PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
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उशना टिप्पणी ऋग्वेद में ८.८४( प्रेष्ठं वो अतिथिं इति), ९.८७ - ९.८९ सूक्तों के ऋषि उशना काव्य हैं । इसके अतिरिक्त सामवेद में ९ सामों के ऋषि उशना काव्य हैं । उशना ऋषि के वैदिक दर्शन को समझने के लिए उशना शब्द का तात्पर्य समझ लेना होगा । ऋग्वेद की ऋचाओं में उशन् , उशती आदि शब्दों का व्यापक प्रयोग हुआ है और वैदिक पदानुक्रम कोश में इन शब्दों की व्युत्पत्ति वश् - कामना के अर्थ वाली धातु से की गई है । सायण भाष्य में भी उशन् का अर्थ सार्वत्रिक रूप से कामना ही किया गया है । ऋग्वेद १.६२.११, १.७१.१, १.१२४.७ , ४.३.२ , ९.९५.३, १०.३०.६ , १०.४३.१, १०.७१.४, १०.८५.३७, १०.९१.१३ में उल्लेख आता है कि जैसे पत्नी उशती होकर उशन्त पति का आलिंगन करती है , ऐसे ही मनीषा या मतियां इन्द्र का आलिंगन करती हैं । इसके अतिरिक्त , ऋग्वेद १.२२.९ , १.१०९.४ , १.१२४.१३ , ५.४३.११ , ५.४६.७ , १०.९.२ आदि में उशती स्थिति में स्थित माता जैसे वत्स को दुग्ध का पान कराती है , वैसे ही देव - पत्नियों से कल्याणतम रस प्राप्त होने की कामना की गई है । ऋग्वेद ३.५.७ के अनुसार अग्नि का उशन करने पर वह उशन्त घृतवन्त योनि में स्थित हो जाती है । ऋग्वेद ७.१७.२ व ७.३९.४ , ८.६०.४ , १०.१६.१२ आदि में अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह उशत् स्थिति में आकर हमारे लिए देवताओं का आह्वान करे । ऋग्वेद ७.९८.२ में उशन् इन्द्र से सोम पान की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ७.१०३.३ में मण्डूकों के उशत स्थिति में आने पर ईं की वर्षा होने का उल्लेख है (यदीमेनाँ उशतो अभ्यवर्षीत्तृष्यावतः प्रावृष्यागतायाम् ।)। ऋग्वेद ९.६८.६ में उशन्त अंशु का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.३०.१५ में उशती बर्हि का उल्लेख है जिस पर आप : आकर विराजमान होते हैं ? ऋग्वेद १०.१६०.३ में उशत मन से सोम का सवन करने पर इन्द्र द्वारा उसकी गायों की रक्षा का उल्लेख है । उशन के संदर्भ में इन सभी उल्लेखों को समझने की एक कुंजी हमें सामवेद में उशना ऋषि के साम इनो राजन् अरति : समिद्धो इत्यादि ( ऋग्वेद १०.३.१) से प्राप्त होती है । आधुनिक रसायन शास्त्र में दो तत्वों के बीच रासायनिक क्रिया का आधार रति , दो तत्वों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण है । अरति की स्थिति एकमात्र हीलियम, नीओन , आर्गन आदि अक्रिय गैसों के लिए होती है । साधना के दृष्टिकोण से , पहले तो रति या उशना को उत्पन्न करना है । इस संदर्भ में ऋग्वेद की ऋचाओं का संकेत है कि उशना ऐसी होनी चाहिए जैसे पत्नी व पति के बीच , अंग - प्रत्यंग में , शरीर के कण - कण में । ऐसा कैसे हो ? इस सम्बन्ध में ताण्ड्य ब्राह्मण ७.५.१७ का कहना है कि प्राण औशन हैं । वायु उशन् है । ऋग्वेद ८.७.२६(उशना यत्परावत उक्ष्णो रन्ध्रमयातन ।) में भी उशना को मरुत कहा गया है। वायु उशन् है । अतः यह कहा जा सकता है कि साधना द्वारा शरीर के कण - कण में प्राण वायु अथवा आक्सीजन का जितना अधिक प्रवेश होगा , उशन् अथवा कामना अथवा रति की स्थिति उतनी ही पुष्ट होती जाएगी । इस रति की स्थिति से अरति की स्थिति को कैसे प्राप्त किया जा सकता है , यह विचारणीय है । पुराणों में उशना को तितिक्षु - पिता कहने का तात्पर्य भी अरति से हो सकता है । तितिक्षु शब्द तिज् - त्यागे धातु से निष्पन्न होता है । जहां उशना में आकर्षण है , तितिक्षा में विकर्षण है । आर्षेय कल्प में उल्लेखों से ज्ञात होता है कि यज्ञों में प्राय : माध्यन्दिन सवन के अन्त में औशनस साम ( प्र तु द्रव..ऋषिर्विप्रः पुरएता इति - ऋग्वेद ९.८७.१-३ ) का गान किया जाता है । इसके पश्चात् ऋभु से सम्बन्धित आर्भव पवमान आरंभ होता है । ऋग्वेद ९.८७.३ के साम के अनुसार उशना काव्य द्वारा धीर ऋभु की उत्पत्ति होती है ( ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन ।)? ऋभु को वैदिक साहित्य में देवों का शिल्पी कहा जाता है ( त्वष्टा असुरों का शिल्पी है ) । अतः यह संकेत मिलता है कि जैसे रसायन शास्त्र में सृजन के लिए तत्वों का ऊर्जित अवस्था में होना आवश्यक है , इसी प्रकार अध्यात्म में ऋभु की सृष्टि से पूर्व उशना की ऊर्जित अवस्था प्राप्त करना आवश्यक है । श्री अरविन्द के हिन्दी में अनुवादित साहित्य में संभवतः उशना को अभीप्सा नाम दिया गया है - किसी परम तत्व को प्राप्त करने की चाह । अंग्रेजी भाषा में ओशन शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की जाती है कि जो पृथ्वी को चारों ओर से घेरे रहता है , वह ओशन है । इस कथन का रूपांतर अध्यात्म की दृष्टि से करने पर यह प्रस्तुत संदर्भ के उशना से तादात्म्य रखता है । आश्वलायन श्रौत सूत्र ९.५.१, बौधायन श्रौत सूत्र १८.४७ तथा शांखायन श्रौत सूत्र १४.२८.१(उशना ह काव्योऽसुराणां पुरोहित आस । स ह देवानामन्नमशित्वा परिदद्रे स हैक्षत । कथं नु तेन यज्ञक्रतुना यजेयं येनेष्ट्वा पाप्मानमपहन्यामिति । स एतमुशनस्तोमं यज्ञक्रतुमपश्यत् । तेनेष्ट्वा पाप्मानमपाहत । तेन पाप्मानमपजिघांसमानो यजेत .... उशना यत्सहस्यैरयातं(ऋ. ५.२९.९) वरिवस्यन्नुशने काव्यायेति(ऋ. ६.२०.११) उशनवती तदेतस्याह्नो रूपम्।..स हैक्षत । पाप्मानमपहत्य कथं नु तेन यज्ञक्रतुना यजेयं येनेष्ट्वान्नाद्यमाप्नुयामिति । स एतमुत्तरमुशनस्तोमं यज्ञक्रतुमपश्यत् । तेनेष्ट्वान्नाद्यमाप्नोत् तेनान्नाद्यकामो यजेत ) में उशन स्तोम -द्वय का वर्णन आता है । इनमें से प्रथम स्तोम(उशना यत्सहस्यैरयातं गृहमिन्द्र जूजुवानेभिरश्वैः ।वन्वानो अत्र सरथं ययाथ कुत्सेन देवैरवनोर्ह शुष्णम् ॥) हमारे व्यक्तित्व में व्याप्त विष के नाश के लिए है और दूसरा अन्नाद्य अर्थात् मधुरतम अन्न की प्राप्ति के लिए । ऐसा प्रतीत होता है कि केवल उशना स्थिति उत्पन्न करना विष का नाश करने के अन्तर्गत आता है , जबकि उशना स्थिति से काव्य स्थिति उत्पन्न करना अन्नाद्य प्राप्ति के अन्तर्गत आता है । ऋग्वेद १.५१.१०(तक्षद्यत्त उशना सहसा सहो वि रोदसी मज्मना बाधते शवः ।) व ५.२९.९(उशना यत्सहस्यैरयातं गृहमिन्द्र जूजुवानेभिरश्वैः ।) में उशना के साथ सह शब्द का उल्लेख आता है । उशना सह द्वारा सह का तक्षण करता है । कहा जा सकता है कि केवल उशना की ऊर्जित अवस्था में होना ही पर्याप्त नहीं है , अपितु ऊर्जित अवस्थाओं का विन्यास इस प्रकार करना है कि वह सब सह स्थिति में हों , एक दूसरे से सहयोग करे , विरोध नहीं । यह काव्य की स्थिति हो सकती है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१६६( औशनं पुरस्ताद् भवति कावम् उपरिष्टाद् यज्ञस्यैवारिष्ट्यै। तस्माद् यद् अदाशा नावम् अधिरोहन्ति पितापुत्रौ हैवाग्रे ऽधिरोहतः॥) तथा २.४२१(एष ह वै स्वर्गस्य लोकस्य पन्था अञ्जसायनो यद् औशनकावे। औशनं पुरस्ताद् भवति कावम् उपरिष्टात्। ताव् एतत् पितापुत्राव् एव नावम् अजतः। ) में कवि को पिता और उशना को पुत्र कहा गया है । नौका के ठीक प्रकार से चालन के लिए इन पिता - पुत्रों द्वारा नौका का संचालन आवश्यक कहा गया है । पुराणों में उशना के त्वष्टा पुत्र के उल्लेख को भी उपरोक्त वर्णन के आधार पर समझा जा सकता है । त्वष्टा अर्थात् तक्षण करने वाला । पुराणों में उशना के २ रूप मिलते हैं - एक तो क्षत्रिय रूप जिसमें वह अश्वमेध यज्ञ द्वारा अश्व का शोधन करता है , और दूसरा विप्र रूप जिसमें वह असुरों का आचार्य बनता है और गौ - पति है । उशना काव्य के सार्वत्रिक साम प्र तु द्रव इत्यादि (ऋग्वेद ९.८७.१ ) में पवमान सोम की तुलना अश्व से की गई है जिसका शोधन अपेक्षित है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१२६ , ताण्ड्य ब्राह्मण ७.५.२० (उशना वै काव्योऽसुराणां पुरोहित आसीत् तं देवाः कामदुघाभिरपामन्त्रयन्त तस्मा एतान्यौशनानि प्रायच्छन् कामदुघा वा औशनानि कामदुघा एनमुपतिष्ठन्ते य एवंव्वेद), बौधायन श्रौत सूत्र १८.४६ आदि में आख्यान आता है कि उशना काव्य असुरों के पुरोहित थे । इन्द्र ने उन्हें कामदुघा गाएं प्रदान करके अपनी ओर मिला लिया । जो साम हैं , वही कामदुघा धेनु हैं । ऋग्वेद १.८३.५ में भी उशना काव्य के साथ गौ का उल्लेख आता है ) यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि । आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ॥)। निहितार्थ अपेक्षित है । पृथिवी को भी गौ कहते है । इस दृष्टि से पृथिवी के कण - कण में साम उत्पन्न होना , काव्य उत्पन्न होना भी गौ के पति बनने के समान हो सकता है । ऋग्वेद ८.८४ सूक्त उशना काव्य ऋषि का है जिसकी ऋचा प्रेष्ठं वो अतिथिं इत्यादि का विनियोग अतिथि आगमन पर सामगान के रूप में किया जाता है । अतिथि तिथि से रहित अवस्था , अथवा चन्द्रमा की १५ क्षर कलाओं से भी आगे १६ वी अक्षर अवस्था का प्रतीक है । भौतिक विज्ञान की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है कि उशना ऋषि ने ऊर्जा की अक्षर अवस्था को कैसे प्राप्त किया है क्योंकि सामान्यत : तो पदार्थ में अतिरिक्त ऊर्जा क्षरित होती रहती है । पुराणों में उशना और शुक्र के परस्पर सम्बन्ध के के संदर्भ में , ऋग्वेद ६.५८ सूक्त शुक्रं ते अन्यद् यजतं ते अन्यद् इत्यादि का विनियोग शुक्र ग्रह हेतु किया जाता है । ऐसा हो सकता है कि यजत रूप , जिसमें तप द्वारा , यजन द्वारा ऊर्जा का सम्पादन करना होता है , उशना हो और ऊर्जा को बाहर निकालने वाला रूप शुक्र हो । यह आश्चर्यजनक है कि पुराण उशना , कवि और शुक्र को एक ही बताते हैं , जबकि वैदिक साहित्य में ऐसा कोई उल्लेख ही नहीं है । अतः पुराणों के इस कथन पर बहुत ही सावधानी से विचार करना होगा । पुराणकार को उशना नाम उतना प्रिय नहीं है जितना शुक्र । लेकिन पुराण कथा बताती है कि शुक्र का शुक्र नाम तब पडा जब वह शिव के शुक्र मार्ग से बाहर आए ।
संदर्भ उशन् १ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम्। देवैरा सत्सि बर्हिषि ॥- ऋ. १.१२.४ २अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप। त्वष्टारं सोमपीतये ॥ - ऋ. १.२२.९ ३पतिं न पत्नीरुषतीरुशन्तं स्पृशन्ति त्वा शवसावन् मनीषाः ॥ - ऋ. १.६२.११ ४उप प्र जिन्वन्नुशतीरुशन्तं पतिं न नित्यं जनयः सनीळाः। -ऋ. १.७१.१ ५स्व आ यस्तुभ्यं दम आ विभाति नमो वा दाशादुशतो अनु द्यून्। - ऋ. १.७१.६ ६आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन् हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥ - ऋ. १.१०१.१० ७युवाभ्यां देवी धिषणा मदायेन्द्राग्नी सोममुशती सुनोति। - ऋ. १.१०९.४ ८जायेव पत्य उशती सुवासा उषा हस्रेव नि रिणीते अप्सः ॥ - ऋ. १.१२४.७ ९अस्तोढ्वं स्तोम्या ब्रह्मणा मे ऽवीवृधध्वमुशतीरुषासः।- ऋ. १.१२४.१३ १०अभि श्वान्तं मृशते नान्द्ये मुदे यदीं गच्छन्त्युशतीरपिष्ठितम् ॥ - ऋ. १.१४५.४ ११यत् ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलं निहतस्यावधावति। मा तद् भूम्यामा श्रिथन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भ्यो रातमस्तु ॥ - ऋ. १.१६२.११ १२स दीदयदुशतीरूर्म्या आ दक्षाय्यो यो दास्वते दम आ ॥- ऋ. २.४.३ १३स्तवा वज्रं बाह्वोरुशन्तं स्तवा हरी सूर्यस्य केतू ॥ - ऋ. २.११.६ १४आ वक्षि देवाँ इह विप्र यक्षि चोशन् होतर्नि षदा योनिषु त्रिषु। - ऋ. २.३६.४ १५विश्वेभिर्विश्वां ऋतुना वसो मह उशन् देवाँ उशतः पायया हविः ॥ - ऋ. २.३७.६ १६आ योनिमग्निर्घृतवन्तमस्थात् पृथुप्रगाणमुशन्तमुशानः। - ऋ. ३.५.७ १७प्र पर्वतानामुशती उपस्थादश्वे इव विषिते हासमाने। - ऋ. ३.३३.१ १८इन्द्र पिब वृषधूतस्य वृष्ण आ यं ते श्येन उशते जभार। - ऋ. ३.४३.७ १९अयं योनिश्चकृमा यं वयं ते जायेव पत्य उशती सुवासाः। - ऋ. ४.३. २ २०सखा पिता पिततृमः पितृणां कर्तेमु लोकमुशते वयोधाः। - ऋ. ४.१७.१७ २१दृळहान्यौभ्नादुशमान ओजो ऽवाभिनत् ककुभः पर्वतानाम्। - ऋ. ४.१९.४ २२उशन्नु षु णः सुमना उपाके सोमस्य नु सुषुतस्य स्वधावः। पा इन्द्र प्रतिभृतस्य मध्वः समन्धसा ममदः पृष्ठ्येन ॥ - ऋ. ४.२०.४ २३दधानो वज्रं बाह्वोरुशन्तं द्याममेन रेजयत् प्र भूम ॥ - ऋ. ४.२२.३ २४पिबन्नुशानो जुषमाणो अन्धो ववक्ष ऋष्वः शुचते धनाय ॥ - ऋ. ४.२३. १ २५कृणोत्यस्मै वरिवो य इत्थेन्द्राय सोममुशते सुनोति। सध्रीचीनेन मनसाविवेनन् तमित् सखायं कृणुते समत्सु ॥ - ऋ. ४.२४.६ २६हवं देवी जुजुषाणा घृताची शग्मां नो वाचमुशती शृणोतु ॥ - ऋ. ५.४३.११ २७देवानां पत्नीरुशतीरवन्तु नः प्रावन्तु नस्तुजये वाजसातये। - ऋ. ५.४६. ७ २८एवा नो अद्य समना समानानुशन्नग्न उशतो यक्षि देवान् ॥ - ऋ. ६.४.१ २९इमं यज्ञं चनो धा अग्न उशन् यं त आसानो जुहुते हविष्मान्। - ऋ. ६.१०.६ ३०अयमुशानः पर्यद्रिमुस्रा ऋतधीतिभिर्ऋतयुग्युजानः। - ऋ. ६.३९.२ ३१आ याहि शश्वदुशता ययाथेन्द्र महा मनसा सोमपेयम्। - ऋ. ६.४०.४ ३२अयं मे पीत उदियर्ति वाचमयं मनीषामुशतीमजीगः। - ऋ. ६.४७.३ ३३आ यो मात्रोरुशेन्यो जनिष्ट देवयज्याय सुक्रतुः पावकः ॥ - ऋ. ७.३.९ ३४वृषा हरिः शुचिरा भाति भासा धियो हिन्वान उशतीरजीगः। - ऋ. ७.१०.१ ३५स्वर्ण वस्तोरुषसामरोचि यज्ञं तन्वाना उशिजो न मन्म। - ऋ. ७.१०.२ ३६उत द्वार उशतीर्वि श्रयन्तामुत देवाँ उशत आ वहेह ॥ - ऋ. ७.१७.२ ३७ताँ अध्वर उशतो यक्ष्यग्ने श्रुष्टी भगं नासत्या पुरंधिम् ॥ - ऋ. ७.३९.४ ३८उभा हि वां सुहवा जोहवीमि ता वाजं सद्य उशते धेष्ठा ॥ - ऋ. ७.९३.१ ३९उत हृदोत मनसा जुषाण उशन्निन्द्र प्रस्थितान् पाहि सोमान् ॥ - ऋ. ७.९८.२ ४०यदीमेनाँ उशतो अभ्यवर्षीत् तृप्यावतः प्रावृष्यागतायाम्। - ऋ. ७.१०३.३ ४१अद्रोघमा वहोशतो यविष्ठय देवाँ अजस्र वीतये। - ऋ. ८.६०.४ ४२पत्नीवन्तः सुता इम उशन्तो यन्ति वीतये। - ऋ. ८.९३.२२ ४३तं मर्जयन्त सुवृधं नदीष्वाँ उशन्तमंशुं परियन्तमृग्मियम्। - ऋ. ९.६८.६ ४४रथिरायतामुशती पुरंधिरस्मद्र्यगा दावने वसूनाम् ॥ - ऋ. ९.९३.४ ४५अपामिवेदूर्मयस्तर्तुराणाः प्र मनीषा ईरते सोममच्छ। नमस्यन्तीरुप च यन्ति सं चा ऽऽ च विशन्त्युशतीरुशन्तम् ॥ - ऋ. ९.९५.३ ४६एष स्य ते पवत इन्द्र सोमश्चमूषु धीर उशते तवस्वान्। - ऋ. ९.९७.४६ ४७यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ॥ - ऋ. १०.९.२ ४८यदीमुशन्तमुशतामनु क्रतुमग्निं होतारं विदथाय जीजनन् ॥ - ऋ. १०.११.३ ४९तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥ - ऋ. १०.१५.८ ५०उशन्तस्त्वा नि धीमह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशत आ वह पितॄन् हविषे अत्तवे ॥ - ऋ. १०.१६.१२ ५१अध्वर्यवो हविष्मन्तो हि भूताऽच्छाप इतोशतीरुशन्त। -, १०.३०.२ ५२एवेद्यूने युवतयो नमन्त यदीमुशन्नुशतीरेत्यच्छ। - ऋ. १०.३०६ ५३आग्मन्नाप उशतीर्बर्हिरेदं न्यध्वरे असदन् देवयन्तीः। - ऋ. १०.३०.१५ ५४अच्छा म इन्द्रं मतयः स्वर्विदः सध्रीचीर्विश्वा उशतीरनूषत। - ऋ. १०.४३.१ ५५अहेळता मनसा देव बर्हिरिन्द्रज्येष्ठाँ उशतो यक्षि देवान् ॥ - ऋ. १०.७०.४ ५६आ वां देवास उशती उशन्त उरौ सीदन्तु सुभगे उपस्थे ॥ - ऋ. १०.७०.६ ५७स देवानां पाथ उप प्र विद्वानुशन् यक्षि द्रविणोदः सुरत्नः ॥ - ऋ. १०.७०.९ ५८उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥ - ऋ. १०.७१.४ ५९या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ॥ - ऋ. १०.८५.३७ ६०इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसी वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नः। भूया अन्तरा हृद्यस्य निस्पृशे जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥ - ऋ. १०.९१.१३ ६१सध्रीचीः सिन्धुमुशतीरिवायन् त्सनाज्जार आरितः पूर्भिदासाम्।- ऋ. १०.१११.१० ६२य उशता मनसा सोममस्मै सर्वहृदा देवकामः सुनोति। न गा इन्द्रस्तस्य परा ददाति प्रशस्तमिच्चारुमस्मै कृणोति ॥ - ऋ. १०.१६०.३ ६३उशतीः कन्यला इमाः पितृलोकात् पतिं यतीः। अव दीक्षामसृक्षत स्वाहा ॥ - अथर्व. १४.२.५२ ६४सो चिन्नु भद्रा क्षुमती उशस्वत्युषा उवास मनवे स्वर्वती। यदीमुशन्तमुशतामनु क्रतुमग्निं होतारं विदथाय जीजनन् ॥ - अथर्व.१८.१.२० ६५उशती रात्र्यनु सा भद्राभि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः ॥ - अथर्व. १९.४९.२ ६६सिंहस्य रात्र्युशती पींषस्य व्याघ्र|स्य द्वीपिनो वर्च आ ददे। - अथर्व. १९.४९.४ ६७चक्षुष्मती मे उशती वपूंषि प्रति त्वं दिव्या न क्षाममुक्थाः ॥ - अथर्व. १९.४९.८ ६८स्विष्टकृदाहुति : - - - - - - पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ इति। तदनुवाक्यायै वैश्वदेवम्। - शतपथ १.७.३.१६ ६९पितृयज्ञ : सोऽन्वाह - उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशत आवह पितॄन् हविषे अत्तवे - इति। - शतपथ २.६.१.२२ ७०अथ राजानमादत्ते - - - -इन्द्रस्योरुमाविश दक्षिणम् इति। - - - -उशन्नुशन्तम् इति। प्रिय प्रियमित्येवैतदाह। - शतपथ ३.३.३.१० ७१अथ मिनोति - या ते धामान्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गाऽयासः। अत्राह तदुरुगायस्य विष्णोः परमं पदमवभारि भूरि। - शतपथ ३.७.१.१५ ७२ऐन्द्रवायव ग्रह : अथापगृह्य पुनरानयति। इन्द्रवायूऽइमे सुता उप प्रयोभिरागतम्। इन्दवो वामुशन्ति हि। उपयामगृहीतोऽसि - - - - -शतपथ ४.१.३.१९ ७३समिष्ट यजुः : यान् ऽआवह उशतो देव देवांस्तान् प्रेरय स्वे अग्ने सधस्थे इति। अग्निं वाऽआह - अमून् देवानावह अमून्देवानावहेति। - शतपथ ४.४.४.११ ७४अक्षोदयच्छवसा क्षाम बुध्नम्। वार्णवातस्तविषीभिरिन्द्रः। दृढान्यौघ्नादुशमान ओजः। अवाभिनत्ककुभः पर्वतानाम्। - तै. ब्रा. २.४.५.३ ७५शुचिं नु स्तोमं नवजातमद्य। इन्द्राग्नी वृत्रहणा जुषेथाम्। उभा हि वाँ सुहवा जोहवीमि। ता वाजँ सद्य उशते धेष्ठा इति - तै. ब्रा. २.४.८.३ ७६पितृयज्ञः : उशन्तस्त्वा हवामह आ नो अग्ने सुकेतुना। त्वँ सोम महे भगं त्वँ सोम प्रचिकितो मनीषा। - - - तै. ब्रा. २.६.१६.१ ७७पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ। विद्वाँ ऋतूँर्ऋतुपते यजेह। - - - -तै. ब्रा. ३.५.७.५ ७८पत्नी संयाज : देवानां पत्नीरुशतीरवन्तु नः। प्रावन्तु नस्तुजये वाजसातये। - - - -तै. ब्रा. ३.५.१२.१ ७९स्विष्टकृतः पुरोनुवाक्या : पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ। विद्वाँ ऋतूँर्ऋतुपते यजेह। ये दैव्या ऋत्विजस्तेभिरग्ने। त्वँ होतॄणामस्याऽऽयजिष्ठः। - तै. ब्रा. ३.६.११.४ ८०उशन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस। - - - - - तै. ब्रा. ३.११.८.१ ८१यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः। - तै. आ.४.४२.४ ८२उशन्नु षु णः सुमना उपाके इति यजति। एतामेव तद् देवतां यथाभागं प्रीणाति। -गोपथ ब्रा. २.४.१ ८३मोक्षमेव धारणं विद्यात्। उशंतीव मातरं कुर्यात्। - लिङ्गोपनिषद ८४- - - -चत्वारिंशादथ तिस्रः समिधा उशतीरिव मातरो मा विशन्तु। - त्रिपुरोपनिषत् ३ ८५हवं देवी जुजुषाणा घृताची शग्मां नो वाचामुशती शृणोतु। - सरस्वतीरहस्योपनिषत् २ ८६ यां गामुशन्तीमुशन्नभिपूर्णामारक्तनीलाममृतां रजन्तीमालालयन् लालितकङ्कणाङ्गीं तस्मै प्रजेशाय वरदाय पित्रे स्वाहा। -पारमात्मिकोपनिषत् ६.७ ८७उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस। - - - -कठोपनिषत् १ उशना १तक्षद् यत त उशना सहसा सहो वि रोदसी मज्मना बाधते शवः। - ऋ. १.५१.१० २मन्दिष्ट यदुशने काव्ये सचाf इन्द्रो वङ्क® वङ्कुतराधि तिष्ठति। - ऋ. १.५१.११ ३आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ॥ - ऋ. १.८३.५ ४इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरागात् - ऋ. १.११३.१; ऊहागानम् सत्र३.९ ५यं ते काव्य उशना मन्दिनं दाद् वृत्रहणं पार्यं ततक्ष वज्रम् ॥ - ऋ. १.१२१.१२ ६उशना यत् परावतो ऽजगन्नूतये कवे। सुम्नानि विश्वा मनुषेव तुर्वणिरहा विश्वेव तुर्वणिः ॥ - ऋ. १.१३०.९ ७शंसात्युक्थमुशनेव वेधास्चिकितुषे असुर्याय मन्म ॥ - ऋ. ४.१६.२ ८अहं कुत्समार्जुनेयं न्यृञ्जे ऽहं कविरुशना पश्यता मा ॥ - ऋ. ४.२६.१ ९अबोध्यग्निः समिधा जनानां - - - - ऋ. ५.११; ऊहगानम् सत्र ३.८ १०उशना यत् सहस्यैरयातं गृहमिन्द्र जूजुवानेभिरश्वैः। - ऋ. ५.२९.९ ११उग्रमयातमवहो ह कुत्सं सं ह यद् वामुशनारन्त देवाः - ऋ. ५.२१.८ १२यदीं मृगाय हन्तवे महावधः सहस्रभृष्टिमुशना वधं यमत् ॥ - ऋ. ५.३४.२ १३न्यस्मै देवी स्वधितिर्जिहीत इन्द्राय गातुरुशतीव येमे। - ऋ. ५.३२.१० १४आ भात्यग्निरुषसामनीकमुद् विप्राणां देवया वाचो अस्थुः। - ऋ. ५.७६.१ ; ऊहगानम् सत्र ३.१० १५त्वं वृध इन्द्र पूर्व्यो भूर्वरिवस्यन्नुशने काव्याय। - ऋ. ६.२०.११ १६शुक्रं ते अन्यद्यजतं ते अन्यद्विषुरूपे अहनी द्यौरिवासि। - ऋ. ६.५८.१; शुक्र ग्रह अर्चना का सूक्त। १७उशना यत् परावत उक्ष्णो रन्ध|मयातन। द्यौर्न चक्रदद् भिया ॥ - ऋ. ८.७.२६ १८उशना काव्यस्त्वा नि होतारमसादयत्। आयजिं त्वा मनवे जातवेदसम् ॥ - ऋ. ८. २३.१७ १९प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम्। अग्निं रथं न वेद्यम् ॥ - ऋ. ८.८४.१; ऋ. उशना काव्यः २०तिस्रो वाच उदीरते गावो मिमन्ति धेनवः। हरिरेति कनिक्रदत् ॥ - ऋ. ९.३३.४ ; ऊहगानम् सत्र ५.१० २१प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभिः पुनानो अभि वाजमर्ष। - ऋ. ९.८७.१; ऋ. उशना काव्यः ऊहगानम् दशरात्र१.४ २२ऋषर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन। - ऋ. ९.८७.३ २३अयं सोम इन्द्र तुभ्यं सुन्वे तुभ्यं पवते त्वमस्य पाहि। - ऋ. ९.८८.१; ऋ. उशना काव्यः २४प्रो स्य वह्निः पथ्याभिरस्यान् दिवो न वृष्टिः पवमानो अक्षाः। - ऋ. ९.८९.१; ऋ. उशना काव्यः २५साकमुक्षो मर्जयन्त स्वसारो दश धीरस्य धीतयो धनुत्रीः। - ऋ. ९.९३.१; ऊहगानम् सत्र २.४ २६प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो देवो देवानां जनिमा विवक्ति। - ऋ. ९.९७.७ २७आ जागृविर्विप्र ऋता मतीनां सोमः पुनानो असदच्चमूषु। - ऋ. ९.९७.३७ ; ऊहगानम् अहीन ८.५; ताण्ड~य ब्रा. १५.९.३ २८प्र याह्यच्छोशतो यविष्ठाऽथा वह सहस्येह देवान् ॥ - ऋ. १०.१.७ २९पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ विद्वाँ ऋतूँर्ऋतुपते यजेह। - ऋ. १०.२.१ ३०इनो राजन्नरतिः समिद्धो रौद्रो दक्षाय सुषुमाँ अदर्शि। - ऋ. १०.३.१; ऊहगानम् एकाह २.२० ३१अध ग्मन्तोशना पृच्छते वां कदर्था न आ गृहम्। - ऋ. १०.२२.६ युवं ह भुज्युं युवमश्विना वशं युवं शिञ्जारमुशनामुपारथुः। - ऋ. १०.४०.७ ३२हिरणयवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः। - अथर्व. १.३३.१ ; शुक्र ग्रह अर्चना हेतु सूक्त। ३३यौ मेधातिथिमवथो यौ त्रिशोकं मित्रावरुणावुशनां काव्यं यौ। - अथर्व. ४.२९.६ ३४आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जा https://sa.wikisource.org/s/1auyतममृतं यजामहे ॥ - अथर्व. २०.२५.५ ३५शंसात्युक्थमुशनेव वेधाश्चिकितुषे असुर्याय मन्म ॥ - अथर्व. २०.७७.२ ३६देवासुरास् संयत्ता ज्योङ् न व्यजयन्त। बृहस्पतिर् देवानां पुरोहित आसीद् उशना काव्यो ऽसुराणाम्। - - - इन्द्र द्वारा त्रिशीर्ष गन्धर्व से विजय के सम्बन्ध में पृच्छा। इन्द्र का शुक बन कर उडना। गन्धर्व द्वारा शुक पक्ष की विजय का कथन। इन्द्र द्वारा उशना काव्य को अपनी ओर मिलाना तथा विरोचन की कामदुघा गायों का भी हरण करना। असुरों को स्वर्ग में आने से रोकने के लिए ऊहागानम् १.१.४ (स्वायुधः पवते देव इन्दुर् इत्यादि) का गान। उशना काव्य द्वारा इस साम से देवों में अमर्त्य गन्धर्वलोक की प्राप्ति। - जै. ब्रा. १.१२५ ३७देवरथ का स्वरूप - - - औशनकावे आणी नौधसकालेये वन्धुराधिष्ठानं वामदेव्यम् उपस्थो यज्ञायज्ञीयम् अध्यास्थाता स एष पुरुषः। - जै. ब्रा. १.१३० ३८अथैता भवन्ति अभि प्रियाणि पवते चनोहितः इति। प्रजापतिः प्रजा असृजत। ता अप्राणा असृजत। ताभ्य एताभिर् एवर्ग्भिः प्राणान् अदधात्। अभि प्रियाणि पवते चनोहितः इति। प्रजायै वै प्रियंश्ना अभि इत्य् एव प्राणेनाभ्यपवत। नामानि यह्वो अधि येषु वर्धते इति। महा वै प्रजानामानि। आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्न् अधि रथं विष्वञ्चम् अरुहद् विचक्षणः इति। प्राणो वै विष्वङ्। सो ऽयं विष्व् अञ्चति। ता एता आयुष्या ऋचः। सर्वम् आयुर् एत्य् एताभिर् ऋग्भिस् तुष्टुवानः॥..... दैव्य् एषा नौर् यद्यज्ञः। ताव् एतत् पितापुत्राव् एवाजतः। औशनं पुरस्ताद् भवति कावम् उपरिष्टाद् यज्ञस्यैवारिष्टयै। - जै.ब्रा. १.१६६ ३९अथैतद् औशनं त्रैष्टुभम्। तद् यत्र देवासुरास् संयत्ता आसंस् तद् एष्व् अब्रवीत् त्रिर् अहं ष्टुब् अस्मीति। - - - जै. ब्रा. १.३२४ ४०अथ यौधाजयं त्रिणिधनं, सवनानां क्लृप्त्यै। अथौशनम् अन्त्यं साम। अन्त्येन साम्नान्त्यं स्वर्गं लोकम् अश्नवामहा इति। - जै. ब्रा. २.१४ ४१- - -औशनम् एव त्रिष्टुभि। - - - जै. ब्रा. २.१२७ ४२अथौशनम् अन्त्यं साम, अन्त्येन साम्नान्त्यं स्वर्गं लोकम् अश्नवाता इति। - जै.ब्रा. २.१९४ ४३अथ यद्वो ऽवोचं स्वर्गस्य स्म लोकस्य पथो ऽञ्जसायनान् मेतेत्य्, औशनकावे एव वस् तद् अवोचम् इति। एष ह वै स्वर्गस्य लोकस्य पन्था अञ्जसायनो यद् औशनकावे। औशनं पुरस्ताद् भवति कावम् उपरिष्टात्। ताव् एतत् पितापुत्राव् एव नावम् अजतः। - - - -जै.ब्रा. २.४२१
४४अथौशनम् अन्त्यं सामान्त्येन साम्नान्त्यं स्वर्गं लोकम् अश्नवामहा इति। अथ रथन्तरम्। - - -जै.ब्रा.३.१५ ४५अथौक्ष्णोरन्ध्रम्। उक्ष्णो वै रन्ध्रः काव्यो ऽकामयताद्भिः प्रतीपं स्वर्गं लोकम् आरोहेयम् - - - - -। स ह वाव रौमण्वतः। स एवोशना काव्यः। स ह स यमुनयैव प्रतीपं स्वर्गं लोकम् आरोहत्। - जै.ब्रा ३.१५० ४६अथौशनम् (प्रेष्ठं वो इति)। उशना वै काव्यो देवेष्व् अमर्त्यं गन्धर्वलोकम् ऐच्छत। स एतत् सामापश्यत्। तेनास्तुत। ततो वै स देवेष्व् अमर्त्यं गन्धर्वलोकम् आश्नुतैतं रोमण्वन्तम्। ते हैते काव्या:। - - - अग्निर् वै देवेष्व् अवसत्। तं देवा नाप्रीणन्। सो ऽप्रीयमाण उशनसं काव्यम् आगच्छत्। तम् अब्रवीद् ऋषे प्रीणीहि मा, ऽप्रीतो वा अस्मीति। तम् अकामयत - प्रीणीयाम् एनम् इति। स एतत् सामापश्यत्। तेनैनम् अप्रीणात्। प्रेष्ठं वो अतिथिम् स्तुषे मित्रम् इव प्रियम् इति - जै.ब्रा. ३.२३२ ४७दिवि हि सोमः, वृत्रो वै सोम आसीत्। तस्यैतच्छरीरम् - यद्गिरयो, यदश्मानः। तदेषोऽशाना नामौषधिर्जायते - इति ह स्माह श्वेतकेतुरौद्दालकिः। तामेतदाहृत्याभिषुण्वन्ति। - शतपथ ब्रा. ३.४.३.१३,४.२.५.१५ ४८अथ वायुरौशनं प्रावृहत। तद्वै स प्राणवीर्य्यं प्रावृहत प्राणावा औशनं। - - - वायुर्वा उशँस्तस्यैतदौशनं। उशना वै काव्योऽसुराणां पुरोहित आसीत्तं देवा कामदुघाभिरुपामन्त्रयन्त तस्मा एतान्यौशनानि प्रायछन् कामदुघा वा औशनानि। कामदुघा एनमुपतिष्ठन्ते य एवं वेद। - तां. ब्रा. ७.५.१६ रश्मी वा एतौ यज्ञस्य यदौशनकावे देवकोशो वा एष यज्ञमभिसमुब्जितो यदेते अन्ततो भवतो यज्ञस्यारिष्ट्यै – तांब्रा. ८.५.१६ ४९माध्यन्दिन पवमानस्य सामानि : यौधाजयं भवति यदेव यौधाजयस्य ब्राह्मणं। औशनं यदौशनस्य स्तोमः। तां. ब्रा. ११.२.११ ५०आप्ते षडहे छन्दाँसि स्तोमान् कृत्वा प्रयन्ति। प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाण इति (ऋ. ९.९७.७)गायत्र्या रूपेण प्रयन्ति। - तां. ब्रा. १४.१.२ ५१उक्थानां प्रथमस्य स्तोत्रीयं तृचम् : प्रेष्ठं वो अतिथिमित्यातिथ्यस्यैव तद्रूपं क्रियते। - तां. ब्रा. १४.१२.१ ५२प्रथमस्योक्थस्य साम : औशनं भवति।उशना वै काव्योऽकामयत यावानितरेषां काव्यानां लोकस्तावन्तँ स्पृणुयामिति स तपोऽतप्यत स एतदौशनमपश्यत्तेन तावन्तं लोकमस्पृणोद्यावानितरेषां काव्यानामासीत्तद्वाव स तर्ह्यकामयत कामसनि सामौशनं काममेवैतेनावरुन्धे। - तां.ब्रा. १४.१३.४ ५३अग्निर्देवानां दूत आसीदुशना काव्योऽसुराणां तौ प्राजापतिं प्रश्नमैताँ स प्रजापतिरग्निं दूतं वृणीमह इत्यभि पर्यावर्तत ततो देवा अभवन्पराऽसुरा - - -तै.सं. २.५.८.५ ५४उशना ह काव्योऽसुराणां पुरोहित आस। स ह देवानामन्नमशित्वा परिदंद्रे। स हैक्षत। कथं नु तेन यज्ञक्रतुना यजेयं येनेष्ट्वा पाप्मानमपहन्यामिति। स एतमुशनस्तोमं यज्ञक्रतुमपश्यत्। तेनेष्ट्वा पाप्मानमपाहत। तेन पाप्मानमपजिघांसमानो यजेत। उदरव्याधितश्च। - - - - - - - -उशना यत्सहस्यैरयातं (ऋ. ५.२९.९) वरिवस्यन्नुशने काव्याय (ऋ.६.२०.११) इति उशनवती तदेतस्याह्नो रूपम्। शांखा. श्रौ.सू.१४.२७.१ ५५स हैक्षत पाप्मानमपहत्य कथं नु तेन यज्ञक्रतुना यजेयं येनेष्ट्वान्नाद्यमाप्नुयामिति। स एतमुत्तरमुशनस्तोमं यज्ञक्रतुमपश्यत्। तेनेष्ट्वान्नाद्यमाप्नोत्। - - - - - शांखा. श्रौ. सू. १४.२८.१ ५६आतिथ्यायाँ गायत्रीसामौशनम्। - द्राह्या.श्रौ. सू. २.२.२४ ५७गवामयनम् : औशनकावे अन्त्ये। - द्राह्या.श्रौ.सू. ८.१.२२ ५८अभिवायुमित्यौशनम् (सा. १४२६) - द्राह्या.श्रौ.सू. ८.२.१५ ५९उशनसस्तोमेन गरगीर्णमिवाऽऽत्मानं मन्यमानो यजेत। उशना यत्सहस्यै३रयातं - - - - आश्वलायन श्रौ.सू. ९.५.१ ६०पुनस्तोमौ : इन्द्र द्वारा सूर्यवर्चा गन्धर्व की जाया से असुरों पर देवों की विजय न होने का कारण पूछना। - - - - -स(इन्द्रो)ह गत्वैवोशनसं काव्यमुपमन्त्रयां चक्रे जयन्त्याश्च दुहित्रा चतसृभिश्च कामदुघाभिः स हाज्ञप्तो ऽसुरेभ्यो ऽधि देवानुपसमियाय ततो ह वा एतद्देवा असुरान्महासंग्रामे जिग्युः। स ह गुरुरिव मेने गरमिव गीर्त्वा बहु वित्तमसुराणां प्रतिगृह्य स होवाच गुरुरिवास्मि गरमिव गीर्त्वा बहुवित्तमसुराणां प्रतिगृह्य हन्त मा याजयेति तं द्वादशस्तोमेनाग्निष्टोमेन बृहस्पतिराङ्गिरसो याजयां चकार तेन हेष्ट्वोर्ध्वँ हिरण्यमुज्जगार तद्ध दृष्ट्वेक्षां चक्रे हन्ताहमिदमसुरेभ्यो निर्हराणीति तद्धेन्द्र आज्ञायैव शिलां चकार ते ह वा एत औशनसा नाम कुरुक्षेत्रे पर्वतगाः।- - - - - - -बौ. श्रौ. सू. १८.४७ ६१औशनसा दिश्याः प्रशस्ताः सुरूपाक्षा महोदरा विगद्वकाः सुबुध्या निहिता गुहा इत्येत औशनसा गौतमास्तेषां त्र्यार्षेयः प्रवरो भवत्याङ्गिरस गौतमौशनसेति होतोशनसवद्गोतमवदङ्गिरोवदित्यध्वर्युः। - बौ.श्रौ. प्रवर१४ ६२आदित्यमौशनसं वाऽवस्थाय प्रयोधयेत्। - आश्वलायन गृह्य सू. ३.१२.१६
First published : 1999 AD; published on internet : 14-1-2008 AD( Pausha shukla shashthee, Vikramee Samvat 2064) |