PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
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उलूक टिप्पणी : तैत्तिरीय आरण्यक ४.३३ में हिरण्य अक्ष व अयोमुख वाले उलूक का उल्लेख आता है जो राक्षसों का दूत है और जिसके नाश की अग्नि से प्रार्थना की गई है । महाभारत में शकुनि कितव - पुत्र उलूक का वर्णन आता है जो दुर्योधन का दूत बन कर पाण्डवों के पास जाता है । महाभारत युद्ध में सहदेव द्वारा उलूक का वध होता है । दूसरी ओर अश्वत्थामा सुप्त पाण्डव - पुत्रों के वध की प्रेरणा उलूक से प्राप्त करता है । यह संकेत करता है कि उलूक के गौ और अश्व अथवा अक्ष साधना और अश्व साधना , इस प्रकार दो पक्ष हैं । कितव - पुत्र उलूक अक्ष या एकान्तिक साधना से संबंधित है । अथर्ववेद के अनुसार अक्षों से कितव न करे । तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार अक्ष साधना की पराकाष्ठा हिरण्य अक्ष हो सकती है । सहदेव , जो उलूक का वध करता है , गायों का विशेषज्ञ है । दूसरी ओर , अश्वत्थाम को अश्व साधना का प्रतीक माना जा सकता है । उसे शत्रु नाश के लिए उलूक रूपी गौ साधना का आश्रय लेना पडता है । साधना के गौ और अश्व रूपों का उपयोग पुराणों में उलूक से सम्बन्धित कथाओं की व्याख्या के लिए भी किया जा सकता है । स्कन्द पुराण की कथा के अनुसार उलूक घण्ट नामक ब्राह्मण था जिसे अपनी वासनाओं के कारण शापवश निशाचारी उलूक बनना पडा । गीता २.६९ के अनुसार जो सब भूतों के लिए रात्रि है , उसमें संयमी पुरुष जागता है । यही स्थिति उलूक की है । वह अवलोकन करता है कि उसकी चेतना में कहां - कहां काक रूपी कालिमा है जो सुप्त है । प्रत्येक अक्ष / इन्द्रिय से कालिमा को समाप्त करना होगा , तभी वह हिरण्य अक्ष बन सकेगा । इसे गौ साधना या एकान्तिक साधना कहा जा सकता है । लिङ्ग पुराण में गानबन्धु नामक उलूक द्वारा राजा भुवनेश को अपनी देह का भक्षण करते हुए देखने के पश्चात् हरिमित्र नामक ब्राह्मण से संगीत की शिक्षा लेने आदि की कथा में राजा भुवनेश एकान्तिक साधना का प्रतीक है । भुवनेश , जो केवल अपना ही गुणगान चाहता है , अहं ब्रह्मास्मि की स्थिति हो सकती है । जैसा कि ईश की टिप्पणी में कहा जा चुका है , अपनी वासनाओं को वसु बनाना ही ईश बनना है । दूसरी ओर हरिमित्र ब्राह्मण विष्णु का, यज्ञ का गुणगान करता है । यह सार्वत्रिक साधना , सारे जीवन को विष्णुमय या यज्ञमय बनाने की साधना , अश्व साधना है । ब्रह्म पुराण में उलूकों व कपोतों के वैर और मित्रता की कथा का स्रोत ऋग्वेद १०.१६५ सूक्त(देवाः कपोत इषितो इति) है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है । पुराणों में इसी सूक्त का विनियोग यजमान के गृह पर उलूक के बोलने पर , जो मृत्यु का सूचक है , किया गया है । ऐसी संभावना है कि उलूक समाधि से पूर्व की अवस्था है और कपोत समाधि से व्युत्थान पर आनन्द की अवस्था है । शिव पुराण ५.२६.४० में शब्द अथवा नाद के घोष, कांस्य , शृङ्ग, घण्टा , वीणा , दुन्दुभि आदि ९ प्रकारों का उल्लेख है । ऐसा हो सकता है कि उलूक के गृह पर आकर बोलने से तात्पर्य निम्न कोटि का शब्द करने से हो । तैत्तिरीय आरण्यक में तो हिरण्याक्ष और अयोमुख वाले उलूक को राक्षसों का दूत कहा गया है जिसके नष्ट होने की कामना की गई है । यहां अयोमुख से तात्पर्य निम्न कोटि का शब्द करने से हो सकता है । पैप्पलाद संहिता २०.६३.५ ( २०.५९.५) में क्रमश इन्द्र (इन्द्रेण प्रेषित उलूक इति) , सूर्य , सोम , बृहस्पति , प्रजापति , निर्ऋति,, वरुण , यम व मृत्यु द्वारा प्रेषित उलूकों का उल्लेख आता है जो कृष्ण त्वचा को नष्ट करते हैं । लोक में उलूक के लक्ष्मी का वाहन होने का कथन प्रचलित है । इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि उलूक वासनाओं को वसुओं में , धन में रूपांतरित कर सकता है । ऐसा पक्षी लक्ष्मी का वाहन होने योग्य है । उलूक के पास ऐसा कौन सा शस्त्र है जिससे वह वासनाओं को नष्ट कर सके ? शिव पुराण के अनुसार तो घोष , कांस्य आदि शब्दों में ही वह शक्ति है जो शत्रुओं को नष्ट कर देती है । महाभारत में अश्वत्थामा उलूक बनकर रुद्र से असि ग्रहण करता है जिससे वह सुप्त पाण्डव - पुत्रों का नाश करता है । असि शब्द की व्याख्या के लिए असि पर टिप्पणी दृष्टव्य है । उलूक के संदर्भ में असि का क्या महत्व है , यह विचारणीय है । असि को संवत्सर में १३ वें मास अथवा चन्द्रमा का रूप कहा गया है । महाभारत में पलित मूषक के संदर्भ में उलूक का चन्द्रक नाम आया है । हो सकता है कि शब्द ब्रह्म की साधना चन्द्र साधना के अन्तर्गत आती हो । उलूक को दिवान्ध कहा गया है । यह कथन भी उलूक के चन्द्रमा से सम्बन्धित होने की पुष्टि करता है । पद्म पुराण में वनस्पतियों पर उलूक के राज्य की कथा के संदर्भ में , मैत्रायणी संहिता ३.१४.४ में भी वनस्पतियों के लिए उलूक के आलभन का उल्लेख आता है । अरण्य में वनस्पति की चरम परिणति मधु उत्पन्न करने में है । अतः हो सकता है कि उलूक की चरम परिणति भी मधुमान अवस्था उत्पन्न करने में हो । जैमिनीय ब्राह्मण मे १.७ में उल्लेख आता है कि अस्त होते हुए सूर्य ने वनस्पति में स्वधा रूप में प्रवेश किया । हमें पता ही है कि वनस्पति में स्व को धारण करने का, छिन्न कर दिए जाने पर फिर उग आने का गुण उसमें स्टेम सैलों की विद्यमानता के कारण है । अतः इस दृष्टि से भी उलूक पर विचार करने की आवश्यकता है । उणादिकोश ४.४१ में उलूक शब्द की निरुक्ति वलेरूक: के रूप में की गई है जिसकी सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । आश्वलायन श्रौत सूत्र ३.३.१ , शांखायन श्रौत सूत्र ५.१७.९ , तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.६.३ , ऐतरेय ब्राह्मण २.७ आदि के अनुसार यज्ञ में पशु को काटने वाले शामित्र को निर्देश दिया जाता है कि इस पशु की वनिष्ठु /बडी आन्त्र को उरूकं मानकर काटना मत । इस कथन की सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । उलूक की व्याख्या के लिए ऋग्वेद और अथर्ववेद में उ लोक शब्द पर भी विचार करना होगा ( तुलनीय : लिङ्ग पुराण में उलूक हत्या के प्रायश्चित्त रूप में प्रणव जप का निर्देश ) । वैदिक ऋचाओं में जहां - जहां उ अक्षर स्वतन्त्र रूप से प्रकट हुआ है उसका अर्थ सायण ने छन्द के अक्षर पूरा करने के लिए प्रयुक्त निरर्थक अक्षर के रूप में किया है , लेकिन पद - पाठकार ने उ का अर्थ ऊँ किया है । इस ऊँ की अभिव्यक्ति सर्वत्र हो , उ लोक का यह अर्थ लिया जा सकता है । ऋग्वेद २.४१.७(गोमदू षु नासत्या इति) में ऊँ सु के साथ गौ और अश्व का साथ - साथ उल्लेख आया है , अतः यह कल्पना की जा सकती है कि ओंकार की साधना के दो पक्ष हैं - गौ और अश्व । ऋग्वेद ४.५१.२(व्यू व्रजस्य तमसो इति) में ऊँ व्रज का उल्लेख है । व्रज गौ के निवास स्थान को कहते हैं । अतः यह गौ पक्ष से सम्बन्धित ओंकार साधना हुई । ऋग्वेद ७.३५.१२ में भी ऊँ गाव: का उल्लेख है । दूसरी ओर , ऋग्वेद ७.३५.७ , ७.४२.२ , ७.६१.६ व १०.८८.६ में ऊँ यज्ञ का उल्लेख आया है । यह ऊँ के अश्व रूप का प्रतीक हो सकता है । संदर्भ : उलूक १उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम्। सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र॥- ऋ. ७.१०४.२२ २यदुलूको वदति मोघमेतद्यत् कपोतः पदमग्नौ कृणोति। यस्य दूतः प्रहित एष एतत् तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे॥ - ऋ. १०.१६५.४ ३अमून् हेतिः पतत्रिणी न्येतु यदुलूको वदति मोघमेतत्। यद् वा कपोतः पदमग्नौ कृणोति ॥ यौ ते दूतौ निर्ऋत इदमेतोऽप्रहितौ प्रहितौ वा गृहं नः। कपोतोलूकाभ्यामपदं तदस्तु ॥ - अथर्व ६.२९.१ ४उलूकयातुं शुशुलूकयातुं - - - - - अथर्व. ८.४.२२ ५विष्कन्धस्य काष्ठस्य कर्दमस्योलूक्या। अपस्फानस्य कृत्या यास् तेषां त्वं रधूगिले जहि ॥ - पैप्पलाद सं. १.५८.१ ६उलूकयातुर् भृमलो यश् च यातुस् त्यं या नुदषि वधास् सपित्र्यास् तेन श्रयाहिर् उत मंहिधेहिभिः ॥ - पैप्पलाद सं. १३.१०.४ ७उलूकयातुं शुशुलूकयातुं - - - - -पैप्पलाद सं. १६.११.२ ८कर्णादृश द्रतामह उलुकीं केशिनीं क्रकूम्। षडुरिमं बर्हिष्यं नाशयामस् सदान्वाः ॥- पै. सं. १७.१२.३ ९यद् उलूको वदति मोघम् एतद् यत् कपोतः पदम् अग्नौ कृणोति। - - - - -पै. सं. १९.२७.११, १९.४८.३ १०त्रिंशन् मुष्का कध्वस्य दश मुष्काव् उलूक्या। - - - - - पै. सं. १९.५२.१५ ११सुमङ्गलेन वचसा केशिन् ग्रामं त्वं वद। ब्रह्माब्रह्मा तुव उलूकाच्छा वदामसि ॥ - पै. सं. २०.२७.७ १२शग्मम् उलूक नो वद यं द्विष्मस् तम् इतो नय। राज्ञो यमस्य त्वा गृह एह मूषकवेह भागः ॥ पै. सं. २०.२७.९ १३यस् त्वा पृतन्यो यद् उलूका न्य् उत् तान् अपक्षितः। स मे ध्रियमाणम् आ वहद् अप द्वेषः परा वहत् ॥ - पै. सं. २०.५४.६ १४घ्नन्तु कृष्णाम् इव त्वचं सुभागम् अस्तु मे मुखम्। इन्द्रेण प्रेषित उलूक सं भजामि ते ॥ - - - -सूर्येण प्रेषित उलूक सं भजामि ते ॥ - - - -- - -सोमेन प्रेषित उलूक सं भजामि ते। - - - -- -बृहस्पतिना प्रेषित उलूक सं भजामि ते। - - - -प्रजापतिना प्रेषित उलूक सं भजामि ते। पै. सं. २०.५९.५(२०.६३.५) १५ग्राह्या दूतो ऽस्य् उलूक सं भजामि ते। निरऋत्या दूतो ऽस्य् उलूक सं भजामि ते॥ वरुणस्य दूतो ऽस्य् उलूक सं भजामि ते ॥ यमस्य दूतो ऽस्य् उलूक सं भजामि ते ॥ मृत्योर् दूतो ऽस्य् उलूक सं भजामि ते। - पै. सं. २०.६०.१ १६इन्द्रानुवचनम् : कपोत उलूकश्शशस्ते नैरऋता - काठ. सं. ४७.८ १७इत्थादुलूक आपप्तत्। हिरण्याक्षो अयोमुखः। रक्षसां दूत आगतः। तमितो नाशयाग्ने, इति।- तै. आ. ४.३३ १८अध्रिगू प्रैष : - - - - - -ऊवध्यगोहं पार्थिवं खनतात्। अस्ना रक्षः सँसृजतात्। वनिष्ठुमस्य मा राविष्ट। उरूकं मन्यमानाः। - तै. ब्रा. ३.६.६.३ १९वनिष्ठुमस्य मा राविष्टोरूकं मन्यमाना नेद्वस्तोके तनये रविता रवच्छमितार इति ये चैव देवानां शमितारो ये च मनुष्याणां तेभ्य एवैनं तत्परिददाति, इति। - ऐ. ब्रा. २.७ २०- - - - कपोत उलूक शशस्ते नैरऋता - - - -तै. सं. ५.५.१८.१ २१अथ - - - - खर - करभ - मन्थ - कङ्क - कपोत - उलूक - काक - गृध्र - - - - संस्थान्युपरि पांसुमांसपेश्यस्थिरुधिरवर्षाणि प्रवर्तन्ते- - - - -तान्येतानि सर्वाणि वायुदेवत्यान्यद्भुतानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति। - षड्विंश ब्रा.६.७.२ २२अग्न्याधेयम् : उलूके मे श्वभ्यशः - - - -बौ. श्रौ. सू .२.५ २३प्रवर्ग्य प्रायश्चित्तानि : अथ यद्युलूकोलूकी वाश्येत तमनुमन्त्रयत इत्थादुलूक आपप्तदित्यथ - - - - -बौ. श्रौ. सू.९.१८ २४अथ यदि गृध्रः सलावृकी भयेडको दीर्घमुख्युलूको भूतोपसृष्टः शकुनिर्वा वदेदसृङ्मुखः यदेतत्। यदीषितः। दीर्घमुखि। इत्थादुलूकः। - - - - आप. श्रौ. सू. १५.१९.४ २५अग्नीषोमीय पशुयाग प्रकरणम् : वनिष्टुमस्य मा राविष्टोरूकं मन्यमाना नेद्वस्तोके तनये रविता रवच्छमितार इत्यध्रिगौ - - - शां. श्रौ. सू. ५. १७. ९, आश्व. श्रौ. सू. ३.३.१ २६कण्टकशल्ययोलूकपत्रयासितालकाण्डया हृदये विध्यति। - कौशिक सूत्र ३५ २७नर्दनं च बिडालानां क्षीरवृक्षनिषेषणम्। खरैर्दीप्तैरुलूकैश्च रसद्भिः सह विग्रहः ॥ - अथर्व परि. ६४.७.५ २८गृहे यस्य पतेद्गृध्र उलूको वा कथंचन। कपोत प्रविशेच्चैव जीवा वारण्यसंभवाः ॥ - अथर्व परि. ६७.३.१ २९यद्याति वेश्म कपोतः प्रविशेत विशेषतः। राजवेश्मन्युलूको वा तत्त्याज्यमचिराद्गृहम्॥ - अथर्व परि. ७०हा.२७.९ ३०उत्पात : काकोलूककृकलासश्येननिपतिते राजछत्त्रे भग्ने ध्वजे - - - - अथर्व परि. ७२.२.६ ३१- - - - -वृषदंशातिमार्जनमुलूक प्रतिगर्जनं श्येनगृध्रादीनां ध्वजाभिलपनं - - -अथर्व परि. ७२.३.७ ३२उलूकस्य यथा भानुरन्धकारः प्रतीयते। स्वप्रकाशे परानन्दे तमो मूढस्य जायते। - आत्मप्रबोधोपनिषत् २५
First published : 1999 AD; published on internet : 14-1-2008 AD( Pausha shukla shashthee, Vikramee Samvat 2064)
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