पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Pitaa to Puurnabhadra  )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Pitaa- Pitriyaana ( words like  Pitaa / father, Pitaamaha / grandfather etc. )

Pitrivartee - Pishangajata ( Pinaaki, Pipeelikaa / ant, Pippalaa, Pippalaada etc.)

Pishaacha - Peevari ( Pishaacha, Pishta / ground, Peetha / chair, Peeta / yellow, Peevari etc.)

Punshchalee - Punyajana ( Punjikasthalaa, Pundareeka, Pundra, Punya etc.)

Punyajani - Punarvasu ( Punyasheela, Putra / son, Putri / Putree / daughter, Punarvasu etc.)

Punnaaga - Pureesha (Pura / residence, Puranjana, Puranjaya, Purandara, Puraana, Pureesha etc. ) 

Puru - Purusha ( Puru, Purukutsa, Purusha / man etc. )

Purusha - Pulaka  ( Purushasuukta, Purushaartha, Purushottama, Puruuravaa, Purodaasha, Purohita etc.)

Pulastya - Pulomaa ( Pulastya, Pulinda, Pulomaa etc.)

Pulkasa - Pushkaradweepa (  Pushkara etc. )

Pushkaraaksha - Pushpa ( Pushkaraavarta, Pushkarini /pushkarinee, Pushkala, Pushti, Pushpa / flower etc.)

Pushpaka - Pushya ( Pushpaka, Pushpadanta, Pushpabhadra, Pushya etc.)

Pushyamitra - Puujaa (Puujaa / worship)

Puutanaa - Puurnabhadra (  Puurana, Puuru /pooru, Puurna / poorna / complete, Puurnabhadra /poornabhadra etc.)

 

 

पुण्डरीक

टिप्पणी – अभिधान राजेन्द्र कोष में पुण्डरीक का अर्थ श्वेत पद्म किया गया है तथा उसके 8 निक्षेप किए गए हैं – नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान, भाव यह पुंडरीक का अष्टधा निक्षेप है। कहा गया है कि लोकों में किसी प्राणी विशेष में जहां भी विशिष्टता दिखाई देती है, वह सब पुण्डरीक का रूप है – जैसे चक्रवर्ती राजा। बाकी सब कण्डरीक का रूप हैं। कहा गया है कि पङ्क से भरी एक पुष्करिणी है जहां पुण्डरीक विद्यमान हैं। साधक को इस पुष्करिणी में घुस कर पङ्क का सामना करते हुए पुण्डरीक को प्राप्त करना है और तब उस पुष्करिणी से बाहर निकल कर आना है। जो कुछ अभिधान राजेन्द्र कोष में कहा गया है, वह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि वह वैदिक - पौराणिक चिन्तन से इतर साधु समाज के चिन्तन का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह चिन्तन वैदिक - पौराणिक चिन्तन से अलग है या दोनों चिन्तन एक ही हैं, यह आगे विवेचना से ज्ञात होगा।

वराह पुराण में पुण्डरीक तीर्थ के लक्षण के विषय में कहा गया है कि वहां रथचक्र समान कच्छप का चारण होता है। कच्छप या कूर्म उदान प्राण का सूचक है। रथचक्र साथ में जोड कर यह संकेत किया गया है कि केवल उदान प्राण का विकास पर्याप्त नहीं है, अपितु उसमें चक्र की भांति गति भी होना आवश्यक है। सारे पौराणिक साहित्य में पुण्डरीक तीर्थ के साथ चक्र तीर्थ भी अभिन्न रूप से जुडा है। चक्रवर्ती राजा के संदर्भ में कहा गया है कि जहां भी वह गमन करता है, चक्र उसके आगे – आगे गमन करता है।

पुराणों में सार्वत्रिक रूप से पुण्डरीकाक्ष विष्णु की अर्चना का निर्देश है। पुण्डरीकाक्ष क्या होता है, यह समझाने के प्रयास बहुत कम किए गए हैं। सामान्य रूप से पुण्डरीकाक्ष का अर्थ यह निकलता है कि जिसकी अक्ष रूपी सारी इन्द्रियां पुण्डरीक बन गई हों, इन्द्रियों में पुण्डरीक रूपी उदान प्राण का विकास हो गया हो। महाभारत उद्योग पर्व में पुण्डरीकाक्ष की निरुक्ति इस प्रकार की गई है कि – नित्य अक्षय अक्षर पुण्डरीक धाम के भाव वाला। उदान प्राण की प्रकृति इस प्रकार की है कि जब देह में अतिरिक्त धनात्मक ऊर्जा उपलब्ध होती है, तब वह विकसित हो जाता है। जब देह को ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जैसे भोजन के पश्चात् भोजन पचाने के लिए, तब यह उदान प्राण नष्ट होकर अन्य प्राणों में बदल जाता है। अतः जब महाभारत में पुण्डरीकाक्ष को अक्षय, अक्षर, नित्य पुण्डरीक धाम वाला कहा जाता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह स्थिति उदान प्राण के क्षर भाव से रहित स्थिति है। गरुड पुराण में विशिष्ट पुरुष के आगमन पर अर्घ्य – पाद्यादि का दान पुण्डरीकाक्ष विद्या द्वारा करने का निर्देश है। इसका अर्थ यह हो सकता है कि विशिष्ट व्यक्ति के आगमन पर हमारा उदान प्राण कितनी स्थिरता प्राप्त करता है, यह आगन्तुक के मूल्य /अर्घ को निर्धारित करता है।

पिण्ड व पुण्डरीक में सम्बन्ध - पुण्डरीक की तुलना पिण्ड से की जा सकती है। पिण्ड का सामान्य अर्थ घनीभूत लिया जाता है। वराहोपनिषद का कथन है कि पिण्ड नाडियों का आश्रय स्थान है, नाडियां प्राण का, प्राण जीव का, जीव हंस का (नाडीनामाश्रयः पिण्डो नाड्यः प्राणस्य चाश्रयः। जीवस्य निलयः प्राणो जीवो हंसस्य चाश्रयः। हंसः शक्तेरधिष्ठानं चराचरमिदं जगत्। - वराहोपनिषद ५.५४)। इसका अर्थ हुआ कि पितरों को जो पिण्डदान किए जाते हैं, वह उनकी अदृश्य चेतना को आगे विकसित होने का एक अवसर प्रदान करने के लिए है, वैसे ही जैसे गर्भ माता के उदर में विकास को प्राप्त होता है। कहा जाता है कि प्रेतकर्म करने वाले व्यक्ति को प्रेत की बिखरी हुई चेतना को ठोस रूप देने के लिए उसकी चेतना के साथ अपनी चेतना द्वारा सहयोग करना होता है, उसका मार्गदर्शन करना होता है जिससे वह भटके नहीं। प्रेतकार्य के अन्त में पठनीय मन्त्र निम्नलिखित है -

अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः।

अक्षयः पुण्डरीकाक्षः प्रेतमोक्षप्रदो भव।। - गरुड पुराण २.४.११८

यह विचारणीय है कि पुण्डरीकाक्ष की स्थिति प्रेत के मोक्ष में किस प्रकार सहायक होगी। एक तर्क यह दिया जा सकता है कि यदि प्रेतकर्म करने वाले व्यक्ति की स्वयं की धनात्मक ऊर्जा ही स्थिर नहीं है तो वह दूसरी चेतना को क्या सहयोग करेगा।

     पद्म पुराण में पुण्डरीक द्वारा अपने मामा मालव से धन की प्राप्ति की कथा है। धन प्राप्ति के पश्चात् पुण्डरीक अपने दुष्ट भ्राता भरत से मिलता है इत्यादि। यह कथा संकेत करती है कि पुण्डरीक स्थिति चेतना के धनात्मकता की ओर जाने की स्थिति है, जबकि सामान्य जीवन ऋणात्मकता की ओर, मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा है। कथा में पुण्डरीक के अनुज भरत का उल्लेख भी बहुत सोच समझ कर किया गया है। भरत का अर्थ है – भरण- पोषण करने वाला। जो कुछ पुण्डरीक स्थिति से प्राप्त किया गया है, उसका सार्वत्रिक वितरण करना है, सारे जीवन में उतारना है। यह पौण्डरीक याग से स्पष्ट होगा। ब्रह्माण्ड पुराण का यह कथन बहुत सार्थक है कि द्विविद से परे पुण्डरीक व पुण्डरीक से परे दुन्दुभिस्वन पर्वत की स्थिति है। द्विविद का अर्थ द्वैत की, सांख्य की स्थिति का परिचायक हो सकता है, पुण्डरीक मध्यम स्थिति का । दुन्दुभिस्वन किसका परिचायक है, यह अन्वेषणीय है।

पाण्डु व पुण्डरीक – पाण्डु व पुण्डरीक के बीच सम्बन्ध की पुष्टि वायु पुराण 28.34 के इस कथन से होती है कि पाण्डु की पत्नी का नाम पुण्डरीका है(अन्यत्र पुण्डरीका को प्राण की पत्नी कहा गया है)। महाभारत की कथा में पाण्डु की दो भार्याओं का नाम कुन्ती व माद्री है। महाभारत आदि पर्व में कुन्ती के विशेषण पुण्डरीकान्तरप्रभा का उल्लेख है। जैसा कि पाण्डु शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया जा चुका है, कुन्ती का वास्तविक रूप शकुन्तिका है – जो भावी घटनाओं की पूर्व शकुन के रूप में सूचना देती है। कुन्ती / शकुन्तिका देवों के तेज को गर्भ रूप में धारण करके उसको मूर्त्त रूप देना भी जानती है। पाण्डु – भार्या पुण्डरीका में भी यह विशेषताएं होनी चाहिएं। यह अन्वेषणीय है कि कुन्ती जिन देवों के तेज से गर्भ धारण कर रही है, क्या वह पुण्डरीक में विद्यमान यक्ष पुरुष का रूप हैं।

पौण्डरीक याग – पौण्डरीक याग की एक विशेषता यह है कि इसमें रथन्तर और बृहत् दोनों सामों का प्रयोग किया जाता है। 11 सुत्या दिनों के इस याग में प्रथम दस दिन तो गायों की दक्षिणा दी जाती है और अन्तिम 11वें दिन अश्वों की। इस आधार पर यह संदेह उत्पन्न होता है कि कहीं कौरव – पाण्डवों के युद्ध के रूप में महाभारत की कथा पौण्डरीक याग की छद्म व्याख्या तो नहीं है। महाभारत कथा में बृहत् का प्रतिनिधित्व व्यास करते हैं। धृतराष्ट्र और पाण्डु का जन्म इस कारण से हुआ है कि उनकी माताओं को व्यास रूप से डर लगता है। ज्ञान विद्यमान है, लेकिन उसका उपयोग व्यक्तित्व के परिमार्जन के लिए, समाज के परिमार्जन के लिए नहीं किया गया है। यह तथ्य कथा में धृतराष्ट्र को अंधा कहकर इंगित किया गया है जिसके सौ पुत्र दुष्ट प्रकृति के हैं। पद्म पुराण से संकेत मिलता है कि पौण्डरीक याग में गज का आलभन किया जाता है। श्रौत ग्रन्थों से इस तथ्य की पुष्टि नहीं हो सकी है। यह समझा जा सकता है कि पौण्डरीक याग में जो पृष्ठ्य षडह नामक 6 दिवसों के कृत्य हैं, वह गजों के आलभन का, गजों के शोधन का प्रतिनिधित्व करते हैं। धृतराष्ट्र की पुरी का नाम हस्तिनापुर है जो पद्म पुराण में पौण्डरीक याग में गज के आलभन की पुष्टि करता है। ब्रह्माण्ड पुराण में सामगान द्वारा कईं दिशाओं से विभिन्न प्रकृतियों वाले हस्तियों को उत्पन्न करने का कथन है, जैसे वैरूप साम द्वारा सुप्रतीक गज उत्पन्न होता है। बृहत् साम द्वारा पुष्पदन्त, रथन्तर द्वारा ऐरावत व पुण्डरीक, वामदेव्यं दवारा वामन गज। यहां वैरूप साम द्वारा सुप्रतीक गज के उत्पन्न होने का कथन ध्यान देने योग्य है। कहा जाता है कि साधुओं को जहां से भोजन प्राप्त करना होता है, उसका पूर्व आभास हो जाता है। यदि यह आभास सत्य निकला तो यह सुप्रतीक है। यदि यह मिथ्या निकला तो विरूप है। इसे आभास को शुद्ध करने की आवश्यकता है। इसी प्रकार अन्य सामों से उत्पन्न गजों की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है। कहा गया है कि बृहत् साम द्वारा मुख में दंष्ट्रों का विकास होता है।
अतः बृहत् साम द्वारा उत्पन्न गज को पुष्पदन्त नाम दिया गया है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि गौ को एक ओर दांत वाला पशु कहा जाता है जबकि अश्व को दोनों ओर दांत वाला। गौ रथन्तर का प्रतिनिधित्व करती है, अश्व बृहत् का।

अभिधान राजेन्द्र कोष में पुण्डरीक का निक्षेप 8 भागों में किया गया है जबकि शतपथ ब्राह्मण में 12 भागों में। यह भाग इस प्रकार हैं कि सविता से जहां पहली प्रेरणा प्राप्त होती है, वहां पहले पुण्डरीक का प्रक्षेपण किया जाता है। दूसरे पुण्डरीक का प्रक्षेपण वहां किया जाता है जहां सरस्वती से वाक् प्राप्त होती है। तीसरे पुण्डरीक का प्रक्षेपण उस क्षण किया जाता है जहां त्वष्टा से रूप प्राप्त होता है। चौथे पुण्डरीक का प्रक्षेपण पूषा से पुष्टि प्राप्ति के क्षण, पांचवें का इन्द्र से इन्द्रिय प्राप्त होने पर, छठें का बृहस्पति से ब्रह्म की प्राप्ति होने पर, सातवें का वरुण से ओज प्राप्त होने पर। अन्य 5 पुण्डरीकों का प्रक्षेपण उपसद में कहा गया है जिसे स्पष्ट नहीं किया गया है। इस प्रकार इन 12 पुण्डरीकों से पुण्डरीक स्रज या माला का निर्माण होता है, वैसे ही जैसे संवत्सर में 12 मास होते हैं।

 

पुण्डरीक या पद्म के तीन भाग हैं – पुष्प, नाल व बिस। यह तीनों द्युलोक, अन्तरिक्षलोक व पृथिवीलोक से सम्बन्धित हैं।

    

अथर्ववेद 10.8.43 में पुण्डरीक को नौ द्वारों वाला व तीन गुणों से आवृत कहा गया है जिसमें आत्मन्वत् यक्ष विराजमान है और जिसको ब्रह्मविद् ही जान पाते हैं। नौ द्वारों वाला तो हमारा यह शरीर है – अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। पुण्डरीक या पद्म के तीन भाग हैं – पुष्प, नाल व बिस। यह तीनों द्युलोक, अन्तरिक्षलोक व पृथिवीलोक से सम्बन्धित हैं(शतपथ ब्राह्मण 5.4.5.14)।

अर्घ्य व पुण्डरीक में सम्बन्ध - अर्घ्य – पाद्यादि देने के लिए भी पुण्डरीकाक्षविद्या का उपयोग करने का निर्देश है –

अर्घ्यपाद्यादि वै दद्यात्पुण्डरीकाक्षविद्यया॥ - गरुड पु. ,११.४४॥

अर्घ्य को ऋग्वेद के ऋघा शब्द के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। डा. फतहसिंह के अनुसार घ का अर्थ होता है घनता प्रदान करना, आधुनिक विज्ञान के अनुसार अव्यवस्था की माप को, एण्ट्रांपी को न्यूनतम बनाना।

प्रथम लेखन -  23-12-2014 (पौष शुक्ल द्वितीया, विक्रम संवत् 2071)

 

 

संदर्भ

 

*आय॑ने ते प॒राय॑णे॒ दूर्वा॑ रोहन्तु पु॒ष्पिणीः॑। ह्र॒दाश्च॑ पु॒ण्डरी॑काणि समु॒द्रस्य॑ गृ॒हा इमे॥(दे. अग्निः) - ऋ. १०.१४२.८

*आय॑ने ते प॒राय॑णे॒ दूर्वा॑ रोहतु पु॒ष्पिणीः॑। उत्सो॑ वा॒ तत्र॒ जाय॑तां ह्र॒दो वा॑ पु॒ण्डरी॑कवान्॥ - शौ.अ. ६.१०६.१

*पु॒ण्डरी॑कं॒ नव॑द्वारं त्रि॒भिर्गु॒णेभि॒रावृ॑तम्। तस्मि॒न् यद् य॒क्षमा॑त्म॒न्वत् तद् वै ब्र॑ह्म॒विदो॑ विदुः॥ - शौ.अ. १०.८.४३

*अर्घ्यपाद्यादि वै दद्यात्पुण्डरीकाक्षविद्यया॥ - गरुड पु. ,११.४४॥

*राजसूय : द्वादशपुण्डरीका भवन्ति, द्वादश मासाः संवत्सरः, संवत्सरमेवाप्त्वावरुन्द्धे। - मै.सं. ४.४.७

*यत्रामर्त्या अप्स्व् अन्तस् समुद्रे तुरूण्यरीतुर्वशी? पुण्डरीका। तत् परेताप्सरसः प्रतिबुद्धा अभूतन॥ - पै.सं. १३.४.४

*दशपेयः : स॒द्यो दी॑क्षयन्ति स॒द्यः सोमं॑ क्रीणन्ति पुण्डरिस्र॒जां प्र य॑च्छति द॒शभि॑र्वत्सत॒रैः सोमं॑ क्रीणाति दश॒पेयो॑ भवति तै.सं. १.८.१८.१

*अपो दीक्षायाः स्थाने द्वादशपुण्डरीकां स्रजं प्रतिमुञ्चते आप.श्रौ.सू. १८.२०.१४

*इन्द्रोवृत्रमहंस्तस्येयं चित्राण्युपैद्रूपाण्यसौ नक्षत्राणामवकाशेन पुण्डरीकञ्जायते यत् पुष्करस्रजं प्रतिमुञ्चते वृत्रस्यैव तद्रूपं क्षत्रम् प्रतिमुञ्चते। - तां.ब्रा. १८.९.६

*एतेन वै क्षेम धृत्वा पौण्डरीक इष्ट्वा सुदाम्नस्तीर उत्तरे। - तां.ब्रा. २२.१८.७

*राजसूय -- तथोऽएवैष एतत्सवितृप्रसूत एवानुसंसर्पति। तत्रैकं पुण्डरीकं प्रयच्छति।६। अथ सारस्वतं चरुं निर्वपति। वाग्वै सरस्वती। वाचैव तद्वरुणोऽनुसमसर्पत्। तथोऽएवैष एतद्वाचैवानुसंसर्पति। तत्रैकं पुण्डरीकं प्रयच्छति।७। अथ त्वाष्ट्रं दशकपालं पुरोडाशं निर्वपति। त्वष्टा वै रूपाणामीष्टे। त्वष्ट्रैव तद्रूपैर्वरुणोऽनुसमसर्पत्। तथोऽएवैष एतत्त्वष्ट्रैव रूपैरनुसंसर्पति। तत्रैकं पुण्डरीकं प्रयच्छति।८। अथ पौष्णं चरुं निर्वपति। पशवो वै पूषा। पशुभिरेव तद्वरुणोऽनुसमसर्पत्। तथोऽएवैष एतत्पशुभिरेवानुसंसर्पति। तत्रैकं पुण्डरीकं प्रयच्छति।९। अथैन्द्रमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति। इन्द्रियं वै वीर्यमिन्द्रः। इन्द्रियेणैव तद् वीर्येण वरुणोऽनुसमसर्पत्। तथोऽएवैष एतदिन्द्रियेणैव वीर्येणानुसंसर्पति। तत्रैकं पुण्डरीकं प्रयच्छति।१०। अथ बार्हस्पत्यं चरुं निर्वपति। ब्रह्म वै बृहस्पतिः। ब्रह्मणैवैतद्वरुणोऽनुसमसर्पत्। तथोऽएवैष एतद्ब्रह्मणैवानुसंसर्पति। तत्रैकं पुण्डरीकं प्रयच्छति।११। अथ वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति। स येनैवौजसेमाः प्रजा वरुणोऽगृह्णात् तेनैव तदोजसा वरुणोऽनुसमसर्पत्। तेनोऽएवैष तदोजसाऽनुसंसर्पति। तत्रैकं पुण्डरीकं प्रयच्छति।१२। उपसदो दशम्यो देवताः। तत्र पञ्च पुण्डरीकाण्युपप्रयच्छति। तां द्वादशपुण्डरीकां स्रजं प्रतिमुञ्चते सा दीक्षा। तया दीक्षया दीक्षते।१३। अथ यद्द्वादश भवन्ति। द्वादश वै मासाः संवत्सरस्य। सर्वं वै सम्वत्सरः। सर्वेणैवैनमेतद्दीक्षयति। यानि पुण्डरीकाणि तानि दिवो रूपम्, तानि नक्षत्राणां रूपम्। ये वधकास्तेऽन्तरिक्षस्य रूपम्। यानि बिसानि तान्यस्यै । तदेनमेषु लोकेष्वधि दीक्षयति।१४। - मा.श. ५.४.५.६-१४

*मूर्तामूर्तब्राह्मणम् यथा पुण्डरीकम् मा.श. १४.५.३.१०

*षष्ठं हाजगाम। पञ्च नदीः पुष्करिणीः पुण्डरीकिणीर् मधूदकास् स्यन्दमानाः। तासु नृत्तगीतं वीणाघोषो ऽप्सरसां गणास् सुरभिर् गन्धो महान् घोषो बभूव। - जै.ब्रा. १.४२

*किं षष्ठम् इति। पञ्च नदीः पुष्करिणीः पुण्डरीकिणीर् मधूदकास् स्यन्दमानाः। तासु नृत्तगीतं वीणाघोषो ऽप्सरसां गणास् सुरभिर् गन्धो महान् घोष ऽभूद् इति। ओम् इति होवाच। ममैवैते लोका अभूवन्न इति। ते केनाभिजय्या इति। एतेनैव पञ्चगृहीतेन पञ्चोन्नीतेनेति। स होवाच न वै किलान्यत्राग्निहोत्राल् लोकजित्या अवकाशोऽस्ति। - जै.ब्रा. १.४४

*आपोऽमृतं पुरुषो ब्रह्माथाप्रियनिगमो भवति तस्माद्वै विद्वान् पुरुषमिदं पुण्डरीकमिति प्राण एष स पुरि शेते स पुरि शेते इति। पुरिशयं सन्तं प्राणं पुरुष इत्याचक्षते। - गो.ब्रा. १.१.३९

*द॒ह्रं॒ वि॒पा॒पं॒ व॒रवे॑श्मभूतं॒ यत्पु॑ण्डरी॒कं पु॒रम॑ध्यसँ॒ँस्थम्। त॒त्रा॒पि॒ द॒ह्रे ग॒गनं॑ विशोकं॒ तस्मि॑न्यद॒न्तस्तदुपा॑सित॒व्यम्। - तै.आ. १०.१०.३

पुण्डरीकम् अष्टदलकमलं हृदयकमलम्। दह्रमल्पमङ्गुष्ठमात्रपरिमितत्वात् सायण भाष्य

*राजसूये दशपेयविधिः -- जा॒मि वा ए॒तत् कु॑र्वन्ति। यत्स॒द्यो दी॒क्षय॑न्ति स॒द्यः सोमं॑ क्री॒णन्ति॑। पु॒ण्ड॒रि॒स्र॒जां प्रय॑च्छ॒त्यजा॑मित्वाय। अङ्गि॑रसः सुव॒र्गं लो॒कं यन्तः॑। अ॒प्सु दी॑क्षात॒पसी॒ प्रावे॑शयन्। तत्(यत्?) पु॒ण्डरीक॑मभवत्। - तै.ब्रा. १.८.२

*सावित्रचयनम् अ॒रु॒णो॑ऽरु॒णर॑जाः पु॒ण्डरी॑को विश्व॒जिद॑भि॒जित्। आ॒र्द्रः पिन्व॑मा॒नोऽन्न॑वा॒न्रस॑वा॒निरा॑वान्। स॒र्वौ॒ध॒षः सं॑भ॒रो मह॑स्वान् (इति त्रयोदशमासनामान्युपदधाति)। - तै.ब्रा. ३.१०.१

*तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी छां.उ. १.६.७

*दहरं पुण्डरीकं वेश्म छां.उ. ८.१.१

*यत्पुण्डरीकं पुरमध्यसंस्थम् महानारायणोप. १०.७

*दहरं पुण्डरीकेति क्षुरोप. १०

*तदिदं पुरं पुण्डरीकम् नारदोप. ५

*यदिदं पुरं ब्रह्मपुरमिदं पुण्डरीकं वेश्म आत्मप्रबोधोप. १

*ब्रह्मण्यः पुण्डरीकाक्षः आत्मप्रबोधोप. १

ओं नमस्कृत्य भगवान्नारदः सर्वेश्वरं वासुदेवं पप्रच्छ अधीहि भगवन्नूर्ध्व- पुण्ड्रविधिं द्रव्यमन्त्रस्थानादिसहितं मे ब्रूहीति । तं होवाच भगवान्वासुदेवो वैकुण्ठस्थानादुत्पन्नं मम प्रीतिकरं मद्भक्तैर्ब्रह्मादिभिर्धारितं विष्णुचन्दनं ममाङ्गे प्रतिदिनमालिप्तं गोपीभिः प्रक्षालनाद्गोपीचन्दनमाख्यातं मदङ्गलेपनं पुण्यं चक्रतीर्थान्तःस्थितं चक्रसमायुक्तं पीतवर्णं मुक्तिसाधनं भवति । अथ गोपीचन्दनं नमस्कृत्वोद्धृत्य । गोपीचन्दन पापघ्न विष्णुदेहसमुद्भव । चक्रा- ङ्कित नमस्तुभ्यं धारणान्मुक्तिदो भव । इमं मे गङ्गे इति जलमादाय विष्णो- र्नुकमिति मर्दयेत् । अतो देवा अवन्तु न इत्येतन्मन्त्रैर्विष्णुगायत्र्या केशवा- दिनामभिर्वा धारयेत् । ब्रह्मचारी वानप्रस्थो वा ललाटहृदयकण्ठबाहुमूलेषु वैष्णवगायत्र्या कृष्णादिनामभिर्वा धारयेत् । इति त्रिवारमभिमन्त्र्य   शङ्खचक्र गदापाणे द्वारकानिलयाच्युत । गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रक्ष मां शरणागतम् । इति ध्यात्वा गृहस्थो ललाटादिद्वादशस्थलेष्वनामिकाङ्गुल्या वैष्णवगायत्र्या केशवादिनामभिर्वा धारयेत् । ब्रह्मचारी गृहस्थो वा ललाटहृदयकण्ठबाहु मूलेषु वैष्णवगायत्र्या कृष्णादिनामभिर्वा धारयेत् । यतिस्तर्जन्या शिरोललाट- हृदयेषु प्रणवेनैव धारयेत् । ब्रह्मादयस्त्रयो मूर्तयस्तिस्रो व्याहृतयस्त्रीणि छन्दांसि त्रयोऽग्नय इति ज्योतिष्मन्तस्त्रयः कालास्तिस्रोऽवस्थास्त्रय आत्मान पुण्ड्रास्त्रय ऊर्ध्वा अकार उकारो मकार एते प्रणवमयोर्ध्वपुण्ड्रास्तदात्मा सदे- तदोमिति । तानेकधा समभवत् । ऊर्ध्वमुन्नमयत इत्योंकाराधिकारी । तस्मा- दूर्ध्वपुण्ड्रं धारयेत् । परमहंसो ललाटे प्रणवेनैकमूर्ध्वपुण्ड्रं वा धारयेत् । तत्त्वप्रदीपप्रकाशं स्वात्मानं पश्यन्योगी मत्सायुज्यमवाप्नोति । अथवा न्यस्तहृदयपुण्ड्रम्रध्ये वा । हृदयकमलमध्ये वा तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता । नीलतोयदमध्यस्थाद्विद्युल्लेखेव भास्वरा । नीवार- शूकवत्तन्वी विद्युल्लेखेव भास्वरा । तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थित इति । अतः पुण्ड्रस्थं हृदयपुण्डरीकेषु तमभ्यसेत् । क्रमादेवं स्वात्मानं भावयेन्मां परं हरिम् । एकाग्रमनसा यो मां ध्यायते हरिमव्ययम् । हृत्पङ्कजे च स्वात्मानं स मुक्तो नात्र संशयः । मद्रूपमद्वयं ब्रह्म आदिमध्यान्तवर्जितम् । स्वप्रभं सच्चिदानन्दं भक्त्या जानाति चाव्ययम् ।  - वासुदेवोपनिषद

 

'' इमम्मे गङ्गे '' इति जलमादाय, '' विष्णोर्नुकं '' इति मर्दयेत् । '' अतो देवा अवन्तु नः '' इत्येताभिर्ऋग्भिर्विष्णुगायत्र्या त्रिवारमभिमन्त्र्य

शंखचक्रगदापाणे द्वारकानिलयाच्युत ।

गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रक्ष मां शरणागतम् ।।

इति मां ध्यात्वा, गृहस्थो ललाटादिस्थलेष्वनामिकाङ्गुल्या विष्णुगायत्र्या केशवादिद्वादशनामभिर्वा धारयेत् । ब्रह्मचारी वानप्रस्थे ललाटकण्ठहृदयबाहुमूलेषु वैष्णवगायत्र्या कृष्णादिपञ्चनामभिर्वा धारयेत् यतिस्तर्जन्या शिरोललाटहृदयेषु प्रणवेन धारयेत् । ब्रह्मादयस्त्रयो मूर्तयस्तिस्र व्याहृतयस्त्रीणि छन्दांसि त्रयो लोकाः त्रयो वेदास्त्रयः स्वरा त्रयोऽग्नयो ज्योतिष्मन्तस्त्रयः कालास्तिस्रोऽवस्थास्त्रय आत्मानः पुण्ड्रास्त्रय ऊर्ध्वाः अकारोकारमकाराः एते सर्वे प्रणवमयोर्ध्वपुण्ड्रत्रयात्मकास्तदेतदोमि- त्येकधा समभवन् । परमहंसो ललाटे प्रणवेनैकमूर्ध्वपुण्ड्रं वा धारयेत् । तत्र दीपप्रकाशं स्वमात्मानं परं ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयन् योगी मत्सायुज्य मवाप्नोति ।। अथान्यो हृदयस्योर्ध्वं पुण्ड्रं मध्ये बहुहृदयकमलमध्ये वा स्वमात्मानं भावयेत् ।। तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता । - गोपीचन्दनोपनिषद

पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः – भगवद्गीता 1.15

 

नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान, भाव यह पुंडरीक का अष्टधा निक्षेप है।

जो शोभन है, वह पुण्डरीक है, जो इतर है, वह कण्डरीक है।

अरिहंत, चक्रवर्ती, चारण, विद्याधर, दशार्ण, अन्य महर्धिमन्त पौण्डरीक हैं। - अभिधानराजेन्द्र कोषः

पुण्डरीक/पुंडरीक अग्नि ५६.१३( ध्वज के एक देवता का नाम ), ९६.९( ध्वज के ८ दिशाओं में ८ देवताओं में से एक ), कूर्म १.१३.१२( पुण्डरीकाक्षा : वसिष्ठ व ऊर्जा - पुत्री ), नारद २.७३( पुण्डरीक पुर का माहात्म्य : जैमिनि के समक्ष शिव द्वारा ताण्डव नृत्य का स्थान ) गरुड १.११.४४(पुण्डरीकाक्ष विद्या द्वारा अर्घ्य – पाद्यादि देने का निर्देश), २.१४.११९(प्रेतकार्य में पुण्डरीकाक्ष अर्चना मन्त्र), २.३०.१८ /२.४०.१८(प्रेतकार्य में पुण्डरीकाक्ष अर्चना मन्त्र), पद्म २.३७.३५( पुण्डरीक यज्ञ में गज हनन का उल्लेख ), ३.२६.७८( शुक्ल पक्ष की दशमी को पुण्डरीक तीर्थ में स्नान के माहात्म्य का उल्लेख ), ६.४७.६( नागों के राजा पुण्डरीक द्वारा ललित गन्धर्व को शाप का वृत्तान्त ), ६.८०.१५( विष्णु भक्त पुण्डरीक को नारद द्वारा आगम का उपदेश, पुण्डरीक द्वारा विष्णु की स्तुति ), ६.२१८.१८( पुण्डरीक द्वारा मामा मालव से धन की प्राप्ति, दुष्ट भ्राता भरत से पुष्कर माहात्म्य का श्रवण, माधव का पुण्डरीक के गृह में एक मास तक वास, पुष्कर स्नान से पुण्डरीक की मुक्ति ), ब्रह्म १.४७.५१(पुण्डरीकाक्ष की मूर्ति का स्वरूप),  ब्रह्माण्ड १.२.११.३९( पुण्डरीका : ऊर्जा व वसिष्ठ - कन्या, प्राण - भार्या, द्युतिमान् - माता ), १.२.१९.६८( क्रौञ्च द्वीप के पर्वतों में से एक, द्विविद से परे पुण्डरीक व पुण्डरीक से परे दुन्दुभिस्वन की स्थिति का उल्लेख ), २.३.७.३३५(रथन्तर साम द्वारा पुण्डरीक व कपिल गजों  की उत्पत्ति ), २.३.१३.५६( पुण्डरीक तीर्थ में श्राद्ध से पुण्डरीक यज्ञ फल की प्राप्ति का उल्लेख ), २.३.६३.२०२( नभ - पुत्र, क्षेमधन्वा - पिता, कुश वंश ), भविष्य ३.३.१३.४१( पुण्डरीक नाग द्वारा शाप से नाग के शुक बनने का उल्लेख ), ३.३.११८( पुण्डरीक नाग द्वारा आह्लाद को नाग भूषण देना ), ३.४.१७.५१( दिग्गज, ध्रुव व दिशा? – पुत्र, आग्नेय दिशा में स्थिति ), भागवत ९.१२.१( नभ - पुत्र, क्षेमधन्वा - पिता, कुश वंश ), मत्स्य १२.५३( नभ - पुत्र, क्षेमधन्वा - पिता, कुश वंश ), २२.७७( पुण्डरीकपुर : श्राद्ध हेतु प्रशस्त तीर्थों में से एक ), ५३.२७( कार्तिक में मार्कण्डेय पुराण दान से पुण्डरीक यज्ञ फल की प्राप्ति का उल्लेख ), ७०.३४( पण्यस्त्री व्रत के संदर्भ में पुण्डरीकाक्ष की अर्चना विधि व अङ्गों में काम का विभिन्न नामों से  न्यास ), १२२.८२( क्रौञ्च द्वीप के पर्वतों में से एक ), १२२.८८( पुण्डरीका : क्रौञ्च द्वीप की ७ गङ्गाओं में से एक ), वराह १२६.५९( कुब्जाम्रक तीर्थ के अन्तर्गत पुण्डरीक तीर्थ के चिह्न व माहात्म्य का कथन –-- रथचक्र समान कच्छप का चार ), १६४.१९( गोवर्धन तीर्थ के अन्तर्गत पुण्डरीक कुण्ड में स्नान के माहात्म्य का कथन ), वामन ९०.६( महाम्भस तीर्थ में विष्णु का पुण्डरीक नाम से वास ), वायु २८.३४( पुण्डरीका : वसिष्ठ व ऊर्जा - पुत्री, पाण्डु - पत्नी, द्युतिमान् - माता ), ४९.६३( क्रौञ्च द्वीप के पर्वतों में से एक ), ६९.७२/२.८.६९( कद्रू व कश्यप के प्रधान नाग पुत्रों में से एक ), ८८.२०२/२.२६.२०१( नभ - पुत्र, क्षेमधन्वा - पिता, कुश वंश ), विष्णु २.४.५१( पुण्डरीकवान् : क्रौञ्च द्वीप के पर्वतों में से एक ), ४.४.१०६( नभ - पुत्र, क्षेमधन्वा - पिता, कुश वंश ), शिव ५.४२.११( भारद्वाज के ७ पुत्रों का जन्मान्तर में द्विज योनि में जन्म लेने पर एक छन्दोग/सामग पुत्र का नाम ), ७.१.१७.३३(ऊर्जा व वसिष्ठ से ७ पुत्र व पुण्डरीका पुत्री के जन्म का उल्लेख, पुत्रों के नाम), स्कन्द २.२.४.९१( दुराचारी पुण्डरीक व अम्बरीष की पुरुषोत्तम क्षेत्र में मुक्ति, भगवद् स्तुति ), २.४.३५.११( पुण्डरीकाक्ष विष्णु द्वारा सहस्र पद्मों से शिव अर्चन के संकल्प को नेत्र रूपी पद्म के अर्पण से पूरा करना ), ५.३.२८.१३१( ज्वालेश्वर तीर्थ में पिण्डदान आदि से पौण्डरीक फल प्राप्ति का उल्लेख ), ५.३.१०९.१३( चक्र तीर्थ में स्नान कर अच्युत की पूजा से पुण्डरीक यज्ञ फल प्राप्ति का उल्लेख ), ६.२१३.९१( पुण्डरीकाक्ष से जठर की रक्षा की प्रार्थना ), ७.१.१७.११३( पुण्डरीक पुष्प की महिमा – सौभाग्य व अर्थ प्राप्ति),  ७.१.७५.१०( नारद द्वारा पौण्डरीक यज्ञ करने का वृत्तान्त ), महाभारत आदि १५०.१७(पाण्डु – भार्या कुन्ती का पुण्डरीकान्तरप्रभा विशेषण), १७२.८(पुण्डरीक सुगंधि से मुकुट का स्पर्श करने पर राजा संवरण के प्राण पुनः लौटने का उल्लेख), १९६.९(स्त्री के अश्रुबिन्दुओं के स्वर्ण पुण्डरीक बनने का कथन), वन ८३.६९(शुक्ल दशमी को पुण्डरीक तीर्थ में स्नान का संक्षिप्त माहात्म्य), ८४.११३(कम्पना नदी में स्नान से पुण्डरीक प्राप्ति का उल्लेख), ८४.११९(तीर्थकोटि में अभिषेक से पुण्डरीक प्राप्ति का उल्लेख), ८६.४(कृष्ण व अर्जुन का पुण्डरीकाक्ष – द्वय के रूप में उल्लेख), उद्योग ७०.६( पुण्डरीकाक्ष की निरुक्ति – नित्य अक्षय अक्षर पुण्डरीक धाम के भाव वाला), अनुशासन २५.४३(कृत्तिका उर्वशी योग में लौहित्य सरोवर में स्नान से पुण्डरीक फल प्राप्ति का उल्लेख), २५.५५(ब्रह्मसर में स्नान से पुण्डरीक प्राप्ति का उल्लेख), १०२.५४(रथन्तर व बृहत् दोनों साम गाये जाने वाले, जहां वेदी पर पुण्डरीक फैलाये जाते हैं, उस याग का कथन),  लक्ष्मीनारायण १.२६४.४८( पुरुषोत्तम मास शुक्ल धामदा एकादशी के माहात्म्य के संदर्भ में राजा पुण्डरीक द्वारा रानी कुमुद्वती को धामदा एकादशी के फल का अर्पण करने से रानी के कल्याण का वृत्तान्त ), २.२८.२०( पुण्डरीक जाति के नागों का वाटिकाकार बनना ), २.२३९.२( पौण्डरीक राजा द्वारा कार्तिक एकादशी व्रत से हंस रूप धारी श्रीहरि के दर्शन व मोक्ष प्राप्ति का वृत्तान्त ), ३.१६.३६( १९वें वत्सर में लक्ष्मी का पुण्डरीक - पुत्री पुण्डरीकश्री के रूप में जन्म लेकर श्रीवार्धि नारायण की पत्नी बनने का वृत्तान्त ), द्र.  पौण्डरीक, पौण्ड्रक pundareeka/ pundarika