PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

One of the main keys to understand the nature of an arrow in vedic literature is the statement that for a warrior fights in the battlefield. In the same way, a braahmin does his fight in the yaaga. When a warrior is initiated to do the yaaga, he naturally become a braahmin. The weapons of a warrior – horse, chariot, armour, arrow, bow etc., all these have their equivalents in a yaaga. For example, the equivalent of a chariot is a chariot bearing offering to gods. An arrow is equivalent to the speech of a braahmin. This speech has to power to curse or impart boon. In puraanic literature, it is expected that an arrow should not proceed in serpentine motion. On the other hand, it should go straight. The second key to understand an arrow is that the power of self should not proceed towards it’s goal in a serpentine motion, but it should go straight. In Atharvaveda, gods use electricity as an arrow. There are mainly two types of arrows in vedic literature – one which move upwards fast and the other – which are distributed in different directions. Different names are given to arrows in different directions and also to their lords.

          One vedic text states that heart is the bow and mind is the arrow. At another place, mind has been termed as bow on which the five senses – voice, touch, form, taste and smell are loaded as arrows.

 

इषु

टिप्पणी : इषु की प्रकृति को समझने के लिए उपलब्ध मुख्य सूत्रों में से एक यह है कि क्षत्रिय जो युद्ध करता है, वैसा ही वह ब्राह्मण होकर यज्ञ में भी करता है ( ऐतरेय ब्राह्मण ७.१९) । जब क्षत्रिय दीक्षित होकर यज्ञ के लिए बैठता है तो वह ब्राह्मण का ही रूप होता है । क्षत्रिय के जो अश्व, रथ, कवच, इषु, धनु आदि आयुध होते हैं, यज्ञ में भी उनके प्रतिरूप होते हैं - जैसे रथ का प्रतीक हविर्धान शकट होता है ( बौधायन श्रौत सूत्र १८.३६.१३) । इषु की प्रतीक ब्राह्मण की वाक् में शाप या वरदान देने की सामर्थ्य होती है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.२९१, अथर्ववेद

५.१८.१५) । पुराणों में प्रायः इषु द्वारा सर्प का अथवा सर्प द्वारा इषु का रूप धारण करने तथा गरुडास्त्र द्वारा उसकी शान्ति का उल्लेख आता है । इषु के संदर्भ में यह अपेक्षित है कि वह सर्प की भांति सर्पण न करे, अपितु अपने लक्ष्य की ओर सीधा, क्षिप्र गति से आगे बढे । अथर्ववेद ४.६.६ में गरुड द्वारा इषु से विष निकालने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ४.२.८.३ के अनुसार यातुधानों, वनस्पतियों तथा अवटों में सर्प रूपिषु होते हैं । आत्मिक शक्ति का सर्प की गति को त्याग कर लक्ष्य की ओर सीधे अग्रसर होना इषु को समझने के लिए दूसरा सूत्र है । अथर्ववेद १.१३.४ में देवों द्वारा विद्युत को इषु बनाने का उल्लेख है । अथर्ववेद ३.२५, ३.२६ व ३.२७ सूक्त इषुओं से सम्बन्धित हैं जिनमें प्रथम सूक्त में काम के इषु से ऊपर की ओर गति करने की अपेक्षा की गई है ( डा. फतहसिंह के वेद सविता पत्रिका में प्रकाशित लेख के अनुसार यह काम साधारण काम नहीं है, अपितु अनङ्ग काम का वह ऊर्ध्वमुखी रूप है जो शिव के तीसरे नेत्र की अग्नि से दग्ध होने के पश्चात् उत्पन्न हुआ है ) । इससे अगले दो सूक्तों में ६ दिशाओं के अधिपतियों और उनके इषुओं का वर्णन है । इस प्रकार ऊपर की ओर त्वरित गति करना और दिशाओं में व्याप्त होना, यह इषुओं के दो रूप मुख्य रूप वैदिक साहित्य में मिलते हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.५.११.२ तथा शतपथ ब्राह्मण ९.१.१.३५ के अनुसार पृथिवी पर अन्न इषु हैं, अन्तरिक्ष में वात तथा द्युलोक में वर्षा । इनसे सम्बन्धित रुद्रों के नामों का भी उल्लेख हुआ है । शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.२९ के अनुसार पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक में इषुओं के नाम क्रमशः  दृबा, रुजा व क्षुमा हैं । एक दृष्टिकोण से यह साधना में त्वरित गति से, तीर की गति से प्रगति करने का मार्ग है । पुराणों में शिव द्वारा त्रिपुर दाह का जो सार्वत्रिक प्रसंग आता है तथा जिसकी पुनरावृत्ति तैत्तिरीय संहिता ६.२.३.१ तथा काठक संहिता २४.१० में भी मिलती है, साधना के इसी मार्ग का परिचायक हो सकता है । द्राह्यायण श्रौत सूत्र १६.२.१० आदि के अनुसार इषु नामक अग्निष्टोम से पूर्व श्येन अग्निष्टोम यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है । काठक संहिता

२५.१ में इषु नामक इष्टि का विस्तृत वर्णन है जिसमें उल्लेख है कि इस इष्टि में सामान्य यज्ञ के अन्य अंगों प्रयाज, अनुयाज आदि का अनुष्ठान नहीं किया जाता । यह सब इस तथ्य के संकेतक हैं कि इषु नामक इष्टि के अनुष्ठान से पूर्व अग्नि द्वारा श्येन का रूप धारण करके स्वर्ग से या द्युलोक से सोम की प्राप्ति करना अनिवार्य है । शिव द्वारा त्रिपुर दाह के लिए जिस इषु की रचना की गई है, उसके तीन अङ्गों में से २ अग्नि और सोम हैं । अग्नि शृङ्ग है तथा सोम शल्य । ऐतरेय ब्राह्मण १.२५ में इषु की एक अथवा दो अथवा तीन सन्धियों का वर्णन है । इनमें से एक सन्धि अग्नि व सोम की हो सकती है जिसके लिए अग्नीषोम शब्द की टिप्पणी द्रष्टव्य है । अग्नि व सोम की यह सन्धि तभी संभव है जब एक ओर तो अग्नि श्येन का रूप धारण करके ऊपर जा रहा हो और दूसरी ओर श्येन सोम प्राप्त करके नीचे उतर रहा हो । हो सकता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में जो द्युलोक में वर्षा/पर्जन्य वर्षण को इषु कहा गया है, उसका तात्पर्य इसी सोम से हो । पृथिवी पर अन्न को इषु कहने से तात्पर्य उस अन्न से हो सकता है जो अग्नि अपने मुख में धारण करके देवताओं तक ले जाती है ।

          ऊर्ध्वमुखी एकान्तिक साधना के पश्चात् साधना को सार्वत्रिक, सब दिशाओं में व्याप्त होने वाली बनाना होता है । अथर्ववेद ३.२६, ३.२७, १२.३.५५ तथा १५.५ सूक्त, पैप्पलाद संहिता ३.२४ सूक्त, तैत्तिरीय संहिता ५.५.१०.४ आदि में ६ दिशाओं में जिन इषुओं और उनके अधिपति रुद्रों के नामों का उल्लेख आता है, उनमें अन्तर पाया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ९.१.१.३५ के अनुसार ऊर्ध्वमुखी साधना के पश्चात् दसों दिशाओं में विस्तार करना शरीर में प्राणों के, अग्नि के संचार करने की भांति है । पौराणिक दृष्टि से दिशाओं में इषुओं का यह वर्णन बहुत महत्त्वपूर्ण है । उदाहरण के लि, अथर्ववेद १२.३.५५ व पैप्पलाद संहिता ३.२४ में पूर्व दिशा में अग्नि अधिपति तथा आदित्य इषु, दक्षिण दिशा में इन्द्र अधिपति व यम/पितर/वसुगण इषु, पश्चिम दिशा में वरुण अधिपति व अन्न/मित्र इषु, उत्तर दिशा में सोम अधिपति व अशनि/वात इषु, ध्रुवा दिशा में विष्णु अधिपति व ओषधि/वीरुध इषु तथा ऊर्ध्वा दिशा में बृहस्पति अधिपति व वर्षा/अशनि इषु का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.१०.४ के अनुसार ६ दिशाओं में इषु क्रमशः अग्नि, पितर, स्वप्न, आपः, अन्न व वर्षा हैं । पुराणों में बाणों को आग्नेयास्त्र, याम्यास्त्र, कौबेरास्त्र, ऐन्द्रास्त्र, ब्रह्मास्त्र, वायव्यास्त्र, पर्वतास्त्र, पर्जन्यास्त्र आदि द्वारा अभिमन्त्रित करने का वर्णन आता है । देवगण और असुर, दोनों ही इन अस्त्रों का उपयोग करते हैं । अतः यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि अग्नि, यम, कुबेर, इन्द्र, ब्रह्मा, वायु, पर्वत आदि के विनाशकारी और कल्याणकारी रूप कौन से हैं । उदाहरण के लिए पर्वतास्त्र पर विचार करते हैं । असुरगण पर्वतास्त्र द्वारा लोष्ठों/पाषाण खण्डों की वर्षा करते हैं । पर्वतास्त्र का निवारक या तो वायव्यास्त्र है या इन्द्र का वज्र । अथर्ववेद ११.८.१० के अनुसार पर्वतों, यक्षों, समुद्रों, नदियों आदि की स्थिति भूमि पर है । पर्वत का कल्याणकारी रूप हमें तब देखने को मिलता है जब पर्वत पर जीवनदायिनी ओषधियां उत्पन्न हो जाती हैं । इषुओं के वर्णन में यह ध्रुवा दिशा, स्थिर दिशा है ( तुलनीय : रामायण में लक्ष्मण की मूर्च्छा का पर्वत से प्राप्त ओषधि से उपचार ) । पहले पर्वत उडते फिरते थे । उनके पक्ष इन्द्र ने काटे, तब वह स्थिर हुए । मन का प्रतीक मैनाक पर्वत अभी भी पक्षवान् कहा जाता है । वायव्यास्त्र से तात्पर्य प्राण वायु का विकास प्राण, अपान, व्यान आदि ५ वायुओं में करने से सम्बन्धित हो सकता है ( तुलनीय : द्राह्यायण श्रौत सूत्र ११.१.९ में बाण द्वारा प्राण, अपान व व्यान लिखने का उल्लेख ) । आग्नेयास्त्र व उसके निवारक पर्जन्यास्त्र की व्याख्या गर्ग संहिता में क्रमशः अहंकार व ज्ञान के रूप में की गई है । भविष्य पुराण में पावकास्त्र/आग्नेयास्त्र द्वारा रक्तबीज( कर्मों के फलों के बीज? ) का नाश कह कर एक अन्य व्याख्या प्रस्तुत की गई है । रामायण में राम के आग्नेयास्त्र द्वारा रावण के सिंह, व्याघ्र, कंक आदि मुख वाले शर प्रकट करने वाले आसुरास्त्र के निवारण की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि सिंह, व्याघ्र आदि यह सब अहंकार के विभिन्न रूप हैं । जिस प्रकार अर्जुन ने अग्नि की सहायता से खाण्डव वन को जलाया था, उसी प्रकार आग्नेयास्त्र से आसुरास्त्र को भी नष्ट करना है । एक ओर अग्नि का मुख है जो देवों के लिए हवि का वहन करता है । दूसरी ओर सिंह आदि मुख हैं । पुराणों में ब्रह्मास्त्र के कल्याणकारी स्वरूप के संदर्भ में अथर्ववेद १२.३.६० में ऊर्ध्वा दिशा में वर्षा इषु के साथ बृहस्पति अधिपति होने का उल्लेख विचारणीय है । ऐन्द्रास्त्र के संदर्भ में इन्द्र के शौर्यपूर्ण कृत्यों जैसे दधीचि की अस्थियों से वज्र का निर्माण और उसके द्वारा वृत्र का वध करना विचारणीय है । इसके अतिरिक्त, महाभारत में अर्जुन द्वारा इन्द्रसभा में ऐन्द्रास्त्र की प्राप्ति के उल्लेख के साथ साथ ही अर्जुन द्वारा संगीत की शिक्षा प्राप्त करने और उर्वशी द्वारा शाप आदि के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि ऐन्द्रास्त्र का उज्ज्वल पक्ष संगीत से भी जुडा है । इन्द्र शब्द की टिप्पणी में ऐतरेय उपनिषद से यह उद्धृत किया गया है कि इन्द्र ने अपनी इन्द्रियों द्वारा अन्न को ग्रहण करने का प्रयत्न किया लेकिन वह तब तक सफल नहीं हुआ जब तक कि उसने सीमा(ब्रह्मरन्ध|?) का विदारण नहीं कर लिया । अतः यह हो सकता है कि इन्द्रियों द्वारा आन्तरिक संगीत का श्रवण, नाद का श्रवण ही इन्द्रियों का वास्तविक अन्न हो । रामायण में राम द्वारा ऐन्द्रास्त्र से कुम्भकर्ण की सव्य बाहु के छेदन का उल्लेख है । इस संदर्भ में अथर्ववेद ११.१२.१६ मन्त्र विचारणीय है जिसमें कहा गया है कि इन्द्र शत्रुओं की बाहुओं को भग्न कर दे जिससे वे इषु न छोड सकें । ऋग्वेद ८.७७.७ में इन्द्र के इषु को शतब्रध्न तथा सहस्र पर्णों वाला कहा गया है ।

          महाभारत में अर्जुन द्वारा बाण से प्रहार कर राजा भगदत्त की  आंखों को खुली रखने वाली पट्टी को छिन्न कर देने और उसके पश्चात् बंद नेत्रों वाले भगदत्त का वध करने के संदर्भ में ऋग्वेद १०.१०३.२ में अनिमिष शब्द के उल्लेख पर विचार की आवश्यकता है कि क्या इषु का सम्बन्ध नेत्रों के निमेष - उन्मेष से भी हो सकता है ?

          हरिवंश पुराण में शिव द्वारा दक्ष के यज्ञ के बाण से भेदन और यज्ञ के आकाश में मृगशिरा नक्षत्र के रूप में स्थित होने के रहस्यार्थ को ऐतरेय ब्राह्मण ३.३३ आदि में दिए गए वर्णन के आधार पर समझने की आवश्यकता है ।

          भागवत पुराण आदि में वृत्र द्वारा उत्पन्न होने के पश्चात् इषुमात्र वर्धन करने का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण १.६.३.११, तैत्तिरीय संहिता २.४.१२.२ तथा २.५.२.२ में भी आता है । इषु का प्रयोग शत्रु के नाश के लिए किया जाता है, लेकिन वृत्र इषु में भी प्रवेश कर गया है । ऐसी स्थिति में इन्द्र अग्नीषोमात्मक सन्धि को अपनी ओर मिलाकर किस प्रकार वृत्र को समाप्त करता है, यह विचारणीय है ।

          तैत्तिरीय संहिता ६.२.३.१ तथा काठक संहिता २५.१ आदि में यज्ञ में उपसद को इषु कहा गया है जिसके शृङ्ग पर अग्नि, शल्य पर सोम व तेज में विष्णु का रूप होता है । कहा गया है कि यज्ञ में उपसद रूपी ग्रीवा पर अतिथि रूपी शिर की स्थापना करनी होती है । उपसद को अहोरात्र, पक्षों, मासों, ऋतुओं व संवत्सर का रूप कहा गया है ( काठक संहिता २४.१०) । अतिथि रूपी शिर मनुष्य में विकसित ऊर्जा, जिसे घर्म कहते हैं, का प्रतीक है । ऐसा कहा जा सकता है कि जैसे सूर्य प्रतिदिन उदय व अस्त होता है, ऐसे ही घर्म सूर्य उपसद रूपी ग्रीवा या इषु के माध्यम से उदय - अस्त होता है । उपसद रूपी ग्रीवा से नीचे सद: रूपी उदर होता है । सद: में औदुम्बरी शाखा की स्थापना की जाती है ( काठक संहिता २५.१०) । अतः यह हो सकता है कि उदुम्बर रूपी ऊर्जा उपसद के माध्यम से आरोहण - अवरोहण करती हो, अथवा दोनों ओर से ऊर्जा का प्रवाह उपसद रूपी ग्रीवा में होता हो ।

          शतपथ ब्राह्मण २.३.३.१० के अनुसार जैसे इषु का अनीक/मुख है, वैसे ही अग्निहोत्र है, जैसे इषु मुख के द्वारा आगे जाता है, ऐसे ही अग्निहोत्र के अनुष्ठान द्वारा सब यज्ञक्रतुओं का अनुष्ठान हो जाता है । अग्निष्टोम के संदर्भ में इषु इष्टि का वर्णन भली प्रकार से मिलता है । इसके अतिरिक्त, १२ दिनों वाले द्वादशाह यज्ञ को भी इषु में रूपान्तरित करने के लिए उसके चार - चार दिनों को इषु की एक सन्धि मानकर उनमें गौ के क्रमशः ३, २ या १ स्तन का पान किया जाता है । इस प्रकार लगता है कि अधिकांश यज्ञों को इषु का रूप दिया जा सकता है ।

          मैत्रायणी उपनिषद ६.२८ में इच्छा को इषु कहा गया है । रुद्रहृदयोपनिषद ३८, ध्यानबिन्दु उपनिषद १४ तथा मुण्डकोपनिषद २.२.४ में आत्मा को शर तथा प्रणव को धनुष कहा गया है जिनके द्वारा परम ब्रह्म को लक्ष्य बनाना है । मैत्रायणी उपनिषद ६.२८ में अनभिमान को इषु कहा गया है । लिङ्गोंपनिषद तथा मैत्रायणी उपनिषद ६.२८ में ॐ को शर कहा गया है । शांखायन श्रौत सूत्र ४.२०.१ में हृदय को धनुष और मन को इषु कहा गया है । राजसूय के संदर्भ में बौधायन श्रौत सूत्र १२.९.१० के अनुसार मन से ही दिशाओं के अनुदिश क्रमण होता है तथा मन से ही ऊर्ध्वा दिशा को जीता जाता है । पुराणों में अतिथि इषुकार से मन को ऊर्ध्वमुखी करने की शिक्षा प्राप्त करता है ।

          पुराणों में काम के सम्मोहन आदि पांच बाणों का व्यापक उल्लेख मिलता है । भावनोपनिषद २३ में शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध नामक ५ तन्मात्राओं को काम के ५ पुष्पबाण कहा गया है तथा मन को इक्षुधनु कहा गया है ।

          इषुधि/तरकस के संदर्भ में ऋग्वेद ६.७५.५ की ऋचा द्रष्टव्य है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २०.१६.८ में इस ऋचा का विनियोग पीठ पर इषुधि बांधने के लिए किया गया है । इस ऋचा में बाणों को इषुधि के पुत्र रूप कहा गया है ।

प्रथम प्रकाशन : १९९४ई.