PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

 

First published : 1999 AD; published on internet : 21-1-2008 AD(Pausha shukla 14, Vikramee samvat 2064)

ईश्वर

टिप्पणी : यद्यपि ऋग्वैदिक ऋचाओं में ईश्वर का उल्लेख नहीं है , लेकिन अथर्ववेद के कुछ मन्त्रों तथा यजुर्वेद व ब्राह्मण ग्रन्थों में ईश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है । पुराणों की भांति ही महानारायणोपनिषद १७.५  तथा गीता १८.६० आदि में ईशान के सब विद्याओं के अधिपति होने तथा ईश्वर के सब भूतों के अधिपति होने का सार्वत्रिक उल्लेख आता है । ईशावस्योपनिषद में भी भूत और भूति शब्द का महत्वपूर्ण स्थान है । अतः ईश्वर को समझने से पूर्व भूत शब्द को समझना होगा । समाधि से व्युत्थान पर पहले अहंकार स्थिति प्रकट होती है , फिर शब्द , स्पर्श , रूप , रस व गन्ध नामक पांच तन्मात्राओं की और उसके पश्चात् आकाश , वायु , अग्नि , जल व पृथिवी नामक पांच महाभूतों का प्राकट्य होता है । तैत्तिरीय उपनिषद ३.२.१ से ३.६.१ में अन्नमय कोश से लेकर आनन्दमय कोश तक प्रत्येक में भूतों की उत्पत्ति होने का उल्लेख है । यह विचारणीय है कि पांच कोशों में ५ महाभूत क्रम से प्रकट होते हैं अथवा नहीं । इन्हीं भूतों के प्रकट होने से मनुष्य में विभिन्न इन्द्रियों का विकास होता है । गीता १४.३ का कथन है कि महद् ब्रह्म ईश्वर के लिए योनि का रूप है जिसमें वह बीज डालता है और गर्भ धारण कराता है ( तुलनीय : स्कन्द पुराण अवन्तिका खण्ड में पलाश वृक्ष की शाखाओं में ईश्वर शिव की प्रतिष्ठा का उल्लेख ) । बृहदारण्यक उपनिषद२.५.१ में वर्णन आता है कि यह पृथिवी सब भूतों के लिए मधु है और सारे भूत इस पृथिवी के लिए मधु हैं । मधु की इस स्थिति की पृथिवी , जल , अग्नि आदि १४ स्तरों के लिए पुनरावृत्ति की गई है ( तुलनीय : ईशावास्योपनिषद ६) । पौराणिक दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण है कि भूतों में मधु की अवस्था कब और कैसे उत्पन्न हो सकती है । दधीचि ऋषि मधु विद्या के ज्ञाता हैं जो अश्विनी कुमारों को मधु विद्या का उपदेश देते हैं - रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव अर्थात् कण - कण में दिव्य रूप के दर्शन हो रहे हों , यही मधु अवस्था है । पुराणों में दक्ष यज्ञ की कथा में दक्ष को ईश्वर शिव की सत्ता का ज्ञान नहीं हो पाता , वह शिव की कल्पना घोर रूप में ही करता है । लेकिन दधीचि ऋषि को ईश्वर की सत्ता का ज्ञान है , वह दक्ष को समझाने का प्रयत्न करते हैं लेकिन असफल रहते हैं । शतपथ ब्राह्मण ११.७.२.४ तथा २.१.४.२० के आधार पर ऐसा अनुमान है कि दक्ष से तात्पर्य प्राणों की दक्षता प्राप्त करना है - श्वास के अंदर जाते हुए भी आनन्द की अनुभूति और बाहर आते हुए भी आनन्द की अनुभूति । दक्ष को प्रजापति कहा जाता है । वैदिक भाषा में प्रजा से तात्पर्य अज और अवि पशुओं की प्रजा से लिया जाता है। यह दो पशु ही संवत्सर में बहुत सी प्रजाएं उत्पन्न करते हैं । इन प्रजाओं से तात्पर्य श्रेष्ठ विचार, भक्ति आदि हो सकता है । छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार अज और अवि भक्ति की आरम्भिक अवस्थाएं हैं । इनके पश्चात् गौ और अश्व पशु आते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में दधीचि ऋषि अश्व का प्रतीक हैं जो मधु विद्या का दर्शन करने में, ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ हैं । प्रजा से अगली अवस्था संभवतः प्रज्ञा की आती है जहां सारे भूतों का एकीकरण हो जाता है ( कौशीतकि उपनिषद ३.४) । नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद १ में प्राज्ञ ईश्वर का उल्लेख आया है ।

          उपरोक्त वर्णन के आधार पर ऐसा लगता है कि मधु विद्या और ईश्वर दोनों का एक ही अर्थ है । लेकिन ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा से यह संकेत मिलता है कि स्वर्ग की प्राप्ति और ईश्वर बनना दो अलग - अलग स्तर हैं (उदाहरणार्थ , शतपथ ब्राह्मण २.१.४.१९ -२२ ,११.४.२.१ ,१२.४.२.७ ,१२.४.२.९ )। हो सकता है कि मधु विद्या से भी परे जो सनातन , अव्यय स्थिति है , उसे ईश्वर कहा जाता हो ( गीता८.२०) । ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख मिलते हैं कि ईश्वर बन कर इस लोक से, इस शरीर से परे जाया जा सकता है ( उदाहरणार्थ , शतपथ ब्राह्मण १३.३.३.५ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.९.३ में अश्व का ईश्वर बन कर दूर- दूर जाने में समर्थ होना ) , लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि ऐसा होने से रोका जाए । इस उद्देश्य के लिए अश्व के पदों को रस्सियों द्वारा बांधते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों में दूसरा सार्वत्रिक उल्लेख विभिन्न ईश्वरों या रुद्रों द्वारा यजमान की प्रजा और पशुओं की हिंसा करना है ( उदाहरणार्थ , बौधायन श्रौत सूत्र १४.३ ,१४.४ , ऐतरेय ब्राह्मण १.३० ) । इन ईश्वरों को अशान्त से शान्त बनाने के उपाय करने होते हैं । हो सकता है कि ईश के संदर्भ में जो वासनाओं को वसु या धन बनाने के उल्लेख आते हैं, वह तथ्य ईश्वर द्वारा यजमान के प्रजा व पशु की हिंसा की व्याख्या करता हो ।

          अग्नि , वायु , आदित्य आदि महाभूत ईश्वर कैसे बन सकते हैं , इसके कुछ संकेत ब्राह्मण ग्रन्थों मे मिलते हैं । शतपथ ब्राह्मण १०.१.४.१३ के अनुसार अग्नि को पक्षी या श्येन का रूप देना  है जो स्वर्ग से सोम ला सके , उसे ईश्वर बनाना है । ऐतरेय ब्राह्मण १.१० में मरुतों के ईश्वर होने का उल्लेख है । यह वायु के स्तर पर ईश्वरत्व प्राप्त करने का सूचक हो सकताहै । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.८.५ में घर्म या पुरोडाश के ईश्वर होने का उल्लेख है । यह आदित्य के स्तर पर ईश्वर का रूप हो सकता है  । शतपथ ब्राह्मण १४.९.४.१३ में वेदों के ज्ञाता पुत्र को जन्म देने के लिए विभिन्न प्रकार के ओदनों का भक्षण करके ईश्वर बनने का वर्णन आता है । यहां उदान प्राण के प्रतीक ओदन और तैत्तिरीय ब्राह्मण के घर्म या पुरोडाश में समानता हो सकती है ।

          अथर्ववेद १९.५३.८ में काल को सर्व का ईश्वर कहा गया है । यह उल्लेख भागवत पुराण १०.७४.३१ में शिशुपाल द्वारा कृष्ण के बदले काल को ईश कहने से तुलनीय है ।

          षड्-विंश ब्राह्मण ६.३.१ -६.१२.१ में सभी दिशाओं और पृथिवी , अन्तरिक्ष , आकाश आदि में द्रष्टव्य अद्भुतों का वर्णन किया गया है तथा उनके शमन उपायों के रूप में साम गानों का उल्लेख करते हुए दिशाओं के अधिपतियों को नमन किया गया है और उन्हें ईश्वर कहा गया है । इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि साधना के दो मार्ग हैं - एक तो दिशाओं के अनुदिश और एक पृथिवी ,अन्तरिक्ष आदि में ऊर्ध्वमुखी मार्ग । ईश्वर के संदर्भ में वैदिक साहित्य के वर्णन को भी दिशाओं के अनुदिश और ऊर्ध्वमुखी , इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.९.३ व ३.८.१२.२ में विमुक्त अश्व चार दिशाओं में गमन करने में ईश्वर / समर्थ होता है । इन चारों दिशाओं में ही इस अश्व का बन्धन करते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण१.८.३.१ में भी दिशाओं से उन्मादित न होने वाले को ईश्वर संज्ञा दी गई है ।

ईश्वर

अनुद्धृत अंश

१( शकट से अवरोहण के समय : ) दृंहन्तां दुर्याः पृथिव्याम् । गृहा वै दुर्याः । ते हैत ईश्वरो गृहा यजमानस्य - - - - शतपथ ब्रा.१.१.२.२२

२यज्ञः :यस्मात् पराङ् भवति , पराङु हैवास्माद्यज्ञो भवति । स यो हैनं तत्रानुव्याहरेत् - पराङ्स्माद्यज्ञोऽभूत् इति , ईश्वरो ह यत्तथैव स्यात् । मा.श.२.१.४.१९ ,२१

३प्राणः : यस्मात् पराङ् भवति , पराङु हैवास्मात् प्राणो भवति । स यो हैनं तत्र अनुव्याहरेत् - पराङस्मात्प्राणोऽभूत् इति , ईश्वरो ह यत्तथैव स्यात् । - मा.श.२.१.४.२०, २२

४वाजपेयः : तस्येश्वरः प्रजा पापीयसी भवितोरिति । - मा.श.५.१.१.९

५वयो वा एष रूपं भवति - यो ऽग्निं चिनुते । ईश्वर आर्तिमार्तोः । तस्मान्न वयसोऽग्निचिदश्नीयात् । - मा.श.१०.१.४.१३

६( दक्षिण हाथ में जुहू और सव्य में उपभृत लेते हैं ) । न तथा कुर्यात् । यो हैनं तत्र ब्रूयात् - प्रतिप्रतिं न्वा अयमध्वर्युर्यजमानस्य द्विषंतं भ्रातृव्यमकत्प्रत्युद्यामिनं इति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.११.४.२.१

७प्रगृह्य बाहू स्रुचौ धारयंति । न तथा कुर्यात् । - - -शूलौ न्वा अयमध्वर्यु बाहू अकृत । शूलबाहुर्भविष्यति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । अथ हैष मध्यमः प्राणः , तस्मादु तमुपन्यच्येवैव धारयेत् । - मा.श.११.४.२.४

८अथ हैतत् कृपणम् , यो ऽयमणु दीर्घमस्वरमाश्रावयति । यो हैनं तत्र ब्रूयात् , कृपणं न्वा अयमध्वर्युर्यजमानमकत् ; द्विषतो भ्रातृव्यस्योपावसायिनमिति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । -मा.श.११.४.२.९

९पार्श्वत उ हैके स्रुचमुपावहृत्य पर्याहृत्योपभृत्यधिनिदधति । न तथा कुर्यात् । - - - अतीर्थेन न्वा अयमध्वर्युराहुतीः प्रारौत्सीत् । सं वा शरिष्यते घुणिर्वा भविष्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.११.४.२.१४

१०तां हैतामेके सावित्रीमनुष्टुभमन्वाहुः । वाग्वा अनुष्टुप् । तदस्मिन्वाचं दध्म इति । न तथा कुर्यात् । - - - -आ न्वा अयमस्य वाचमदित , मूको भविष्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । तस्मादेतां गायत्रीमेव सावित्रीमनुब्रूयात् । - मा.श.११.५.४.१३

११अथ हैके दक्षिणतस्तिष्ठते वाऽसीनाय वाऽऽन्वाहुः । न तथा कुर्यात् । - - - बुल्बं न्वा अयमिमजीजनत । बुल्बो भविष्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.११.५.४.१४

१२बहिर्द्धा न्वा अयं प्राणेभ्यो दक्षिणा अनैषीत् । न प्राणानददक्षत् । अन्धो वा स्रामो वा बधिरो वा पक्षहतो वा भविष्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.११.७.२.४

१३विष्णुक्रमणम् : भस्मनाऽस्य पदमपि वपाम इति वदन्तः । तदु तथा न कुर्यात् । - - - आसां न्वा अयं यजमानस्यावाप्सीत् । क्षिप्रे परमा सा नावप्स्यते । ज्येष्ठगृह्यं रोत्स्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.१२.४.१.४

१४स्वर्ग्यं वा एतत् । यदग्निहोत्रम् । - - - प्रति न्वा अयं स्वर्गाल्लोकादवारुक्षत् । नास्येदं स्वर्ग्यमिव भविष्यति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.१२.४.२.७

१५अग्निहोत्र : परासिचत न्वा अयमग्निहोत्रम् । क्षिप्रे ऽयं यजमानः परासेक्ष्यत् इति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - - -मा.श.१२.४.२.९

१६यस्याग्नावग्निमभ्युद्धरेयु: । किं तत्र कर्म । का प्रायश्चित्तिः ? ईश्वरौ वा एतौ संपाद्याशांतौ यजमानस्य प्रजां च पशूंश्च निर्द्दहतः । - मा.श.१२.४.३.४

१७( आहवनीय अननुगत रहने पर )गार्हपत्यः अनुगच्छेत् ।(तो क्या प्रायश्चित्त है ? )तं हैके तत एव प्राञ्चमुद्धरन्ति । प्राणा वा अग्नयः । प्राणानेवास्मा एतदुद्धराम इति वदन्तः । तदु तथा न कुर्यात् । प्राचो न्वा अयं यजमानस्य प्राणान् प्रारौत्सीत् । मरिष्यत्ययं यजमानः । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.१२.४.३.६

१८( आहवनीय अननुगत रहते हुए ) गार्हपत्य अनुगच्छेत् । अथ हैके प्रत्यंचमाहरन्ति । प्राणोदानाविमाविति वदन्तः । न तथा कुर्यात् । स्वर्ग्यं वा एतत् । यदग्निहोत्रम् । - - - - -नास्येदं स्वर्ग्यमिव भविष्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.१२.४.३.७

१९अथ हैकेऽन्यं गार्हपत्यं मन्थन्ति । तदु तथा न कुर्यात् । - - - -अग्नेर्न्वा अयमधिद्विषन्तं भ्रातृव्यमजीजनत । क्षिप्रेऽस्य द्विषन् भ्रातृव्यो जनिष्यते । प्रियतमं रोत्स्यति इति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.१२.४.३.८

२०अथ हैके अनुगमय्यान्यं मन्थन्ति । तस्याशां नेयात् । अपि यत् परिशिष्टमभूत् । तदजीजसत । नास्य दायादश्चन परिशेक्ष्यत इति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.१२.४.४.९

२१( दीर्घसत्री के अग्निहोत्र करते हुए मरने पर : ) तं हैके ग्रामाग्निना दहंति । न तथा कुर्यात् । एष वै विश्वात् क्रव्यादग्निः । स हैनं ईश्वरः सपुत्रं सपशुं समत्तोः । - मा.श.१२.५.१.१४

२२अथ हैके - प्रदव्येन दहन्ति । न तथा कुर्यात् । एष वा अशान्तोऽग्निः । स हैनमीश्वरः सपुत्रं सपशुं प्रदग्धोः । - मा.श.१२.५.१.१५

२३अथ हैके उल्मुक्येन दहंति । न तथा कुर्यात् । एष वै रुद्रियो ऽग्निः । स हैनमीश्वरः सपुत्रं सपशुमभिमन्तोः । १६। अथ हैके अन्तरेणाग्नीश्चितिं चित्वा तमग्निभिः समुपोषन्ति । - - - -क्षिप्रेऽस्याशसनं जनिष्यते । प्रियतमं रोत्स्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । - मा.श.१२.५.१.१७

२४ईश्वरो वा एष आर्तिमार्तोः । यो ब्रह्मणे देवेभ्योऽप्रतिप्रोच्याश्वं बध्नाति ।- - --मा.श.१३.१.२.४

२५ईश्वरो वा एष पराङ्प्रदघोः । यः पराचीराहुतीर्जुहोति । पुनरावर्तते । अस्मिन्नेव लोके प्रतितिष्ठति । - मा.श.१३.१.३.४

२६अग्निः पशुरासीत् । - - -यावानग्नेर्विजयः । यावान् लोकः । यावदैश्वर्यं तावांस्ते विजयः । - मा.श.१३.२.७.१३

२७वायु: पशुरासीत् । - - - - -सूर्य: पशुरासीत् । - - - -मा.श.१३.२.७.१५

२८रश्मिना वा अश्वो यतः । ईश्वरो वा अश्वोऽयतोऽधृतोऽप्रतिष्ठितः परां परावतं गन्तोः । - मा.श.१३.३.३.५

२९पारिप्लव : सर्वासां विशामैश्वर्यमाधिपत्यं गच्छति । - मा.श.१३.४.३.१५

३०अंतरतरम् - यदयमात्मा । स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात् । प्रियं रोत्स्यतीति । ईश्वरो ह तथैव स्यात् । आत्मानमेव प्रियमुपासीत । - मा.श.१४.४.२.१९

३१पुत्रमन्थ कर्म ब्राह्मणम् : स य इच्छेत् । पुत्रो मे गौरो जायेत । वेदमनुब्रुवीत । सर्वमायुरियात् । क्षीरौदनं पाचयित्वा । सर्पिष्मंतमश्नीयाताम् । ईश्वरौ जनयितवै । - - - -दध्योदनं - - - -उदौदनं - - - --तिलौदनं - - - - मांसौदनम् - - - - मा.श.१४.९.४.१३

३२अतिथिमिति पदं भवति नैतत्कुर्यादित्याहुरीश्वरो ऽतिथिरेव चरितोः । - ऐतरेय आरण्यक १.१.१

३३तदेतत्पुष्पं फलं वाचो यत्सत्यं स हेश्वरो यशस्वी कल्याणकीर्तिर्भवितोः - ऐ.आ.२.३.६

३४वाचि वै तदैन्द्रं प्राणं न्यचायन्नित्येतत्तदुक्तं भवति । स हेश्वरो यशस्वी कल्याणकीर्तिर्भवितोरीश्वरो ह तु पुरायुषः प्रैतोरिति - ऐ.आ.२.३.५

३५मध्यं ह्येषामंगानामात्मा मध्यं छन्दसां बृहती । स हेश्वरो यशस्वी कल्याणकीर्तिर्भवितोरीश्वरो ह तु पुरायुषः प्रैतोरिति । - ऐ.आ.२.३.५

३६मेक्षाम्यूर्ध्वस्तिष्ठन् मा मा हिंसिषुरीश्वरा: । - अथर्ववेद ७.१०२.१/७.१०७.१

३७उतामृतत्वस्येश्वरो यदन्येनाभवत्~ सह ।( पुरुष सूक्त )- अथर्ववेद १९.६.४

३८प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे । यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् । - अथर्ववेद११.६.१/११.४.१

३९प्राणो ह सर्वस्येश्वरो यच्च प्राणति यच्च न ॥ - अथर्ववेद ११.६.१०.११.४.१०

४०ईश्वरो वा एष पराङप्रदघः । यो यूपं रोहति । हिरण्यमध्यवरोहति । अमृतं वै हिरण्यम् ।- - - - - - - बस्ताजिनमध्यवरोहति - - - तै.ब्रा.१.३.७.७

४१रुद्रो वा एष । यदग्निः । स आधीयमान ईश्वरो यजमानस्य पशून्हिंसितोः । संप्रियः पशुभिः भुवदित्याह । - तै.ब्रा.१.१.८.४

४२एकधा तेजस्विनी देवतामुपैतीत्याहुः । सैनमीश्वरा प्रदह इति । - तै.ब्रा.१.३.१.४, १.३.१.६

४३एष वै मनुष्याणां यज्ञः । देवानां वा इतरे यज्ञाः । तेन वा एतत्पितृलोके चरति । प्रजापते न त्वदेतानि इति मन्त्र से गार्हपत्य देश को प्रत्यागमन करता है । यः पितृभ्यः करोति । स ईश्वरः प्रमेतोः । - - - पितृलोके वा एतद्यजमानश्चरति । यत्पितृभ्यः करोति । स ईश्वर आर्तिमार्तोः । - तै.ब्रा.१.३.१०.१०

४४ईश्वरो वा एष दिशो ऽनून्मदितोः । यं दिशोऽनुव्यास्थापयन्ति । दिशामवेष्टयो भवन्ति । दिक्ष्वेव प्रतितिष्ठत्यनुन्मादाय । - - - -तै.ब्रा.१.८.३.१

४५ईश्वरं तं यशोऽर्तोरित्याहुः । यस्यां ते व्याचष्ट इति । - - -तै.ब्रा.२.२.१.६

४६घर्मो वा एषो ऽशान्तः । अर्धमासेऽर्धमासे प्रवृज्यते । यत्पुरोडाशः । स ईश्वरो यजमानं शुचाऽप्रदहः । पर्यग्निं करोति । पशुमेवैनमकः । शान्त्या अप्रदाहाय । - तै.ब्रा.३.२.८.५

४७चक्षुर्वै सत्यम् । सत्येनैवैनदभिघारयति । ईश्वरो वा एषोऽन्धी भवितोः । यश्चक्षुषाऽऽज्यमवेक्षते । निमील्यावेक्षेत । दाधाराऽऽत्मन्चक्षुः । - तै.ब्रा.३.३.५.२

४८ईश्वरो वा अश्वः प्रमुक्त: परां परावतं गन्तोः । इह धृतिः स्वाहेह विधृतिः स्वाहेह रन्तिः स्वाहेह रमति स्वाहेति चतृषु पत्सु जुहोति । एता वा अश्वस्य बन्धनम् । - - -तै.ब्रा.३.८.९.३

४९४दिशाएं । चारों से परिग्रहण करता है । - तै.ब्रा.३.८.१२.२

५०ईश्वरो वा अश्वः प्रमुक्त: परां परावतं गन्तोः । यत्सायंधृतीर्जुहोति । अश्वस्य यत्यै धृत्यै । - तै.ब्रा.३.९.१३.२

५१एवं हीश्वरा या दीक्षिता जाया पुत्रं लभेतेति । - गोपथ ब्रा. १.३.२३

५२शं नो भव हृद आ पीत इन्दो पितेव सोम सूनवे सुशेवः इति । आत्मानं प्रत्यभिमृशति । ईश्वरो वा एषोऽप्रत्यभिमृष्टो यजमानस्यायु प्रत्यवहर्तुमनर्हन् मा भक्षयेदिति । - गो.ब्रा.२.३.६

५३जागृयात् रात्रिम् । यावदु ह वै न वा स्तुवते न वा शस्यते तावदीश्वरा असुरा रक्षांसि च यज्ञमन्ववनयन्ति । - - - गो.ब्रा.२.५.५

५४एषा ह वै यज्ञस्य पुरोगवी यद्दक्षिणा । यथार्हामः स्रस्तमतिरेतदन्त्येतेष एवेश्वर उन्नेता । - गो.ब्रा.२.६.१४

५५पशोर्वै प्रतिमा पुरोडाशः । स नायजुष्कमभिवास्य: । वृथेव स्यात् । ईश्वरा यजमानस्य पशवः प्रमेतोः । सं ब्रह्मणा पृच्यस्वेत्याह । प्राणा वै ब्रह्म । प्राणा: पशवः । - तै.ब्रा.३.२.८.८

५६( होता ) यद्विच्छन्दसः कुर्याद् ग्रीवासु तद् गण्ड दध्यादीश्वरो ग्लावोजनितोः । - ऐ.ब्रा.१.२५

५७ईशान दिशा : सैषा दिगपराजिता । तस्मादेतस्यां दिशि यतेत वा यातयेद्वेश्वरो हानृणाकर्तोः । - ऐ.ब्रा.१.१४

५८ईश्वरौ वा एतौ संयन्तौ यजमानं हिंसितोर्यश्चासौ पूर्व उद्भृतो भवति यमु चैनमपरं प्राणयन्ति । - - - ( पहली अग्नि जिसे उत्तरवेदी पर लाकर स्थापित करते हैं । दूसरी अग्नि जिसे आग्नीध| - धिष्ण्य के प्रति लाता है । यह दो अग्नियां ईश्वर हैं ।) - ऐ.ब्रा.१.३०

५९ईश्वरो ह यद्यप्यत्रो यजेताथ होतारं यशोऽर्तोस्तस्मादनु ब्रुवतैव अनुप्रपत्तव्यम् । (यद्यपि होता यागकर्ता नहीं होता , किन्तु अनुव्रजन करते होता को ) यशः कीर्ति अर्तो, ईश्वरो ह प्राप्तुं समर्थैव । - ऐ.ब्रा.२.२०

६०तद्धैक आहुस्तान्वो मह इति शंसेत् - - -यदेतां शंसेदीश्वरः पर्जन्योऽवर्ष्टोः । पिन्वन्त्यप इत्येव शंसेत् । - ऐ.ब्रा.३.१८

६१यदेना एषिष्यमाणस्य संनिर्वपेदीश्वरो हास्य वित्ते देवा अरन्तो ( अक्रीडितुं ) - ऐ.ब्रा.३.४८

६२यदि सोमं ब्राह्मणानां स भक्षो - - - -यदा वै क्षत्रियाय पापं भवति ब्राह्मणकल्पोऽस्य प्रजायामाजायत ईश्वरो हास्माद् द्वितीयो वा तृतीयो वा ब्राह्मणतामभ्युपैतोः - - -अथ यदि दधि वैश्यानां स भक्षो - - - -यदा वै क्षत्रियाय पापं भवति वैश्यकल्पो ऽस्य प्रजायामाजायत ईश्वरो हास्माद् द्वितीयो वा तृतीयो वा वैश्यतामभ्युपैतोः - - - -अथ यद्यपः शूद्राणां स भक्ष: - - - -यदा वै क्षत्रियाय पापं भवति शूद्रकल्पोऽस्य प्रजायामाजायत ईश्वरो हास्माद् द्वितीयो वा तृतीयो वा शूद्रतामभ्युपैतोः - - -ऐ.ब्रा.७.२९

६३अवरोध आदि भक्षण : ईश्वरो ह वा एषोऽप्रत्यभिमृष्टो मनुष्यस्यायु: प्रत्यवहर्तारनर्हन्मा भक्षयतीति - - - ऐ.ब्रा.७.३३

६४कल्पते ह वा अस्मै योगक्षेम उत्तरोत्तरिणीं ह श्रियमश्नुतेऽश्नुते ह प्रजानामैश्वर्यं आधिपत्यं य एवमेता अनु देवता एतामासन्दीमारोहति क्षत्रियः सन् । - ऐ.ब्रा.८.६

६5यदसर्वेण वाचोऽभिषिक्तो भवतीश्वरो ह तु पुरायुषः प्रैतो इति । - - - -ईश्वरो ह सर्वमायुरैतोः सर्वमाप्नोद्विजयेनेत्यु ह स्माह उद्दालक आरुणि: - ऐ.ब्रा.८.७

६६अश्नुते ह प्रजानामैश्वर्यं आधिपत्यं य एवमेताममित्राणां व्यपनुत्तिं ब्रुवन्गृहानभ्येति । - ऐ.ब्रा.८.११

६७अति ब्रह्मवर्चसं क्रियत इत्याहुरीश्वरो दुश्चर्मा भवितोरिति । - - -बौ.श्रौ.सू.१३.१७

६८अथ वा यस्यैष धिष्णियो हीयते सो अनुध्यायति स ईश्वरो रुद्रो भूत्वा प्रजां पशून्यजमानस्य शमयितो - बौ.श्रौ.सू.१४.३.५

६९यो वै सोमस्याभिषूयमाणस्य प्रथमो अंशु स्कन्दति स ईश्वर इन्द्रियं वीर्यं प्रजां पशून्यजमानस्य निर्हन्तोः - - - - - उपाय : -- - - बौ.श्रौ.सू.१४.४.१२

७०- - - प्रथमं मेधाकामस्य मध्यतो रुक्कामस्य ता वा एता: क्षीरे शृता भवन्ति ता यत्सह सर्वा निर्वपेदीश्वरा एनं प्रदहो द्वे प्रथमे निरुप्य धातुस्तृतीयं निर्वपेत् । - बौ.श्रौ.सू.१४.१९.५

७१वायु: पशुरासीदादित्यः पशुरसीदितीश्वरो अवघ्रातोरित्येतस्मिन्काल आहवनीये स्रुवाहुतिं जुहोति । - बौ.श्रौ.सू.१५.२७

७२अग्निर्वै कामो देवानामीश्वरः । - शांखायन श्रौ.सू.१६.१०.६

७३स यदोपतापी स्याद् यत्रास्य समं सुभूमिस्पष्टं स्यात् तद् ब्रूयात् इह मे अग्निं मन्थतेति । ईश्वरो हागदो भवितोः । - जैमिनीय ब्रा. १.४६

७४अरण्यं इव वा एते यन्ति ये बहिष्पवमानं सर्पन्ति । तान् ईश्वरो रक्षो वा हन्तोर् अन्या वा नंष्ट्रा । अथ द्वितीयां जुहोति - - - - -जै.ब्रा.१.८३

७५तिसृभिर् अन्तरिक्षात् तिसृभिर् दिवं गमयन्ति । स्वर्गलोको यजमानो भवति । ईश्वरो ह तु प्रमायुको भवितोः । - जै.ब्रा.१.८७

७६एतेन ( यज्ञायज्ञीयेन ) ह स्म वै पुरा सर्वाणि स्तोत्राणि स्तुवन्ति । तद् आहुर् ऊर्ध्वा वा एते स्वर्गं लोकं रोहन्ति ये यजन्ते । त ईश्वरा: परांचो अतिपत्तोर् इति तद् यज्ञायज्ञीयेनोपरिष्टात् स्तुवन्ति । - - - जै.ब्रा.१.१७३

७७आपो वा इदम् अग्रे महत् सलिलम् आसीत् । तद् अपाम् एवैश्वर्यं आसीत् । यद् अपाम् एवैश्वर्यम् आसीद् अपां राज्यम् अपाम् अन्नाद्यं तद् अग्निर् अभ्यध्यायन् ममेदम् ऐश्वर्यं मम राज्यं ममान्नाद्यं स्याद् इति । स एतम् अग्निष्टोम संपदम् अपश्यत् । - जै.ब्रा.१.२३७

७८- - - अदन्ति ह वा अमुष्ममिन् लोके पशवः पुरुषम् । तस्माद् उ ह गोर् अन्ते नग्नो न स्यात् । ईश्वरो हास्माद् अपक्रमितोस् त्वचं अस्य बिभर्मीति । - जै.ब्रा.२.१८२

७९तद् उ विराजो ऽन्नाद्यस्यैश्वर्यम् आधिपत्यं गच्छन्ति । - जै.ब्रा.२.३३९

८०यद्गायत्र्या अध्य् उत्तिष्ठेयुर् ईश्वरा अप्रतिष्ठिताश् चरितोः । - जै.ब्रा.२.३४९

 ८१अग्नी रात्रि असौ आदित्यो अहरेते एव भंगे ईट्ट ईश्वरो भूतं च भविष्यच्चाज्ञातोर्य एवं वेद । - काठ. सं. ७.६

८२- - - बिभ्यति वै देवेभ्यः पशवो देवानामेष एको योऽग्निमुपतिष्ठते । ते ऽस्मादीश्वरा: प्रत्रसस्संहितासि विश्वरूपेत्येतानि वै गोर्नामानि - - काठ. सं ७.७

८३तस्मादपि ये ऽल्पा पशवस्ते नक्तं बहव इव दृश्यन्ते त ईश्वरा अमुं लोकमनुपदो - - -काठ. सं. ७.८

८४ईश्वरं वा एता उभौ यशोऽर्तोर्यो व्याचष्टे यश्च दक्षिणत आस्ते - - -काठ. सं. ९.१६

८५एकमेव दद्याद् त्रिवृतं तु त्रिवृद्धि प्राणो बहु वा एतदन्यदन्यज्जुहोति स ईश्वरो ऽन्यद्रूपं - - -काठ. सं. ११.२

८६- - -अतः प्राचीनमोषधयो रौद्रीः प्रतीचीनं शुष्यन्ति प्राचीनं शुष्यन्ति प्रतीचीनं प्रत्यक्षमेवैना ऋध्नोतीश्वरो दुश्चर्मा भवितोर्य एतया यजते । - - -काठ. सं. ११.५

८७षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठतीश्वरस्तु तदति दुश्चर्मैव भवितो तेजांसि ह्येष प्रत्यारोहन्नेति - - - काठ. सं.११.५

८८सर्वाणि वा एतानीन्द्रियाणि वीर्याणि यत् पृष्ठानि तान्येनमीश्वराण्यनायतनानि निर्मृजो व्यतिषजेद् - - - काठ. सं. १२.५

८९ईश्वराणि वा एनमेतानि छन्दांसि अशान्तानि निर्मजः पशुमालभेत शान्त्या अनिर्मार्गाय । - काठ. सं. १२.८

९०एष वै रुद्र: पशुश्रपण एव ईश्वरो वा एष एतमतोऽनूत्थाय हन्तोः - - -काठ. सं २२.११

९१दीक्षितम् : पत्नीं तु न संयाजयेदमेध्या वा एषापूता नेश्वरा स्वर्गलोकं गन्तोः तामुदयनीये संयाजयति - काठ. सं. २३.९

९२अनग्नौ वा एतामाहुतिं जुहोति तामीश्वराणि रक्षांस्यनूदय्य हन्तोर्यदपो निनयति शान्त्या एव - - - -काठ. सं. २४.४

९३अग्निर्वा एष वैश्वानर उपावसृज्यते यदग्निष्टोमस्स ईश्वरो ऽशान्तो यजमानं च सदस्यांश्चाभ्युषः प्रोर्णुवीत यजमान आत्मनो ऽनभिदाहाय । - काठ. सं. २६.१

९४अग्निना वा एष तन्वं विपरिधत्ते तानूनप्त्रे सैनमीश्वरा हिंसितोः - काठ. सं. २६.२

९५यात्मनस्तां पूर्वां ब्रूयाद्यदितरस्य पूर्वां ब्रूयादीश्वरो निकमो - - -काठ. सं.२६.२

९६ईश्वरो यज्ञो विवृहो यदुक्थं विगृह्णाति - - - काठ. सं. २७.१०

९७सोमपा वा एते ब्राह्मणास्तेषां तेजस्वीनि चक्षूंष्यरातीयन्ति वा एते ददते त एनमीश्वराः प्रतिनुदस्तेभ्य एव नमस्करोति - - -काठ. सं. २८.४

९८पात्नीवतम् :वज्रो वा एष पुरस्तात् संमीयते यदेकादशिनी स ईश्वरः प्रत्यंचं यज्ञं संपुरो यत् पात्नीवतो मीयते - - - काठ. सं. ३०.१

९९पात्नीवतम् : परांच इव ह्येते न रोहन्ति त ईश्वराः प्रमेतो - - -काठ. सं. ३०.५

१००स ईश्वरो यजमानो ऽपशुः पराभवितोर्ये बध्यमानमनुबध्यमानाः - - -काठ. सं. ३०.९

१०१पुरोडाश - काठ. सं. ३१.७

१०२छन्दोभिर्हि पराङ् रोहति स ईश्वरः प्रमेतोः । - काठ. सं. ३२.५

१०३असुर्यं वा एतस्माद्वर्णं कृत्वा तेज इन्द्रियं वीर्यं प्रजा पशवो ऽपक्रामन्ति यस्य यूपो विरोहति स ईश्वर ईजानः पापीयान् भवति - - -काठ. सं.३४.२

१०४अग्नये वीतमन्यवे स्वाहेति जुहुयादीश्वरो वा अभिचरो ऽशान्तः प्रत्यङ्ङेता शान्त्यै । - काठ. सं.३७.१४

( तैत्तिरीय संहिता , मैत्रायणी संहिता नहीं देखे ।)