PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel U to Uu)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Udaana - Udgeetha  (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.)

Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. )

Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.)

Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. )

Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.)

Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.)

Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.)

Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) 

Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)

 

 

 

उपमन्यु

टिप्पणी : पुराणों में मन्यु के संदर्भ में मुख्य रूप से दो ही शब्दों को लेकर कथाओं का सृजन किया गया है - अभिमन्यु और उपमन्यु । मन्यु के संदर्भ में अभिमन्यु पर टिप्पणी पठनीय है । ऋग्वेद ९.९७.१३-१५ के ऋषि वासिष्ठ उपमन्यु हैं । इसके अतिरिक्त ९.९७.७-९ के ऋषि वासिष्ठ वृषगण: , ९.९७.१०- १२ के वासिष्ठ मन्यु और ९.९७.१६-१८ के वासिष्ठ व्याघ्रपाद हैं । देवता पवमान सोम है । पौराणिक साहित्य में व्याघ्रपाद को उपमन्यु का पिता बना दिया गया है । इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १२.७.२.८ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.११.८ का यह कथन महत्वपूर्ण है कि व्याघ्रलोम होकर आरण्यक पशुओं के मन्यु पर आधिपत्य प्राप्त किया जाता है । पुराणों में यत्र  - तत्र कथाओं में व्याघ्र का उल्लेख आता है और इन कथाओं में भक्ति को पाकर व्याघ्र का रूप सौम्य हो जाता है(द्र. व्याघ्र शब्द पर टिप्पणी) । उपमन्यु पुत्र के रूप में व्याघ्रपाद ने भक्ति को ही प्राप्त किया है । इसकी पुष्टि ऋग्वेद १.१०२.९ ( वैदिक मन्त्रों में उपमन्यु का एकमात्र उल्लेख ) में उपमन्यु के कारु ( स्तुति सूचक ) तथा उद्भिद् विशेषणों से होती है । उद्भिद् अर्थात् जो पृथिवी को फोडकर बाहर निकले , वनस्पति जगत । पुराणों में अन्यत्र वीतमन्यु को उपमन्यु का पिता कहा गया है । अथर्ववेद ६.४२ तथा ६.४३ सूक्त मन्यु व मन्यु - शमन देवताओं के हैं । अथर्ववेद ६.४३.२ का कथन है कि यों तो दर्भ के मूल समुद्र में बहुत फैले रहते हैं , लेकिन जब यह पृथिवी से ऊपर उठने लगे तब मन्युशमन कहा जाता है । यह दर्भ विमन्यु कहलाता है । यह कहा जा सकता है कि पुराणों का वीतमन्यु दर्भ की यह विमन्यु अवस्था ही है । पहले समाधि अवस्था में आनन्द का समुद्र विद्यमान था । समाधि से व्युत्थान की अवस्था में इस आनन्द का क्रमण दर्भ के रूप में दिखाया गया है , ऐसा प्रतीत होता है । मन्युशमन के पश्चात् उपमन्यु की , भक्ति की , स्तुति की अवस्था आती है । समाधि में प्राप्त आनन्द को , शक्ति को व्युत्थान की अवस्था में निचले स्तरों पर अवतरित करना होता है , अपने पाशों को खोलना होता है । यही उपमन्यु द्वारा कृष्ण को पशुपति व्रत प्रदान करना हो सकता है । उपमन्यु द्वारा क्षीर की प्राप्ति भी यही आनन्द समुद्र से अवतरण की अवस्था हो सकती है । ऋग्वेद ९.९७.१४ में भी उपमन्यु ऋषि मधुमान अंशु के अवतरण की कामना करता है । महाभारत आदिपर्व अध्याय ३.२२ में आचार्य धौम्य के शिष्य उपमन्यु की कथा आती है जिसके लिए आचार्य ने भिक्षा से प्राप्त अन्न , गौ दुग्ध , गौ फेन आदि के भक्षण का निषेध कर दिया । तब वह अर्क पत्र भक्षण करने के कारण अन्धा होकर कूप में गिर पडा । तब अश्विनीकुमारों ने उसे भक्षण के लिए दिव्य अपूप प्रदान किए । यह उल्लेखनीय है कि पुराणों में उपमन्यु को धौम्य - अग्रज कहा गया है , जबकि महाभारत में धौम्य - शिष्य । इसके अतिरिक्त , यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि ऋग्वेद ९.९७ सूक्त में मन्यु , उपमन्यु तथा व्याघ्रपाद ऋषियों का क्रम किस आधार पर निश्चित किया गया है । व्याघ्रपाद में पाद शब्द ध्यान देने योग्य है। पादों को व्याघ्र बनाने की आवश्यकता है। शरीर में पादों को शूद्र कहा गया है। अतः शूद्र वृत्ति का कर्त्तव्य व्याघ्र बनकर अपने दोषों का भक्षण करना हुआ।

          पौराणिक कथाओं में उपमन्यु द्वारा क्षीरार्थ तप करते समय शक्र और शिव के दर्शन करने का वैदिक आधार क्या हो सकता है , इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि वैदिक ऋचाओं में इन्द्र के संदर्भ में तो मन्यु का उल्लेख बहुत बार आया है , जैसे ऋग्वेद १.१०१.२ में इन्द्र हर्षयुक्त मन्यु से युक्त होकर शम्बर आदि असुरों का वध करता है । ऋग्वेद १०.७३.१० में तो मन्यु से ही इन्द्र का जन्म कहा गया है । लेकिन पुराणों में इन्द्र के पश्चात् शिव कैसे प्रकट हो गए ? इसका आधार यह प्रतीत होता है कि वैदिक निघण्टु में मन्यु का पद नामों के अन्तर्गत वर्गीकरण किया गया है । ऋग्वेद १.१०४.२ , ६.२५.२ तथा १०.१५२.३ में दास के मन्यु व अमित्र के मन्युओं का उल्लेख है जिनका इन्द्र से नियमन करने की प्रार्थना की गई है । दूसरी ओर , ऋग्वेद २.२४.१४ ४.१७.१० में क्रमशः ब्रह्मणस्पति व इन्द्र द्वारा मन्यु को सत्य बनाने के पश्चात् उनके पराक्रमों का उल्लेख है । मन्यु का यह सत्य रूप पुराणों का शिव हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण ९.१.१.६ में उल्लेख है कि प्रजापति के शिथिल होने पर सब देवता उन्हें त्याग कर चले गए , लेकिन मन्यु ने उन्हें नहीं त्यागा । वह ( करुणा से ? ) रोये । उनके अश्रुओं से शतशीर्षा रुद्र का जन्म हुआ । यह मन्यु और शिव में तादात्म्य के संदर्भ में एक प्रमाण हो सकता है । मन्यु का व्यावहारिक पक्ष क्या है , और मन्यु शब्द का तात्विक अर्थ क्या हो सकता है , इस सम्बन्ध में ब्रह्म पुराण २.९२ में मन्यु को तृतीय नेत्र कहा गया है जो असुरों के विरुद्ध देवों का सेनापति बनता है । अथर्ववेद ९.१२.१३ के अनुसार मन्यु क्रोध का वह रूप है जिसकी उत्पत्ति अण्ड - द्वय से होती है । यह वीर्य में व्याप्त होता है , जबकि साधारण क्रोध की व्याप्ति रक्त में होती है । तृतीय नेत्र के संदर्भ में किसी व्यावहारिक अनुभव के अभाव में यह कहना कठिन है कि  अमित्र का मन्यु कौन सा होगा और सत्य मन्यु कौन सा । लेकिन सत्य मन्यु का अनुमान शिव पुराण ७.२.३ में उपमन्यु द्वारा शिव की ईशान , तत्पुरुष , अघोर आदि ५ मूर्तियों के तत्त्वों के वर्णन के आधार पर लगाया जा सकता है । यह सत्य मन्यु ऐसा है जो अविद्या को विद्या में रूपांतरित कर देता है , अव्यक्त को व्यक्त में । यह आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथिवी , पांचों तत्त्वों में व्याप्त होता है । अथर्ववेद ६.११६.३ में माता , पिता , भ्राता , पुत्रों , पितरों आदि के मन्युओं के हमारे लिए शिव होने की कामना की गई है ।

          मन्यु के शाब्दिक अर्थ के संदर्भ में , डा. फतहसिंह की शैली का अनुसरण करते  हुए मन्यु को मन - ॐ अर्थात् मन की ओंकार की ओर प्रवृत्ति , कहा जा सकता है । मन्यु का वर्गीकरण वैदिक निघण्टु में क्रोध नामों के अन्तर्गत किया गया है । तैत्तिरीय संहिता २.१.३.१, २.२.८.२ तथा काठक संहिता १०.८ में मन्युमान् व मनस्वान् इन्द्र का उल्लेख है जिसके लिए एकादश कपाल निर्वपन का निर्देश है । लेकिन यह उल्लेख भी मन्यु और मन में अन्तर को समझने में कोई स्पष्ट दिशा निर्देश देता प्रतीत नहीं होता । अथर्ववेद ११.१०.१ / ११.८.१ सूक्त का देवता मन्यु है जिसमें मन्यु संकल्प के गृह से आकूति नामक जाया का आवहन करता है । अथर्ववेद ५.१३.६ तथा ६.४२.१ में मन्यु की हृदय में व्याप्ति इस प्रकार है जैसे धनुष पर ज्या । अथर्ववेद ८.३.१२ के अनुसार मन के मन्यु युक्त होने पर जिस शर का जन्म होता है , उससे यातुधानों के हृदय का विदारण किया जाता है ।

 

संदर्भ

१नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः। - ऋ.१.२४.६

२मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे ॥ - ऋ.१.२५.२

३नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे। जिहीत पर्वतो गिरिः ॥ - ऋ.१.३७.७

४इमे चित् तव मन्यवे वेपेते भियसा मही। यदिन्द्र वज्रिन्नोजसा वृत्रं मरुत्वाँ अवधीरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥ - ऋ.१.८०.११

५त्वष्टा चित् तव मन्यव इन्द्र वेविज्यते भियार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥ - ऋ.१.८०.१४

६स मन्युमी: समदनस्य कर्ता ऽस्माकेभिर्नृभिः सूर्यं सनत्। - ऋ.१.१००.६

७यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन् पिप्रुमव्रतम्। -ऋ.१.१०१.२

८देवासो मन्युं दासस्य श्चम्नन् ते न आ वक्षन् त्सुविताय वर्णम् ॥ - ऋ.१.१०४.२

९यद्ध त्यन्मित्रावरुणावृतादध्याददाथे अनृतं स्वेन मन्युना दक्षस्य स्वेन मन्युना। - ऋ.१.१३९.२

१०ब्रह्मद्विषस्तपनो मन्युमीरसि बृहस्पते महि तत् ते महित्वनम् ॥ - ऋ.२.२३.४

११यो नन्त्वान्यनमन्न्योजसोतार्ददर्मन्युना शम्बराणि वि। - ऋ.२.२४.२

१२ब्रह्मणस्पतेरभवद् यथावशं सत्यो मन्युर्महि कर्मा करिष्यतः। - ऋ.२.२४.१४

१३तव त्विषो जनिमन् रेजत द्यौ रेजद् भूमिर्भियसा स्वस्य मन्योः। - ऋ.४.१७.२

१४यदा सत्यं कृणुते मन्युमिन्द्रो विश्वं दृळहं भयत एजदस्मात् ॥ -ऋ.४.१७.१०

१५किमादुतासि वृत्रहन् मघवन् मन्युमत्तमः। अत्राह दानुमातिरः ॥ - ऋ.४.३०.७

१६सं यत् त इन्द्र मन्यव सं चक्राणि दधन्विरे। अध त्वे अध सूर्ये ॥ - ऋ.४.३१.६

१७इति चिन्मन्युमध्रिजस्त्वादातमा पशुं ददे। - ऋ.५.७.१०

१८अग्ने युक्ष्वा हि ये तवाऽश्वासो देव साधवः। अरं वहन्ति मन्यवे ॥ - ऋ.६.१६.४३

१९अध द्यौश्चित् ते अप सा नु वज्राद् द्वितानमद् भियसा स्वस्य मन्योः। - ऋ.६.१७.९

२०आभिः स्पृधो मिथतीररिषण्यन्नमित्रस्य व्यथया मन्युमिन्द्र। - ऋ.६.२५.२

२१बाधसे जनान् वृषभेव मन्युना घृषी मीळह ऋचीषम। - ऋ.६.४६.४

२२इन्द्रो मन्युं मन्युभ्यो मिमाय भेजे पथो वर्तनिं पत्यमानः ॥ - ऋ.७.१८.१६

२३प्र यो मन्युं रिरिक्षतो मिनात्या सुक्रतुमर्यमणं ववृत्याम् ॥ - ऋ.७.३६.४

२४सं यद्धनन्त मन्युभिर्जनासः शूरा यह्वीष्वोषधीषु विक्षु। अध स्मा नो मरुतो रुद्रियासस्त्रातारो भूत पृतनास्वर्यः ॥ - ऋ.७.५६.२२

२५सीक्षन्त मन्युं मघवानो अर्य उरु क्षयाय चक्रिरे सुधातु ॥ - ऋ.७.६०.११

२६उद् वां चक्षुर्वरुण सुप्रतीकं देवयोरेति सूर्यस्ततन्वान्। अभि यो विश्वा भुवनानि चष्टे स मन्युं मर्त्येष्वा चिकेत ॥ - ऋ.७.६१.१

२७न स स्वो दक्षो वरुण ध्रुतिः सा सुरा मन्युर्विभीदको अचित्तिः। - ऋ.७.८६.६

२८यथा नातः पुनरेकश्चनोदयत् तद् वामस्तु सहसे मन्युमच्छवः ॥ - ऋ.७.१०४.३

२९प्र चक्रे सहसा सहो बभञ्ज मन्युमोजसा। विश्वे त इन्द्र पृतनायवो यहो नि वृक्षा इव येमिरे ॥ - ऋ.८.४.५

३०समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः। समुद्रायेव सिन्धवः ॥ - ऋ.८.६.४

३१यदस्य मन्युरध्वनीद् वि वृत्रं पर्वशो रुजन्। अपः समुद्रमैरयत् ॥ - ऋ.८.६.१३

३२तदग्ने द्युम्नमा भर यत् सासहत् सदने कं चिदत्रिणम्। मन्युं जनस्य दूढ्यः ॥ - ऋ.८.१९.१५

३३अतीहि मन्युषाविणं सुषुवांसमुपारणे। इमं रातं सुतं पिब ॥ - ऋ.८.३२.२१

३४अलर्ति दक्ष उत मन्युरिन्दो मा नो अर्यो अनुकामं परा दाः ॥ - ऋ.८.४८.८

३५नहि मन्युः पौरुषेय ईशे हि वः प्रियजात। त्वमिदसि क्षपावान् ॥ - ऋ.८.७१.२

३६स मन्युं मर्त्यानामदब्धो नि चिकीषते। पुरा निदश्चिकीषते ॥ - ऋ.८.७८.६

३७इषा मन्दस्वादु ते ऽरं वराय मन्यवे। भुवत्त इन्द्र शं हृदे ॥ - ऋ.८.८२.३

३८कया ते अग्ने अङ्गिर ऊर्जो नपादुपस्तुतिम्। वराय देव मन्यवे ॥ - ऋ.८.८४.४

३९विश्वास्ते स्पृधः श्नथयन्त मन्यवे वृत्रं यदिन्द्र तूर्वसि ॥ - ऋ.८.९९.६

४०प्र हंसासस्तृपलं मन्युमच्छामादस्तं वृषगणा अयासुः। (मन्यु, उपमन्यु , व्याघ्र|पाद आदि ऋषि)- ऋ.९.९७.८

४१उग्रस्य चिन्मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्यो नम इत् कृणोति ॥ (अक्ष - कितव निन्दा)- ऋ.१०.३४.८

४२नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणां प्रसितौ न्वस्तु ॥ - ऋ.१०.३४.१४

४३आरे मन्युं दुर्विदत्रस्य धीमहि स्वस्त्यग्निं समिधानमीमहे ॥ - ऋ.१०.३५.४

४४अश्वादियायेति यद्वदन्त्योजसो जातमुत मन्य एनम्। मन्योरियाय हर्म्येषु तस्थौ यतः प्रजज्ञ इन्द्रो अस्य वेद ॥ - ऋ.१०.७३.१०

४५यस्ते मन्योऽविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक्। (मन्यु सूक्त) - ऋ.१०.८३.१

४६त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धृषिता मरुत्वः। (मन्यु सूक्त) - ऋ.१०.८४.१

४७मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ॥ - ऋ.१०.८७.१३

४८यदस्य मन्युरधिनीयमानः शृणाति वीळु रुजति स्थिराणि ॥ - ऋ.१०.८९.६

४९इन्द्रस्यात्र तविषीभ्यो विरप्शिन ऋघायतो अरंहयन्त मन्यवे। - ऋ.१०.११३.६

५०अग्ने मन्युं प्रतिनुदन् परेषामदब्धो गोपाः परि पाहि नस्त्वम्। - ऋ.१०.१२८.६

५१श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवेऽहन्यद्वृत्रं नर्यं विवेरपः। - ऋ.१०.१४७.१

५२वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासतः ॥ - ऋ.१०.१५२.३

५३ततस्परि ब्रह्मणा शाशदान उग्रस्य मन्योरुदिमं नयामि ॥ - अथर्ववेद१.१०.१

५४नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वं ह्युग्र निचिकेषि द्रुग्धम्। सहस्रमन्यान् प्र सुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥ - अ.१.१०.२

५५यश्च सापत्न: शपथो जाम्याः शपथश्च यः। ब्रह्मा यन्मन्युतः शपात् सर्वं तन्नो अधस्पदम् ॥ - अ.२.७.२

५६असितस्य तैमातस्य बभ्रोरपोदकस्य च। सात्रासाहस्याहं मन्योरव ज्यामिव धन्वनो वि मुञ्चामि रथाf इव ॥ - अ.५.१३.६

५७तीक्ष्णेषवो ब्राह्मणा हेतिमन्तो यामस्यन्ति शरव्यां न सा मृषा। अनुहाय तपसा मन्युना चोत दूरादव भिन्दन्त्येनम् ॥ - अ.५.१८.९

५८अशत्र्विन्द्रो अभयं नः कृणोत्वन्यत्र राज्ञामभि यातु मन्युः ॥ - अ.६.४०.२

५९अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः। यथा संमनसौ भूत्वा सखायाविव सचावहै ॥ (दे.मन्युः) - अ.६.४२.१

६०अयं दर्भो विमन्युकः स्वाय चारणाय च। मन्योर्विमन्युकस्यायं मन्युशमन उच्यते ॥ (दे. मन्युशमनम्) - अ.६.४३.१

६१अव मन्युरवायताव बाहू मनोयुजा। - अ.६.६५.१

६२यावन्तो अस्मान् पितरः सचन्ते तेषां सर्वेषां शिवो अस्तु मन्युः ॥ - अ.६.११६.३

६३ब्रध्नः समीचीरुषसः समैरयन्। अरेपसः सचेतसः स्वसरे मन्युमत्तमाश्चिते गोः ॥ - अ.७.२२.२

६४अपाञ्चौ त उभौ बाहू अपि नह्याम्यास्यम्। अग्नेर्देवस्य मन्युना तेन तेऽवधिषं हविः ॥ अपि नह्यामि ते बाहू अपि नह्याम्यास्यम्। अग्नेर्घोरस्य मन्युना तेन तेऽवधिषं हविः ॥ - अ.७.७०.४/ ७.७३.४

६५त्वाष्ट्रेणाहं वचसा वि त ईर्ष्याममीमदम्। अथो यो मन्युष्टे पते तमु ते शमयामसि ॥ - अ.७.७४.३ /७.७८.३

६६इन्द्रेण मन्युना वयमभि ष्याम पृतन्यतः। घ्नन्तो वृत्राण्यप्रति ॥ - अ.७.९३.१ह्न७.९८.१

६७ज्यायान् निमिषतोऽसि तिष्ठतो ज्यायान्त्समुद्रादसि काम मन्यो। ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ - अ.९.२.२३

६८क्रोधो वृक्कौ मन्युराण्डौ प्रजा शेपः ॥ - अ.९.७.१३ह्न९.१२.१३

६९यन्मन्युर्जायामावहत् संकल्पस्य गृहादधि। क आसं जन्याः के वराः क उ ज्येष्ठवरोऽभवत्~ ॥ (दे.मन्युः) - अ.११.८.१ह्न ११.१०.१

७०यत् त्वा क्रुद्धाः प्रचक्रुर्मन्युना पुरुषे मृते। सुकल्पमग्ने तत् त्वया पुनस्त्वोद् दीपयामसि ॥ - अ.१२.२.५

७१य आर्षेयेभ्यो याचद्भ्यो देवानां गां न दित्सति। आ स देवेषु वृश्चते ब्राह्मणानां च मन्यवे ॥ - अ.१२.४.१२

७२ये वशाया अदानाय वदन्ति परिरापिण:। इन्द्रस्य मन्यवे जाल्मा आ वृश्चन्ते अचित्त्या ॥ - अ.१२.४.५१

७३स यद्देवाननु व्यचलदीशानो भूत्वानुव्यचलन्मन्युमन्नादं कृत्वा। मन्युनान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥ - अ.१५.१४.१९

७४नमो वः पितरो भामाय नमो वः पितरो मन्यवे ॥ - अ.१८.४.८२

७५यन्मे छिद्रं मनसो यच्च वाचः सरस्वती मन्युमन्तं जगाम। विश्वैस्तद् देवैः सह संविदानः सं दधातु बृहस्पतिः ॥ - अ.१९.४०.१

७६समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः। समुद्रायेव सिन्धवः ॥ - अ.२०.१०७.१

७७स्वप्नं तन्द्रीं मन्युम् अशनयाम् अक्षकाम्यां स्त्रीकाम्याम् इति। एते ह वै पाप्मानः पुरुषम् अस्मिन् लोके सचन्ते। - जै.ब्रा.१.९८

७८अथानुमन्त्रयेत प्राणैर् अमुष्य प्राणान् वृङ्क्ष्व। तक्षणेन तेक्षणीयसायुर् अस्य प्राणान् वृङ्क्ष्व। क्रुद्ध एनं मनुन्या दण्डेन जहि। धनुर् एनम् आतत्येष्वा विध्य इति। - जै.ब्रा.१.१२९

७९षड् वै पुरुषे पाप्मानष् षड् विषुवन्त स्वप्नश् च तन्द्री च मन्युश् चाशनया चाक्षकाम्या च स्त्रीकाम्या च। - जै.ब्रा.२.३६३

८०यद् एको ऽध्यगच्छद् यद् एको यद् एकस् तद् अस्य मन्यौ योनाव् असिञ्चन्। तत इन्द्रस् संभवत्~। तद् एषाभ्यनूच्यते - अश्वाद् इयायेति यद्वदन्त्य् ओजसो जातम् उत मन्य एनम्। मन्योर् इयाय हर्म्येषु तस्थौ यतः प्रजज्ञ इन्द्रो अस्य वेद इति। मन्योर् इयायेति यद् अस्य मन्यौ योनाव् असिञ्चन्। हर्म्येषु तस्थाव् इति हृदयान्य् उ वै हर्म्याणि। - - - जै.ब्रा.३.३६५

८१प्रजापतेर्विस्रस्ताद्देवता उदक्रामन्। तमेक एव देवो नाजहात् - मन्युरेव। सोऽस्मिन्नन्तरविततोऽतिष्ठत्। सोऽरोदीत्। तस्य यान्यश्रूणि प्रास्कन्दन् - तान्यस्मिन्मन्यौ प्रत्यतिष्ठन्। स एव शतशीर्षा रुद्रः समभवत्~ - सहस्राक्षः शतेषुधिः। - - - -मा.श.९.१.१.६

८२नमस्ते रुद्र मन्यवे इति। य एवास्मिन्त्सोऽन्तर्मन्युर्विततोऽतिष्ठत् - तस्मा एतन्नमस्करोति। - - - मा.श.९.१.१.१४

८३सौत्रामणी : व्याघ्र|लोमानि भवंति। मन्युमेव राज्यमारण्यानां पशूनामवरुंधे। - मा.श.१२.७.२.८

८४पुनराधानमन्त्राः : यत्त्वा क्रुद्धः परोवप मन्युना यदवर्त्या। सुकल्पमग्ने तत्तव पुनस्त्वोद्दीपयामसि। यत्ते मन्युपरोप्तस्य पृथिवीमनु दध्वसे। आदित्या विश्वे तद्देवा वसवश्च समाभरन्। - तै.सं.१.५.३.२

८५- - - यत्ते मन्युपरोप्तस्येत्याह देवताभिरेव एनँ सं भरति वि वा एतस्य यज्ञश्छिद्यते योऽग्निमुद्वासयते - - - -तै.सं.१.५.४.२

८६राजसूयविषयस्य रथेन विजयस्याभिधानम् (वाराही उपानह का त्याग) : पशूनां मन्युरसि तवेव मे मन्युर्भूयान्नमो मात्रे पृथिव्यै माऽहं मातरं पृथिवीं हिंसिषं मा मां माता पृथिवी हिँसीद् - तै.सं.१.८.१५.१

८७जयादिहेतुपशुविधिः : इन्द्राय मन्युमते मनस्वते ललामं प्राशृङ्गमा लभेत संग्रामे संयत्त इन्द्रियेण वै मन्युना मनसा संग्रामं जयतीन्द्रमेव मन्युमन्तं मनस्वन्तँ स्वेन भागधेयेनोप धावति स एवास्मिन्निद्रियं मन्युं मनो दधाति - - - तै.सं.२.१.३.१

८८इन्द्राय मन्युमते मनस्वते पुरोडाशमेकादशकपालं निवपेत्सङ्ग्रामे संयत्त इन्द्रियेण वै मन्युना मनसा सङ्ग्रामं जयतीन्द्रमेव मन्युमन्तं मनस्वन्तँ स्वेन भागधेयेनोप धावति स एवास्मिन्निन्द्रियं मन्युं मनो दधाति - - - -तै.सं.२.२.८.२

८९भक्षमन्त्राभिधानम् - - -नमो वः पितरो मन्यवे - - - तै.सं.३.२.५.६

९०चित्याग्निहोमोक्तिः : नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः। नमस्ते अस्तु धन्वने बाहुभ्यामुत ते नमः। - तै.सं.४.५.१.१

९१वसोर्धाराभिधानम् : ज्यैष्ठ्यँ च म आधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भामश्च मे - - - - -तै.सं.४.७.२.१

९२विहव्याख्येष्टकाभिधानम् :अग्निर्मन्युं प्रतिनुदन्पुरस्तात् अदब्धो गोपाः परि पाहि नस्त्वम्। - तै.सं.४.७.१४.२

९३अश्वमेधशेषभूतचतुर्थपशुसंघविधिः : मन्यवे स्वजः - - - -तै.सं.५.५.१४.१

९४- - - - नमो वः पितरो मन्यवे। - - - -तै.ब्रा.१.३.१०.८

९५पशूनां मन्युरसि तवेव मे मन्युर्भूयादिति वाराही उपानहावुपमुञ्चते। पशूनां वा एष मन्युः। यद्वराहः। तेनेव पशूनां मन्युमात्मन्धत्ते। -तै.ब्रा.१.७.९.४

९६त्वया मन्यो सरथमारुजन्तः। हर्षमाणासो धृषता मरुत्वः। - - - मन्युर्भगो मन्युरेवाऽऽस देवः। मन्युर्होता वरुणो विश्ववेदाः। मन्युं विश ईडते देवयन्तीः। पाहि नो मन्यो तपसा ष्टामेण ॥ - तै.ब्रा.२.४.१.११

९७यानि नो जिनन्धनानि। जहर्थ शूर मन्युना। इन्द्रानुविन्द नस्तानि। अनेन हविषा पुनः। - तै.ब्रा.२.५.३.१

९८ओजोऽस्योजो मयि धेहि। मन्युरसि मन्युं मयि धेहि। महोऽसि महो मयि धेहि। सहोऽसि सहो मयि धेहि। -तै.ब्रा.२.६.१.५

९९- - - - जिह्वा मे भद्रम्। वाङ्महः। मनो मन्युः। स्वराड् भामः। - - - - -तै.ब्रा.२.६.५.४

१००होता यक्षद्वनस्पतिम्। शमितारँ शतक्रतुम्। भीमं न मन्युँ राजानं व्याघ्रं नमसाऽश्विना भामम्। - - - तै.ब्रा.२.६.११.८

१०१ईशायै मन्युँ राजानं बर्हिषा दधुरिन्द्रियम्। वसुवने वसुधेयस्य वियन्तु यज। - तै.ब्रा.२.६.१४.६

१०२पुरोडाशस्य याज्या : आभिः स्पृधो मिथतीररिषण्यन्। अमित्रस्य व्यथया मन्युमिन्द्र। आभिर्विश्वा अभियुजो विषूचीः। आर्याय विशोऽवतारीर्दासीः ॥ - तै.ब्रा.२.८.३.३

१०३हविषस्य पुरोनुवाक्या : अयँ शृण्वे अध जयन्नुत घ्नन्। अयमुत प्र कृणुते युधा गाः। यदा सत्यं कृणुते मन्युमिन्द्रः। विश्व दृढं भयत एजदस्मात् ॥ - तै.ब्रा.२.८.३.३

१०४पुरोडाशस्य पुरोनुवाक्या : ब्रह्मणस्पतेरभवद्यथा वशम्। सत्यो मन्युर्महिकर्मा करिष्यतः। यो गा उदाजत्स दिवे वि चाभजत्। महीव रीतिः शवसा सरत्पृथक् ॥ - तै.ब्रा.२.८.५.२

१०५मन्यवेऽयस्तापम्। क्रोधाय निसरम्। शोकायाभिसरम्। - - - तै.ब्रा.३.४.१०.१

१०६ईशानो मे मन्यौ श्रितः। मन्युर्हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। -तै.ब्रा.३.१०.८.९

१०७ईर्ष्यासूये बुभुक्षाम्। मन्युं कृत्यां च दीधिरे। रथेन किँशुकावता। अग्ने नाशय संदृशः ॥ - तै.आ.१.२८.१

१०८आदित्यो वै तेज ओजो बलं यशश्चक्षुः श्रोत्रमात्मा मनो मन्युर्मनुर्मृत्युः - - - तै.आ.१०.१४.१

१०९अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः। पापेभ्यो रक्षन्ताम्। यदह्ना पापमकार्षम्। मनसा वाचा हस्ताभ्याम्। पद्भ्यामुदरेण शिश्ना। अहस्तदवलुम्पतु। - तै.आ.१०.२४.१

११०सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः। पापेभ्यो रक्षन्ताम्। यद्रात्रिया पापमकार्षम्। मनसा वाचा हस्ताभ्याम्। पद्भ्यामुदरेण शिश्ना। रात्रिस्तदवलुम्पतु। - - -तै.आ.१०.२५.१

१११तस्यैवं विदुषो यज्ञस्याऽऽत्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी शरीरमिध्ममुरो वेदिर्लोमानि बर्हिर्वेदः शिखा हृदयं यूपः काम आज्यं मन्युः पशुस्तपोऽग्नि - - - तै.आ.१०.६४.१

११२मन्युरकार्षीन्नमो नमः। मन्युरकार्षीन्मन्युः करोति नाहं करोमि मन्युः कर्ता नाहं कर्ता मन्युः कारयिता नाहं कारयिता एष ते मन्यो मन्यवे स्वाहा ॥ (श्रावणी पूर्णिमा को प्रातःकाल जपा जाने वाला मन्त्र) - तै.आ. परिशिष्ट६२

११३इन्द्राय मन्युमते मनस्वत एकादशकपालं निर्वपेत् संग्रामे मन्युना वै वीर्यं करोतीन्द्रियेण जयति मन्युं चैवेष्विन्द्रियं च सयुजौ कृत्वा तयोर्मनो जित्यै दधाति - - - काठ. सं.१०.८

११४आदित्यो वै तेज ओजो बलं - - - मनो मन्युर्मनुर्मृत्युः - - -महानारायणोपनिषद १२.३

११५अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। - - - सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। - - - -महानारायणोपनिषत् १४.३

११६कामोऽकार्षीन्नाहं करोमि - - - मन्युरकार्षीन्नाहं करोमि मन्युः करोति - - - -महानारायणोपनिषत् १८.२

११७तस्यैवंविदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी - -- - - काम आज्यं मन्युः पशुः - - - -महानारायणोपनिषत् २५.१

११८यस्ते मन्योरिति च चतुर्दशर्चस्य सूक्तस्य रुद्रो दुर्वासास्तपनपुत्रो मन्युर्देवता। अपनिलयन्तामिति बीजम्। - - - वनदुर्गोपनिषत् ४५९

११९अग्न्याधेय /पुनराधेय : यत्त्वा क्रुद्धः परोवपेति दक्षिणाग्निम्। यत्ते मन्युपरोप्तस्येतीतरान्। - आप.श्रौ.सू.५.२७.१२

१२०अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : इन्द्रेण मन्युना युजावबाधे पृतन्यता। घ्नता वृत्राण्यप्रतीति शुक्रं यजमानो ऽन्वारभत आ होमात्। - आप.श्रौ.सू.१२.२२.५

१२१राजसूय : पशूनाम् मन्युरसीति वाराही उपानहावुपमुच्य नमो मात्र इत्यवरोक्ष्यन्पृथिवीमभिमन्त्र्यवरुह्य मणीन्प्रतिमुञ्चते। - आप.श्रौ.सू.१८.१७.१२

१२२अश्वमेध :वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासत इति वैमृधीभ्यां यजमानो मुखं विमृष्टे। - आप.श्रौ.सू.२०.२०.७

१२३द्वादशाह : अरेपसः समोकसः सचेतसः सरेतसः स्वसरे मन्युमन्तश्चिदाकोरिति। - आप.श्रौ.सू.२१.९.१५

१२४मन्युसूक्ते निविद्धाने लिङ्गक्लृप्ते। (यस्ते मन्यो इति तथा त्वया मन्यो इति सूक्तों में प्रथम निष्केवल्य है तथा दूसरा हर्षमाणासो धृषिता मरुत्व में मरुत्वलिङ्ग से मरुत्वतीय है - टीका) - शाङ्खायन श्रौ.सू.१४.२२.५

१२५यानि नो धनानि क्रुद्धो जिनासि मन्युना। इन्द्रानुविद्धि नस्तान्यनेन हविषा पुनः। - आश्वलायन श्रौ.सू.२.१०.१२

१२६श्येन व अजिर नामक दो एकाह : अहं मनुर्गर्भे नु संस्त्वया मन्यो यस्ते मन्यविति मध्यंदिनौ। - आश्व.श्रौ.सू.९.७.२

१२७विनुत्यभिभूत्योरिषुवज्रयोश्च मन्युसूक्ते। - आश्व.श्रौ.सू.९.८.१९

१२८उपमन्यूनां वासिष्ठाभरद्वस्विन्द्रप्रमदेति - - - -आश्व.श्रौ.सू.१२.१५.२

१२९यत्त्वा क्रुद्धः परोवप मन्युनेति तिसृभिस्त्रिः समिन्द्धे। - मानव श्रौ.सू. १.६.५.७

१३०इन्द्रेण मन्युनेति यजमानो जपति। - मानव श्रौ.सू. २.४.१.१५

१३१द्वैध सूत्र : अध्याय २० से लेकर अध्याय २३ तक विभिन्न कर्मकाण्डों के संदर्भ में बौधायन, शालीकि, औपमन्युओं तथा उपमन्यवीपुत्र के दृष्टिकोणों में भेदों का कथन - बौधायन श्रौ.सू.

१३२उपमन्यव औपगवा माण्डलेखयः कापिञ्जला जालागतास्तपोलोकास्त्रैवर्णश्चैव पार्णागारिः सुराक्षराः शैलालयो महाकर्णायना वालशिखा औद्गाहमानयो बालायना भागुरिथ्थायना कुण्डोदरायणा लाक्ष्मणेया काचान्तयो वार्काश्वकय आनृक्षरायणा आलबवाः कपिकेशाः इत्येत उपमन्यवस्तेषां त्र्यार्षेय प्रवरो भवति वासिष्ठैन्द्रप्रमदाभरद्वसवेति होताभरद्वसुवदिन्द्रप्रमदवद्वसिष्ठवदित्यध्वर्युः। - बौधा.श्रौ.सू.प्रवर४७

 First published : 1999 AD; published on internet : 14-1-2008 AD( Pausha shukla shashthee, Vikramee Samvat 2064)