PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel U to Uu)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Udaana - Udgeetha  (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.)

Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. )

Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.)

Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. )

Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.)

Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.)

Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.)

Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) 

Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)

 

 

 

उर्वशी

टिप्पणी : ऋग्वेद १०.९५ सूक्त पुरूरवा व उर्वशी के वार्तालाप से सम्बन्धित है जिसका आरंभिक पद हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे इत्यादि है ( पुराणों में अधिकांश स्थानों पर हये जाये के स्थान पर अये जाये पाठ किया गया है ) । ऋग्वेद के इस सूक्त की व्याख्या का प्रयत्न शतपथ ब्राह्मण ११.५.१.१, बौधायन श्रौत सूत्र १८.४४ तथा बृहद् देवता ७.१४७ में किया गया है । इन ग्रन्थों में उपलब्ध पुरूरवा - उर्वशी की कथा तथा पुराणों की कथा में पर्याप्त साम्य है । उर्वशी - पुरूरवा आख्यान को समझने की कुंजी हमें मैत्रायणी संहिता ३.९.५ से प्राप्त होती है जहां उर्वशी को वाक् तथा पुरूरवा को प्राण कहा गया है । इनके मिथुन से आयु रूपी पुत्र का जन्म होता है । वैदिक साहित्य में वाक् और प्राण के मिथुन के व्यापक उल्लेख मिलते हैं । बृहदारण्यक उपनिषद ५..१ के अनुसार वाक् धेनु है , प्राण ऋषभ है और मन इनका वत्स है ( इसके विपरीत , बृहदारण्यक उपनिषद १..१ तथा १.५.७ में वाक् को माता , मन को पिता और प्राण को प्रजा कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण १४.४.१.२३ में वाक् को ब्रह्म कहा गया है जिसका पति प्राण रूपी ब्रह्मणस्पति है । शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.९ तथा ६.३.१.१९ में भी प्राण को वाचस्पति कहा गया है । यदि उर्वशी - पुरूरवा आख्यान की व्यावहारिकता पर ध्यान दिया जाए तो उर्वशी व पुरूरवा के मिथुन से , अथवा वाक् और प्राण के मिथुन से वास्तविक प्राप्ति आयु की होती है , अमृत आयु की होती है । वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि यह कैसे पता लगेगा कि आयु की प्राप्ति हो गई है ? इसका चिह्न यह है कि अशना / क्षुधा व पिपासा का शमन हो जाएगा । अशना व पिपासा की अनुभूति प्राण अथवा श्वास द्वारा होती है । यदि पुरूरवा रूपी प्राण का संयोग उर्वशी रूपी वाक् से हो जाए तो अमृत आयु की प्राप्ति हो सकती है । शतपथ ब्राह्मण १.४.१.२ का परोक्ष कथन है कि वाक् और प्राण मिलकर ओंकार को , प्रणव को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं । यह ओंकार ही अमृतत्व लाता है । ओंकार की अभिव्यक्ति करने वाली वाक् का स्वरूप कैसा होगा, यह उर्वशी के माध्यम से चित्रित किया गया है । यास्क निरुक्त ५.१३ में उर्वशी शब्द की ३ निरुक्तियां दी गई हैं - जो उरु को अश्नुत / व्याप्त करती है , जो ऊरुओं द्वारा व्याप्त करती है तथा उरु जिसके वश में है । अतः उर्वशी को समझने के लिए उरु शब्द को सम्यक् प्रकार से समझना आवश्यक होगा । ऋग्वेद १.९३.६ , ६.२३.७ , ७.३३.५ , ७.६०.९ , ७.८४.२ , ७.९९.४ , १०.१८०.३ आदि में ॐ लोक को उरु बनाने के उल्लेख आए हैं । इसके अतिरिक्त , अथर्ववेद १०.७.३५ आदि में उरु अन्तरिक्ष के भी व्यापक उल्लेख आए हैं । शतपथ ब्राह्मण १.२.२.८ में पुरोडाश का उरु प्रथन करने का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ४.५.१.१६ आदि में यज्ञ या विष्णु को उरु करने का निर्देश है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.७.४ के अनुसार जो लोक सूर्य से नीचे हैं , वह उरु हैं और अन्तवान हैं , जबकि वह लोक जो सूर्य से परे हैं , वह वरीय और अनन्तवान हैं  । उरु का साधारण अर्थ महत् , विस्तीर्ण आदि किया जाता है । लेकिन आधुनिक भौतिक विज्ञान में अनिश्चितता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए यह सोचने की आवश्यकता है कि उरु / महत् का यह विकास ऊर्जा के सापेक्ष है अथवा स्थान के सापेक्ष ? आधुनिक ठोस अवस्था भौतिक विज्ञान के अनुसार यदि द्रव्य सूक्ष्म अवस्था में हो और उसके घटकों की गति को स्थान के सापेक्ष सीमित कर दिया जाए तो उस द्रव्य के घटकों के ऊर्जा तल परस्पर मिलकर एक व्यापक पट्ट का निर्माण कर लेते हैं (

उदाहरण के लिए देखें ` फिजिकल प्रिंसिपल्स आंफ मैग्नीटिज्म ' , ले. ब्राइल्सफोर्ड (डी. वान नोस्ट्रेण्ड कम्पनी , लंदन , १९६६ ) , पृ.६९) । वैदिक साहित्य में इस स्थिति को उरु कहा गया है । उरु स्थिति में घटकों के ऊर्जा तलों का अपना कोई अस्तित्व नहीं है , सब ऊर्जा तल एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं । पुराणों में इस स्थिति का स्पष्टीकरण सह शब्द द्वारा किया गया है - यहां सब ऊर्जा तल एक दूसरे का  सहयोग कर रहे हैं । पुराणों में नारायण से उर्वशी की उत्पत्ति की कथा में सहकार शब्द का चुपचाप समावेश कर दिया गया है । इसके अतिरिक्त सूर्य रथ में उर्वशी की स्थिति भी सह मास में ही कही गई है । डा. फतहसिंह के अनुसार सह स्थिति विज्ञानमय कोश में होती है । ऋग्वैदिक ऋचा हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे इत्यादि से प्रतीत होता है कि वेद का ऋषि विज्ञानमय कोश की सह स्थिति को मनोमय कोश में अवतरित कराना चाहता है ।

          लक्ष्मीनारायण संहिता में उर्वशी को पूर्व जन्म में शुनी कहा गया है जो गृह में सोपान / सीढी पर बैठी रहती है । वैदिक साहित्य में वाक् को पदों वाली कहा गया है (गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी । अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ।। - ऋ. १.१६४.४१) । ऐसा हो सकता है कि वाक् के इन पदों का चित्रण सोपान से किया गया हो । जब वाक् उर्वशी बनेगी तो यह सब पद मिलकर एक हो जाएंगे । पुराणों में जो उर्वशी कुण्ड का व्यापक उल्लेख है , वह वाक् की विज्ञानमय कोश में स्थिति का , वाक् समुद्र का प्रतीक हो सकता है ।

           उर्वशी - पुरूरवा आख्यान के संदर्भ में पुरूरवा शब्द की व्याख्या उणादि कोश ४.२३ में पुरु - रौति अर्थात् जो बहुत से शब्द करता है, के रूप में की गई है । चूंकि मैत्रायणी संहिता ३.९.५ में पुरूरवा को प्राण का प्रतीक कहा गया है , अतः यह कहा जा सकता है कि यदि प्राण विज्ञानमय कोश के वाक् - समुद्र से ऊर्जा ग्रहण करने में समर्थ हो जाए तो अमृत आयु की प्राप्ति हो सकती है । यह उल्लेखनीय है कि कईं वैदिक ऋचाओं में उरु और पुरु शब्दों का साथ- साथ उल्लेख आया है ( ऋग्वेद ६.६२.१, ८.२५.१६ तथा ५.७०.१ ) । पुरु को इस देह रूपी पुर तक सीमित प्राण मान सकते हैं जबकि उरु को ब्रह्माण्ड में व्याप्त ऊर्जा या वाक् । पुरूरवा - उर्वशी कथा के शेष तथ्यों की व्याख्या अन्वेषणीय है ।

          पौराणिक साहित्य में उर्वशी के दर्शन से मित्रावरुण के वीर्य स्खलन और वसिष्ठ व अगस्त्य मुनियों की उत्पत्ति के सार्वत्रिक आख्यान के संदर्भ में ऋग्वेद ७.३३.११ दृष्टव्य है । पुराणों में सह व सहस्य मास में सूर्य रथ में उर्वशी व पूर्वचित्ति अप्सराओं की उपस्थिति का सार्वत्रिक उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण ८.६.१.११ तथा तैत्तिरीय संहिता ४.४.३.२ आदि में इस आख्यान का रूप यह है कि नाकसद् इष्टि, जो आत्मा का प्रतीक है , के पश्चात् पंचचूडा इष्टि की जाती है जो प्रजा का , अतिरिक्त ऊर्जा का प्रतीक है । अतः यह कहा जा सकता है कि पुराणों में सूर्य रथ अतिरिक्त ऊर्जा का प्रतीक है , जबकि स्वयं सूर्य आत्मा का प्रतीक हो सकता है । कुछ भाष्यकारों ने यह कहने का प्रयत्न किया है कि उर्वशी व पुरूरवा के जो ६ या ८ पुत्र कहे जाते हैं , वह पंचचूडा अप्सराओं और पुरूरवा के पुत्र हैं । शतपथ प्राह्मण ८.६.१.२० में उर्वशी व पूर्वचित्ति अप्सराओं को आहुति व दक्षिणा कहा गया है । उर्वशी के आहुति नामकरण की व्याख्या अपेक्षित है । भागवत पुराण में पुरूरवा की वैराग्योक्ति में तो इन्द्रियों में विषयों की आहुति से काम के प्रज्वलित होने का उल्लेख आता है, जबकि वास्तव में आहुति से देवों का आह्वान किया जाता है । पुराणों में नारायण ऋषि द्वारा पहले चित्र रूप में उर्वशी की कल्पना का उल्लेख आता है । हो सकता है कि यह चित्र चित्त /चित्ति और पूर्वचित्ति से सम्बन्धित हो । यह भी अन्वेषणीय है कि पुराणों के मित्रावरुण आख्यान में उर्वशी द्वारा वरुण को चित्त / हृदय तथा मित्र को तनु दान से क्या तात्पर्य है ?

          यह महत्वपूर्ण है कि अग्निहोत्र आदि किसी भी कर्मकाण्ड में उर्वशी - पुरूरवा आख्यान की उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि उर्वशी की प्राप्ति के लिए ही पुरूरवा ने अग्नि को गार्हपत्य , आहवनीय आदि नामों से त्रेधा विभाजित किया था । अग्नि के यह तीन रूप कर्मकाण्ड के अभिन्न  अंग हैं ।

प्रथम लेखन : ५-८-२००७ ई.

 

आधुनिकविज्ञाने अनिश्चितता सिद्धान्तः अस्ति यस्यानुसारेण सूक्ष्म कणस्य स्थिति एवं संवेगयोः प्रतथ निर्धारणस्य सीमा अस्ति। यदि स्थितेः निर्धारणं प्रतथं भवति, तदा संवेगस्य निर्धारणे अनिश्चितता भविष्यति। अथवा अस्य प्रतीपम्। स्थिति एवं संवेगस्य प्रस्थापनं काल एवं ऊर्जायाः प्रतथनिर्धारणरूपे अपि कर्तुं शक्यन्ते। किन्तु वैदिकसाहित्ये अनिश्चितता सिद्धान्तः कणोपरि आधारितः नास्ति। अयं तन्त्रोपरि आधारितः अस्ति। एकः तन्त्र उर्वशी अस्ति यस्मिन् उरुभवनस्य संभावना अस्ति। द्वितीयः तन्त्रः पुरूरवा अस्ति यस्मिन् सूक्ष्मभवनस्य, अणिमानस्य संभावना अस्ति।

 

The anecdote of Urvashi and Puruuravaa assumes importance from the fact that there exists a hymn in rigveda which is the dialogue between the two. There is a broad similarity between puraanic and braahmanical texts on the description of the anecdote of Urvashi and Puruuravaa. The key to understand this anecdote can be found in one vedic text Maitraayani Samhitaa where it is mentioned that Urvashi is Vaak/inner speech and Puruuravaa is the life force/praana.  The amalgamation of the two gives birth to immortality/aayu( At other places, mind has been mentioned as the son of the two. There are other variations also, where Vaak is mother, mind is father and praana is the progeny).  How will it be known that immortality/aayu has been born? It’s sign is that hunger and thirst will be quenched. A vedic text states that Vaak and Praana unite to give birth to Omkaara. The classical book of interpretation of vedic words gives 3 interpretations for the word Urvashi. One, which pervades in a vast span, the second – which engulfs the thighs, and the third which controls the vast span. Hence, it becomes imperative to understand the word Uru/broad for understanding of word Urvashi. Rigvedic verses instruct repeatedly to make the Uum loka broad/uru. At another place, it has been mentioned that the loka which is below sun is uru and mortal, while that which is above sun is immortal.

One can take the help of modern science in understanding the word uru/broad. The uncertainty principle gives us an opportunity to think whether this broadness is with respect to space or energy. In modern solid state sciences, if the matter is in fine state and the movement of it’s components is restricted with respect to space, then the energy levels of the components of that matter combine to form a broad band(e.g., see ‘Physical Principles of Magnetism’ by Brilsford, page 69). Vedic literature refers to this state as uru. In this state, the individual energy levels of components do not exist, they have merged in one band. Puraanic texts refer to this state as Saha, coexistence, where all are helping each other. This word appears in the story of Urvashi. This is a super – mental state and it is desirable that this state descend on mental level also.

The word Puruuravaa can be interpreted as one who makes a lot of noise. There are few rigvedic verses where uru and puru are mentioned simultaneously. It can be said that puru is confined to this gross body while uru is pervading in a vast span.

Expalnation of the rigvedic hymn of Urvashi and Puruuravaa can be found in the book :

Veda Vidyaa kaa Punar Uddhaara(Rediscovery of vedic sciences)

by

Fatah Singh

( Veda Sansthaan, C – 22, Rajouri Garden, New Delhi – 110027, price Rs. 200/-)

संदर्भ

उर्वशी

१मर्तानां चिदुर्वशीदरकृप्रन् वृधे चिदर्य उपरस्यायोः - ऋ. ४.२.१८

२अभि न इळा यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु। उर्वशी वा बृहद्दिवा गृणानाऽभ्यूर्ण्वाना प्रभृथस्यायोः ॥ -ऋ. ५.४१.१९

३उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या ब्रह्मन् मनसोऽधि जातः। द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वे देवाः पुष्करे त्वाददन्त॥ -ऋ. ७.३३.११

४अथाधरारणिं निदधाति - उर्वश्यसि - इति। अथोत्तरारण्याऽऽज्यविलापनीमुपस्पृशति - आयुरसि - इति। तामभिनिदधाति - पुरूरवा असि - इति। उर्वशी वाऽअप्सराः। पुरूरवाः पतिः।  अथ यत् तस्मान्मिथुनादजायत - तदायुः। - श. ३.४.१.२२

५आश्वत्थ्योररण्योरुत्पत्तिख्यापकं ब्राह्मणम् : उर्वशी हाप्सरा पुरूरवसमैडं चकमे। तं ह विंदमानोवाच। त्रिः स्म माऽह्नो वैतसेन दंडेन हतात्। अकामां स्म मा निपद्यासै।- - - - श. ११.५.१.१

६पञ्चचूडेष्टकोपधानम् : अथ मध्ये। अयमुपर्यर्वाग्वसु इति। पर्जन्यो वाऽउपरि।- - - - - उर्वशी च  पूर्वचित्तिश्चाप्सरसौ इति। दिक्चोपदिशा चेति ह स्माह माहित्थिः। आहुतिश्च तु ते दक्षिणा च। - -  - श. ८.६.१.२०

७क्रय प्रदेश को जाती हुई सोमक्रयणी गौ के पद संग्रह का अभिधान : - - - सं देवि देव्योर्वश्या पश्यस्व त्वष्टीमती ते सपेय सुरेता रेतो दधाना वीरं विदेय तव संदृशि माऽहँ रायस्पोषेण वि योषम्। - तै. सं. १.२.५.२

८यूपे पशुनियोजनार्थमुपाकरणाभिधानम् - - - - - -अग्नेर्जनित्रमसि वृषणौ स्थ उर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवा घृतेनाक्ते वृषणं दधातां - - - - - तै. सं. १.३.७.१

९चोडाख्येष्टकाभिधानम् : अयमुपर्यर्वाग्वसुस्तस्य - - - -उर्वशी च पूर्वचित्तिश्चाप्सरसौ - - -तै. सं.४.४.३.२

१०अग्निमन्थनाभिधानम् :अग्नेर्जनित्रमसीत्याहाग्नेर्ह्येतज्जनित्रं वृषणौ स्थ इत्याह वृषणौ ह्येतावुर्वश्यस्यायुरसीत्याह मिथुनत्वाय घृतेनाक्ते वृषणं दधाथामित्याह - - - - - तै. सं. ६.३.५.२

११उर्वशी वै पुरूरवस्यासीत् सान्तर्वती देवान् पुनः परैत् सोऽदो देवेष्वायुरजायत तामन्वागच्छत् तां पुनरयाचत तामस्मै न पुनरददुस्तस्मा आयुं प्रायच्छन्नेष आयुरित्यग्निं चोख्यमुखायाँ समुप्यैतमाधत्स्व तेन प्रजनिष्यस इति स - - - - - - - काठ. सं. ८.१०

१२धिष्ण्यम् : उर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवा असीति माता वा उर्वश्यायुर्गर्भः पिता पुरूरवा रेतो घृतं यद्घृतेनारणी समनक्ति मिथुन एव रेतो दधाति - काठ. सं. २६.७

१३- - -वृषणौ स्थ इत्यभिप्राण्यारण्यौ। तयोरुपर्यधरारणिम्। दक्षिणतो मूलान्। पश्चात्प्रजननामुर्वश्यसीत्यायुरसीति।- - --- - - -कौशिकसूत्र ६९.१७

 १४पशुबन्धः : अथारणी आदत्त उर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवा इत्यथैने आज्यस्थाल्याँ समनक्ति घृतेनाक्ते वृषणं दधाथामित्यथ प्रजातीर्वाचयति - - - - - बौधा. श्रौ. सू. ४.५

१५अग्निष्टोम प्रातः सवनम् : तोते राय इति यजमान पत्न्या अथ पत्नीँ सोमक्रयण्या समीक्षयति सं देवि देव्योर्वश्या पश्यस्वेत्यथ पत्नी यजमानमीक्षते त्वष्टीमती ते सपेय सुरेता रेतो दधाना - - - - -बौधा. श्रौ. सू. ६.१३

१६वृषणौ स्थ इति दूर्वे वा शकले वा निदध्यादुर्वश्यसीत्यधरारणिमाददीत पुरूरवा इत्युत्तरारणिमथैने - - - - - - बौधा. श्रौ. सू. २०.२७

१७सदोपसदौ : पुरूरवा ह पुरा ऐडो राजा कल्याण आस तँ होर्वश्यप्सराभिदध्यौ तँ संवत्सरं कामयमानानुचचारैवf ह स्म वै पूर्वे ऽभिश्राम्यन्ति - - - -बौधा. श्रौ. सू. १८.४४

१८अपि वाग्निं मथित्वोपाकुर्यात्। अग्नेर्जनित्रमसीत्यधिमन्थनं शकलं निदधाति। वृषणौ स्थ इति प्राञ्चौ दर्भौ। उर्वश्यसीत्यधरारणिमादत्ते। पुरूरवा इत्युत्तरारणिम्। - - - -आप. श्रौ. सू. ७.१२.११

१९सं देवि देव्योर्वश्या पश्यस्वेति सोमक्रयण्या पत्नीं संख्यापयति। त्वष्टीमती ते सपेयेति पत्नी- - - -आप. श्रौ. सू. १०.२३.६

२०चातुर्मास्यानि : अग्नेर्जनित्रमिति शकलमादाय वेद्यां करोति। वृषणाविति कुशतरुणे तस्मिन्। उर्वश्यसीत्यधरारणिं तयो। आयुरसीत्युत्तरयाऽऽज्यस्थालीfसँस्पृश्य पुरूरवा इत्यभिनिधानं तया। - कात्या. श्रौ. सू ५.१.२२

२१ तत्तल्लोकेच्छया अप्सरसा उर्वश्या तस्मिन् गोवर्धनाद्रौ तप आतन्यत। - सामरहस्योपनिषद

२२शशपृष्ठात् गौतमः, वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति श्रुतत्वात्। - वज्रसूचिकोपनिषत्

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