PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
|
|
ऊर्ज टिप्पणी : वैदिक साहित्य में ऊर्ज शब्द चार रूपों में प्रकट होता है - उदात्त ऊ तथा स्वरित ज, अनुदात्त ऊ तथा उदात्त ज, ऊ व ज दोनों अनुदात्त, ऊ व ज दोनों उदात्त । इनमें से प्रथम दो रूपों का बाहुल्य है । पुराणों में कार्तिक मास को ऊर्ज मास कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता १.४.१४.१ में भी इष व ऊर्ज मासों का उल्लेख आया है । यहां ऊर्ज मास के लिए अनुदात्त ऊ का प्रयोग हुआ है । अतः यह कहा जा सकता है कि ऊर्ज मास की प्रकृति का अन्वेषण करने के लिए वैदिक साहित्य में अनुदात्त ऊ वाले ऊर्ज शब्द पर ध्यान देना होगा । ऐसा अनुमान है कि उदात्त ऊ वाले ऊर्ज शब्द का प्रयोग देव स्तर के लिए तथा अनुदात्त ऊ वाले ऊर्ज का प्रयोग मर्त्य स्तर के लिए किया गया होगा । वैदिक साहित्य में कईं स्थानों पर ऊ॒र्ज (अनुदात्त ऊ ) से ऊर्ज (उदात्त ऊ )के ग्रहण का उल्लेख आता है । ऊर्ज शब्द को समझने के लिए सर्वप्रथम इष तथा उदुम्बर शब्दों पर टिप्पणी पठनीय है । शतपथ ब्राह्मण १.२.२.६, १.७.१.२, ४.२.२.१५, १४.२.२.२७, जैमिनीय ब्राह्मण १.८० तथा १.८८ के अनुसार इष वर्षा है तथा ऊर्ज वह है जिसका वर्षा के फलस्वरूप वर्धन होता है ( ऐधति ) । लौकिक रूप में पृथिवी पर वर्षा होने पर ओषधियों के रूप में रस का वर्धन होता है । लेकिन अध्यात्म में किस वस्तु का वर्धन होगा ? शतपथ ब्राह्मण ४.२.२.१५(?) के अनुसार इष भक्ति की आरम्भिक अवस्था हिंकार है । इसका निहितार्थ होगा कि हिंकार से आगे की अवस्थाओं प्रस्ताव, उद्गीथ , प्रतिहार और निधन का समावेश ऊर्ज के अन्तर्गत होगा । लौकिक रूप में जिस प्रकार ओषधि तन - मन के रोगों को दूर करती है, इसी प्रकार ऊर्ज से उत्पन्न भक्ति की अवस्थाएं भी आध्यात्मिक सुख प्रदान करेंगी । जैमिनीय ब्राह्मण १.७२ में ऊद्गाता, प्रतिहर्त्ता, प्रस्तोता आदि ऋत्विजों द्वारा चार दिशाओं में प्रजाओं के लिए ऊर्ज रूपी अन्नाद्य का वितरण दिखाया गया है । शतपथ ब्राह्मण १.८.१.१५ में होता इडा को ओष्ठों से छूकर कहता है कि वह मनसस्पति होकर इडा का भक्षण कर रहा है, इषे प्राणाय । पुनः होता कहता है कि वह वाचस्पति होकर इडा का भक्षण कर रहा है, ऊर्जे उदानाय । यहां इष का सम्बन्ध प्राण से तथा ऊर्ज का उदान से दिखाया गया है । वैदिक साहित्य में मण्डूक रूपी प्राणों द्वारा वर्षा की कामना प्रसिद्ध है । अतः यह कहा जा सकता है कि प्राणों के स्तर पर इष रूपी, वर्षा रूपी अन्न पर्याप्त है, लेकिन उदान स्तर पर ऊर्ज की आवश्यकता पडती है । तैत्तिरीय संहिता ७.४.११.२ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.१.३ में क्षुधा की तृप्ति के लिए ऊर्ज की कामना की गई है । शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.१२ में यजमान के अभिषेक में उदुम्बर पात्र के जल से स्व: द्वारा अभिषेक का उल्लेख है । यहां कहा गया है कि स्व: ही ऊर्क है और जब तक स्व: विद्यमान है तब तक क्षुधा नहीं सताती । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से ऊर्ज को अन्नाद्य कहा गया है ( उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता ५.४.४.१, ५.४.९.२, जैमिनीय ब्राह्मण २.१५८, २.१८३ आदि ) । लेकिन जैमिनीय ब्राह्मण १.७१ व शतपथ ब्राह्मण २.४.२.१ आदि के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि देवों का अन्न तो साम है और ऊर्ज रस है । अन्न और रस के मिलने से अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम की प्राप्ति होती है । प्रश्न यह है कि इस अन्नाद्य की प्राप्ति कैसे की जाए ? जैमिनीय ब्राह्मण २.१५८, तैत्तिरीय संहिता ७.४.१०.२ व ७.४.११.२ आदि में ऊर्क् को विराट् कहा गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ऊर्ज की प्राप्ति के लिए विराट् अवस्था को प्राप्त करना आवश्यक है । यह तथ्य कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को बलि के राज्य में वामन के आगमन और विराट् बनने के रहस्य को उद्घाटित कर सकता है । बलि को भरि, वैदिक साहित्य के सौभरि ऋषि के तुल्य समझना चाहिए । यह बलि या भरि सांसारिक तथा आध्यात्मिक संपदा का भरण करने चला है । इसके समक्ष पहले वामन रूप प्रकट होता है, लेकिन शीघ्र ही वामन विराट् बनकर बलि से सारी सम्पदा का हरण कर लेता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१८६ में सौभरि ऋषि के सौभर सामों के संदर्भ में वर्णन आता है कि किस वस्तु की प्राप्ति के लिए सौभर साम के निधन या अन्त में किस अक्षर का प्रयोग करना चाहिए । अन्नाद्य की प्राप्ति के लिए ऊर्क् निधन का प्रयोग किया जाता है, आदि । विराट् अवस्था क्या हो सकती है, इस पर और विचार की आवश्यकता है । पौराणिक साहित्य में कार्तिक / ऊर्ज मास में विष्णु नामक सूर्य की स्थिति का उल्लेख है तथा इस मास में मुख्य रूप से विष्णु की ही पूजा की जाती है । वैदिक साहित्य में विष्णु को यज्ञ भी कहा जाता है । अतः विराट् का अर्थ होगा कि हमारी देह का प्रत्येक अङ्ग यज्ञ का एक पात्र विशेष बन जाए तो ऊर्ज का सम्पादन हो सकता है । इसके अतिरिक्त , इस मास में विष्णु नामक सूर्य के रथ में अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा आदि की स्थिति कही गई है । यह सब इष / आश्विन मास की एकान्तिकता के विपरीत, सार्वत्रिकता के सूचक हैं । पुराणों में कार्तिक मास में तुलसी के महत्त्व का वर्णन करने में सभी सीमाएं तोड दी गई हैं । कृष्ण सत्यभामा को बताते हैं कि चूंकि सत्यभामा ने पूर्वजन्म में तुलसी वाटिका स्थापित की थी, इसी कारण से इस जन्म में उसे कल्पवृक्ष प्राप्त हुआ है । जैसा अतिशयोक्तिपूर्वक वर्णन पुराणों में तुलसी का किया गया है, वैसा ही अतिशयोक्तिपूर्व वर्णन वैदिक साहित्य में ऊर्ज के संबंध में उदुम्बर वृक्ष का किया गया है । कहा गया है कि देवों ने सब वनस्पतियों का ऊर्ज, रस उदुम्बर में रख दिया है । इस प्रहेलिका के कुछ सूत्र पकडने का प्रयास किया जा सकता है । जलन्धर की पत्नी वृन्दा के भस्म होने पर तीन देवियों ने उसमें बीजारोपण किया, तब तुलसी उत्पन्न हुई । जलन्धर जरंधर हो सकता है । जर मर्त्य स्तर का प्रतीक हो सकता है जिसकी पत्नी वृन्दा वैखरी वाक् का प्रतीक हो सकती है । वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप में वृन्दा शब्द उपलब्ध नहीं है । वैखरी वाक् के भस्म होने पर मध्यमा वाक् रूपी तुलसी का जन्म होगा जिसमें परावाक् अपना बीजारोपण करती है । वैदिक साहित्य में वर्षा और उससे उत्पन्न ओषधियों का तो सार्वत्रिक उल्लेख है, लेकिन बीजारोपण का उल्लेख संभवतः कहीं नहीं है । यह पुराणों की मौलिकता है । तुलसी का पति शंखचूड है । शंख निधि का नाम भी है । शंख निधि के सम्बन्ध में पुराणों में कहा गया है कि इसके स्वामी के पास सभी सुख उपलब्ध होते हैं । लेकिन वह अपना सुख दूसरों को नहीं बांटता, वह अहंकार से युक्त होता है । शंख शब्द का दूसरा रूप शंस होता है - स्तोत्रों का शंसन, निर्माण । शंखचूड के पास भी विष्णु का कवच है । ऐसा प्रतीत होता है कि कार्तिक माहात्म्य के जलंधर, शंख, शंखचूड आदि असुर आश्विन मास में की गई साधना के फलस्वरूप प्राप्त सिद्धियां हैं जिनका कार्तिक मास में विस्तार करना है । पुराणों में ऊर्ज मास के साथ आभासी रूप में कईं अतियां की गई प्रतीत होती हैं । उनमें से एक है - ऊर्ज मास में सूर्य का तुला राशि पर होना । स्कन्द पुराण में कार्तिक मास के माहात्म्य का आरम्भ ही तुला पुरुष के दान से होता है । तुला पुरुष के दान में तुला में पुरुष को हिरण्य से तौलते हैं । मनुष्य व्यक्तित्व में हिरण्यय कोश पांचवां व अन्तिम कोश होता है । तोलने का अर्थ होगा कि हिरण्यय कोश जितना स्वर्णिम है , उससे निचले कोश भी उतने ही स्वर्णिम हो जाएं । अन्य शब्दों में, तुला सत्य और अनृत की परीक्षा करती है । जब अनृत में सत्य का प्रवेश हो जाएगा तो तुलन पूरा हो जाएगा । सत्य और अनृत के बीच की अवस्था ऋत होती है । अतः ऋत भी किसी प्रकार तुला से जुडा हो सकता है । यह तुला का मध्य हो सकता है ( ऋग्वेद १०.१००.१० में ऋत के सदन वाली गायों द्वारा ऊर्ज धारण करने वाले यवों का भक्षण कर पुष्ट होने की कामना की गई है )। वैदिक साहित्य में ऊर्ज के संदर्भ में ऊर्ज को मध्य में स्थापित करने के कईं निर्देश है (जैसे तैत्तिरीय संहिता ५.२.८.७, ६.१.३.४, ६.२.५.४, ६.२.१०.६, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.६.२, शतपथ ब्राह्मण ३.२.१.१०, ७.५.१.२४ आदि । मध्य वास्तव में क्या होता है, यह विचारणीय है । कार्तिक शुक्ल एकादशी को विष्णु के प्रबोधन के संदर्भ में निकटतम वैदिक संदर्भ शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.२१ हो सकता है जहां ऊर्जा द्वारा प्राणों और विष्णुरूपी अन्न को ऊर्जित करने का उल्लेख है । भविष्य पुराण में कार्तिक व्रत का पालन करने वाली तथा अत्रि से योग की शिक्षा ग्रहण करने वाली अजा की कथा के संदर्भ में अजा पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । कार्तिक मास में दीप दान आदि के पौराणिक वर्णन के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण २.४.२.२ में देवों, पितरों, मनुष्यों आदि के लिए ज्योतियों का कथन है । देवों के लिए आकाश में सूर्य ज्योति है , पितरों के लिए चन्द्रमा, मनुष्यों के लिए पृथिवी पर अग्नि । इन ज्योतियों में केवल सूर्य ज्योति के साथ ही ऊर्क् का उल्लेख आता है, चन्द्रमा के साथ मनोजव का, अग्नि के साथ मृत्यु का । निहितार्थ अन्वेषणीय है । जैमिनीय ब्राह्मण १.७ के अनुसार आदित्य अस्त होकर ओषधियों में ऊर्ज बनता है । इसका अर्थ हो सकता है कि आदित्य हमारी इन्द्रियों के लिए ऊर्जा का आदान करते हैं । जब आदित्य अस्त हो जाएंगे तो यह ऊर्जा हमारे व्यक्तित्व के विकास करने वाली ओषधि के रूप में उपलब्ध होगी । पुराणों के सार्वत्रिक वर्णन के अनुसार अमावास्या को चन्द्रमा आकाश में अस्त होकर ओषधियों में प्रवेश करता है । प्रथम लेखन : ११-१-२००५ ई.
Each
vedic word is considered to be sacred and full of mystery. Attempts have been
made from very earlier period to unravel the mystery but this mystery has not
yet been solved. This website makes an attempt in that direction on the basis of a
comprehensive view of words in sacred vedic texts and in Hindu way of
life. Take for example the word UURJA. According to Dr. G.N.Bhat, the word UURK
occurs in Rigveda at 58 places. Out
of these, at 43 places, Rigvedic interpreter Sayana interpreted this word in the
sense of Anna or cereals and at 13 places he interpreted it in the sense of bala
or vigour. At one place he interpreted it in the sense of Dhan/wealth.
Generally, this word occurs in vedic texts after the word ISHAM which also
literally means Anna/cereals. Interpreters said that Isham may be Anna and Uurja
may be Rasa/taste. This combination of two words is just like the conjugate
quantities in modern Physics. For example, momentum may be conjugate to
distance, energy may be conjugate to time. One can not make momentum conjugate
with time. Similar is the situation in vedic texts also, but proper
understanding is lacking. Old texts tried to explain in the way that Isham is
rain and whatever grows on earth as a consequence of rain, is Uurk. A guess can
be made that Isham may be the axial direction, because Ishu or arrow is said to
be axial. This may be the path of upward, straight penances. On the other hand,
Uurja may be the effect of this on the surroundings. The other direction of to
understand the word may be made on the basis of word root. In word roots
directory, Uurja has been placed along with the word Rij, meaning straight.
There is a possibility in grammar that Uurja may also be derived from Rij,
straightness. In modern sciences, it is very difficult to find out
straightness. All the world is curved. But on the other hand, an event is said
to adopt the smallest route and the smallest route can be a straight path only.
In vedic literature, straightness may be taken in the sense of removing one’s
sins. Then the spiritual path becomes straight.
To
understand the word on the basis of Hindu daily life, the vedic name of month
Kaartika in Hindu calender is also Uurja. It is expected that the festivals
celebrated in this month may shed some light on the mystery of word Uurja. The
name Kaartika is derived from root kritt, connected with cutting, cutting of
sins. The main festivals in this month are the worship of Tulasi herb,
celebration of Deepavali, celebration of a mountain of cereals( Annakuuta),
celebration of the kingdom of demon king Bali etc.In this month, sun lies on Tula/libra
constellation and the property of a Tula or weighing tool is that both of its
sides should be balanced. This indicates that this month is somehow connected
with balancing of higher and lower selves equally. Let lower self be as powerful
as the higher one. The word of herb Tulasi also symbolizes the same meaning.
Vedic literature points to 3 earlier stages also before Turaasah/tulasi- waking,
dreaming, sleeping. These may be understood in terms of sprituality- sleeping
may mean deep trance and then turaasah may mean coming down from trance. Coming
down from trance will not be a simple event. It will transform the mortal life.
This may be the real meaning of the word UURJA. The story of defeat of demon
king Bali at the hands of all pervading Vishnu also symbolizes the same fact.
REFERENCES
G.N.Bhat Vedic
Nighantu (Mangalore
University, Konaje(Karnataka), 574199 (India)) Price Rs. 125/-
संदर्भ ऊर्ज १अग्ने गृणतमंहस उरुष्योर्जो नपात् पूर्भिरायसीभिः ॥ - ऋ.१.५८.८ २यया शूर प्रत्यस्मभ्यं यंसि त्मनमूर्जं न विश्वध क्षरध्यै ॥ (इन्द्रः) - ऋ.१.६३.८ ३यावित्था श्लोकमा दिवो ज्योतिर्जनाय चक्रथुः। आ न ऊर्जं वहतमश्विना युवम् ॥ - ऋ.१.९२.१७ ४ऊर्जः पुत्रं भरतं सृप्रदानुं देवा अग्निं धारयन् द्रविणोदाम् ॥ - ऋ.१.९६.३ ५हिमेनाग्निं घ्रंसमवारयेथां पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम्। ऋबीसे अत्रिमश्विनावनीतमुन्निन्यथुः सर्वगणं स्वस्ति ॥ - ऋ.१.११६.८ ६युवमत्रये ऽवनीताय तप्तमूर्ज°मोमानमश्विनावधत्तम्। - ऋ.१.११८.७ ७स्वदामि घर्मं प्रति यन्त्यूतय आ वामूर्जानी रथमश्विनारुहत् ॥ - ऋ.१.११९.२ ८आ न ऊर्जं वहतमश्विना युवं मधुमत्या नः कशया मिमिक्षतम्। - ऋ.१.१५७.४ ९अया ते अग्ने विधेमोर्जो नपादश्वमिष्टे। एना सूक्तेन सुजात ॥ - ऋ.२.६.२ १०इमा हि त्वामूर्जो ° वर्धयन्ति वसूयवः सिन्धवो न क्षरन्तः ॥ (इन्द्रः) - ऋ.२.११.१ ११स्याम ते त इन्द्र ये त ऊती अवस्यव ऊर्जं वर्धयन्तः। - ऋ.२.११.१३ १२ब्रह्मण्यन्त इन्द्र ते नवीय इषमूर्जं सुक्षितिं सुम्नमश्युः ॥ - ऋ.२.१९.८ १३भुवद् विश्वमभ्यादेवमोजसा विदादूर्जं ° शतक्रतुर्विदादिषम् ॥ - ऋ.२.२२.४ १४सो अपां नपादूर्जयन्नप्स्वन्तर्वसुदेयाय विधते वि भाति ॥ - ऋ.२.३५.७ १५महि त्वाष्ट्रमूर्जयन्तीरजुर्यं स्तभूयमानं वहतो वहन्ति। (अग्निः) - ऋ.३.७.४ १६ऊर्जो नपातमध्वरे दीदिवांसमुप द्यवि। अग्निमीळे कविक्रतुम् ॥ - ऋ.३.२७.१२ १७दधिक्राव्ण इष ऊर्जो महो यदमन्महि मरुतां नाम भद्रम्। - ऋ.४.३९.४ १४सत्यो द्रवो द्रवरः पतङ्गरो दधिक्रावेषमूर्जं स्वर्जनत् ॥ - ऋ.४.४०.२ १९श्येनस्येव ध्रजतो अङ्कसं परि दधिक्राव्णः सहोर्जा तरित्रतः ॥ - ऋ.४.४०.३ २०सखायः सं वः सम्यञ्चमिषं स्तोमं चाग्नये। वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जो नप्त्रे सहस्वते ॥ - ऋ.५.७.१ २१ऊर्जो नपादभिष्टये पाहि शग्धि स्वस्तय उतैधि पृत्सु नो वृधे ॥ - ऋ.५.१७.५ २२तां वो देवा सुमतिमूर्जयन्तीमिषमश्याम वसवः शसा गोः। - ऋ.५.४१.१८ २३उर्वशी वा बृहद्दिवा गृणानाऽभ्यूर्ण्वाना प्रभृथस्यायोः। सिषक्तु न ऊर्जव्यस्य पुष्टेः ॥ - ऋ.५.४१.२० २४आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा ऽद्भ्यो यातमिषमूर्जं वहन्ता ॥ (अश्विनौ) - ऋ.५.७६.४ २५स त्वं न ऊर्जसन ऊर्जं धा राजेव जेरवृके क्षेष्यन्तः ॥ (अग्निः) - ऋ.६.४.४ २६वस्वी ते अग्ने संदृष्टिरिषयते मर्त्याय। ऊर्जो नपादमृतस्य ॥ - ऋ.६.१६.२५ २७ऊर्जो नपातं स हिनायमस्मयुर्दाशेम हव्यदातये। - ऋ.६.४८.२ २८शुभं पृक्षमिषमूर्जं वहन्ता होता यक्षत् प्रत्नो अध्रुग्युवाना ॥ (अश्विनौ) -, ६.६२.४ २९श्रवो वाजमिषमूर्जं वहन्तीर्नि दाशुष उषसो मर्त्याय। - ऋ.६.६५.३ ३०ऊर्जं नो द्यौश्च पृथिवी च पिन्वतां पिता माता विश्वविदा सुदंससा। - ऋ.६.७०.६ ३१एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे। - ऋ.७.१६.१ ३२त्वामु ते दधिरे हव्यवाहं देवासो अग्न ऊर्ज आ नपातम् ॥ - ऋ.७.१७.६ ३३यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वे देवा यासूर्जं मदन्ति। - ऋ.७.४९.४ ३४ता हि देवानामसुरा तावर्या ता नः क्षितीः करतमूर्जयन्तीः। (मित्रावरुणौ) - ऋ.७.६५.२ ३५प्रास्मा ऊर्जं घृतश्चुतमश्विना यच्छतं युवम्। - ऋ.८.८.१६ ३६ऊर्जो नपातं सुभगं सुदीदितिमग्निं श्रेष्ठशोचिषम्। - ऋ.८.१९.४ ३७पिबतं च तृप्णुतं चा च गच्छतं प्रजां च धत्तं द्रविणं च धत्तम्। सजोषसा उषसा सूर्येण चोर्जं नो धत्तमश्विना ॥ जयतं च प्र स्तुतं च प्र चावतं प्रजां च धत्तं द्रविणं च धत्तम्। सजोषसा उषसा सूर्येण चोर्जं नो धत्तमश्विना ॥ हतं च शत्रून् यततं च मित्रिणः प्रजां च धत्तं द्रविणं च धत्तम्। सजोषसा उषसा सूर्येण चोर्जं नो धत्तमश्विना ॥ - ऋ.८.३५.१०-१२ ३८ऊर्जो नपातमा हुवे ऽग्निं पावकशोचिषम्। अस्मिन् यज्ञे स्वध्वरे ॥ - ऋ.८.४४.१३ ३९ते स्तोभन्त ऊर्जमावन् घृतश्चुतं पौरासो नक्षन् धीतिभिः ॥ - ऋ.८.५४.१ ४०ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहे ऽग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम् ॥ - ऋ.८.६०.२ ४१स नो विश्वेभिर्देवेभिरूर्जो नपाद्भद्रशोचे। रयिं देहि विश्ववारम् ॥ - ऋ.८.७१.३ ४२स नो वस्व उप मास्यूर्जो नपान्माहिनस्य। सखे वसो जरितृभ्यः ॥ - ऋ.८.७१.९ ४३अधुक्षत् पिप्युषीमिषमूर्जं सप्तपदीमरिः। सूर्यस्य सप्त रश्मिभिः ॥ (अग्निः) - ऋ.८.७२.१६ ४४कया ते अग्ने अङ्गिर ऊर्जो नपादुपस्तुतिम्। वराय देव मन्यवे। - ऋ.८.८४.४ ४५भद्रं भद्रं न आ भरेषमूर्जं शतक्रतो। यदिन्द्र मृळयासि नः ॥ - ऋ.८.९३.२८ ४६यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा। चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्या परमं जगाम ॥ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपा पशवो वदन्ति। सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ॥ - ऋ.८.१००.१०-११ ४७स न ऊर्जे व्यव्ययं पवित्रं धाव धारया। देवासः शृणवन् हि कम् ॥ - ऋ.९.४९.४ ४८इषमूर्जं च पिन्वस इन्द्राय मत्सरिन्तमः। चमूष्वा नि षीदसि ॥ - ऋ.९.६३.२ ४९पुनानो वरिवस्कृध्यूर्जं जनाय गिर्वणः। हरे सृजान आशिरम् ॥ - ऋ.९.६४.१४ ५०अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ॥ - ऋ.९.६६.१९ ५१एन्द्रस्य कुक्षा पवते मदिन्तम ऊर्जं वसानः श्रवसे सुमङ्गलः। (पवमान सोमः) - ऋ.९.८०.३ ५२इषमूर्जं पवमानाभ्यर्षसि श्येनो न वंसु कलशेषु सीदसि। - ऋ.९.८६.३५ ५३स्वसार ईं जामयो मर्जयन्ति सनाभयो वाजिनमूर्जयन्ति ॥ - ऋ.९.८९.४ ५४इषमूर्जमभ्यर्षाश्वं गामुरु ज्योतिः कृणुहि मत्सि देवान्। - ऋ.९.९४.५ ५५आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥ - ऋ.१०.९.१ ५६पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ॥ (पितरः) - ऋ.१०.१५.७ ५७एवा ते अग्ने विमदो मनीषामूर्जो नपादमृतेभिः सजोषाः। गिर आ वक्षत् सुमतीरियान इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभाः ॥ - ऋ.१०.२०.१० ५८अस्माकं देवा उभयाय जन्मने शर्म यच्छत द्विपदे चतुष्पदे। अदत् पिबदूर्जयमानमाशितं तदस्मे शं योररपो दधातन ॥ - ऋ.१०.३७.११ ५९एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्जः स्कम्भं धरुण आ वृषायसे। (इन्द्रः) - ऋ.१०.४४.४ ६०प्रयाजान् मे अनुयाजाँश्च केवलानूर्जस्वन्तं हविषो दत्त भागम्। घृतं चापां पुरुषं चौषधीनामग्नेश्च दीर्घमायुरस्तु देवा ॥ तव प्रयाजा अनुयाजाश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हविषः सन्तु भागाः। तवाग्ने यज्ञो३यमस्तु सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रः ॥ - ऋ.१०.५१.८-९ ६१अश्वावती सोमावतीमूर्जयन्तीमुदोजसम्। आवित्सि सर्वा ओषधीरस्मा अरिष्टतातये ॥ - ऋ.१०.९७.७ ६२स इयानः करति स्वस्तिमस्मा इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभाः ॥ - ऋ.१०.९९.१२ ६३ऊर्जं गावो यवसे पीवो अत्तन ऋतस्य याः सदने कोशे अङ्ध्वे। - ऋ.१०.१००.१० ६४पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वी देवैर्निकिल्बिषम्। ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वायोरुगायमुपासते ॥ - ऋ.१०.१०९.७ ६५ऊर्जो नपात् सहसावन्निति त्वोपस्तुतस्य वन्दते वृषा वाक्। - ऋ.१०.११५.८ ६६ऊर्जो नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिर्हितः। त्वे इषः सं दधुर्भूरिवर्पसश्चित्रोतयो वामजाताः ॥ - ऋ.१०.१४०.३ ६७ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयध्वम्। संयोपयन्तो दुरितानि विश्वा हित्वा न ऊर्जं प्र पतात् पतिष्ठः ॥ - ऋ.१०.१६५.५ ६८मयोभूर्वातोv अभिवातूस्रा ऊर्जस्वतीरोषधीरा रिशन्ताम्। पीवस्वतीर्जीवधन्या पिबन्त्ववसाय पद्वते रुद्र मृळ ॥ - ऋ.१०.१६९.१ ६९आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥ - अथर्ववेद १.५.१ ७०आशीर्ण ऊर्जमुत सौप्रजास्त्वं दक्षं धत्तं द्रविणं सचेतसौ। - अ.२.२९.३ ७१ऊर्जमस्मा ऊर्जस्वती धत्तं पयो अस्मै पयस्वती धत्तम्। ऊर्जमस्मै द्यावापृथिवी अधातां विश्वे देवा मरुत ऊर्जमापः ॥ - अ.२.२९.५ ७२पूर्णा दर्वे परा पत सुपूर्णा पुनरा पत। सर्वान् यज्ञानत्संभुञ्जतीषमूर्जं न आ भर ॥ - अ.३.१०.७ ७३इहैव ध्रुवा प्रति तिष्ठ शालेऽश्वावती गोमती सूनृतावती। ऊर्जस्वती घृतवती पयस्वत्युच्छ्रयस्व महते सौभगाय ॥ - अ.३.१२.२ ७४घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः। सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत् पिन्वमाना ॥ - अ.३.१७.९ ७५अपेतो वायो सविता च दुष्कृतमप रक्षांसि शिमिदां च सेधतम्। सं ह्यूर्जया सृजथः सं बलेन तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥ - अ.४.२५.४ ७६पृथिवी धेनुस्तस्या अग्निर्वत्सः। सा मेऽग्निना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्। - - - - - - अन्तरिक्षं धेनुस्तस्या वायुर्वत्सः। सा मे वायुना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्। - - - - द्यौर्धेनुस्तस्या आदित्यो वत्सः। सा म आदित्येन वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्। - - - -दिशो धेनवस्तासां चन्द्रो वत्सः। ता मे चन्द्रेण वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्। - अ.४.३९.२-७ ७७उत वा शक्रो रत्नं दधात्यूर्जया वा यत् सचते हविर्दाः ॥ - अ.५.१.७ ७८पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वा देवैर्निकिल्बिषम्। ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वोरुगायमुपासते ॥ - अ.५.१७.११ ७९पयस्वती कृणुथाप ओषधीः शिवा यदेजथा मरुतो रुक्मवक्षसः। ऊर्जं च तत्र सुमतिं च पिन्वत यत्रा नरो मरुतः सिञ्चथा मधु ॥ - अ.६.२२.२ ८०ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयामः। संलोभयन्तो दुरिता पदानि हित्वा न ऊर्जं प्र पदात् पथिष्ठः ॥ - अ.६.२८.१ *विश्वे॑ दे॒वा ऊ॒र्जा(सह आगच्छन्तु) – तै.आ. ३.८.२ ८१अस्मै ग्रामाय प्रदिशश्चतस्र ऊर्जं सुभूतं स्वस्ति सविता नः कृणोतु। - अ.६.४०.२ ८२त्वं नो नभसस्पत ऊर्जं गृहेषु धारय। आ पुष्टमेत्वा वसु ॥ - अ.६.७९.२ ८३ऊर्जं बिभ्रद् वसुवनिः सुमेधा अघोरेण चक्षुषा मित्रियेण। गृहानैमि सुमना वन्दमानो रमध्वं मा बिभीत मत् ॥ इमे गृहा मयोभुव ऊर्जस्वन्तः पयस्वन्तः। पूर्णा वामेन तिष्ठन्तस्ते नो जानन्त्वायतः। - अ.७.६२.१-२ ८४आगन् रात्री संगमनी वसूनामूर्जं पुष्टं वस्वावेशयन्ती। अमावास्यायै हविषा विधेमोर्जं दुहाना पयसा न आगन् ॥ - अ.७.८४.३ ८५ऋतस्य पन्थामनु तिस्र आगुस्त्रयो घर्मा अनु रेत आगुः। प्रजामेका जिन्वत्यूर्जमेका राष्ट्रमेका रक्षति देवयूनाम् ॥ - अ.८.१९.१३ ८६तामुपाह्वयन्त ऊर्ज एहि स्वध एहि सूनृत एहीरावत्येहीति। - अ.८.११.४ ८७सोदक्रामत् सा देवानागच्छत् तां देवा उपाह्वयन्तोर्ज एहीति। तस्या इन्द्रो वत्स आसीच्चमसः पात्रम् ॥ तां देवः सविताधोक् तामूर्जामेवाधोक्। तामूर्जां देवा उप जीवन्त्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥ - अ.८.१४.१ ८८स तौ प्र वेद स उ तौ चिकेत यावस्याः स्तनौ सहस्रधारावक्षितौ। ऊर्जं दुहाते अनपस्फुरन्तौ ॥ - अ.९.१.७ ८९यामापीनामुपसीदन्त्यापः शाक्वरा वृषभा ये स्वराजः। ते वर्षन्ति ते वर्षयन्ति तद्विदे काममूर्जमापः ॥ - अ.९.१.९ ९०स्तनयित्नुस्ते वाक् प्रजापते वृषा शुष्मं क्षिपसि भूम्यां दिवि। तां पशव उप जीवन्ति सर्वं तेनो सेषमूर्जं पिपर्ति ॥ - अ.९.१.२० ९१ऊर्जस्वती पयस्वती पृथिव्यां निमिता मिता। विश्वान्नं बिभ्रती शाले मा हिंसीः प्रतिगृह्णतः ॥ - अ.९.३.१६ ९२इषं मह ऊर्जमस्मै दुहे यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ - अ.९.५.२४ ९३यमबध्नाद् बृहस्पतिर्देवेभ्यो असुरक्षितिम्। स मायं मणिरागमदूर्जया पयसा सह द्रविणेन श्रिया सह ॥ - अ.१०.६.२६ ९४ऊर्जो भागो निहितो यः पुरा व ऋषिप्रशिष्टाप आ भरैताः। - अ.११.१.१५ ९५यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः। तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। - अ.१२.१.१२ ९६विमृग्वरीं पृथिवीमा वदामि क्षमां भूमिं ब्रह्मणा वावृधानाम्। ऊर्जं पुष्टं बिभ्रतीमन्नभागं घृतं त्वाभि नि षीदेम भूमे ॥ - अ.१२.१.२९ ९७सर्वानग्ने सहमानः सपत्नानैषामूर्जं रयिमस्मासु धेहि। - अ.१२.२.४६ ९८पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ॥ - अ.१८.३.४३ ९९त्रयः सुपर्णा उपरस्य मायू नाकस्य पृष्ठे अधि विष्टपि श्रिताः। स्वर्गा लोका अमृतेन विष्ठा इषमूर्जं यजमानाय दुह्राम् ॥ (पितृमेधः) - अ.१८.४.४ १००ऊर्जं मदन्तीमदितिं जनेष्वग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥ - अ.१८.४.३० १०१तिलवत्सा ऊर्जमस्मै दुहाना विश्वाहा सन्त्वनपस्फुरन्तीः ॥ - अ.१८.४.३४ १०२पर्णो राजापिधानं चरूणामूर्जो बलं सह ओजो न आगन्। आयुर्जीवेभ्यो विदधद् दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥ - अ.१८.४.५३ १०३ऊर्जो भागो य इमं जजानाश्मान्नानामाधिपत्यं जगाम। तमर्चत विश्वमित्रा हविर्भिः स नो यमः प्रतरं जीवसे धात् ॥ - अ.१८.४.५४ १०४नमो वः पितर ऊर्जे नमो वः पितरो रसाय। - अ.१८.४.८१ १०५अन्नं पूर्वा रासतां मे अषाढा ऊर्जं देव्युत्तरा आ वहन्तु। - अ.१९.७.४ १०६ऊर्जे त्वा बलाय त्वौजसे सहसे त्वा। अभिभूयाय त्वा राष्ट्रभृत्याय पर्यूहामि शतशारदाय ॥ - अ.१९.३७.३ १०७अपामूर्ज ओजसो वावृधानमग्नेर्जातमधि जातवेदसः। - अ.१९.४५.३ १०८शंभूश्च मयोभूश्चोर्जस्वांश्च पयस्वांश्चास्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥ - अ.१९.४६.६ १०९एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्ज स्कम्भं धरुण आ वृषायसे। ओजः कृष्व सं गृभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे ॥ - अ.२०.९४.४ ११०ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम् ॥ - अ.२०.१०३.३ १११पुरोडाशकरणम् : कुक्कुटोऽसि मधुजिह्वः इति। मधुजिह्वो वै स देवेभ्य आसीद् , विषजिह्वोऽसुरेभ्यः। स यो देवेभ्य आसीः स न एधीत्येवैतदाह - इषमूर्जमा वद त्वया वयं सङ्घातं सङ्घातं जेष्म इति। - शतपथ ब्राह्मण १.१.४.१८ ११२.सोऽसावाज्यमधिश्रयति - इषे त्वा इति। वृष्ट्यै तदाह - यदाह इषे त्वेति। तत् - पुनरुद्वासयति। ऊर्जे त्वेति। यो वृष्टादूर्ग् रसो जायते तस्मै तदाह। - श.ब्रा.१.२.२.६ ११३- - - - - - चार दिशाओं में उत्तर दिशा :- ऊर्जस्वती चासि पयस्वती च इति। उत्तरत इमामेवैतत् पृथिवीं संविद्य रसवतीमुपजीवनीयामकुर्वत। - श.ब्रा.१.२.५.११ ११४सान्नाय्यसंपादने पर्णशाखया वत्सानपाकरणम् :- तामाच्छिनत्ति - इषे त्वा ऊर्जे त्वा इति। वृष्ट्यै तदाह यदाह इषे त्वेति। ऊर्ज्जे त्वा इति। यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते तस्मै तदाह। - श.ब्रा.१.७.१.२ ११५इडाकर्म :- स होतुरिह निलिम्पति। तद्धोतौष्ठयोर्निलिम्पते - मनसस्पतिना ते हुतस्याश्नामीषे प्राणायेति। अथ होतुरिह निलिम्पति। तद्धोतौष्ठयोर्निलिम्पते - वाचस्पतिना ते हुतस्याश्नामि - ऊर्जे उदानाय इति। (तुलनीय : आश्वलायन श्रौत सूत्र १.७.३) - श.ब्रा.१.८.१.१५ ११६सूक्तवाक् - शंयुवाक् :-- - - तेनेयं वशा पृश्निः। इयं भूत्वा दिवं गच्छ - इत्येवैतदाह। ततो नो वृष्टिमावह - इति। वृष्टाद्वा ऊर्ग्रसः, सूभूतं जायते ; तस्मादाह - ततो नो वृष्टिमावह इति। - श.ब्रा.१.८.३.१५ ११७सूक्तवाक् - शंयुवाक् :-शम्भुवौ मयोभुवाविति। शम्भुवौ ते मयोभुवौ स्तामित्येवैतदाह। ऊर्जस्वती च पयस्वती चेति। रसवत्यौ त उपजीवनीये स्तामित्येवैतदाह। - श.ब्रा.१.९.१.७ ११८अग्निहोत्रे बृहदुपस्थानम् :- अथ गामभ्यैति - अन्ध स्थान्धो वो भक्षीय मह स्थ महो वो भक्षीय इति। यानि वो वीर्याणि, यानि वो महांसि, तानि वो भक्षीय - इत्येवैतदाह। ऊर्ज स्थोर्जं वो भक्षीय इति। रस स्थ रसं वो भक्षीय - इत्येवैतदाह। रायस्पोष स्थ रायस्पोषं वो भक्षीय इति। भूमा स्थ भूमानं वो भक्षीय - इत्येवैतदाह। -श.ब्रा.२.३.४.२५ ११९अग्निहोत्रे बृहदुपस्थानम् :- अथ गामभिमृशति - संहितासि विश्वरूपी इति। विश्वरूपा इव हि पशवः। तस्मादाह - विश्वरूपीति। ऊर्जा माविश गौपत्येन इति। ऊर्जेति यदाह - रसेनेति तदाह। गौपत्येनेति यदाह - भूम्नेति तदाह। - श.ब्रा.२.३.४.२७ १२०पिण्डपितृयज्ञः :- ततो देवा यज्ञोपवीतिनो भूत्वा दक्षिणं जान्वाच्योपासीदन्। तान् (प्रजापतिः)अब्रवीत् - यज्ञो वोऽन्नम् , अमृतत्वं वः, ऊर्ग्वः , सूर्यो वो ज्योतिः इति। - - - तान् (पितॄन्)अब्रवीत् मासि - मासि वोऽशनम् , स्वधा वः, मनोजवो वः, चन्द्रमा वो ज्योतिः। तान् (मनुष्यान्) अब्रवीत् - सायंप्रातर्वोऽशनम्। प्रजा वः, मृत्युर्वः , अग्निर्वो ज्योतिः। -श.ब्रा.२.४.२.३ १२१साकमेधः :- अथ प्रातर्हुते वाऽहुते वा - यतरथा कामयेत - सोऽस्या अनिरशितायै कुम्भ्यै दर्व्योपहन्ति। °पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत। वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्जं शतक्रतो° इति। यथा पुरोऽनुवाक्या - एवमेषा। - श.ब्रा.२.५.३.१७ १२२अथ मेखलां परिहरते। अङ्गिरसो ह वै दीक्षिता न बल्यमविन्दन्। ते नान्यद्व्रतादशनमवाकल्पयन्। त एतामूर्जमपश्यन् - समाप्तिम्। तां मध्यत आत्मन ऊर्जमदधत्त - समाप्तिं , तया समाप्नुवन्। तथो एवैष एतां मध्यत आत्मन ऊर्जं धत्ते - समाप्तिम् , तया समाप्नोति। - श.ब्रा.३.२.१.१० १२३कृष्णाजिनदीक्षा :- तां (मेखलां) परिहरते। ऊर्गस्याङ्गिरसी इति। अङ्गिरसो ह्येतामूर्जमपश्यन्। ऊर्णमृदा ऊर्जं मयि धेहि इति। नात्र तिरोहितमिवास्ति। - श.ब्रा.३.२.१.१४ १२४कृष्णाजिन दीक्षा :- अथास्मै दण्डं प्रयच्छति। वज्रो वै दण्डः। - - औदुम्बरो भवति। अन्नं वा ऊर्क्। उदुम्बर ऊर्जः। अन्नाद्यस्यावरुध्यै। - श.ब्रा.३.२.१.३३ १२५सोमानयनम् :- औदुम्बरी (आसन्दी) भवति। अन्नं वाऽऊर्क्। ऊदुम्बर ऊर्जः। अन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। - श.ब्रा.३.३.४.२७ १२६औदुम्बरी :-तन्मध्य (सदसि)औदुम्बरीं मिनोति। अन्नं वाऽऊर्गुदुम्बरः। उदरमेवास्य सदः। तन्मध्यतोऽन्नाद्यं दधाति। तस्मान्मध्य औदुम्बरीं मिनोति। - श.ब्रा.३.६.१.१ १२७औदुम्बरी :-स प्रोक्षति - दिवे त्वाऽन्तरिक्षाय त्वा पृथिव्यै त्वा इति। इमानेवैतल्लोकानूर्जा रसेन भाजयति। एषु लोकेषूर्जं रसं दधाति। - - - - - -तामुच्छ्रयति - उद्दिवं स्तभानान्तरिक्षं पृण दृंहस्व पृथिव्याम् इति। इमानेवैतल्लोकानूर्जा रसेन भाजयति। एषु लोकेषूर्जं रसं दधाति। - श.ब्रा.३.६.१.१२ १२८अथ स्रुवेणोपहत्याज्यं विष्टपमभि जुहोति - घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथाम् इति। तदिमे द्यावापृथिवीऽऊर्ज्जा रसेन भाजयति। अनयोरूर्जं रसं दधाति। - श.ब्रा.३.६.१.२१ १२९संज्ञपनान्तरभावि प्रयोगकथनं :- अथ वपामुत्खिदन्ति - तया वपाश्रपण्यौ प्रोर्णौति। घृतेन द्यावापृथिवी प्रोर्णुवाथाम् इति। तदिमे द्यावापृथिवीऽऊर्ज्जारसेन भाजयति। अनयोरूर्जं रसं दधाति। - श.ब्रा.३.८.२.१६ १३०निग्राभ्य प्रयोगः :- एष वा उत्तमः पविः - यत्सोमः। तस्मादाह उत्तमेन पविनेति। ऊर्ज्जस्वन्तं मधुमन्तं पयस्वन्तम् इति। रसवन्तमित्येवैतदाह - यदाह ऊर्ज्जस्वन्तं मधुमन्तं पयस्वन्तमिति। - श.ब्रा.३.९.४.५ १३१निग्राभ्या प्रयोगः :- स प्रहरति - माभेर्मा सं विक्थाः इति। मा त्वं भैषीः, मा सं विक्थाः, अमुष्माऽअहं प्रहरामि - न तुभ्यम् - इत्येवैतदाह - ऊर्ज्जं धत्स्व इति। रसं धत्स्वेत्येवैतदाह। - श.ब्रा.३.९.४.१८ १३२आग्रयण ग्रहः :- तदु ब्रूयादेव भूयः। इष ऊर्जे पवते इति। वृष्ट्यै तदाह यदाह इषऽइति। ऊर्जऽइति। यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते तस्मै तदाह। - श.ब्रा.४.२.२.१५ १३३ऋतुग्रहाः :- उपयामगृहीतोऽसि इषे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽस्यूर्जे त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव शारदौ। स यच्छरद्यूर्ग्रस ओषधयः पच्यन्ते - तेनो हैताविषश्चोर्जश्च। - श.ब्रा.४.३.१.१७ १३४गर्गत्रिरात्रमहीनम् :- पुनरूर्जा निवर्तस्व इति। तद्वेव रिरिचानं पुनराप्याययति - यदाह - पुनरूर्जा निवर्तस्वेति। - श.ब्रा.४.५.८.७ १३५सत्रोत्थानम् :-औदुम्बरीमन्वारभ्यासते। अन्नं वा ऊर्गुदुम्बरः। ऊर्जैवैतद्वाचमाप्याययन्ति। -श.ब्रा.४.६.९.२२ १३६वाजपेयः :- ग्रहा ऊर्जाहुतयो व्यन्तो विप्राय मतिम्। तेषां विशिप्रियाणां वोऽहमिषमूर्जं समग्रभम् - उपयामगृहीतोऽसि। इन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णामि, एष ते योनिः, इन्द्राय त्वा जुष्टतमम् - इति सादयति। ऊर्ग्वै रसः। रसमेवैतेनोज्जयति। - श.ब्रा.५.१.२.८ १३७उत स्मास्य (रथस्य)द्रवतस्तुरण्यतः पर्णं न वेरनुवाति प्रगर्द्धिनः। श्येनस्येव ध्रजतोऽअङ्कसं परि दधिक्राव्णः सहोर्जा तरित्रतः स्वाहा - इति। - श.ब्रा.५.१.५.२० १३८यूपारोहणम् :- अथास्माऽआसन्दीमाहरन्ति। उपरिसद्यं वाऽएष जयति - यो जयत्यन्तरिक्षसद्यम्। - - - -औदुम्बरी भवति। अन्नं वाऽऊर्गुदुम्बरः। ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। - श.ब्रा.५.२.१.२३ १३९अथास्माऽअन्नं सम्भरति। अन्नं वाऽएष उज्जयति - यो वाजपेयेन यजते। - - - - -औदुम्बरे पात्रे। अन्नं वाऽऊर्गुदुम्बरः। ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। तस्मादौदुम्बरे पात्रे। सोऽप एव प्रथमाः सम्भरति, अथ पयः , अथ यथोपस्मारमन्नानि। - श.ब्रा.५.२.२.२ १४०अभिषेचनीयानामपां सम्भरणम् :- स वा ऽअपः सम्भरति - - - औदुम्बरे पात्रे। अन्नं वाऽऊर्गुदुम्बरः। ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै।- - - - स सारस्वतीरेव प्रथमा गृह्णाति। अपो देवा मधुमतीरगृभ्णन् इति। अपो देवा रसवतीरगृह्णन्नित्येवैतदाह। ऊर्जस्वती राजस्वश्चितानाः इति। रसवतीरित्येवैतदाह - यदाहोर्जस्वतीरिति। - श.ब्रा.५.३.४.२ १४१अभिषेकः :- औदुम्बरं पात्रं भवति। तेन स्वोऽभिषिञ्चति। अन्नं वाऽऊर्गुदुम्बरः। ऊर्ग्वै स्वम्। यावद्वै पुरुषस्य स्वं भवति - नैव तावदशनायति। तेनोर्क् स्वम्। तस्मादौदुम्बरेण स्वोऽभिषिञ्चति। - श.ब्रा.५.३.५.१२ १४२अभिषेकोत्तरकर्माणि :- अथौदुम्बरीं शाखामुपस्पृशति - ऊर्गस्यूर्जं मयि धेहि इति। तद् ऊर्जमात्मन्धत्ते। तस्यैतस्य कर्मण एतावेव शतमानौ प्रवृत्तौ दक्षिणा। - श.ब्रा.५.४.३.२६ १४३उदुम्बरो हैव देवान्न जहौ। ते देवा असुरान् जित्वा तेषां वनस्पतीनवृञ्जत। ते होचुः - हन्त यैषु वनस्पतिषूर्क्, यो रसः, उदुम्बरे तं दधाम। - - - - -तद्यैषु वनस्पतिषूर्ग्यो रस आसीद् - उदुम्बरे तमदधुः। तयैतदूर्जा सर्वान् वनस्पतीन्प्रति पच्यते। तस्मात्स सर्वदाऽऽर्द्रः, सर्वदा क्षीरी। - श.ब्रा.६.६.३.३ १४४अन्नपतेऽन्नस्य नो देहि इति। अशनपतेऽशनस्य नो देहीत्येतत्। अनमीवस्य शुष्मिणः - इति। अनशनायस्य शुष्मिण इत्येतत्। प्र प्र दातारं तारिषः इति। यजमानो वै दाता। प्र यजमानं तारिष इत्येतत्। ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे। इति। आशिषमाशास्ते। - श.ब्रा.६.६.४.७ १४५औदुम्बरी (आसन्दी) भवति। ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः। ऊर्जैवैनमेतद्रसेन बिभर्ति। - श.ब्रा.६.७.१.१३ १४६अग्नेऽभ्यावर्तिन्नभि मा निवर्तस्व। अग्नेऽअङ्गिरः। पुनरूर्जा सह रय्या इति। एतेन मा सर्वेणाभिनिवर्त्तस्वेत्येतत्। चतुष्कृत्वः प्रत्यवरोहति। चतुर्हि कृत्व ऊर्ध्वो रोहति। तद् यावत्कृत्व ऊर्ध्वो रोहति - तावत्कृत्वः प्रत्यवरोहति। - श.ब्रा.६.७.३.६ १४७अथापादत्ते। - - - -प्रसद्य भस्मना योनिमपश्च पृथिवीमग्ने इति। प्रसन्नो ह्येष भस्मना योनिम् अपश्च, पृथिवी च भवति। संसृज्य मातृभिष्ट्वं ज्योतिष्मान् पुनरासदः इति। - - -पुनरासद्य सदनम् पुनरूर्जा सह रय्या इति। एतेन मा सर्वेणाभिनिवर्तस्वेत्येतत्। - श.ब्रा.६.८.२.६ १४८औदुम्बरं (सीरं) भवति। ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः। ऊर्जैवैनमेतद्रसेन समर्धयति। - श.ब्रा.७.२.२.३ *सीता कर्षणम् :- अथ जघनार्धेनोदीचीम्। घृतेन सीता मधुना समज्यताम् इति। यथैव यजुस्तथा बन्धुः। विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः। इति। विश्वे च वै दैवा मरुतश्च वर्षस्येशते। ऊर्जस्वती पयसा पिन्वमाना इति। रसो वै पयः। ऊर्जस्वती रसेनान्नेन पिन्वमाना इत्येतत्। - श.ब्रा.७.२.२.१० १४९लोगेष्टका उपधानम् :- अथोत्तरतः - इषमूर्जमहमित आदम् इति। इषमूर्जमहमित आददऽइत्येतत् । ऋतस्य योनिम् इति। - श.ब्रा.७.३.१.२३ १५०लोगेष्टकोपधानम् :- ऊर्जोनपाज्जातवेदः सुशस्तिभिः इति। ऊर्जोनपाज्जातवेदः सुष्टुतिभिरित्येतत्। - श.ब्रा.७.३.१.३१ १५१स्रुगिष्टकाद्वयोपधानम् :- कार्ष्मर्यमयी दक्षिणत उपदधाति - - - - -। अथौदुम्बरीमुत्तरतः उपदधाति। ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः। ऊर्जमेवास्मिन्नेतद्रसं दधाति। दध्ना पूर्णा भवति। रसो वै दधि। रसमेवास्मिन्नेतद्दधाति। - श.ब्रा.७.४.१.३८ १५२उलूखलमुसलेष्टकोपधानम् :-औदुम्बरे भवतः। ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः। ऊर्जमेवास्मिन्नेतद्रसं दधाति । श.ब्रा.७.५.१.१५ १५३प्राण, अन्न व ऊर्ज का उदचिक्रमण :-- - - - -एतयोरुभयोर्गृहीतयोः - अस्मादूर्गुदचिक्रमिषत्। तामेताभ्यामुभाभ्यामगृह्णात्। तस्मादेताभ्यामुभाभ्यामूर्ग्गृहीता। यो ह्येवान्नमत्ति - स प्राणिति - तमूर्जयति। ऊर्जि गृहीतायामस्मादेतेऽउभेऽउदचिक्रमिषताम्। तेऽऊर्जाऽगृह्णात्। तस्मादेतेऽउभे ऊर्जा गृहीते। यं ह्येवोर्जयति - स प्राणिति - सोऽन्नमत्ति। - श.ब्रा.७.५.१.१८ १५४अथ यत् प्रजापतिः प्राणयत् - तस्मादु प्रजापतिः प्राणः। यो वै स प्राणः - एषा सा गायत्री। अथ यत् तदन्नम् - एष स विष्णुर्देवता। अथ या सोर्क्। एष स उदुम्बरः। - श.ब्रा.७.५.१.२१ १५५तं (प्रजापतिं)यत्र देवाः समस्कुर्वन् - तदस्मिन्नेतत्सर्वं मध्यतोऽदधुः - प्राणमन्नमूर्जम्। तथैवास्मिन्नयमेतद्दधाति। - श.ब्रा.७.५.१.२४ १५६उखेष्टकोपधानम् :- इमे वै लोका उखा। इमे लोकाः प्रजापतिः। ताम् (उखाम्)उलूखलऽउपदधाति। तदेनमेतस्मिन्त्सर्वस्मिन्प्रतिष्ठापयति - प्राणेऽन्नऽऊर्जि। - श.ब्रा.७.५.१.२७ १५७इषे राये रमस्व सहसे द्युम्नऽऊर्जेऽअपत्याय इति। एतस्मै सर्वस्मै रमस्वेत्येतत्। - श.ब्रा.७.५.१.३१ १५८चतुर्दश वालखिल्य इष्टकाः :- इषे त्वोर्जे त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा इति। चत्वारश्चतुष्पादा पशवः। - श.ब्रा.८.३.४.१० १५९चत्वारिंशच्छन्दस्येष्टकोपधानम् :- अमुनाऽदो जिन्व, अदोऽसि , अमुष्मै त्वा, अधिपतिनोर्जा, ऊर्जं जिन्व इति त्रेधा विहिता। त्रेधाविहितं ह्यन्नम्। - श.ब्रा.८.५.३.३ १६०अश्मन्नूर्जं पर्वते शिश्रियाणाम् इति। अश्मनि वा एषोर्क् पर्वतेषु श्रिता। - - - -तान्न इषमूर्जं धत्त मरुतः संरराणाः इति। मरुतो वै वर्षस्येशते। अश्मंस्ते क्षुत् इति निदधाति। तदश्मनि क्षुधं दधाति। तस्मादश्मा नाद्यः। अथो स्थिरो वा अश्मा, स्थिरा क्षुत्। स्थिर एव तत् स्थिरं दधाति। मयि तऽऊर्क् इति अपादत्ते। तदात्मन्नूर्जं धत्ते। तथा द्वितीयम् , तथा तृतीयम्। - श.ब्रा.९.१.२.५ १६१अथ समिध आदधाति। - - - औदुम्बर्यो भवन्ति। ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः। ऊर्जैवैनमेतद्रसेन प्रीणाति। - श.ब्रा.९.२.२.३ १६२तप्तं घर्मं परिगृह्यायजन्त इति। ऊर्जा यद्यज्ञमयजन्त देवाः इति। ऊर्जा ह्येतं यज्ञमयजन्त देवाः। - श.ब्रा.९.२.३.९ १६३चित्याग्नि समीपे आरोहणम् :- प्राचीमनु प्रदिशं प्रेहि विद्वान् इति। - - - - ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे इति। आशिषमाशास्ते। - श.ब्रा.९.२.३.२५ १६४अथौदुम्बरीम् (समिधम्) आदधाति। ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः। ऊर्जैवैनमेतद्रसेन प्रीणाति। - श.ब्रा.९.२.३.४० १६५यद्वेवाह - इयं ते राण्मित्राय यन्ताऽसि यमन ऊर्जे त्वा वृष्ट्यै त्वा प्रजानां त्वाऽऽधिपत्यायेति, इदं ते राज्यम्। अभिषिक्तोऽसीत्येतत्। मित्रस्य त्वं यन्ताऽसि यमन ऊर्जे च नोऽसि वृष्ट्यै च नोऽसि प्रजानां च न आधिपत्यायासि इति। - श.ब्रा.९.३.३.११ १६६राष्ट्रभृद्धोमः :- इषिरः इति। क्षिप्र इत्येतत्। विश्वव्यचा इति। एष हीदं सर्वं व्यचः करोति। वातो गन्धर्वस्तस्यापोऽअप्सरसः इति। वातो ह गन्धर्वोऽद्भिरप्सरोभिर्मिथुनेन सहोच्चक्राम। ऊर्जो नाम इति। आपो वा ऊर्जः। अद्भ्यो ह्यूर्ग्जायते। - श.ब्रा.९.४.१.१० १६७सायंप्रातर्ह वा अमुष्मिँल्लोकेऽग्निहोत्रहुदश्नाति। तावती ह तस्मिन्यज्ञऽऊर्क्। अर्धमासेऽर्धमासे दर्शपूर्णमासयाजी। चतुर्षु चतुर्षु मासेषु चातुर्मास्ययाजी। षट्सु षट्सु पशुबन्धयाजी। सम्वत्सरे संवत्सरे सोमयाजी। शते - शते सम्वत्सरेष्वग्निचित्काममश्नाति कामम्।- - - श.ब्रा.१०.१.५.४ १६८मण्डलपुरुषोपासनं ब्राह्मणम् :-- - - विषमिति सर्पाः। सर्प इति सर्पविदः। ऊर्गिति देवाः। रयिरिति मनुष्याः। - - - - - श.ब्रा.१०.५.२.२० १६९सृष्टि ब्राह्मणम् :-- - - त (दर्शपूर्णमासाभ्यां) इष्ट्वा प्राचीं दिशमपश्यन्। तां प्राचीमेवाकुर्वत। - - - - उपैनामितः कुर्वीमहि इति। तामूर्ज्जमकुर्वत। इमां खलूर्जं पश्येमेति। साऽसौ द्यौरभवत्। - श.ब्रा.११.१.६.२१ १७०यस्याग्नावग्निमभ्युद्धरेयुः। किं तत्र कर्म। - - - -इषमूर्जमभिसंवसानौ - - - इति। शांतिमेवाभ्यामेतद्वदति। - श.ब्रा.१२.४.३.४ १७१सौत्रामणी यागः :- लोमभ्य एवास्य चित्तमस्रवत्, ते श्यामाका अभवन्। त्वच एवास्यापचितिरस्रवत्, सो ऽश्वत्थो वनस्पतिरभवत्। मांसेभ्य एवास्योर्गस्रवत्, स उदुंबरोऽभवत्। अस्थिभ्य एवास्य स्वधाऽस्रवत्, स न्यग्रोधोऽभवत्। मज्जभ्य एवास्य भक्षः सोमपीथोऽस्रवत्, ते व्रीहयोऽभवन्। एवमस्येन्द्रियाणि वीर्याणि व्युदक्रामन्॥ - - - - - -श.ब्रा.१२.७.१.९ १७२सौत्रामणी यागः :- आश्वत्थं पात्रं भवति। अपचितिमेवावरुंधे। औदुंबरं भवति। ऊर्जमेवावरुंधे। नैयग्रोधं भवति। स्वधामेवावरुंधे। - श.ब्रा.१२.७.२.१४ १७३औदुम्बरी (आसन्दी) भवति। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। ऊर्ज्येवाध्यभिषिच्यते। - श.ब्रा.१२.८.३.५
१७४एष वा ऊर्जस्वान्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजंते। सर्वमेवोर्जस्वद्भवति। - - - -श.ब्रा.१३.३.७.६ १७५महावीरादिप्रवर्ग्यपात्रसम्भरणम् :- औदुम्बरी (अभ्रिः) भवति। ऊर्ग् वै रस उदुम्बरः। ऊर्ज्जैवैनमेतद्रसेन समर्द्धयति। कृत्स्नं करोति। - श.ब्रा.१४.१.२.४ १७६घर्मसन्दीपनं :- औदुम्बरी (सम्राडासंदी) भवति। ऊर्ग्वै रस उदुंबरः। ऊर्जैवैनमेतद्रसेन समर्द्धयति। कृत्स्नं करोति। - श.ब्रा.१४.१.३.९ १७७घर्म प्रचरणम् :- अथ पिन्वमानमनुमन्त्रयते। इषे पिन्वस्व इति। वृष्ट्यै तदाह। यदाह। इषे पिन्वस्व इति। ऊर्जै पिन्वस्व इति। यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते। तस्मै तदाह। - श.ब्रा.१४.२.२.२७ १७८यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽजनयत्पिता। - - - - कस्मात्तानि न क्षीयन्ते , अद्यमानानि सर्वदा। यो वै तामक्षितिं वेद , सोऽन्नमत्ति प्रतीकेन। स देवानपिगच्छति , स ऊर्जमुपजीवति। इति श्लोकाः। - श.ब्रा.१४.४.३.१ १७९पुरुषो वा अक्षितिः। स हीदमन्नं पुनः पुनर्जनयते। - - - स देवानपिगच्छति। ऊर्जमुपजीवति। इति प्रशंसा। -श.ब्रा.१४.४.३.७ १८०ब्रह्म संधत्तं तन्मे जिन्वतम्। क्षत्त्रं संधत्तं तन्मे जिन्वतम्। इषं संधत्तं तां मे जिन्वतम्। ऊर्जं संधत्तं तां मे जिन्वतम्। रयिं संधत्तं तां मे जिन्वतम्। पुष्टिं संधत्तं तां मे जिन्वतम्। पशून्संधत्तं तान्मे जिन्वतम्। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.१.१ १८१शुक्रामन्थि ग्रह प्रचारार्थ मन्त्राः :- कल्पयतं दैवीर्विशः। कल्पयतं मानुषीः। इषमूर्जमस्मासु धत्तम्। प्राणान्पशुषु। प्रजां मयि च यजमाने च। - तै.ब्रा.१.१.१.४ १८२आधानोपयुक्त संभाराणां देवयजनप्रदेशे प्रक्षेपणम् :- ऊर्जं वा एतं रसं पृथिव्या उपदीका उद्दिहन्ति। यद्वल्मीकम्। यद्वल्मीकवपा संभारो भवति। ऊर्जमेव रसं पृथिव्या अवरुन्द्धे। अथो श्रोत्रमेव। श्रोत्रं ह्येतत्पृथिव्याः। यद्वल्मीकः। अबधिरो भवति। य एवं वेद। - तै.ब्रा.१.१.३.४ १८३आधानोपयुक्त संभाराणां देवयजनप्रदेशे प्रक्षेपणम्। द्वितीयं संभारं :- देवा वा ऊर्जं व्यभजन्त। तत उदुम्बर उदतिष्ठत्। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। यदौदुम्बरः संभारो भवति। ऊर्जमेवावरुन्द्धे। - तै.ब्रा.१.१.३.१० १८४आधानमन्त्राः। आहवनीयदेशं प्रति गमनमन्त्रम् :- प्राचीमनुप्रदिशं प्रेहि विद्वान्। अग्नेरग्ने पुरो अग्निर्भवेह। विश्वा आशा दीद्यानो विभाहि। ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे। - तै.ब्रा.१.१.७.१ १८५आधानमन्त्रब्राह्मणम् :-ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पद इत्याह। आशिषमेवैतामाशास्ते। - तै.ब्रा.१.१.८.५ १८६गवामयनशेषविधिः :- ऊर्जं पृथिव्या रसमाभरन्तः। शतं जीवेम शरदः पुरूचीः। वम्रीभिरनुवित्तं गुहासु। श्रोत्रं त उर्व्यबधिरा भवामः (इति वल्मीकवपाम्)। प्रजापतिसृष्टानां प्रजानाम्। क्षुधोपहत्यै सुवितं नो अस्तु। उपप्रभिन्नमिषमूर्जं प्रजाभ्यः। सूदं गृहेभ्यो रसमाभरामि (इति सूदम्)। - तै.ब्रा.१.२.१.२ १८७गवामयनशेष विधिः :- ऊर्जः पृथिव्या अध्युत्थितोऽसि। वनस्पते शतवल्शो विरोह। त्वया वयमिषमूर्जं मदन्तः। रायस्पोषेण समिषा मदेम (इत्युदुम्बरम्) - तै.ब्रा.१.२.१.५ १८८गवामयनशेषविधिः :- अग्ने सपत्नाf अपबाधमानः। रायस्पोषमिषमूर्जमस्मासु धेहि (इत्याधीयमानमभिमन्त्रयते यजमानः) - तै.ब्रा.१.२.१.२१ १८९अग्निप्रणयनकाले गमनार्था मन्त्राः :- विश्वा आशा दीद्यानो विभाहि। ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।- तै.ब्रा.१.२.१.२२ १९०विषुवन्नामकस्य मुख्यस्य अह्नस्तदुभयपार्श्ववर्तिनामष्टानामह्नां च विधानम् :-सुवर्गो वै लोको ज्योतिः। ऊर्ग्विराट्। - तै.ब्रा.१.२.२.२ १९१महाव्रतम् :- मध्यतः क्रियते। मध्यतो ह्यन्नमशितं धिनोति। अथो मध्यत एव प्रजानामूर्ग्धीयते। - तै.ब्रा.१.२.६.२ १९२महाव्रत निरूपणम् :- औदुम्बरस्तल्पो भवति। ऊर्ग्वा अन्नमुदुम्बरः। ऊर्ज एवान्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। - तै.ब्रा.१.२.६.५ १९३वाजपेय मन्त्र ब्राह्मणम् :- औदुम्बरेण स्रुवेण जुहोति। ऊर्ग्वा अन्नमुदुम्बरः। ऊर्ज एवान्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। - तै.ब्रा.१.३.८.२ १९४सोमग्रहाभिधानम् :- तां (पृश्निं) विश्वेदेवा आग्रयणस्थाल्योर्जमदुह्रन्। यदाग्रयणस्थाली भवति। ऊर्जमेव तया यजमान इमां दुहे। तां मनुष्या ध्रुवस्थाल्यायुरदुह्रन्। - - - -तै.ब्रा.१.४.१.५ १९५वह्नि विषय प्रायश्चित्तानि :- गार्हपत्यं मन्थति। - - - - -इषे रय्यै रमस्व। सहसे द्युम्नाय। ऊर्जे पत्यायेत्याह। पशवो वै रयिः। पशूनेवास्मै रमयति। - तै.ब्रा.१.४.४.९ १९६शुद्धि हेतवः यजमानेन जपनीया मन्त्राः :- - - - -यमो राजा प्रमृणाभिः पुनातु मा। जातवेदा मोर्जयन्त्या पुनातु। - तै.ब्रा.१.४.८.६ १९७राजसूयगत चातुर्मास्यशेषाभिधानम् :- प्रजा वै सत्रमासत तपस्तप्यमाना अजुह्वती। देवा अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेनार्धमास ऊर्ज-मवारुन्धत। तस्मादर्धमासे देवा इज्यन्ते। पितरोऽपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन मास्यूर्ज-मवारुन्धत। - - -। मनुष्या अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन द्वयीमूर्ज-मवारुन्धत। तस्माद्द्विरह्नो मनुष्येभ्य उपह्रियते। प्रातश्च सायं च। पशवो ऽपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन त्रयीमूर्ज-मवारुन्धत। तस्मात्त्रिरह्न पशवः प्रेरते। प्रातः सङ्गवे सायम्। असुरा अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन संवत्सर ऊर्ज-मवारुन्धत। ते देवा अमन्यन्त। अमी वा इदमभूवन्। यद्वयं स्म इति। त एतानि चातुर्मास्यान्यपश्यन्। तानि निरवपन्। तैरेवैषां तामूर्ज।मवृञ्जत। ततो देवा अभवन् पराऽसुराः। - तै.ब्रा.१.४.९.१ १९८यद्यजते। यामेव देवा ऊर्ज।मवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। यत्पितृभ्यः करोति। यामेव पितर ऊर्ज।मवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। यदावसथेऽन्नं हरन्ति। यामेव मनुष्या ऊर्ज।मवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। यद्दक्षिणां ददाति। यामेव पशव ऊर्ज।मवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। यच्चातुर्मास्यैर्यजते। यामेवासुरा ऊर्ज।मवारुन्धत। तां तेनावरुन्धे। - तै.ब्रा.१.४.९.४ १९९राजसूय विजयादूर्ध्वमासनोपविष्टस्य यजमानस्य सवैः सेव्यत्ववर्णनम् :-- - -अपांनप्त्रे स्वा-होर्जोनप्त्रे स्वाहाऽग्नय गृहपतये स्वाहेति तिस्र आहुतीर्जुहोति। त्रय इमे लोकाः। - तै.ब्रा.१.७.१०.६ २००देवीं वाचमजनयन्त देवाः। तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। सा नो मन्द्रेषमूर्जं- दुहाना। धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ॥ - तै.ब्रा.२.४.६.१० २०१यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि। राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा। चतस्र ऊर्जं। दुदुहे पयांसि। क्व स्विदस्याः परमं जगाम।- तै.ब्रा.२.४.६.११ २०२इदँ हविः प्रजननं मे अस्तु। - - - -रायस्पोषमिषमू।र्जमस्मासु दीधरत्स्वाहा। - तै.ब्रा.२.६.३.५ २०३सौत्रामणेः कौकिल्या अभिधानम्। अनुयाजानां एकादश मैत्रावरुणप्रैषाः :- देवी ऊर्जाहुती दुघे सुदुघे। पयसेन्द्रमवर्धताम्। इषमूर्जमन्याऽवाक्षीत्। सग्धिं सपीतिमन्या। नवेन पूर्वं दयमाने। पुराणेन नवम्। अधातामूर्जमूर्जाहुती वसु वार्याणि। यजमानाय शिक्षिते। वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज। - तै.ब्रा.२.६.१०.३ २०४सौत्रामणेः कौकिल्या अभिधानम्। प्रयाजयाज्या आप्री संज्ञकाः :- आजुह्वाना सरस्वती। इन्द्रायेन्द्रियाणि वीर्यम्। इडाभिरश्विनाविषम्। समूर्जं सं रयिं दधुः। - तै.ब्रा.२.६.१२.२ २०५कौकिल सौत्रामण्यां अनुयाजानां मैत्रावरुण प्रैषाः :- देवी ऊर्जाहुती दुघे सुदुघे। पयसेन्द्रं सरस्वत्यश्विना भिषजाऽवत। शुक्रं न ज्योतिः स्तनयोराहुती धत्त इन्द्रियम्। वसुवने वसुधेयस्य वियन्तु यज। - तै.ब्रा.२.६.१४.३ २०६होता होत्रे स्विष्टकृत्। यशो न दधदिन्द्रियम्। ऊर्जमपचितिं स्वधाम्। वसुवने वसुधेयस्य वियन्तु यज। - तै.ब्रा.२.६.१४.६ २०७कौकिल सौत्रामण्यां अनुयाजानां मैत्रावरुण प्रैषाः देवी ऊर्जाहुती देवमिन्द्रं वयोधसम्। देवी देवमवर्धताम्। पङ्क्त्या छन्दसेन्द्रियम्। शुक्रमिन्द्रे वयो दधत्। वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज। - तै.ब्रा.२.६.२०.३ २०८वैश्यसवाभिधानम् :-दध्ना ऽभिषिञ्चति। ऊर्ग्वा अन्नाद्यं दधि। ऊर्जैवैनमन्नाद्येन समर्धयति। - तै.ब्रा.२.७.२.२ २०९राजाभिषेकाङ्गवपनाभिधानम् :- येनावपत्सविता क्षुरेण। सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्योर्जेमम्। रय्या वर्चसा संसृजाथ। - तै.ब्रा.२.७.१७.२ २१०दर्शपूर्णमासेष्टिविधिः :- इषे त्वोर्जे त्वेत्याह। इषमेवोर्जं यजमाने दधाति। वायवः स्थेत्याह। वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः।- - - - - तै.ब्रा.३.२.१.३ २११ऊर्जस्वतीः पयस्वतीरित्याह। ऊर्जं हि पयः संभरन्ति। - तै.ब्रा.३.२.१.५ २१२दर्शपूर्णमासेष्टिविधिः :- इषमावदोर्जमावदेत्याह। इषमेवोर्जं यजमाने दधाति। - तै.ब्रा.३.२.५.८ २१३दर्शपूर्णमासेष्टि विधिः। स्रुकसम्मार्जनसम्बन्धि विधिः :- तदु वा आहु। अग्रत एवोपरिष्टात्संमृज्यात् । मूलतोऽधस्तात्। तदनुपूर्वं कल्पते। वर्षुको भवतीति। प्राचीमभ्याकारम्। अग्रैरन्तरतः। एवमिव ह्यन्नमद्यते। अथो अग्राद्वा ओषधीनामूर्जं प्रजा उपजीवन्ति। ऊर्ज एवान्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। अधस्तात्प्रतीचीम्। - तै.ब्रा.३.३.१.३ २१४चतुर्ध्रुवायाम् (आज्यं गृह्णाति)। तस्माच्चतुस्तना। गामेव तत्संस्करोति। साऽस्मै संस्कृतेषमूर्जं दुहे। - तै.ब्रा.३.३.५.५ २१५दर्शपूर्णमासेष्टिविधिः। स्रुक्सादन सम्बन्धि विधिः :-। ऊर्ग्भव बर्हिषद्भ्य इति दक्षिणायै श्रोणेरोत्तरस्यै निनयति संतत्यै। मासा वै पितरो बर्हिषदः। मासानेव प्रीणाति। - - - ऊर्जा पृथिवीं गच्छतेत्याह। पृथिव्यामेवोर्जं दधाति। तस्मात्पृथिव्या ऊर्जा भुञ्जते। - तै.ब्रा.३.३.६.४ २१६इष्टिहौत्रस्य मन्त्राणामभिधानम्। सूक्तवाकः :- वृष्टिद्यावारीत्यापा। शंभुवौ मयोभुवौ। ऊर्जस्वती च पयस्वती च। - तै.ब्रा.३.५.१०.२ २१७पाशुक होत्रे प्रयाज विषयं मैत्रावरुण प्रैषाः :- होता यक्षद्दैव्या होतारा मन्द्रा पोतारा कवी प्रचेतसा। स्विष्टमद्यान्यः करदिषा स्वभिगूर्तमन्य ऊर्जा सतवसेमं यज्ञं दिवि देवेषु धत्तां वीतामाज्यस्य होतर्यज। - तै.ब्रा.३.६.२.२ २१८पाशुकहौत्र विधिः। अनूयाजानां मैत्रावरुणप्रैषाभिधानम् :-देवी ऊर्जाहुती इषमूर्जमन्याऽऽवक्षत्सग्धिं सपीतिमन्या नवेन पूर्वं दयमाना स्याम पुराणेन नवं तामूर्जमूर्जाहुती ऊर्जयमाने अधातां वसुवने वसुधेयस्य वीतां यज। - तै.ब्रा.३.६.१३.१ २१९पाशुकहौत्र विधिः। अनूयाज विषया होतुर्याज्या :- देवी ऊर्जाहुती। वसुवने वसुधेयस्य वीताम्। - तै.ब्रा.३.६.१४.१ २२०अच्छिद्रकाण्डाभिधानम्। ऐष्टिक याजमान मन्त्राभिधानम्। आहवनीयेऽन्वाधीयमाने जप्यं मन्त्रत्रयम् :- इमामूर्जं पञ्चदशी ये प्रविष्टाः। तान्देवान्परिगृह्णामि पूर्वः। अग्निर्हव्यवाडिह तानावहतु। पौर्णमासं हविरिदमेषां मयि। आमावास्यं हविरिदमेषां मयि। - तै.ब्रा.३.७.४.३ २२१वत्सापाकरणहेतोः पलाशशाखाया आहरणमन्त्रम् :-इमां प्राचीमुदीचीम्। इषमूर्जमभि संस्कृताम्। बहुपर्णामशुष्काग्राम्। हरामि पशुपामहम्। - तै.ब्रा.३.७.४.८ २२२दोग्धुरुपसादने मन्त्रम् :- अयक्ष्मा वः प्रजया संसृजामि। रायस्पोषेण बहुला भवन्ती। ऊर्जं पयःपिन्वमाना घृतं च। जीवो जीवन्तीरुप वः सदेयम्। - तै.ब्रा.३.७.४.१५ २२३दर्शपूर्णमासाङ्गभूत नारिष्ठहोमार्था मन्त्राः :- यं वां देवा अकल्पयन्। ऊर्जो भागँ शतक्रतू। एतद्वां तेन प्रीणानि। तेन तृप्यतमंहहौ। - तै.ब्रा.३.७.५.११ २२४बर्हिषाऽऽस्तीर्यमाणाया वेदेरनुमन्त्रणे मन्त्रम् :-- - - स्योना च मे सुषदा चैधि। ऊर्जस्वती च मे पयस्वती चैधि। इषमूर्जं मे पिन्वस्व। ब्रह्मतेजो मे पिन्वस्व। - - -तै.ब्रा.३.७.६.६ २२५दर्शपूर्णमासेष्टि मन्त्राः। पक्वे पयसि सादिते सत्यभिमर्शने मन्त्रम् :-इदमिन्द्रियममृतं वीर्यम्। अनेनेन्द्राय पशवोऽचिकित्सन्। तेन देवा अवतोप माम्। इहेषमूर्जं यशः सह ओजः सनेयम्। शृतं मयि श्रयताम्। - तै.ब्रा.३.७.६.१२ २२६सोमाङ्गभूतदीक्षाया अङ्गभूता मन्त्राः :- - - -त्विषिश्चापचितिश्च। आपश्चौषधयश्च। उर्क्च सूनृता च। तास्त्वा दीक्षमाणमनु दीक्षन्ताम्। - तै.ब्रा.३.७.७.८ २२७सोमक्रयणीपदविषये मन्त्रम् :-एकमिषे विष्णुस्त्वाऽन्वेतु। द्वे ऊर्जे विष्णुस्त्वाऽन्वेतु। त्रीणि व्रताय विष्णुस्त्वाऽन्वेतु। चत्वारि मायो भवाय विष्णुस्त्वाऽन्वेतु - - - - - तै.ब्रा.३.७.७.११ २२८सुब्रह्मण्यमन्वारभ्य यजमानो जपति :-- - - परोरजास्ते पञ्चमः पादः। सा न इषमूर्जं धुक्ष्व। तेज इन्द्रियम्। ब्रह्मवर्चसमन्नाद्यम्। - तै.ब्रा.३.७.७.१३ २२९अच्छिद्रकाण्डाभिधानम्। सौमिकवेदेः प्राच्यामुदीच्यां वोदवसायेष्टेर्देवयजनाध्यवसाने मन्त्रम् :-इदमूनुः श्रेयोवसानमागन्म। शिवे नो द्यावापृथिवी उभे इमे। गोमद्धनवदश्ववदूर्जस्वत्। सुवीरा वीरैरनु संचरेम। - तै.ब्रा.३.७.९.९ २३०अश्वमेधे प्रथममहः :- द्वादशारत्नी रशना भवति। द्वादश मासाः संवत्सरः। - - - मौञ्जी भवति। ऊर्ग्वै मुञ्जाः। ऊर्जमेवावरुन्धे। - तै.ब्रा.३.८.१.१ २३१अश्वमेधस्य प्रशंसा :- एष वा ऊर्जस्वान्नाम यज्ञः। सर्वं ह वै तत्रोर्जस्वद्भवति। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। - तै.ब्रा.३.९.१९.१ २३२होतुरनुशंसनम् :- शं प्रजाभ्यो यजमानाय लोकम्। ऊर्जं पुष्टिं दददभ्यावभृत्स्व। - तै.ब्रा.३.१०.५.१ २३३नाचिकेताग्निचयने अन्नहोमार्थो मन्त्रः :- अन्नपतेऽन्नस्य नो देहि। अनमीवस्य शुष्मिणः। प्र प्रदातारं तारिषः। ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे। - तै.ब्रा.३.११.४.१ २३४वैश्वसृजचयनाभिधानम्। दक्षिणाकाले ब्रह्मणा पठनीया मन्त्राः :- ऊर्क (आसन्दी) राजानमुदवहत्। ध्रुवगोपः सहोऽभवत्। ओजोऽभ्यष्टौद्ग्राव्णः। यद्विश्वसृज आसत। - तै.ब्रा.३.१२.९.५ २३५आरोगो भ्राजः पटरः पतङ्गः। स्वर्णरो ज्योतिषीमान्विभासः। ते अस्मै सर्वे दिवमातपन्ति। ऊर्जं दुहाना अनपस्फुरन्त ॥ - तैत्तिरीय आरण्यक १.७.१ २३६सप्त सूर्या दिवमनुप्रविष्टाः। तानन्वेति पथिभिर्दक्षिणावान्। ते अस्मै सर्वे घृतमातपन्ति। ऊर्जं दुहाना अनपस्फुरन्त। - तै.आ.१.७.४ २३७अग्न आयूंषि पवस आसुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम्। - तै.आ.२.५.१ २३८- - - आपश्चौषधयश्च। ऊर्क् च सूनृता च देवानां पत्नयः। - तै.आ.३.९.२ *(महावीरं प्रभूतेनाजपयसाऽऽच्छृणत्ति) - - - छृणत्तु त्वा वाक्। छृणत्तु त्वोर्क्। छृणत्तु त्वा हविः। छृन्धि वाचम्। छृन्ध्यूर्जम्। छृन्धि हविः। - तै.आ.४.३.३ २३९(हे महावीर,) दश पुरस्ताद्रोचसे। दश दक्षिणा। दश प्रत्यङ्। दशोदङ्। दशोर्ध्वो भासि सुमनस्यमानः। स नः सम्राडिषमूर्जं धेहि। वाजी वाजिने पवस्व। रोचितो घर्मो रुचीय। रोचय धेहि नव च। - तै.आ.४.६.२ २४०सहोर्जो भागेनोप मेहि (इति पय आह्रियमाणं प्रतीक्षते) - तै.आ.४.८.४ २४१अग्निहोत्रहोमम् : (उपर्याहवनीये धार्यमाणं महावीरं प्रतिप्रस्थाता शृतदध्ना पूरयति) :- इषे पीपिहि। ऊर्जे पीपिहि। ब्रह्मणे पीपिहि। क्षत्त्राय पीपिहि। - - -तै.आ.४.१०.१ २४२ये ते अग्न इन्दवो या उ नाभयः। यास्ते अग्ने तनुव ऊर्जो नाम। ताभिस्त्वमुभयीभिः संविदानः। प्रजाभिरग्ने द्रविणेह सीद। - तै.आ.४.१८.१ २४३(यदि घर्ममतिपरीयुर्न वा प्रतिपरीयुः) पुनरूर्जा सह रय्या (इत्येताभ्यामेनं प्रतिपरीयुः)। - तै.आ.४.२०.२ २४४आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे। - तै.आ.४.४२.४ २४५- - - यत्खादिर्यभ्रिर्भवति। छन्दसामेव रसेन यज्ञस्य शिरः संभरति। यदौदुम्बरी। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। ऊर्जैव यज्ञस्य शिरः संभरति। यद्वैणवी। तेजो वै वेणुः। तैजसैव यज्ञस्य शिरः संभरति। - तै.आ.५.२.४ २४६ऊर्जं वा एतं रसं पृथिव्या उपदीका उद्दिहन्ति। यद्वल्मीकम्। यद्वल्मीकवपासंभारो भवति। ऊर्जमेव रसं पृथिव्या अवरुन्धे। अथो श्रोत्रमेव। श्रोत्रं ह्येतत्पृथिव्याः। यद्वल्मीकः। अबधिरो भवति। य एवं वेद। - तै.आ.५.२.९ २४७छृन्धि वाचमित्याह। वाचमेवावरुन्धे। छृन्ध्यूर्जमित्याह। ऊर्जमेवावरुन्धे। छृन्धि हविरित्याह। हविरेवाकः। - तै.आ.५.३.९ २४८शिरो वा एतद्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। ऊर्ङ् मुञ्जाः। यन्मौञ्जो वेदो भवति। ऊर्जैव यज्ञस्य शिरः समर्धयति। - तै.आ.५.४.४ २४९सहोर्जो भागेनोपमेहीत्याह। ऊर्ज एवैनं भागमकः। - तै.आ.५.७.५ २५०इषे पीपिह्यूर्जे पीपिहीत्याह। इषमेवोर्जं यजमाने दधाति। - तै.आ.५.८.६ २५१शफोपयमान्धवित्राणि धृष्टी (प्रवर्ग्य सम्बन्धि पात्राणि) इत्यन्ववहरन्ति। - - - - - औदुम्बराणि भवन्ति। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। ऊर्जमेवावरुन्धे। - तै.आ.५.९.३ २५२घर्मैतत्तेऽन्नमेतत्पुरीषमिति दध्ना मधुमिश्रेण पूरयति। ऊर्ग्वा अन्नाद्यं दधि। ऊर्जैवैनमन्नाद्येन समर्धयति। - तै.आ.५.९.७ २५३औदुम्बर्यां शाखायामुद्वासयेत्। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। अन्नं प्राणः। शुग्घर्मः। - तै.आ.५.१०.५ २५४आयातु देवः सुमनाभिरूतिभिर्यमो ह वेह प्रयताभिरक्ता। आसीदताँ सुप्रयते ह बर्हिष्यूर्जाय जात्यै मम शत्रुहत्यै। - तै.आ.६.५.१ २५५एणीर्धाना हरिणीरर्जुनीः सन्तु धेनवः। तिलवत्सा ऊर्जमस्मै दुहाना विश्वाहा सन्त्वनपस्फुरन्तीः (इति तिलमिश्राभिर्धानाभिस्त्रिरपसव्यं परिकिरति) - तै.आ.६.७.१ २५६रयिष्ठामग्निं मधुमन्तमूर्मिणमूर्जः सन्तं / ऊर्जस्वन्तं त्वा पयसोपसंसदेम। सं रय्या समु वर्चसा सचस्वा नः स्वस्तये।(इत्यन्ताभिस्तिसृभिः प्रसव्यं राजगवीमग्नीन्प्रेतं दारुचितिं च परिणीय उत्सृजन्ति) - तै.आ.६.१२.१ २५७अग्निहोत्रम् :- स (आदित्यो) वा एषो ऽस्तं यन् ब्राह्मणम् एव श्रद्धया प्रविशति पयसा पशूंस् तेजसाग्निम् ऊर्जौषधी रसेनापस् स्वधया वनस्पतीन्। - - - -अथ यत् तृणेनावद्योतयति ययोर्जौषधी प्रविष्टो भवति ताम् एवास्मिंस् तत् संभरति। - जैमिनीय ब्राह्मणम् १.७ २५८एष वै यमो य एषो ऽन्तश् चन्द्रमसि। एष हीदं सर्वं यमिति। एष मृत्युर् यद्यमोऽत्स्यन्न् एव नाम। तम् एव ताभिर् आहुतिभिश् शमयित्वोर्जं लोकानां जयति यमं देवं देवानाम्। - जै.ब्रा.१.२८ २५९प्रजापतिः प्रजाभ्य ऊर्जं व्यभजत्। तद् उदुम्बरस् समभवत्। (सदोमध्य में औदुम्बरी रोपण के कारण का वर्णन) - जै.ब्रा.१.७० २६०साम देवानाम् अन्नम् ऊर्ग~ उदुम्बरः। यद् उद्गातौदुम्बरीं श्रयते सामन्न् एवैतद् देवानाम् अन्नम् ऊर्जं दधाति। - जै.ब्रा.१.७१ २६१प्रजापतिर् उद्गातोर्ग~ उदुम्बरः। स एष ऊर्जि श्रितः प्रजापतिः प्रजाभ्य ऊर्जम् अन्नाद्यं विभजति। उदङ्ङ् आसीन उद्गायति। उदीचीम् एव तद् दिशम् ऊर्जा भाजयति। प्रत्यङ्ङ् आसीनः प्रस्तौति। प्रतीचीम् एव तद् दिशम् ऊर्जा भाजयति। दक्षिणासीनः प्रतिहरति। दक्षिणाम् एव तद् दिशम् ऊर्जा भाजयति। प्राञ्चो ऽन्य ऋत्विज आर्त्विज्यं कुर्वन्ति। प्राचीम् एव तद् दिशम् ऊर्जा भाजयन्ति। - जै.ब्रा.१.७२ २६२तं (द्रोणकलशं) दृंहति देवी त्वा धिषणे निपातां ध्रुवे सदसि सीदेष ऊर्जे सीद इति। - - - इष ऊर्जे सीद इति - वर्षं वा इषे यद् उपरिष्टाद् वर्षस्यैधते तद् ऊर्जे - तद् एवैतेनावरुन्द्धे। - जै.ब्रा.१.८० २६३यद्यजुः प्रथमम् अभिव्याहरति - ब्रह्म वै यजुः - - - -भूर् भुवस् स्वः। मधु करिष्यामि। मधु जनयिष्यामि। मधु भविष्यति। भद्रं भद्रम्। इषम् ऊर्जम् इति। - - - - - -इषम् ऊर्जम् इति - वर्षं वा इषे यद् उपरिष्टाद् वर्षस्यैधते तद् ऊर्जे - तद् एवैतेनावरुन्द्धे। - जै.ब्रा.१.८८ २६४एताम् एव प्रतिपदं कुर्वीतान्नाद्यकामः। आ सुवोर्जम् इषं च नः इति ह्य् अस्या इषं चैवैतेनोर्जं चावरुन्द्धे। - जै.ब्रा.१.९३ २६५प्रायां मायित्रान् नू शांसीषाम् ऊर्जो नपातं स ह्य् आयुमा इति - - - -जै.ब्रा.१.१७७ २६६सौभरं प्रजाकामः कुर्वीत। हुस् इति निधनम् उपेयात्। सौभरम् अन्नाद्यकामः कुर्वीत। ऊर्क् इति निधनम् उपेयात्। - - - सौभरं स्वर्गकामः कुर्वीत। ऊ इति निधनम् उपेयात्। - जै.ब्रा.१.१८६ २६७स (प्रजापतिः) ऐक्षत कथं नु म इमाः प्रजास् सृष्टा न पराभवेयुर् इति। स एतत् सामापश्यत्। तेनैना ऊर्क् इत्य् एवाभ्यमृशत्। ता अस्योर्जा समक्ता अवर्धन्त। - - - -तद् एव सौभरस्य सौभरत्वम्। - जै.ब्रा.१.१८७ २६८अथ होर्जो जानायनः कपिवनं भौवायनं पप्रच्छ यद्गायत्रं प्रातस्सवनं त्रैष्टुभं माध्यंदिनं सवनं जागतं तृतीयसवनम् अथ केयम् अनुष्टुब् अयातयाम्नी सवनमुखान्य् उपापतत्य् आन्ताद् यज्ञं वहतीति। - जै.ब्रा.१.२८४ २६९एकैकम् उ ह वा एतेषाम् अक्षराणां यावतीयं पृथिवी तावत्। ऊर्जो ऽन्नाद्यस्य मधुनो ऽमृतस्य कामस्य - कामस्य पूर्णं पिब्दमानं तिष्ठति। - - - - तस्माद् उ हैवंविदे ब्राह्मणाय दित्सन्त्य् अस्योर्जो ऽन्नाद्यस्य मधुनो ऽमृतस्य कामस्य - कामस्य लिप्सामहा इति। - जै.ब्रा.२.७५ २७०अथैष ऋतपेयः। देवेभ्यो वा ऊर्ग~ अन्नाद्यम् उदक्रामत्। सोमाहुतिर् ह वा एभ्यस् सोच्चक्राम। सो एव विराट्। - - - -त एत विराजं यज्ञम् अपश्यन्। - जै.ब्रा.२.१५८ २७१प्रजापतिर् यत् प्रजाभ्य ऊर्जम् अन्नाद्यं व्यभजत् , ततो यः संशेषः समशिष्यत, स एष वनस्पतिर् अभवत्। ऊर्ग~ वा उदुम्बरो ऽन्नम्। - जै.ब्रा.२.१८३ २७२अथास्या एतत् पृश्नि शबलं पदं यद्रात्रिः। - - - -ऊर्जस्वती पयस्वती शबल्य~ एह्य् अराभुर् अस्मि - - - - जै.ब्रा.२.२५९ २७३उद्गाता पञ्चविंशेनात्मना राजनेन स्तोष्यन्न् औदुम्बरीम् अधिरोहत्य् - ऊर्ग~ वा अन्नम् उदुम्बर - ऊर्ज एवान्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। - जै.ब्रा.२.४०६ २७४यज्ञम् एवैतद् आप्त्वा विसृजन्त - उपसृजन् धरुणं मात्रे मातरं धरुणो धयन् रायस् पोषम् इषम् ऊर्जम् अस्मासु दीधरत् स्वाहेति। स यथा न्योकसं गां संयुज्य प्रार्जयेद् एवम् एवैतद् वाचं च यजमानं च संयुज्य प्रार्जयन्ति। - - - - - - जै.ब्रा.३.३०७ २७५इषे त्वोर्जे त्वा वायवः स्थोपायवः स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आ प्यायध्वमघ्निया देवभागमूर्जस्वतीः पयस्वतीः प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा - - - - - (इति दर्शयागे वत्सापाकरणार्थमन्त्रेण पलाशशाखां छिन्द्यात्) - तैत्तिरीय संहिता १.१.१.१ २७६व्रीह्यवघातार्था मन्त्राः :- इषमा वदोर्जमा वदद्युमद्वदत वयं संघातं जेष्म -- - - - (इति दृषदुपले वृषारवेणोच्चैः समाहन्ति) - तै.सं.१.१.५.२ २७७इध्मसंनहनार्था बर्हिरास्तरणाद्यर्थाश्च मन्त्राः :- स्वधा पितृpभ्य ऊर्ग्भव बर्हिषद्भ्य ऊर्जा पृथिवीं यच्छत - - (इति अतिशिष्टाः प्रोक्षणीर्निनयति दक्षिणायै श्रोणेरोत्तरस्यै श्रोणेः) - तै.सं.१.१.११.१ २७८प्राचीनवंशप्रविष्टयजमानस्य दीक्षाङ्गभूता मन्त्राः :- ऊर्गस्याङ्गिरस्यूर्णम्रदा ऊर्जं मे यच्छ पाहि मा मा हिंसीः (इति प्रदक्षिणं मेखलां पर्यस्यति) - तै.सं.१.२.२.२ २७९सोमक्रयः। (अथैनं स हिरण्येन पणते) सोमं ते क्रीणाम्यूर्जस्वन्तं पयस्वन्तं वीर्यावन्तमभिमातिषाहं- - तै.सं.१.२.७.१ २८०काम्ययाज्यापुरोनुवाक्याः। प्रथमहविषः पुरोनुवाक्या :- अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम्। - तै.सं.१.३.१४.८ २८१पात्रेषु रसग्रहणाय पूर्वमुपावहूतस्य सोमस्याभिषवः :- धिषणे वीडू सती वीडयेथामूर्जं दधाथामूर्जं मे धत्तं मा वां हिंसिषं मा मा हिंसिष्टं - - - (इति तिरश्चर्मन्फलके अभिमृशति) - तै.सं.१.४.१.२ २८२ऋतुग्रहाभिधानम् - - -नभश्च नभस्यश्चेषश्चोर्जश्च सहश्च सहस्यश्च - - - तै.सं.१.४.१४.१ २८३अतिग्राह्यषोडशिग्रहाभिधानम् :- अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम्। - तै.सं.१.४.२९.१ २८४पुनरूर्जा नि वर्तस्व पुनरग्न इषाऽऽयुषा। पुनर्न: पाहि विश्वतः (इत्यभितः पुरोडाशमाहुती जुहोति पुरस्तात्प्रयाजानां) - तै.सं.१.५.३.३ २८५पुनरूर्जा सह रय्येत्यभितः पुरोडाशमाहुती जुहोति यजमानमेवोर्जा च रय्या चोभयतः परिगृह्णाति - तै.सं.१.५.४.४ २८६अग्न्युपस्थानम् :- अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम् (इति षड्भिःसंवत्सरे संवत्सरे सदा वा उपतिष्ठत) - तै.सं.१.५.५.२ २८७गार्हपत्याहवनीययोरुपस्थानम् :- ऊर्जः स्थोर्जं वो भक्षीय (इति गोष्ठमुपतिष्ठते) - तै.सं.१.५.६.१ २८८संहिताऽसि विश्वरूपीरा मोर्जा विशाऽऽगौपत्येनाऽऽरायस्पोषेण - - (इति वत्समभिमृशति) -तै.सं.१.५.६.२ २८९ऊर्जा वः पश्याम्यूर्जा मा पश्यत रायस्पोषेण वः पश्यामि रायस्पोषेण मा पश्यत (इति गृहान्प्रेक्षते पशून्वा) - तै.सं.१.५.६.३ २९०भक्ष्यस्येडादिभागस्यानुमन्त्रणम् :-प्रजापतेर्भागोऽस्यूर्जस्वान्पयस्वान्प्राणापानौ मे पाहि - - - (इति अन्वाहार्यं याचति तमन्तर्वेद्यासन्नमभिमन्त्रयते) - तै.सं.१.६.३.३ २९१सूर्योपस्थानादिमन्त्राभिधानम् :- अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम् (इति ऽऽग्निपावमानीभ्यां गार्हपत्यमुपतिष्ठते) - तै.सं.१.६.६.२ २९२अन्वाहार्याभिधानम् :- ऊर्जस्वान्पयस्वानित्याहोर्जमेवास्मिन्पयो दधाति - तै.सं.१.७.३.३ २९३तेषां विशिप्रियाणामिषमूर्जं समग्रभीमेष ते योनिरिन्द्राय त्वा (इति आग्रयणं गृहीत्वा पञ्चैन्द्रानतिग्राह्यान्गृह्णाति) - तै.सं.१.७.१२.२ २९४राजसूयविषयस्य चातुर्मास्यसंबन्धिवरुणप्रघासाख्यद्वितीयपर्वणोऽभिधानम्" :- पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरा पत। वस्नेव वि क्रीणावहा इषमूर्जं शतक्रतो (इति शरनिष्कासस्य दवीं‰ पूरयित्वा वृषभमाहूय तस्य रवते) - तै.सं.१.८.४.१ २९५राजसूयविषयाणामभिषेकार्थजलविषयमन्त्राणामभिधानम्" :- आपोदेवीर्मधुमती रगृह्णन्नूर्जस्वती राजसूयाय चिताना। - तै.सं.१.८.११.१ २९६राजसूयविषयाणामभिषेकार्थजलसंस्कारमन्त्राणामभिधानम् :- अनाधृष्टाः सीदतोvर्जस्वतीर्महि वर्चः क्षत्त्रियाय - - - - (इति अन्तरा होतुर्धिष्ण्यं ब्राह्मणाच्छंसिनश्च सादयित्वा)। - तै.सं.१.८.१२.१ २९७सधमादो द्युम्निनीरूर्ज एता अनिभृष्टा अपस्युवो वसान (इति चतुर्षूदपात्रेषु व्यानयति पालाश औदुम्बर आश्वत्थे नैयग्रोधे च) - तै.सं.१.८.१२.१ २९८राजसूयविषयस्य रथेन विजयस्याभिधानम् :- इयदस्यायुरस्यायुर्मे धेह्यूर्गस्यूर्जं मे धेहि युङ्ङसि वर्चोऽसि वर्चो मयि धेहि - - - (इति अवरुह्य मणीन्प्रतिमुञ्चत इयदसीति राजतमूर्गसीत्यौदुम्बरं युङ्ङसीति सौवर्णम् - तै.सं.१.८.१५.२ २९९राजसूयविषयस्य विजयादूर्ध्वमासनोपविष्टस्य सर्वैः सेव्यत्वस्य वर्णनम् :-अपां नप्त्रे स्वाहोर्जो नप्त्रे स्वाहाऽग्नयेगृहपतये स्वाहा (अवभृथेन प्रचर्यापां नप्त्रे स्वाहेत्यप्सु जुहोत्यूर्जो नप्त्रे स्वाहेत्यन्तरा दर्भस्तम्बे स्थाणौ वल्मीकवपायां वा हुत्वा) - - तै.सं.१.८.१६.२ ३००ऐश्वर्यादिकामिनां तत्तत्पशुविधानम् :- द्वौ वा अजायै स्तनौ नानैव द्वावभि जायेते ऊर्जं पुष्टिं तृतीयः सोमापूषणावेव स्वेन भागधेयेनोप धावति - - - - -सोम एवास्मै रेतो दधाति पूषा पशून्प्र जनयत्यौदुम्बरो यूपो भवत्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्क्पशव ऊर्जैवास्मा ऊर्जं पशूनवरुन्धे। - तै.सं.२.१.१.६ ३०१आग्नावैष्णवादियागविधिः :-दारुपात्रेण जुहोति न हि मृन्मयमाहुतिमानश औदुम्बरम् भवत्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्क्पशव ऊर्जैवास्मा ऊर्ज पशूनव रुन्धे - तै.सं.२.५.४.३ ३०२संवर्गेष्टिहोत्रमन्त्राभिधानम् :- वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जो नप्त्रे सहस्वते। - तै.सं.२.६.११.४ ३०३कासांचित्पुरोनुवाक्यानामभिधानम्। याज्या :- घृतेन द्यावापृथिवी मधुना समुक्षत पयस्वतीः कृणुताऽऽप ओषधीः। ऊर्जं च तत्र सुमतिं च पिन्वथ यत्रा नरो मरुतः सिञ्चथा मधु। - तै.सं.३.१.११.८ ३०४पृषदाज्याभिधानम् :- यावच्च सप्त सिन्धवो वितस्थुः। तावन्तमिन्द्र ते ग्रहं सहोर्जा गृह्णाम्यस्तृतम् (इति आग्नीध्रे प्रतिप्रस्थाता दधिघर्मं गृहृणात्यौदुम्बर्यांस्रुच्युपस्तीर्य) - तै.सं.३.२.६.१ ३०५स्तुतशस्त्राभिधानम् :-- - - देवस्य सवितुः प्रसवे स्तुतस्य स्तुतमस्यूर्जं मह्यं स्तुतं दूहामा मा स्तुतस्य स्तुतं गम्याच्छस्त्रस्य शस्त्रम् अस्यूर्जं मह्यं शस्त्रं दुहामा मा शस्त्रस्य शस्त्रं गम्यात् - - - - - - - स्तुतस्य स्तुतमस्यूर्जं मह्यं स्तुतं दुहामा मा स्तुतस्य स्तुतं गम्याच्छस्त्रस्य शस्त्रमस्यूर्जं मह्यं शं दुहामा मा शस्त्रस्य शस्त्रं गम्यादित्याहैष वै स्तुतशस्त्रयोर्दोहस्तं य एवं विद्वान्यजते दुह एव यज्ञमिष्ट्वा वसीयान्भवति। - तै.सं.३.२.७.१-३ ३०६तृतीयसवनमाध्यंदिनसवनगतहोमविशेषमन्त्राभिधानम् :-आशीर्म ऊर्जमृत सुप्रजास्त्वमिषं दधातु द्रविणं सुवर्चसम् (इति पूतभृतो बिल उदीचीनदशं पवित्रं वितत्य तस्मिन्यजमानःपुरस्तात्प्रत्यङ्तिष्ठन्सह पत्न्याऽऽशिरमवनयति) - तै.सं.३.२.८.५ ३०७अवभृथाङ्गहोमाद्यभिधानम् :- स त्वं नः नभसस्पत ऊर्जं नो धेहि भद्रया। पुनर्नो नष्टमा कृधि पुनर्नो रयिमा कृधि (इत्येतर्यथाब्राह्मणमुपस्थाय) - तै.सं.३.३.८.३ ३०८राष्ट्रभृन्मन्त्राभिधानम् :- ऋताषाडृतधामाऽग्निर्गन्धर्वस्तस्योषधयोऽप्सरस ऊर्जो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्त्रं पातु (इति षड्भिः पर्यायैर्द्वादश राष्ट्रभृतो जुहोति) - तै.सं.३.४.७.१ ३०९दधिग्रहमन्त्रव्याख्यानम् :- दधिग्रहं गृह्णीयात्पशुकामस्योर्ग्वै दध्यूर्क्पशव ऊर्जैवास्मा ऊर्ज पशूनव रुन्धे। - तै.सं.३.५.९.३ ३१०उखानिर्माणाभिधानम् :- आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन महे रणाय चक्षसे (इति तिसृभिरप उपसृज्य) - तै.सं.४.१.५.१ ३११आसन्द्याम् उखाग्निस्थापन प्रतिपादनम् :- पुनरूर्जा नि वर्तस्व पुनरग्न इषाऽऽयुषा। पुनर्नः पाहि विश्वतः (इति चतसृभिः प्रदक्षिणमावर्तते)- तै.सं.४.२.१.३ ३१२चयनार्थ देवयजनपरिग्रहाभिधानम् :- (व्रतकालेऽन्नपतेऽन्नस्य नो देहीत्यौदुम्बरीं समिधं व्रतेऽक्त्वाभ्यादधाति) पुनरूर्जा नि वर्तस्व पुनरग्न इषाऽऽयुषा पुनर्नः पाहि विश्वतः (इति पुनरुदैति)- तै.सं.४.२.३.४ *आहवनीयचयनार्थं भूकर्षणाभिधानम् :-समितं संकल्पेथां संप्रियौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौ। इषमूर्जमभि संवसानौ - - - -(इति आहवनीये चतसृभिरुख्यं संनिवपति) - तै.सं.४.२.५.१ ३१२घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वेदैवैरनुमता मरुद्भिः। ऊर्जस्वती पयसा पिन्वमानाऽस्मान्सीते पयसाऽभ्याववृत्स्व (इति सीतान्तरालान्यभिमृशति) - तै.सं.४.२.५.३ ३१३आहवनीयचयनार्थौषधिवापाभिधानम् :- अश्वावतीं सोमवतीमूर्जयन्तीमुदोजसम्। आ वित्सि सर्वा ओषधीरस्मा अरिष्टतातये (इति चतुर्दशभिरोषधीर्वपति) - तै.सं.४.२.६.४ ३१४आहवनीयचयनार्थलोष्टक्षेपाद्यभिधानम् :- इषमूर्जमहमित आ दद ऋतस्य धाम्नो अमृतस्य योनेः (इति चतसृभिर्दिग्भ्यो लोष्टान्त्समस्यति येऽन्तर्विधाद्बहिर्विधमापन्ना भवन्ति) - तै.सं.४.२.७.१ ३१५आहवनीयचयनार्थलोष्टक्षेपाद्यभिधानम् :-ऊर्जो नपाज्जातवेदः सुशस्तिभिर्मन्दस्व धीतिभिर्हितः (इति षड्भिःसिकता न्युप्य) - तै.सं.४.२.७.२ ३१६व्युष्टिनामकेष्टकाभिधानम् :- ऋतस्य पन्थामनु तिस्र आऽगुस्त्रयो घर्मासो अनु ज्योतिषाऽगुः। प्रजामेका रक्षत्यूर्जमेका व्रतमेका रक्षति देवयूनाम् (इति षोडश व्युष्टिः) - तै.सं.४.३.११.१ ३१७छन्दोभिधेष्टकाभिधानम् :-वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जो नप्त्रे सहस्वते (इति त्रीणि अनुष्टुभ उत्तरतो)- तै.सं.४.४.४.४ ३१८ऋतव्याख्येष्टकाभिधानम् :-- - -नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू इषश्चोर्जश्च शारदावृतू - तै.सं.४.४.११.१ ३१९ऋतस्थाः स्थर्तावृधो घृतश्चुतो मधुश्चुत ऊर्जस्वतीः स्वधाविनीस्ता मे अग्न इष्टका धेनवः सन्तु विराजो नाम कामदुघा अमुत्रामुष्मिfल्लोके (इतीष्टका धेनूर्यजमानः कुरुते) - तै.सं.४.४.११.४ ३२०परिषेचनविकर्षणाद्यभिधानम् :-अश्मन्नूर्जं पर्वते शिश्रियाणां वाते पर्जन्ये वरुणस्य शुष्मे।अद्भ्य ओषधीभ्यो वनस्पतिभ्योऽधि संभृतां तां न इषमूर्जं धत्त मरुतः संरराणा(इति उदकुम्भमादायाध्यवर्युः त्रिःप्रदक्षिणमग्निं परिषिञ्चन्पर्येति) - तै.सं.४.६.१.१ ३२१अग्निप्रणयनाभिधानम् :-ऊर्जा यद्यज्ञमशमन्त देवा दैव्याय धर्त्रे जोष्ट्रे (इति पञ्चभिर्हरत्याग्नीध्रात्) - तै.सं.४.६.३.२ ३२२अग्निस्थापनाभिधानम् :- प्राचीमनु प्रदिशं प्रेहि विद्वानग्नेरग्ने पुरो अग्निर्भवेह। विश्वा आशा दीद्यानो विभाह्यूर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे (इति पञ्चभिरग्निमधिरुह्य) - तै.सं.४.६.५.१ ३२३वसोधाराद्यभिधानम् :- ऊर्क् च मे सूनृता च मे पयश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे - - -तै.सं.४.७.४.१ ३२४अग्नियोगाभिधानम् :- दिवो मूर्धाऽसि पृथिव्या नाभिरूर्गपामोषधीनाम् (इति द्वाभ्यामग्निमभिमृशति) - तै.सं.४.७.१३.२ ३२५उख्यस्य जननम् :- मुञ्जानव दधात्यूर्ग्वै मुञ्जा ऊर्जमेवास्मा अपि दधाति - तै.सं.५.१.९.५ ३२६औदुम्बरीम् समिधम् आ दधात्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्जमेवास्मा अपि दधाति - तै.सं.५.१.१०.१ ३२७उख्याग्निनयनम् :- प्र प्रदातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पद इत्याहाऽऽशिषमेवैतामा शास्त - तै.सं.५.२.२.१ ३२८उख्याग्निनयनम् :- परा वा एष प्रजां पशून्वपति योऽप्सु भस्म प्रवेशयति पुनरूर्जा सह रय्येति पुनरुदैति - तै.सं.५.२.२.५ ३२९क्षेत्रकर्षणम् :- यं द्विष्याद्यत्र स स्यात्तस्यै दिशो लोष्टमा हरेदिषमूर्जमहमित आ दद इतीषमेवोर्जं तस्यै दिशोऽवरुन्धे - तै.सं.५.२.५.६ ३३०रुक्माद्युपधानम् :- दध्नः पूर्णामौदुम्बरीं पशवो वै दध्यूर्गुदुम्बरः पशुष्वेवोर्जं दधाति पूर्णे उप दधाति पूर्णे एवैनम् अमुष्मिfलोक उप तिष्ठेते - तै.सं.५.२.७.४ ३३१स्वयमातृण्णास्थापनम् :- औदुम्बरं (उलूखलं) भवत्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्जमेवाव रुन्धे मध्यत उप दधाति मध्यत एवास्मा ऊर्जं दधाति तस्मान्मध्यत ऊर्जा भुञ्जत - तै.सं.५.२.८.७ ३३२परिषेचनाद्यभिधानम् :- अश्मन्नूर्जमिति परि षिञ्चति मार्जयत्येवैनमथो तर्पयत्येव - - -तां न इषमूर्जं धत्त मरुतः संरराणा इत्याहान्न वा ऊर्गन्नं मरुतो ऽन्नमेवाव रुन्धे - तै.सं.५.४.४.१ ३३३समिदाधानादिविधिः :- औदुम्बरी (समिधः) भवन्त्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्जमेवास्मा अपि दधाति - तै.सं.५.४.६.१ ३३४चितौ वह्निक्षेपविधिः :- दध्नः- पूर्णामौदुम्बरीं स्वयमातृण्णायां जुहोत्यूर्ग्वै दध्यूर्गुदुम्बरोऽसौ स्वयमातृण्णाऽमुष्यामेवोर्जं दधाति तस्मादमुतोऽर्वाचीमूर्जमुप जीवामः - तै.सं.५.४.७.३ ३३५वाजप्रसवीयाभिधानम् :- औदुम्बरेण स्रुवेण जुहोत्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्गन्नमूर्जैवास्मा ऊर्जमन्नमव रुन्धे - तै.सं.५.४.९.२ ३३६सर्पाहुत्याद्यभिधानम् :- इमं स्तनमूर्जस्वन्तं धयापां प्रप्यातमग्ने सरिरस्य मध्ये (इति अनूबन्ध्यावपायां हुतायामौदुम्बरीं स्रुचं घृतस्य पूरयित्वा अग्नेर्विमोकं जुहोति) - तै.सं.५.५.१०.६ ३३७इमं स्तनमूर्जस्वन्तं धयापामित्याज्यस्य पूर्णां स्रुचं जुहोति - तै.सं.५.५.१०.७ ३३८कुम्भेष्टकामन्त्रणार्थमन्त्राभिधानम् :- आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे। - तै.सं.५.६.१.४ ३३९अश्वमेधाङ्गमन्त्राभिधानम् :- आदकां खादेनोर्जं संसूदेन - - - (इति हविषा प्रचर्याऽऽज्यमवदानं कृत्वा ऐतैश्चतुर्दशभिरनुवाकैः प्रतिमन्त्रं शरीरहोमाञ्जुहोति) - तै.सं.५.७.११.१ ३४०कृष्णाजिनादिभिर्दीक्षाकरणाभिधानम् :- अङ्गिरसः सुवर्गं लोकं यन्त ऊर्जं व्यभजन्त ततो यदत्यशिष्यत ते शरा अभवन्नूर्ग्वै शरा यच्छरमयी मेखला भवत्यूर्जमेवाव रुन्धे मध्यतः सं नह्यति मध्यत एवास्मा ऊर्जं दधाति तस्मान्मध्यत ऊर्जा भुञ्जत ऊर्ध्वं वै पुरुषस्य नाभ्यै मेध्यमवाचीनममेध्यं - - - तै.सं.६.१.३.४ ३४१दण्डादानादिकरणपूर्वकनियमानुष्ठानविधिः :- औदुम्बरो दण्डो भवत्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्जमेवाव रुन्धे मुखेन संमितो भवति मुखत एवास्मा ऊर्जं दधाति तस्मान्मुखत ऊर्जा भुञ्जते - तैसं६१४१ ३४२व्रत निरूपणम् :- मध्यरात्रे व्रतं भवति मध्यतो वा अन्नेन भुञ्जते मध्यत एव तदूर्जं धत्ते भ्रातृव्याभिभूत्यै - तै.सं.६.२.५.४ ३४३सदोभिधानम् :- परस्तादर्वाचीं प्रोक्षति तस्मात् परस्तादर्वाचीं मनुष्या ऊर्जमुप जीवन्ति - - - - अपोऽवनयति शान्त्यै यवमतीरव नयत्यूर्ग्वै यव ऊर्गुदुम्बर ऊर्जैवोर्जं समर्धयति यजमानेन संमितौदुम्बरी भवति यावानेव यजमानस्तावतीमेवास्मिन्नूर्जं दधाति - तै.सं.६.२.१०.३ ३४४सदोभिधानम् :- उदरं वै सद ऊर्गुदुम्बरो मध्यत औदुम्बरीं मिनोति मध्यत एव प्रजानामूर्जं दधाति तस्मात् मध्यत ऊर्जा भुञ्जते। - तै.सं.६.२.१०.६ ३४५उपरवाभिधानम् :- प्राणा यवमतीरव नयति ऊर्ग्वै यवः प्राणा उपरवाः प्राणेष्वेवोर्जं दधाति - तै.सं.६.२.११.२ ३४६यूपस्थापनाभिधानम् :- क्रूरमिव वा एतत्करोति यत्खनत्यपोऽव नयति शान्त्यै यवमतीरव नयत्यूर्ग्वै यवो यजमानेन यूपः संमितो यावानेव यजमानस्तावतीमेवास्मिन्नूर्जं दधाति - तै.सं.६.३.४.१ ३४७यूपस्थापनाभिधानम् :-यथायजुरेवैतत्परि व्ययत्यूर्ग्वै रशना यजमानेन यूपः संमितो यजमानमेवोर्जा समर्धयति नाभिदघ्ने परि व्ययति नाभिदघ्न एवास्मा ऊर्जं दधाति तस्मान्नाभिदघ्न ऊर्जा भुञ्जते यं कामयेतोर्जैनम् व्यर्धयेयमित्यूर्ध्वां वा तस्यवाचीं वाऽवोहेदूर्जैवैनं व्यर्धयति - तै.सं.६.३.४.५ ३४८अवदानाभिधानम् :- वपया प्रचर्य पुरोडाशेन न चरत्यूर्ग्वै पुरोडाश ऊर्जमेव पशूनां मध्यतो दधाति - तै.सं.६.३.१०.१ ३४९अनूयाजकथनम् :- दिशो जुहोति दिश एव रसेनानक्त्यथो दिग्भ्य एवोर्जं रसमव रुन्धे - तै.सं.६.३.११.३ ३५०आदित्यग्रहकथनम् :- पशवो वा एते यदादित्य ऊर्ग्दधि दध्ना मध्यतः श्रीणात्यूर्जमेव पशूनां मध्यतो दधाति - तै.सं.६.५.६.४ ३५१अंशुग्रहकथनम् :- औदुम्बरेण (अंशुं) गृह्णात्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्जमेवाव रुन्धे - तै.सं.६.६.१०.१ ३५२नवरात्रकथनम् :- - - - -- - -कल्पन्ते अस्मा इमे लोका ऊर्जं प्रजासु दधाति - - तै.सं.७.२.४.२ ३५३अश्वमेधगत अनुभू नामकाः मन्त्राः :- - -यवेनौषधीर्न्यग्रोधेन वनस्पतीनुदुम्बरेणोर्जं गायत्रिया छन्दाँसि - - - तै.सं.७.३.१४.१ ३५४प्रायणीयाख्यप्रथमाहाभिधानम् :-सुवर्गो वै लोको ज्योतिरूर्ग्विराट्त्सुवर्गमेव तेन लोकं यन्ति - तै.सं.७.४.१०.२ ३५५मासगताहकथनम् :- सुवर्गो वै लोको ज्योतिरूर्ग्विराडूर्जमेवाव रुन्धते ते न क्षुधाऽऽर्तिमार्छन्त्यक्षोधुका भवन्ति - तै.सं.७.४.११.२ ३५६अश्वमेधाङ्ग गव्याख्या मन्त्राः :- मयोभूर्वातो अभि वातूस्रा ऊर्जस्वतीरोषधीरा रिशन्ताम्। पीवस्वतीर्जीवधन्या पिबन्त्ववसाय पद्वते रुद्र मृड। - तै.सं.७.४.१७.१ ३५७अश्वमेधाङ्गमन्त्राः :-। आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे (इति तिसृभिर्मार्जयित्वा) - तै.सं.७.४.१९.४ ३५८संवत्सरसत्रस्य दशमाससाध्यप्रयोगेण सह विकल्पकथनम् :- (गवामयने)- - - याश्च शृङ्गाण्यसन्वन्याश्चोर्जमवारुन्धतर्ध्नोति - तै.सं.७.५.२.२ ३५९शततन्तुवीणादिकथनम् :- यां समाँ सत्रं समृद्धं क्षोधुकास्तां समां प्रजा इषं ह्यासामूर्जमाददते यां समां व्यृद्धमक्षोधुकास्तां समां प्रजाः न ह्यासामिषमूर्जमाददत उत्क्रोदं कुर्वते यथा बन्धान्मुमुचाना उत्क्रोदं कुर्वत एवमेव तद्यजमानादेवबन्धान्मुमुचाना उत्क्रोदं कुर्वत इषमूर्जमात्मन्दधाना वाणःशततन्तुर्भवति - तै.सं.७.५.९.१ ३६०स्वदस्व हव्या समिषो दिदीहीति पुरोळाशस्विष्टकृतो यजति। हविरेवास्मा एतत्स्वदयतीषमूर्जमात्मन्धत्ते। - ऐतरेय ब्राह्मण २.९ ३६१गवामयनम् :-- - - - तासामश्रद्धया शृङ्गाणि प्रावर्तन्त ता एतास्तूपरा ऊर्जं त्वसुन्वंस्तस्मादु ताः सर्वानृतून्प्राप्त्वोत्तरमुत्तिष्ठन्त्यूर्जं ह्यसुन्वन्सर्वस्य वै गावः प्रेमाणं सर्वस्य चारुतां गताः। - ऐ.ब्रा.४.१७ ३६२द्वादशाहः :- तं (प्रजापतिं) दीक्षयित्वाऽनपक्रमं गमयित्वाऽब्रुवन्देहि नु नोऽथ त्वा याजयिष्याम इति तेभ्य इषमूर्जं प्रायच्छत्सैषोर्गृतुषु च मासेषु च निहिता - ऐ.ब्रा.४.२५ ३६३सत्रमु चेत्संन्युप्याग्नीन्यजेरन्सर्वे दीक्षेरन्सर्वे सुनुयुर्वसन्तमभ्युदवस्यत्यूर्ग्वै वसन्त इषमेव तदूर्जमभ्युदवस्यति - ऐ.ब्रा.४.२६ ३६४उपसृजन्धरुणं मातरं धरुणो धयन्। रायस्पोषमिषमूर्जमस्मासु दीधरत्स्वाहेति। रायस्पोषमिषूर्जमवरुन्ध आत्मने च यजमानेभ्यश्च यत्रैवं विद्वानेतामाहुतिं जुहोति। - ऐ.ब्रा.५.२२ ३६५अथौदुम्बरीं समन्वारभन्ते। इषमूर्जमन्वारभ इति।ऊर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बरः। यद्वैतद्देवा इषमूर्जं व्यभजन्त तत उदुम्बरः समभवत्तस्मात्स त्रिः संवत्सरस्य पच्यते। तद्यदौदुम्बरीं समन्वारभन्त इषमेव तदूर्जमन्नाद्यं समन्वारभन्ते। - ऐ.ब्रा.५.२४ ३६६अथ यदौदुम्बराण्यूर्जो वा एषोऽन्नाद्याद्वनस्पतिरजायत यदुदुम्बरो भौज्यं वा एतद्वनस्पतीनामूर्जमेवास्मिंस्तदन्नाद्यं भौज्यं च वनस्पतीनां क्षत्त्रे दधाति - ऐ.ब्रा.५.३२ ३६७अभिषेकाङ्गं होमम् :-अथैतानि ह वै क्षत्त्रियादीजानाद्व्युत्क्रान्तानि भवन्ति ब्रह्मक्षत्त्रे ऊर्गन्नाद्यमपामोषधीनां रसो - - - - -- -। अथ यदौदुम्बर्यासन्दी भवत्यौदुम्बरश्चमस उदुम्बरशाखोर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बर ऊर्जमेवास्मिंस्तदन्नाद्यं दधाति। - ऐ.ब्रा.८.७-८ ३६८आसन्द्या अवरोहं :-अथोदुम्बरशाखामभि प्रत्यवरोहत्यूर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बर ऊर्जमेव तदन्नाद्यमभि प्रत्यवरोहति। उपर्येवाऽऽसीनो भूमौ पादौ प्रतिष्ठाप्य प्रत्यवरोहमाह।- - - - - - - - - ऐ.ब्रा.८.९ ३६९पुरोहित महिमा :-तस्मा (पुरोहितयुक्ताय राज्ञ) इळा पिन्वते विश्वदानीमित्यन्नं वा इळाऽन्नमेवास्मा एतदूर्जस्वच्छश्वद्भवति। - ऐ.ब्रा.८.२६ ३७०यजुषां वायुर्देवतं, तदेव ज्योतिः, त्रैष्टुभं छन्दः, अन्तरिक्षं स्थानम्। इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण इत्येवमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। - गोपथ ब्राह्मण १.१.२९ ३७१एते ह वा एतस्य प्रजायाः पशूनामीशते। ते (ब्राह्मणाः) ऽस्याप्रीता इषमूर्जमादायापक्रामन्ति। यदन्वाहार्यमन्वाहरति, तानेव तेन प्रीणाति। - - - -आहुतिभिरेव देवान् हुतादः प्रीणाति दक्षिणाभिर्मनुष्यदेवान्। ते ऽस्मै प्रीता इषमूर्जं नियच्छन्ति। - गो.ब्रा.२.१.६ ३७२प्रजापतेर्भागो ऽस्यूर्जस्वान् पयस्वान्। अक्षितो ऽस्यक्षित्यै त्वा। - - -ऊर्गस्यूर्जं मे धेहि। कुर्वतोv मे मा क्षेष्ठाः, ददतोv मे मोपदसः। - गो.ब्रा.२.१.७ ३७३यो ह वा आयतांश्च प्रतियतांश्च स्तोमभागान् विद्यात्, स विष्पर्धमानयोः समृतसोमयोर्ब्रह्मा स्यात्। स्तुतेषे, स्तुतोर्जे, स्तुत देवस्य सवितुः सवे, - - - गो.ब्रा.२.२.१५ ३७४प्रेङ्ख :-- - - य उ एने अन्तरेणाकाशः सोऽन्तरिक्षलोकस्तस्माद्द्वे एव (फलके) स्याताम्। औदुम्बरे स्यातामूर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बर ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। मध्यत उद्भृते स्यातां मध्यतो वै प्रजा अन्नं धिनोति मध्यत एव तदन्नाद्यस्य यजमानं दधाति। - ऐतरेय आरण्यक १.२.३ ३७५समुत्सृप्य वा ओषधिवनस्पतयः फलं गृह्णन्ति तद्यदेतस्मिन्नहनि सर्वशः समधिरोहन्तीषमेव तदूर्जमन्नाद्यमधिरोहन्त्यूर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै।- ऐ.आ.१.२.४ ३७६इषऊर्ज्ज आयुषे वर्च्चसे च। - ताण्ड्य ब्राह्मण १.१.९ ३७७(हे आज्य) स्तुतस्य स्तुतमस्यूर्जस्वत्पयस्वदामास्तोत्रस्य स्तोत्रं गम्यादिन्द्रवन्तो वनेमहि भक्षीमहि प्रजामिषं। - तां.ब्रा.१.६.४ ३७८(हे सोमपीथ) ऊर्गस्यूर्जम्मयि धेहि। प्राण सोमपीथे मे जागृहि। - तां.ब्रा.१.६.१५ ३७९गृहपतिरौदुम्बरीं धारयति गृहपतिर्व्वा ऊर्ज्जो यन्तोर्जमेवैभ्यो यंति। - तां.ब्रा.४.९.१५ ३८०आसन्दीमारुह्योद्गायति देवसाक्ष्य एव तदुपरिषद्यं जयति। औदुम्बरी भवत्यूर्गुदुम्बर ऊर्ज्जमेवावरुन्धे। - तां.ब्रा.५.५.२ ३८१प्रजापतिर्देवेभ्य ऊर्ज्जं व्यभजत्तत उदुम्बरः समभवत्प्राजापत्यो वा उदुम्बरः प्राजापत्य उद्गाता - तां.ब्रा.६.४.१ ३८२औदुम्बर्युच्छ्रयणम् :- ऊर्गस्यूर्जोदा ऊर्ज्जं मे देह्यूर्ज्जं मे धेह्यन्नं मे देह्यन्नं मे धेहि प्रजापतेर्व्वा एतदुदरं यत्सद ऊर्गुदुम्बरो यदौदुम्बरी मध्ये सदसो मीयते मध्यत एव तत्प्रजाभ्योऽन्नमूर्जन्दधाति। - तां.ब्रा.६.४.११ ३८३साम देवानामन्नं सामन्येव तद्देवेभ्योऽन्न ऊर्ज्जन्दधाति स एव तदूर्ज्जि श्रितः प्रजाभ्य ऊर्ज्जं विभजति। - तां.ब्रा.६.४.१३ ३८४यो वा एभ्यो लोकेभ्यो गायत्रं गायति नैभ्यो लोकेभ्य आवृश्च्यत इम एनं लोका ऊर्ज्जाभिसंवसते। - तां.ब्रा.७.१.६ ३८५उक्थस्य स्तोत्राणि :- प्रजापतिः प्रजा असृजत ताः सृष्टा आशनायंस्ताभ्यः सौभरेणोर्गित्यन्नं प्रायच्छत्ततो वै ताः समैधन्त। - तां.ब्रा.८.८.१४ ३८६होषिति वृष्टिकामाय निधनं कुर्य्यादूर्गित्यन्नाद्यकामायो इति स्वर्गकामाय। सर्व्वेr वै कामाः सौभरं सर्व्वेrष्वेव कामेषु प्रतितिष्ठति। - तां.ब्रा.८.८.२० ३८७यजमानस्य त्रिरात्रमरण्यवासं :- उदुम्बरे वसत्यूर्गुदुम्बर ऊर्ज्जमेवावरुन्धे। - तां.ब्रा.१६.६.४ ३८८औदुम्बरो (सोमचमसो) भवत्यूर्गुदुम्बर ऊर्ज्जमेवावरुन्धे। -तां.ब्रा.१८.५.११ ३८९शबलीहोमं :- - - - द्यौः पादः समुद्रः पाद एषासि शबलि तां त्वा विद्मसानइषमूर्जधुक्ष्व वसोर्द्धाराँ शबलि प्रजानां शचिष्ठा व्रतमनुगेषं स्वाहा। - तां.ब्रा.२१.३.७ ३९०तपो गृहपतिः- - - -भगो ग्रावस्तुदूर्गुन्नेता वाक्सुब्रह्मण्यः - - - -तां.ब्रा.२५.१८.४ ३९१दर्शपूर्णमासः :- - - - -बहुपर्णा बहुशाखाप्रतिशुष्काग्रा भवति तामाच्छिनत्तीषे त्वोर्जे त्वेति तया वत्सानपाकरोति वायव स्थ- - - - - आप्यायध्वमघ्निया देवभागमूर्जस्वतीः पयस्वतीः प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा - - -बौधायन श्रौत सूत्रम् १.१ ३९२होत्रम् :- ऊर्जाद उत यज्ञियासः पञ्च जना मम होत्रं जुषध्वम्। - बौ.श्रौ.सू.३.२८ ३९३यत्पूर्वोक्तं तदुत्तरोष्ठे प्रोहति वाचस्पये त्वा हुतं प्राश्नामीषे प्राणायेति सदसस्पतये त्वा हुतं प्राश्नाम्यूर्जेऽपानायेत्यधरोष्ठेऽपोहत्य (तुलनीय : शतपथ ब्राह्मण १.८.१.१५) -बौ.श्रौ.सू.३.२८ ३९४अग्निष्टोम प्रातः सवनम् :-निष्क्रामत्येवाध्वर्युः प्रपद्यते प्रतिप्रस्थाता विपर्यस्य पात्रं स गृह्णात्युपयामगृहीतोऽस्यूर्जाय त्वा जुष्टं गृह्णामीति - बौ.श्रौ.सू.७.१६ ३९५अग्निचयनम् :- इषश्चोर्जश्चेत्यवकामनूपदधात्यग्नेर्योनिरसीति - बौ.श्रौ.सू.१०.४० ३९६अग्निचयनम् :- आज्यस्य पूर्णां स्रुचमग्नेर्विमोकं जुहोतीमं स्तनमूर्जस्वन्तं धयापामित्यथैनमुपतिष्ठते - - बौ.श्रौ.सू.१०.५९ ३९७मृगारेष्टिः प्रायश्चित्तानि :-यमो राजा प्रमृणाभिः पुनातु मां जातवेदा मोर्जयन्त्या पुनातु स्वाहा - बौ.श्रौ.सू.२८.१ ३९८पवित्रेष्टि प्रायश्चित्तानि :-यमो राजा प्रसृणाभिः पुनातु मां जातवेदा मोर्जयन्त्या पुनातु स्वाहा- बौ.श्रौ.सू.२८.२ ३९९- - - काष्टरेषय ऊर्जायना वानजायना वाशय इत्येते कौमण्डा गौतमास्तेषां पञ्चार्षेयः प्रवरो भवति - बौ.श्रौ.सू. प्रवर १२ ४००दर्शपूर्णमासौ :-निरस्तं रक्षो निरस्तोऽघशंस इति यदन्यत्पुरोडाशीयेभ्यस्तन्निरस्योर्जाय वः पयो मयि धेहीत्यभिमन्त्र्य- - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १.१७.१० ४०१अग्निष्टोम प्रातः सवनम् :- सोमं ते क्रीणाम्यूर्जस्वन्तं पयस्वन्तमित्युक्त्वा कलया ते क्रीणानीत्येनमाह। - आप.श्रौ.सू.१०.२५.४ ४०२गोमद्धनवदश्ववदूर्जस्वत्सुवीरा वीरैरनुसंचरेमेति देवयजनमध्यवसाय - - - आप.श्रौ.सू.१३.२५.३ ४०३अग्निचयनम् :-- - - संक्रान्तिरसि स्वर्ग्यासि स्वरसि। इषि सीदोर्जि सीद भगे सीद द्रविणे सीद- - - आप.श्रौ.सू.१६.३०.१ ४०४अग्निचयनम् :-- - - -गृहमेधी च क्रीडी च साकी चोर्जिषी चेत्येष षष्ठ आम्नातः। - आप.श्रौ.सू.१०.१६.१८ ४०५अग्निचयनम् :-अनूबन्ध्यावपायां हुतायामौदुम्बरीं स्रुचं घृतस्य पूरयित्वेमं स्तनमूर्जस्वन्तं धयापामित्यग्नेर्विमोकं जुहोति। - आप.श्रौ.सू.१७.२३.१२ ४०६हौत्रका :- ऊर्जाद उत यज्ञियासः पञ्च जना मम होत्रं जुषध्वम्। - आप.श्रौ.सू.२४.१३.३ ४०७दर्शपूर्णमासः :-अन्वाहार्यमभिघार्योद्वास्यान्तरा ब्रह्मयजमानौ हृत्वा वेद्यां निधायालभते प्रजापतेर्भागोऽस्यूर्जस्वान् पयस्वान् प्राणापानौ मे पाहि समानव्यानौ मे पाह्युदानव्यानौ मे पाह्यूर्गस्यूर्जं मयि धेह्यक्षितिरसि मा मे क्षेष्ठा ऽअमुत्रामुष्मिन् लोके ऽइह चेति। - कात्यायन श्रौत सूत्र ३.४.२७ ४०८चयनम् :- उत्तमायां च ऋतव्ये नभश्च नभस्यश्चेति। अवका कूर्मवत्। इषश्चोर्जश्चेत्यपरे। - कात्यायन श्रौ.सू.१७.९.६ ४०९वाचस्पतिना ते हुतस्येषे प्राणाय प्राश्नामीत्युत्तरमुत्तरे। मनसस्पतिना ते हुतस्योर्जेऽपानाय प्राश्नामीत्यधरमधरे। (तुलनीय : शतपथ ब्राह्मण १.८.१.१५) - आश्वलायन श्रौत सूत्र१.७.२ ४१०ऊर्जस्वती पयस्वती सूपचरणा च स्वधिचरणा च तयोराविदीत्यवसाय - - - आश्व.श्रौ.सू.१.९.१ ४११अन्वाहार्यमवेक्षेत प्रजापतेर्भागोऽस्यूर्जस्वान्पयस्वानक्षितिरसि मा मे क्षेष्ठा अस्मिंश्च लोकेऽमुष्मिंश्च। - आश्व.श्रौ.सू.१.१३.४ ४१२देवी ऊर्जाहुती वसुवने वसुधेयस्य वीताम्। - आश्व.श्रौ.सू.२.१६.१२ ४१३साकमेधपर्व :- यदि होतारं चोदयेयुस्तस्य याज्यानुवाक्ये। पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत। वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्जं शतक्रतो। - आश्व.श्रौ.सू.२.१८.१५ ४१४अन्त्येन प्रणवेनोपसंतनुयाद्यजमानहोतरध्वर्यो- - - -उपवक्तरिषेषयध्वमूर्जोर्जयध्वं नि वो जामयो जिहतान्यजाम- - -आश्व.श्रौ.सू.५.७.३ ४१५आग्नीध्रीय (जुह्वती) उपसृजं धरुणं मातरं धरुणो धयन्। रायस्पोषमिषमूर्जमस्मासु दीधरत्स्वाहेति। - आश्व.श्रौ.सू.८.१३.२ ४१६चातुर्मास्यान्तर्गत वैश्वदेवपर्वप्रकरणम् :-देवी ऊर्जाहुती वसुवने वसुधेयस्य वीताम्। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र ३.१३.२७ ४१७ज्योतिष्टोमे प्रातरनुवाकप्रकरणम् :-प्रत्युक्तो निगदं तास्वध्वर्यवाधावेन्द्राय सोममूर्जस्वन्तं पयस्वन्तं मधुमन्तं वृष्टिवनिं वसुमते रुद्रवत आदित्यवत - - - शाङ्खायन श्रौ.सू.६.७.१० ४१८ज्योतिष्टोमे सोमभक्षप्रकरणम् :- प्रतिभक्षितं द्विदेवत्यशेषं नाराशंसवतां च ग्रहाणां होतृचमसे ऽवनयति हुते त्वा भक्षितमवनयाम्यूर्जस्वन्तं देवेभ्य आयुष्मन्तं मह्यमिति - शाङ्खायन श्रौ.सू.७.४.१५ ४१९ज्योतिष्टोमे नाराशंसाप्यायनप्रकरणम् :- यजमान होतरध्वर्यो- - - - -उपवक्तरिषेषयध्वमूर्जोर्जयध्वं नि वो जामयो जिहतां - - शाङ्खायन श्रौ.सू.७.६.३
ऊर्जा १वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते। सेमं नो अध्वरं यज ॥ (अग्निः) - ऋग्वेद १.२६.१ २स न ऊर्जामुपाभृत्यया कृपा न जूर्यति। यं मातरिश्वा मनवे परावतो देवं भाः परावतः ॥ (अग्निः) - ऋ.१.१२८.२ ३अग्ने जरस्व स्वपत्य आयुन्यूर्जा पिन्वस्व समिषो दिदीहि नः। - ऋ.३.३.७ ४श्येनस्येव ध्रजतो अङ्कसं परि दधिक्राव्णः सहोर्जा तरित्रतः ॥ - ऋ.४.४०.३ ५शृणोतु न ऊर्जां पतिर्गिरः स नभस्तरीयाँ इषिरः परिज्मा। - ऋ.५.४१.१२ ६स्वग्नयो वो अग्निभिः स्याम सूनो सहस ऊर्जां पते। सुवीरस्त्वमस्मयुः ॥ - ऋ.८.१९.७ ७स त्वं न ऊर्जां पते रयिं रास्व सुवीर्यम्। प्राव नस्तोके तनये समत्स्वा ॥ - ऋ.८.२३.१२ ८ऊर्जा देवाँ अवस्योजसा त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। (इन्द्रः) - ऋ.८.३६.३ ९तत्तदग्निर्वयो दधे यथायथा कृपण्यति। ऊर्जाहुतिर्वसूनां शं च योश्च मयो दधे विश्वस्यै देवहूत्यै नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ.८.३९.४ १०पाहि नो अग्न एकया पाह्युत द्वितीयया। पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पाहि चतसृभिर्वसो ॥ - ऋ.८.६०.९ ११परि वो विश्वतो दध ऊर्जा घृतेन पयसा। ये देवाः के च यज्ञियास्ते रय्या सं सृजन्तु नः ॥ - ऋ.१०.१९.७ १२अस्माकमूर्जा रथं पूषा अविष्टु माहिनः। भुवद्वाजानां वृध इमं नः शृणवद्धवम् ॥ - ऋ.१०.२६.९ १३आ व ऋञ्जस ऊर्जां व्युष्टिष्विन्द्रं मरुतो रोदसी अनक्तन। (ग्रावाणः) - ऋ.१०.७६.१ १४कीनारेव स्वेदमासिष्विदाना क्षामेवोर्जा सूयवसात् सचेथे ॥ (अश्विनौ) - ऋ.१०.१०६.१० १५इन्द्र एतां ससृजे विद्धो अग्र ऊर्जां स्वधामजरां सा त एषा। तया त्वं जीव शरदः सुवर्चा मा त आ सुस्रोद् भिषजस्ते अक्रन् ॥ - अथर्ववेद २.२९.७ १६सोदक्रामत् सा देवानागच्छत् तां देवा उपाह्वयन्तोर्ज एहीति। तस्या इन्द्रो वत्स आसीच्चमसः पात्रम्। तां देवः सविताधोक् तामूर्जामेवाधोक्। तामूर्जां देवा उप जीवन्त्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद। - अ.८.१४.३ १७ऊर्जां च वा एष स्फातिं च गृहाणामश्नाति यः पूर्वोऽतिथेरश्नाति। - अ.९.८.३ / ९.६.३३ १८यमबध्नाद् बृहस्पतिर्देवेभ्यो असुरक्षितिम्। स मायं मणिरागमदूर्जया पयसा सह द्रविणेन श्रिया सह ॥ - अ.१०.६.२६ १९सूनृता संनतिः क्षेमः स्वधोर्जामृतं सहः। उच्छिष्टे सर्वे प्रत्यञ्चः कामाः कामेन तातृपुः ॥ - अ.११.९.१३/ ११.७.१३ २०निर्दुरर्मण्य ऊर्जा मधुमती वाक्। मधुमती स्थ मधुमतीं वाचमुदेयम् ॥- अ.१६.२.१ (ऊर्जा के शेष वाक्यांश ऊर्ज शीर्षक में द्रष्टव्य :तै.सं. १.५.३.३,१.५.४.४, ४.६.३.२, ५.२.८.७, ६.१.४.१, ६.३.४.५, जै.ब्रा.१.७२, शतपथ ब्रा.२.३.४.२७, ७.५.१.१९, ८.५.३.३ इत्यादि)
|