामहम् । - मा.श. २.६.१.३४

७२पितृयज्ञः : अथोदपात्रमादाय पुनः प्रसलवि ( प्रदक्षिणा पूर्वक ) त्रिः परिषिञ्चन् पर्येति । स यजमानस्य पितरमवनेजयति - असाववनेनिक्ष्व इति । असाववनेनिक्ष्व इति पितामहम् । असाववनेनिक्ष्व इति प्रपितामहम् । - - - । - मा.श. २.६.१.४१

७३दीक्षासंस्काराः : अथोत्तरेण शालां परिश्रयन्ति । तदुदकुम्भमुपनिदधाति । तन्नापित उपतिष्ठते । तत्केशश्मश्रु च वपते , नखानि च निकृन्तते । - - - मा.श. ३.१.२.२

७४( दर्भाणि ) प्रच्छिद्योदपात्रे प्रास्यति । तूष्णीमेवोत्तरं गोदानमभ्युनत्ति ।- - - -तूष्णीं क्षुरेणाभिनिधाय प्रच्छिद्योदपात्रे प्रास्यति । - मा.श. ३.१.२.८

७५अथाग्रेण राजानं विचिन्वन्ति । तदुदकुम्भ उपनिहितो भवति । तद् ब्राह्मण उपास्ते। - मा.श. ३.३.२.५

७६सोमानयनम् : अथ हैके उदपात्रमुपनिनयन्ति । यथा राज्ञऽआगतायोदकमाहरेदेवमेतदिति वदन्तः । तदु तथा न कुर्यात् । मानुषं ह ते यज्ञे कुर्वन्ति । - मा.श. ३.३.४.३१

७७सोम राजा हेतु आतिथ्येष्टिः : यथा वै देवानां चरणम् । तद्वाऽनुमनुष्याणाम् । तस्मान्मानुषे यावन्न विमुञ्चते ( यान आदि को त्यागता है ) - नैवास्मै तावदुदकं हरन्ति नापचितिं कुर्वन्ति । अनागतो हि स तावद्भवति । अथ यदैव विमुञ्चते - अथास्माऽउदकं हरन्ति , अथापचितिं कुर्वन्ति । तर्हि हि स आगतो भवति । तस्माद्विमुच्यैव प्रपाद्य ( शाला में प्रवेश के पश्चात् ) गृह्णीयात् । - मा.श. ३.४.१.५

७८पशु के हृदय शूल का उपगूहन : अथ एवाभ्यवेत्य यत्र शुष्कस्य चार्द्रस्य च सन्धि: स्यात् - तदुपगूहेत् । यद्यु ऽअभ्यवायनाय ग्लायेद् - अग्रेण यूपमुदपात्रं निनीय यत्र शुष्कस्य चार्द्रस्य च सन्धिर्भवति - तदुपगूहति । - मा.श.३.८.५.१०

७९नैर्ऋतीष्टका चयनम् : अथान्तरेणोदचमसं ( स्वयं व इष्टकाओं के बीच ) निनयति । वज्रो वा आपः । वज्रेणैव तत् पाप्मानं निर्ऋतिमन्तर्धत्ते । - मा.श. ७.२.१.१७

८०अपां निनयनम् : अथोदचमसान्निनयति । एतद्वै देवा अब्रुवन् - चेतयध्वमिति । - - - -।- मा.श.७.२.४.१

८१कृष्ट और अकृष्ट के निषेचन का वर्णन : त्रीन्कृष्टे चाकृष्टे च निनयति - - - -यद्वेवोदचमसान्निनयति । एतद्वाऽअस्मिन्देवाः संस्करिष्यन्तः पुरस्तादपोऽदधुः । - - - -त्रीनुदचमसान्निनयति । त्रिवृदग्निः । - - - - । मा.श.७.२.४.७

८२द्वादशोदचमसान्कृष्टे निनयति । द्वादश मासाः संवत्सरः । संवत्सरोऽग्निः । - - - -स व कृष्टे निनयति । प्राणेषु तदपो दधाति । स यत् कृष्टे ऽएव निनयेत् - नाकृष्टे प्राणेष्वेवापः स्युः - नेतरस्मिन्नात्मन् । अथ यदकृष्टऽएव निनयेत् - न कृष्टे , आत्मन्नेवापः स्युः - न प्राणेषु । कृष्टे चाकृष्टे च निनयति । - - - - -पञ्चदशोदचमसान्निनयति । पंचदशो वै वज्रः । - मा.श.७.२.४.९

८३पञ्चदशोदचमसान्निनयति , पञ्चदशभिर्ऋग्भिर्वपति - तत्त्रिंशत् । त्रिंशदक्षरा विराट् । विराडु कृत्स्नमन्नम् । - मा.श.७.२.४.२५

८४अथातो निरुक्तानिरुक्तानामेव । - - - -तूष्णीमुदचमसान्निनयति , यजुषा वपति । - मा.श.७.२.४.२९

८५निधायोदहरणं त्रिर्विपल्ययते ( प्रदक्षिणा करता है ) । - - - -मा.श.९.१.२.६

८६आठ धिष्ण्याओं का चयन : - - - -क्षत्रं हैता अपां - याः खातेन यन्ति । अथ हैता विशो - यानीमानि वृथोदकानि । स यदमुं खातेन परिश्रयति - क्षत्रे तत् क्षत्रं दधाति । - मा.श. ९.४.३.९

८७यथा शुष्कं स्थाणुमुदकेनाभिषिञ्चेत् - तादृक्तत्~ । -मा.श.९.५.२.१४

८८दर्शपूर्णमासः : अथ यदाज्यहविषः प्रयाजा भवन्ति , तस्मात्कुमारस्य रेतः सिक्तं न संभवति , उदकमिव भवति ; उदकमिव ह्याज्यम् । अथ यन्मध्ये यज्ञस्य दध्ना पुरोडाशेनेति चरन्ति , तस्मादस्य मध्यमे वयसि सम्भवति, द्रप्सीवैव भवति , द्रप्सीव हि रेतः । अथ यदाज्यहविष एवानुयाजा भवन्ति , तस्मादस्य पुनरुत्तमे वयसि न सम्भवति , उदकमिव भवति , उदकमिव ह्याज्यम् । -मा.श.११.४.१.१५

८९पञ्च महायज्ञ ब्राह्मणम् : अहरहर्भूतेभ्यो बलिं हरेत् । - - - - अहरहर्दद्यादोदपात्रात् । तथैतं मनुष्य यज्ञं समाप्नोति । अहरहः स्वधा कुर्यादोदपात्रात् । तथैतं पितृयज्ञं समाप्नोति । - - - -मा.श.११.५.६.२

९०अथ यत्रावभिन्नं स्यात् । तदुदस्थालीं वै वा उदकमण्डलुं वा निनयेत् । यद्वै यज्ञस्य रिष्टम् । यदशान्तम् । आपो वै तस्य सर्वस्य शान्तिः । - मा.श.१२.४.१.८

९१उदस्थालीं वैवोदकमण्डलुं वाऽऽदाय । गार्हपत्यादग्र आहवनीयान्निनयन्नियात् । इदं विष्णुर्विचक्रमे इत्येतयैवर्चा । -मा.श.१२.४.१.५

९२एतां ह वै मुण्डिभ औदन्यो ब्रह्महत्यायै प्रायश्चित्तिं विदाञ्चकार । - - - -मा.श.१३.३.५.४

९३अश्वमेधीय प्रायश्चित्तम् : अथ यद्युदके मि|येत । वारुणं यवमयं चरुमनुनिर्वपेत् । वरुणो वा एतं गृह्णाति । यो ऽप्सु मि|यते । - मा.श.१३.३.८.५

९४अथाष्टमऽहन्नेवमेव । - - - -मत्स्यः साम्मदो राजेत्याह । तस्योदकेचरा विशः । त इम आसत इति । मत्स्याश्च मत्स्यहनश्चोपसमेता भवन्ति । तानुपदिशति । इतिहासो वेदः सोऽयमिति । - मा.श.१३.४.३.१२

९५प्रजापतौ त्वा देवतायामुपोदके लोके निदधामि , असौ इति नाम गृह्णाति । अयं वै लोक उपोदकः । - - - मा.श.१३.८.३.३

९६यत्रोदकं भवति । तत् स्नान्ति । सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु, इत्यञ्जलिना ऽपउपाचति - - - -मा.श.१३.८.४.५

९७अथ यन्मनुष्यान् वासयते । यदेभ्योऽशनं ददाति । तेन मनुष्याणाम् । अथ यत्पशुभ्यस्तृणोदकं विन्दति । तेन पशूनाम् । -- - - -मा.श.१४.४.२.२९

९८स यथा सैन्धवखिल्य उदके प्रास्त उदकमेवानुविलीयेत । न हास्य उद्ग्रहणायेव स्यात् । - - - - - ( इसी प्रकार विज्ञान घन है ) । - मा.श.१४.५.४.१२

९९पुत्रमन्थकर्मब्राह्मणम् : अथ यदि उदक आत्मानं पश्येत् । तदभिमन्त्रयेत् - मयि तेज इन्द्रियं यशो द्रविणं सुकृतं । - मा.श.१४.९.४.६

१००अथ य इच्छेत । पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत । - - - उदौदनं पाचयित्वा । सर्पिष्मन्तमश्नीयात् ।- - - अथ य इच्छेत । दुहिता मे पण्डिता जायेत । - - - -तिलौदनं पाचयित्वा । सर्पिष्मन्तमश्नीयाताम् - - - - मा.श.१४.९.४.१५

१०१अथैनमुप्तकेशश्मश्रुं निकृत्तनखमुदकुम्भेनाभ्यवनयन्वाचयतीमा म आपः शिवाः सन्तु दुष्कृतं प्रवहन्तु मे । - - - -बौधायन श्रौत सूत्र २.८

१०२- - - -अस्मिन्नेव चर्मण्युलूखलमुसले निधायावहन्त्यथैतेनैव पात्रेण चतुर उदपात्रानानयति यदि वीडिता स्थाली भवति यद्यु वा अवीडिता पञ्च वा भूयसो वा सं समोदकः संपद्यते । - बौ.श्रौ.सू.२.१३

१०३अथ प्रतिप्रस्थाता पत्नीमुदानयत्युदकमण्डलुमुत्थाप्य अथैनमादित्यमुदीक्षयति - - -बौ.श्रौ.सू.४.६

१०४मण्डलेष्टकामुपदधाति पृथिव्युदपुरमन्नेन विष्टेति - - --बौ.श्रौ.सू.१०.३१

१०५अथ प्रतिप्रस्थाता पत्नीमुदानयत्युदकमण्डलुमुत्थाप्य सानुपूर्वं पशूनां प्राणानाप्याययति - - - बौ.श्रौ.सू.११.५

१०६यूपस्य प्रोक्षण इति । - - - -हिरण्यमुदपात्रमित्येतत्संनिधाय यूपं प्रोक्षेत् - बौ.श्रौ.सू.२०.२६

१०७संसव इति । यत्र क्वच नाव्या वा नदी स्यादन्तरेणोदयक्ष्मवती वासंसवस्तत्रेति बौधायनो - - - -बौ.श्रौ.सू.२३.५

१०८आख्यातमुदकान्तस्य प्रत्यसनम् । - बौ.श्रौ.सू.२३.१६

१०९उदपात्रेणावनेजयत्यपसव्यं सव्येन वोद्धरणसामर्थ्यात् । असाववनेनिक्ष्वेति यजमानस्य पितृप्रभृत्रीन् । - - -कात्यायन श्रौत्र सूत्र ४.१.९

११०आहवनीयं पर्युक्ष्योदधारां निनयत्यागार्हपत्यात् । - का.श्रौ.सू.४.१३.१६

१११मांसस्त्र्यनृतानि वर्जयेदुदकाश्यवायञ्च ( उदकप्रवेशञ्च ) प्रागवभृथात् । - का.श्रौ.सू.५.२.२२

११२आ मुष्टिविसर्गादुदकार्यस्ततः । - का.श्रौ.सू.८.१.९

११३प्रत्यगेकनानयुग्मानुदहरणांस्त्रिप्रभृत्यापञ्चदशभ्यः - का.श्रौ.सू.९.२.२३

११४- - - - - - - - - - - - -चतुर्थे अरणिभ्यां मन्थनं चोद्गातुरूरौ होमश्च । पञ्चमे सावकयोदपात्र्या । - कात्यायन श्रौ.सू. १२.३.११

११५कृषि कर्म : या ओषधीरिति तृचैर्वपत्युदपात्रवत्। - का.श्रौ.सू. १७.३.७

११६आशूलाभिमन्त्रणात्कृत्वोदकाधिष्ठानप्रभृत्यावभृथेष्टेः । - का.श्रौ.सू. १९.५.१२

११७वडवाभ्यो वारणम् । प्रस्नेयाच्चोदकात् । - का.श्रौ.सू. २०.२.१३

११८दक्षिणतः कुटिले कर्षूं खात्वा क्षीरोदकाभ्यां पूरयन्ति सप्तोत्तरतः प्राचीरुदकस्य । का.श्रौ.सू. २१.४.२१

११९नावभृथं सरस्वत्याम् । परिपार्श्वेषूदकेषु । - का.श्रौ.सू. २४.६.२३

१२०त्रिरुद्धृतश्चेदाहवनीयो ऽनुगच्छेदुदक् स्थानान्युपलिप्य निर्मथ्य सकृदुद्धृते तस्मिन्त्सायम्प्रातर्होममेके । का.श्रौ.सू. २५.३.३

१२१स्पृष्ट्वोदकं होतृषदनमभिमन्त्रये ताहे दैधिषव्योदतस्तिष्ठान्यस्य सदने सीद योऽस्मत्पाकतरः इति । आश्वलायन श्रौत सू. १.३.३०

१२२पिता वा एषो ऽग्नीनां यद्दक्षिणः पुत्रो गार्हपत्यः पौत्र आहवनीयः तस्मादेवं पर्युक्षेत् । - आ.श्रौ.सू. २.२.१३

१२३मेक्षणमनुप्रहृत्य प्राचीनावीती लेखां त्रिरुदकेनोपनयेच्छुन्धन्तां पितरः शुन्धन्तां पितामहाः शुन्धन्तां प्रपितामहा इति । आ.श्रौ.सू. २.६.१४

१२४अथास्या ऊधसि च मुखे चोदपात्रमुपोद्गृह्य दुग्ध्वा ब्राह्मणं पाययेत् - - - - - ।आ.श्रौ.सू. ३.११.३

१२५संस्थितायां पादानुदकान्ते ऽवदध्युर्नमो वरुणायाभिष्ठितो वरुणस्य पाश इति । आ.श्रौ.सू. ६.१३.८

१२६अनुवक्ष्यमाणेऽपराजितायां दिश्यग्निं प्रतिष्ठाप्यासिमुदकमण्डलुमश्मानम् इत्युत्तरतोऽग्नेः कृत्वा वत्सतरीं प्रत्यगुदगसंश्रवणे बद्ध्वा । आ.श्रौ.सू. ८.१४.१२

१२७अष्टमे अहनि मत्स्यः साम्मदस्तस्योदकचरा विशस्त इम आसत । - आ.श्रौ.सू १०.७.८

१२८तल्पे वोदके वा विवाहे वा मीमांस्यमाना द्वितीयम् - आ.श्रौ.सू. ११.२.६

१२९ऋत सत्याभ्यां त्वा पर्युक्षामीति जपित्वा पर्युक्षेत्त्रिस्त्रिरेकैकं पुनः पुनरुदकमादाय - आ.श्रौ.सू.२.२.११

१३०यज्ञस्य सन्ततिरसि यज्ञस्य त्वा सन्तत्यै नयानीति गार्हपत्यात्सन्ततामुदधारामाहवनीयात् । - शाङ्खायन श्रौत सूत्र २.६.१२

१३१ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्रुतम् । स्वधा स्थ तर्पयत न पितॄनित्युदशेषं निनीय । - शां.श्रौ.सू. ४.५.३

१३२आपो हि ष्ठा सना च सोमेत्युदकं स्पृशन्ति - - - -। - शां.श्रौ.सू.४.१५.३

१३३असावेतत्त इत्येकमुदकांजलिं प्रदाय । - शां.श्रौ.सू. ४.१५.४

१३४मदन्तीभिरुदकार्थोऽत ऊर्ध्वमाग्नीषोमप्रणयनात् । - शां.श्रौ.सू. ५.६.९

१३५उदप्रुत इति शस्त्वा । - शां.श्रौ.सू. ९.३.४

१३६उदप्रुत इति चतुर्थे अहनि । - शां.श्रौ.सू. १२.१२.९

१३७अवभृथ : कृष्णाजिनस्य दक्षिणं पूर्वपादमुदकेऽवधाय प्रत्याहरन्ति वसनस्य वा दशाम् । - शां.श्रौ.सू. १५.१३.१५

१३८अथैनमुदकेऽभिप्रगाह्य यदास्योदकं मुखमास्यन्देताथास्मा अध्वर्युर्मूर्धन्यश्वतेदनिं जुहोति भ्रूणहत्यायै स्वाहेति । - शां.श्रौ.सू. १६.१८.१९

१३९दुर्भिक्षं देवलोकेषु । मनूनामुदकं गृहे । एता वाचः प्रवदन्तीः । वैद्युतो यान्ति शैशिरीः । - तैत्तिरीय आरण्यक १.४.३

१४०समानमेतदुदकम् । उच्चैत्यव चाहभिः । भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति । दिवं जिन्वन्त्यग्नयः ॥ - तै.आ. १.९.५

१४१त्युग्रो ह भुज्युं - - - -- - -अन्तरिक्षप्रुद्भिरपोदकाभिः । - तै.आ. १.१०.२

१४२बृहस्पतिश्च सविता च । विश्वरूपैरिहाऽगताम् । रथेनोदकवर्त्मना । अप्सुषा इति तद्वयोः ॥ - तै.आ. १.१२.५

१४३न कूर्मस्याश्नीयात् । नोदकस्याघातुकान्येनमोदकानि भवन्ति । अघातुका आपः । - - - - । तै.आ. १.२६.७

१४४त्रिषवणमुदकोपस्पर्शी । चतुर्थकालपानभक्तः स्यात् - तै.आ. १.३२.१

१४५( हे प्रेत शरीर !) यं ते अग्निममन्थाम वृषभायेव पक्तवे । इमं तं शमयामसि क्षीरेण चोदकेन च । - तै.आ.६.४.१

१४६उद्वनावुदकानीवापास्मत्स्यन्दतामघम् । अप नः शोशुचदघम् । - तै.आ. ६.११.२

१४७( गौ के लिए ) पिबतूदकं तृणान्यत्तु । ओमुत्सृजत । - तै.आ. ६.१२.१

१४८तद् यत्रैव विरिष्टिं स्यात् तत्राग्नीनुपसमाधाय शान्त्युदकं कृत्वा पृथिव्यै श्रोत्राय इति त्रिरेवाग्नीन् संप्रोक्षति - - - गोपथ ब्राह्मण १.१.१४

१४९निरंगुष्ठे पाणावमृतमस्यमृतोपस्तरणस्यमृताय त्वोपस्तृणामीति पाणावुदकमानीय जीवा स्थ इति सूक्तेन त्रिराचामति । - गो.ब्रा.१.१.३९

१५०न श्मशानमातिष्ठेत् । चेदभितिष्ठेदुदकं हस्ते कृत्वा यदीदमृतुकाम्येत्यभिमन्त्र्य जपन् संप्रोक्ष्य परिक्रामेत् , समयायोपरिव्रजेत् । गो.ब्रा.१.२.७

१५१स (शंयुः आथर्वणः )खलु शान्त्युदकं चकार ( अश्वस्य ) आथर्वणीभिश्चाङ्गिरसीभिश्च चातनैर्मातृनामभिर्वास्तोष्पत्यैरिति शमयति । - - - - - गो.ब्रा.१.२.१८

१५२यथा भिन्ना नौरगाधे महत्युदके संप्लवेद् - - - - - एवं खल्वपि यज्ञश्छिन्नभिन्नो ऽपध्वस्त - - - - -गो.ब्रा.२.२.५

१५३उदप्रुतो न वयो रक्षमाणाः इति बार्हस्पत्यं सांशंसिकम् । - गो.ब्रा.२.४.१६

१५४दक्षिणतः कशिपूपबर्हणमाञ्जनमभ्यञ्जनमुदकुम्भमित्येकैकशश् आसादयति । - आप.श्रौ.सू.१.८.२

१५५मार्जयन्तां मम पितरो मार्जयन्तां मम पितामहा मार्जयन्तां मम प्रपितामहा इत्येकस्फ्यायां त्रीनुदकाञ्जलीन्निनयति । आप.श्रौ.सू.१.८.१०

१५६आज्यलेपान्प्रक्षाल्य सस्रुवे जुहूपभृतावध्वर्युरादत्ते वेदं होता स्फ्यमाज्यस्थालीं उदकमण्डलुं चाग्नीध्र: । आप.श्रौ.सू. ३.८.५

१५७चतुर्षूदपात्रेषु ( ब्रह्मोदनं ) पचति । न प्रक्षालयति न प्रस्रावयति । क्षीरे भवतीत्येके । जीवतण्डुलमिव श्रपयतीति विज्ञायते । - आप.श्रौ.सू.५.५.४

१५८उदकुम्भः प्रोक्षणीभाजनं भवति ( कुम्भे एव प्रोक्षण्यः संस्क्रियन्ते स्थाप्यन्ते च ) । - आप.श्रौ.सू.८.१३.१७

१५९दक्षिणतः कशिपूपबर्हणमाञ्जनमभ्यञ्जनमुदकुम्भमित्येकैकशश् आसाद्य वेदं निधाय सामिधेनीभ्यः प्रतिपद्यते । आप.श्रौ.सू.८.१४.१६

१६०उदकुम्भमादाय यजमानः शुन्धन्तां पितर इति त्रिः प्रसव्यं वेदिं परिषिंचन्पर्येति । - आप.श्रौ.सू.८.१६.४

१६१जघनेन वेदिकमन्तर्वेदि वोदकशुल्बं संनहनं स्तृणीयात् । - आप.श्रौ.सू.९.२.२

१६२उदकुम्भं राजानं सोमविक्रयिणमिति सर्वतः परिश्रित्योत्तरेण द्वारं कृत्वा विचित्यः सोमा३ इत्युक्तम् । - आप.श्रौ.सू.१०.२०.१४

१६३- - - - दक्षिणतो दर्भेषु निषाद्योत्तरत उदपात्रमुपनिधाय तस्मिन्नेकविंशतिं यवान्दर्भपुञ्जीलांश्चावधाय जीवा नाम स्थ - - - - -आप.श्रौ.सू. १४.२०.८

१६४यत्किंच प्रवर्ग्य उदककृत्यं मदन्तीभिरेक तत्क्रियते । नैनं स्त्री प्रेक्षते न शूद्रः । आप.श्रौ.सू. १५.२.९

१६५उदकुम्भमादायाध्वर्युर्वल्गुरसि शंयुधाया इति त्रिः प्रदक्षिणमुत्तरवेदिं परिषिंचन्पर्येति । - आप.श्रौ.सू.१५.१४.४

१६६अवान्तरदीक्षाः : पर्वण्युदगयन आपूर्यमाणपक्षस्य वा पुण्ये नक्षत्रे केशश्मश्रु वापयित्वा - - - -आप.श्रौ.सू.१५.२०.२

१६७अग्निचयनम् : पञ्चदशोदपात्रान्निनयति । द्वादश कृष्टे त्रीनकृष्टे । - - - - - आप.श्रौ.सू. १६.१९.१०

१६८अग्निचयनम् : उदकुम्भमादायाध्वर्युरश्मन्नूर्जमिति त्रिः प्रदक्षिणमग्निं परिषिंचन्पर्येति । - आप.श्रौ.सू.१७.१२.४

१६९प्रतियुतो वरुणस्य पाश इत्युदकान्तं प्रत्यस्यति । - आप.श्रौ.सू.१९.१०.५

१७०मार्जालीयन्यन्ते अष्टौ दासकुमार्य उदकुम्भैर्निकल्पन्ते । - आप.श्रौ.सू. २१.१८.७

१७१अत्रैता दासकुमार्य उदकुम्भानधि निधाय त्रिः प्रदक्षिणं मार्जालीयं परिनृत्यन्ति ।- - - -आप.श्रौ.सू.२१.१९.१८

१७२अत्रैता दासकुमार्य उदकुम्भानुपनिनीय यथार्थं गच्छन्ति । - आप.श्रौ.सू.२१.२०.५

१७३आज्यमन्थं ब्राह्मणः पयोमन्थं राजन्यो दधिमन्थं वैश्य उदमन्थं शूद्रः । - आप.श्रौ.सू.२२.२६.१

१७४द्वितीयं यांस्तल्प उदके विवाहे वा मीमांसेरन् । - आप.श्रौ.सू.२३.१.१५

१७५अथ सपिण्डीकरणम् । - - - - -चत्वार्युदपात्राणि सतिलगन्धोदकानि कृत्वा । त्रीणि पितृणामेकं प्रेतस्य । - - - -शाङ्खायन गृह्य सूत्र ४.३.१

१७६सीमन्तोन्नयनम् : उदपात्रे ऽक्षतानवनिनीय विष्णुर्योनिं कल्पयतु , राकामहमिति । षड्ऋचेन पाययेत् । - शाङ्खायन गृह्य सूत्र १.२२.१२