पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Pitaa to Puurnabhadra  )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Pitaa- Pitriyaana ( words like  Pitaa / father, Pitaamaha / grandfather etc. )

Pitrivartee - Pishangajata ( Pinaaki, Pipeelikaa / ant, Pippalaa, Pippalaada etc.)

Pishaacha - Peevari ( Pishaacha, Pishta / ground, Peetha / chair, Peeta / yellow, Peevari etc.)

Punshchalee - Punyajana ( Punjikasthalaa, Pundareeka, Pundra, Punya etc.)

Punyajani - Punarvasu ( Punyasheela, Putra / son, Putri / Putree / daughter, Punarvasu etc.)

Punnaaga - Pureesha (Pura / residence, Puranjana, Puranjaya, Purandara, Puraana, Pureesha etc. ) 

Puru - Purusha ( Puru, Purukutsa, Purusha / man etc. )

Purusha - Pulaka  ( Purushasuukta, Purushaartha, Purushottama, Puruuravaa, Purodaasha, Purohita etc.)

Pulastya - Pulomaa ( Pulastya, Pulinda, Pulomaa etc.)

Pulkasa - Pushkaradweepa (  Pushkara etc. )

Pushkaraaksha - Pushpa ( Pushkaraavarta, Pushkarini /pushkarinee, Pushkala, Pushti, Pushpa / flower etc.)

Pushpaka - Pushya ( Pushpaka, Pushpadanta, Pushpabhadra, Pushya etc.)

Pushyamitra - Puujaa (Puujaa / worship)

Puutanaa - Puurnabhadra (  Puurana, Puuru /pooru, Puurna / poorna / complete, Puurnabhadra /poornabhadra etc.)

 

 

पुरोहित

टिप्पणी : दिनांक १७-५-२०१२ तथा १६-६-२०१२ई. को वेद संस्थान, नई दिल्ली में पूरे दिन की गोष्ठियां हुई जिनका विषय ऋग्वेद प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त रहा। लौकिक कर्मकाण्ड में ऋग्वेद के प्रतीक के रूप में ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा का उच्चारण किया जाता है

अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्। होता॑रं रत्न॒धात॑ममं॥ - ऋ. १.१.१

प्रश्न यह है कि क्या यह ऋचा वास्तव में पूरे ऋग्वेद का प्रतिनिधित्व करती है? इस प्रश्न के उत्तर को खोजने के लिए हम सर्वप्रथम इस ऋचा के  पुरोहित शब्द पर विचार करते हैं। पुरोहितं शब्द  का सन्धिविच्छेद पुरः हितं के रूप में किया जाता है। शब्दकल्पद्रुम में पुरोहित/पुरोधा शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गई है पुरो दृष्टादृष्टफलेषु कर्म्मसु धीयते आरोप्यते यः। (यद्वा, पुर आदावेव हितं मङ्गलं यस्मात्)। यह निरुक्ति इस सिद्धान्त पर आधारित है कि जो कुछ भविष्य में घटित होना है, उसके कारण पहले ही विद्यमान हैं। लेकिन वह कारण दिखाई नहीं देते, छिपे हुए हैं। क्या ऐसा भी सम्भव है कि हम अपने कर्मों के फलस्वरूप जो कारण बने हैं, उन्हें बदल दें? इस विषय में विभिन्न मत प्रचलित हैं। योगवासिष्ठ का कथन है कि जो बीज विद्यमान हैं, उन्हें यदि भून दिया जाए तो वह अंकुरित नहीं होंगे। कुछ का मत है कि जो कर्मफल बने हैं, यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि उन्हें भोगना ही पडे। उनसे बचा भी जा सकता है। समाज में पुरोहित नाम की संस्था के द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति अपने कर्मफलों से बचना चाहे तो वह पुरोहित के ज्ञान का आश्रय लेकर अपने कर्मों से निर्मित कारणों से बच सकता है। और अधिक गहराई में जाएं तो यह कह सकते हैं कि पुरोहित नाम की जिस संस्था का निर्माण समाज में किया गया है, उसका निर्माण हमें अपने अन्दर भी करना है। और इस सीमा तक करना है कि हमारे द्वारा निर्मित पुरोहित हमारे सारे कर्मफलों को बदलने में समर्थ हो। राजा की रक्षा के लिए नियुक्त पुरोहित का यही उद्देश्य होता है।

पुरोहितं शब्द  का एक अर्थ जो पूर्व दिशा में छिपा हुआ है के रूप में किया जा सकता है। यदि इस अर्थ को माना जाए तो ऋग्वेद की प्रथम ऋचा के प्रथम पाद का  अर्थ हुआ कि हम उस अग्नि का ईळन या उपासना करते हैं जो पूर्व दिशा में छिपा हुआ है। पूर्व दिशा में छिपे हुए अग्नि को लौकिक भाषा में पुरोहित कहा जा सकता है। यदि पूर्व दिशा में छिपे हुए अग्नि को पुरोहित कहा जाता है तो पश्चिम् दिशा में छिपे हुए अग्नि को क्या कहा जाएगा? इसका उत्तर ब्राह्मण ग्रन्थों तथा पुराणों में इस प्रकार दिया गया प्रतीत होता है कि पूर्व दिशा में छिपा हुआ अग्नि तो देवों का पुरोहित है, जबकि पश्चिम दिशा में छिपा हुआ अग्नि असुरों का पुरोहित है। पूर्व दिशा ज्ञान की दिशा है। ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ होगा अपने पुरोहित का निर्माण करना। पश्चिम् दिशा पापों के नाश की, पापों को जलाने की दिशा है। इस दिशा के पुरोहित को तैत्तिरीय संहिता ६.४.१०.१ में शण्ड-अमर्क नाम दिया गया है। यह दोनों असुरों के पुरोहित हैं। शण्ड का अर्थ हो सकता है जिसने अपनी इन्द्रियों को षण्ढ, नपुंसक बना लिया है, अपनी इन्द्रियों की ऊर्जा को अन्तर्मुखी कर लिया है। अमर्क/मर्क का अर्थ अन्वेषणीय है। मर्क का एक अर्थ मृक धातु के आधार पर मूर्ख किया जा सकता है। देवों ने इन दोनों को अपनी ओर मिलाना चाहा तो इन्होंने कहा कि हमें यज्ञ में भाग दोगे तो हम आएंगे। देवों ने इनके लिए यज्ञ में दो पात्र नियत कर दिए जिन्हें शुक्र और मन्थी ग्रह कहते हैं। शुक्र ग्रह से संकेत मिलता है कि पहले इन्द्रियों की स्थिति षण्ढ थी, उनसे कोई ऊर्जा बाहर नहीं निकल सकती थी। अब शुक्र ग्रह प्राप्त होने पर इन्द्रियों की ऊर्जा बाहर निकल सकती है। शुक्र ग्रह को आदित्य का रूप तथा मन्थी ग्रह को चन्द्रमा का रूप कहा गया है। पुराणों में असुरों के पुरोहित के रूप में शुक्राचार्य का नाम तो सार्वत्रिक रूप से आता है, लेकिन शण्ड और मर्क/अमर्क नामों का प्रयोग बहुत कम हुआ है। पुराणों में इन्हें शुक्राचार्य व गौ का पुत्र भी कहा गया है। शुक्राचार्य के लिए एक अन्य नाम उशना कवि अथवा काव्य का प्रयोग पुराणों में तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में हुआ है। उशना शब्द की निरुक्ति वश धातु के आधार पर की गई है। डा. फतहसिंह वश की निरुक्ति इस प्रकार किया करते थे कि एक वक्ष शब्द होता है जिसकी व्याख्या अंग्रेजी के वैक्सिंग-वेनिंग के आधार पर कर सकते हैं- घटना बढना, जैसे चन्द्रमा का घटना-बढना। जो घटने-बढने से मुक्त है, वह वश है। यह स्थिति शण्ड  स्थिति के तुल्य हो सकती है। इस स्थिति में कान्ति, ज्योति उत्पन्न हो सकती है। अतः उशना कान्ति का भी परिचायक है। यह भी हो सकता है कि स्थिति मन्थी पात्र का प्रतिनिधित्व करती हो जिसे चन्द्रमा का रूप कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता ६.४.१०.१ से संकेत मिलता है कि मन्थी पात्र का गुण यह है कि इसमें अक्ष से आरम्भ करके अश्व का गुण भी व्याप्त हो जाता है। और विस्तार में कहें तो इस प्रकार कह सकते हैं कि जड प्रकृति में द्यूत विद्यमान है, प्रत्येक घटना आकस्मिक, चांस दिखाई पडती है। अश्व गुण की व्याप्ति पर द्यूत समाप्त होने लगता है। जब शुक्-मन्थी पात्रों को आदित्य व चन्द्रमा का रूप कहा जाता है तो आदित्य से तात्पर्य प्राण से और चन्द्रमा से तात्पर्य मन से हो सकता है। अग्नि पुराण में पुरोहित के लिए सांवत्सरिक विशेषण का प्रयोग हुआ है। यह सांवत्सरिक स्थिति तभी बन सकती है जब किसी प्रकार मन, प्राण और वाक् का परस्पर युग्मन हो जाए, जैसा बाह्य जगत में पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा के बीच होता है।

     ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से कथन आते हैं(जैमिनीय ब्राह्मण १.१८२, ३.१८६ आदि) कि ब्राह्मण पुरोहित क्षत्रिय यजमान या राजा की चारों ओर से रक्षा करता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पूर्व दिशा ज्ञान की दिशा होती है, दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्ति की, पश्चिम् दिशा पाप नाश की और उत्तर दिशा आनन्द प्राप्ति की। पूर्व दिशा का छन्द गायत्री होता है, दक्षिण का त्रिष्टुप्, पश्चिम् का जगती और उत्तर का अनुष्टुप्। दक्षिण दिशा, दक्षता प्राप्ति की दिशा क्षत्रिय यजमान या राजा की होती है। इस दक्षता प्राप्ति में अन्य तीन दिशाओं से सहयोग मिलना चाहिए, तभी दक्षता की प्राप्ति संभव हो सकती है। जहां पूर्व दिशा में स्थित अग्नि को पुरोहित कहा गया है, वहीं दक्षिण दिशा में स्थित क्षत्रिय को इन्द्र कहा गया है(जैमिनीय ब्राह्मण १.१८२, ३.१८६)। (इन्द्र से तात्पर्य उन प्राणों से हो सकता है जो शान्त स्थिति में पहुंच गए हैं। प्राण सदैव अशान्त रहते हैं)। पश्चिम दिशा पापों के नाश की, वैश्य की दिशा होती है। यह शुक्र ग्रह की स्थिति हो सकती है। उत्तर दिशा अनुष्टुप् छन्द की, मन्थी ग्रह की दिशा हो सकती है।

     ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में अग्नि को पुरोहित कहने के पश्चात् उसको यज्ञस्य देवम्  कहा गया है। इससे संकेत मिलता है कि अग्नि सामान्य रूप से देव नहीं है, वह केवल यज्ञ का देव है। जैमिनीय ब्राह्मण १.२८६ में अंगिरसों व आदित्यों के यज्ञों के संदर्भ में कहा गया है कि आदित्यों का यज्ञ अद्य सुत्या में सम्पन्न होता है, अंगिरसों का श्वः सुत्या में। कोई कार्य इसी क्षण सम्पन्न हो जाए, उसे अद्य सुत्या कहा जाएगा। ऐसा नहीं कि पहले कार्य के बारे में विचार किया, फिर उसको सम्पन्न करने के लिए उपाय किए। नहीं, इसके विपरीत कल्पवृक्ष की स्थिति। इससे विपरीत स्थिति श्वः सुत्या, भविष्य में सम्पन्न होने वाले कार्य की होगी। आदित्यों के यज्ञ को देवों के यज्ञ का प्रतीक कहा जा सकता है। यदि अग्नि वास्तव में देव है तो उसका यज्ञ अद्य सुत्या में सम्पन्न होना चाहिए। लेकिन ऋचा से संकेत मिलता है कि इसमें कहीं कमी है, अतः केवल यज्ञस्य देवं मात्र कहा जा रहा है। अग्नि को प्रायः दूत कहा जाता है।   

 

संदर्भ :

*शुक्रामन्थिग्रहकथनम् : बृह॒स्पति॑र्दे॒वानां॑ पुरोहि॑त॒ आसी॒च्छण्डा॒मर्का॒वसु॑राणां॒ ब्रह्म॑ण्वन्तो दे॒वा आस॒न्ब्रह्म॑ण्व॒न्तोऽसु॑रा॒स्ते॑ १॒ ऽन्यो॑न्यं नाश॑क्नुवन्न॒भिभ॑वि॒तुं ते दे॒वाः शण्डा॒मर्का॒वुपा॑मन्त्रयन्त॒ ताव॑ब्रूतां॒ वरं॑ वृणावहै॒ ग्रहा॑वे॒व ना॒वत्रापि॑ गृह्येता॒मिति॒ ताभ्या॑मे॒तौ शु॒क्राम॒न्थिना॑व॒गृह्णन्ततो॑ दे॒वा अभ॑व॒न्पराऽसु॑रा॒ - - - - - अ॒सौ वा आ॑दि॒त्यः शु॒क्र॒श्चन्द्रमा॑ म॒न्थ्य॑पि॒गृह्य॒ प्राञ्चौ॒ निः क्रा॒मत् - - - -प्राची॑र॒न्या आहु॑तयो हू॒यन्त॑ प्र॒त्यञ्चौ॑ शु॒क्राम॒न्थिनौ॑ प॒श्चाच्चे॒व पु॒रस्ता॑च्च॒ यज॑मानो॒ भ्रातृ॑व्या॒न्प्र णु॑दते॒ - - - - चक्षु॑षी॒ वा ए॒ते य॒ज्ञस्य॒ यच्छु॒क्राम॒न्थिनौ॒ नासि॑कोत्तरवे॒दिर॒भितः॑ परि॒क्रम्य॑ जुहुत॒स्तस्मा॑द॒भितो॒ नासि॑कां॒ चक्षु॑षी॒ - - - - शु॒क्राम॒न्थिनौ॒ वा अनु॑ प्र॒जाः प्र जा॑यन्ते॒ऽत्रीश्चा॒ऽऽद्या॑श्च सु॒वीराः॑ प्र॒जाः प्र॑ज॒नय॒न्प॑रीहि शु॒क्रः शु॒क्रशो॑चिषा सु॒प्र॒जाः प्र॒जाः प्र॑ज॒नय॒न्परी॑हि म॒न्थी म॒न्थिशो॑चि॒षेत्या॑है॒ता वै सु॒वीरा॒ या अ॒त्रीरे॒ताः सु॑प्र॒जा या आ॒द्या॑ य ए॒वं वेदा॒त्र्य॑स्य प्र॒जा जा॑यते॒ नाऽऽद्या॑ प्र॒जाप॑तेः अक्ष्य॑श्वय॒त्तत्परा॑ऽपत॒त्तद्विक॑ङ्कतं॒ प्रावि॑श॒त्तद्विक॑ङ्कते॒ नार॑मत॒ तद्यवं॒ प्रावि॑श॒त्तद्यवे॑ऽरमत॒ तद्यव॑स्य य॒व॒त्वं यद्वैक॑ङ्कतं मन्थिपा॒त्रं भव॑ति॒ सक्तु॑भिः श्री॒णाति॑ प्र॒जाप॑तेरे॒व तच्चक्षुः॒ सं भ॑रति- - - तै.सं. ६.४.१०.१

*स॒वि॒ता प्र॑स॒वाना॒मधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। अ॒स्मिन्ब्रह्म॑ण्य॒स्मिन्कर्म॑ण्य॒स्यां पु॑रो॒धाया॑म॒स्यां प्र॑ति॒ष्ठाया॑म॒स्यां चित्त्या॑म॒स्यामाकू॑त्याम॒स्यामा॒शिष्य॒स्यां दे॒वहू॑त्यां॒ स्वाहा॑॥१॥

अ॒ग्निर्वन॒स्पती॑ना॒मधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ००००००

द्यावा॑पृथि॒वी दा॑तॄ॒णामधि॑पत्नी॒ ते मा॑वताम्। ०००००

वरु॑णो॒ऽपामधि॑पतिः॒ स मा॑वतु।०००००

मि॒त्रावरु॑णौ वृ॒ष्ट्याधि॑पती॒ तौ मा॑वताम्।०००००

म॒रुतः॒ पर्व॑ताना॒मधि॑पतय॒स्ते मा॑वन्तु। ००००००

सोमो॑ वी॒रुधा॒मधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ०००००

वा॒युर॒न्तरि॑क्ष॒स्याधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ०००००

सूर्य॒श्चक्षु॑षा॒मधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ०००००

च॒न्द्रमा॒ नक्ष॑त्राणा॒मधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ०००००

इन्द्रो॑ दि॒वोधि॑ऽधिपतिः॒ स मा॑वतु। ०००००

म॒रुतां॑ पि॒ता प॑शू॒नामधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ००००

मृ॒त्युः प्र॒जाना॒मधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ०००००

य॒मः पि॑तॄ॒णामधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। ०००००

पि॒तरः॒ परे॒ ते मा॑वन्तु। ०००००

त॒ता अव॑रे॒ ते मा॑वन्तु। ०००००

तत॑स्तताम॒हास्ते मा॑वन्तु। ०००००- शौनकीय अथर्ववेद ५.२४

*अथ पुरोहितकर्माणि। राज्ञः प्रातरुत्थितस्य कृतस्वस्त्ययनस्या। अथ पुरोहितः स्नातानुलिप्तः शुचिः शुक्लवासाः सोष्णीषः सविता प्रसवानामिति (अ. ५.२४.१) व्याख्यातम्।। इममिन्द्र वर्धयेत्युक्तम्(अ. ४.२२.१)। परिधत्तेति द्वाभ्यां(अ. २.१३.२) राज्ञो वस्त्रमभिमन्त्र्य प्रयच्छेत्। यदाबध्नन् इति(अ. १.३५.१) अलंकारान्। सिंहेव्याघ्र इति(अ. ६.३८.१)  सिंहासनम्। यस्ते गन्ध इति(अ. १२.१.२४) गन्धान्। एहि जीवं त्रायमाणमिति(अ. ४.९.१) अक्षिणी अङ्क्ते। वातरंहा इति(अ. ६.९२.१) अश्वम्। हस्तिवर्चसमिति (अ. ३.२२.१) हस्तिनम्। यत्ते माता यत्ते पितेति(अ. ५.३०.५) नरयानम्। खड्गं चाभिमन्त्रयामीति खड्गम्। खड्गं चाभिमन्त्रयामि यः शत्रून्मर्दयिष्यति। मर्दिताः शत्रवोऽनेन वशमायान्तु ते सदेति॥ पर्यङ्कमासनं खड्गं ध्वजं छत्रं सचामरम्। रथमश्वगजं श्रेष्ठं धनुर्वर्म शरेषुधिम्॥ आञ्जनं सन्धमाल्यानि वस्त्राण्याभरणानि च। सर्वाञ्छान्त्युदकेनैतानभ्युक्ष्येच्चाभिमन्त्रयेत्॥ दूर्वादीन्मूर्ध्नि निक्षिप्य स्वस्त्ययनैरभिमन्त्रयेत्। अभयं द्यावापृथिवी इत्यभिमन्त्रितो। ब्राह्मणान्प्रणिपत्य प्राक्। युष्मत्प्रसादाच्छान्तिमधिगच्छामीति॥ तथास्त्वित्युक्तो निर्गच्छेदिति॥ एवं कृतस्वस्त्ययनो यदेवावलोकयति तत्सिध्यति॥ तदपि श्लोकाः॥ असुरैः पीड्यमानस्तु पुरा शक्रो जगत्प्रभुः। कारयामास विधिवत्पुरोधस्त्वे बृहस्पतिम्॥ स वृतो भयभीतेन शमनार्थं बुभूषता। मङ्गलानि ससर्जाष्टावभयार्थं शतक्रतोः॥ प्रोक्तानि मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणो गौर्हुताशनः। भूमिः सिद्धार्थकाः सर्पिः शमी व्रीहियवौ तथा॥ एतानि सततं पुण्यानि संपश्यन्नर्चयन्नपि। न प्राप्नोत्यापदं राजा श्रियं प्राप्नोत्यनुत्तमाम्॥ - अथर्व परिशिष्ट ४.१.१

*अग्ने॒ पूर्वा॒ अनू॒षसो॑ विभावसो दी॒देथ॑ वि॒श्वद॑र्शतः। असि॒ ग्रामे॑ष्ववि॒ता पु॒रोहि॒तो ऽसि॑ य॒ज्ञेषु॒ मानु॑षः॥ - ऋ. १.४४.१०

*यद् दे॒वानां॑ मित्रमहः पु॒रोहि॒तो ऽन्त॑रो॒ यासि॑ दू॒त्य॑म्। सिन्धो॑रिव॒ प्रस्व॑नितास ऊ॒र्मयो॒ ऽग्नेर्भ्रा॑जन्त अ॒र्चयः॑॥ - ऋ. १.४४.१२

*त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं॒ न भोज॑से म॒हो नृ॒म्णस्य॒ धर्म॑णामिरज्यसि। प्र वी॒र्ये॑ण दे॒वताति॑ चेकिते॒ विश्व॑स्मा उग्रः॒ कर्म॑णे पु॒रोहि॑तः॥ - ऋ. १.५५.३

*क्रा॒णा रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिः पु॒रोहि॑तो॒ होता॒ निष॑त्तो रयि॒षाळम॑र्त्यः। रथो॒ न वि॒क्ष्वृ॑ञ्जसा॒न आ॒युषु॒ व्या॑नु॒षग्वार्या॑ दे॒व ऋ॑ण्वति॥ - ऋ. १.५८.३

*त्वम॑ध्व॒र्युरु॒त होता॑सि पू॒र्व्यः प्र॑शा॒स्ता पोता॑ ज॒नुषा॑ पु॒रोहि॑तः। विश्वा॑ वि॒द्वाँ आर्त्विज्या धीर पुष्य॒स्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑॥ - ऋ. १.९४.६

*स सु॒क्रतुः॑ पु॒रोहि॑तो॒ दमे॑दमे॒ ऽग्निर्य॒ज्ञस्या॑ध्व॒रस्य॑ चेतति॒। क्रत्वा॑ य॒ज्ञस्य॑ चेतति। क्रत्वा॑ वे॒धा इ॑षूय॒ते विश्वा॑ जा॒तानि॑ पस्पशे। यतो॑ घृत॒श्रीरति॑थि॒रजा॑यत॒ वह्निर्वे॒धा अजा॑यत॥ - ऋ. १.१२८.४

*स सं॑न॒यः स वि॑न॒यः पु॒रोहि॑तः॒ स सुष्टु॑तः॒ स यु॒धि ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑। चा॒क्ष्मो यद् वाजं॒ भर॑ते म॒ती धना ऽऽदित् सूर्य॑स्तपति तप्य॒तुर्वृथा॑॥(दे. ब्रह्मणस्पतिः) - ऋ. २.२४.९

*न॒म॒स्यत॑ ह॒व्यदा॑तिं स्वध्व॒रं दु॑व॒स्यत॒ दम्यं॑ जा॒तवे॑दसम्। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ बृह॒तो विच॑र्षणिर॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत् पु॒रोहि॑तः॥ - ऋ. ३.२.८

*अ॒न्तर्दू॒तो रोद॑सी द॒स्म ई॑यते॒ होता॒ निष॑त्तो॒ मनु॑षः पु॒रोहि॑तः। क्षयं॑ बृ॒हन्तं॒ परि॑ भूषति॒ द्युभि॑र्दे॒वेभि॑र॒ग्निरि॑षि॒तो धि॒याव॑सुः॥ - ऋ. ३.३.२

*अ॒ग्निर्होता॑ पु॒रोहि॑तो ऽध्व॒रस्य॒ विच॑र्षणिः। स वे॑द य॒ज्ञमा॑नु॒षक्॥ - ऋ. ३.११.१

*य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रोहि॑तम॒ग्निं नर॑स्त्रिषध॒स्थे समी॑धिरे। इन्द्रे॑ण दे॒वैः स॒रथं॒ स ब॒र्हिषि॒ सीद॒न्नि होता॑ य॒जथा॑य सु॒क्रतुः॑॥ - ऋ. ५.११.२

*घृ॒तेन॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒भीवृ॑ते घृत॒श्रिया॑ घृत॒पृचा॑ घृता॒वृधा॑। उ॒र्वी पृ॒थ्वी हो॑तृ॒वूर्ये॑ पु॒रोहि॑ते॒ ते इद् विप्रा॑ ईळते सु॒म्नमि॒ष्टये॑॥ - ऋ. ६.७०.४

*इ॒यं दे॑व पु॒रोहि॑तिर्यु॒वभ्यां॑ य॒ज्ञेषु॑ मित्रावरुणावकारि। विश्वा॑नि दु॒र्गा पि॑पृतं ति॒रो नो॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥ - ऋ. ७.६०.१२, ७.६१.७

*इन्द्रा॑वरुणा व॒धना॑भिरप्र॒ति भे॒दं व॒न्वन्ता॒ प्र सु॒दास॑मावतम्। ब्रह्मा॑ण्येषां शृणुतं॒ हवी॑मनि स॒त्या तृत्सू॑नामभवत् पु॒रोहि॑तिः॥ - ऋ. ७.८३.४

*अ॒ग्निरु॒क्थे पु॒रोहि॑तो॒ ग्रावा॑णो ब॒र्हिर॑ध्व॒रे। ऋ॒चा या॑मि म॒रुतो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं दे॒वाँ अवो॒ वरे॑ण्यम्॥ - ऋ. ८.२७.१

*बट् सू॑र्य॒ श्रव॑सा म॒हाँ अ॑सि स॒त्रा दे॑व म॒हाँ अ॑सि। म॒ह्ना दे॒वाना॑मसु॒र्यः॑ पु॒रोहि॑तो वि॒भु ज्योति॒रदा॑भ्यम्॥ - ऋ. ८.१०१.१२

*अ॒ग्निर्ऋषिः॒ पव॑मानः॒ पाञ्च॑जन्यः पु॒रोहि॑तः। तमी॑महे महाग॒यम्॥ - ऋ. ९.६६.२०

*स तु वस्त्रा॒ण्यध॒ पेश॑नानि॒ वसा॑नो अ॒ग्निर्नाभा॑ पृथि॒व्याः। अ॒रु॒षो जा॒तः प॒द इळा॑याः पु॒रोहि॑तो राजन् यक्षी॒ह दे॒वान्॥ - ऋ. १०.१.६

*दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा पु॒रोहि॑त ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑मि साधु॒या। क्षेत्र॑स्य॒ पतिं॒ प्रति॑वेशमीमहे विश्वा॑न् दे॒वाँ अ॒मृताँ॒ अप्र॑युच्छतः॥ - ऋ. १०.६६.१३

*ऊ॒र्ध्वो ग्रावा॑ बृ॒हद॒ग्निः समि॑द्धः प्रि॒या धामा॒न्यदि॑तेरु॒पस्थे॑। पु॒रोहि॑तावृत्विजा य॒ज्ञे अ॒स्मिन् वि॒दुष्ट॑रा द्रवि॑ण॒मा य॑जेथाम्॥ - ऋ. १०.७०.७

*इ॒मम॑ञ्ज॒स्पामु॒भये॑ अकृण्वत ध॒र्माण॑म॒ग्निं वि॒दथ॑स्य॒ साध॑नम्। अ॒क्तुं न य॒ह्वमु॒षसः॑ पु॒रोहि॑तं॒ तनू॒नपा॑तमरु॒षस्य॑ निंसते॥ - ऋ. १०.९२.२

*यद्दे॒वापिः॒ शंत॑नवे पु॒रोहि॑तो हो॒त्राय॑ वृ॒तः कृ॒पय॒न्नदी॑धेत्। दे॒व॒श्रुतं॑ वृष्टि॒वनिं॒ ररा॑णो॒ बृह॒स्पति॒र्वाच॑मस्मा अयच्छत्॥ - ऋ. १०.९८.७

*स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत् पुरो॒गाः। अ॒स्य होतुः॑ प्र॒दिश्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतं ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः॥ - ऋ. १०.११०.११

*य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रोहि॑तं ह॒विष्म॑न्त ईळते स॒प्त वा॒जिन॑म्। शृ॒ण्वन्त॑म॒ग्निं॑ घृ॒तपृ॑ष्ठमु॒क्षणं॑ पृ॒णन्तं॑ दे॒वं पृ॑ण॒ते सु॒वीर्य॑म्॥ - ऋ. १०.१२२.४

*अ॒ग्निर्दे॒वो दे॒वाना॑मभवत् पु॒रोहि॑तो॒ ऽग्निं म॑नुष्या॒३॒॑ ऋष॑यः॒ समी॑धिरे। अ॒ग्निं म॒हो धन॑साताव॒हं हु॑वे मृळी॒कं धन॑सातये॥ - ऋ. १०.१५०.४

*अ॒ग्निरत्रिं॑ भ॒रद्वा॑जं॒ गवि॑ष्ठिरं॒ प्राव॑न्नः॒ कण्वं त्र॒सद॑स्युमाह॒वे। अ॒ग्निं वसि॑ष्ठो हवते पु॒रोहि॑तो मृळी॒काय॑ पु॒रोहि॑तः॥ - ऋ. १०.१५०.५

*राजसूयः -- इन्द्रस्य वज्रो ऽसीति स्फ्यं ब्रह्मा राज्ञे प्रयच्छति। राजा प्रतिहिताय। प्रतिहितः पुरोहिताय। पुरोहितो रत्निभ्यः। तमवरपरं संप्रयच्छन्ति। अन्ततो ऽक्षावापाय। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १८.१८.१४

*इन्द्राग्नी वै देवेष्वहंश्रेयसे विवदेयाताम्। ते देवा ऊचुः। यदि वा इमावेवं विवदिष्येते अभि नो ऽसुरा भविष्यन्ति। उप तं यज्ञक्रतुं जानी येनैनौ संशमयेमहीति। त एतं यज्ञक्रतुमपश्यन्निन्द्राग्न्योः कुलायम्। तेनैनौ समशमयन्। तेन ब्राह्मणश्च क्षत्रियश्च संयजेयातां यं पुरोधास्यमानः स्यात्। - शां. श्रौ.सू. १४.२९.१

*स्थपतिसवः राजा राजसूयेन यक्ष्यमाण आध्यायति त्रिषु वर्णेष्वभिषिक्तेषु अध्यभिषिच्येय पुरोहिते स्थपतौ सूत इति - - - - - -बौधायन श्रौत सूत्र १८.२.१५

*एतेन(दशरात्रेण) ह जलो जातूकर्ण्य इष्ट्वा त्रयाणां निगुस्थानां पुरोधां प्राप काश्यवैदेहयोः कौसल्यस्य। - - - - -स एष पुरोधाकामस्य यज्ञः। प्र पुरोधामाप्नोति य एवं वेद। - शांखायन श्रौत सूत्र १६.२९.६

तुलनीय : जैमिनीय ब्राह्मण २.३२९ में तीन राष्ट्रों के पुरोधा के रूप में आरुणि का कथन

*दैवोदासं पुरोधाकामः कुर्वीत। आग्नेयो ब्राह्मण ऐन्द्रो राजन्यः। आग्नेयैन्द्रम् एतत् साम। ब्रह्म वा अग्निः क्षत्रम् इन्द्रः। ब्रह्मणैवैतत् क्षत्रं दधार क्षत्रेण ब्रह्म। तथा हास्माद् राष्ट्रम् अनपक्रामि भवति गच्छति पुरोधां पुर एनं दधते। - जै.ब्रा. १.१८२

यास्क निरुक्त २.३.१२ में पुरोहित की निरुक्ति पुर एनं दधते के रूप में की गई है।

*त्रिष्टुप् द्वारा मांगने पर गायत्री द्वारा अपना सर्वस्व(२४ अक्षर) दे देना लेकिन जगती द्वारा केवल १२ अक्षर पद देना। तीनों के मिलने से ३६ अक्षरों वाली बृहती का निर्माण जै.ब्रा. १.२८६

*ब्रह्म वै त्रिवृत्, क्षत्रं त्रयस्त्रिंशः। ब्रह्मणैव तद् उभयतः क्षत्रं परिगृह्णाति। यदो वै ब्रह्मणा क्षत्रं परिगृह्णात्य् अथ स तस्य पुरोधां गच्छति। गच्छति पुरोधां पुर एनं दधते। - जै.ब्रा. २.१०५

*- - - - ततो वै स सर्वेषां देवानां पुरोधां अगच्छत्। बृहस्पतिर् वै देवानां पुरोहितः। - जै.ब्रा. २.१२८

*ब्रह्म वै रथन्तरम्। क्षत्रं बृहत्। ब्रह्मैव तत् क्षत्रस्य पुरस्ताद् दधाति। तस्माद् ब्राह्मणः क्षत्रियस्य पुरोहितः। - जै.ब्रा. २.१७२

*बृहस्पतिर् वा अकामयत तेजस्वी ब्रह्मवर्चसी स्यां, यशो देवेषु गच्छेयम् इति। स एतम् अष्टरात्रं यज्ञम् अपश्यत्। तम् आहरत्। तेनायजत। - - - यशो ह्य् एष तद् अगच्छद् यद् एषां पुरोधाम् आश्नुत। - जै.ब्रा. २.३११

*अथैष महात्रिककुप्। य श्रीकामः पुरोधाकाम स्यात् स एतेन यजेत। - - - जै.ब्रा. २.३२७

*ओजो वै वीर्यं पृष्ठानि। ओजसैव तद् वीर्येणान्ततः पुरोधां परिगृह्णीते। - जै.ब्रा. २.३२८

*तेन हैतेन जबालम् आरुणिर् याजयांचकार। स ह त्रयाणां निगृध्नानां पुरोधां जगाम काश्यस्य कौसल्यस्यैक्ष्वाकस्येति। - - -जै.ब्रा. २.३२९

*आग्नेयो ब्राह्मण, ऐन्द्रो राजन्य, आग्नेयी पृथिव्य्, ऐन्द्री द्यौः। ते एते ऽन्तरिक्षम् अभि समन्ते। समन्ताव् एनौ करोति ब्राह्मणं च राजन्यं च समन्तेन तुष्टुवानो, गच्छति पुरोधां, पुर एनं दधते। - जै.ब्रा. ३.१८६

यास्क निरुक्त २.३.१२ में पुरोहित की निरुक्ति पुर एनं दधते के रूप में की गई है।

 

प्रथम लेखन : २०-६-२०१२ई.(आषाढ शुक्ल प्रतिपदा, विक्रम संवत् २०६९)