PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

 

इन्द्रजित् के ब्रह्मास्त्र से राम – लक्ष्मण की मूर्च्छा परन्तु हनुमान द्वारा लाई हुई ओषधियों को सूंघकर प्राप्त हुई सचेतनता के माध्यम से संस्कार रूप में विद्यमान क्रोध नामक विकार से आत्मज्ञानी मनुष्य की क्षणिक अस्वस्थता परन्तु साक्षी भाव में स्थित होकर प्रज्ञा द्वारा अवतरित आत्मगुणों की सहायता से स्वास्थ्य प्राप्ति का चित्रण

-    राधा गुप्ता

युद्धकाण्ड में अध्याय 51 से 74 के अन्तर्गत इन्द्रजित् के ब्रह्मास्त्र द्वारा राम – लक्ष्मण की मूर्च्छा एवं मूर्च्छा से मुक्ति का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है –

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

नागपाश से राम – लक्ष्मण के बन्धन – मुक्त होने का समाचार पाकर रावण अत्यन्त चिन्तित हुआ और उसने धूम्राक्ष, वज्रदंष्ट्र, अकम्पन तथा प्रहस्त को एक – एक करके वानरसेना से युद्ध हेतु भेजा। ये राक्षस वीर जब मारे गए, तब रावण स्वयं युद्धभूमि में आया परन्तु राम से परास्त होकर लंका में लौट गया। अपनी पराजय से दुःखी हुए रावण ने अब अपने भाई कुम्भकर्म को जगाया और युद्ध हेतु भेजा परन्तु वह भी युद्धस्थल में राम के द्वारा मारा गया। अब रावण ने अपने अन्य पुत्रों और भाईयों – नरान्तक, देवान्तक, त्रिशिरा, महोदर, महापार्श्व तथा अतिकाय को युद्ध के लिए भेजा परन्तु एक – एक करके वे वीर भी वानरों द्वारा मार डाले गए।

     अब इन्द्रजित् ने शोक में डूबे हुए पिता को सान्त्वना दी और युद्ध के लिए प्रस्थान किया। युद्धभूमि में पहुँचकर इन्द्रजित् ने ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया और बाणों की वर्षा करके वानर – सेना को रौंद डाला। वह अदृश्य होकर जब राम – लक्ष्मण के ऊपर सतत् बाणों की वर्षा कर रहा था, तब राम ने लक्ष्मण को परामर्श दिया कि अब उन दोनों को युद्ध न करके मूर्च्छित सी अवस्था में लेट जाना चाहिए ताकि विजयलक्ष्मी को प्राप्त हुई समझकर इन्द्रजित् लंकापुरी को लौट जाए।

     इन्द्रजित् के ब्रह्मास्त्र से बाणों की मार खाकर परन्तु ब्रह्मास्त्र का समादर करते हुए जब जब राम और लक्ष्मण धराशायी हो गए, तब सभी वानर – वीर किंकर्तव्यविमूढ होकर दुःखी हो गए परन्तु विभीषण ने कहा कि राम और लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र का समादर करते हुए ही अपने शस्त्र नहीं उठाए हैं और ये दोनों इन्द्रजित् के बाण – समूहों से केवल आच्छादित हुए हैं। अतः विषाद करने की कोई बात नहीं है। विभीषण की यह बात सुनकर हनुमान जी खडे हो गए और युद्धभूमि में घायल हुए वानर सैनिकों को देखते हुए जाम्बवान् के पास पहुँचे। जाम्बवान् ने हनुमान से कहा कि यह समय तुम्हारे पराक्रम का है। तुम बाणों से पीडित हुए राम – लक्ष्मण को स्वस्थ करो और सम्पूर्ण वानरसेना की रक्षा करो। इसके लिए तुम्हें पर्वतश्रेष्ठ हिमालय पर जाकर वहाँ विद्यमान ओषधियों – मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरनी तथा संधानी  - को लाकर सभी घायलों को प्राणदान देना चाहिए।

     हनुमान महान् वेग से युक्त थे। अतः तुरन्त हिमालय पर्वत पर पहुँच गए। परन्तु वहाँ पहुँचकर जब वे निर्दिष्ट ओषधियों को नहीं ढूंढ सके, तब पर्वत को ही उखाडकर ले आए। उन महौषधियों की सुगन्ध लेकर राम और लक्ष्मण के साथ – साथ समस्त वानर स्वस्थ हो गए। उनके शरीर से बाण निकल गए और घाव भी भर गए। अब हनुमान ने वेगपूर्वक जाकर उस पर्वत को पुनः हिमालय पर ही पहुँचा दिया।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा प्रतीकात्मक है। अतः सभी प्रतीकों को समझ लेना उपयोगी है।

1 – इन्द्रजित् – जैसा कि पूर्वलेख में लिखा जा चुका है, इन्द्रजित् नामक पात्र संस्कार रूप में विद्यमान क्रोध नामक विकार को इंगित करता प्रतीत होता है। कथा में धूम्राक्ष, वज्रदंष्ट्र तथा अकम्पन आदि के रूप में जितने भी राक्षस वीरों का नाम लिया गया है, वे भी वास्तव में मनुष्य के ही अवचेतन मन (चित्त ) में संस्कार रूप में विद्यमान नाना प्रकार के विकार हैं जो एक – एक करके अवचेतन मन से बाहर निकलते हैं परन्तु आत्मज्ञान में स्थित हुए मनुष्य की ज्ञानशक्तियों (जिन्हें कथा में वानर रूप में प्रस्तुत किया गया है) द्वारा सहज रूप से विनष्ट कर दिए जाते हैं। कुम्भकर्ण के रूप में चित्रित मोह जैसा विकार भी आत्मज्ञान के समक्ष टिक नहीं पाता और विनष्ट हो जाता है। परन्तु क्रोध एक ऐसा प्रबल विकार है जो सतत् रूप से आत्मज्ञान को बांधने और विनष्ट करने का यथासम्भव प्रयास करता है। यह बात अलग है कि आत्मज्ञान की शक्ति के समक्ष यह क्रोध जैसा प्रबल विकार भी टिक नहीं पाता और विनाश को प्राप्त हो जाता है।

2 – ब्रह्मास्त्र – ब्रह्मास्त्र का शाब्दिक अर्थ है – ब्रह्मा द्वारा दिया गया अथवा ब्रह्मा से प्राप्त हुआ अस्त्र विशेष। क्रोध के संदर्भ में यह ब्रह्मास्त्र सम्मोह (मूढता) रूपी अस्त्र को इंगित करता प्रतीत होता है क्योंकि क्रोध को प्राप्त हुआ यह सम्मोह (मूढता) रूपी अस्त्र इतना प्रबल होता है कि इसके प्रभाव में आकर न केवल मनुष्य की ज्ञानशक्तियाँ (जिन्हें कथा में वानरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है) शिथिल होने लगती हैं, अपितु स्वयं मनुष्य की जाग्रता भी (जिन्हें कथा में राम – लक्ष्मण के रूप में प्रस्तुत किया गया है) प्रभावित होने लगती हैं। क्रोध में मनुष्य ऐसा मूढवत् व्यवहार करता है कि उसमें सही – गलत की पहचान नहीं रहती और यह ज्ञान भी विलुप्त हो जाता है कि क्रोध करके वह वास्तव में अपनी ही ऊर्जा को विनष्ट कर रहा है। क्रोध की स्थिति में शरीर की ग्रन्थियाँ कार्टिसोल एवं एड्रीनेलिन नामक ऐसे विषों को भी बाहर निकालने लगती हैं जो मनुष्य के शरीर को बहुत हानि पहुँचाते हैं। इसीलिए रामकथा में एक स्थान पर (युद्धकाण्ड, अध्याय 90, श्लोक 83 – 88) कहा गया है कि इन्द्रजित् के मर जाने पर संसार की पीडा समाप्त हो गई। महर्षियों, देवताओं, गन्धर्वों और अप्सराओं को प्रसन्नता हुई। जल स्वच्छ हो गया और आकाश निर्मल हो गया।

3- ब्रह्मास्त्र का प्रहार होने पर राम का अस्त्र न उठाना अपितु लक्ष्मण के साथ चुपचाप धरा पर लेट जाना – प्रस्तुत कथन के द्वारा यह महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है कि सामान्य मनुष्य अज्ञानवश जहाँ अपने ही भीतर उत्पन्न सम्मोह (मूढता) के साथ संघर्ष करने लगता है, वहीं आत्मस्वरूप में स्थित हुआ मनुष्य (राम) क्रोधवश उठे हुए सम्मोह (मूढता) का तुरन्त साक्षी हो जाता है अर्थात् वह क्रोध से उठे हुए सम्मोह (मूढता ) को ध्यानपूर्वक देखता है परन्तु उसमें उलझता नहीं है। कथा संकेत करती है कि उठे हुए क्रोध और सम्मोह (मूढता) के प्रति कोई संघर्ष न कर केवल साक्षी हो जाने से भी वह क्रोध चुपचाप चला जाता है, जिसे कथा में राम और लक्ष्मण के धराशायी हो जाने पर इन्द्रजित् के लंकापुरी में लौट जाने के रूप में चित्रित किया गया है।

4 – विभीषण – रामकथा में विभीषण नामक पात्र सात्विक गुण (सात्विक मन अथवा सात्विक वृत्ति) को संकेतित करता प्रतीत होता है। अपने आपको शरीर समझते हुए अर्थात् देहाभिमान में रहते हुए भी यह सात्विक गुण मनुष्य के भीतर विद्यमान रहता ही है। अन्तर केवल इतना होता है कि देहाभिमान में रहते हुए तमस की प्रबलता होने से जहाँ यह सात्विक गुण विद्यमान होते हुए भी दबा हुआ होने के कारण सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता (जिसे कथा में रावण द्वारा विभीषण के तिरस्कार के रूप में दर्शाया गया है), वहीं आत्माभिमान(आत्मज्ञान) में स्थित होने पर यही सात्विक गुण न केवल सम्मानित होता है, अपितु तमस के विनाश हेतु मनुष्य का यथोयोग्य दिशा – निर्देशन भी करता है। इन्द्रजित् के विनाश हेतु विभीषण द्वारा दिए गए मार्गदर्शन के रूप में इसी तथ्य को संकेतित किया गया है।

5 – जाम्बवान् – जाम्बवान् शब्द (जाम्ब – जम्ब – जम – यमनियम – वान्) का अर्थ है – यम – नियम आदि से सम्पन्न मन। आधुनिक भाषा में यह यम – नियम आत्म – अनुशासन को ही संकेतित करता प्रतीत होता है। इन्द्रजित् के विनाश में जाम्बवान् नामक पात्र को सहायक के रूप में उपस्थित करके यह संकेतित किया गया है कि क्रोध रूप विकार को समाप्त करने में मनुष्य का आत्म – अनुशासन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्रोध को क्रोध के द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता। अतः क्रोध के उद्दीपन के रूप में सामने आई हुई परिस्थिति अथवा व्यक्ति चाहे कैसे भी विषम हों, मनुष्य का अपना सभ्य आचरण (आत्म – अनुशासन) भी क्रोध के विनाश में सहयोगी हो जाता है। किसी के असभ्य आचरण के प्रत्युत्तरस्वरूप यदि क्रोध ही किया जाएगा, तब वह क्रोध क्रोध की अग्नि को अधिकाधिक रूप से प्रज्वलित ही करेगा, जबकि इसके विपरीत प्रयत्नपूर्वक धारण की गई शान्ति से क्रोध को निश्चित रूप से कमजोर किया जा सकेगा। यही नहीं, आत्म – अनुशासन में रहने पर बुद्धि रूपी द्वार खुला रहता है और मनुष्य आगत समस्या के समाधान की ओर प्रवृत्त होता है। जाम्बवान् द्वारा हनुमान को दिया गया ओषधि लाने का परामर्श आत्म – अनुशासन की इसी विशेषता को संकेतित करता है।

6 – हनुमान द्वारा हिमालय पर्वत से ओषधियों को लाना और ओषधियों की गन्ध से राम – लक्ष्मण का सचेत हो जाना – प्रस्तुत कथन के तात्पर्य को समझने के लिए हनुमान, हिमालय पर्वत तथा ओषधि को पृथक् – पृथक् रूप में समझना उपयोगी होगा।

1.     हनुमान – अपने वास्तविक स्वरूप आत्मस्वरूप में स्थित हुए (आत्मज्ञानी) मनुष्य की अपनी ही प्रज्ञा को रामकथा में हनुमान नामक पात्र के रूप में प्रदर्शित किया गया है। प्रज्ञाशक्ति वह शक्ति जो प्राप्त हुए ज्ञान को ज्ञान तक सीमित न रखकर उसे आचरण में उतार देती है। अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि ज्ञान और आचरण का समन्वित स्वरूप ही प्रज्ञा है।

2.     हिमालय पर्वत – हिमालय पर्वत आत्मस्वरूप में स्थित हुए मनुष्य के शुद्ध, शान्त, स्थिर मन को इंगित करता है।

3.     ओषधि – इस शुद्ध, शान्त, स्थिर मन के भीतर ही यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है कि मैं एक अजर – अमर – अविनाशी चैतन्य शक्ति आत्मा हूँ और सुख – शान्ति – शक्ति – शुद्धता – ज्ञान – प्रेम तथा आनन्द आदि गुणों से सदैव भरपूर हूँ अर्थात् सुख – शान्ति – प्रेम – आनन्द आदि उपर्युक्त गुणों को कहीं बाहर से प्राप्त नहीं करना है। ये सब गुण मुझ आत्मा का स्वभाव हैं, स्वरूप हैं। अध्यात्म के स्तर पर इस ज्ञान को ही महान् ओषधि के रूप में व्यक्त किया गया है क्योंकि जैसे कोई भौतिक ओषधि मनुष्य के रोगयुक्त भौतिक शरीर को रोगमुक्त कर देती है, वैसे ही यह ज्ञान रूप ओषधि भी मन – बुद्धि के स्तर पर प्रकट हुए काम – क्रोध – लोभ – मोह – मद – मत्सर – राग – द्वेष – ईर्ष्या आदि सभी विकार रूप रोगों से मनुष्य को मुक्त कर देती है। यही नहीं, मन का प्रभाव मनुष्य के स्थूल शरीर पर भी पडता ही है और मन के रोग मुक्त होने पर शरीर भी रोगमुक्त हो जाता है। अतः इस ज्ञान रूप महौषधि को तन और मन दोनों की ही महान् ओषधि कहा गया है।

हनुमान द्वारा लाई हुई ओषधियों को मृतसंजीवनी (मृत को भी जीवित करने वाली अर्थात् नूतन उत्साह का संचार करने वाली), विशल्यकरणी (पीडा मुक्त करने वाली), सुवर्णकरणी (स्वर्णवत् शुद्ध और शक्तिशाली बनाने वाली) और संधानी (परमात्मप्राप्ति रूप लक्ष्य – सन्धान की ओर अग्रसर करने वाली) नाम देकर यह संकेत किया गया प्रतीत होता है कि संस्कार रूप में विद्यमान हुए अपने ही किसी विकार से जब आत्मज्ञानी मनुष्य भी किसी समय क्षणिक रूप से पीडित हो जाता है, तब अपनी ही प्रज्ञा (हनुमान) के सहारे वह अपने ही गुणों (आत्मगुणों) को तुरन्त आचरण में लाकर न केवल उस विकार से प्राप्त हुई पीडा से तुरन्त मुक्त हो जाता है, अपितु आत्मगुणों का स्मरण एवं आचरण उसमें नूतन उत्साह का संचार करके और उसे अधिक शुद्ध एवं शक्तिशाली बनाकर सर्वात्मस्वरूपता अथवा परमात्म – प्राप्ति रूप लक्ष्य की ओर अग्रसर कर देता है।

7- हनुमान द्वारा ओषधि पर्वत को पुन- हिमालय पर पहुँचा देना – चूंकि हिमालय पर्वत शुद्ध, शान्त, स्थिर मन को और ओषधि पर्वत उस मन में विद्यमान सुख – शान्ति – शक्ति – शुद्धता – ज्ञान – प्रेम तथा आनन्द प्रभृति आत्मगुणों को इंगित करता है, अतः यहाँ यह महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है कि स्वस्वरूप में स्थित (आत्मज्ञानी) मनुष्य के अपने ही शुद्ध, शान्त, स्थिर मन में जो आत्मगुण सदा विद्यमान रहते हैं, उन्हें ही मनुष्य प्रज्ञाशक्ति द्वारा जब चाहे आवश्यकता के आधार पर व्यवहार में लाकर प्राप्त हुए विकार के प्रभाव से स्वयं को शीघ्र ही मुक्त कर लेता है। आवश्यकता न होने की स्थिति में वे सब गुण पुनः पूर्ववत् शुद्ध, शान्त, स्थिर मन में विद्यमान हो जाते हैं क्योंकि वही मन उनका मूल आश्रय स्थान है।

कथा का तात्पर्य

जन्मों – जन्मों से शरीर चेतना (अर्थात् मैं शरीर हूँ – ऐसा समझते हुए जीवन जीना) में रहने के कारण मनुष्य अपनी भूमिकाओं, पदों अथवा अपने सम्बन्ध में निर्मित किए हुए विविध प्रकार के रूपों से इतनी सघनता से जुड जाता है कि उन्हें ही अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगता है। फिर यही सघन जुडाव उसे अनेक प्रकार की आशाओं, अपेक्षाओं, आकांक्षाओं, कामनाओं अथवा वासनाओं से युक्त कर देता है और यही आशाएँ, अपेक्षाएं अथवा कामनाएं जब पूरी नहीं होती, तब वह क्रोध नामक विकार से युक्त हो जाता है। शनै- शनैः यही क्रोध संस्कार बनकर अवचेतन मन (चित्त) में इकठ्ठा हो जाता है और यथासमय प्रस्फुटित होकर मनुष्य को बहुत हानि पहुँचाता है। इन्द्रजित् नामक पात्र के माध्यम से अवचेतन मन से निकले हुए इस क्रोध रूप विकार का ही रामकथा में अनेक प्रकार से चित्रण किया गया है।

  प्रस्तुत कथा संकेत करती है कि संस्कार रूप में विद्यमान हुआ यह क्रोध अपने सम्मोह (मूढता) रूप अस्त्र के सहारे (जिसे कथा में ब्रह्मास्त्र नाम दिया गया है) आत्मस्वरूप में स्थित हुए मनुष्य को भी वशीभूत करने का यथासम्भव प्रयास करता है और कभी न कभी क्षण भर के लिए वशीभूत कर भी लेता है परन्तु आत्मज्ञानी मनुष्य कभी तो उस क्रोध का साक्षी होकर क्रोध के प्रभाव से शीघ्र मुक्त हो जाता है (जिसे कथा में राम – लक्ष्मण के धराशायी होने और इन्द्रजित् के लंकापुरी में भाग जाने के रूप में दर्शाया गया है) अथवा कभी अपनी ही प्रज्ञा के सहारे उन आत्मगुणों का त्वरित रूप से उपयोग कर लेता है जो उसी के शुद्ध, शान्त, स्थिर मन में सदा विद्यमान होते हैं। प्रज्ञा द्वारा आत्मगुणों के स्मरण और उपयोग को ही कथा में हनुमान द्वारा लाई गई ओषधियों के रूप में चित्रित किया गया है। मनुष्य की सात्विकता और आत्म – अनुशासन भी क्रोध से मुक्ति में उसकी सहायता करते हैं जिसे कथा में विभीषण और जाम्बवान् नामक पात्रों द्वारा प्रदत्त सहायता के रूप में दर्शाया गया है।

  कहने का तात्पर्य यह है कि सामान्य मनुष्य जहाँ संस्कार रूप धारण कर चुके अपने ही क्रोध के आधीन होकर असहाय और पीडित बना रहता है, वहीं आत्मस्वरूप में स्थित हुआ मनुष्य संस्कार रूप धारण कर चुके अपने ही क्रोध से कभी तो साक्षी होकर मुक्त हो जाता है और कभी आत्मगुणों को उपयोग में लाकर स्वस्थ हो जाता है।

लेखन – 2-10-2015ई.(आश्विन् कृष्ण पञ्चमी, विक्रम संवत् 2072)

इन्द्रजित् – वध के माध्यम से क्रोध के विनाश का चित्रण

-    राधा गुप्ता

युद्धकाण्ड (अध्याय 80 से 90 तक) में इन्द्रजित् के वध का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है –

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

     सुग्रीव की आज्ञा से वानरवीरों ने जब पुनः लंकापुरी पर आक्रमण किया, तब रावण ने कुम्भ – निकुम्भ, यूपाक्ष, शोणिताक्ष, प्रजंघ तथा कम्पन को युद्ध के लिए भेजा परन्तु वानरवीरों द्वारा उन सभी का वध कर दिया गया। रावण की आज्ञा से मकराक्ष भी युद्ध के लिए निकला परन्तु राम ने मकराक्ष का भी वध कर दिया। वीरों के वध से कुपित हुए रावण ने अब इन्द्रजित् को युद्ध के लिए जाने की आज्ञा दी। इन्द्रजित् ने मायामयी सीता का निर्माण किया तथा उसे रथ पर बैठाकर वह युद्धस्थल में आया। वहाँ उसने जब मायामयी सीता का वध कर दिया, तब उस वध को सीता का वध समझकर राम, लक्ष्मण तथा समस्त वानर शोकमग्न हो गए परन्तु विभीषण ने सीता के जीवित होने के प्रति सबको आश्वस्त किया क्योंकि वे इन्द्रजित् की माया का रहस्य जानते थे। विभीषण ने कहा कि इस समय इन्द्रजित् निकुम्भिला मन्दिर में वटवृक्ष के नीचे पहुँचकर होम करेगा और होम को पूरा करके जब वह पुनः युद्धभूमि में आएगा, तब किसी के लिए भी उसे देखना और मारना असम्भव हो जाएगा। अतः इन्द्रजित् को मारने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक होगा कि उसे तत्काल उस होमकर्म से हटा दिया जाए। विभीषण के अनुरोध पर राम ने इन्द्रजित् के वध के लिए लक्ष्मण को जाने की आज्ञा दी और लक्ष्मण सेना सहित सुग्रीव, हनुमान तथा जाम्बवान को साथ लेकर निकुम्भिला मन्दिर के निकट पहुँच गए।

     इन्द्रजित् बडा ही मायावी, अधर्मी, क्रूर कर्म करने वाला और सम्पूर्ण लोकों के लिए भयंकर था। अतः इन्द्रजित् के वध की प्रबल इच्छा से जब लक्ष्मण हनुमान की पीठ पर आरूढ हो गए, तब दोनों में महाभयंकर संग्राम हुआ। इन्द्रजित् के सारथी और घोडे मार डाले गए। परन्तु इन्द्रजित् दूसरे रथ पर आरूढ होकर पुनः युद्धस्थल में आ पहुँचा। लक्ष्मण द्वारा सारथी के और विभीषण द्वारा घोडों के पुनः मारे जाने पर भी इन्द्रजित् भयंकर युद्ध करता रहा। अन्ततः लक्ष्मण ने ऐन्द्रास्त्र नामक बाण को चलाकर इन्द्रजित् का मस्तक धड से अलग कर दिया। इन्द्रजित् के धराशायी हो जाने पर सारे संसार की अधिकांश पीडा नष्ट हो गई। ऋषि, पितर, देवता, गन्धर्व, अप्सराएँ – सभी प्रसन्न हो उठे। जल स्वच्छ हो गया और आकाश भी निर्मल दिखाई देने लगा।

कथा की प्रतीकात्मकता एवं तात्पर्य

प्रस्तुत कथा के माध्यम से क्रोध के स्वरूप, उद्गम एवं विनाश के उपायों का चित्रण निम्नलिखित रूप में किया गया है –

1-    क्रोध का स्वरूप – इन्द्रजित् द्वारा मायामयी सीता का निर्माण और वध कहकर वास्तव में क्रोध रूप विकार के उस तीक्ष्ण स्वरूप की ओर संकेत किया गया है जो क्रोध के विनाश के लिए प्रमुख रूप से कारणभूत हो जाता है। आत्मस्वरूप में स्थित हुए मनुष्य की सबसे बडी शक्ति है – उसकी पवित्र सोच जिसे रामकथा में सीता नामक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सोच के पवित्र होने पर वचन और कर्म स्वयमेव पवित्र हो जाते हैं। परन्तु क्रोध के वशीभूत हुआ आत्मज्ञानी मनुष्य जब इस पवित्र सोच को ही किसी अपवित्र सोच से ढक देता है, तब अपवित्र सोच से ढक जाने के कारण पवित्र सोच का वध हुआ समझकर आत्मज्ञानी मनुष्य दुःखी हो जाता है। उदाहरण के लिए, क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य जब कभी ऐसा सोच लेता है कि मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं अथवा मुझसे कभी बात मत करना आदि – आदि, तब वह मानो मायामयी सीता (अपवित्र सोच) का ही निर्माण करता है क्योंकि उसकी वह सोच सत्य नहीं होती और क्षणभर बाद वह स्वयं ही उस असत्य सोच का वध भी कर देता है। क्रोध के आधीन होकर इस प्रकार से असत्य सोच के निर्माण और वध से आत्मज्ञानी मनुष्य निश्चित् रूप से दुःखी हो जाता है और क्रोध के समूल विनाश के लिए तत्पर भी।

2-    क्रोध का मूल उद्गम आशाएँ, अपेक्षाएँ अथवा कामनाएँ हैं –

क्रोध के मूल उद्गम का संकेत करते हुए कथा में कहा गया है कि क्रोध का मूल उद्गम मनुष्य की अपनी ही आशाएँ, अपेक्षाएँ अथवा कामनाएँ हैं जो पूर्ण न होने की स्थिति में क्रोध को उत्पन्न करती हैं। इन आशाओँ, अपेक्षाओँ अथवा कामनाओँ को ही कथा में वटवृक्ष कहकर संकेतित किया गया है। जैसे वट वृक्ष की शाखाएँ पृथिवी में घुसकर मूलस्वरूप (जडरूप) हो जाती हैं, उसी प्रकार आशाएँ, अपेक्षाएँ, कामनाएँ भी मन – बुद्धि रूपी पृथिवी में घुसकर मूलस्वरूप को धारण कर लेती हैं। और फिर उन्हें आसानी से काटना सम्भव नहीं हो पाता।

  शरीर के अभिमान में रहकर अनेक प्रकार की भूमिकाओं अथवा पदों का निर्वाह करते हुए जब मनुष्य उन्हें ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है, तब नाना प्रकार की आशाओं, अपेक्षाओँ अथवा कामनाओं से संयुक्त हो जाता है। उन आशाओं, अपेक्षाओं अथवा कामनाओं की बार – बार और निरन्तर आवृत्ति उन्हें मजबूत बना देती है और फिर उनके पूर्ण न होने पर मनुष्य को क्रोध आ जाता है। वटवृक्ष के नीचे इन्द्रजित् के होमकर्म के रूप में इसी तथ्य को संकेतित किया गया है।

  इन्द्रजित् को होमकर्म से हटाने की अनिवार्यता कहकर यह संकेत किया गया है कि आशाओं, अपेक्षाओं अथवा कामनाओं की अपूर्ति से उत्पन्न होने वाले क्रोध को संस्कार (आदत) बनने से पहले ही समाप्त कर देना चाहिए। एक बार संस्कार बन जाने पर फिर इसका विनाश करना अत्यन्त कठिन हो जाता है।

  कथा में निकुम्भिला मन्दिर के रूप में यह संकेत किया गया है कि शरीर के अभिमान में रहने वाला मनुष्य नाना प्रकार की आशाओं, अपेक्षाओं अथवा कामनाओं के भीतर इतना अधिक उलझ जाता है कि उसे यह पता ही नहीं चल पाता कि क्रोध नामक विकार कब और कैसे चुपचाप उसके अपने मन के भीतर घुस चुका है। निकुम्भिला शब्द नि उपसर्ग पूर्वक कुम्भिल शब्द के योग से बना है। मन्दिर शब्द मन का वाचक है और कुम्भिल का अर्थ है – सेंध लगाकर घर में घुसने वाला चोर। अतः नि उपसर्ग का योग होने पर निकुम्भिला मन्दिर का अर्थ हो जाता है – सेंध लगाकर मन रूपी घर में घुस जाने वाला क्रोध रूपी विशिष्ट चोर।

3-    क्रोध के विनाश के लिए स्वयं के उत्तरदायित्व रूप लक्ष्मण की अनिवार्यता –

क्रोध के विनाश में सबसे बडी बाधा है – क्रोध के लिए स्वयं को जिम्मेदार न मानकर दूसरों को ही जिम्मेदार ठहराना। अपने क्रोध के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानकर क्रोध को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता। अतः मनुष्य के लिए यह समझना आवश्यक हो जाता है कि परिस्थिति अथवा कोई व्यक्ति क्रोध की उत्पत्ति में उद्दीपन रूप तो हो सकता है, परन्तु क्रोध की उत्पत्ति वह स्वयं ही करता है क्योंकि वही अपने प्रत्येक विचार का निर्माता है। कोई भी मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य के मन के भीतर घुसकर उसके विचारों का निर्माण नहीं करता है। अतः क्रोध की उत्पत्ति के लिए स्वयं को जिम्मेदार मान लेने पर क्रोध को विनष्ट करना बहुत सरल हो जाता है क्योंकि अब वह अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहे, जितनी देर बाद चाहे, अपने ही शान्ति रूप शस्त्र का उपयोग करके स्वयं को क्रोध से मुक्त कर सकता है। इसी तथ्य को कथा में लक्ष्मण द्वारा ऐन्द्रास्त्र की सहायता से इन्द्रजित् के वध के रूप में संकेतित किया गया है।

     लक्ष्मण का अर्थ है  - आत्मस्वरूप में स्थित हुए मनुष्य का इस ज्ञान में स्थित होना कि मैं आत्मा ही मन रूप होकर अपने प्रत्येक विचार का निर्माता और नियन्ता हूँ, अतः जिस समय जैसा जाहूँ, वैसा विचार रच सकता हूँ। स्वयं को अपने प्रत्येक विचार का निर्माता जानने वाला मनुष्य ही इस उत्तरदायित्व का वहन करने में समर्थ होता है कि क्रोध रूप विचार का निर्माण भी मैंने ही किया है और अब विनाश भी मैं ही कर सकता हूँ।

4-    क्रोध के विनाश के लिए ज्ञान रूप सुग्रीव की आवश्यकता –

चूंकि अपनी ही आशाएँ, अपेक्षाएँ अथवा कामनाएँ पूर्ण न होने की स्थिति में क्रोध को उत्पन्न करती हैं, अतः आशाओं, अपेक्षाओं, कामनाओं से अलिप्त होने के लिए ज्ञान में स्थित होना आवश्यक है अर्थात् यह जानना – समझना अति महत्त्वपूर्ण है कि आत्मा के तल पर सभी मनुष्य एक समान होते हुए भी शरीर के तल पर कोई भी एक समान नहीं है। संस्कारों की भिन्नता के कारण प्रत्येक मनुष्य की सोच, उसका वचन अथवा उसका कर्म (मन – वचन – कर्म) बिल्कुल अलग – अलग होता है। परन्तु अज्ञानता के कारण इस भिन्नता को ध्यान में न रखते हुए जब मनुष्य इस आशा, अपेक्षा अथवा कामना में जीने लगता है कि दूसरा मनुय वैसा ही सोचे, बोले अथवा करे जैसा मैं सोचता हूँ, बोलता हूँ अथवा करता हूँ, तब ही मन में क्रोध का आगमन होता है क्योंकि आशा, अपेक्षा पूरी नहीं होने पर पहले तो वह भीतर ही भीतर चिडचिडेपन के अधीन होता है और फिर धीरे – धीरे क्रोध से युक्त हो जाता है। अतः ज्ञान का अभाव जहाँ क्रोध की उत्पत्ति में कारणभूत हो जाता है, वहीं ज्ञान की उपस्थिति क्रोध के विनाश में सहायक भी हो जाती है। इन्द्जित् के विनाश में सुग्रीव नामक पात्र के सहायक होने के रूप में इसी तथ्य को संकेतित किया गया है।

5 – क्रोध के विनाश के लिए ज्ञान और आचरण के समन्वय रूप हनुमान की  आवश्यकता –

क्रोध के विनाश में केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं है। ज्ञान और आचरण का समन्वय भी आवश्यक है। कथा संकेत करती है कि मनुष्य की समझ कितनी भी श्रेष्ठ हो परन्तु इस श्रेष्ठ समझ को जब तक मनुष्य व्यवहार में या आचरण में नहीं लाता, तब तक उस श्रेष्ठ समझ से अपेक्षित परिणाम की आशा नहीं की जा सकती। अथवा यह कहना अधिक उचित होगा कि आचरण में लाए बिना श्रेष्ठ ज्ञान अथवा समझ का कुछ भी परिणाम नहीं आता। मनुष्य की जो प्रज्ञा ज्ञान की एक – एक बूंद को आचरण में उतारती है, उसी प्रज्ञा को रामकथा में हनुमान नामक पात्र के रूप में चित्रित किया गया है। क्रोध रूप विकार के विनाश में ज्ञान (सुग्रीव) जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही मह्त्त्वपूर्ण है – उस ज्ञान को व्यवहार में लाने वाली अपनी प्रज्ञा अर्थात् हनुमान । इसीलिए कथा में इन्द्रजित् के विनाश में हनुमान नामक पात्र को भी एक सहयोगी के रूप में दर्शाया गया है।

6-    क्रोध के विनाश के लिए आत्म-अनुशासन रूप जाम्बवान् की आवश्यकता –

जैसा कि पूर्व लेख में स्पष्ट किया जा चुका है, जाम्बवान् नामक पात्र आत्म-अनुशासन को संकेतित करता है। इन्द्रजित् रूप क्रोध के विनाश में जाम्बवान् नामक पात्र को सहायक के रूप में उपस्थित करके यह संकेत किया गया है कि क्रोध रूप विकार को समाप्त करने में मनुष्य का आत्म – अनुशासन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उद्दीपन के रूप में सामने आई हुई परिस्थिति अथा व्यक्ति चाहे कैसे भी विषम हों, मनुष्य का अपना सभ्य आचरण भी क्रोध के विनाश में सहयोगी हो जाता है। किसी के असभ्य आचरण के प्रत्युत्तरस्वरूप यदि क्रोध ही किया जाएगा, तब वह क्रोध क्रोध की अग्नि को अधिकाधिक रूप से प्रज्वलित ही करेगा। जबकि इसके विपरीत प्रयत्नपूर्वक धारण की गई शान्ति से क्रोध को निश्चितरूपेण कमजोर किया जा सकेगा।

7-    क्रोध के विनाश के लिए सात्त्विक गुण या मन रूप विभीषण की आवश्यकता –

रामकथा में विभीषण नामक पात्र को सात्विक गुण (मन) के प्रतिनिधि रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह सात्विक गुण मनुष्य के मन में देहाभिमान की अवस्था में भी विद्यमान होता है और आत्माभिमान (आत्मज्ञान) की अवस्था में भी। देहाभिमान की अवस्था में विद्यमान यह सात्विक गुण रजस तथा तमस गुणों के सम्बन्ध – सम्पर्क में रहता ही है और इसी साहचर्य के कारण यह तसम को तथा तमस से उत्पन्न हुए क्रोध के स्वभाव को भलीभांति पहचानता है। क्रोध की अवस्था में यही सात्विक गुण यथायोग्य दिशानिर्देश देकर मनुष्य की सहायता करता है। विभीषण द्वारा इन्द्रजित् को वटवृक्ष के नीचे पहुँचकर होम न करने देने के निर्देश के रूप में इसी तथ्य को व्यक्त किया गया है।

8-    क्रोध के विनाश के लिए मान्यताओं के विनाश की आवश्यकता –

अवचेतन मन में विद्यमान अनेक मान्यताएं भी क्रोध के विनाश में बाधकस्वरूप होती हैं। अतः उनका विनाश भी अनिवार्य हो जाता है। कथा संकेत करती है कि अवचेतन मन के भीतर विद्यमान यह मान्यता कि अमुक – अमुक स्थिति में क्रोध का आना सहज और स्वाभाविक है, क्रोध जैसे विकार को कभी मरने नहीं देती। क्रोध को सहज और स्वाभाविक कहकर मनुष्य न केवल क्रोध रूप विकार को उचित ठहरा देता है, अपितु प्रत्येक परिस्थिति में शान्त रहने की सम्भावना को भी विनष्ट कर देता है। चूंकि यह मान्यता क्रोध को बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है, इसलिए इसे कथा में इन्द्रजित् के रथ के सारथि के रूप में चित्रित किया गया है।

     इसी प्रकार मनुष्य के अवचेतन मन में ये मान्यताएं भी अत्यन्त दृढीभूत रूप से विद्यमान हो गई हैं कि क्रोध से ही काम होता है, क्रोध करने से काम जल्दी होता है, क्रोध से लोग डरते हैं अथवा क्रोध से लोग वश में रहते हैं। ये मान्यताएं भी क्रोध को बचाती हैं, कभी मनरने नहीं देती। इन्द्रजित् के रथ में जुते हुए चार घोडों के रूप में इन्हीं मान्यताओं की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है और इनको (रथ के सारथि और घोडों को) मारना भी इन्द्रजित् रूप क्रोध के विनाश में सहयोगी हो जाता है। क्रोध एक नकारात्मक ऊर्जा है जो कभी भी सकारात्मक परिणाम नहीं ला सकती। अतः क्रोध के विनाश के लिए इन सभी मान्यताओं से स्वयं को मुक्त करना आवश्यक है।

प्रथम लेखन –  5-10-2015ई.(आश्विन् कृष्ण अष्टमी, विक्रम संवत् 2072)