PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
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उपानह टिप्पणी : पुराणों में ब्राह्मण को उपानह - द्वय दान के सार्वत्रिक उल्लेख के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ५.४.४.४ , ५.६.६.१ , काठक संहिता २१.७ आदि में कृष्णाजिन से निर्मित उपानह -द्वय का उल्लेख आता है । कहा गया है कि कृष्णाजिन ब्रह्मा का , छन्दों का , यज्ञ का , ब्रह्मवर्चस आदि का प्रतीक है जो अग्नि रूपी मृत्यु का छादन करता है । पौराणिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मण का पद अग्नि का रूप है जिसका छादन कृष्णाजिन से निर्मित उपानह करते हैं । उपानह शब्द की निरुक्ति उप - नह ( नह - बन्धने ) के आधार पर की जाती है । यज्ञ कार्य में सोमलता को रस्सी से बांधकर ( उपनह्य ) यज्ञस्थल पर लाया जाता है । सोम का उपनहन करते समय मन्त्र पढा जाता है ( तैत्तिरीय संहिता २.४.७.२ , २.४.९.४ , मानव श्रौत सूत्र ५.२.६.७ , बौधायन श्रौत सूत्र १३.३८ , आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १६.२६.१ ) कि हे रस्सी , तू वर्षण करने वाले अश्व या पर्जन्य का नियंत्रण करने वाली है , वृष्टि हेतु मैं तुझे बांधता हूं । बंधा हुआ सोम वरुण देवतात्मक होता है , वह पाश में बंधा होता है । उस सोम को वर्षण करने वाले अश्व का , पर्जन्य का रूप देना होता है । तैत्तिरीय संहिता २.४.९.४ का कथन है कि चूंकि वर्षण करने पर पर्जन्य का रूप कृष्ण होता है , अतः सोम / हवि को कृष्णाजिन में बांधते हैं । उपरोक्त तथ्य पुराणों में उपानह दान से अश्व ( अश~ - व्याप्तौ ) युक्त यान प्राप्त होने के उल्लेख की व्याख्या हो सकता है । लेकिन यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में एक ओर तो उपानह के संदर्भ में कृष्णाजिन रूपी ब्रह्मा द्वारा अग्नि का नियमन किया जा रहा है और दूसरी ओर कृष्णाजिन द्वारा सोम का छादन करने का उल्लेख है । इनमें अंतर विचारणीय है । हो सकता है कि कृष्णाजिन अग्नि और सोम , दोनों का रूप धारण करने में समर्थ होता हो । वरुण के पाशों में बद्ध सोम शूद्र के उपानह का तथा पाशों से मुक्त सोम , वृष्टि करने में समर्थ सोम ब्राह्मण के उपानह का प्रतीक हो सकता है । पापों के संचय का मुख्य स्थान पाद ही होते हैं । पापों से मुक्त पाद ब्राह्मण व्यक्तित्व के हो सकते हैं । शतपथ ब्राह्मण ५.४.३.१९ तथा काण्व शतपथ ७.३.३.१६ में राजसूय यज्ञ में अभिषेक के पश्चात् वाराही उपानह - द्वय का उल्लेख आया है । कहा गया है कि वराह की उत्पत्ति घृत से पूर्ण कुम्भ में अग्नि के प्रवेश से हुई है , इसीलिए वराह मेदपूर्ण होता है । राजसूय में अभिषेक के पश्चात् यजमान द्वारा हर समय उपानह धारण करना अनिवार्य हो जाता है । अग्निचयन नामक इष्टि में भी यजमान वाराही उपानह - द्वय का उपयोग करता है जिन्हें चिति पूर्ण होने पर त्याग दिया जाता है क्योंकि उपानह का उपयोग तभी तक किया जाता है जब तक अग्नि द्वारा हिंसा की संभावना हो । जब अग्नि का चयन पांच चितियों में कर दिया जाता है तो वह अहिंसक हो जाती है , वह यजमान का वाहन बनकर उसे स्वर्ग में ले जाने में समर्थ होती है । ब्राह्मण ग्रन्थों में उपानह -द्वय को यज्ञ वराह का रूप देने का क्या तात्पर्य हो सकता है , यह विचारणीय है । हरिवंश पुराण ३.३५ से संकेत मिलता है कि यज्ञ वराह का कार्य पृथिवी पर संचित अनियंत्रित ऊर्जा को , सुवर्ण को , नियंत्रित करना है , उसे यज्ञ कार्य में प्रयुक्त करना है , उसे पर्वतों और नदियों का रूप देना है , उसे प्रवाह योग्य बनाना है । साधक को यज्ञ वराह की सृष्टि भी स्वयं अपने अंदर ही करनी होती है । वराह को घृत और मेद आदि से संबंधित करने का तात्पर्य उसे शरीर की धातुओं मेद और मज्जा से जोडने से हो सकता है क्योंकि वराह के संदर्भ में कहा गया है कि वराह पशुओं के मन्यु का रूप है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.९.४ ) , वराह की उत्पत्ति अण्ड कोशों से हुई है (जैमिनीय ब्राह्मण २.२६७ ) । मन्यु वह क्रोध है जो वीर्य से उत्पन्न होता है । साधारण क्रोध केवल रक्त तक ही सीमित रहता है । विष्णु धर्मोत्तर पुराण में जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका द्वारा जमदग्नि ऋषि द्वारा छोडे गए तीरों को लाने के लिए भागने और सूर्य के ताप से उसके पद जलने के वर्णन के संदर्भ में जमदग्नि ऋषि के तीरों को अग्नि का नियमन करने वाले तीर कहा जा सकता है । पृथिवी तत्त्व में अग्नि का नियमन होने पर सुगन्ध की उत्पत्ति होती है । धूलि कणों को तथा पुष्प के पराग कणों को भी रेणु कहा जाता है । रेणुका के पद संतप्त होने से क्या तात्पर्य है , यह अन्वेषणीय है ।
संदर्भ *देवानां प्रतिष्ठे स्थः सर्वतो मा पातमित्युपानहावास्थाय – आश्व.गृ.सू. ३.८.१४ *अधस्पदादामयत: पदो रोगादुपानहौ । दण्डस्त्वा दत्तः परि पातु सर्पाद्दक्षिणत: प्रयतो दक्षिणेन ।।८ ।।– पै.सं. ७.१५.८ * आ नयामि ते मनो अश्वमिवाश्वाभिधान्या । उप ते मुञ्चे मनः पदोरुपानहौ यथा ।। - पै.सं. १९.३७.४ * प्रतीचीनान् वो अभ्यधामश्वमिवाश्वाभिधान्या। कृण्वे वो मामके वशे पदोरुपानहौ यथा ।।(चित्त) - पै.सं. २०.५६.५ *वृष्ट्यै त्वोपनह्यामि इति कृष्णाजिने पिण्डीरुपनह्यति। - मानव श्रौ.सू. ५.२.६.७ *ऊर्ध्वं पूर्वा?कीभ्यां कृष्णाजिनस्योपानह प्रतिमुच्यापादिदं न्ययनं नमस्ते हरसे शोचिष इति द्वाभ्यामग्निमाक्रामति – मानव श्रौ.सू. ६.२.४.१६ *वृष्णस्संदानमसि वृष्ट्यै त्वोपनह्यामि वृषा ह्यश्वो वृषा पर्जन्यः – काठ.सं. ११.९, ११.१० *कृष्णाजिन उपनह्यति ऋक्सामयोर्वा एतद्रूपं यत्कृष्णाजिन ऋक्सामाभ्यामेवास्मै वृष्टिमिच्छति – काठ.सं. ११.१० *देवानामेष उपनाह आसीदपां पतिरोषधीनाम् – काठ.सं. १३.९ *सरस्वत्यै सत्यवाचे चरुस्तिसृधन्वं शुष्कदृतिर्दण्ड उपानहौ तद्दक्षिणाश्वो वा शोणकर्णः – काठ.सं. १५.९ *वरुणमेनिर्वा एष उपनद्ध उदु तिष्ठ स्वध्वरोर्ध्व ऊ षु ण ऊतय इत्यूर्ध्वमिव वरुणमेनिमुत्सुवति – काठ.सं. १९.५ *कृष्णाजिनस्योपानहौ कुरुते ब्रह्मणो वा एतद्रूपं यत् कृष्णाजिनं मृत्युरग्निर्ब्रह्मणैव मृत्योरन्तर्धत्तेऽन्तर्मृत्योर्धत्तेऽन्तरमन्नाद्यादन्यतरामुपानहं कुर्वीतान्तर्मृत्योर्धत्तेऽवान्नाद्यं रुन्द्धे - काठ.सं. २१.७ *छन्दांसि मीयमानो वरुण उपनद्धः पूषा सोमक्रयण्या - - -काठ.सं. ३४.१४ *यद् दीक्षितानां प्रमीयेत तं दग्ध्वास्थान्य् उपनह्यापभज्य सोमं यो ऽस्य नेदिष्ठतमस् स्यात् तेन सह दीक्षयित्वा याजयेयुः – जै.ब्रा. १.३४५ *क्रीत्वा (सोमं) तु नानोपनह्यति। नानर्त्विजो भवन्ति। - जै.ब्रा. २.१६५ *वरुणदेवत्यो वा एष तावद्यावदुपनद्धो यावत्परिश्रितानि प्रपद्यते। - - - यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिन वै सुतर्मा नौ - - - ऐ.ब्रा. १.१३ *हिरण्यमिव ह वा एष एतद्देवेभ्यश्छदयति यत्कृष्णाजिनम्। - - - -वरुणदेवत्यो वा एष तावद्यावदुपनद्धो यावत्परिश्रितानि प्रपद्यते – ऐ.ब्रा. १.३० *कारीरीष्टिविधिः -- - - -वृष्णो अश्वस्य संदानमसि वृष्ट्यै त्वोप नह्यामि – तै.सं. २.४.७.२ *कारीरीष्टिमन्त्रव्याख्यानम् : वृष्णो अश्वस्य संदानमसि वृष्ट्यै त्वोप नह्यामीत्याह वृषा वा अश्वो वृषा पर्जन्यः कृष्ण इव खलु वै भूत्वा वर्षति रूपेणैवैनं समर्धयति वर्षस्यावरुद्ध्यै। - तै.सं. २.४.९.४ *वृषालम्भन् कर्म : देवानामेष उपनाह आसीदपां गर्भं ओषधीषु न्यक्तः। सोमस्य द्रप्समवृणीत पूषा बृहन्नद्रिरभवत्तदेषाम्। - तै.सं. ३.३.९.१ *यज्ञतन्वाख्येष्टका : - - -वरुण उपनद्धोऽसुरः क्रीयमाणो मित्रः क्रीतः – तै.सं. ४.४.९.१ *संभृतमृदो यज्ञभूमौ समाहरणम् : सुजातो ज्योतिषा सहेत्यनुष्टुभोप नह्यत्यनुष्टुप् सर्वाणि छन्दांसि छन्दांसि खलु वा अग्नेः प्रिया तनूः - - - वेदुको वासो भवति य एवं वेद वारुणो वा अग्निरुपनद्धः - - तै.सं. ५.१.५.३ *वरुणो वा एष यजमानमभ्यैति यदग्निरुपनद्ध – तै.सं. ५.१.५.६ *उखा निर्माणम् : वारुणो वा अग्निरुपनद्धो वि पाजसेति विस्रंसयति सवितृप्रसूत एवास्य विषूचीं वरुणमेनिं वि सृजत्यप उप सृजत्यापो वै शान्ताः – तै.सं. ५.१.६.१ *परिषेचनाद्यभिधानम् : मृत्युर्वा एष यदग्निर्ब्रह्मण एतद्रूपं यत्कृष्णाजिनं कार्ष्णी उपानहावुप मुञ्चते ब्रह्मणैव मृत्योरन्तर्धत्ते – तै.सं. ५.४.४.४ *ब्रह्म वै छन्दांसि ब्रह्मण एतद्रूपं यत्कृष्णाजिनं कार्ष्णी उपानहावुपमुञ्चते छन्दोभिरेवाऽऽत्मानं छादयित्वा ऽग्निमुप चरत्यात्मनो ऽहिंसायै – तै.सं. ५.६.६.१ *सोमोन्मानम् : वाससोपनह्यति सर्वदेवत्यं वै वासः - -- -पशवो वै सोमः प्राणाय त्वेत्युप नह्यति प्राणमेव पशुषु दधाति – तै.सं. ६.१.९.६ *क्रीतसोमस्य शकटेन नयनम् : वारुणो वै क्रीतः सोम उपनद्धो मित्रो न एहि सुमित्रधा इत्याह शान्त्या – तै.सं. ६.१.११.१ *उद् उ त्यं जातवेदसम् इति सौर्यर्चा कृष्णाजिनम् प्रत्यानह्यति रक्षसाम् अपहत्यै । – तै.सं. ६.१.११.४ *अदाभ्य ग्रह : उपनद्धस्य गृह्णात्य् अतिमुक्त्यै । अति पाप्मानम् भ्रातृव्यम् मुच्यते य एवं वेद घ्नन्ति वा एतत् सोमं यद् अभिषुण्वन्ति सोमे हन्यमाने यज्ञो हन्यते यज्ञे यजमानः । – तै.सं. ६.६.९.२ *गवामयनगुणविकार रूपोत्सर्गः – यथा दृतिरुपनद्धो विपतत्येवं संवत्सरो वि पतेद् – तै.सं. ७.५.६.२ *त्र्यम्बकहविर्यागः – तान् द्वयोर्मूतकयोरुपनह्य, वेणुयष्ट्या वा कुपे वा उभयत आबध्य – मा.श. २.६.२.१७ *यूपारोहणम् : आश्वत्थेषु पलाशेषूपनद्धा भवन्ति। स यदेवादो ऽश्वत्थे तिष्ठत इन्द्रो मरुत उपामन्त्रयत् तस्माद् - - - मा.श. ५.२.१.१७ *अभिषेकोत्तरकर्माणि : अथ वाराह्याऽउपानहा ऽउपमुञ्चते। अग्नौ ह वै देवा घृतकुम्भं प्रवेशयांचक्रुः। ततो वराहः सम्बभूव। तस्माद् वराहो मेदुरः। घृताद्धि सम्भूतः। तस्माद्वराहे गावः सञ्जानते। स्वमेवैतद्रसमभि संजानते। तत् – पशूनामेवैतदर्से प्रतितिष्ठति। तस्माद्वाराह्याऽउपानहाऽउपमुञ्चते – मा.श. ५.४.३.१९ *अथ राजानं क्रीत्वा द्वेधोपनह्य परिवहन्ति। ततोऽर्धमासन्द्यामासाद्य प्रचरति। - मा.श. ५.४.५.१५ *केशवपनीयं अतिरात्रं : आसन्द्या उपानहाऽउपमुञ्चते। उपानद्भ्यामधि यदस्य यानं भवति, रथो वा किञ्चिद्वा – सर्व वा ऽएष इदमुपर्युपरि भवति। - मा.श. ५.५.३.७ *अथैनमुपनह्यति। योनौ तद्रेतो युनक्ति। तस्माद्योनौ रेतो युक्तं न निष्पद्यते। योक्त्रेण। योक्त्रेण हि योग्यं युञ्जन्ति। - मा.श. ६.४.३.७ *अथैनं विष्यति। तद् यदेवास्यात्रोपनद्धस्य संशुच्यति – तामेवास्मादेतच्छुचं बहिर्धा दधाति। - मा.श. ६.४.४.२० *यदि दीक्षितानां प्रमीयेत दग्ध्वास्थीन्युपनह्य यो नेदिष्ठो स्यात्तं दीक्षयित्वा सह यजेरन्। - तां.ब्रा. ९.८.१ *कुण्डपायिनामयनम् : मासन्दीक्षिता भवन्ति ते मासि सोमं क्रीणन्ति तेषां द्वादशोपसदं उपसद्भिश्चरित्वा सोममुपनह्य मासमग्निहोत्रञ्जुह्वति। - तां.ब्रा. २५.४.१ *अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : उपनद्धस्य राज्ञस्त्रीनंशून्प्रवृहति – आप.श्रौ.सू. १२.७.१९ *अग्निचयनम् : मृत्खनने अप आनीय समुद्यम्य कृष्णाजिनस्यान्तान्सुजाचो ज्योतिषा सहेति क्षौमेण मौञ्जेनार्कमयेण वा दामनोपनह्यति। - आप.श्रौ.सू. १६.३.७ *व्रीहियवश्यामाकान्क्रीत्वा क्षौमे वासस्युपनद्धान्व्रीहींस्तोक्मानि कुर्वन्ति – आप.श्रौ.सू. १९.५.७ *- - -तिस्रः पिण्डीकृत्वा पुष्करपलाशैः संवेष्ट्य समुद्यम्य कृष्णाजिनस्यान्तान्वृष्णो अश्वस्य संदानमसीति कृष्णेन दाम्नोपनह्यति – आप.श्रौ.सू. १९.२६.१ *अदाभ्यग्रहः : वसवस्त्वा प्रवृहन्त्वित्येतैरुपनद्धस्य राज्ञस्त्रीनंशूनादाय - - - वैखा.श्रौ.सू. १५.१० *प्रातः सवनायालमुपनद्धस्य राज्ञो ऽर्धमादत्त इतरमुष्णीषेणोपनह्योद्वृह्य पूर्ववत्सादयति – वैखा.श्रौ.सू. १५.१३ *अग्निचयनम् : योक्त्रेण त्रिवृता सुजातो ज्योतिषा सहेत्युपनह्येद् - - - वैखा.श्रौ.सू. १८.१ *अथोपनद्धा मृत्तिका वि पाजसेति विस्रंसयत्यापो हि ष्ठा मयोभुव इति – वैखा.श्रौ.सू. १८.१ *कार्ष्णाजिनीरुपानह उपमुञ्चते चिते त्वेत्यध्वर्युराचिते त्वेति प्रतिप्रस्थाता मनश्चिते त्वेति ब्रह्मा तपश्चिते त्वेति यजमानश्चिते त्वेति वा सर्वे तूष्णीं वा – वैखा.श्रौ.सू. १८.१४, तु. बौधा.श्रौ.सू. १०.२३ *- - - -तिस्रः पिण्डीः कृत्वा समुच्चित्य कृष्णाजिनस्यान्तान्संदानेनोपनह्यति वृष्णो अश्वस्य संदानमसि वृष्ट्यै त्वोपनह्यामीति - - - -अथैना अनसः प्रथमाया गधायामाबध्नाति। - बौधा.श्रौ.सू. १३.३८ *उपनद्धस्य राज्ञस्त्रीनंशून्प्रवृहति वसवस्त्वा प्रवृहन्तु गायत्रेण छन्दसाग्नेः प्रियं पाथ उपेहि रुद्रास्त्वा प्रवृहन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसा - - - बौधा.श्रौ.सू. १४.१२ *पुष्करपर्णे (पिण्डं) निदधाति। - - - आस्तीर्णयोरन्तानुद्वपति सुजात इति। त्रिवृता मुञ्जयोक्त्रेणोपनह्यति वासो अग्न इति। - कात्यायन श्रौ.सू. १६.३.१ *दामनी द्वे द्वे। उपानहौ च कर्णिन्यौ कृष्णे स्यातामित्येके। - कात्यायन श्रौ.सू. २२.४.२२ *अथामो दैवोपानहि पादं जरितारोथामो – आश्वला.श्रौ.सू. ८.३.१९ *सोममुपनह्य प्रवर्ग्यपात्राण्युत्साद्योपनह्य वा मासमग्निहोत्रं जुह्वतीति। - आश्वला.श्रौ.सू. १२.३.५
First published : 1999 AD; published on internet : 14-1-2008 AD( Pausha shukla shashthee, Vikramee Samvat 2064) |