PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel U to Uu)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Udaana - Udgeetha  (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.)

Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. )

Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.)

Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. )

Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.)

Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.)

Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.)

Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) 

Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)

 

 

 

अथर्ववेदे ११.३.३ ओदनस्य पचनस्य संदर्भे कथनमस्ति –

चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम्।

उलूखलस्य निरुक्तिः उरु करं इति रूपेण भवति। उरुकरणं केन प्रकारेण भवेत्, अस्य व्याख्या काम उलूखलम् वाक्येन भवति। या जडचेतना अस्ति, तस्मिन् कामनाकरणस्य शक्तिर्नास्ति। यः जीवः अस्ति, तत् क्षुधया ग्रस्तः भवति। तस्मिन् बाह्यतः अन्नस्य ग्रहणस्य कामनायाः उत्पत्तिः भवति। यदि कामना अतितीव्रं भवेत्, तर्हि संभावना अस्ति यत् कामनायाः पूर्तिः कल्पवृक्षेन भविष्यति। यदि कामना अतितीव्रं नास्ति, पापेभ्यः ग्रस्ता अस्ति, तर्हि कामनायाः पूर्तिः सांसारिक पदार्थानां आदानेन भविष्यति।

 

यदि कामना तीव्रं नास्ति, पापेन ग्रस्ता अस्ति, तर्हि तस्याः पूर्त्याः एकः उपायः अस्ति – पृथुकरणम्। यत् किंचित् प्राप्तः अस्ति, तस्य क्षयं न भवेत्।

     मुसलस्य संदर्भे, विष्णुधर्मोत्तरपुराणे ३.४७.१४ कथितमस्ति यत् बलरामस्य आयुधः मुसलः मृत्योः प्रतीकमस्ति। काशकृत्स्न धातुपाठे ३.५८ मुश/मुस धातुः खण्डने, छेदने अर्थे अस्ति। पुष्पः मुषितः अस्ति इति लोकभाषायां कथनं अस्ति। यः मुषितमस्ति, तस्य प्रबन्धनं केन प्रकारेण करणीयं अस्ति, अयं मुसलस्य विषयं प्रतीयते। मुसलः शेषस्य, शेषायाः, अवशिष्टायाः ऊर्जायाः आयुधः अस्ति। डा. फतहसिंहानुसारेण, वेदे द्वौ शब्दौ स्तः – ओषु एवं मोषु(ओ षु घृष्विराधसो यातनान्धांसि पीतये। इमा वो हव्या मरुतो ररे हि कं मो ष्वन्यत्र गन्तन ॥ऋ. ७.५९. )। यदि मुसलः मोषुणा सह सम्बद्धः अस्ति, तर्हि उलूखलः ओषुणा।

     पुराणेषु आख्यानमस्ति यत् गोपसखायः स्त्रीवेशधार्यः साम्बस्य उदरे मुसलं बन्धयित्वा तं ऋषीणां समीपे नीयन्ते एवं पृच्छन्ति – एषा कं जनयिष्यति। उत्तरं अस्ति- अयं मुशलं जनयिष्यति येन सर्वेषां यादवानां नाशं भविष्यति (स्कन्दपुराणम् ७.१.२३७.७)। एवमेवाभवत्।

     कृष्णोपनिषदे १.२१ उलूखलस्य तादात्म्यं कश्यपेन सह कथितमस्ति। डा. फतहसिंह कश्यपं समाधितः व्युत्थानस्य स्थितिः मन्यते यः सृष्टिं कर्तुं समर्थः अस्ति। कश्यपस्य विलोमं पश्यकः भवति, समाधिं प्रति प्रस्थानं अथवा समाध्यां दर्शनं। पुराणेषु उलूखलबद्धेन कृष्णेन यमलार्जुनयोः उद्धारस्य कथा अस्ति। अयं प्रतीयते यत् यमलार्जुनौ श्रेयस्करौ न स्तः, अपितु कृष्ण-अर्जुनौ श्रेयस्करौ। अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च – ऋ. ६.९.१। अत्र अर्जुनः कश्यपस्य एवं कृष्णः पश्यकस्य रूपं भवितुं शक्यते। डा. फतहसिंह अनुसारेण मनुष्यः द्योः त्रिलोक्योः संधिः अस्ति – मानुषी त्रिलोकी एवं दैवी त्रिलोकी। अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमयकोशेभ्यः मानुषी त्रिलोकी निर्मिता भवति, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमयतः दैवी त्रिलोकी।

     कर्मकाण्डे उलूखल-मुसलस्य उपयोगं धान्यस्य वितुषीकरणाय भवति। अथर्ववेदे कथनमस्ति – चक्षुर्मुसलं। किं चक्षुः मुसलः वितुषीकरणे समर्थः अस्ति। यदि चक्षुशब्दः ज्ञानचक्षोः प्रतीकमस्ति, तर्हि अयं संभवमस्ति।

शतपथब्राह्मणे कथनमस्ति –

उदरमुखा। योनिरुलूखलम्। उत्तरोखा भवति - अधरमुलूखलम्। उत्तरं ह्युदरम् - अधरा योनिः। शिश्नं मुसलम्। - - - -श. ब्रा. ७.५.१.३८

अत्र योनिः उलूखलरूपा अस्ति, शिश्नं मुसलरूपः। अथर्ववेदे कथनमस्ति – चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम्। अयं संकेतमस्ति यत् उलूखल एवं मुसलस्य स्वरूपं देहे अंगानुसारं परिवर्तयति। यदा चक्षुः मुसलः अस्ति, तदा एका संभावना अस्ति यत् श्रोत्रः उलूखलं भविष्यति। अस्य कः प्रमाणमस्ति। पुराणेषु एकः प्राकारकर्णसंज्ञकः उलूकः अस्ति (स्कन्दपुराणम् १.२.८.२०, ६.२७१.१३७)। अन्यः गानबन्धु उलूकः अस्ति (लिङ्गपुराणम् २.३.२१ )। उलूकः उलूखलस्य तुल्यात्मकः प्रतीयते।

 

    

 

उलूखल

टिप्पणी : वैदिक साहित्य में उलूखल और मुसल यज्ञ आयुधों के पांच मिथुनों में से एक है ( शतपथ ब्राह्मण १.१.१.२२ ) । यज्ञ में उलूखल का उपयोग इस प्रकार किया जाता है कि पृथिवी पर कृष्णाजिन बिछाकर उस पर उलूखल को रखा जाता है (शतपथ ब्राह्मण १.१.४.११) । कृष्णाजिन के संदर्भ में कहा गया है कि यज्ञ कृष्ण बन कर देवों से दूर चला गया । तब देवों ने उसका चर्म ग्रहण कर लिया । यह कृष्णाजिन पृथिवी पर बिछाने से पृथिवी की , अदिति की त्वचा का कार्य भी करता है । इसके कारण उलूखल व पृथिवी में परस्पर वैर भाव नहीं होता , यह एक दूसरे की हिंसा नहीं करते । कृष्णाजिन बिछाते समय बांये हाथ में कृष्णाजिन पकडा जाता है और दायें हाथ से उलूखल पकडा जाता है । ऐसा इस कारण किया जाता है कि यदि कृष्णाजिन पर उलूखल रखने से पहले ही उलूखल को छोड दिया जाए तो कृष्णाजिन में राक्षसों का प्रवेश हो सकता है । कृष्णाजिन पर उलूखल की स्थापना के पश्चात् उलूखल में व्रीहि आदि धान्य डालकर उसे मुसल से कूटा जाता है और कुटे हुए धान्य से भूसी अलग करके तण्डुल को अन्वाहार्यपचन / दक्षिणाग्नि पर पकाकर देवताओं की हवि हेतु ओदन आदि बनाया जाता है । उलूखल में ऐसी क्या विशेषता है जो इसे यज्ञ आयुधों में  , राक्षसों को मारने वाले आयुधों में स्थान दिया गया है ? उलूखल शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में उरु मे कुरु इति कहने से इसका नाम उरुकरं या परोक्ष में उलूखल हुआ (यास्क निरुक्त ९.२० तथा शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.२२ ) । अथवा ऊर्क /अन्न को करने से ऊर्करं /उलूखल हुआ , अथवा ऊर्ध्व खं ( उलूखल में ऊपर खात या गड्ढा होता है )होने से उलूखल हुआ । अतः  : यह कहा जा सकता है कि उलूखल की विशेषता  यह है कि यह उरु स्थिति , विस्तीर्ण ऊर्जा की स्थिति लाती है । उलूखल साधना में उरु स्थिति को किस प्रकार प्राप्त किया जाता है , इसका भी संकेत किया गया है । शतपथ ब्राह्मण १.१.४.७ के अनुसार उलूखल पृथुबुध्न वाला ग्रावा / पत्थर है , अर्थात् इसका अधोतल पृथु या चौडा है । पृथु शब्द को पुराणों में राजा पृथु आदि की कथाओं के माध्यम से भली भांति समझ लेना होगा । राजा पृथु ने सारी पृथिवी को , जो पर्वतों आदि से भरी पडी थी , समतल बनाया, फिर उसे सभी प्रकार के दुग्धों के दोहन के लिए तैयार किया । देवता , ऋषि , गन्धर्व , सर्प , मनुष्य , सभी अपने - अपने हित के दुग्ध का पृथिवी रूपी गौ से दोहन करते हैं । यह पृथु अवस्था ऐसी है जैसे स्थिर जल में ढेला मारने से लहरें उत्पन्न होकर चारों ओर फैल जाती हैं । लेकिन लहरें जैसे - जैसे अपने केन्द्र बिन्दु से दूर जाती हैं , उनकी तीव्रता कम होती जाती है । चेतना की पृथु स्थिति में ऐसा नहीं होगा । सारे शरीर की चेतना में कहीं भी कोई विक्षोभ उत्पन्न हुआ कि वह सारे शरीर में फैल जाएगा । चेतना में यह पृथु अवस्था प्राप्त करना शारीरिक पीडा को समाप्त करने की कुंजी है । चाहे किसी भी प्रकार की पीडा हो , यदि उस पीडा को स्थानिक होने के बदले चेतना में फैलने वाली बना दिया जाए तो पीडा लगभग समाप्त ही हो जाती है । ऐसी चेतना को अदिति , अखंडित शक्ति कह सकते हैं  । उपवास में ऐसी स्थिति प्राप्त करने में श्वास का स्थानिक होने के बदले विस्तीर्ण होना अपेक्षित है ।। हो सकता है कि विस्तीर्ण / पृथु होने में अस्थि - मज्जा का या शुक्र का भी योगदान हो । चेतना की जो खंडित स्थिति प्राणियों में है , वही हाल जड पदार्थ का भी है । आधुनिक पदार्थ विज्ञान के अनुसार ठोस पदार्थ छोटे - छोटे कणों में विभाजित रहता है तथा उनके बीच की सीमा शक्ति के प्रवाह में बाधा बन सकती है । एक चुम्बकीय पदार्थ , जैसे लौह धातु ,में चुम्बकीय शक्ति छोटे - छोटे क्षेत्रों में बंटी रहती है जिन्हें डोमेन कहा जाता है । यह सब पृथु अवस्था से विपरीत चिह्न हैं । और जड पदार्थ के अध्ययन से हमें यह भी ज्ञात होता है कि जड पदार्थ में पृथु अवस्था का अवलोकन ऊर्जा के विभिन्न प्रकारों , जैसे ध्वनि , विद्युत , चुम्बक आदि के दृष्टिकोण से करना होगा । यही तथ्य जीव चेतना पर भी लागू किया जा सकता है । इस प्रकार पृथु अवस्था प्राप्त करना उलूखल की पहली साधना है । इसके पश्चात् ऊर्जा को उरु बनाने का कार्य आरंभ होता है । भौतिक विज्ञान में इसे प्रवर्धन , एम्प्लीफिकेशन नाम दिया गया है । जैसी ऊर्जा की आवख्यकता हो , जैसे ध्वनि की , उसी का प्रवर्धन यंत्रों  के माध्यम से किया जा सकता है । उलूखल की स्थिति में यह उरु स्थिति किस प्रकार प्राप्त की जाती है , यह अन्वेषणीय है । यह उल्लेखनीय है कि उलूखल के पृथुबुध्न ग्रावा होने के साथ ही , मुसल को बृहद् ग्रावा कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण १.१.४.११) ।

          चेतना की उलूखल स्थिति प्राप्त हो जाने पर उसका क्या उपयोग हो सकता है ?

इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.२६ व ३८ , काठक संहिता २०.७ , तैत्तिरीय संहिता ५.२.८.७ आदि का कथन है कि उलूखल योनि स्वरूप है । जैसे योनि में गर्भ का विकास होता है, ऐसे ही उलूखल रूपी योनि में जो कुछ भी रखा जाएगा , उसी का वर्धन या विकास हो जाएगा । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.१ में उलूखल रूपी योनि का उपयोग उखा रूपी उषा या अग्नि के वर्धन के लिए किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.२२ में उलूखल को प्राणों की योनि कहा गया है , जैसे शिर प्राणों की योनि है , वैसे ही । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.१२ के अनुसार उलूखल - मुसल की साधना द्वारा विष्णु अन्नाद बनने में , अन्न का भक्षण करने में समर्थ हुए , जैसे अग्नि अन्नाद है । जो कुछ अग्नि में डालो , अग्नि सब खा जाती है ( अन्नाद - अर्थात् अन्न - अद् / भक्षण )। अतः  : उलूखल साधना का एक उपयोग तो यह है कि शरीर की चेतना इतनी प्रबल हो , उरु हो कि वह चाहे जिस जड पदार्थ पर, अन्न पर केन्द्रित की जाए , उसे ही स्वादिष्ट या मधुर बना दे , उसी में मधु का , परमात्मा का दर्शन करने लगे । दूसरा विकल्प यह है कि पहले अन्न की चेतना को उलूखल में डालकर उरु बनाया जाए और तब उसे ग्रहण किया जाए अथवा देवों को अर्पित किया जाए ।

          वैदिक साहित्य में , तथा पुराणों में भी , कहीं शिर को , कहीं मुख में दांतों को , कहीं ऊरुओं को , कहीं पैरों को उलूखल का रूप दिया गया है ( अथवा वहां उलूखल रखी जाती है ) । अतः ऐसा कहा जा सकता है कि शरीर में जहां - जहां भी ऊर्जाओं की योनियां बन सकती हों , वहीं - वहीं उलूखल स्थापित की जा सकती है ।

          उलूखल रूपी ऊर्जा की उरु स्थिति को सर्वदा बनाएं रखना संभव नहीं है , जैसे  जड पदार्थ में प्रवर्धित ऊर्जा को अधिक देर स्थिर नहीं रखा जा सकता । इसका उपाय यह किया गया है कि इस उलूखल रूपी ऊर्जा का वर्धन कृष्णाजिन पर , कृष्ण स्थिति पर करो । कृष्ण अर्थात् जिसमें से कोई ऊर्जा बाहर न निकलती हो , जिसमें से ऊर्जा का क्षय न होता हो । पुराणों में संभवतः इसी तथ्य का स्पष्टीकरण उलटी रखी उलूखल पर चढकर कृष्ण द्वारा छींके पर रखे गोरख का भक्षण करने तथा उलूखल से बंध कर यमलार्जुन का उद्धार करने के रूप में किया गया है। छींके पर गोरख का होना बहुत उच्च ऊर्जा की स्थिति में अन्न का स्थित होना हो सकता है जिसे केवल विशेष उपायों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । कृष्णोपनिषद २१ में उलूखल को कश्यप व रज्जु को माता अदिति कहा गया है । कश्यप अवस्था समाधि से व्युत्थान की अवस्था को भी कहा जाता है । अतः यदि उलूखल को उल्टा कर दिया जाए अर्थात् ऊर्जा को उरु बनाने की अपेक्षा लघु बनाया जाए तो वह समाधि में जाने की अथवा कृष्ण अवस्था प्राप्त करने की स्थिति होगी । समाधि में ऊर्जा का क्षय नहीं होगा । पुराणों में कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा के संदर्भ में , कृष्ण ने अर्जुन वृक्षों के मूल में उलूखल को तिर्यक / तिरछा करके लगाया और खींचा तो अर्जुन वृक्ष उखड कर गिर पडे । जैसा कि अर्जुन शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है , अर्जुन अवस्था समाधि में  पर्जन्य वर्षा होने पर उत्पन्न अर्जुनी / श्वेत उषा की स्थिति हो सकती है । लेकिन कठिनाई यह है कि इसकी गति दो तरफा नहीं है । ऐसा नहीं है कि जब चाहे इस स्थिति से बाहर निकल आओ । कृष्ण ने उलूखल के माध्यम से सारी ऊर्जा का कर्षण कर लिया है ( कृष्ण अर्थात् कर्षण करने वाला , खींचने वाला ) । अतः वृक्ष के रूप में जो ऊर्जा का क्षय हो रहा था , वह समाप्त हो गया है । यह भी संभव है कि कृष्ण और रज्जु के माध्यम से ऊर्जा के कर्षण की कथा में कोई अन्य रहस्य छिपा हो जिसका आधुनिक विज्ञान में उपयोग हो सकता हो ।

          अथर्ववेद ११.३.३ में बार्हस्पत्य ओदन के संदर्भ में चक्षु को मुसल और काम को उलूखल कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण में उलूखल केवल अन्न व प्राण तक सीमित है । ऐसा लगता है कि अथर्ववेद का प्रसंग मन के स्तर पर उलूखल होने का प्रतीक है ।

          ऋग्वेद १.२८ सूक्त उलूखल से सम्बन्धित है और इसकी पांचवी ऋचा का विनियोग वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से किया गया है । इसमें उलूखल से दुन्दुभि जैसा जयकारक शब्द करने की प्रार्थना की गई है । अन्य बहुत से वैदिक संदर्भ भी उलूखल और वाक् से संबंक्षित हैं जिनकी व्याख्या अपेक्षित है । उलूखल और मुसल के मिथुन की व्याख्या भी अपेक्षित है । इसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में यज्ञ में यूप (काष्ठ स्तम्भ जिससे यज्ञ पशु बांधा जाता है ) के सार्वत्रिक रूप से उलूखलबुध्न होने का उल्लेख आता है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.२९८ आदि )जिसकी व्याख्या अपेक्षित है ।

 

संदर्भ

उलूखल

१यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥

- - - - - - - - - - - - - - - -

यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः ॥

- - - - - - - - - - -, ऋ. १.२८.१

२ ये व्रीहयो यवा निरूप्यन्ते अंशव एव ते। यान्युलूखलमुसलानि ग्रावाण एव ते।- - - -अथर्व. ९.६.१५

३उलूखले मुसले यश्च चर्मणि। यो वा शूर्पे तण्डुलः कणः। यं वा वातो मातरिश्वा पवमानो ममाथाग्निष्टद्धोता सुहुतं कृणोतु ॥ - अथर्व. १०.९.२६

४तस्योदनस्य बृहस्पतिः शिरो ब्रह्म मुखम्। द्यावापृथिवी श्रोत्रे सूर्याचन्द्रमसावक्षिणी सप्तऋषय प्राणापानाः। चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम्। दितिः शूर्पमदितिः शूर्पग्राही वातोऽपाविनक्।अश्वाः कणा गावस्तण्डुला मशकास्तुषाः। - अथर्व. ११.३.१

५यद्यत् कृष्णः शकुन एह गत्वा त्सरन् विषक्तं बिल आससाद। यद्वा दास्या३र्द्रहस्ता समङ्क्त उलूखलं मुसलं शुम्भतापः ॥ - अथर्व. १२.३.१३

६महानग्न्युलूखलमतिक्रामन्त्यब्रवीत्। यथा तव वनस्पते निरघ्नन्ति तथैवति ॥ - अथर्व. २०.७०.६

७यज्ञायुधसंभृत्याभिधानम् : - - - - कृष्णाजिनं च शम्या चोलूखलं च मुसलं च दृषच्चोपला चैतानि वै दश यज्ञायुधानि य एवं वेद मुखतोऽस्य यज्ञः कल्पते - - - तै. सं. १.६.८.३

८स्वयमातृण्णास्थापनम् : उलूखलमुप दधात्येषा वा अग्नेर्नाभि सनाभिमेवाग्निं चिनुतेऽहिँसाया औदुम्बरं भवत्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्जमेवाव रुन्धे - - - तै. सं. ५.२.८.७

९आसन्द्याभिधानम् : प्रजापतिर्वा एष यदग्निस्तस्योखा चोलूखलं च स्तनौ तावस्य प्रजा उप जीवन्ति यदुखां चोलूखलं चोपदधातति ताभ्यामेव यजमानोऽमुष्मिंल्लोकेऽग्निं दुहे - - -तै. सं. ५.६.९.२

१०षड्रात्रकथनम् : उलूखलबुध्नो यूपो भवति प्रतिष्ठित्यै - - - तै. सं. ७.२.१.३

सारस्वतसत्रप्रकरणम्--उलूखलबुध्नो यूपः शांश्रौसू. १३.२९.

११ यदुलूखलमुपदधाति विष्णोरेव नाभा अग्निं चिनुत औदुम्बरं भवत्यूर्ग्वा उदुम्बर ऊर्जमेव मध्यतो दधाति यजमाने च प्रजासु च - - - - काठ. सं. २०.७

पः प्रणेष्यन् वाचं यच्छेदौलूखलेन वै दृषदा देवा यज्ञमुखाद्रक्षाँस्यपाघ्नन्- काठसं. ३२.७

१२मनसा वै प्रजापतिर्यज्ञमतनुतौलूखलस्योद्वदितोरध्वर्युश्च यजमानश्च वाचं यच्छेतां - - - - काठ. सं. ३२.७

१३ अन्वाहार्यपचने पिष्टलेपस्य होमे मन्त्रम् : उलूखले मुसले यच्च शूर्पे। आशिश्लेष दृषदि यत्कपाले। अवप्रुषो विप्रुषः संयजामि। विश्वे देवा हविरिदं जुषन्ताम्। - तै. ब्रा. ३.७.६.२१

१४ अग्निहोत्रम् : अथैतां चितां चिन्वन्ति। - - - - -पार्श्वयोर् मुसल च शूर्पे च पत्त उलूखलम्। - - - जै. ब्रा. १.४८

१५ षड्रात्राः -- चक्रवती सदोहविर्धाने भवत्, उलूखलबुध्नो यूप, उत्क्रान्त्या अनपभ्रंशाय। - जै. ब्रा. २.२९८

१६ उपगु - इन्द्र संवाद : - - - तं ह याजयांचकार। स्वयम् एव सदोहविर्धाने उत्तस्थतुः। उलूखले सोमम् अभिषुषाव। - - - जै. ब्रा. ३.२००,२०१

१७पात्रासादनम् : अथ तृणैः परिस्तृणाति। द्वन्द्वं पात्राण्युदाहरति - - - - - - -उलूखलमुसले। - - - - श. ब्रा. १.१.१.२२

१८पुरोडाशकरणम् :अथ दक्षिणेनोलूखलमाहरति। नेदिह पुरा नाष्ट्रा रक्षांस्याविशानिति। ब्राह्मणो हि राक्षसामपहन्ता, तस्मादभिनिहितमेव सव्येन पाणिना भवति ॥ - श. ब्रा. १.१.४.६

१९अथोलूखलं निदधाति - अद्रिरसि व्वानस्पत्यो ग्रावासि पृथुबुध्न इति वा। तद्यथैर्वा सोमं राजानं ग्रावभिरभिषुण्वन्ति, एवमेवैतदुलूखलमुसलाभ्यां दृषदुपलाभ्यां हविर्यज्ञमभिषुणोति। अद्रय इति वै तेषामेकं नाम। तस्मादाह - अद्रिरसीति। वानस्पत्य इति वानस्पत्यो ह्येष। ग्रावासि पृथुबुध्न इति। ग्रावा ह्येष, पृथुबुध्नो ह्येष। - - - - - - - - अथ मुसलमादत्ते - बृहद्ग्रावासि वानस्पत्य इति। -श. ब्रा.१.१.४.७

२०तद्यदेतामत्र वाचं विसृजते - एष हि यज्ञ उलूखले प्रत्यष्ठात्। एष हि प्रासारि। तस्मादाह - वाचो विसर्जनमिति॥ श. ब्रा. १.१.४.८

२१दक्षिणा ब्राह्मणम् : उलूखलमुसलाभ्यां दृषदुपलाभ्यां हविर्यज्ञं घ्नन्ति। - श. ब्रा. २.२.२.१

२२माहेन्द्रग्रह :अथोपाकृत्यैतां वाचं वदति - अभिषोतारोऽभिषुणुत, औलूखलानुद्वादयत, अग्नीदाशिरं विनय, सौम्यस्य वित्तादिति। ते वै तृतीयसवनायैवाभिषोतारोऽभिषुण्वन्ति। तृतीयसवनायौलूखलानुद्वादयन्ति। तृतीयसवनायाग्नीदाशिरं विनयति। - - - - -श. ब्रा. ४. ३.३.१९

२३दक्षिणादानम् : घ्नन्ति वाऽएतद्यज्ञम् - यदेनं तन्वते। यन्न्वेव राजानमभिषुण्वन्ति - तत् तं घ्नन्ति, यत्पशुं संज्ञपयन्ति, विशासति - तत् तं घ्नन्ति, उलूखलमुसलाभ्यां दृषदुपलाभ्यां हविर्यज्ञं घ्नन्ति। - श. ब्रा. ४.३.४.१

२४अथ यत् - स्रुचाऽउपदधाति, यदुलूखलमुसले। या समिध आदधाति - सा वानस्पत्येष्टका। - श. ब्रा. ६.१.२.३०

२५अथोलूखलमुसलेष्टकोपधानम् :अथोलूखलमुसलेऽउपदधाति। विष्णुरकामयत - अन्नादः स्यामिति। स एतेऽइष्टकेऽअपश्यत् - उलूखलमुसले। तेऽउपाधत्त। तेऽउपधायान्नादोऽभवत्~। तथैवैतद्यजमानो यदुलूखलमुसलेऽउपदधाति, येन रूपेण यत्कर्म कृत्वा विष्णुरन्नादोऽभवत्~ - तेन रूपेण तत्कर्म कृत्वाऽन्नादोऽसानीति। तदेतत्सर्वमन्नम् - यदुलूखलमुसले। उलूखलमुसलाभ्यां ह्येवान्नं क्रियते। उलूखलमुसलाभ्यामद्यते। - - - - - - प्रादेशमात्रे भवतः। प्रादेशमात्रो वै गर्भो विष्णुः। अन्नमेतद्। - - - -औदुम्बरे भवतः। ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः - - - - - - चतुः स्रक्ति भवति। चतस्रो वै दिशः। सर्वासु तद्दिक्षु वनस्पतीन्दधाति। - - - - -मध्ये सङ्गृहीतं भवति - उलूखलरूपतायै। यद्वेवोलूखलमुसलेऽउपदधाति। प्रजापतेर्विस्रस्तात्प्राणो मध्यत उदचिक्रमिषत्। तमन्नेनागृह्णात्। - - - - - - - -श. ब्रा. ७.५.१.१५

२६सोऽब्रवीत्। अयं वाव मा सर्वस्मात्पाप्मन उदभार्षीदिति। यदब्रवीदुदभार्षीन्मेति - तस्मादुदुम्भर। उदुम्भरो ह वै तमुदुम्बर इत्याचक्षते - परोऽक्षम्। - - - - -उरु मेऽकरदिति - तस्मादुरूकरम्। उरूकरं ह वै तदुलूखलमित्याचक्षते। परोऽक्षम् - परोक्षकामा हि देवा। सैषा सर्वेषां प्राणानां योनि - यदुलूखलम्। शिरो वै प्राणानां योनिः। श. ब्रा. ७.५.१.२२

२७द्विदेवत्ययोपदधाति। द्वे ह्युलूखलमुसले। - - - -श. ब्रा. ७.५.१.२५

२८अथोखामुपदधाति। योनिर्वाऽउखा। योनिमेवैतदुपदधाति। तामुलूखलऽउपदधाति। अन्तरिक्षं वाऽउलूखलम्। यद्वै किञ्चास्या ऊर्ध्वम् - अन्तरिक्षमेव तत्। - - - - -श. ब्रा. ७.५.१.२६

२९- - - - -इमे वै लोका उखा। इमे लोकाः प्रजापतिः। तामुलूखलऽउपदधाति। तदेनमेतस्मिन्त्सर्वस्मिन्प्रतिष्ठापयति - प्राणेऽन्नऽऊर्जि। - - - - श. ब्रा. ७.५.१.२७

३०उखोपरि होमः --  उदरमुखा। योनिरुलूखलम्। उत्तरोखा भवति - अधरमुलूखलम्। उत्तरं ह्युदरम् - अधरा योनिः। शिश्नं मुसलम्। - - - -श. ब्रा. ७.५.१.३८

३१अथ यजुष्मत्यः - दर्भस्तम्बः, - - - -उलूखलमुसले, उखा, - - - -श. ब्रा. १०.४.३.१४

३२अथ यदुत्तानं पुरुषमुपदधाति - उत्ताने स्रुचा उत्तानमुलूखलम्, उत्तानामुखां तदुत्तानश्चीयते। - श. ब्रा. १०.५.५.७

३३घ्नंति वा एतद्यज्ञं, यदेनं तन्वते। - - - - - -उलूखलमुसलाभ्यां दृषदुपलाभ्यां हविर्यज्ञं घ्नन्ति। - श. ब्रा. ११.१.१.१

३४यजमान को मृत जैसा मानने पर : - - - - -शिश्नस्यांते शम्याम्। आंडयोरंते वृषास्वौ। अन्वगुलूखलं च मुसलं च। अंतरेणोरू अन्यानि यज्ञपात्राणि। - श. ब्रा. १२.५.२७

औदुम्बरमुलूखलं भवति – मैसं ३.२.७

३५पिण्डपितृयज्ञोऽपराह्णेऽमावास्यायाम्। दक्षिणाग्नेः पुरस्ताच्छूर्पं स्थालीं स्फ्यं पात्रीमुलूखलमुसले च संसाद्य। - - - - -शां. श्रौ. सू. ४.३.२

३६यजमानस्य जीवतः मृत्यु कर्माणि : ऊर्वोरष्ठीवतोश्चोलूखलमुसले। - शां. श्रौ. सू. ४.१४.३२

३७सरस्वत्या विनशने दीक्षा सारस्वतानाम्। - - - - - उलूखलबुध्नो यूपः। - शां. श्रौ. सू. १३.२९.

३८ओदनेनोपयम्य फलीकरणानुलूखलेन जुहोति। एवमणून्। - कौशिक सूत्र १४.१९

३९द्वादशाहान्तर्गत पंचरात्रे सारस्वतम् अयनम् - - - - उलूखलबुध्न एषां यूपो भवति - - - - बौ. श्रौ. सू. १६.२९

४०अग्रेण हविर्धाने चर्मण्युलूखलमुसले निधायाँशून्समवक्षुदां चकार यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिरिति - - - - - बौ. श्रौ. सू. १८.४१

४१दर्शपूर्णमासस्य द्वैध सूत्राणि :कृष्णाजिनस्यास्तरण इति। स ह स्माह बौधायनो ऽविसृजन्नेतत्कर्म कुर्यात्कृष्णाजिनावधवनादास्तरणादेवमुलूखलाध्यूहनादा- - - - - - -बौ. श्रौ. सू. २०.६

४२द्वैध सूत्राणि : उलूखलबुध्नो यूपो भवतीति। सर्वान्कारान्कुर्यादिति बौधायनः प्रोक्ष्यैनमुच्छ्रयेदिति शालीकिः प्रोक्ष्योपास्य यूपशकलमुच्छ्रयेदित्यौपमन्यवः। - बौ. श्रौ. सू. २३.१२

४३अमावास्यायां पिण्डपितृयज्ञ : अपरेणान्वाहार्यपचनं प्रत्यगुदग्ग्रीवे कृष्णाजिन उलूखले प्रतिष्ठिते दक्षिणाप्राची तिष्ठन्ती पत्न्यवहन्ति परापावमविवेकम्। - आप. श्रौ. सू. १.७.१०

४४दर्शपूर्णमासे फलीकरणहोमं : एवं पिष्टलेपानुलूखले मुसले यच्च शूर्प आशिश्लेष दृषदि यत्कपाले। अवप्रुषो विप्रुषः संयजामि विश्वे देवा हविरिदं जुषन्ताम्। - - - - - आप. श्रौ. सू. ३.१०.१

४५प्रातः सवनम् : नखैर्लाजेभ्यस्तुषान्संहरति १४ नखेषूलूखलधर्मान्मुसलधर्मांश्च करोति। - आप. श्रौ. सू. १२.४.१५

४६अग्निचयनम् :यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिरिति प्रादेशमात्रं चतुः स्रक्त्यौदुम्बरमुलूखलमुत्तरे अंसे प्रयुनक्ति। अपरिमितं मुसलम्। उत स्म ते वनस्पते वातो वि वात्यग्रमित्। अथो इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखलेति सर्वौषधस्य पूरयित्वावहत्येदं विष्णुर्विचक्रम इति मध्ये ऽग्नेरुपदधाति। तद्विष्णोः परमं पदमिति मुसलम्। - - - आप. श्रौ. सू.१६.२६.१

४७सत्यं पूर्वैर्ऋषिभिश्चाकुपानो ऽग्निः प्रविद्वानिह तद्दधात्विति वोलूखलमुपदधातीति वाजसनेयकम्। - आप. श्रौ. सू. १६.२६.१२

४८सत्राणि : उलूखलबुध्नो यूपः प्रकृष्य उपोप्त एव। - आप. श्रौ. सू. २३.१२.१५

४९दर्शपूर्ण मासः : शूर्पाग्निहोत्रहवणि स्फ्यकपालं शम्याकृष्णाजिनमुलूखलमुसलं दृषदुपलम् अर्थवच्च। - कात्या. श्रौ. सू. २.३.८

५०दर्शपूर्ण मासः : उलूखले मुसले यच्च शूर्पऽआशिश्लेष दृषदि यत् कपाले। उत्प्रुषो विप्रुषः सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः स्वाहेति पिष्टलेपाञ्जुहोति। - कात्या. श्रौ. सू. ३.८.१

५१सोमयागः : शुक्रं पूतभृत्यासिच्य पृष्ठमुपाकृत्य प्रेष्यत्यभिषोतारोऽभिषुणुतौलूखलानुद्वादयताग्नीदाशिरं विनय सौम्यस्य वित्तादिति। - कात्या. श्रौ. सू. १०.३.१२

५२चयनम् : उलूखलस्य रेतः सिग्वेलायामरत्निमात्र श्रुतेः। - कात्या. श्रौ. सू. १७.४.२१

५३उलूखलऽउखां कृत्वोपशयां पिष्ट्वा न्युप्य पुरस्ताद्ध्रुवासीत्युखाम्। कात्या. श्रौ. सू. १७.५.४

५४सत्राणि : उलूखलबुध्नो यूपः प्रकृष्यः। - कात्या. श्रौ. सू. २४.५.२७

५५पिण्डपितृयज्ञः : कृष्णाजिन उलूखलं कृत्वेतरान्पत्न्यवहन्यादविवेचम्। आश्व. श्रौ.  सू. २.६.७

५६विजातायाः परिदां करोति दक्षिणार्धे ऽगारस्याग्निमुपसमाधाय सर्षपान्फलीकरणमिश्रानञ्जलावध्युप्य जुहोति शण्डो मर्क उपवीरस्तुण्डिकेर उलूखलः। च्यवनो नश्यतादितः स्वाहेति - - - भा. गृ.  सू. १.२३

५७अष्टका :  उपासन एव जुहोत्युलूखला ग्रावाणो घोषमक्रत हविः कृण्वन्तः परिवत्सरीणाम्। - - - भा. गृ. सू. २.१५

५८बालकसूतिक काले होमाः : सर्षपान्फलीकरणमिश्रान्दर्व्या जुहोति शण्डो मर्कोपवीतस्तौण्डुलेयः उलूखलश्चपलो नश्यतामितः स्वाहा। अनालिखन्नवलिखन् किंवदन्त उलूखलश्चपलो नश्यतामितः स्वाहा। हर्यक्ष्णः कुम्भिः शक्तिर्हन्ता चुपणीमुखश्चपलो नश्यतामितः स्वाहा। - - - - काठ. गृ. सू. ३५.१

५९उलूखलान्मुसलं पतितं हिनस्ति पत्नीं कुले ज्येष्ठम्। - अथर्व परि. ३७.१.२

६०यद्वत्प्रजाः पापनयद्धस्ताद्यदि वोलूखलात्। सपत्नान्मे परिपाहि मां त्वेवं परिपाहि नः। - अथर्व परिः ३७.१.५

६१उत्पात : नर्तनं च कुशूलानां धान्यराशेश्च कम्पनम्। उलूखलानां संसर्पो मुसलानां प्रवेशनम् ॥ - अथर्व परि. ६४.४.१०

६२कश्यपोलूखलः ख्यातो रज्जुर्माताऽदितिस्तथा। - कृष्णोपनिषद १.२१