PURAANIC SUBJECT INDEX

पुराण विषय अनुक्रमणिका

(From vowel i to Udara)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

Home Page

I - Indu ( words like Ikshu/sugarcane, Ikshwaaku, Idaa, Indiraa, Indu etc.)

Indra - Indra ( Indra)

Indrakeela - Indradhwaja ( words like Indra, Indrajaala, Indrajit, Indradyumna, Indradhanusha/rainbow, Indradhwaja etc.)

Indradhwaja - Indriya (Indradhwaja, Indraprastha, Indrasena, Indraagni, Indraani, Indriya etc. )

Indriya - Isha  (Indriya/senses, Iraa, Iraavati, Ila, Ilaa, Ilvala etc.)

Isha - Ishu (Isha, Isheekaa, Ishu/arrow etc.)

Ishu - Eeshaana (Ishtakaa/brick, Ishtaapuurta, Eesha, Eeshaana etc. )

Eeshaana - Ugra ( Eeshaana, Eeshwara, U, Uktha, Ukhaa , Ugra etc. )

Ugra - Uchchhishta  (Ugra, Ugrashravaa, Ugrasena, Uchchaihshrava, Uchchhista etc. )

Uchchhishta - Utkala (Uchchhishta/left-over, Ujjayini, Utathya, Utkacha, Utkala etc.)

Utkala - Uttara (Utkala, Uttanka, Uttama, Uttara etc.)

Uttara - Utthaana (Uttara, Uttarakuru, Uttaraayana, Uttaana, Uttaanapaada, Utthaana etc.)

Utthaana - Utpaata (Utthaana/stand-up, Utpala/lotus, Utpaata etc.)

Utpaata - Udaya ( Utsava/festival, Udaka/fluid, Udaya/rise etc.)

Udaya - Udara (Udaya/rise, Udayana, Udayasingha, Udara/stomach etc.)

 

 

 

ईश

टिप्पणी : ऋग्वेद १.१७०.५ , ४.५२.३, ४.५५.८ ,७.७५.५ , ७.९७.१० आदि कईं ऋचाओं में मुख्य रूप से अग्नि व इन्द्र तथा गौण रूप से उषा , सविता आदि देवताओं द्वारा वसुओं का ईशन करने के उल्लेख आते हैं । अग्नि मुख्य रूप से वस्व का ईशन करती है । डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार वसु वासनाओं के परिष्कृत रूप हैं - वासनाएं जिनका संस्कार करके उन्हें वसु या धन में रूपांतरित कर लिया गया है । इस विचारधारा की पुष्टि भविष्य पुराण ३.४.१५ में कुबेर , वरुण , अनल, अनिल , ध्रुव , सोम , प्रत्यूष और प्रभास नामक आठ वसुओं के वसु बनने की कथाओं से होती है जहां प्रत्येक वसु वासना का परिष्कृत रूप है । उदाहरण के लिए कुबेर की कथा में शिव द्वारा मैत्री की स्थापना का चित्रण किया गया है । मुक्तिकोपनिषद २.६९ में भी मैत्री आदि अमल वासना ग्रहण करने का निर्देश है । ऋग्वेद १.१००.७ में इन्द्र के करुण का ईश होने का उल्लेख है । अतः यह संभव है कि मैत्री , करुणा , मुदिता व उपेक्षा नामक चार प्रसिद्ध गुणों की गणना वैदिक साहित्य में वसुओं के रूप में की गई हो । तैत्तिरीय आरण्यक १.९.१ में अग्नि , जातवेदा , सहोजा आदि अग्नि के आठ वसुओं का उल्लेख है । दूसरी ओर , शतपथ ब्राह्मण ११.६.३.६ आदि में अग्नि, पृथिवी , वायु , अन्तरिक्ष , आदित्य, द्यौ , चन्द्रमा व नक्षत्र नामक आठ वसुओं का उल्लेख आता है । यह संभव है कि अग्नि के जिन आठ वसुओं का उल्लेख आता है, वह आठ दिशाओं में वासनाओं से सम्बन्धित हों , जबकि अग्नि, पृथिवी , वायु आदि आठ वसु साधना के ऊर्ध्वमुखी मार्ग से सम्बन्ध रखते हों । डा. फतहसिंह आदि की विचारधारा के अनुसार दिशाओं में पूर्व दिशा कार्य ज्ञान की , दक्षिण दिशा दक्षता प्रप्ति की , पश्चिम दिशा सत्यानृत विवेक की और उत्तर दिशा कार्य आनन्द की दिशा है । भक्ति मार्ग में इन्हें सालोक्य , सारूप्य , सायुज्य व सामीप्य ( क्रम? ) नाम दिए गए हैं । अतः प्रत्येक दिशा की साधना से उस दिशा की वासनाओं का वसु में रूपांतरण हो सकता है । षड्-विंश ब्राह्मण ६.३.१ में चार दिशाओं तथा पृथिवी , अन्तरिक्ष आदि में साधक के समक्ष प्रकट होने वाले अद्भुतों का वर्णन किया गया है । ऐसा अनुमान है कि यह अद्भुत वासनाएं ही हैं ।

          प्रश्न उठता है कि वसुओं के ईशन / स्वामित्व से क्या प्राप्त होगा ? ऋग्वेद ४.५५.८ के अनुसार अग्नि वसव्य का ईशन करके उनमें हमारे लिए रास की स्थिति उत्पन्न करती है । ऋग्वेद ४.३२.७ तथा ८.७१.१३ से अनुमान लगाया जा सकता है कि ईशन से इष की प्राप्ति होगी । इष नामक जिस दिव्य वर्षा के जल का व्यय अभी तक वासनाओं को तृप्त करने में ही हो रहा था, वासनाओं को वसु बनाने के पश्चात् वह हमारे व्यक्तित्व को शततन्तु वीणा बना देगा ( तैत्तिरीय संहिता ७.५.९.२ ) । यजुर्वेद का प्रथम अध्याय इषे त्वा , ऊर्जे त्वा इत्यादि मन्त्र से आरंभ होता है और अंतिम अध्याय ईशावास्यम् इदं सर्वं इत्यादि मन्त्र से आरंभ होता है । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि सारा यजुर्वेद वसुओं / वासनाओं के ईशन द्वारा इष को सुरक्षित करने से सम्बन्धित है जिसका सार ईशावस्योपनिषद नामक अंतिम अध्याय में दिया गया है । यह उल्लेखनीय है कि ईशा शब्द को पार्वती देवी का रूप देकर उसकी प्रकृति को स्पष्ट करने का प्रयत्न केवल पुराणों में ही किया गया है । अथर्ववेद ११.८.१७ में ईशा को वश की जाया कहा गया है ।

           शतपथ ब्राह्मण २.४.१.४ तथा ४.५.५.७ में वसुओं के ईशन की प्रक्रिया को गार्हपत्य अग्नि पर प्रजाओं के ईशन तथा दिव्य आहवनीय अग्नि पर पशुओं के ईशन में विभाजित किया गया है । अन्यत्र कहा गया कि पशु ही वसु हैं । अथर्ववेद २.२८.३ आदि में भी पशुओं के ईशन का उल्लेख है । अज , अवि, गौ , अश्व व पुरुष नामक ५ ग्राम्य पशुओं में से अज व अवि तो एक संवत्सर में बहुत सी प्रजाएं उत्पन्न करते हैं, अतः इन्हें प्रजाओं के अन्तर्गत रखा गया है । यह विचारों आदि के उत्पन्न होने की स्थिति हो सकती है जिनको शान्त करना ही अज नामक भक्ति अवस्था को प्राप्त करने का प्रतीक है । पुराणों में संभवतः इस तथ्य को दक्ष प्रजापति के यज्ञ ध्वंस की कथा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है।

          ऋग्वेद ३.१६.१ तथा ४.२१.४ आदि कईं ऋचाओं में रायः नामक धन के ईशन का उल्लेख है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है । ऋग्वेद २.४२.३ आदि कईं ऋचाओं में स्तेन व अघशंस आदि के हमारे ऊपर ईशन न करने की कामना की गई है । ऋग्वेद ८.८२.७ -९ में शुद्ध किए हुए सोम आदि के पान से इन्द्र द्वारा ईशन करने का उल्लेख है ।

          आधुनिक विज्ञान में जड पदार्थों के साथ व्यवहार करते हुए उनमें उपस्थित वासनाओं का आकलन जटिल चर x+iy के रूप में किया जाता है । x किसी फलन का वास्तविक भाग है और iy काल्पनिक भाग । यदि मन अथवा चेतना के स्तर पर उपयुक्त फलन का उपयोग करना हो तो x चेतन मन और iy अर्धचेतन अथवा अचेतन मन का प्रतीक हो सकता है । क्वाण्टम यांत्रिकी में जब किसी जटिल चर पर किसी बाहरी शक्ति , जिसे आंपरेटर कहा जाता है , का प्रभाव देखना होता है , तो वह आंपरेटर फलन x+iy पर ही कार्य करता है । जब किसी सूक्ष्म द्रव्य की सत्ता का , उसके अस्तित्व की संभावना का प्रदर्शन करना होता है तो जटिल चर x+iy तथा इसके जटिल संयुग्मी x-iy को परस्पर गुणा कर दिया जाता है जो x.x - y.y के बराबर होता है । चेतना के विज्ञान में ८ वसुओं , ११ रुद्रों और १२ आदित्यों के रूप को गणित की भाषा में कैसे प्रदर्शित किया जा सकता है , यह अन्वेषणीय है ।

ऋषि पंचमी व्रत द्वारा माता - पिता के उद्धार के कथन के संदर्भ में ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ईश से की गई है । ईश अवस्था शव और उग्र अवस्थाओं के पश्चात् आती है । ऋषि की कामना ब्रह्म को प्राप्त करने की , शव अवस्था को प्राप्त करने की होती है ।

प्रथम प्रकाशन : १९९८ ई.

ईश

अनुद्धृत अंश

१दर्शपूर्ण मास में स्विष्टकृत आहुति : योऽयं देवः पशूनामीष्टे - य इहाहीयत । तस्माद् वास्तव्य इत्याहु: । - मा.श.१.७.३.२

२ब्रह्मणः प्राशित्रहरणम् : ते देवाः ऊचुर्योऽयं देवः पशूनामीष्टे - अन्तसन्धं वा अयं चरति - य इत्थं स्वाg दुहितरमस्माकं स्वसारं करोति , विध्येममिति । - - -मा.श.१.७.४.३

३मित्रावरुणौ त्वा वृष्टयावताम् । तद्यो वर्षस्येष्टे - स त्वा वृष्ट्यावतु । अयं वै वर्षस्येष्टे योऽयं पवते । - - - ताविमौ प्राणोदानौ । - - - मा.श.१.८.३.१२

४प्रजापतिर्वा एष भूत्वा - यावत ईष्टे , यावदेनमनु तस्य रेतः सिंचति - यदग्निहोत्रं जुहोति । - - - - मा.श.२.३.४.८

५दक्षिणादानम् : ( आग्नीध| पर दो या एक आहुति देता है ) । अग्निर्वै पशूनामीष्टे । - मा.श.४.३.४.११

६देव त्वष्टर्वसु रम । त्वष्टा वै पशूनामीष्टे । पशवो वसु । - मा.श.३.७.३.११

७सोमस्य आनयनम् : चत्वारो राजासन्दीमाददते । द्वौ वा ऽस्मै मानुषाय राज्ञऽआददते । अथैतां चत्वारो  योऽस्य सकृत्सर्वस्येष्टे । - मा.श.३.३.४.२६

८गृहाणां ह पितर ईशते । - मा.श.२.६.१.४२ , २.४.२.२४

९त्र्यम्बक हविर्यागः : या ह वै सा रुद्रस्य स्वसाऽम्बिका नाम - सा ह वै भगस्येष्टे । - मा.श.२.६.२.१३

१० शुक्रपात्रम् : पुरुषो वै पशूनामैन्द्रः । तस्मात्पशूनामीष्टे । - मा.श.४.५.५.७

११पत्नी : ता हता निरष्टा नात्मनश्चनैशत, न दायस्य चनैशत । (द्रष्टव्य :सायण भाष्य )। - मा.श.४.४.२.१३

१२एष वै प्रजापतेः प्रत्यक्षतमां - यद्राजन्यः । तस्मादेकः सन् बहूनामीष्टे । चतुरक्षरो प्रजापतिः चतुरक्षरो राजन्यः । - मा.श.५.१.५.१४

१३त्वाष्ट्रं दशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । त्वष्टा वै रूपाणां ईष्टे । त्वष्ट्रैव तद्रूपैर्वरुणोऽनुसमसर्पत् । - मा.श.५.४.५.८

१४एता वै देवाः सवस्येशते । तस्माद्देवस्वो नाम । - मा.श.५.३.३.१३

१५भव, शर्व, महादेव, ईशान आदि नामों का निर्वचन : आदित्यो वा ऽईशानः । आदित्यो ह्यस्य सर्वस्येष्टे । - मा.श.६.१.३.१७

१६गार्हपत्य अग्नि चयन : अदाद्यमोऽवसानं पृथिव्या: । यमो ह वा अस्या अवसानस्येष्टे । - मा.श.७.१.१.३

१७विश्वे च वै देवा मरुतश्च वर्षस्येशते । - मा.श. ७.२.२.१०

१८इमा मे अग्न इष्टका धेनवः सन्तु । अग्निर्हैतासां धेनुकरणस्येष्टे । - मा.श.९.१.२.१६

१९- - - -मरुतो वै वर्षस्येशते । अश्मस्ते क्षुत् इति निदधाति । तदश्मनि क्षुधं दधाति । - - - -स्थिरो वा अश्मा , स्थिरा क्षुत् । ( तुलनीय : ऋग्वेद १०.४३.३ में इन्द्र का क्षुधा का ईश होना ) - मा.श.९.१.२.५

२०त्वं साहस्रस्य राय ईशिषे इति । - - - मा.श.९.२.३.३२

२१प्राण एव पशुबन्ध: । तस्माद्यावज्जीवति । नास्यान्यः पशूनामीष्टे । बद्धा हि अस्मिन् ऐते भवन्ति । - मा.श.११.८.३१।४

२२सौत्रामणी यागः : ( इन्द्र के लोहित से ) सह अस्रवत् । स सिंहो ऽभवत्~ । आरण्यानां पशूनामीशः । - मा.श.१२.७.१.८

२३सिंह लोमानि भवन्ति । सह एवेशामारण्यानां पशूनामवरुन्धे । - मा.श.१२.७.२.८

२४- - - -रुद्रो हि पशूनामीष्टे । सुराग्रह - - -( प्राणा वै पयोग्रहाः , शरीरं सुराग्रहाः - मा.श.१२.७.३.२०

२५अश्वमेधीय प्रायश्चित्तानि : अथ यदि स्रामो विन्देत् । पौष्णं चरुमनुनिर्वपेत् । पूषा वै पशूनामीष्टे । - - - - मा.श.१३.३.८.२

२६अग्निर्वा आयुष्मान् आयुष ईष्टे । - मा.श.१३.८.४.८

२७नहि मन्युः पौरुषेय ईशे हि वः प्रियजात । त्वमिदसि क्षपावान् । ( अग्निः ) - ऋ. ८.७१.२

२८विश्वस्यैक ईशिषे सास्युक्थ्यः । ( इन्द्रः ) - ऋ.२.१३.६

२९त्वं ह्येक ईशिषे इन्द्र वाजस्य गोमतः । स नो यन्धि महीमिषम् ॥ - ऋ.४.३२.७

३०सं सहसे पुरुमायो जिहीते नमो अस्य प्रदिव एक ईशे । ( इन्द्रः ) - ऋ.३.५१.४

३१मनो न यो ऽध्वनः सद्य एत्येकः सत्रा सूरो वस्व ईशे ।(अग्निः ) - ऋ.१.७१.९

३२स विश्वस्य करुणस्येक ईशे  ( इन्द्रः ) - ऋ.१.१००.७

३३मा त्वा तनदीशिषे वीर्यस्योभयेभ्यः प्र चिकित्सा गविष्टौ ॥ ( सोमः ) - ऋ.१.९१.२३

३४त्वं शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे । ( अग्निः ) - ऋ. २.१.६

३५त्वं भगो नृपते वस्व ईशिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेऽविधत् । ( अग्निः ) - ऋ.२.१.७

३६मा नो अरातिरीशत देवस्य मर्त्यस्य च । ( अग्निः ) - ऋ.२.७.२

३७सेमामविड्ढि प्रभृतिं य ईशिषे - ( ब्रह्मणस्पतिः ) - ऋ.२.२४.१

३८दामेव वत्साद् वि मुमुग्ध्यंहो नहि त्वदारे निमिषश्चनेषे ( वरुणः ) - ऋ.२.२८.६

३९होत्रादा सोमं प्रथमो य ईशिषे ( इन्द्रः ) - ऋ.२.३६.१

४०मा नः स्तेन ईशत माघशंसः ( शकुन्त ) - ऋ.२.४२.३

४१अयमग्निः सुवीर्यस्य ईशे महः सौभगस्य । राय ईशे स्वपत्यस्य गोमत ईशे वृत्रहथानाम् ॥ - ऋ.३.१६.१

४२अग्निरीशे बृहतः क्षत्रियस्य । अग्निर्वाजस्य परमस्य रायः । - ऋ.४.१२.३

४३अस्य घा वीर ईवतो अग्नेरीशीत मर्त्यः । - ऋ.४.१५.५

४४स्थूरस्य रायो बृहतो य ईशे ( इन्द्रः ) - ऋ.४.२१.४

४५उत सखास्यश्विनो उत माता गवामसि । उतोषो वस्व ईशिषे ॥ - ऋ.४.५२.३

४६अग्निरीशे वसव्यस्या अग्निर्महः सौभगस्य । तान्यस्मभ्यं रासते ॥ - ऋ.४.५५.८

४७य आश्वश्वा अमवद् वहन्ते उतेशिरे अमृतस्य स्वराजः ।( मरुतः ) - ऋ.५.५८.१

४८उतेशिषे प्रसवस्य त्वमेक इत् उत पूषा भवसि देव यामभिः । - ऋ.५.८१.५

४९अदेव ईशे पुरुहूत योतोः । - ऋ.६.१८.११

५०मा वः स्तेन ईशत माघशंसः( गावः ) - ऋ.६.२८.७

५१एतं पिब हरिवः स्थातरुग्र यस्येशिषे प्रदिवि यस्ते अन्नम् । - ऋ.६.४१.३

५२हिरण्यजिह्व: सुविताय नव्यसे रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत । ( सविता ) - ऋ.६.७१.३

५३पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत । - ऋ.६.७५.१०

५४ईशे ह्यग्निः अमृतस्य भूरे ईशे रायः सुवीर्यस्य दातोः । - ऋ.७.४.६

५५यदिन्द्र यावतस्त्वम् एतावदहमीशीय - ऋ.७.३२.१८

५६अभि यं देवी निर्ऋतिश्चिदीशे नक्षन्त इन्द्रं शरदः सुपृक्ष: । - ऋ.७.३७.७

५७उत स्वराजो अदितिरदब्धस्य व्रतस्य ये । महो राजान ईशते ॥ ( आदित्याः ) - ऋ.७.६६.६

५८वाजिनीवती सूर्यस्य योषा चित्रामघा राय ईशे वसूनाम् । ( उषाः ) - ऋ.७.७५.५

५९बृहस्पते युवमिन्द्रश्च वस्वो दिव्यस्येशाथे उत पार्थिवस्य - ऋ.७.९७.१०

६०यो वर्धन ओषधीनां यो अपां यो विश्वस्य जगतो देव ईशे । - ऋ.७.१०१.२

६१यदिन्द्राहं यथा त्वं ईशीय वस्व एक इत् । - ऋ.८.१४.१

६२वचः दीर्घप्रसद्मनी ईशे वाजस्य गोमतः । ईशे हि पित्वोऽविषस्य दावने ॥ ( मित्रावरुणौ ) - ऋ.८.२५.२०

६३क्षेमस्य च प्रयुजस्य त्वमीशिषे शचीपत - ऋ.८.३७.५

६४ईशिषे वार्यस्य हि दात्रस्याग्ने स्वर्पतिः । - ऋ.८.४४.१८

६५मनोर्विश्वस्य घेदिम आदित्या राय ईशते - - - - -ऋ.८.४७.४

६६मा नो निद्रा ईशत मोत जल्पिः । - ऋ.८.४८.१४

६७त्वमीशिषे सुतानामिन्द्र त्वमसुतानाम् । - ऋ.८.६४.३

६८य इन्द्र चमसेष्वा सोमश्चमूषु ते सुतः । पिबेदस्य त्वमीशिषे । यो अप्सु चन्द्रमा इव सोमश्चमूषु ददृशे । पिबेदस्य त्वमीशिषे । यं ते श्येनः पदाभरत् तिरो रजांस्यस्पृतम् । पिबेदस्य त्वमीशिषे ॥ - ऋ.८.८२.७

६९ईशे यो वृष्टे उत उस्रियो वृषा ( पवमान सोमः ) - ऋ.९.७४.३

७०माकिर्नो अस्य परिषूतिरीशतेन्दो जयेम त्वया धनंधनम् । - ऋ.९.८५.८

७१ईशे यो विश्वस्या देववीतेरीशे विश्वायुरुषसो व्युष्टौ ( अग्निः ) - ऋ.१०.६.३

७२ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनां । अपो याचामि भेषजम् । ( आपः ) - ऋ.१०.९.५

७३सेध राजन्नप स्रिधो वि वो मदे मा नो दुःशंस ईशता विवक्षसे । ( सोमः ) - ऋ.१०.२५.७

७४यदीशीयामृतानां उत वा मर्त्यानाम् । जीवेदिन्मघवा मम । - ऋ.१०.३३.८

७५मा दुर्विदत्रा निर्ऋतिर्न ईशत तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे । - ऋ.१०.३६.२

७६विषूवृदिन्द्रो अमते उत क्षुधः स इद्रायो मघवा वस्व ईशते । - ऋ.१०.४३.३

७७य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम । ( सार्वत्रिक ऋचा ) - ऋ.१०.१२१.३

७८नहि तेषाममा चन नाध्वसु वारणेषु । ईशे रिपुरघशंसः ॥ - ऋ.१०.१८५.२

७९त्वमीशिषे सास्मिन्ना सत्सि बर्हिषि - - -ऋ.१०.४४.५

८०महिम्न एषां पितरश्चनेशिरे देवा देवेष्वधुरपि क्रतुम् । ( विश्वेदेवाः ) - ऋ.१०.५६.४

८१न सेशे यस्य रम्बते अन्तरा सक्थ्या कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृतम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे - - - - - -ऋ.१०.८६.१६

८२इन्द्रो दिव इन्द्र ईशे पृथिव्या इन्द्रो अपामिन्द्र इत् पर्वतानाम् । इन्द्रो वृधामिन्द्र इन्मेधिराणामिन्द्रः क्षेमे योगे हव्य इन्द्रः - ऋ.१०.८९.१०

८३द्विपद व चतुष्पद का ईशन - अथर्ववेद२.३४.१, ४.२.१, ६.२८.३, ८.२.२३, ४.२८.६

८४यावदीशे ब्रह्मणा वन्दमान इमां धियं शतसेयाय देवीम् । - अ.३.१५.३

८५यस्य नेशे यज्ञपतिर्न यज्ञो नास्य दातेशे न प्रतिग्रहीता । यो विश्वजिद् विश्वभृद् विश्वकर्मा घर्मं नो ब्रूत यतमश्चतुष्पात् ॥ -अ.४.११.५

८६सर्वे देवा अतित्रसन् ये संग्रामस्येशते । - अ.५.२१.७

८७समुद्र ईशे स्रवतामग्निः पृथिव्या वशी । चन्द्रमा नक्षत्रामीषे त्वमेकवृषो भव ॥ - अ.६.८६.२

८८देव संस्फान सहस्रापोषस्येशिषे । तस्य नो रास्व तस्य नो धेहि तस्य ते भक्तिवांसः स्याम - अ.६.७९.३

८९मृत्युरीशे द्विपदां मृत्युरीशे चतुष्पदां ।- - - -अ.८.२.२३

९०भवो दिवो भव ईशे पृथिव्या भव आ पप्र उर्वन्तरिक्षम् । - अ.११.२.२७

९१ईशा वशस्य या जाया सास्मिन् वर्णमाभरत् (विवाह / वधू सूक्त ? ) - अ.११.८.१७

९२ईशां वो वेद राज्यं त्रिषंधे अरुणैः केतुभिः सह । - अ.११.१२.२/११.१०.२

९३मा नो अद्य गवां स्तेनो मावीनां वृक ईशत - अ.१९.४७.६

९४यो अस्य विश्वजन्मन ईशे विश्वस्य चेष्टतः ।- - - - अ.११.६.२३/११.४.२३ ( तैत्तिरीय संहिता नहीं लिखी )

या समा सत्त्र समृद्धं क्षोधुकास् ता समाम् प्रजा इष ह्य् आसामूर्जम् आददते या समां व्यृद्धम् अक्षोधुकास् ता समाम् प्रजाः न ह्य् आसाम् इषमूर्जम् आददते । - तैसं ७.५.९.२

 

Vedic mantras frequently refer to appointment of different gods as the rulers of a particular type of wealth, called vasu.  It is a guess that word vasu is symbolic of our desires in different spheres. Word vasu involves in itself two parts – real and imaginary in modern mathematical terms. The appointment of a presiding deity will convert the imaginary part into real part. This is akin to converting our unconscious mind into conscious mind, about which Rajaneesha has talked so much in his lectures.

First published : 1999 AD; published on internet : 21-1-2008 AD(Pausha shukla 14, Vikramee samvat 2064)