PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel U to Uu)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Udaana - Udgeetha  (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.)

Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. )

Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.)

Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. )

Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.)

Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.)

Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.)

Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) 

Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)

 

 

 

The word Udumbara(Ficus Glomearata) is a seldom – used word of Rigvedic mantras. There is one hymn in Atharvaveda whose presiding diety is Audumbara mani/gem. But the brahmanic and sacrificial literature has profusely used the word udumbara. It is a guess that the abundant  use of this word in brahmanic literature may be an attempt to explain those mantras of Rigveda where words Udu tyam, Udu shya etc. have been used. This guess can be strengthened from a reference of a sacred text where a mantra udu twaa vishvedevaa etc. is recited with simultaneous offering of a audumbari wood piece in fire.

            What may be word meaning of udumbara in Sanskrit? Dr. Fatah Singh interprets it as ut –uum – vara – that which goes upwards, towards embracing uum or Om. It is significant that in Rigvedic mantras, where the word udu has appeared, it has been interpreted by Shaakalya as ut – uum. One sacred brahmanical text interprets word udumbara as – it has elevated me from all the sins, therefore it is udumbara.

            There is a universal statement of brahmanic texts that anna/cereal is uurk and uurja is udumbara. Only one text states that udumbara is born out of Isha and Uurja. This may mean that udumbara is born out of a mixture of conscious and unconscious mind or life force. When udumbara gem/mani is referred to as the presiding diety of a hymn of Atharvaveda, then this may be an upward transformation of this mixture of conscious and unconscious states into pure consciousness.  It has been said that until udumbara is situated in stomach, there will be no hunger. Udumbara itself is food, that food which is the self of a man. That is why a post of udumbara is established in the middle of  sadomandapa in somayaga. Sadomandapa is symbolic of stomach.

            There is an anecdote in one brahmanic text that Rohit, the only son of Harishchandra roamed into wild continuously for six years. At the end of each year, he has a special achievement. During the sixth year, he achieved honey and tasty udumbara. After that he finds a sacrificial substitute for himself.

There is an anecdote that when there was a competition between gods and demons, all trees except udumbara left the gods. Later on, gods conquered demons and put the extract of all trees in udumbara. That is why it is always wet.

उदुम्बर

ऋग्वेदे एकः उदु (उत्-ऊँ) अस्ति यस्य प्रतिनिधिसूक्तः उदु ब्रह्माण्यैरत श्रवस्य इति ( ७.२३ ) अस्ति। अन्यः इदु शब्दः अस्ति यस्य प्रतिनिधिसूक्तः अस्मा इदु प्र तवसे तुराय इति (१.६१ ) अस्ति। अयं प्रतीयते यत् इदु पदः पृथिव्यामुपरि अस्ति, उदु पदः द्यौरुपरि। ऐतरेयब्राह्मणे (६.१८) एतयोः सूक्तयोः युगपदुल्लेखमस्ति, किन्तु व्याख्या उपलब्धा नास्ति।

टिप्पणी : उदुम्बर के बारे में पुराणों से उपरोक्त संकलन अपूर्ण है । अथर्ववेद १९.३१ सूक्त औदुम्बर मणि का है । डा. फतहसिंह के अनुसार मणि मन के उच्च स्तर का प्रतीक है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि उदुम्बर का एक पक्ष वह है जो मन से अथवा मणि से भी उच्च स्तरों से संबंधित है और औदुम्बर मणि के रूप में उदुम्बर का मनुष्य व्यक्तित्व के निचले स्तरों पर विस्तार करना है । इस विस्तार का क्या परिणाम होगा , यह सूक्त में वर्णित है । इस सूक्त के अतिरिक्त वेदों की ऋचाओं में उदुम्बर शब्द बहुत कम प्रकट हुआ है , लेकिन ब्राह्मण व श्रौत ग्रन्थों में कर्मकाण्ड के संदर्भ में उदुम्बर का प्रचुरता से उल्लेख हुआ है । प्रश्न यह है कि उदुम्बर वृक्ष की कल्पना की आवश्यकता क्यों पडी ? ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाएं , और कईं सूक्त भी , उदु त्यं , उदु ष्य आदि शब्दों से आरंभ होती हैं । अतः ऐसा हो सकता है कि उदुम्बर की कल्पना इन्हीं ऋचाओं की व्याख्या के लिए की गई हो । इसकी पुष्टि में एकमात्र प्रमाण हमें काठक संहिता २१.८ तथा तैत्तिरीय संहिता ५.४..१ से मिलता है जहां अग्नि में औदुम्बरी समित् रखने के साथ उदु त्वा विश्वेदेवा( शुक्ल यजुर्वेद १२.३१ , १७.५३)यजु के विनियोग का उल्लेख है ।

     उदुम्बर शब्द की निरुक्ति क्या हो सकती है ? डा. फतह सिंह ने इसकी निरुक्ति उत् - ॐ - वर , ऊपर की ओर , ॐ की ओर चलने वाले के रूप में की है । ऋग्वेद की ऋचाओं में जहां उदु शब्द प्रकट हुआ है , उसका पद पाठ शाकल्य ने उत् - ॐ इति किया है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.२२ का कथन है कि इसने मेरा समस्त पापों से उदभर्षण किया है , अतः इसका नाम उदुम्भर या उदुम्बर है । शतपथ ब्राह्मण ६.६.३.२ में उल्लेख आता है कि देवों और असुरों की प्रतिस्पर्धा में सब वनस्पतियां देवों का साथ छोडकर चली गईं , लेकिन उदुम्बर ने उन्हें नहीं त्यागा । बाद में देवों ने असुरों को जीतकर सब वनस्पतियों का रस उदुम्बर में स्थापित कर दिया । इसी कारण से उदुम्बर सर्वदा आर्द्र , सर्वदा क्षीरी बना रहता है । शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त २ कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं , इस दृष्टि से कि उदुम्बर वृक्ष उत्पन्न होकर स्वयं पापों का नाश करेगा या उदुम्बर वृक्ष को उत्पन्न करने के लिए ही पहले पापों का नाश करना होगा । ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५ में हरिश्चन्द्र - पुत्र रोहित के अरण्य में विचरण के आख्यान में उल्लेख आता है कि ६ संवत्सर तक रोहित ने अरण्य में विचरण किया । इनमें से प्रत्येक संवत्सर में उसने कोई न कोई विशिष्ट प्राप्ति की । पांचवें संवत्सर में उसने कलियुग से कृतयुग की प्राप्ति की । छठे संवत्सर में मधु व स्वादु उदुम्बर की प्राप्ति का उल्लेख है । छठे संवत्सर में ही उसने यज्ञ पशु के रूप में शुनः शेप का क्रयण किया । इस आख्यान में दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं । एक तो यह कि साधना में उदुम्बर स्थिति की प्राप्ति से पूर्व की अवस्था कृतयुग है । पुराणों में कृत्तिका नक्षत्र से उदुम्बर के उत्पन्न होने का उल्लेख है । कृत्तिकाएं पापों को काटने वाली कैंची हैं । दूसरी ओर कृत का अर्थ हो सकता है कि अब कोई पाप शेष नहीं रह गया है ( कृतयुग को सत्ययुग भी कहते हैं ) । आख्यान का दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उदुम्बर अवस्था प्राप्ति के पश्चात शुनः अवस्था , शून्य अवस्था की प्राप्ति होती है । पुराणों में सप्तर्षियों द्वारा राजा से उदुम्बर प्रतिग्रह के अस्वीकार की कथा में सप्तर्षियों का शुनः सख / इन्द्र से मिलन होता है । ऋग्वेद १०.१४.१२ तथा अथर्ववेद १८.२.१३ में यम के चार  आंखों वाले २ श्वानों का उल्लेख है जिन्हें उदुम्बलौ कहा गया है । अतः  यह शुनः अवस्था ऐसी हो सकती है जो उदु अवस्था को बल प्रदान करती हो , उसे पुष्ट करती हो ( यह उल्लेखनीय है कि वैदिक मन्त्रों में शून्य का उल्लेख कहीं नहीं है । शून्य संभवतः शुनम् के माध्यम से प्रकट हुआ है ) ।

     शब्दकल्पद्रम कोश से संकेत मिलता है कि उदुम्बर / उडुम्वर की निरुक्ति नक्षत्रों के दर्शन के रूप में भी की जा सकती है । ताण्ड्य ब्राह्मण ४.९.१५ का सायण भाष्य इसकी पुष्टि करता है । यह सब ऊर्जा के विकास से संबंधित है ।

     पुराणों में सप्तर्षियों द्वारा हेमपूर्ण उदुम्बर के अस्वीकार करने का क्या अर्थ हो सकता है ? सारे ब्राह्मण और श्रौत ग्रन्थ एक ही रट लगाए हुए हैं कि अन्न ऊर्क् है और ऊर्ज उदुम्बर है ( उदारण के लिए , शतपथ ब्राह्मण ३.२.१.३३ ) । केवल ऐतरेय ब्राह्मण ५.२४ में इष व ऊर्ज से उदुम्बर वृक्ष की उत्पत्ति का उल्लेख है । इष शब्द की टिप्पणी में यह लिखा जा चुका है कि इष व ऊर्ज इडा के , अचेतन मन की विकासशील अवस्था के दो भाग हैं । इनमें ऊर्ज ऊर्जा है , उदान प्राण है जिसका विकास ऊर्ध्वमुखी होता है । हमारे शरीर में आंख , नाक , कान आदि यह सात ऋषि हैं । इन ऋषियों का जन्म भी जड पदार्थ में ऊर्जा के विकास से ही संभव हुआ है । ऊर्जा की प्रत्येक प्रकार से रक्षा करनी है , तभी वह शरीर में अन्य यज्ञीय विकास करेगी । सप्तर्षियों द्वारा उदुम्बर भक्षण के अस्वीकार करने के पीछे यही कारण हो सकता है । स्वामी ब्रह्मानन्द के अनुसार भक्षण का अर्थ किसी तत्त्व को सूक्ष्म बनाना होता है । लेकिन उदुम्बर को अन्नाद्य , अन्नों में श्रेष्ठतम , कहा गयाहै जिसको सूक्ष्म बनाने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है । पुराणों में उदुम्बर भक्षण के निषेध के पीछे भी यही कारण हो सकता है । सप्तर्षियों के संदर्भ में उदुम्बरों का हेमपूर्म होना एक दूसरी प्रहेलिका है । बौधायन श्रौत सूत्र १२.१३ व १२.१४ में राजसूय के संदर्भ में ३ प्रकार की मणियों का उल्लेख हुआ है : रजतमय , उदुम्बरमय और सुवर्णमय । यह उल्लेखनीय है कि शब्दकोशों में उदुम्बर का अर्थ ताम्र भी किया गया है । हो सकता है कि ताम्र , रजत व सुवर्ण ऊर्जा की क्रमिक अवस्थाएं हों ।     शिव पुराण में गौतम ऋषि के स्नान हेतु उदुम्बर शाखा से गंगा के प्रकट होने तथा अन्य पापी मुनियों द्वारा उसमें स्नान न कर पाने के उल्लेख के संदर्भ में , शतपथ ब्राह्मण ५.३.४.२ में राजसूय में जल द्वारा अभिषेक हेतु औदुम्बर पात्र के उल्लेख आए हैं । कहा गया है कि औदुम्बर पात्र से स्व: अभिषेक करता है , अन्य पात्रों से अन्य । शिव पुराण का कथन संकेत करता है कि जब तक पाप रहेंगे, तब तक उदुम्बर पात्र से अभिषेक हो ही नहीं सकता ।

     वैदिक साहित्य में उदुम्बर के विकल्प से ऊर्ज होने के सार्वत्रिक कथन को समझने के लिए हमारे पास इष / आश्विन तथा ऊर्ज / कार्तिक मासों के कृत्य हैं । आश्विन मास में पितरों हेतु श्राद्ध किया जाता है , जबकि कार्तिक मास में दीप प्रज्वलित किया जाता है , देवों का प्रबोधन किया जाता है । ऊर्ज से दीप का प्रज्वलित होना ऊर्जा का एक उपयोग है । वैदिक साहित्य में उदुम्बर काष्ठ से प्लेङ्खा , आसन्दी , सीर / हल , दीक्षा में धारण हेतु दण्ड , स्रुवा, चमस , उलूखल , मुसल आदि आदि यज्ञ पात्रों का निर्माण किया गया है । यह सब यज्ञ पात्र उस अल्प - अल्प ऊर्जा के एकत्रीकरण से बने हैं जिसे उदान प्राण कहते हैं । वराह पुराण आदि में उदुम्बर के जिन महाकूर्म समान फलों का उल्लेख है , वह कूर्म भी उदान प्राण का ही प्रतीक है । शतपथ ब्राह्मण १४.९.३.२१ में उदुम्बर के चार प्रकार कहे गए हैं : चमस , स्रुव , इध्म और उपमन्थ - द्वय ।

     कथासरित्सागर में मकर - पत्नी द्वारा वानर के हृत्पद्म को खाने की इच्छा के संदर्भ में , यज्ञ में सदो - मध्य में औदुम्बरी शाखा का रोपण किया जाता है । ताण्ड्य ब्राह्मण ६.४.६ के अनुसार सद: आत्मा का प्रतीक है और उसका मध्य हृदय का । औदुम्बरी का रोपण करते समय कहा जाता है कि मैं तुझे आयु के सदन में स्थापित करता हूं , अवतः / यज्ञ की छाया में तथा समुद्र के हृदय में । समुद्र के लिए नम: तथा समुद्र के चक्षु के लिए नम: । ताण्ड्य ब्राह्मण इस कथन की व्याख्या में कहता है कि समुद्र वाक् का रूप है जबकि मन समुद्र - चक्षु का रूप है । कथासरित्सागर की कथा की व्याख्या का प्रयास वानर को मन का और मकर - पत्नी को वाक् का प्रतीक मान कर किया जा सकता है ।

     शतपथ ब्राह्मण आदि में सार्वत्रिक रूप से उदुम्बर को अन्न कहा गया है ( उदुम्बर शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है ) । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.१६ में प्राण, अन्न व ऊर्क् के त्रिक् का उल्लेख है । उदुम्बर का उल्लेख ऊर्क् व अन्न के रूप में साथ - साथ आता है । शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.१२ के अनुसार जो ऊर्क् है, वह मनुष्य का स्व है । जब तक पुरुष का स्व बना रहता है तब तक उसे क्षुधा नहीं सताती । सोमयाग में लगता है कि इस कथन का बहुलता से उपयोग किया गया है । सोमयाग में उत्तरवेदी में पश्चिम दिशा में सदोमण्डप बना होता है जिसमें ऋत्विजगण आसीन होकर गायन आदि करते हैं । इस सदोमण्डप को यज्ञपुरुष का उदर कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.२) । उदर में ही अन्न का ग्रहण होता है । इस सदोमण्डप के मध्य में उदुम्बर काष्ठ का एक स्तम्भ गडा होता है जिसे औदुम्बरी कहते हैं । सामवेदी गण इसी के परितः आसीन होकर सामगान करते हैं । कहा जाता है कि यह स्तम्भ सामवेदियों द्वारा की गई त्रुटियों का संशोधन करता रहता है । एक ओर स्व से, ऊर्क् से युक्त उदर है तो दूसरी ओर शतपथ ब्राह्मण १.६.३.१७ में आसुरी उदर में वृत्र की स्थिति का कथन है ।

     यद्यपि उदुम्बर को ऊर्जा से उत्पन्न कहा गया है , तथापि उदुम्बर वृक्ष का मूल कहां है और शाखाएं कहां हैं , यह उतना स्पष्ट नहीं हो सका है जितना अश्वत्थ की स्थिति में हो सका था । बौधायन गृह्य सूत्र १.७.८ में ब्रह्मचारी की दीक्षा वर्णन के अन्तर्गत उदुम्बर मूल में बकों को पुत्रों व पशुओं रूपी मत्स्यों की बलि देने के विधान का कथन है ।

     पुराणों में एक ओर तो कृष्ण उदुम्बर की यम से उत्पत्ति का उल्लेख है , दूसरी ओर शुक्र ग्रह को उदुम्बर का रूप कहा गया है । यह अन्वेषणीय है कि कृष्ण और शुक्र / शुक्ल उदुम्बर से क्या तात्पर्य हो सकता है ?

The word Udumbara(Ficus Glomearata) is a seldom – used word of Rigvedic mantras. There is one hymn in Atharvaveda whose presiding diety is Audumbara mani/gem. But the brahmanic and sacrificial literature has profusely used the word udumbara. It is a guess that the abundant  use of this word in brahmanic literature may be an attempt to explain those mantras of Rigveda where words Udu tyam, Udu shya etc. have been used. This guess can be strengthened from a reference of a sacred text where a mantra udu twaa vishvedevaa etc. is recited with simultaneous offering of a audumbari wood piece in fire.

            What may be word meaning of udumbara in Sanskrit? Dr. Fatah Singh interprets it as ut –uum – vara – that which goes upwards, towards embracing uum or Om. It is significant that in Rigvedic mantras, where the word udu has appeared, it has been interpreted by Shaakalya as ut – uum. One sacred brahmanical text interprets word udumbara as – it has elevated me from all the sins, therefore it is udumbara.

            There is a universal statement of brahmanic texts that anna/cereal is uurk and uurja is udumbara. Only one text states that udumbara is born out of Isha and Uurja. This may mean that udumbara is born out of a mixture of conscious and unconscious mind or life force. When udumbara gem/mani is referred to as the presiding diety of a hymn of Atharvaveda, then this may be an upward transformation of this mixture of conscious and unconscious states into pure consciousness.  It has been said that until udumbara is situated in stomach, there will be no hunger. Udumbara itself is food, that food which is the self of a man. That is why a post of udumbara is established in the middle of  sadomandapa in somayaga. Sadomandapa is symbolic of stomach.

            There is an anecdote in one brahmanic text that Rohit, the only son of Harishchandra roamed into wild continuously for six years. At the end of each year, he has a special achievement. During the sixth year, he achieved honey and tasty udumbara. After that he finds a sacrificial substitute for himself.

There is an anecdote that when there was a competition between gods and demons, all trees except udumbara left the gods. Later on, gods conquered demons and put the extract of all trees in udumbara. That is why it is always wet.

संदर्भाः

 

उदुम्बर

उरूणसावसुतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु ।
तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥ऋ. १०.१४.१२

४. उदुम्बरः प्राजापत्यः लोहितं फलं पच्यते । मै १, , १ ।

५. उदुम्बरेणोर्जम् ( अन्वाभवत् )। काठ ४३, ४ ।

औदुम्बरो यूपो भवति । ऊर्ग् वा उदुम्बर ऊर्क् पशव ऊर्जैवास्मा ऊर्जम् पशून् अव रुन्द्धे ॥ - तैसं २.१.१.७,

दारुपात्रेण जुहोति न हि मृन्मयम् आहुतिं आनशे । औदुम्बरम्  भवत्य् ऊर्ग् वा उदुम्बर ऊर्क् पशव ऊर्जैवास्मा ऊर्जम् पशून् अव रुन्द्धे - तैसं २.५.४.४, मै १.११.८, ३.१.२, तां ५.५.२,

६.  आज्यस्य पूर्णां कार्ष्मर्यमयीं दध्नः पूर्णाम् औदुम्बरीम् इयं वै कार्ष्मर्यमय्य् असाव् औदुम्बरी । इमे एवोप धत्ते तूष्णीम् उप दधाति न हीमे यजुषाप्तुम् अर्हति दक्षिणां कार्ष्मर्यमयीम् उत्तराम् औदुम्बरीम् । तस्माद् अस्या असाव् उत्तरा । आज्यस्य पूर्णां कार्ष्मर्यमयीम् । वज्रो वा आज्यं वज्रः कार्ष्मर्यः । वज्रेणैव यज्ञस्य दक्षिणतो रक्षास्य् अप हन्ति दध्नः पूर्णाम् औदुम्बरीम् पशवो वै दध्य् ऊर्ग् उदुम्बरः पशुष्व् एवोर्जं दधाति पूर्णे उप दधाति। -  तैसं , , , ; काठ ८, ; जै १, ७१;७२; तां ६, , ११, १६,, ४ ।

३. मेषस् त्वा पचतैर् अवतु लोहितग्रीवश् छागैः शल्मलिर् वृद्ध्या पर्णो ब्रह्मणा प्लक्षो मेधेन न्यग्रोधश् चमसैर् उदुम्बर ऊर्जा गायत्री छन्दोभिस् त्रिवृत् स्तोमैः ।। तैसं , , १२, ; काठ ४४, ।।

देवा वा ऊर्जं व्यभजन्त । तत उदुम्बर उदतिष्ठत् । ऊर्ग्वा उदुम्बरः । यदौदुम्बरः संभारो भवति । ऊर्जमेवावरुन्द्धे ।- तैब्रा १.१.३.१०

७. महाव्रतम् -- औदुम्बरस्तल्पो भवति । ऊर्ग्वा अन्नमुदुम्बरः । ऊर्ज एवान्नाद्यस्यावरुद्ध्यै । यस्य तल्पसद्यमनभिजित स्यात् । स देवाना साम्यक्षे । तल्पसद्यमभिजयानीति तल्पमारुह्योद्गायेत् ।  (°म्बरम् । जै. 1 )। तैब्रा , , , ; जै २, १५९ ।

३. राजसूये अभिषेकः -- पर्णमयेनाध्वर्युरभिषिञ्चति । ब्रह्मवर्चसमेवास्मिन्त्विषिं दधाति । औदुम्बरेण राजन्यः । ऊर्जमेवास्मिन्नन्नाद्यं दधाति । आश्वत्थेन वैश्यः । विशमेवास्मिन्पुष्टिं दधाति । नैयग्रोधेन जन्यः । मित्राण्येवास्मै कल्पयति ।- तैब्रा ,,,

अन्नाद्य- ४  ऐ ५.२४, ८.८, ८.९, कौ २५.१५, २७.६, ऐआ १.२.३

अथौदुम्बरीं समन्वारभन्ते। इषमूर्जमन्वारभ इति। उर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बरः। यद्वैतद्देवा इषमूर्जं व्यभजन्त तत उदुम्बरः समभवत्तस्मात्स त्रिः संवत्सरस्य पच्यते। तद्यदौदुम्बरीं समन्वारभन्त इषमेव तदूर्जमन्नाद्यं समन्वारभन्ते। - ऐब्रा ५.२४

चरन्वै मधु विन्दति चरन्स्वादुमुदुम्बरम्। सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश् चरैवेति – ऐ.ब्रा ७.१५

८. अथ यदौदुम्बराण्यूर्जो वा एषोऽन्नाद्याद्वनस्पतिरजायत यदुदुम्बरो भौज्यं वा एतद्वनस्पतीनामूर्जमेवास्मिंस्तदन्नाद्यं च भौज्यं च वनस्पतीनां क्षत्रे दधात्यथ यदाश्वत्थानि तेजसो वा एष वनस्पतिरजायत यदश्वत्थः साम्राज्यं वा एतद्वनस्पतीनाम्तेज एवास्मिंस्तत्साम्राज्यं च वनस्पतीनां क्षत्रे दधात्यथ यत्प्लाक्षाणि यशसो वा एष वनस्पतिरजायत यत्प्लक्षः स्वाराज्यं च ह वा एतद्वैराज्यं च वनस्पतीनां यश एवास्मिंस्तत्स्वाराज्यवैराज्ये च वनस्पतीनां क्षत्रे दधात्ये । ऐ , ३२

१६. भौज्यं वा एतद्वनस्पतीनाम् (यदुदुम्बरः) । ऐ ७,३२,,१६ ।

अथैनमुदुम्बरशाखामन्तर्धायाभिषिञ्चतीमा आपः शिवतमा इमाः सर्वस्य भेषजीः इमा राष्ट्रस्य वर्धनीरिमा राष्ट्रभृतोऽमृताः याभिरिन्द्रमभ्यषिञ्चत्प्रजापतिः  - ऐब्रा ८.७

अथ यदौदुम्बर्यासन्दी भवत्यौदुम्बरश्चमस उदुम्बरशाखोर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बर ऊर्जमेवास्निंस्तदन्नाद्यं दधात्यथ यद्दधि मधु घृतम्भवत्यपां स ओषधीनां रसो-ऽपामेवास्मिंस्तदोषधीनां रसं दधात्यथ यदातपवर्ष्या आपो भवन्ति तेजश्च ह वै ब्रह्मवर्चसं चातपवर्ष्या आपस्तेज एवास्मिंस्तद्ब्रह्मवर्चसं च दधात्यथ यच्छष्पाणि च तोक्मानि च भवन्तीरायै तत्पुष्ट्यै रूपमथो प्रजात्य इरामेवा-स्मिंस्तत्पुष्टिं दधात्यथो प्रजातिम् – ऐब्रा ८.८

अथोदुम्बरशाखामभि प्रत्यवरोहत्यूर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बर ऊर्जमेव तदन्नाद्यमभि प्रत्यवरोहत्युपर्येवासिनो भूमौ पादौ प्रतिष्ठाप्य प्रत्यवरोहमाह प्रतितिष्ठामि द्यावापृथिव्योः प्रतितिष्ठामि प्राणापानयोः प्रतितिष्ठाम्यहोरात्रयोः प्रतितिष्ठाम्यान्नपानयोः  - ऐब्रा ८.९

अथ ततो ब्रूयाच्चतुष्टयानि वानस्पत्यानि संभरत नैयग्रोधान्यौदुम्बराण्याश्वत्थानि प्लाक्षाणीति। क्षत्त्रं वा एतद्वनस्पतीनां यन्न्यग्रोधो यन्नैयग्रोधानि संभरन्ति क्षत्त्रमेवास्मिंतद्दधाति भौज्यं वा एतद्वनस्पतीनां यदुदुम्बरो यदौदुम्बराणि संभरन्ति भौज्यमेवास्मिंस्तद्दधाति साम्राज्यं वा एतद्वनस्पतीनां यदश्वत्थो यदाश्वत्थानि संभरन्ति साम्राज्यमेवास्मिंस्तद्दधाति स्वाराज्यं च ह वा एतद्वैराज्यं च वनस्पतीनां यत्प्लक्षो यत्प्लाक्षाणि संभरन्ति स्वाराज्यवैराज्ये एवास्मिंस्तद्दधाति। अथ ततो ब्रूयाच्चतुष्टयान्यौषधानि संभरत तोक्मकृतानि व्रीहीणां महाव्रीहीणां प्रियंगूनां यवानामिति। क्षत्त्रं वा एतदोषधीनां यद्व्रीहयो यद्व्रीहीणां तोक्म संभरन्ति क्षत्त्रमेवास्मिंस्तद्दधाति साम्राज्यं वा एतदोषधीनां यन्महाव्रीहयो यन्महाव्रीहीणां तोक्म संभरन्ति साम्राज्यमेवास्मिंस्तद्दधाति भौज्यं वा एतदोषधीनां यत्प्रियंगवो यत्प्रियंगूनां तोक्म संभरन्ति भौज्यमेवास्मिंस्तद्दधाति सैनान्यं वा एतदोषधीनां यद्यवा यद्यवानां तोक्म संभरन्ति सैनान्यमेवास्मिंस्तद्दधाति॥ - ऐब्रा ८.१६

१०. तस्माद् (प्रजापतेः ) अग्निरध्यसृज्यत सोऽस्य मूर्ध्न ऊर्ध्व उदद्रवत् तस्य यल्लोहितमासीत् तदपामृष्ट, तद् भूम्यां न्यमार्ट् तत उदुम्बरोऽजायत, तस्मात्स लोहितं पच्यते । काठ ६,१।

११. तस्य (प्रजापतेः ) यल्लोहितमासीत्तदपामृष्ट तद् भूम्यां न्यमार्ट् । तत उदुम्बरो ऽजायत, तस्मात्स लोहितं पच्यते । क ३, १२ ।

१३. देवा यत्रोर्जं व्यभजन्त तत उदुम्बरा उदतिष्ठत् । मै १,,; ३.१,९ ।

१४. प्रजापतिर्देवेभ्य (प्रजाभ्यः [जै..) ऊर्जं व्यभजत्तत (तदु (जै ]) उदुम्बरः समभवत् । जै १,७०,   

१५. प्राजापत्य   उदुम्बरः । जै १,७०;;

प्रजापतिर्देवेभ्य ऊर्जं व्यभजत् तत उदुम्बरः समभवत् प्राजापत्यो वा उदुम्बरः प्राजापत्य उद्गाता। - तां ,,

मध्यतो वा आत्मनो हृदयं तस्मान्मध्ये सदस औदुम्बरी मीयते
नमः समुद्राय नमः समुद्रस्य चक्षुष इत्याह वाग्वै समुद्रो मनः समुद्रस्य चक्षुस्ताभ्यामेव तन्नमस्करोति तां.ब्रा. ६.४.६

१८. मासि मासि वा एषो (उदुम्बरः) ऽवान्तरमन्येभ्यो वनस्पतिभ्यः पच्यत एतद्वै पुष्ट्या रूपम् । मै २,,१॥

७७, काठ २५.१०, क ४०.३

 

औदुम्बर

 

१. औदुम्बरमुलूखलं भवति । मै ३,, ७॥

२. औदुम्बरेण (पात्रेण) भ्रातृभ्यः (अभिषिञ्चति)। मै ४,, २ ।

४. औदुम्बरेण स्रुवेण जुहोति । मै १,११,८ ॥

अन्नाद्यकाम- २ ष ४.४

तं(वृत्रं) द्वेधान्वभिनत्तस्य यत्सौम्यं न्यक्तमास तं चन्द्रमसं चकाराथ यदस्यासुर्यमास तेनेमाः प्रजा उदरेणाविध्यत्तस्मादाहुर्वृत्र एव तर्ह्यन्नाद आसीत् – माश १.६.३.१७

 कृष्णाजिनदीक्षा -- अथास्मै दण्डं प्रयच्छति ।....औदुम्बरो भवति । अन्नं वा ऊर्गुदुम्बर ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै  - माश ३.२.१.३३,

सोमानयनम् -- अथ चत्वारो राजासन्दीमाददते ।.... औदुम्बरी भवति । अन्नं वा ऊर्गुदुम्बर ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै - माश ३.३.४.२७

उदरमेवास्य सदः ।....तन्मध्य औदुम्बरीं मिनोति । अन्नं वा ऊर्गुदुम्बर उदरमेवास्य सदस्तन्मध्यतोऽन्नाद्यं दधाति – माश ३.६.१.२

तं (अंशुग्रहं) वा औदुम्बरेण पात्रेण गृह्णाति । प्रजापतिर्वा एष प्राजापत्य उदुम्बरस्तस्मादौदुम्बरेण पात्रेण गृह्णाति - माश ,, ,

अभिषेचनीयानामपां संभरणम् -- औदुम्बरे पात्रे । अन्नं वा ऊर्गुदुम्बर ऊर्जोऽन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै  - माश ५.३.४.२

अभिषेकः -- औदुम्बरं भवति । तेन स्वोऽभिषिञ्चत्यन्नं वा ऊर्गुदुम्बर ऊर्ग्वै स्वं यावद्वै पुरुषस्य स्वं भवति नैव तावदशनायति तेनोर्क्स्वं तस्मादौदुम्बरेण स्वोऽभिषिञ्चति माश ५.३.५.१२

अथौदुम्बरीमादधाति । देवाश्चासुराश्चोभये प्राजापत्या अस्पर्धन्त ते ह सर्वऽएव वनस्पतयोऽसुरानभ्युपेयुरुदुम्बरो हैव देवान्न जहौ ते देवा असुराञ्जित्वा तेषां वनस्पतीनवृञ्जत ते होचुः । हन्त यैषु वनस्पतिषूर्ग्यो रस उदुम्बरे तं दधाम ते यद्यपक्रामेयुर्यातयामा अपक्रामेयुर्यथा धेनुर्दुग्धा यथाऽनड्वानूहिवानिति तद्यैषु वनस्पतिषूर्ग्यो रस आसीदुदुम्बरे तमदधुस्तयैतदूर्जा सर्वान्वनस्पतीन्प्रति पच्यते तस्मात्स सर्वदार्द्रः सर्वदा क्षीरी तदेतत्सर्वमन्नं यदुदुम्बरः  - माश ६.६.३.३

१. अथास्य (प्रजापतेः) इन्द्र ओज आदायोदङ्ङुदक्रामत्स उदुम्बरोऽभवत् । माश ,,,३९

लूखलमुसले - औदुम्बरे भवतः । ऊर्ग्वै रस उदुम्बर ऊर्जमेवास्मिन्नेतद्रसं दधात्यथो सर्व एते वनस्पतयो यदुदुम्बर – माश ७.५.१.१५

२०. सोऽब्रवीद् (प्रजापतिः) अयं वाव मा सर्वस्मात्पाप्मन उदभार्षीदिति यदब्रवीदुदभार्षीन्मेति  तस्मादुदुम्भर उदुम्भरो ह वै तमुदुम्बर इत्याचक्षते परोऽक्षम् । माश ७.५, ,२२

१७. त्वच एवास्यापचितिरस्रवत्, सो ऽश्वत्थो वनस्पतिरभवत्। मांसेभ्य एवास्योर्गस्रवत्, स उदुंबरोऽभवत्। अस्थिभ्य एवास्य स्वधाऽस्रवत्, स न्यग्रोधोऽभवत्।  माश १२,, ,

श्रीमन्थकर्मब्राह्मणम्--चतुरौदुम्बरो भवति। औदुम्बरश्चमस औदुम्बर स्रुव औदुम्बर इध्म औदुम्बर्या उपमन्थन्यौ माश १४.९.३.२१

औदुम्बरी

१. अस्मै वै (पृथिवी-) लोकायौदुम्बरी मीयते । काठ २५,१०; क ४०,, ४१,३ ।

२. आज्यस्य पूर्णां कार्ष्मर्यमयीं दध्नः पूर्णाम् औदुम्बरीम् इयं वै कार्ष्मर्यमय्य् असाव् औदुम्बरी ।आज्यस्य पूर्णां कार्ष्मर्यमयीम् । वज्रो वा आज्यं वज्रः कार्ष्मर्यः । वज्रेणैव यज्ञस्य दक्षिणतो रक्षास्य् अप हन्ति दध्नः पूर्णाम् औदुम्बरीम् पशवो वै दध्य् ऊर्ग् उदुम्बरः पशुष्व् एवोर्जं दधाति । तैसं ,, ,; काठ २०,; क ३१,७ ।

३. गृहपतिरौदुम्बरीं धारयति गृहपतिर्व्वा ऊर्ज्जो यन्तोर्जमेवैभ्यो यच्छति । तां , , १५ । (सत्रिणां मध्ये यो गृहपतिरसावौदुम्बरीं सदसो मध्ये निखातां धारयति समन्वारभत आनक्षत्रदर्शनात् नोत्सृजेत् – सा.भा.)

अथौदुम्बरीमादधाति । देवाश्चासुराश्चोभये प्राजापत्या अस्पर्धन्त ते ह सर्वऽएव वनस्पतयोऽसुरानभ्युपेयुरुदुम्बरो हैव देवान्न जहौ ते देवा असुराञ्जित्वा तेषां वनस्पतीनवृञ्जत ते होचुः । हन्त यैषु वनस्पतिषूर्ग्यो रस उदुम्बरे तं दधाम ते यद्यपक्रामेयुर्यातयामा अपक्रामेयुर्यथा धेनुर्दुग्धा यथाऽनड्वानूहिवानिति तद्यैषु वनस्पतिषूर्ग्यो रस आसीदुदुम्बरे तमदधुस्तयैतदूर्जा सर्वान्वनस्पतीन्प्रति पच्यते तस्मात्स सर्वदार्द्रः सर्वदा क्षीरी तदेतत्सर्वमन्नं यदुदुम्बरः  - माश ६.६.३.३

डुम्बरीः (समित्)भवन्त्यूर्ग्वा उडुम्बर ऊर्जमेवास्मा अपिदधाति घृतेनानक्त्येतद्वा अग्नेः प्रियं धाम यद् घृतं प्रियमेवास्मै धामातिथ्यं करोत्युदु त्वा विश्वे देवा इति प्राणा वै विश्वे देवाः प्राणैरेवैनमुद्यच्छते मनुष्या वै विश्वेदेवा – काठ.सं. २१.८ 

उद् एनम् उत्तरां नयेति समिध आ दधाति .... औदुम्बरीर् भवन्ति । ऊर्ग् वा उदुम्बरः । ऊर्जम् एवास्मा अपि दधाति । उद् उ त्वा विश्वे देवा इत्य् आह प्राणा वै विश्वे देवाः प्राणैः एवैनम् उद् यच्छते । - तैसं. ५.४.६.१

अथौदुम्बरीं समन्वारभन्ते। इषमूर्जमन्वारभ इति। उर्ग्वा अन्नाद्यमुदुम्बरः। यद्वैतद्देवा इषमूर्जं व्यभजन्त तत उदुम्बरः समभवत्तस्मात्स त्रिः संवत्सरस्य पच्यते। तद्यदौदुम्बरीं समन्वारभन्त इषमेव तदूर्जमन्नाद्यं समन्वारभन्ते। - ऐब्रा ५.२४

अभिषेकः - अथास्मा औदुम्बरीमासन्दीं सम्भरन्ति तस्या उक्तं ब्राह्मणमौदुम्बरश्चमसो वा पात्री वोदुम्बरशाखा तानेतान्सम्भारान्सम्भृत्यौदुम्बर्यां पात्र्यां वा चमसे वा समावपेयुस्तेषु समोप्तेषु दधि मधु सर्पिरातपवर्ष्या आपोऽभ्यानीय प्रति-ष्ठाप्यैतमासन्दीमभिमन्त्रयेत बृहच्च ते रथंतरं च पूर्वौ पादौ.... ऐब्रा. ८.१७

तमेतस्यामासन्द्यामासीनमेवंवित् पुरस्तात्तिष्ठन्प्रत्यङ्मुख औदुम्बर्या ऽऽर्द्रया शाखया सपलाशया जातरूपमयेन च पवित्रेणान्तर्धायाभिषिञ्चतीमा आपः शिवतमा इत्येतेन तृचेन देवस्य त्वेति च यजुषा भूर्भुवः स्वरित्येताभिश्चव्याहृतिभिः॥ - ऐब्रा ८.१८

तदेतान्मणीन्याचति राजतमौदुम्बरँ सौवर्णमिति
सव्ये हस्ते राजतं प्रतिमुञ्चत इयदस्यायुरस्यायुर्मे धेहीति दक्षिण औदुम्बरमूर्गस्यूर्जं मे धेहीति दक्षिण एव सौवर्णं युङ्ङसि वर्चोऽसि वर्चो मयि धेहीत्यत्रास्मा आमिक्षामुपोद्यच्छते ..... तदेतान्मणीनेकस्मिन्सूत्र आवयति मध्यत औदुम्बरं करोति बौश्रौसू १२.१४

 

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