PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

In Rigveda, word Indu is generally taken to be a synonym for soma. It is difficult to say what is actually the difference between indu and soma. Purifications are made so that indu may be pure enough to be to be drunk by lord Indra. As indicated by Dr. Sukarma Pal Singh Tomar in his thesis on Symbolism of Waters in Vedas, the origin of indu seems to be from the force which a human being generates against the direction of gravitational force. This force, when gradually synthesized, takes the form of moon, or becomes a part of moon. Then it is ready for being eaten by sun or lord Indra. When sun devours indu, it is stated that some form of lustur is generated. One sacred text gives more details about the use of indu in soma sacrifice. At one stage, indu is supposed to uplift our latent faculties, or visible faculties in the head, such as ear, eyes etc., so that these may be able to see the reality, not the illusion. At second stage, indu has been said to cause divine rain. At third stage, indu descends at the mortal level and becomes impure. At this stage, one has to purify it so that it is free from rigidity of mortal life. Whatever can not be freed from rigidity, it is conjectured that it has been called  indavah, the  plural form of indu. This rigid form acts to protect us in our daily life. This form has been called pitarah, our forefathers, or mind. It has been called upon that let us gather our mind from wherever it is involved in serving our daily life. Let it be consolidated into a point. This bindu or point can be used to transgress from one consciousness to another. It is to be noted that vedic literature does not talk of bindu anywhere. Bindu has appeared as a synonym for indu only in upanishads.

First published : 1994 AD,  revised : 3-6-2010 AD

Veda study on Indu by Dr. Tomar/Dr. Fatah Singh

 

संशोधन - --२०१० ई. ( ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी, विक्रम संवत् २०६७)

इन्दु

सोमयाग का कृत्य मुख्य रूप से तीन सवनों में सम्पन्न होता है प्रातःसवन, माध्यन्दिन सवन और तृतीय सवन या आर्भव पवमान । इन तीन सवनों में यजमान द्वारा वाचनीय मन्त्रों को ताण्ड्य ब्राह्मण .. में उद्धृत किया गया है । इन मन्त्रों के पठन द्वारा उद्गाता दो बार अल्प भक्षण करता है

प्रातःसवन - इन्दविन्द्रपीतस्य त इन्द्रियावतो गायत्रछन्दसः सर्व्वगणस्य सर्व्वगण उपहूत उपहूतस्य भक्षयामि ।

अर्थात् हे इन्दु, इन्द्र द्वारा पीने से शेष बचे भाग को मैं अन्य सब गणों के साथ मिलकर  इन्द्रियावत् होकर गायत्री छन्द द्वारा भक्षण करता हूं ।  इससे अगला पठनीय मन्त्र है -

ऊर्ध्वस्सप्त ऋषीनुपतिष्ठस्वेन्द्रपीतो वाचस्पते सप्तर्त्विजोभयुच्छ्रयस्व जुषस्व लोकम्मा वाङवगाः ।

अर्थात् हे भक्षित सोम, तू इन्द्र द्वारा पीने के पश्चात् सात ऋषियों हेतु ऊपर उठ खडा हो इत्यादि । यहां सात ऋषियों से तात्पर्य शीर्ष में स्थित सात सर्वाधिक विकसित प्राणों चक्षु, श्रोत्र आदि से हो सकता है । इसका अर्थ हुआ कि जिस इन्दु का प्रातःसवन में पान किया जाएगा, उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह शीर्ष के सर्वाधिक विकसित प्राणों के और विकास में सहायता करेगा । और अधिक विकास से तात्पर्य अतीन्द्रिय क्षमता का विकास हो सकता है ।

          माध्यन्दिन सवन के लिए मूल भावना को प्रस्तुत करने वाला मन्त्र निम्नलिखित है

वायुर्य्युनक्तु मनसा स्तोम यज्ञाय वोढवे दधात्विन्द्र इन्द्रियं सत्याः कामा यजमानस्य सन्तु ।

अर्थात् वायु देव मन द्वारा स्तोम को यज्ञ हेतु जोडें । इन्द्र इन्दिय को धारण करे, यजमान की कामनाएं सत्य हों ।

 इस सवन में यजमान द्वारा वाचनीय मन्त्र निम्नलिखित है

वृषकोसि त्रिष्टुप् छन्दा अनु त्वारभे स्वस्ति मा सं पारयामास्तोत्रस्य स्तोत्रं गम्यादिन्द्रवन्तो वनेमहि भक्षीमहि प्रजामिषं)। इन्दविन्द्रपीतस्य त इन्द्रियावतस्त्रिष्टुप् छन्दसः सर्वगणस्य सर्वगण उपहूत उपहूतस्य भक्षयामि ।

अर्थात् हे मध्यन्दिन पवमान, तू त्रिष्टुप् छन्द प्रकार का है, वृषक अर्थात् कामों की वर्षा करने में समर्थ इन्द्र है । तुझे हम आरम्भ करते हैं । मेरे लिए स्वस्ति का सम्पादन कर इत्यादि ।

          तृतीय सवन की मूल भावना प्रस्तुत करने वाला मन्त्र निम्नलिखित है -

सूर्यो युनक्तु वाचा स्तोमं यज्ञाय वोढवे दधात्विन्द्र इन्द्रियं सत्याः कामा यजमानस्य सन्तु ।

इस सवन में यजमान द्वारा भक्षणीय मन्त्र निम्नलिखित है -

स्वरोसि गयोसि जगच्छन्दा अनु त्वारभे स्वस्ति मा सं पारयामास्तोत्रस्य स्तोत्रं गम्यादिन्द्रवन्तो वनेमहि भक्षीमहि प्रजामिषं । इन्दविन्द्रपीतस्य त इन्द्रियावतो जगच्छन्दसः सर्वगणस्य सर्व्वगण उपहूत उपहूतस्य भक्षयामि ।

          यह ध्यान देने योग्य है कि माध्यन्दिन पवमान की संज्ञा वृषक दी गई है, जबकि आर्भव पवमान की स्वर और गय ।  आर्भव पवमान मनुष्य से देव बने ऋभुगण के लिए सम्पन्न किया जाता है और यह स्वाभाविक ही है कि इस स्तर तक आते आते बहुत सी जडताएं आ जाती हैं । यही कारण है कि मन्त्र में कहा गया है स्वरोसि । अर्थात् व्यञ्जनों की जडता से हट कर स्वर की शुद्ध स्थिति को प्राप्त करना है । इसके अतिरिक्त कहा गया है गयोसि । गय से अर्थ प्रातःकाल से हो सकता है क्योंकि ऋग्वेद सूक्त का ऋषि गयस्प्लात है ।

इन्दु व बिन्दु

ध्यानबिन्दु उपनिषद ८८ में कहा गया है कि जो बिन्दु है, वही इन्दु है । जो रज है, वही रवि है । जो बिन्दु शशि स्थान में स्थित हो जाता है, वह शिव है। जो रज है, वह शक्ति है। यह एक विचित्र तथ्य है कि वेदों और ब्राह्मणों में बिन्दु शब्द का अस्तित्व नहीं है । योगशिखोपनिषद ५.२८ के अनुसार बिन्दु के मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं स्थूल, सूक्ष्म और पर । स्थूल बिन्दु शुक्लात्मक है, सूक्ष्म पञ्चाग्नि रूप है । पर बिन्दु सोमात्मक है (स्थूलं शुक्लात्मकं बिन्दुः सूक्ष्मं पञ्चाग्निरूपकम् ॥ सोमात्मकः परः प्रोक्तः सदा साक्षी सदाच्युतः ।) स्थूल बिन्दु का अऩुमान योगशिखोपनिषद ३.२ के इस कथन से लगाया जा सकता है कि मूलाधार को गई हुई शक्ति बिन्दुरूपिणी है । उससे नाद उत्पन्न होता है । यह नाद परा, पश्यन्ती वैखरी आदि वाक् का स्वरूप ग्रहण करता है (मूलाधारगता शक्तिः स्वाधारा बिन्दुरूपिणी ॥
तस्यामुत्पद्यते नादः सूक्ष्मबीजादिवाङ्कुरः)। बिन्दु का दूसरा स्तर सूक्ष्म, पञ्चाग्निरूप कहा गया है । यह पांच अग्नियां कौन सी होंगी, इसका योगशिखोपनिषद में वर्णन है । सबसे नीचे कालाग्नि है जिससे नाद प्रकट होता है । फिर वडवाग्नि है जो अस्थिमध्य में है । अन्तरिक्षगत वह्नि वैद्युत है । नभस्थ अग्नि सूर्यात्मक है इत्यादि ।  यह सूक्ष्म रूप भ्रूमध्य में कहा गया है । इस बिन्दु से संभवतः तालुमूल में अमृत का स्राव होता है जिसका आस्वादन विपरीत जिह्वा द्वारा करना संभव है ।  इससे आगे बिन्दु का तीसरा स्तर पर है जिसे सोम कहा गया है । 

इन्दवः और पितर

जैसा कि ऊपर तृतीय सवन के संदर्भ में उल्लेख किया गया है, तृतीय सवन के इन्दु की एक संज्ञा स्वर है, अर्थात् जडता से रहित । लेकिन जिस इन्दु में जडता है, उसका प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है । लेकिन परोक्ष रूप से निम्नलिखित मन्त्र में उसका उल्लेख है -

आयुर्मे प्राणे मनसि मे प्राण आयुपत्न्यामृचि यन्मे मनो यमं गतं यद्वा मे अपरागतं राज्ञा सोमेन तद्वयं पुनरस्मासु दध्मसि ।यन्मे यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरगास्तन्म आवर्त्तया पुनर्जीवातवेन मर्त्तवेथो अरिष्टतातय ।

अर्थात् मेरे प्राण में आयु का समावेश हो जाए, प्राण का मन में । आयुपत्नी में ऋचा का समावेश हो जाए । जो मेरा मन यम को चला गया है, अथवा जो मेरे पास वापस आ गया है, वह हम सोम राजा के द्वारा पुनः इनमें रखते हैं । जो मेरा मन वैवस्वत यम को दूर चला गया था, उसका हम पुनः आवर्तन करते हैं जीवित रहने के लिए और अरिष्टताति, अरिष्ट का विस्तार करने के लिए । मन्त्र की उपरोक्त पंक्तियां ऋग्वेद १०.६० का रूपान्तर हैं । योगशिखोपनिषद ६ इत्यादि में कहा गया है कि जो मन है, वही बिन्दु है अथवा हो सकता है । एक उपनिषद में कहा गया है कि मन को एकत्र करके बिन्दु रूप बना ले । तब इस संयत मन से दूसरे प्राणियों की चेतना में प्रवेश संभव हो जाता है । हमारा जो मन सारे ब्रह्माण्ड की वस्तुओं में बिखरा पडा है, उसे ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्दवः की संज्ञा दी गई है और उसे पितर कहा गया है (जैमिनीय ब्राह्मण १.९४, यदिन्दव इतीन्दव इव हि पितरः - ताण्ड्य ब्राह्मण ६.९.१९, एते असृग्रमिन्दव ….एत इति वै प्रजापतिर्देवानसृजतासृग्रमिति मनुष्यानिन्दव इति पितॄ स्त १२.१.३ इत्यादि)। डा. सुकर्मपाल सिंह तोमर ने अपने शोधप्रबन्ध में इन्दवः को मानसिक स्तर का सोम कहा है जबकि इन्दु को विज्ञानमय और उच्चतर स्तर का । यह कथन डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुरूप ही है कि वेद में जब कोई शब्द बहुवचन में प्रकट होता है तो वह मानसिक अथवा चेतना के निचले स्तर का प्रतिनिधित्व करता है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.६१ व ३.२३१ में एकवचन के इन्दु को पति कहा गया है

इन्दु शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में, स्वाभाविक रूप में ऐसा प्रतीत होता है कि इन्दु शब्द से न का लोप करने पर इन्दु शब्द का मूल इदु होना चाहिए । लेकिन इसमें कठिनाई यह है कि इत् ऊ में इ अक्षर अनुदात्त है, जबकि इन्दु शब्द में इ उदात्त है । यास्काचार्य द्वारा इन्दु की निरुक्ति इन्ध दीप्तौ धातु के आधार पर अथवा उनत्ति क्लेदयति गीला करने के आधार पर करने का प्रयास किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ९.४.४.५ में सायणाचार्य द्वारा इन्दु की निरुक्ति इदि ऐश्वर्ये धातु के आधार पर की गई है । डा. सुकर्मपाल सिंह तोमर अपने शोध प्रबन्ध में इन्दु का मूल ईम् और इदम् में खोजते हैं । ईम् मनुष्य की वह शक्ति है जो गुरुत्वाकर्षण के विपरीत दिशा में, ऊपर की ओर अग्रसर होती है, जैसे अग्नि । इदम् कोई स्थूलतर अवस्था हो सकती है । अन्त में इन्दु को श्येन का रूप दिया गया है ( शतपथ ब्राह्मण ९.४.४.५) और प्रश्न उठाया गया है कि यह श्येन हवि का वहन कर सकता है या नहीं ।

जैमिनीय ब्राह्मण १.१६३ में इन्दु के अश्व रूप का उल्लेख है जबकि ३.६० में गोमत्, हिरण्यवत् और अश्ववत् ।

संशोधन --२०१० ई. ( ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी, विक्रम संवत् २०६७)

 

इन्दु

टिप्पणी : ऋग्वेद के नवम मण्डल में इन्दु, इन्दो, इन्दव: शब्दों का बहुलता से प्रयोग हुआ है जैसा कि भौतिक जगत में दृष्टिगोचर होता है, इन्दु/चन्द्रमा आकाश में २७ नक्षत्र समूहों का सेवन करता हुआ आगे बढता है पुराणों में इन नक्षत्रों को दक्ष प्रजापति की कन्याएं कहा गया है शतपथ ब्राह्मण ... इत्यादि के सार्वत्रिक मन्त्र के अनुसार अग्नि का एक पक्ष इन्दु है जो दक्ष बनने पर हिरण्य पक्ष वाला श्येन बन सकता है तैत्तिरीय ब्राह्मण ... में नक्षत्र देव रूपी(?) इन्द्र के लिए इन्दु का आह्वान किया गया है यह उल्लेखनीय है कि सूर्य की अनुपस्थिति में ही नक्षत्रों का दर्शन होता है सूर्य के प्रकट होने पर इन नक्षत्रों को क्षत्र भाग प्राप्त होता है ( शतपथ ब्राह्मण ...१८) सूर्य को ही ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्द्र की संज्ञा दी गई है ( शतपथ ब्राह्मण ...१८ इत्यादि ) ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं , विशेषकर .११२. में इन्दु से इन्द्र के लिए परिस्रवित होने की कामना की गई है

          ध्यानबिन्दु उपनिषद ८८ में शशि में निवास करने वाले बिन्दु को ही इन्दु कहा गया है जिसका सूर्य से संयोग अपेक्षित है योगशिखोपनिषद .१३३ में सोहं के अजपा जप में को सूर्य और को इन्दु कहा गया है जिनका संयोग अपेक्षित है ऋग्वेद .. (अनु द्रप्सास इन्दव आपो न प्रवतासरन् । पुनाना इन्द्रमाशत), .९७.५६ (द्रप्साँ ईरयन्विदथेष्विन्दुर्वि वारमव्यं समयाति याति ॥) तथा तैत्तिरीय संहिता ... में इन्दु को द्रप्स/बूंद का रूप कहा गया है ऋग्वेद .९७.४१ के अनुसार इन्दु और सूर्य के संयोग से ज्योति उत्पन्न होती है (अदधादिन्द्रे पवमान ओजोऽजनयत्सूर्ये ज्योतिरिन्दुः ॥)

          कथासरित्सागर में वर्णित इन्दुकलश की संक्षिप्त कथा ऋग्वेद की .६५.१४ (आ कलशा अनूषतेन्दो धाराभिरोजसा । एन्द्रस्य पीतये विश ॥), .८५.(सहस्रणीथः शतधारो अद्भुत इन्द्रायेन्दुः पवते काम्यं मधु ।), .८६.२२ (पवस्व सोम दिव्येषु धामसु सृजान इन्दो कलशे पवित्र आ ।), .९६. (परि प्रियः कलशे देववात इन्द्राय सोमो रण्यो मदाय । सहस्रधारः शतवाज इन्दुर्वाजी न सप्तिः समना जिगाति ॥) तथा .९७.२२ - आदीमायन्वरमा वावशाना जुष्टं पतिं कलशे गाव इन्दुम् ॥) इत्यादि ऋचाओं का प्रतिनिधित्व करती है कर्मकाण्ड में इन्दु को कलश में भरने के लिए उसे अवि के बालों से निर्मित छलनी द्वारा छान कर पवित्र करना पडता है इन्दुकलश के भ्राता के रूप में जिस कनककलश का उल्लेख है, वह संभवतः शुक्ल यजुर्वेद १८.२२ के सार्वत्रिक मन्त्र में उक्त हिरण्य पक्ष वाला इन्दु हो सकता है यद्यपि हिरण्य पक्ष को अमृत कहा गया है, तथापि यह इन्दु रूपी आत्मा ( ऋग्वेद ..१० - गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः ॥), .८५. - अदब्ध इन्दो पवसे मदिन्तम आत्मेन्द्रस्य भवसि धासिरुत्तमः ।)) का केन्द्रीय स्थल नहीं है, पक्ष मात्र है कलश में इन्दु रूप में प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि यह सुआयुध वाला बने ( ऋग्वेद .३१. - स्वायुधस्य ते सतो भुवनस्य पते वयम् । इन्दो सखित्वमुश्मसि ॥) तथा इसका रूप अश्व का हो जिसे ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं जैसे .६६.२३ (स मर्मृजान आयुभिः प्रयस्वान्प्रयसे हितः । इन्दुरत्यो विचक्षणः ॥) में अत्य/अश्व नाम दिया गया है तथा जिसे कथा में विनीतमति बोधिसत्व से खड्ग और अश्व की प्राप्ति के रूप में दिखाया गया है ऋग्वेद .८६.२४ में इन्दु को विश्व मतियों द्वारा परिष्कृत करने का उल्लेख है(त्वां सुपर्ण आभरद्दिवस्परीन्दो विश्वाभिर्मतिभिः परिष्कृतम् ॥)

          कथासरित्सागर में वर्णित मलयमाली इन्दुयशा की कथा के संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण ... तथा जैमिनीय ब्राह्मण .४२९ में उल्लेख है कि पृथिवी पर नक्षत्रों का रूप चित्र रूप में ही होता है अतः मलयमाली रूपी मर्त्य स्तर( मलय = मर्य) पर नक्षत्रों का प्राकट्य चित्र - विचित्र रूप में ही हो सकता है मलयमाली की प्रेयसी इन्दुयशा को इन्दु के यश से पूर्ण पृथिवी अथवा द्युलोक अथवा नक्षत्र कह सकते हैं यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत संदर्भ की कथा की ध्यान पारमिता के समान ही योगवासिष्ठ में इन्दु ब्राह्मण के पुत्रों की कथा में धारणा द्वारा अपेक्षित फल की प्राप्ति कही गई है योगवासिष्ठ में इन्दु ब्राह्मण के १० पुत्र पांच ज्ञानेन्द्रियों कर्मेन्द्रियों के रूप हो सकते हैं ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में इन्दु के इन्द्रियों में क्षरित होने की कामना की गई है कथासरित्सागर में इन्दुप्रभ का प्रजा की कामना पूर्ति हेतु कल्प वृक्ष बन जाना भी इसी तथ्य को निरूपित करता है इन्दुप्रभ की दान पारमिता के संदर्भ में ऋग्वेद .९७.५५ (सं त्री पवित्रा विततान्येष्यन्वेकं धावसि पूयमानः ।) उल्लेखनीय है

प्रथम प्रकाशित : १९९४ ई.

  

संदर्भाः

उरुद्रप्सो विश्वरूप इन्दुर् इत्य् आह प्रजा वै पशव इन्दुः प्रजयैवैनम् पशुभिः समर्धयति- तैसं ३.४.१.२

इन्दुं देवा अयासिषुः इति। यजमानो वै सोमो राजेन्दुस् स्तोमा देवाः।– जै १.९०  

सीदतं स्वमु लोकं विदाने स्वासस्थे भवतमिन्दवे न इति सोमो वै राजेन्दुः सोमायैवैने एतद्राज्ञआसदे - १.२९

पात्नीवतग्रहकथनम् -- इन्दो इत्य् आह रेतो वा इन्दुः । रेत एव तद् दधाति । – तैसं ६.५.८.३

पुनराधानम् -- अथ यद्यग्नय इन्दुमते ध्रियेरन् । अग्नय इन्दुमतेऽनुब्रूहीति ब्रूयात्सोऽन्वाहेह्यू षु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः एभिर्वर्धास इन्दुभिरिति तथा हाग्नेयोभवति सोमो वा इन्दुस्तदु सौम्यादाज्यभागान्नयन्ति जुषाणो अग्निरिन्दुमानाज्यस्य वेत्विति यजत्येवमु सर्वमाग्नेयं करोति– माश २.२.३.२३,

अथ दक्षिणतो गाम् । अजस्रमिन्दुमरुषमिति सोमो वा इन्दुः स हैष सोमोऽजस्रो यद्गौः - माश ७.५.२.१९

इन्दविन्द्रपीतस्य त इन्द्रियावतो त्रिष्टुप्छन्दसः सर्वगणस्य सर्वगण उपहूत उपहूतस्य भक्षयामि सूर्यो युनक्तु वाचा स्तोमं यज्ञाय वोढवे दधात्विन्द्र इन्द्रियं सत्याः कामा यजमानस्य सन्तु स्वरोऽसि गयोऽसि जगच्छन्दा अनु त्वा रभे स्वस्ति मा सं पारया मा स्तोत्रस्य स्तोत्रं गम्यादिन्द्रवन्तो वनेमहि भक्षीमहि प्रजामिषम् इन्दविन्द्रपीतस्य त इन्द्रियावतो त्रिष्टुप्छन्दसः सर्वगणस्य सर्वगण उपहूत उपहूतस्य भक्षयामि आयुर्मे प्राणो मनोऽसि मे प्राण आयुपत्न्यामृचि यन्मे मनो यमं गतं यद्वा मे अपरागतं राज्ञा सोमेन तद्वयं पुनरस्मासु दध्नसि यन्मे यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरगास्तन्म आवर्तया पुनर्जीवातवे न मर्तवेऽथो अरिष्टतातये येनाह्याजिमजयद्विचक्ष्य येन श्येनं शकुनं सुपर्णं  यदाहुश्चक्षुरदितावनन्तं सोमो नृचक्षा मयि तद्दधातु – तां.ब्रा. १.५

बिन्दुः शिवो रजः शक्तिर्बिन्दुरिन्दू रजो रविः ॥ उभयोः सङ्गमादेव प्राप्यते परमं वपुः । - ध्यानबिन्दूपनिषत् ८८

एते असृग्रम् इन्दवः इति .....एते इत्य् एव देवान् असृजत असृग्रम् इति मनुष्यान् इन्दवः इति पितृन् तिरः पवित्रम् इति ग्रहान्  - जैब्रा १.९४

हिन्वन्ति सूरम् उस्रय स्वसारो जामयस् पतिम्।
महाम् इन्दुं महीयुवः॥ - जैब्रा ३.२३१

अथोत्तरे । इन्दुर्दक्षः श्येन ऋतावा हिरण्यपक्षः शकुनो भुरण्युरित्यमृतं वै हिरण्यममृतपक्षः शकुनो भर्तेत्येतन्महान्त्सधस्थे ध्रुव आ निषत्तो नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीरित्यात्मनः परिदां वदते- माश ९.४.४.५

यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः। इन्दुर् अश्वो न कृत्वियः॥
तं दुरोषम् अभी नरस् सोमं विश्वाच्या धिया।यज्ञाय सन्त्व् अद्रयः॥
इति। पूर्वयोर् एवैष सवनयोर् अभिसंक्रमः॥ - जै.ब्रा १.१६३

आ पवस्व महीम् इषं गोमद् इन्दो हिरण्यवत्।अश्ववत् सोम वीरवत्॥
इति गोमतीः पशुमतीर् भवन्ति पशूनाम् एवावरुद्धयै। - जै.ब्रा. ३.६०

प्र नक्षत्राय देवाय । इन्द्रा येन्दु हवामहे । स नः सविता सुवत्सनिम् । - तै.ब्रा. ३.१.३.३

 

इन्दुमती

टिप्पणी : शतपथ ब्राह्मण ...२० तथा २२..२३ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि साधक के भीतर स्थित अग्नि और इन्दु नामक सोम के मिलन से शक्ति निर्माण होता रहता है इस शक्ति को धारण करने वाली देह को इन्दुमती कहते हैं अन्य कईं ऋचाओं जैसे ऋग्वेद .५०. में ईं रूपी अग्नि द्वारा इन्दु को पवित्र करने का उल्लेख है पुराणों में इन्दुमती के एक रूप को वेश्या कहने से यह स्पष्ट होता है कि जीवात्मा इस इन्दु से प्राप्त शक्ति का व्यय क्षुद्र लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करती रहती है शतपथ ब्राह्मण ... इत्यादि की सार्वत्रिक ऋचा में अग्नि के इन्दु श्येन रूप से ध्रुव रूप में स्थित होने की कामना की गई है जो भविष्य पुराण में वर्णित अचला सप्तमी व्रत से तुलनीय है

          पुराणों में वर्णित आयु - भार्या इन्दुमती के संदर्भ में ऋग्वेद की कईं ऋचाओं जैसे .६४.१७, .६६.२३, .६७. तथा .९३. इत्यादि में आयुओं द्वारा इन्दु का मार्जन करने तथा बदले में इन्दु द्वारा आयु देने का उल्लेख है ब्राह्मण ग्रन्थों में आयु को संवत्सर कहा गया है इसके अतिरिक्त ऋग्वेद .९१. में नहुषों द्वारा इन्दु को शुद्ध करने का उल्लेख है