PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

इक्षु

टिप्पणी : उणादि कोश ३.१५७ में इक्षु की व्युत्पत्ति इष-इच्छायाम् धातु से कही गई है। यह हो सकता है कि इक्षु इषु या तीर की पूर्व अवस्था हो। साधक के अन्दर जो दिव्य पर्जन्य वृष्टि होती है, उससे उसकी इन्द्रियों को इक्षु या मधु प्राप्त होता है। इस आनन्द को अन्तर्मुखी करके इसे ऊर्ध्वगामी इषु/तीर का रूप देना होता है। यह ऊर्जा ऊर्ध्वगामी तभी होगी जब पार्थिव स्तर की प्रवृत्तियां, जिन्हें पितर कह सकते हैं, तृप्त हो जाएंगी। मैत्रायणी संहिता १.१०.१७ में इक्षुशलाका को पितरों का रूप कहा गया है। भावनोपनिषद २३ में काम के धनुष को इक्षुधनुष कहा गया है जिससे वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध नामक ५ तन्मात्राओं रूपी ५ पुष्पबाण चलाता है। इसके अतिरिक्त, मैत्रायणी संहिता ३.७.९ में प्रजापति के पक्ष्मों को अश्ववाल और भ्रुवों को इक्षुकाण्ड कहा गया है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है। अथर्ववेद परिशिष्ट ९.२.१ में तिलधेनु दान विधि के संदर्भ में तिल धेनु की जङ्घाओं में इक्षुकाण्ड रखने का उल्लेख है।

प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.