PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
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उष्ट्र टिप्पणी शतपथ ब्राह्मण १.२.३.९ तथा ऐतरेय ब्राह्मण २.८ में पुरोडाश के संदर्भ में वर्णन आता है कि जब देवों ने अवि पशु का आलभन किया तो उसका जो मेध अपक्रान्त हुआ , वह उष्ट्र पशु बन गया । अवि यज्ञीय है , जबकि उष्ट्र अयज्ञीय पशु है । पुराणों और वैदिक साहित्य में उपलब्ध सामग्री के आधार पर यह कहा डा सकता है कि अवि पशु असि और वरणा नदियों का , अथवा इडा और पिङ्गला नाडियों का प्रतीक है । इनमें एक सूर्य कलावाहिनी है तो दूसरी चन्द्र कला वाहिनी । प्राणायाम की सम्यक् अवस्था में जीवात्मा इन दोनों प्रकार की नाडियों द्वारा संतुलित अवस्था में शक्ति ग्रहण करता रहेगा । लेकिन जैसा कि स्कन्द पुराण में उष्ट्र के पूर्व जन्म के वृत्तान्त में कहा गया है, यदि वह प्राणायाम का उपहास करेगा तो उसे उष्ट्रता की प्राप्ति होगी । उष्ट्र के बारे में कहा गया है कि एक आंख को छोडकर उसका कोई भी अंग रूपवान नहीं है - ओष्ठ मोटे - मोटे हैं , ग्रीवा अतिदीर्घ है इत्यादि । व्यावहारिक जीवन में भी ऐसा ही देखने को मिलता है कि प्राणों का आकर्षण सम्यक् प्रकार से न होने के कारण मनुष्य के शरीर में उष्ट्र की भांति ही विरूपता आ जाती है , भले ही आधुनिक चिकित्सा विज्ञान उसके लिए अलग - अलग कारण ढूंढता रहे । मनुष्य प्राणों का सम्यक् कर्षण करने में क्यों असमर्थ रहता है , इसका कारण भी पुराणों और वैदिक साहित्य में व्यापक रूप से दिया गया है । कहा गया है कि जब तक जीवात्मा मोह से ( विष्णुधर्मोत्तर पुराण ) , तृष्णा से ग्रस्त रहेगा , तब तक वह प्राणों का सम्यक् कर्षण नहीं कर पाएगा ( बौधायन श्रौत सूत्र २.५ ) । आयुर्वेद में तृष्णा का अर्थ है कि मनुष्य जिस तृषा का अनुभव कर रहा है , उस तृषा की शांति का उपाय जल पान नहीं है , अपितु वात , पित्त अथवा कफ के कारण उत्पन्न दोषों की शान्ति के लिए औषध सेवन है । जीवात्मा के मोह अथवा अज्ञान से ग्रस्त होने के कारण उसको पता ही नहीं चलता कि उसकी व्याधि की शांति का उपाय कहीं और निहित है । अतः वह भौतिक रूप में उपलब्ध आनंददायक वस्तुओं से ही अपनी तृष्णा शांत करना चाहता है । यह वस्तुएं उसके प्राणायाम में बाधा डालकर उसको उष्ट्र बनाती हैं । उष्ट्रता से मुक्ति का क्या उपाय हो सकता है , इस संदर्भ में स्कन्द पुराण में तो महाकाल क्षेत्र में उष्ट्र के प्रवेश करने और करभेश्वर लिङ्ग के दर्शन से ही उष्ट्र की मुक्ति कही गई है । वैदिक साहित्य में प्रायः त्वष्टा के लिए उष्ट्र के आलभन का उल्लेख आता है ( वाजसनेयि संहिता २४.२८ , शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.३५, पारस्कर गृह्य सूत्र३.१५.५ ) । हो सकता है कि जिस प्रकार त्वष्टा ने सूर्य को भ्रमि पर रखकर उसके तेज का कर्तन करके सूर्य को रूप प्रदान किया था तथा कर्तित तेज से देवों के अस्त्र बनाएं थे , ऐसी ही कोई स्थिति उष्ट्र के लिए भी होती हो । ताण्ड्य ब्राह्मण १.८.१२ में पूषा के लिए उष्ट्र की दक्षिणा दी गई है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है । वाजसनेयि संहिता २४.३९ में मति देवी के लिए घृणीवान उष्ट्र का आलभन किया गया है । उष्ट्र की ग्रीवा दीर्घ होने के संदर्भ में डा० फतहसिंह की धारणा है कि ग्री - विज्ञाने धातु के अनुसार ग्रीवा विज्ञानमय कोश का प्रतीक है । इसका तात्पर्य हुआ कि उष्ट्र में विज्ञानमय कोश तक पहुंचने की शक्ति तो है , लेकिन ग्रीवा के संकुचन की शक्ति उसमें नहीं है । हो सकता है कि पुराणों में उष्ट्र के महाकाल वन में जाने से तात्पर्य इस ग्रीवा के संकोचन से हो और इस स्थिति में भी भौतिक विज्ञान का अनिश्चितता का सिद्धांत ( ऊर्जा में अनिश्चितता या प्रसार x समय में अनिश्चितता या प्रसार = स्थिरांक ) लागू होता हो । वैदिक साहित्य में उष्टा शब्द का प्रयोग अनड्वान के लिए हुआ है जो वर्तमान टिप्पणी की धारणा को पुष्ट करता है(प्राणापानौ अनड्वाहौ इत्यादि) । संदर्भ १प्र हि त्वा पूषन्नजिरं न यामनि स्तोमेभिः कृण्व ऋणवो यथा मृध उष्ट्रो न पीपरो मृधः। -ऋ.१.१३८.२ २यथा चिच्चैद्यः कशुः शतमुष्ट्रानां ददत् सहस्रा दश गोनाम् ॥ - ऋ.८.५.३७ ३उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत्। श्रवसा याद्वं जनम् ॥ - ऋ.८.६.४८ ४षष्टिं सहस्राश्व्यस्यायुतासनमुष्ट्रानां विंशतिं शता। दश श्यावीनां शता दश त्र्यरुषीणां दश गवां सहस्रा ॥ - ऋ.८.४६.२२ ५अध यच्चारथे गणे शतमुष्ट्राँ अचिक्रदत्। अध श्वित्नेषु विंशतिं शता ॥ - ऋ.८.४६.३१ ६उष्टारेव फर्वरेषु श्रयेथे प्रायोगेव श्वात्र्या शासुरेथः। - ऋ.१०.१०६.२ ७उष्ट्रा यस्य प्रवाहणो वधूमन्तो द्विर्दश। वर्ष्मा रथस्य नि जिहीडते दिव ईषमाणा उपस्पृशः ॥ - अथर्व.२०.१२७.२ ८श्वित्र आदित्यानामुष्ट्रो घृणीवान्वार्ध्रीनसस्ते मत्या। - वा.सं.२४.३९ ९ईशानाय परस्वत आलभते - - - -त्वष्ट्र उष्ट्रान्। - वा.सं.२४.२८ १०अग्निचितिः : उष्टारयोः पील्वयोरथो आबन्धनीययोः। सर्वेषां विद्म वो नाम वाहाः कीलालपेशसः। - मै.सं.२.७.१२ ११- - - -सौर्य एककपाल उष्टारौ दक्षिणा सीरं वा - - - -काठ. सं.१५.२ १२उष्टो ऽहिस् समुष्टो ऽहिर् निवीतो ऽरसः कृतः। विषस्य ब्रह्मणाम् आसीत् ततो जीवन् न मोक्ष्यसे ॥ - पैप्प.सं.३.१६.५ १३अथ यदास्य गवां मानुषमहिष्यजाश्वोष्ट्रा प्रसूयन्ते, - - - - - तान्येतानि सर्वाणि रुद्रदेवत्यान्यद्भुतानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति। - षड्विंश ब्रा.६.११.२ १४वरुणस्त्वा नयतु देवि दक्षिणे पूष्ण उष्ट्रं। - तां.ब्रा.१.८.१२ १५अथ यस्माद् दशमे ऽहनि पञ्चदशत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ भवतस् तस्माद् उ यौ ज्येष्ठौ पशूनां तौ युक्तौ वहतो हस्ती चोष्ट्रश् च। - जै.ब्रा.३.१८१ १६पुरोडाश प्रकरणम् : स यं पुरुषमालभन्त - स किम्पुरुषोऽभवत्~। यावश्वं च गाञ्च तौ गौरश्च गवयश्चाभवताम्। यमविमालभन्त - स उष्ट्रोऽभवत्~। यमजमालभन्त - स शरभोऽभवत्~। - मा.श.१.२.३.९ १७अथावेः। इममूर्णायुम् इति। - - - - -त्वष्टुः प्रजानां प्रथमं जनित्रम् इति। - -- -अग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् इति।- - - -उष्ट्रमारण्यमनु ते दिशामि इति। तदस्माऽउष्ट्रमारण्यमनुदिशति। तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद इति। तेन चिन्वान आत्मानं संस्कुरुष्वेत्यतत्। उष्ट्रं ते शुगृच्छतु यं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु इति। तद् उष्ट्रे च शुचं दधाति। यं च द्वेष्टि तस्मिंश्च। - मा.श.७.५.२.३५ १८- - -ते ऽविमालभन्त सोऽवेरालब्धादुदक्रान्त्सोऽजं प्राविशत्तस्मादजो मेध्योऽभवदथैनमुत्क्रान्तमेधमत्यार्जन्त स उष्ट्रोऽभवत्~ इति। - ऐ.ब्रा.२.८ १९अथ(अङ्गारेषु शान्तेषु) यद्भस्माऽसीत्तत्पुरुष्यं व्यसर्पद्गौरो गवय ऋश्य उष्ट्रो गर्दभ इति ये चैतेऽरुणा पशवस्ते च इति। - ऐ.ब्रा.३.३४ २०स्वरूपानुसंधानव्यतिरिक्तान्यशास्त्राभ्यास उष्ट्रकुङ्कुमभारवद्व्यर्थः। - संन्यासोपनिषत् २.५९, नारदपरिव्राजकोपनिषत् ५ २१उष्ट्रमारोक्ष्यन्नभिमन्त्रयते त्वाष्ट्रो ऽसि त्वष्टृदैवत्य स्वस्ति मा संपारयेति। - पार.गृ.सू.३.१५.५ २२अग्न्याधेयम् : - - -उष्ट्रे मे तृष्णा- - - बौधा.श्रौ.सू.२.५ २३अग्निचयनम् :वरूत्रिं त्वष्टुर्वरुणस्य नाभिमित्यनुद्रुत्येमामूर्णयुं वरुणस्य मायामित्युष्ट्रमारण्यमनु ते दिशामीति शुचमनूत्सृजति - - -बौधा.श्रौ.सू.१०.३४ २४सप्त ग्राम्याः पशवो गोअश्वमजाविकं पुरुषश्च गर्दभश्चोष्ट्रश्च सप्तमे ऽश्वतरमु हैके ब्रुवते - - -बौधा.श्रौ.सू.२४.५ २५वैष्टपुरेया लोहितायना उष्ट्राक्षा नाडायनाः - - -वत्सा वात्स्यायना इत्येते वत्सास्तेषां पञ्चार्षेयः प्रवरो भवति - - -बौधा.श्रौ.प्रवर३ २६धनंजयाः कारीषय आश्ववतास्तुलभ्याः सैन्धवायना उष्ट्राक्षा महाक्षा इत्येते धनंजयास्तेषां त्र्यार्षेयः प्रवरो भवति - - - -बौधा.श्रौ.प्रवर३६ २७नराशंसी ऋचाएं : उष्ट्रा यस्य प्रवाहिणो वधूमन्तो द्विर्दश। वर्ष्मा रथस्य नि जिहीळते दिव ईषमाणा उपस्पृशः ॥ - शाङ्खा.श्रौ.सू.१२.१४.१ २८गौरो गवयः शरभ उष्ट्रो मायुः किंपुरुष इत्यनुस्तरणाः। - शाङ्खा.श्रौ.सू.१६.३.१४,१६.१२.१३ २९विश्वेभ्यो देवेभ्यश्छागानामुष्ट्राणां मेषाणाँ वपानां मेदस इतीतरेषाम्। - वाराह श्रौ.सू.३.४.४.२७ ३०गजा वाजिन उष्ट्राश्च वृका नकुलचेटकाः। पीड्यन्ते व्याधिना सर्वे ये च शस्त्रोपजीविनः ॥ - अथर्व परि. ५७.२.६ ३१वराहैमदकरैरुष्ट्रैर्वृकैः कङ्कैस्तथा खरैः। शशकाकृतयः कुर्युः संध्यायां जलदा भयम् ॥ - अथर्व परि. ६१.१.७ ३२स्वप्न विशेष का महत्व : संयुक्तं सूकरखरैरुष्ट्रैः कृष्णचतुष्पदैः। रथमारुह्य यो यायादक्षतस्तु युगंधरः ॥ - अथर्व परि. ६८.२.४३ ३३द्विसंवत्सरपर्यन्ताद्राजा तत्र विनश्यति। उष्ट्रो वृषो वाप्यश्वो वा गजो वा यत्र जायते ॥ - अथर्व परि. ७१.६.५
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