PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

The Power of Acceptance through the story of Ila and Sudyumna

-         Radha Gupta

 

By living in soul consciousness, a person develops many qualities in his personality. He becomes introspective, fearless and courageous. He neither hurts nor gets hurt as a result of thoughtfulness. He cultivates leadership, being directed by his own higher self. He creates his destiny and always focuses on his goal. Such person and his qualities are symbolized as Vaivaswat Manu and his ten sons.

     But the story tells that there are two layers of personality – inner and outer. A person living in soul consciousness first acquires the power of acceptance on the inner level which increases his capability a lot. Then the above qualities manifest on the outer layer of personality. This power of acceptance and capability lying on the inner layer of personality are told as the daughter and son of Vaivasvat Manu symbolized as Ila and Sudyumna in the story.

     The story describes four aspects of Ila’s (power of acceptance) origination. First, a person possesses a powerful consciousness which always travels upwards. Second, his higher consciousness creates in him a thought of oneness and accuracy of this universe. Third, he has full faith in above thought and fourth, he has a strong desire for the power of acceptance. These four aspects joined together produce in him the power of acceptance named as Ila in the story. As this power enhances one’s capability, it is said as Sudyumna in the story.

     The story further tells that in the beginning, power of acceptance remains relatively weak as it depends upon faith and beliefs. But as soon as a capable person proceeds ahead, his faith and beliefs transform into experience and this experience makes his power of acceptance strong. This strong power of acceptance is symbolized as a woman in the story.

     The story also indicates the importance of this power. It says that this power of acceptance (woman or Ila) joined with knowledge produces intuition or the voice of inner self(Atma) symbolized as the birth of Pururava. As this power of Acceptance lies on the inner layer of personality, a capable person frequently travels on this layer and gives a better output on the outer layer of personality. This is symbolized as the ever changing forms of Sudyumna as man and woman.

First published : 9-5-2010 AD( Vaishaakha krishna ekaadashi, Vikrami samvat 2067)

इला/सुद्युम्न की कथा के माध्यम से स्वीकार भाव के उद्भव एवं महत्त्व का निरूपण

-         राधा गुप्ता

भागवत महापुराण में नवम स्कन्ध के प्रथम अध्याय में वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा गूढ रूप में वर्णित है और स्वीकार भाव के आविर्भाव एवं महत्त्व को प्रतिपादित करती है । सर्वप्रथम कथा के स्वरूप को जान लेना उपयोगी है ।

कथा का स्वरूप

     कथा में कहा गया है कि पिछले कल्प के अन्त में द्रविड देश के अधिपति राजर्षि सत्यव्रत ही ज्ञान – विज्ञान से संयुक्त होने पर नूतन कल्प में वैवस्वत मनु हुए । पुनः कहा गया है कि अदिति से विवस्वान् का जन्म हुआ और विवस्वान् की संज्ञा नामक पत्नी से श्राद्धदेव मनु(वैवस्वत मनु) का जन्म हुआ । राजा श्राद्धदेव ने अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किए , जिनके नाम थे – इक्ष्वाकु, नरिष्यन्त, धृष्ट, करूष, नृग, कवि, पृषध्र, दिष्ट, नभग और शर्याति ।

     वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे । उस समय वसिष्ठ ने उन्हें सन्तान प्राप्ति कराने के लिए मित्रावरुण का यज्ञ कराया था । उस यज्ञ में मनु- पत्नी श्रद्धा ने होता से याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो । अतः तदनुसार आहुति के फलस्वरूप यज्ञ से इला नाम की कन्या प्राप्त हुई । वैवस्वत मनु का मन इससे विशेष प्रसन्न नहीं हुआ और उन्होंने वसिष्ठ जी से उसका कारण पूछा । वसिष्ठ जी ने होता के विपरीत संकल्प को जानकर वैवस्वत मनु को पुत्र प्रदान करने के लिए श्रीहरि की आराधना की, जिसके प्रभाव से वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गई ।

     एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलने के लिए सिन्धु देश के घोडे पर सवार होकर कुछ मन्त्रियों के साथ वन में गए और उत्तर दिशा में बहुत आगे बढते हुए मेरु पर्वत की तलहटी के उस वन में पहुंच गए जहां भगवान् शिव पार्वती जी के साथ विहार करते हैं । उस वन में पहुंचते ही सुद्युम्न स्त्री हो गए , उनका घोडा घोडी हो गया और सब अनुचर भी स्वयं को स्त्री रूप में देखने लगे ।

     अब स्त्री बने हुए सुद्युम्न एक वन से दूसरे वन में विचरने लगे । उसी समय चन्द्र – पुत्र बुध ने अपने आश्रम के पास ही विचरती हुई उस स्त्री(सुद्युम्न) को देखा और दोनों परस्पर अनुराग युक्त हो गए । बुध ने पत्नी रूप उस स्त्री के गर्भ से पुरूरवा को उत्पन्न किया ।

     स्त्री बने हुए सुद्युम्न ने पुनः अपने कुलपुरोहित वसिष्ठ जी का स्मरण किया । वसिष्ठ ने भगवान् शिव की आराधना की और शिव ने कहा कि वसिष्ठ ! तुम्हारा यह यजमान एक महीने पुरुष तथा एक महीने स्त्री रहकर पृथ्वी का पालन करे ।

     सुद्युम्न के तीन पुत्र थे – उत्कल, गय और विमल । बहुत दिनों के बाद वृद्धावस्था आने पर प्रतिष्ठान नगरी के अधिपति सुद्युम्न अपने पुत्र पुरूरवा को राज्य देकर तप हेतु वन में चले गए । सुद्युम्न के वन में चले जाने पर वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से यमुना के तट पर सौ वर्ष तक तप किया और अपने ही समान इक्ष्वाकु प्रभृति दस पुत्र प्राप्त किए ।

कथा का प्रतीकात्मक स्वरूप

प्रस्तुत कथा में तीन तथ्य एक साथ विवेचित हैं ।

पहला है – वैवस्वत मनु का तात्पर्य जिसे दो आधारों पर स्पष्ट किया गया है ।

दूसरा है – वैवस्वत मनु में विद्यमान वे दस गुण जो व्यक्तित्व के बाह्य धरातल पर अर्थात् कर्मक्षेत्र में प्रकट होते हैं ।

तीसरा है – वैवस्वत मनु में विद्यमान स्वीकार भाव नामक वह विशेषता जो व्यक्तित्व के आन्तरिक धरातल पर विद्यमान होती है ।

     कथा संकेत करती है कि वैवस्वत व्यक्तित्व के बाह्य धरातल पर जो विभिन्न गुण प्रकट होते हैं, इन गुणों के प्राकट्य से पूर्व व्यक्तित्व के आन्तरिक धरातल पर स्वीकार भाव का प्रादुर्भूत होना आवश्यक है क्योंकि यही स्वीकार भाव श्रेष्ठ सामर्थ्य में रूपान्तरित होता है और श्रेष्ठ सामर्थ्य से सम्पन्न व्यक्तित्व स्वयं को अनेक गुणों से भर लेता है । इला – सुद्युम्न कथा में इस स्वीकार भाव के उद्भव एवं महत्त्व को ही प्रतीकात्मक शैली में निबद्ध किया गया है । अब हम प्रतीकों को समझने का प्रयास करें ।

१- वैवस्वत मनु का तात्पर्य

देह भाव से ऊपर उठकर आत्मा(energy, Being, Soul or consciousness) रूप में अपनी पहचान होना मनुष्य मन की वह विशिष्ट स्थिति है जिसे पौराणिक साहित्य में वैवस्वत मनु कहकर इंगित किया गया है । इस स्थिति को प्रस्तुत कथा में दो प्रकार से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । प्रथम रूप में कहा गया है कि ज्ञान – विज्ञान से संयुक्त होने पर सत्यनिष्ठ जीवात्मा राजर्षि सत्यव्रत ही वैवस्वत मनु कहलाए अर्थात् देहचेतना से आत्मचेतना में रूपान्तरण वैवस्वत स्थिति है । द्वितीय रूप में कहा गया है कि अदिति के पुत्र हुए विवस्वान् और विवस्वान् के पुत्र हुए वैवस्वत मनु। जैसा कि पूर्व के लेखों में भी स्पष्ट किया जा चुका है – मनुष्य की अखण्डित चेतना अर्थात् आत्मा और शरीर के योग में स्थित होना अदिति स्थिति है । चेतना के अखण्डित होने पर मनुष्य में जिन १२ गुणों(आदित्यों) का प्रादुर्भाव होता है, उनमें सबसे पहला गुण है – विवस्वान् । विवस्वान् का अर्थ है – वासना रहितता (detachment) अर्थात् आत्म स्वरूप को भूल जाने के कारण मनुष्य का मन जिस शरीर से संयुक्त हो गया था, उससे वियुक्त होकर अब आत्म – स्वरूप में स्थित हो गया है । इस आत्म स्वरूप में स्थित हो जाने को ही वैवस्वत स्थिति अथवा वैवस्वत मनु की उत्पत्ति कहकर इंगित किया गया है ।

  कथा में वैवस्वत मनु को श्राद्धदेव और वैवस्वत मनु की पत्नी को श्रद्धा कहा गया है । श्रद्धा का सामान्य अर्थ है – विश्वास या भरोसा । श्राद्ध शब्द भी श्रद्धा से बना है जिसका अर्थ है – विश्वसनीय अथवा विश्वास के योग्य । आत्मस्वरूप में स्थित व्यक्तित्व अत्यन्त विश्वसनीय (trustworthy) हो जाता है, अतः श्राद्धदेव कहकर वैवस्वत मनु अर्थात् आत्मस्थ व्यक्तित्व के एक वैशिष्ट्य की ओर संकेत किया गया है ।

२- वैवस्वत मनु के दस पुत्र –

वैवस्वत मनु अर्थात् आत्मस्थ व्यक्तित्व में विद्यमान वे गुण जो कर्मक्षेत्र में प्रकट होते हैं – वैवस्वत मनु के दस पुत्रों के रूप में इंगित किए गए हैं ।

     पहला गुण है – इक्ष्वाकु अर्थात् अन्तर्दृष्टा(introspective) होना । इक्ष्वाकु शब्द इक्ष् धातु में वाक् शब्द के योग से निर्मित हुआ है । इक्ष् का अर्थ है – देखना, निरीक्षण करना और वाक् का अर्थ है – भीतर की ओर देखने वाली मन की शक्ति । वेद में इस मनःशक्ति को ही वाक् के चार प्रकारों – वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा में से पश्यन्ती वाक् कहा गया है ।

     दूसरा गुण है – नरिष्यन्त । न रिष्यते इति अर्थात् जो किसी को भी चोट या ठेस या क्षति नहीं पहुंचाता ।

     तीसरा गुण है – धृष्ट । यह शब्द स्वादिगण परस्मैपद् की धृष् धातु में क्त प्रत्यय के योग से बना है, जिसका अर्थ है – साहसी अथवा निडर ।

     चौथा गुण है – करूष । यह शब्द कृ धातु में अण् प्रत्यय के योग से बना प्रतीत होता है , जिसका अर्थ है – निर्माता ।

     पांचवां गुण है – नृग । यह शब्द नी धातु में ऋक् प्रत्यय के योग से बना प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है – नेतृत्व करने वाला ।

     छठा गुण है – कवि । कवि का अर्थ है – प्रतिभाशाली, विचारवान् ।

     सातवां गुण है – पृषध्र । यह शब्द पृषत् और धृ धातु के योग से बना है । पृषत् का अर्थ है – चैतन्य बिन्दु और धृ का अर्थ है – धारण करना । अतः पृषध्र का अर्थ है – चैतन्य बिन्दु को धारण करने वाला अर्थात् आत्मशक्ति से युक्त ।

आठवां गुण है – दिष्ट(दिश + क्त) अर्थात् आत्म निर्देशित ।

          नवां गुण है – नभग । न + भग अर्थात् जो भाग्य के आश्रित न होकर भाग्य का निर्माता होता है ।

          दसवां गुण है – शर्याति । शर + याति अर्थात् लक्ष्य में स्थित । लक्ष्य में स्थित होने पर चेतना शक्ति का ह्रास (रिसाव) नहीं होता और मनुष्य स्वतः स्फूर्त बना रहता है ।

३-इला/सुद्युम्न का तात्पर्य-

वे शक्तियां जो बुद्धि को विशिष्टता प्रदान करती हैं – इला शब्द से अभिहित की जाती हैं । प्रज्ञा अथवा मेधा को भी कहीं –कहीं इला कहा गया है । परन्तु वर्तमान संदर्भ में इला का अर्थ है – स्वीकार भाव(power of acceptance) और सुद्युम्न(सु +द्युम्न) का अर्थ है – श्रेष्ठ सामर्थ्य । व्यक्तित्व के आन्तरिक धरातल पर अवतरित हुआ स्वीकार भाव ही व्यक्तित्व के बाह्य धरातल पर श्रेष्ठ सामर्थ्य के रूप में प्रकट होता है, इसलिए कथा में इला एवं सुद्युम्न का परस्पर रूपान्तरण पुनः पुनः वर्णित किया गया है ।

– इला/सुद्युम्न की उत्पत्ति

     कथा में कहा गया है कि वैवस्वत मनु को वसिष्ठ ऋषि ने मित्रावरुण का यज्ञ कराया । उस यज्ञ में वैवस्वत मनु की पत्नी श्रद्धा ने कन्या प्राप्ति की प्रबल इच्छा रूप आहुति दी जिससे उन्हें इला नामक कन्या प्राप्त हुई ।

     इस कथन द्वारा इला अर्थात् स्वीकार भाव की उत्पत्ति के लिए अनिवार्य चार कारकों की ओर संकेत किया गया है ।

1-     पहला कारक तत्त्व है – मनुष्य का आत्म भाव (soul consciousness) में स्थित होना, जिसे वैवस्वत मनु कहा गया है ।

2-     दूसरा कारक तत्त्व है – आत्मस्थ व्यक्ति(वैवस्वत मनु) का ऊर्ध्वमुखी चेतना से युक्त होना, जिसे ऋषि वसिष्ठ कहा गया है ।

3-     तीसरा कारक तत्त्व है – आत्मस्थ व्यक्ति का अपनी ही ऊर्ध्वमुखी चेतना (वसिष्ठ) के द्वारा पुरुष – प्रकृति के एकत्व को मन से मानकर उसमें स्थित होना अर्थात् व्यष्टि स्तर पर आत्मा और शरीर तथा समष्टि स्तर पर परमात्मा और जगत् का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, इसलिए व्यष्टि अथवा समष्टि स्तर पर घटित प्रत्येक घटना एकदम सही(accurate) एवं कल्याणकारी है । इसे ही कथा में मित्रावरुण का यज्ञ कहकर संकेतित किया गया है । तथा

4-     चौथा कारक तत्त्व है – आत्मस्थ व्यक्ति(वैवस्वत मनु) का अपनी ही विश्वास शक्ति(वैवस्वत मनु की पत्नी श्रद्धा) की सहायता से प्रत्येक परिस्थिति अथवा स्थिति को स्वीकार करने की प्रबल इच्छा से युक्त होना । तात्पर्य यह है कि पुरुष अर्थात् आत्मा के तल पर तो हम सब एक हैं, परन्तु प्रकृति अर्थात् शरीर के तल पर सभी भिन्न – भिन्न हैं । प्रकृति के तल पर जो नानात्व अथवा विविधता विद्यमान है – उस नानात्व अथवा विविधता के प्रति हमारे भीतर स्वीकार भावना विद्यमान होनी चाहिए परन्तु यह तभी सम्भव है जब पहले उस स्वीकार भाव की प्राप्ति के लिए मन में प्रगाढ इच्छा जाग्रत हो ।

     इन चार कारकों के परस्पर समन्वित होने पर ही व्यक्तित्व में स्वीकार शक्ति प्रादुर्भूत होती है, जो व्यक्ति को अद्भुत क्षमता अथवा सामर्थ्य से सम्पन्न बनाती है ।

५- सुद्युम्न को स्त्री रूप की प्राप्ति

     कथा में कहा गया है कि एक बार राजा सुद्युम्न सिन्धुदेशीय अश्व पर आरूढ होकर मृगया करते हुए शिव – पार्वती की विहारस्थली में पहुंच गए और अपने समस्त अनुचरों सहित स्त्री रूप हो गए ।

     इस कथन द्वारा व्यक्तित्व में प्रादुर्भूत हुई स्वीकार शक्ति की प्रगाढता अथवा सुदृढता की ओर इंगित किया गया है । पूर्व में वर्णित इला/सुद्युम्न की उत्पत्ति के अन्तर्गत हम जान चुके हैं कि चार कारक तत्त्वों के परस्पर सम्मिलन से व्यक्तित्व में स्वीकार शक्ति उत्पन्न होती है जो व्यक्तित्व को अद्भुत रूप से सामर्थ्यशाली बनाती है । इस सामर्थ्य के सहारे मनुष्य जब पवित्र मन से युक्त होकर ( सिन्धुदेशीय अश्व पर आरूढ होकर ) पुनः अपने अन्तर में निहित गुह्य शक्तियों, रहस्यों अथवा स्थितियों को जानने समझने के लिए साधना पथ पर अग्रसर होता है (जिसे कथा में मृगया कहकर इंगित किया गया है ), तब पुरुष – प्रकृति के उस एकत्व का साक्षात् अनुभव करता है, जिस एकत्व को पहले मात्र मन से मानकर ही उसने अपनी यात्रा आरम्भ की थी, अर्थात् साधना के पहले कदम पर मनुष्य केवल मन से मानकर ही अर्थात् मान्यता के सहारे अपनी यात्रा आरम्भ करता है और स्वीकार भाव से समन्वित हो जाता है, परन्तु बाद में उस स्वीकार शक्ति से उत्पन्न श्रेष्ठ सामर्थ्य के सहारे जब वह ज्ञानयुक्त(विज्ञानमय कोश अथवा शिव – पार्वती की विहारस्थली में पहुंचना) होता है, तब पुरुष – प्रकृति के एकत्व से सम्बन्धित उसकी वही मान्यता अनुभव में रूपान्तरित हो जाती है और मान्यता के आधार पर उत्पन्न हुई अपेक्षाकृत कमजोर स्वीकार शक्ति भी अब अत्यन्त सुदृढ स्वरूप में रूपान्तरित हो जाती है । इस रूपान्तरण को ही अर्थात् पूर्व में उद्भूत हुई अपेक्षाकृत कमजोर स्वीकार शक्ति(इला) के अत्यन्त दृढ स्वरूप में रूपान्तरित हो जाने को ही कथा में स्त्री कहकर इंगित किया गया है । यह स्त्री है तो इला ही, परन्तु परिवर्तित स्वरूप में है, इसलिए उस परिवर्तित स्वरूप की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करने के लिए उसे यहां इला न कहकर स्त्री कह दिया गया है ।

– स्त्री(इला) एवं बुध के संयोग से पुरूरवा का जन्म

     कथा में कहा गया है कि सुद्युम्न जब स्त्री बन गए, तब चन्द्र के पुत्र बुध ने अपने आश्रम के समीप ही स्त्री बने हुए अनुचरों के साथ घूमती हुई उस स्त्री को देखा । दोनों परस्पर अनुरागयुक्त हो गए जिससे पुरूरवा का जन्म हुआ ।

     प्रस्तुत कथन के द्वारा व्यक्तित्व में विद्यमान दृढीभूत स्वीकार शक्ति के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है । दृढीभूत स्वीकार शक्ति का अर्थ है – जीवन में उपस्थित हुई किसी भी प्रकार की विपरीत, विकट परिस्थिति अथवा स्थिति के विद्यमान होने पर मनश्चेतना का पूर्णतः शान्त और स्थिर रहकर सर्वप्रथम उस परिस्थिति अथवा स्थिति को स्वीकार कर लेना और फिर पूर्णतः सकारात्मक सोच रखते हुए तत्सम्बन्धित उद्योग में प्रसन्नतापूर्वक प्रवृत्त होना । कथा संकेत करती है कि एक तरफ तो मनुष्य का शुद्ध मन आत्मा से जुडकर ज्ञानयुक्त ( बुध) हो गया हो और दूसरी तरफ समग्र के प्रति स्वीकार भाव से भर गया हो – ऐसा मणिकांचन संयोग होने पर व्यक्तित्व में आत्मा की आवाज प्रकट होती है जिसे कथा में बुध और स्त्री(इला) के संयोग से पुरूरवा का जन्म कह कर सम्बोधित किया गया है । पुरूरवा (पुर+रव) का अर्थ है – पुर(मनस शरीर) में रव(आत्मा की आवाज) । तात्पर्य यह है कि ज्ञान(बुध) और स्वीकार शक्ति(इला) से युक्त हो जाने पर मन पूर्णतः शान्त और स्थिर हो जाता है और ऐसे शान्त एवं स्थिर मन से मनुष्य को अपने सभी प्रश्नों के उत्तर स्वतः ही प्राप्त होने लगते हैं । इस आत्मा की आवाज को अन्तर्ज्ञान(intuition) भी कहा जा सकता है ।

७-स्त्री बने हुए सुद्युम्न की पुरुष बन जाने की इच्छा परन्तु शिवकृपा से सुद्युम्न का एक महीने स्त्री और एक महीने पुरुष रहकर पृथ्वी का पालन करना

     व्यक्तित्व के दो तल हैं – एक आन्तरिक और एक बाह्य । आन्तरिक तल गुणों की विद्यमानता का है और बाह्य तल उन गुणों की अभिव्यक्ति का अर्थात् आन्तरिक तल पर विद्यमान गुणों को ग्रहण करके ही मनुष्य बाह्य तल पर तदनुसार व्यवहार करता है । यही नहीं, व्यवहार करते समय वह बार – बार इन दोनों तलों पर आता जाता रहता है । इसी तथ्य को कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि सुद्युम्न एक महीने स्त्री और एक महीने पुरुष रहकर पृथ्वी का पालन करने लगे ।

     यहां यह भी स्मरणीय है कि अध्यात्म के क्षेत्र में आन्तरिक तल को स्त्री शब्द से और बाह्य तल को पुरुष शब्द से अभिहित किया जाता है ? आन्तरिक तल दिखाई नहीं देता और इस तल पर विद्यमान गुण अथवा विशेषताएं जब तक बाह्य तल पर प्रकट नहीं हो जाती , तब तक उनका पता भी नहीं चलता । स्त्री बने हुए सुद्युम्न की पुरुष बनने की इच्छा इसी तथ्य को इंगित करती है ।