PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

ऋग्वेद १०.१०७.०२ तः अयं प्रतीयते यत् या द्युलोके उच्चा स्थितिः अस्ति, तत् दक्षिणायनमार्गेण साधनायाः प्रगतिः अस्ति। तैत्तिरीयसंहिता २.३.१४.६ अनुसारेण स्वधया नीचादुच्चं गमनं संभवमस्ति। किन्तु उच्चा स्थितिः स्थिरा अस्ति वा न, अयं विचारणीयमस्ति।

कौशीतकिब्राह्मणः  १६.५ अनुसारेण कर्मकाण्डे यदा घृतेन(अग्नौ) यजते, तत् कर्म उपांशु भवति। कारणं, रेतःसिक्तिः घृतम् अस्ति। रेतःसिक्तिः उपांशु एव भवति। अथ सौम्यस्य यजनं उच्चैः भवति। चन्द्रमा वै सोमः। निरुक्त उ वै चन्द्रमाः। यः उच्चैः श्रावणम् अस्ति, शतपथब्राह्मणानुसारेण ११.४.२.११ तस्य पक्षद्वयौ स्तः। यः उच्चैः अस्वरमाश्रावयति, तत् अशनां, क्षुधां जनयति। यः स्वरयुक्तः उच्चैः आश्रावयति, सः श्रियं धत्ते, अन्नादः भवति।

वैदिकवाङ्मये प्रत्यक्ष-परोक्षरूपेण कद्रू-विनता- उच्चैःश्रवा आख्यानं वर्णितमस्ति। एतेषु शतपथब्राह्मणस्य वर्णनं विस्तृततमं अस्ति। महाभारत आदिपर्व २०.१ मध्ये कद्रू-विनता आख्यानमस्ति। अनेनानुसारेण प्रथमतः कद्रू एवं विनता समुद्रस्य आवर्तानां आलोकनं कुर्वन्तः एवं तत्पश्चात्  तस्य पारे उच्चैःश्रवसः आलोकनं ।  अत्र समुद्रस्य उल्लेखः अनर्गलः प्रतीयते, किन्तु अयं उल्लेखः शतपथब्राह्मणस्य विस्तारमेवास्ति। शतपथब्राह्मणे उल्लेखमस्ति यत् कद्रू एवं विनता सलिलस्य पारे पश्यन्ति। वेदिरेव सलिलः अस्ति। यथा सलिलः अनन्तपारः अस्ति, एवमेव वेदिः अस्ति। (सलिलशब्दः महत्त्वपूर्णमस्ति। पद्मपुराणे १.४०.१४२ अव्यक्तानंदसलिलस्य उल्लेखमस्ति)। सलिलस्य पारे से यूपस्य अवलोकनं कुर्वन्तः। अयं यूपमेव वैदिकवाङ्मयस्य उच्चैःश्रवसः अस्ति, अयं प्रतीयते। यूपस्य उपरि या रशना वेष्टिता अस्ति, तत् अश्वस्य वालानां प्रतीकमस्ति। पशोः यूपेन सह बन्धनाय रशनायाः प्रयोगः भवति। कद्रूः कथयति यत् यद्यपि यूपः अश्वः श्वेतः अस्ति, तथापि या रशना अस्ति, या अश्वस्य वालानां प्रतीकमस्ति, तत्  कृष्णमस्ति।

अश्वस्य वालानां उल्लेखं लोके अहोई अष्टमीतः स्पष्टं भवति। अहोई अर्थात् ओहोई। सामगाने अयं शब्दः प्रचलितः अस्ति। अपि च, लोकभाषायां ओहो शब्दः आश्चर्यव्यक्ते अस्ति। अहोई अष्टम्याः कथायां एका सेही – कंटकी अस्ति यस्याः अपत्यानां नाशः भवति। अत्र कंटकी अथवा सेही अयं उच्चैःश्रवा एव अस्ति।

     शतपथब्राह्मणे कद्रू-विनतायाः आख्यानस्य उद्देश्यं वेदिरूपायाः अव्यक्तानन्दसलिलस्य  रूपान्तरणं व्यक्तानन्दरूपे करणमस्ति, अयं प्रतीयते।

 

 

टिप्पणी : वैदिक साहित्य में उच्चैःश्रवा शब्द का उल्लेख एक - दो स्थानों पर ही हुआ है , लेकिन श्रव शब्द का उपयोग ऋग्वेद आदि की ऋचाओं में व्यापक स्तर पर किया गया है और इन्हीं ऋचाओं से उच्चैःश्रवा की प्रकृति का अनुमान लगाना है । ऋग्वेद १.१५६.२ तथा १.६१.५ आदि में ॐ श्रवण का उल्लेख है । यह कहा जा सकता है कि इस ॐ श्रवण का मानव व्यक्तित्व के सभी निचले स्तरों पर विस्तार करना ही उच्च द्वारा श्रवण ( उच्चैःश्रवा ) है । ऋग्वेद की ऋचाओं में श्रव के साथ प्रायः वाज शब्द का भी उल्लेख आया है । वाज को मोटे रूप में वाक् कहा जा सकता है । प्रचलित भाषा में आवाज शब्द भी यही वाज, अन्तरात्मा की आवाज हो सकता है । ऋग्वेद ९.१.४, ९.६.३ , ९.५१. आदि में ' अभि वाजं उत श्रव:' में अभि प्रत्यय के उल्लेख से प्रतीत होता है कि वाज की प्राप्ति एकान्तिक साधना के फलस्वरूप होती है , जबकि श्रव साधना का बृहत् रूप है । ऋग्वेद की ऋचाओं में श्रव के साथ बृहत् और महि आदि विशेषणों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है । प्रश्न यह है कि इस श्रव की प्राप्ति कैसे की जा सकती है ? अथवा वाज का अपने व्यक्तित्व के सभी स्तरों पर अवतरण कराकर उसे कैसे श्रव नामक मूर्त्त रूप दिया जा सकता है ? पुराणों में इसका उत्तर समुद्र मन्थन द्वारा उच्चैःश्रवा अश्व को प्रकट करने के माध्यम से दिया गया है । कर्मकाण्ड में प्रायः अरणि मन्थन द्वारा गार्हपत्य अग्नि को प्रकट करने के वर्णन आते हैं , समुद्र मन्थन के नहीं । ऋग्वेद १.१२८.१ (विश्वश्रुष्टिः सखीयते रयिरिव श्रवस्यते ।
अदब्धो होता नि षददिळस्पदे परिवीत इळस्पदे ॥ सायण भाष्य ) में यजमान द्वारा मन्थन के द्वारा इडस्पद में अग्नि को समिद्ध करने का उल्लेख है । इडस्पद में समिद्ध यह अग्नि श्रवस्य और वाजी है २.१०.१(जोहूत्रो अग्निः प्रथमः पितेवेळस्पदे मनुषा यत्समिद्धः ।श्रियं वसानो अमृतो विचेता मर्मृजेन्यः श्रवस्यः स वाजी ॥)  । इला शब्द की टिप्पणी में इडस्पद की प्रकृति का वर्णन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि यह इडस्पद कर्मकाण्ड में आहवनीय अग्नि से ऊपर स्थित उत्तरवेदी का स्थान हो सकता है । यह इडा के पदों का प्रतीक हो सकता है । इडा जहां - जहां अपने पद रखती है , वहीं - वहीं घृत उत्पन्न हो जाता है , और अग्नि को घृत बहुत प्रिय है । घृत पाते ही वह समिद्ध हो जाती है । यह इडस्पद आनन्द का स्थान है जिसे पुराणों में समुद्र / समुद कहा गया है । लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शुद्ध श्रव की प्राप्ति एक दम नहीं हो जाती , पहले उच्चैःश्रवा की प्राप्ति असुरों को होती है । ऋग्वेद ८.१०३.५(स दृळ्हे चिदभि तृणत्ति वाजमर्वता स धत्ते अक्षिति श्रवः ।) , ९.६६.१०(पवमानस्य ते कवे वाजिन् त्सर्गा असृक्षत ।अर्वन्तो न श्रवस्यवः ॥) तथा ९.९७.२५(अर्वाँ इव श्रवसे सातिमच्छेन्द्रस्य वायोरभि वीतिमर्ष ।) आदि में संभवतः अर्वा / अश्व का उल्लेख इसी स्थिति की ओर इंगित करता है । उसके पश्चात वह इन्द्र को प्राप्त होता है । हो सकता है कि ऋग्वेद (त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणा दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः ।नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे कृष्णं च वर्णमरुणं च सं धुः ॥) १.७३.७, (आप्यायमानो अमृताय सोम दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्व ॥)१.९१.१८ , १.१२५.२ तथा (यं शविष्ठ वार्यं दिवि श्रवो दधीमहि दिवि स्तोमं मनामहे ॥) ५.३५.८ में श्रव को द्युलोक / दिवि में रखने का जो उल्लेख है , उसकी व्याख्या पुराणों में उच्चैःश्रवा के इन्द्र को प्राप्त होने के तथ्य से की गई हो । पुराणों में विनता - कद्रू के सार्वत्रिक आख्यान से मिलता - जुलता आख्यान शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.२ में भी वर्णित है । वहां विनता के स्थान पर सुपर्णी वाक् का नाम लिया गया है तथा श्वेत अश्व को अग्नि कहा गया है । पुराणों में वर्णित आख्यान में सर्पों द्वारा उच्चैश्रवा अश्व के बालों / रोमकूपों में प्रवेश करके उसे कृष्ण बनाने के संदर्भ में , ऋग्वेद ९.८७.५(एते सोमा अभि गव्या सहस्रा महे वाजायामृताय श्रवांसि ।पवित्रेभिः पवमाना असृग्रञ्छ्रवस्यवो न पृतनाजो अत्याः ॥) ९.१०८.५(एष स्य धारया सुतोऽव्यो वारेभिः पवते मदिन्तमः ।क्रीळन्नूर्मिरपामिव ॥) आदि में सोम को अवि के बालों से बनी पवित्र नामक छलनी से छानने का उल्लेख आता है जिससे छनकर सोम इस प्रकार निकलता है जैसे संग्राम में श्रव करते हुए अश्व । यह संभव है कि पुराणों में सर्पों द्वारा अश्व के बालों में प्रवेश करने से तात्पर्य उसके विष को चूस कर उसे शुद्ध करना हो , जैसे पवित्र नामक छलनी सोम को करती है । बाल / वाल बिखरी हुई ऊर्जा का प्रतीक हैं । सर्पों द्वारा उच्चैःश्रवा को कृष्ण बना देने के तथ्य की व्याख्या का दूसरा प्रयास ऋग्वेद ८.१०३.५ तथा ९.६६.७(प्र सोम याहि धारया सुत इन्द्राय मत्सरः ।दधानो अक्षिति श्रवः ॥) आदि में अक्षिति श्रव के उल्लेख के आधार पर किया जा सकता है । उच्चैःश्रवा के शरीर से रश्मियों का निकलना श्रव के क्षय का प्रतीक हो सकता है जिसे समाप्त करना है ।

     प्रश्न यह है कि उच्चैःश्रवा अश्व को श्वेत क्यों कहा गया है ? ऋग्वेद ९.१००.८ (पवमान महि श्रवश्चित्रेभिर्यासि रश्मिभिः । शर्धन्तमांसि जिघ्नसे विश्वानि दाशुषो गृहे ॥) आदि में पवमान ( छनते हुए सोम ) द्वारा चित्र रश्मियों द्वारा महि श्रव प्राप्त करने व तमस् का नाश करने का उल्लेख है । वैदिक साहित्य में ज्योति की उत्पत्ति प्रायः अग्नि और सोम के मिलन से कही जाती है । अग्नि की गति ऊपर की ओर होती है तथा सोम की नीचे की ओर । इसी प्रक्रिया से श्रव का उत्पन्न होना भी संभव प्रतीत होता है । वैदिक निघण्टु में श्रव का वर्गीकरण अन्न व धन नामों के अन्तर्गत किया गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि श्रव सोम का ही एक रूप है । इस श्रव की चित्र रश्मियों का पान सर्प ऊर्जा द्वारा किए जाने तथा उच्चैःश्रवा के श्वेत से कृष्ण होने के संदर्भ में ऋग्वेद १.७३.७ में उल्लेख आता है कि कृष्ण वर्ण को अरुण वर्ण में रूपांतरित करने की युक्ति अग्नि के पास है(त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणा दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः ।नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे कृष्णं च वर्णमरुणं च सं धुः ॥) । पुराणों के कद्रू - विनता आख्यान में विनता का पुत्र गरुड / श्येन ऊपर उडकर स्वर्ग में जाता है और वहां से सोम लाता है जिससे विनता को कद्रू के दासीत्व से मुक्ति मिलती है । इस आख्यान में ऊर्जा द्वारा श्येन का रूप धारण करना सर्प ऊर्जा के अतिक्रमण का ही प्रतीक है । सर्प ऊर्जा केवल सर्पण कर सकती है , ऊपर नहीं उड सकती । हो सकता है कि ऋग्वेद ५.७.९ में जिस आसुत सर्पि /घृत के अग्नि को प्रस्तुत करने से श्रव आदि प्राप्त करने का उल्लेख है(आ यस्ते सर्पिरासुतेऽग्ने शमस्ति धायसे ।ऐषु द्युम्नमुत श्रव आ चित्तं मर्त्येषु धाः ॥) , वह सर्प ऊर्जा का उच्चतर रूप हो । ऋग्वेद ४.२६.५(तूयं ययौ मधुना सोम्येनोत श्रवो विविदे श्येनो अत्र ॥) तथा ६.४६.१३(असमने अध्वनि वृजिने पथि श्येनाँ इव श्रवस्यतः ॥) में श्येन द्वारा श्रव को प्राप्त करने का उल्लेख है ।

     ऋग्वेद ५.३५.८(वयं शविष्ठ वार्यं दिवि श्रवो दधीमहि दिवि स्तोमं मनामहे ॥) , ८.१३.१२(इन्द्र शविष्ठ सत्पते रयिं गृणत्सु धारय । श्रवः सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनम् ॥) तथा १०.१४०.१(अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो । बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यं दधासि दाशुषे कवे ॥) आदि बहुत सी ऋचाओं में श्रव के साथ - साथ शव शब्द का भी उल्लेख आया है । इन्द्र को शविष्ठ कहा गया है । हो सकता है कि शव जैसी निष्क्रिय अवस्था प्राप्त करने पर ही श्रव की प्राप्ति होती हो ।

     पुराणों में सूर्य के रथ के वाहक उच्चैःश्रवा अश्व के संदर्भ में ऋग्वेद ४.३१.१५ (अस्माकमुत्तमं कृधि श्रवो देवेषु सूर्य ।), ५.८६.६(ता सूरिषु श्रवो बृहद्रयिं गृणत्सु दिधृतमिषं गृणत्सु दिधृतम् ॥) , ७.८१.६(श्रवः सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनं वाजाँ अस्मभ्यं गोमतः ।) ,८.१३.१२(इन्द्र शविष्ठ सत्पते रयिं गृणत्सु धारय ।श्रवः सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनम् ॥) , ८.४६.२४(रथं हिरण्ययं ददन्मंहिष्ठः सूरिरभूद्वर्षिष्ठमकृत श्रवः ॥) , ८.१०१.१२(बट् सूर्य श्रवसा महाँ असि सत्रा देव महाँ असि ।) तथा ९.९८.८(यः सूरिषु श्रवो बृहद्दधे स्वर्ण हर्यतः ॥) आदि में सूर्य/सूरि में बृहद् , वर्षिष्ठ श्रव आदि होने के उल्लेख आते हैं । श्रव के साथ बृहद् विशेषण का ऋग्वेद की ऋचाओं में व्यापक रूप से उपयोग किया गया है । चूंकि सूर्य के रथ का निरूपण भी बृहती छन्द द्वारा किया जाता है , अतः ऐसा हो सकता है कि श्रव का बृहद् रूप विशेष रूप से सूरि / सूर्य अवस्था में रथ के द्वारा गतिशीलता आने पर ही प्राप्त होता हो ।

     कथासरित्सागर में नमुचि असुर ( न मुञ्चति इति , हर्ष जो एक बार प्राप्त होकर समाप्त ही नहीं होता ) द्वारा उच्चैःश्रवा की प्राप्ति के सन्दर्भ में ऋग्वेद ६.१०.५ (ये राधसा श्रवसा चात्यन्यान्सुवीर्येभिश्चाभि सन्ति जनान् ॥) तथा ७.८१.५(तच्चित्रं राध आ भरोषो यद्दीर्घश्रुत्तमम् ।) आदि में श्रव के साथ चित्र राध का उल्लेख विचारणीय है ।

     देवीभागवत पुराण में सूर्य - पुत्र रेवन्त द्वारा उच्चैःश्रवा पर आरूढ होकर विष्णु के पास जाने के तथ्य के संदर्भ में ऋग्वेद १.९५.११(एवा नो अग्ने समिधा वृधानो रेवत्पावक श्रवसे वि भाहि ।) तथा १०.६९.३(स रेवच्छोच स गिरो जुषस्व स वाजं दर्षि स इह श्रवो धाः ॥) में रेवत पावक के श्रव द्वारा विभूषित होने आदि का कथन विचारणीय है ।

There is no website at present giving detailed stories about Uchchaihshravaa, the divine horse.

There is mention of the word Uchchaihshravaa in vedic literature only at one or two places, but the word shravah has been used widely and one has to guess the nature of Uchchaihshravaa from these verses only. There is mention of hearing of Um. It can be said that the extension of hearing of this Um at the lower levels of human being is the Uchchaihshravaa, which may literally mean the hearing with the aid of higher. There is a word vaaja which has generally appeared along with shrava. One can roughly guess that this vaaja may be the vaak, the voice of inner soul. It can be said that the attainment of vaaja is through single handed penances while the attainment of shrava is the result of collective penances. There is also the question how one can allow vaaja to descend on all the levels of human being and then converted into shrava? Puraanic texts answer this question by the manifestation of divine horse Uchchaihshravaa by churning of the ocean. It is strange that in vedic literature, there are mention of churning of fire, not of ocean. There is a mention of kindling of fire in one vedic verse. How fire can be kindled?  Fire is very fond of clarified butter. Therefore, whenever there is the possibility of generation of butter in yaaga, fire is kindled. It has been mentioned that wherever Ilaa puts her feet, butter is generated. In Sanskrit, foot also means level – higher or lower. These levels seem to have been given the name of ocean in vedic literature.

     It is important to note that pure shrava, the divine hearing power can not be attained all of a sudden. First, demons get hold of Uchchaihshravaa which appeared by churning of ocean. In the story of serpents turning the white Uchchaihshravaa horse into black by overlapping it, it may be symbolic of  sucking out of the poison from the divine horse. The other explanation of this story can be tried on the basis of a mention of non-decaying shrava. The emergence of rays from the body of Uchchaihshravaa is symbolic of decay of shrava which has to be stopped.

 

उच्चैःश्रवा (अनुद्धृत अंश)

१ अग्ने तव श्रवो वयो-ऋग्वेद १०.१४०.१

२ धीभिरर्वद्भिरर्वतो वाजां इन्द्र श्रवाय्यान् । त्वया जेष्म हितं धनम् ।  .४५.१२

३ वाज को गोमन्त कहना - ऋ ३.२०.२व३

. श्रव के साथ रयि का उल्लेख- (विश्वश्रुष्टिः सखीयते रयिरिव श्रवस्यते ।).१२८., (ता सूरिषु श्रवो बृहद्रयिं गृणत्सु दिधृतमिषं गृणत्सु दिधृतम् ॥) .८६., (तं नो अग्ने मघवद्भ्यः पुरुक्षुं रयिं नि वाजं श्रुत्यं युवस्व ।).., (इन्द्र शविष्ठ सत्पते रयिं गृणत्सु धारय । श्रवः सूरिभ्यो अमृतं वसुत्वनम् ॥).१३.१२, (अभ्यर्ष सहस्रिणं रयिं गोमन्तमश्विनम् ।अभि वाजमुत श्रवः ॥).६३.१२

. वाजयु श्रवः- . .८०.

६ श्रव के साथ द्युम्न का उल्लेख- . .., .३७.१०, .५९., .., .., ..३२, .७४., .८०.

. ससर्परी वाक् व श्रव- . .५३.१५, १६

८ सोम राजा के लिए पवित्र रथ आदि- . .८३., .८६.४०

. पृथु श्रवः- . .., .., .४६.२१, २४

१० वाज और वाजी, गो, श्रव आदि- . .५२.

,०५२.०४  यस्य त्वमिन्द्र स्तोमेषु चाकनो वाजे वाजिञ्छतक्रतो ।

,०५२.०४ तं त्वा वयं सुदुघामिव गोदुहो जुहूमसि श्रवस्यवः ॥

११ पवमान द्वारा महि श्रव, गौ व अश्व का रासन करना-..

१२ अभि वाजं सप्तिरिव श्रवस्य- . .९६.१६

,०९६.१६  स्वायुधः सोतृभिः पूयमानोऽभ्यर्ष गुह्यं चारु नाम ।

,०९६.१६ अभि वाजं सप्तिरिव श्रवस्याभि वायुमभि गा देव सोम ॥

१३ श्रव द्वारा अक्षित जनपान का उत्स देना- . .११०.

१४. उषा का श्रव के लि उदित होना- . १०.३५.(प्र याः सिस्रते सूर्यस्य रश्मिभिर्ज्योतिर्भरन्तीरुषसो व्युष्टिषु । भद्रा नो अद्य श्रवसे व्युच्छत स्वस्त्यग्निं समिधानमीमहे ॥)

१५गोमत व वाजवत श्रव-  

सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत् । विश्वायुर्धेह्यक्षितम् ॥

अस्मे धेहि श्रवो बृहद्द्युम्नं सहस्रसातमम् ।इन्द्र ता रथिनीरिषः ॥ ,००९.०८

१६ अश्विनौ द्वारा ३ श्रव देना- . .३४.(त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम् ॥)

१७. महि श्रव- . .४३.(अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् ।महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥)

१८. ॐ सप्ति की भांति श्रव- . .६१.(अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्कं जुह्वा समञ्जे ।वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम् ॥)

१९ अमर्त्यों मे श्रव हेतु ऋभवो द्वारा एक पात्र के चार करना- . .११०.(क्षेत्रमिव वि ममुस्तेजनेनँ एकं पात्रमृभवो जेहमानम् ।उपस्तुता उपमं नाधमाना अमर्त्येषु श्रव इच्छमानाः ॥)

२० आशु अश्व- . .११७.(पुरू वर्पांस्यश्विना दधाना नि पेदव ऊहथुराशुमश्वम् ।
सहस्रसां वाजिनमप्रतीतमहिहनं श्रवस्यं तरुत्रम् ॥)

२१ पूषा के वाहन अजाश्व से श्रव करने की प्रार्थना- . .१३८.(अस्या ऊ षु ण उप सातये भुवोऽहेळमानो ररिवाँ अजाश्व श्रवस्यतामजाश्व ।)

२२ श्रव के साथ इष- . .१६५.१२(एवेदेते प्रति मा रोचमाना अनेद्यः श्रव एषो दधानाः ।), .४०.(सत्वा भरिषो गविषो दुवन्यसच्छ्रवस्यादिष उषसस्तुरण्यसत् ।). ..(सुगार्हपत्याः समिषो दिदीह्यस्मद्र्यक्सं मिमीहि श्रवांसि ॥), .६५.(श्रवो वाजमिषमूर्जं वहन्तीर्नि दाशुष उषसो मर्त्याय ।)

२३. रथं नु मारुतं वयं श्रवस्युमा हुवामहे । आ यस्मिन्तस्थौ सुरणानि बिभ्रती सचा मरुत्सु रोदसी ॥- . .५६.

२४ सुवीरं रयिं गृणते रिरीह्युरुगायमधि धेहि श्रवो नः ॥- . .६५.

२५. इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥- . .१५.

२६. आयन्तारं महि स्थिरं पृतनासु श्रवोजितम् ।- . .३२.१४

२७. वाजासः श्रवस्यवः- . ..

अग्निर्होता दास्वतः क्षयस्य वृक्तबर्हिषः ।

सं यज्ञासश्चरन्ति यं सं वाजासः श्रवस्यवः ॥ ,००९.०२

२८. कोकिल सौत्रामणी. श्रवस इति स्थाने जित्या इति क्षत्रियस्य पुष्ट्या इति वैश्यस्येत्येके । (संश्रवसे विश्रवसे सत्यश्रवसे श्रवस इति चत्वारि निधनानि- द्राह्यायण श्रौ.सू. १३..१३

२९. संश्रवसे विश्रवसे सत्यश्रवसे इति सर्वे निधनमुपयन्ति । संजित्यै विजित्यै सत्यजित्यै जित्या इति क्षत्रियस्य । सम्पुष्ट्यै विपुष्ट्यै सत्यपुष्ट्यै पुष्ट्या इति

वैश्यस्य । यथाम्नातं वा सर्वेषाम् (.ब्रा.१२... )- कात्यायन श्रौ.सू. १९..

३०. पुत्रकामेष्ट्यामग्निः पुत्री । यस्मै त्वं सुकृते जातवेदो यस्त्वा हृदा कीरिणा मन्यमानः । अग्निस्तुविश्रवस्तममिति द्वे संयाज्ये ।- आश्वलायन श्रौ.सू. .१०.

३१ उद्भारि खण्डिक तथा दार्भ्य केशी के विवाद में केशी की पराजय । केशी का उच्चैःश्रवस कौवयेय कौरव्य राजा मातुल के पास जाना ----ज्योति अग्निष्टोम, ज्योति उक्थ, ज्योति अतिरात्र से ब्रह्मवर्चस कामी यजन करता है । सप्तदश अग्निष्टोम आदि से प्रजननकामी तथा एकविंश अग्निष्टोम आदि से स्वर्गकामी- जै.ब्रा..२७९-२८०

३२. अर्वन्तो न श्रवस्यवः । सोमासो राये अक्रमुः । इति प्रायणीय रूपम् एवैतद् उपगच्छन्ति । प्रायणीयं हि एतद् अहः ।- जै.ब्रा. .१७५

३३ अभीमं महिना दिवं । मित्रो बभूव सप्रथाः । उत श्रवसा पृथिवीम् । मित्रस्य चर्षणीधृतः । श्रवो देवस्य सानसिम्। द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् । तैत्तिरीय आरण्यक ४..

३४. उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्या (. .२३., अथर्व २०.१२.) -इति विश्वामित्रः- गोपथ ब्रा...

,०२३.०१  उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्येन्द्रं समर्ये महया वसिष्ठ ।

,०२३.०१ आ यो विश्वानि शवसा ततानोपश्रोता म ईवतो वचांसि ॥

३५. उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्या इति ब्राह्मणाच्छंसी । ब्रह्मण्वदेतत्सूक्तं समृद्धम्- गोपथ ब्रा. ..

३६ उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्या इति पर्यासः । गो.ब्रा. ..

३७. संश्रवसे विश्रवसे सत्यश्रवसे श्रवस इति- गो.ब्रा. ..

३८ यो जातमस्य महतो महि ब्रवात् । सेदुः श्रवोभिर्युज्यंचिदभ्यसत्। तै.ब्रा. ...

३९ पदं देवस्य नमसा वियन्तः । श्रवस्यवः श्रव आपन्नमृक्तम्। नामानि चिद्दधिरे यज्ञियानि । भद्रायां ते रणयन्त संदृष्टौ । ।- तै.ब्रा. . . १०.

४० श्रवण नक्षत्र. त्रेधा विष्णुरुरुगायो विचक्रमे । महीं दिवं पृथिवीमन्तरिक्षम् । तच्छ्रोणैति श्रव इच्छमाना । पुण्यं श्लोकं यजमानाय कृण्वती । । - तैब्रा. ...

४१ हवि की पुरोनुवाक्याः अस्य श्रवो नद्यः सप्त बिभ्रति । द्यावा क्षामा पृथिवी दर्शतं वपुः ।---- तै.ब्रा. ...

४२ आदित्य ग्रह की तीन पुरोरुचाओ में द्वितीय. त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणाः । दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः । नक्ता च चकुरुषसा विरूपे । कृष्णं च वर्णं अरुणं च संधुः ।  तै.ब्रा.. .१२.

४३ नाराशंसी ऋचाः ये मे पंचाशतं ददुः । अश्वानां सधस्तुतिः । द्युमदग्ने महि श्रवः । बृहत्कृधि मघोनाम्। नृवदमृत नृणाम्।  तै.ब्रा.. ..

४४. यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे । हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति । याभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य । कामेन कृतः श्रव इच्छमानः ।  तै.ब्रा. . ..१ ।५

४५. अधि श्रवो माहिनं यज्जरित्र इतीयं वै माहिनं यज्ञश्रवो यजमानो जरिता यजमाना- यैवैतामाशिषमाशास्ते ।- .ब्रा. .३८

४७. दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्व इति । चन्द्रमा वा ऽअस्य दिवि श्रव उत्तमम्। स ह्येनममुष्मिंल्लोके श्रावयति । श.ब्रा. ...४६

४८. अग्ने तव श्रवो वयः इति । धूमो वाऽअस्य श्रवो वयः । स ह्येनममुष्मिन् लोके श्रावयति ।---- .ब्रा ...२९

दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्वेति चन्द्रमा वा अस्य दिवि श्रव उत्तमं स ह्येनममुष्मिंलोके श्रावयति द्वाभ्यामाप्याययति गायत्र्या च त्रिष्टुभा च तस्योक्तो बन्धुः – मा.श.७.३.१.४६

कुश्रिर्ह वाजश्रवसोऽग्निं चिक्ये  तं होवाच सुश्रवाः कौश्यो गौतम यदग्निमचैषीः प्राञ्चमेनमचैषीः प्रत्यञ्चमेनमचैषीर्न्यञ्चमेनमचैषीरुत्तानमेनमचैषीः।१।यद्यहैनं प्राञ्चमचैषीः यथा पराच आसीनाय पृष्ठतोऽन्नाद्यमुपाहरेत्तादृक्तन्न ते हविः प्रतिग्रहीष्यति ।२। यद्यु वा एनं प्रत्यञ्चमचैषीः  कस्मादस्य तर्हि पश्चात्पुच्छमकार्षीः ।३। यद्यु वा एनं न्यञ्चमचैषीः  यथा नीचः शयानस्य पृष्ठेऽन्नाद्यम् प्रतिष्ठापयेत्तादृक्तन्नैव ते हविः प्रतिग्रहीष्यति।४। यद्यु वा एनमुत्तानमचैषीः  न वा उत्तानं वयः स्वर्गं लोकमभिवहति न त्वा स्वर्गं लोकमभिवक्ष्यत्यस्वर्ग्य उ ते भविष्यतीति ।५। स होवाच  प्राञ्चमेनमचैषं प्रत्यञ्चमेनमचैषं न्यञ्चमेनमचैषमुत्तानमेनमचैषं सर्वा अनु दिश एनमचैषमिति ।६। स यत्प्राञ्चं पुरुषमुपदधाति  प्राच्यौ स्रुचौ तत्प्राङ्चीयतेऽथ यत्प्रत्यञ्चं कूर्ममुपदधाति प्रत्यञ्चि पशुशीर्षाणि तत्प्रत्यङ्चीयतेऽथ यन्न्यञ्चं कूर्ममुपदधाति न्यञ्चि पशुशीर्षाणि नीचीरिष्टकास्तन्न्यङ्चीयतेऽथ यदुत्तानम् पुरुषमुपदधात्युत्ताने स्रुचा उत्तानमुलूखलमुत्तानामुखां तदुत्तानश्चीयतेऽथ यत्सर्वा अनु दिशः परिसर्पमिष्टका उपदधाति तत्सर्वतश्चीयते  - माश १०.५.५.७

 

४६ एतैर्वै सामभिर्देवा इन्द्रमिंद्रियाय वीर्याय समश्यन् । तथो एवैतमृत्विजो यजमानमेतैरेव सामभिरिन्द्रियाय वीर्याय संश्यन्ति । संश्रवसे विश्रवसे सत्यश्रवसे श्रवस इति सामानि भवन्ति । एष्वेवैनमेतल्लोकेषु श्रावयन्ति । चतुर्निधनं भवति । चतस्रो वै दिशः ।---- .ब्रा.१२...२६

 

देवा वै ब्रह्मन्नवदन्त  ।  तत्पर्ण उपाशृणोत्  ।  सुश्रवा वै नाम  ।  यत्पर्णमयः संभारो भवति  ।  ब्रह्मवर्चसमेवावरुन्द्धे  । - तै.ब्रा. १.१.३.११

यत्ते पर्णमपतत्तृतीयस्यै दिवोऽधि  ।  सोऽयं पर्णः सोमपर्णाद्धि जातः  ।  ततो हरामि सोमपीथस्यावरुद्ध्यै  ।  देवानां ब्रह्मवादं वदतां यत्  ।  उपाशृणोः सुश्रवा वै श्रुतोऽसि  ।  ततो मामाविशतु ब्रह्मवर्चसम्  । - तै.ब्रा. १.२.१.

इन्द्रियं वै सोमपीथः  ।  इन्द्रियमेव सोमपीथमवरुन्धे ।  तेनेन्द्रियेण द्वितीयां जायामभ्यश्नुते एतद्वै ब्राह्मणं पुरा वाजश्रवसा विदामक्रन्न्  ।  तस्मात्ते द्वेद्वे जाये अभ्याक्षत  ।  य एवं वेद  ।  अभि द्वितीयां जायामश्नुते  । - तै.ब्रा. १.३.१०.

आ यस्ततन्थ रोदसी वि भासा  ।  श्रवोभिश्च श्रवस्यस्तरुत्रः  ।  बृहद्भिर्वाजैः स्थविरेभिरस्मे  । तै.ब्रा. ३.६.११.

ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ ।

तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥ १॥ - कठोपनिषद

कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः । कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते ॥ १२॥  श्रवणं तु गुरोः पूर्वं मननं तदनन्तरम् । निदिध्यासनमित्येतत्पूर्णबोधस्य कारणम् ॥ १३॥ - शुकरहस्योपनिषद

 

उच्चा

उच्च

अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः।

अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥ १.०२४.१०

पूर्वा विश्वस्माद्भुवनादबोधि जयन्ती वाजं बृहती सनुत्री।

उच्चा व्यख्यद्युवतिः पुनर्भूरोषा अगन्प्रथमा पूर्वहूतौ॥ १.१२३.०२

दिव्यन्यः सदनं चक्र उच्चा पृथिव्यामन्यो अध्यन्तरिक्षे।

तावस्मभ्यं पुरुवारं पुरुक्षुं रायस्पोषं वि ष्यतां नाभिमस्मे॥ २.०४०.०४

यदी घृतेभिराहुतो वाशीमग्निर्भरत उच्चाव च।

असुर इव निर्णिजम्॥ ८.०१९.२३

उच्चा ते जातमन्धसो दिवि षद्भूम्या ददे।

उग्रं शर्म महि श्रवः॥ ९.०६१.१०

उच्चा दिवि दक्षिणावन्तो अस्थुर्ये अश्वदाः सह ते सूर्येण।

हिरण्यदा अमृतत्वं भजन्ते वासोदाः सोम प्र तिरन्त आयुः॥ १०.१०७.०२

प्र यो जज्ञे विद्वा अस्य बन्धुं विश्वानि देवो जनिमा विवक्ति

ब्रह्म ब्रह्मण उज् जभार मध्यन् नीचाद् उच्चा स्वधयाऽभि प्र तस्थौ - तैसं २.३.१४.६

दिव्यन्यः सदनं चक्र उच्चा पृथिव्याम् अन्यो अध्य् अन्तरिक्षे ताव् अस्मभ्यं पुरुवारं पुरुक्षुम् रायस् पोषं विष्यतां नाभिम् अस्मे (सोमापूषणौ) - तैब्रा २.८.१.५

उच्चा पतन्तमरुणं सुपर्णं मध्ये दिवस्तरणिं भ्राजमानम्
पश्य त्वा सवितारं यमाहुरजस्रं ज्योतिर्यदविन्ददत्त्रिः शौअ १३.२.३६

तद् अप्य् एतद् ऋचोक्तम् <उच्चा पतन्तम् अरुणं सुपर्णम् > शौअ १३..३६, पैसं १८.२४. – गोब्रा १.२.९

अथ हैतद्बहिःश्रि। योऽयमपव्यादायौष्ठा उच्चैरस्वरमाश्रावयति श्रीर्वै स्वरो बाह्यत एव तच्छ्रियं धत्तेऽशनायुको भवति १० अथ हैतदन्तःश्रि। योऽयं संधायौष्ठा उच्चैः स्वरवदाश्रावयति श्रीर्वै स्वरोऽन्तरत एव तच्छ्रियं धत्तेऽन्नादो भवति माश ११.४.२.११

उपांशु घृतस्य यजति । रेतः सिक्तिर् वै घृतम् । उपांशु वै रेतः सिच्यते । अथ यद् उच्चैः सौम्यस्य यजति । चन्द्रमा वै सोमः । निरुक्त उ वै चन्द्रमाः । - कौब्रा. १६.५

उच्चैः उच्चितं भवति । - निरुक्तम् ४.२४

उच्चैः ऋचा क्रियते, उच्चैः साम्ना, उपांशु यजुषा, उच्चैर्निगदेनेत्येष धर्मविशेषः।शाबरभाष्यम् २.१.३९

उच्चैः क्रौञ्चमिव वषट्कुर्यात्स्वर्गकामस्येति विज्ञायते आप.श्रौ.सू. २४.१४.५