पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Pitaa to Puurnabhadra ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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टिप्पणी ऋग्वेद १०.९० सूक्त पुरुष सूक्त कहलाता है। इस सूक्त का ऋषि नारायण है और देवता पुरुष है। पुरुष वह है जो प्रकृति को प्रभावित कर सके। पुरुष सूक्त को समझने की कुंजी हमें स्कन्द पुराण ६.२३९ से प्राप्त होती है जहां पुरुष सूक्त का विनियोग विष्णु की मूर्ति की अर्चना के विभिन्न स्तरों पर किया गया है। १ प्रथम मन्त्र सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशांगुलम्।। श्वेताश्वर उपनिषद ३.१४ में इस मन्त्र के पूर्व निम्नलिखित मन्त्र प्रकट होता है – अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः। हृदा मन्वीशो मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। श्वेताश्वरोपनिषद के इस मन्त्र में अंगुष्ठमात्र पुरुष से अभिप्राय स्वयं नारायण ऋषि से हो सकता है जो सहस्रशीर्षा आदि बनकर, ब्रह्मा बनकर प्रकृति को प्रभावित करना चाहता है, उसमें सृष्टि करना चाहता है। शतपथ ब्राह्मण १३.६.१.१ में पुरुषमेध का वर्णन है। यहां कहा गया है कि नारायण पुरुष ने कामना की कि वह सब भूतों का अतितिष्ठन करे। उसने यह पुरुषमेध पंचरात्र यज्ञक्रतु देखा और इसका यजन करके सब भूतों का अतितिष्ठन किया। इससे संकेत मिलता है कि पुरुष सहस्रशीर्षा जो पुरुष उत्पन्न होगा, उसको और अधिक पवित्र करने की संभावनाएं विद्यमान हैं। पुरुष की निरुक्ति पुरि शेते इति पुरुष रूप में की गई है। अविकसित स्थिति में कालपुरुष प्रकृति का नियन्त्रण कर रहा है।
२ द्वितीय मन्त्र पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।। इस मन्त्र का विनियोग आसन समर्पण हेतु है। इस मन्त्र में भूत और भव्य का उल्लेख है जिन्हें पुरुष ही कहा गया है। पुरुष वह होता है जो प्रकृति को प्रभावित कर सके। भूतकाल के कर्मों के फल वर्तमान को प्रभावित करते हैं, अतः वह पुरुष ही हैं। भव्य या भविष्य वर्तमान को प्रभावित करता है या नहीं, यह विवादास्पद है।
३ तृतीय मन्त्र एतावानस्य महिमा ऽतो ज्यायाँश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।। इस मन्त्र का विनियोग पाद्य जल अर्पित करने हेतु है, वह पाद्य जिसमें गंगा का भी समावेश हो।
४ चतुर्थ मन्त्र त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः। ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि।। इस मन्त्र का विनियोग अर्घ्य अर्पित करने में है। इस मन्त्र के दूसरे पाद में कहा जा रहा है कि तीन पाद ऊपर उदय होने के पश्चात् उस पुरुष का एक पाद फिर नीचे की ओर आया और फिर उस पुरुष ने उन भूतों की प्रदक्षिणा की जो अशन(भूख) से ग्रस्त होते हैं तथा जो क्षुधा से रहित हैं।
५ पंचम मन्त्र तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।। इस मन्त्र का विनियोग आचमन हेतु है।
६ षष्ठम मन्त्र यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः।। इस मन्त्र का विनियोग स्नान हेतु है। इस मन्त्र में आज्य के प्रकट होने को वसन्त कहा जा रहा है। साधारण भाषा में आज्य उस घृत को कहते हैं जो दुग्ध के ऊपर स्वाभाविक मन्थन के कारण प्रकट हो जाता है। योग की भाषा में आज्य को आ-ज्योति कहा जा सकता है। इस प्रकार जब आज्य प्रकट हो जाए, तब वसन्त का प्रादुर्भाव मानना चाहिए। वसन्त में सोए हुए प्राण जाग जाते हैं, अंकुर निकलने लगते हैं। जब सारा शरीर इंधन की भांति तेज से जलने लगे, उसे ग्रीष्म समझना चाहिए। शतपथ ब्राह्मण १३.६. में पांच ऋतुओं को पंचरात्र के ५ अहों में विभाजित किया गया है तथा लोकों के रूप में भी विभाजन किया गया है। इस लोक को वसन्त, अन्तरिक्ष व इस लोक के बीच की स्थिति को ग्रीष्म, अन्तरिक्ष को वर्षा व शरद, अन्तरिक्ष व द्युलोक के बीच की स्थिति को हेमन्त तथा द्युलोक को शिशिर कहा गया है। शिर शिशिर है जबकि पाद या प्रतिष्ठा वसन्त है।
७ सप्तम मन्त्र तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये।। इस मन्त्र का विनियोग वस्त्र पहनाने हेतु है।
८ अष्टम मन्त्र तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम्. पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये।। इस मन्त्र का विनियोग यज्ञोपवीत धारण कराने हेतु है। पृषदाज्य का अर्थ होता है वह आज्य जिसमें आसुरी तत्त्व मिला हुआ है। आरण्यक पशु हमारी वह वृत्तियां हो सकती हैं जिन पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। ग्राम्य पशु वह वृत्तियां हो सकती हैं जिन पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
९ नवम मन्त्र तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।। इस मन्त्र का विनियोग चन्दनादि के सुलेप हेतु है।
१० दशम मन्त्र तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः।। इस मन्त्र का विनियोग पुष्प अर्पण हेतु है।
११ एकादश मन्त्र यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते।। इस मन्त्र का विनियोग धूपदान हेतु है।
१२ द्वादश मन्त्र ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। इस मन्त्र का विनियोग दीपदान हेतु है।
१३ त्रयोदश मन्त्र चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत।। इस मन्त्र का विनियोग अन्न निवेदन हेतु है।
१४ चतुर्दश मन्त्र नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकाँ अकल्पयन्।। इस मन्त्र का विनियोग नमस्कार हेतु है।
१५ पंचदश मन्त्र सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्।। इस मन्त्र का विनियोग भ्रमण या प्रदक्षिणा हेतु है।
१६ षोडश मन्त्र यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।। इस मन्त्र का विनियोग देव सायुज्य हेतु है।
पुरुष सूक्त का विनियोग प्रेत को पिण्डदान हेतु पिण्डनिर्माण करने के समय भी होता है। अतः यह विचारणीय है कि पिण्डनिर्माण में, ऊर्जा को ठोस रूप प्रदान करने में, ऊर्जा की अव्यवस्था या एण्ट्रांपी कम करने में पुरुषसूक्त किस प्रकार सहायता कर सकता है। प्रथम लेखन – ७-४-२०११ ई.( चैत्र शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत् २०६८) |