PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
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उद्गीथ टिप्पणी : सामवेद में ऋग्वेद की तीन ऋचाओं से एक साम बनता है । इन तीन ऋचाओं में से प्रत्येक ऋचा में प्रायः भक्ति की तीन ,चार , पांच अथवा सात अवस्थाएं व्यक्त होती हैं । कहीं पर तो भक्ति की यह अवस्थाएं हिंकार , प्रस्ताव , उद्गीथ , प्रतिहार और निधन होती हैं । कहीं पर हिंकार , प्रस्ताव , आदि , उद्गीथ , प्रतिहार , उपद्रव और निधन आदि होती हैं । कठिनाई यह है कि सामवेद की उपलब्ध पुस्तकों में इन भक्तियों को ऋचाओं के शब्दों के साथ इंगित नहीं किया गया है । श्री श्रीकृष्ण श्रौती , नं ९ , पोस्टल कालोनी , तृतीय स्ट्रीट , वेस्ट माम्बलम् , चेन्नई द्वारा दिल्ली में पौण्डरीक याग काल में प्रदत्त सूचना के आधार पर राजनम् साम की एक ऋचा में भक्तियों का विभाजन उदाहरण के रूप में निम्नलिखित है : तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो जज्ञ उग्रस्त्वेषनृम्ण: । सद्यो जज्ञानो नि रिणाति शत्रूननु यं विश्वे मदन्त्यूमाः।। ( साम १४८३ ) साम गान प्रकार निम्नलिखित है : हिम् । हिम् ( ५ आवृत्तियां ) । हो ( ५ )। हँ ( ५ ) । ओहा ( ५ ) । औहोइ ( ५ ) ।। तदिदासा । भुव । नेषुज्येष्ठाम् ( तीन शब्दों की ५ आवृत्तियां ) ।। हिम् ( ५ ) । हो ( ५ ) । हँ ( ५ ) । ओहा ( ५ ) । औहोइ ( ५ ) । वयोबृहत् ( ५ ) । विभ्राष्टयेविधर्मणे ( ५ ) ।। प्रस्ताव: ।। ओम् । हिम् ( ५ ) । हो ( ५ )। हँ ( ५ ) । ओहा ( ५ ) । औहोइ ( ५ ) । यतोजज्ञाइ । उग्र: । त्वेषनृम्णाः ( तीन शब्दों की पांच आवृत्तियां । हिम् ( ५ ) । हो ( ५ ) । हँ ( ५ ) । ओहा ( ५ ) । औहोइ ( ५ ) । सत्यमोज: ( ५ ) । रजस्सुव: ( ५) ( उद्गीथ: ) ।। हिम् ( ५ ) । हो ( ५ ) । हँ (५ ) । (५ ) । औहोइ (५ ) । सद्योजज्ञा: । नोऽ३निरि । णातिशत्रून् ( तीन शब्दों की पांच आवृत्तियां ) । हिम् ( ५ ) । हो ( ५ ) । हँ ( ५ ) । ओहा (५ ) । औहोइ ( ५ ) । भद्रँ सुधा ( ५ ) । भद्रँसुधे । षमूर्जम् । इषमूर्जम् ( ५ ) । ( प्रतिहार: ) ।। हिम् ( ५ ) । हो ( ५ ) । हँ ( ५ ) । ओहा ( ५ ) । औहोइ ( ५ ) । अनुयम्वाइ । श्वेम । दन्तियूमा: ( तीन शब्दों की पांच आवृत्तियां ) । हिम् ( ५ ) । हो ( ५ ) । हँ ( ५ ) । ओहा ( ५ ) । औहोइ ( ५ ) । बृहद्यशः ( ५ ) । दिविदधेऽ३हस: ( ५ ) । दिविदधेऽ३। हाउवा । ( उपद्रव: ) । वागीडासूवोबृहद्भा ऽ२३४५ । निधनम् ।। श्री: ।। - उह्यगानम् , संवत्सर पर्व - दशति:४.८ उपरोक्त सामगान में आरंभ में हिंकार शब्द का उच्चारण सामवेद के प्रस्तोता , प्रतिहर्त्ता व उद्गाता नामक तीनों ऋत्विज करते हैं ।-- - - - का कथन है कि इससे तीनों ऋत्विज परस्पर संयुक्त हो जाते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.१५५ से संकेत मिलता है कि हिंकार तुरीय वाक् का रूप है जिसका उच्चारण गौ अपने वत्स को देखने आदि पर करती है ( तुरीय वाक् का अर्थ है जिस वाक् में प्राणों का समावेश हो ) । साम गान में ओहा आदि का उच्चारण आश्चर्य प्रकट करने के हेतु हो सकता है , यद्यपि सामवेद के ग्रन्थों में प्रत्येक अक्षर की सम्यक् व्याख्या की गई है । प्रस्तोता ऋत्विज मुख्य रूप से प्रस्ताव भक्ति का गान करता है , उद्गाता उद्गीथ का और प्रतिहर्त्ता प्रतिहार का । निधन भक्ति का गान सब मिलकर करते हैं । उद्गीथ गान के आरंभ में प्रायः ओम् शब्द का उच्चारण किया जाता है । छान्दोग्य उपनिषद १.१.१ , जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण आदि के अनुसार सारी उद्गीथ भक्ति ओम् पर ही आधारित है , जैसा कि निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट होगा । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.४.१ आदि के सार्वत्रिक वर्णन के अनुसार मृत्यु से बचने का एकमात्र उपाय ओम् की प्राप्ति ही है । इस वर्णन के अनुसार मृत्यु से बचने के लिए सबसे पहले देवताओं ने छन्दों का सम्भरण किया और फिर उनसे स्वयं को आच्छादित कर लिया । लेकिन वहां भी मृत्यु ने उन्हें नहीं छोडा । स्वर से रहित ऋचाओं में मृत्यु ने उन्हें देख लिया । तब देवताओं ने स्वर में प्रवेश किया । मृत्यु स्वर में तो नहीं घुस सकी , लेकिन स्वर के घोष से उसने देवताओं का पता लगा लिया । तब देवगणों ने ओम् में प्रवेश किया । वहां रहकर वह मृत्यु से बचे रहे । इसी तथ्य का विस्तार छान्दोग्योपनिषद १.१.१ में इस प्रकार किया गया है कि पृथिवी सब भूतों / प्राणों का रस है , आपः पृथिवी का रस हैं, ओषधियां आपः का , पुरुष ओषधियों का , वाक् पुरुष का , ऋक् वाक् का , साम ऋक् का तथा उद्गीथ साम का । उद्गीथ रसों का रस है । यही ओम् है जो अक्षर है । उद्गीथ की प्रकृति को समझने के लिए ओम् की अक्षर प्रकृति को समझना होगा । अक्षर अर्थात् जब ऐसी तुरीयावस्था आ जाए जहां साधक के व्यक्तित्व से किसी भी प्रकार से ऊर्जा का क्षरण न हो । हमारे देखने , सुनने , चलने आदि में हमारी सारी ऊर्जा का व्यय हो रहा है ( रजनीश के अनुसार देखने में हमारी १० प्रतिशत ऊर्जा का व्यय होता है । ऐसी अवस्था कैसे उत्पन्न की जाए जहां किसी भी ऊर्जा का क्षरण न हो ? ओम् की व्यावहारिक रूप में प्रकृति अभी अस्पष्ट होने से केवल ओम् के उच्चारण मात्र से ऊर्जा के क्षरण को रोका नहीं जा सकता । बृहदारण्यक उपनिषद १.३.१ के उद्गीथ नामक ब्राह्मण का कथन है कि यदि चक्षु , श्रोत्र , वाक् आदि के बदले मुख्य प्राण को उद्गाता बना लिया जाए तो मृत्यु से बचा जा सकता है । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.६.२.२ में इस समस्या का एक नवीन हल प्रस्तुत किया गया है । इस कथन के अनुसार प्रजापति ने तो हर द्वारा हिंकार पर विजय प्राप्त की , अग्नि ने तेज द्वारा प्रस्ताव पर , बृहस्पति ने रूप द्वारा उद्गीथ पर , पितरों ने स्वधा द्वारा प्रतिहार पर और इन्द्र ने वीर्य द्वारा निधन पर । यहां उद्गीथ के साथ रूप को जोडना यह संकेत करता है कि यह मधु विद्या की ओर संकेत है : रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव - प्रत्येक चीज में उसी का रूप दिखाई देने लगे , रसो वै स: । ऊर्जा के क्षरण को भौतिक विज्ञान में अनुनाद , रेजोनेन्स के माध्यम से समझा जा सकता है । किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ध्वनि को अथवा विद्युत तरंगों आदि को एक आयतन में बद्ध कर दिया जाता है जिससे ऊर्जा की मात्रा / आयाम में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है । लेकिन ऐसा कोई उपाय नहीं है कि ऊर्जा के क्षरण को शून्य कर दिया जाए । ब्रह्माण्ड पुराण में उद्गीथ को भूमा पिता व ऋषिकुल्या माता का पुत्र कहना बहुत सार्थक वचन है । इस कथन को समझने के लिए भूमा और कुल्या शब्दों पर ध्यान देना होगा । छान्दोग्य उपनिषद ७.२४ का कथन है कि जब साधक की अवस्था ऐसी हो जाए कि उसे उस परमात्मा के रूप के सिवाय कोई अन्य रूप दिखाई ही न पडे , परम ध्वनि ओंकार के सिवाय और कोई ध्वनि सुनाई ही न पडे , परमात्मा के सिवाय उसे किसी अन्य का ज्ञान ही न हो , वह भूमा स्थिति है । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.१५.१.१ में प्रजापति भूमा स्थिति प्राप्त करने के लिए १६ गुणों का स्वयं में सृजन करते हैं । कुल्या शब्द के संदर्भ में जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.१८.३.३ का कथन है कि यह जो मन है , यह कामों से पूर्ण एक ह्रद है । और वाक् इसकी कुल्या है , ह्रद से पानी को ले जाने वाली एक नाली है । जैसे ह्रद से शुद्ध जल के प्रवाह के लिए कुल्या का निर्माण किया जाता है , वैसे ही उद्गाता अपनी वाक् रूपी कुल्या से यजमान के लिए अपने मन से कामों / कामनाओं को प्रदान करता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में उद्गीथ शब्द की निरुक्ति द्वारा भी उद्गीथ की प्रकृति पर प्रकाश डाला गया है । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.१८.२.८ के अनुसार अध्यात्म में प्राण ही उत् है , वाक् ही गी है और मन ही थम् है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७९ के अनुसार जो उत् है , इससे यह सब उत्तब्ध हो जाता है , जो गी है , यह सर्व का गिरण करती है ( खाती है / गान करती है , डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार विज्ञानमय कोश की वाक् ) । और जो थम् है , यह इसका अन्न है । इन निरुक्तियों से इतना तो समझ ही सकते हैं कि उद्गीथ में वाक् , प्राण और मन तीनों का समावेश हो जाता है । यह पूर्ण अनुनाद की अवस्था है । ब्रह्माण्ड पुराण में उद्गीथ को प्रस्ताव का पिता कहना एक पहेली है । सामगान में उद्गीथ भक्ति से पूर्व प्रस्ताव का गान किया जाता है , अतः आभासी रूप में नियमानुसार तो प्रस्ताव को पुत्र के बदले उद्गीथ का पिता होना चाहिए । इस प्रहेलिका का हल जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण २.२.४.१० के इस कथन के आधार पर किया जा सकता है कि यह जो आदित्य की रश्मियां हैं , यह इसके पुत्र रूप ही हैं । चूंकि प्रस्ताव तेज का रूप है , अतः आदित्य रूपी उद्गीथ अवस्था से प्रस्ताव रूपी तेज का उत्पन्न होना संभावित है । भागवत पुराण में उद्गीथ को षड्-गर्भ समूह में से एक कहा गया है । भागवत पुराण १०.८५.५१ में षड्-गर्भ के स्मर , उद्गीथ , परिष्वङ्ग , पतङ्ग , क्षुद्रभृद् व घृणि जो नाम आए हैं , वह अन्य पुराणों से सर्वथा भिन्न हैं । मत्स्य पुराण आदि में षड्-गर्भ के नामों सुषेण , कीर्तिमान , उदासी आदि का उल्लेख हुआ है । केवल भागवत पुराण में उद्गीथ का उल्लेख होने से ही यह आभास होता है कि वसुदेव व देवकी के ६ पुत्र जिन्हें कंस ने मारा था , भक्ति की ६ अवस्थाएं हो सकते हैं । भक्ति की यह ६ अवस्थाएं शाश्वत हैं , अनश्वर हैं , लेकिन यह केवल गर्भ रूप में ही विद्यमान रह सकती हैं । जैसे ही यह मूर्त्त रूप धारण करने का प्रयास करती हैं , कंस रूपी हमारा यह व्यक्तित्व ( कंस पात्र को कहते हैं जिसमें देवगण सोम का पान करते हैं अथवा असुर सुरा का - दृष्टव्य पुराणों में वैदिक संदर्भ / वैदिक तत्त्व मंजूषा भाग ४ ) उनका हनन कर देता है । इनका उद्धार तब कृष्ण रूपी उद्गाता के बिना नहीं हो सकता । उद्गीथ को गर्भ कहने के पीछे एक दूसरा तथ्य यह भी है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में भक्ति की इन अवस्थाओं को अप्रत्यक्ष रूप में गर्भ ही कहा गया है जिनके पोषण के लिए हिंकार आदि से अन्न की व्यवस्था करनी होती है । In Saamaveda, a Saama or poem
is formed by combination of three mantras of Rigveda. Each of these three mantas
contains 3 or 4 or 5 or 7 stages of devotion. At some places, these stages have
been expressed as Himkaara, Prastaava, Udgeetha, Pratihaara and Nidhana. At
other places, these have been expressed as Himkaara, Prastaava, Aadi, Udgeetha,
Pratihaara, Upadrava and Nidhana etc. The difficulty is that in available texts
of Saamaveda, these stages have not been explicitly indicated and one has to
separate these by himself. Mr. Shrikrishna Shrouti, at the time of Paundareeka
Yaga at Delhi has kindly provided these divisions for one
Saama which are given below in Devanaagari script( see pictures). In this
sama singing, Himkaara word is sung by three priests of Saamaveda – Prastotaa,
Pratihartaa and Udgaataa. It is said that this associates these three priests.
Himkaara is the Turiya speech/voice which appears when a cow sees her calf(
Turiya vak means a speech which has life force). In saama singing, Ohaa may
express exclamation. Saama texts explain meaning of each and every spoken
letter. Prastotaa priest mainly sings Prastaava devotion, Udgaataa mainly
Udgeetha devotion and Pratihartaa mainly Pratihaara devotion?. Nidhana devotion
is sung jointly by all. Udgeetha devotion generally starts with recitation of Om.
According to Chhandogya Upanishada etc. all the Udgeetha devotion is based on Om.
According to universal statement, the only way to escape death is the attainment
of Om. Gods covered themselves with Chhandas/meters but could not escape death.
Then they entered vowels. Death could not enter vowels but it could see gods
there from the reverberation of vowels. Then gods entered Om and thus escaped
death. The earth in vedic texts is supposed to be the extract of all matter/pranas/lifeforces,
waters are extracts of earth, herbs are extracts of waters, herbs of man, vak/speech/voice
of man, Rik of vak, saama of rik, and Udgeetha of saama. Udgeetha is the supreme
extract. This is the Om which is undecaying. Undecaying means a state where
there is no decay of energies from the body of a devotee. This state can be
attained if one can make the main praana as his Udgaataa instead of his ears,
eyes, speech etc. One
statement is worth repeating. Prajaapati conquered Himkaara by Hara, Agni
conquered Prastaava by taijas, Brihaspati conquered Udgeetha by Roopa/form,
Pitris/manes conquered Pratihaara by Swadhaa, and Indra conquered Nidhana by
Veerya. The
statement in Brahmaanda puraana that Udgeetha’s father is Bhoomaa and mother
is Rishikulyaa, is significant. The state of a devotee when nothing is visible
except supreme god, that state is Bhoomaa state. 16 traits are required to
attain Bhuumaa state. About the mother’s name Rishikulyaa, the mind is an
ocean full with all desires. And Kulyaa is the speech/voice in the form of a
rivulet which carries away the water of ocean. The voice of Udgaataa is a Kulya/rivulet
which flows to yajamaana to fulfill his desires. The statement that Udgeetha is
the father of Prastaava is a puzzle. In saama singing, Prastaava is sung before
Udgeetha, so the relationship should be reverse. This puzzle can be solved on
the basis of a statement that the rays of sun are it’s sons. As prastaava is a
form of taijas, therefore, Udgeetha the sun may be father of Prataava the rays. There
are some interpretations of word Udgeetha. According to one interpretation, this
word consists of three parts – Praana is ut, voice is gee and mind is tham.
From these interpretations it becomes clear that voice, praana and mind, all the
three are incorporated in Udgeetha. In Bhaagavata puraana, there is an interesting statement where Udgeetha is one of the 6 sons of Kaalanemi whose common name is ‘the six embryos’ and these sons were killed one by one by Kansa when they tried to take birth from Devaki. These 6 sons of Kaalanemi may be 6 states of devotion. These 6 stages are eternal, but usually remain in unexpressed form, in the womb. As soon as these states try to express themselves, Kansa, our own individuality kills them. The terming of Udgeetha as an embryo is supported from other statements of braahmanic texts also. संदर्भ उद्गीथ १ऋक् साम यजुरुच्छिष्ट उद्गीथः प्रस्तुतं स्तुतम्। हिङ्कार उच्छिष्टे स्वरः साम्नो मेडिश्च तन्मयि ॥ -अथर्ववेद ११.९.५ २आसन्दी : सामासाद उद्गीथोऽपश्रयः । तामासन्दीं व्रात्य आरोहत्। - अथर्ववेद १५.३.९ ३सर्वप्रायश्चित्त विधायकं ब्राह्मणम् : तदाहुः। यदृचा हौत्रं क्रियते। यजुषाऽऽध्वर्यवम्। साम्नोद्गीथः। अथ केन ब्रह्मत्वमिति। अनया त्रय्या विद्यायेति ह ब्रूयात्। - शतपथ ब्राह्मण ११.५.८.७ ४सर्वप्रायश्चित्त विधायकं ब्राह्मणम् :- - - - -ते ऋग्वेदेनैव हौत्रमकुर्वत। यजुर्वेदेनाध्वर्यवम्। सामवेदेनोद्गीथम्। यदेव त्रय्यै विद्यायै शुक्रम्, तेन ब्रह्मत्वम्। - मा.श. ११.५.८.४ ५उद्गीथ ब्राह्मणम्। वैराज ब्राह्मणं वा : वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन आदि द्वारा उद्गीथ के उद्गान से पाप्मा के निवारण का प्रयत्न करना तथा असफल होना। केवल अयास्य आंगिरस नामक प्राण द्वारा उद्गान करने पर ही पाप्मा से मुक्ति का वर्णन। - मा.श. १४.४.१.१ ६एष उ वा उद्गीथः। प्राणो वा उत्। प्राणेन हीदं सर्वमुत्तब्धम्। वागेव गीथा। उच्च गीथा चेति। स उद्गीथः। - मा.श. १४.४.१.२५ ७श्रीमन्थ कर्म ब्राह्मणम् : अथैनमभिमृशति - - - - - -हिंकृतमसि हिंक्रियमाणमस्युद्गीथमस्युद्गीयमानमसि श्रावितमसि प्रत्याश्रावितमसि- - - -मा.श. १४.९.३.९ ८असितमृगा ह स्म वै पुरा कश्यपा उद्गायन्त्यथ ह युवानमनूचानं कुसुरुबिन्दमौद्दालकिं ब्राह्मणा उद्गीथाय वव्रे। - - - -षड्. ब्रा. १.४.१६ ९तस्य ह वा एतस्य संवत्सरस्य साम्नोऽहोरात्राणि हिंकारोऽर्धमासा प्रस्तावो मासा आदिर्ऋतव उद्गीथः पौर्णमास्यः प्रतिहारोऽष्टका उपद्रवोऽमावास्या निधनम्। तस्य ह वा एतस्य संवत्सरस्य साम्नो वसन्तो हिंकारो ग्रीष्मः प्रस्तावो वर्षा उद्गीथः शरत् प्रतिहारो हेमन्तो निधनम्। - षड्.ब्रा. ३.४.२२ १०- - - - -प्रबाहुग्वा ऋत्विजामुद्गीथ उद्गीथ एवोद्गातृणाम् - - - -तैत्तिरीय सं. ३.२.९.५ ११अश्वमेधः : यदुद्गातोद्गायेत्। यथा क्षेत्रज्ञोऽन्येन पथा प्रतिपादयेत्। तादृक्तत्~। उद्गातारमपरुद्ध्य। अश्वमुद्गीथाय वृणीते। - - - - तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.२२.१ १२एष वै सोमस्योद्गीथो यत्पवते सोमोद्गीतमेव साम गायति। - ताण्ड~य ब्रा. ६.६.१८ १३ते वै पञ्चान्यद्भूत्वा पञ्चान्यद्भूत्वाकल्पेताम् - आहावश्च हिंकारश्च प्रस्तावश्च प्रथमा चर्गुद्गीथश्च मध्यमा च प्रतीहारश्चोत्तमा च निधनं च वषट्कारश्च। - गोपथ ब्रा. २.३.२० १४अग्निचितिः - - -हिंकारेण त्वा छन्दसा सादयामि, प्रस्तावेन त्वा छन्दसा सादयाम्युद्गीथेन त्वा छन्दसा सादयामि, प्रतिहारेण त्वा छन्दसा सादयामि, स्तुतेन त्वा छन्दसा सादयामि, निधनेन त्वा छन्दसा सादयामि। - मैत्रायणी सं. २.१३.४ १५होतः किं स्तुतं स्तोत्रं प्रातरनुवाकेनान्वशंसीः इति। अकर्म वयं तद् यद् अस्माकं कर्म इत्य् आह उद्गातारं पृच्छत इति। उद्गातः किं स्तुतं स्तोत्रं होता प्रातरनुवाकेनान्वशंसीत् इति। अकर्म वयं तद् यद् अस्माकं कर्म इति ब्रूयात् अगासिष्म यद् अत्र गेयम् इति। - जै.ब्रा. १.७६ १६उद्गातार उद्गीथायाधोऽधो ऽक्षं द्रोणकलशं प्रोहन्ति। अस्माद् एवैतल् लोकाद् द्विषन्तं भ्रातृव्यम् अन्तरेति। - जैमिनीय ब्रा. १.७७ १७अथ मैधातिथम्। काण्वायनास् सत्त्राद् उत्थायायन्त आयुञ्जानाः। ते होद्गीथा इति किमुद्वत्यैतद्धनाम्(?) उर्वारुबहुप्रवृत्तं शयानम् उपेयुः। - - - -जै.ब्रा. १.२२६ १८तस्य गायत्रम् एव हिंकारो रथन्तरं प्रस्तावो वामदेव्यम् उद्गीथो बृहत् प्रतिहारो यज्ञायज्ञीयं निधनम्। - जै.ब्रा. १.२९२ १९तद् आहुर् यद् ऋचा होतृत्वं क्रियते यजुषाध्वर्यवं साम्नोद्गीथो ऽथ केन ब्रह्मत्वं क्रियत इति। - जै.ब्रा. १.३५८ २०तस्य गायत्रम् एव हिंकारो, रथन्तरं प्रस्तावो, वामदेव्यम् उद्गीथो, बृहत् प्रतिहारो, यज्ञायज्ञीयं निधनम्। - जै.ब्रा. २.४३३ २१ - - - स एव प्रणवो ऽभवत्~। स प्रतिहारस् स उद्गीथस् तद् आश्रावणम्। तस्माद् ओम् इति प्रणौत्य् ओम् इति प्रत्यागृणात्य् ओम् इत्य् उद्गायत्य् ओम् इत्य् आश्रावयति। - जै.ब्रा. ३.३२२ २२तस्माद् एष एव साम। स एष एवोद्गीथः। स यद् उद् इत्य् एतेन हीदं सर्वम् उत्तब्धम्। अथ यद्गीत्य् एष हीदं सर्वं गिरति। अथ यत् थ इत्य् अन्नम् एवास्यैतत्। तस्माद् एष एवोद्गीथः। - जै.ब्रा. ३.३७९ २३तेभ्यो (पशुभ्यो) हिंकारं प्रायच्छत्। - - - - प्रस्तावं मनुष्येभ्यः। - - - आदिं वयोभ्यः। - - - - -उद्गीथं देवेभ्योऽमृतम्। तस्मात्तेऽमृताः। प्रतिहारमारण्येभ्यः पशुभ्यः। - - - - -उपद्रवं गन्धर्वाप्सरोभ्यः। - - - -निधनं पितृभ्यः। - जैमिनीय उपनिषद ब्रा. १.३.१.६ २४स यदनुदितः स हिंकारः। अर्धोदितः प्रस्तावः। आसंगवम् आदिः। माध्यंदिन उद्गीथः। अपराह्णः प्रतिहारः। यदुपास्तमयं लोहितायति स उपद्रवः। अस्तमित एव निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.३.२.४ २५स वसन्तमेव हिंकारमकरोत्। ग्रीष्मं प्रस्तावम्। वर्षामुद्गीथम्। शरदं प्रतिहारम्। हेमन्तं निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.३.२.७ २६स पुरोवातमेव हिंकारमकरोत्। जीमूतान् प्रस्तावम्। स्तनयित्नुमुद्गीथम्, विद्युतं प्रतिहारम्, वृष्टिं निधनम् - - -जै.उ.ब्रा. १.३.३.१ २७स यजूंष्येव हिंकारमकरोत्। ऋचः प्रस्तावम्। सामान्युद्गीथम्। स्तोमं प्रतिहारम्। छन्दो निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.३.३.३ २८स मन एव हिंकारमकरोत्। वाचं प्रस्तावम्। प्राणमुद्गीथम्। चक्षुः प्रतिहारम्। श्रोत्रं निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.३.३.५ २९अथैतदेकविंशं साम। तस्य त्रय्येव विद्या हिंकारः। अग्निर्वायुः असावादित्य एष प्रस्तावः। इम एव लोका आदिः येषु हीदं लोकेषु सर्वमाहितम्। श्रद्धा यज्ञो दक्षिणा एष उद्गीथः। दिशोऽवान्तरदिश आकाश एष प्रतिहारः। आपः प्रजा ओषधय एष उपद्रवः। चन्द्रमा नक्षत्राणि पितर एतन्निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.५.१.२ ३०स प्रजापतिर्हरसा हिंकारमुदजयत्। अग्निस्तेजसा प्रस्तावम्। रूपेण बृहस्पतिरुद्गीथम्। स्वधया पितरः प्रतिहारम्। वीर्येणेन्द्रो निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.६.२.२ ३१तस्यैतस्य (इन्द्रस्य) साम्न इयमेव प्राची दिक् हिंकारः। इयं प्रस्तावः। इयमादिः। इयमुद्गीथः। असौ प्रतिहारः। अन्तरिक्षमुपद्रवः। इयमेव निधनम्। - - - - -अथ यदुदीच्यां दिशि तत् सर्वमुद्गीथेन आप्नोति। - जै.उ.ब्रा. १.१०.१.३ ३२मन एव हिंकारः। वाक् प्रस्तावः। प्राण उद्गीथः। अन्नमेव चतुर्थः पादः। - - - -अथाधिदैवतम्। चन्द्रमा एव हिंकारः। अग्निः प्रस्तावः। आदित्य उद्गीथः। आप एव चतुर्थः पादः। - - - - - मण्डलं पुरुषः। रश्मय एव हिंकारः। - - -मण्डलं प्रस्तावः। पुरुष उद्गीथः। य एता आपोऽन्तः स एव चतुर्थः पादः। - जै.उ.ब्रा. १.११.१.५ ३३एवमेव चन्द्रमसो रश्मयो मण्डलं पुरुषः। रश्मय एव हिंकारः। मण्डलं प्रस्तावः। पुरुष उद्गीथः। - जै.उ.ब्रा. १.११.१.१० ३४अथैतत् पर्जन्ये साम। तस्य पुरोवात एव हिंकारः। अथ यदभ्राणि संप्लावयति स प्रस्तावः। अथ यत् स्तनयति स उद्गीथः। अथ यद्विद्योतते स प्रतिहारः। अथ यद्वर्षति तन्निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.१२.२.१ ३५अथैतत् पुरुषे साम। तस्यायमेव हिंकारः। अयं प्रस्तावः। अयमुद्गीथः। अयं प्रतिहारः। इदं निधनम्। - जै.उ.ब्रा.१.१२.२.३ ३६तिर्यञ्चो लोकाः : तस्य लोमैव हिंकारः। त्वक् प्रस्तावः। मांसमुद्गीथः। अस्थि प्रतिहारः। मज्जा निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.१२.२.६ ३७सम्यञ्चो लोकाः : तस्य मन एव हिंकारः। वाक् प्रस्तावः। प्राण उद्गीथः। चक्षुः प्रतिहारः। दिश एव निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.१२.२.८ ३८अथैतद्देवतासु साम। तस्य वायुरेव हिंकारः। अग्निः प्रस्तावः। आदित्य उद्गीथः। चन्द्रमा प्रतिहारः। दिश एव निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.१२.२.९ ३९तौ (सा च अमः च) विराड् भूत्वा प्राजनयताम्। हिंकारश्च आहावश्च प्रस्तावश्च प्रथमा चोद्गीथश्च मध्यमा च प्रतिहारश्च उत्तमा च निधनं च वषट्कारश्च एवं विराड् भूत्वा प्राजनयताम्। - जै.उ.ब्रा. १.१७.२.८ ४०सोऽसावादित्यः स एष एव उत्। अग्निरेव गी। चन्द्रमा एव थम्। सामान्येव उत्। ऋच एव गी। यजूंष्येव थम्। इत्यधिदैवतम्। अथाध्यात्मम्। प्राण एव उत्। वागेव गी। मन एव थम्।। - जै.उ.ब्रा. १.१८.२.८ ४१तेषां (देवानां) वायुरेव हिंकार आस। अग्निः प्रस्तावः। इन्द्र आदिः। सोमाबृहस्पती उद्गीथः। अश्विनौ प्रतिहारः। विश्वेदेवाः उपद्रवः। प्रजापतिरेव निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.१८.३.९ ४२स एष पुत्री प्रजावानुद्गीथो य प्राणः तस्य स्वर एव प्रजाः। - जै.उ.ब्रा. २.१.२.६ ४३स एष वशी दीप्ताग्र उद्गीथो यत्प्राणः। एष हीदं सर्वं वशे कुरुते। वशी भवति। वशे स्वान् कुरुते। - - - -तं हैतमुद्गीथं शाट्यायनिराचष्टे वशी दीप्ताग्र इति। - जै.उ.ब्रा. २.२.२.१ ४४प्राण उद्गीथ इति विद्वानेकं मनसा ध्यायेत् एको हि प्राणः। - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वान् द्वौ मनसा ध्यायेत्। द्वौ हि प्राणापानौ द्वौ हैवास्याजायेते। - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वाँस्त्रीन् मनसा ध्यायेत्। त्रयो हि प्राणोऽपानो व्यानः। - - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वाँश्चतुरो मनसा ध्यायेत्। चत्वारो हि प्राणोऽपानो व्यानः समानः। - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वान् पञ्च मनसा ध्यायेत्। पञ्च हि प्राणोऽपानो व्यानः समानोऽवानः। - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वान् षण् मनसा ध्यायेत्। षड् हि प्राणोऽपानो व्यानः समानोऽवानः उदानः। - - - प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वान् सप्त मनसा ध्यायेत्। सप्त हीमे शीर्षण्याः प्राणाः - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वान्नव मनसा ध्यायेत्। सप्त शीर्षण्याः प्राणाः। द्वाववाञ्चौ।- - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वान् दश मनसा ध्यायेत्। सप्त शीर्षण्याः प्राणाः। द्वाववाञ्चौ। नाभ्यां दशमः। - - -प्राण उद्गीथ इत्येव विद्वान् सहस्रं मनसा ध्यायेत्। सहस्रं हैत आदित्यरश्मयः। तेऽस्य पुत्रा:। - जै.उ.ब्रा. २.२.४.१ ४५एवं हैवैतमुद्गीथं पर आट्णारः कक्षीवांस्त्रसदस्युरिति पूर्वे महाराजाः श्रोत्रियाः सहस्रपुत्रमुपनिषेदुः। - जै.उ.ब्रा. २.२.४.११ ४६शर्यातो वै मानवः प्राच्यां स्थल्यामयजत। तस्मिन् ह भूतान्युद्गीथेऽपि समैषिरे। - - - - जै.उ.ब्रा. २.३.१.१ ४७बहवो ह्येत आदित्यस्य रश्मयः तेऽस्य पुत्रा:। तस्मात् बहुपुत्र एष उद्गीथ इत्येवोपासितव्यम्। - जै.उ.ब्रा. २.३.३.१० ४८स एष इन्द्र उद्गीथः। स यदैष इन्द्र उद्गीथ आगच्छति नैवोद~गातुश्चोपगातॄणां च विज्ञायते। इत एवोर्ध्वः स्वर उदेति। स उपरि मूर्ध्नो लेलायति। - जै.उ.ब्रा. ३.६.९.६ ४९स वा एष उद्गीथः कामानां संवत्। ओंवा३च् ओंवा३च् ओंवा३च् हुम् भा ओं वागिति। - जै.उ.ब्रा. ४.६.३.९ ५०पुरुषो वै यज्ञः। पुरुषो होद्गीथः। अथैत एव मृत्यवो यदग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्रमाः। - - - - -जै.उ.ब्रा. ४.७.१.१ ५१तस्मा एतं गायत्रस्योद्गीथमुपनिषदममृतमुवाचाग्नौ वायावादित्ये प्राणेऽन्ने वाचि। - जै.उ.ब्रा. ४.८.५.२ ५२एवं वा एतं गायत्रस्योद्गीथमुपनिषदममृतमिन्द्रोऽगस्त्यायोवाच। - जै.उ.ब्रा. ४.९.१.१ ५३ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत, ओमिति ह्युद्गायति तस्योपव्याख्यानम्। एषां भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपो रसोऽपामोषधयो रस ओषधीनां पुरुषो रसः पुरुषस्य वाग्रसो वाच ऋग्रस ऋचः साम रसः साम्न उद्गीथो रसः। स एष रसानाँ रसतमः परमः परार्ध्योऽष्टमो यदुद्गीथः। - छान्दोग्योपनिषद १.१.१ ५४समर्धयिता ह वै कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्ते। -छा.उ. १.१.८ ५५तद्ध देवा उद्गीथमाजहुरनेनैनानभिभविष्याम इति। ते ह नासिक्यं प्राणमुद्गीथमुपासंचक्रिरे - - - - - - - - -अथ ह वाचमुद्गीथमुपासांचक्रिरे - - - - - - -अथ ह चक्षुरुद्गीथमुपासांचक्रिरे - - - - - -अथ ह श्रोत्रमुद्गीथमुपासांचक्रिरे - - - - - - - -अथ ह मन उद्गीथमुपासांचक्रिरे - - - - -अथ ह य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासांचक्रिरे तँ हासुरा ऋत्वा विदध्वँसुर्यथाऽश्मानमाखणमृत्वा विध्वँसेत। - - - -- - - तँ हाङ्गिरा उद्गीथमुपासांचक्र एतमु एवाङ्गिरसं मन्यन्तेऽङ्गानां यद्रसः। तेन तँ ह बृहस्पतिरुद्गीथमुपासांचक्र - - - - - -तेन तँहायास्य उद्गीथमुपासांचक्र - - - - आगाता ह वै कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्त इत्यध्यात्मम्। - छां.उ. १.२.२ ५६अथाधिदैवतं य एवासौ तपति तमुद्गीथमुपासीतोद्यन्वा एष प्रजाभ्य उद्गायति - - - -छां.उ. १.३.१ ५७तस्माद्वा एतमिमममुं चोद्गीथमुपासीत। अथ खलु व्यानमेवोद्गीथमुपासीत। - - - -यत्साम स उद्गीथस्तस्मादप्राणन्ननपानन्नुद्गायति। - - - - एतस्य हेतोर्व्यानमेवोद्गीथमुपासीत। - छां.उ. १.३.२ ५८अथ खलूद्गीथाक्षराण्युपासीतोद्गीथ इति प्राण एवोत्प्राणेन ह्युत्तिष्ठति वाग्गीर्वाचो ह गिर इत्याचक्षतेऽन्नं थमन्ने हीदं सर्वf स्थितम्। द्यौरेवोदन्तरिक्षं गी पृथिवी थमादित्य एवोद्वायुर्गीरग्निस्थँ सामवेद एवोद्यजुर्वेदो गीर्ऋग्वेदस्थं दुग्धेऽस्मै वाग्दोहं यो वाचो दोहो ऽन्नवानन्नादो भवति य एतान्येवं विद्वानुद्गीथाक्षराण्युपासत उद्गीथ इति। - छां.उ. १.३.६ ५९ॐमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीतोमिति ह्युद्गायति तस्योपव्याख्यानम्। - छां.उ. १.४.१ ६०अथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः स उद्गीथ इत्यसौ वा आदित्य उद्गीथ एष प्रणव ओमिति ह्येष स्वरन्नेति। - छां.उ. १.५.१ ६१अथाध्यात्मं य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासीतोमिति ह्येष स्वरन्नेति। - - - -अथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः स उद्गीथ - - - -छां.उ. १.५.३ ६२तस्यर्क् च साम च गेष्णौ तस्मादुद्गीथस्तस्मात्त्वेवोद्गातैतस्य हि गाता - - -छां.उ. १.६.८ ६३त्रयो होद्गीथे कुशला बभूवुः शिलकः शालावत्यश्चैकितायनो दाल्भ्यः प्रवाहणाv जैवलिरिति, ते होचुरुद्गीथे वै कुशलाः स्मो हन्तोद्गीथे कथां वदाम इति। - - -छां.उ. १.८.१ ६४स एष परोवरीयानुद्गीथः स एषोऽनन्तः परोवरीयो हास्य भवति - - - - -य एतदेवं विद्वानपरोवरीयाँसमुद्गीथमुपास्ते। छां.उ. १.९.२ ६५यावत्त एनं प्रजायामुद्गीथं वेदिष्यन्ते परोवरीयो हैभ्यस्तावदस्मिँल्लोक जीवनं भविष्यति। - छां.उ. १.९.३ ६६एवमेवोद्गातारमुवाचोद्गातर्या देवोद्गीथमन्वायत्ता तां चेदविद्वानुद्गास्यसि मूर्धा ते विपतिष्यतीति। - छां.उ. १.१०.१०, १.११.६, १.११.७ ६७अथातः शौव उद्गीथस्तद्ध बको दाल्भ्यो ग्लावो वा मैत्रेयः स्वाध्यायमुद्वव्राज। - छां.उ. १.१२.१ ६८पृथिवी हिंकारोऽग्निः प्रस्तावोऽन्तरिक्षमुद्गीथ आदित्यः प्रतिहारो द्यौर्निधनमित्यूर्ध्वेषु। अथावृत्तेषु द्यौर्हिंकार आदित्यः प्रस्तावोऽन्तरिक्षमुद्गीथोऽग्निः प्रतिहारः पृथिवी निधनम्। - छां.उ. २.२.१ ६९पुरोवातो हिंकारो मेघो जायते स प्रस्तावो वर्षति स उद्गीथो विद्योतते स्तनयति स प्रतिहारः। - छां.उ. २.३.१ ७०वसन्तो हिंकारो ग्रीष्मः प्रस्तावो वर्षा उद्गीथः शरत्प्रतिहारो हेमन्तो निधनम्। -छां.उ. २.५.१ ७१अजा हिंकारोऽवयः प्रस्तावो गाव उद्गीथोऽश्वाः प्रतिहारः पुरुषो निधनम्। - छां.उ. २.६.१ ७२प्राणो हिंकारो वाक्प्रस्तावश्चक्षुरुद्गीथः श्रोत्रं प्रतिहारो मनो निधनं - छां.उ. २.७.१ ७३यदुदिति स उद्गीथो यत्प्रतीति स प्रतिहारो यदुपेति स उपद्रवो यन्नीति तन्निधनम्। - छां.उ. २.८.२ ७४यत्पुरोदयात्स हिंकारः - - -यत्प्रथमोदिते स प्रस्तावः - - - यत्सङ्गववेलायाँ स आदिः - - -यत्संप्रति मध्यन्दिने स उद्गीथस्तदस्य देवा अन्वायत्तास्तस्मात्ते सत्तमा प्राजापत्यानामुद्गीथभाजिनो ह्येतस्य साम्नः। - - - - -छां.उ. २.९.२ ७५हिंकार इति त्र्यक्षरं प्रस्ताव इति त्र्यक्षरं तत्समम्। - - -उद्गीथ इति त्र्यक्षरमुपद्रव इति चतुरक्षरं त्रिभिस्त्रिभिः समं भवत्यक्षरमतिशिष्यते त्र्यक्षरं तत्समम्। - छां.उ. २.१०.३ ७६गायत्र साम : मनो हिंकारो वाक्प्रस्तावश्चक्षुरुद्गीथः श्रोत्रं प्रतिहारः प्राणो निधनमेतद्गायत्रं प्राणेषु प्रोतम्। - छां.उ. २.११.१ ७७रथन्तर साम : अभिमन्थति स हिंकारो धूमो जायते स प्रस्तावो ज्वलति स उद्गीथोऽङ्गारा भवन्ति स प्रतिहार- - - -छां.उ. २.१२.१ ७८वामदेव्यं साम : उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः प्रति स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं - - छां.उ. २.१३.१ ७९बृहत् साम : उद्यन्हिंकार उदितः प्रस्तावो मध्यन्दिन उद्गीथोऽपराह्णः प्रतिहारोऽस्तं यन्निधनम् - छां.उ. २.१४.१ ८०वैरूपं साम : अभ्राणि संप्लवन्ते स हिंकारो मेघो जायते स प्रस्तावो वर्षति स उद्गीथो विद्योतते स्तनयति स प्रतिहार उद्गृह्णाति तन्निधनम्।- छां.उ. २.१५.१ ८१वैराजम् साम : वसन्तो हिंकारो ग्रीष्मः प्रस्तावो वर्षा उद्गीथः शरत्प्रतिहारो हेमन्तो निधनम् - छां.उ. २.१६.१ ८२शक्वर साम : पृथिवी हिंकारो ऽन्तरिक्षं प्रस्तावो द्यौरुद्गगीथो दिशः प्रतिहारः समुद्रो निधनम् - छां.उ. २.१७.१ ८३रैवत साम : अजा हिंकारोऽवयः प्रस्तावो गाव उद्गीथोऽश्वाः प्रतिहारः पुरुषो निधनम - छां.उ. २.१८.१ ८४यज्ञायज्ञीयम् साम : लोम हिंकारस्त्वक्प्रस्तावो माँसमुद्गीथोऽस्थि प्रतिहारो मज्जा निधनम् - छां.उ. २.१९.१ ८५राजनं साम : अग्निर्हिंकारो वायुः प्रस्ताव आदित्य उद्गीथो नक्षत्राणि प्रतिहारश्चन्द्रमा निधनम् - छां.उ. २.२०.१ ८६त्रयी विद्या हिंकारस्त्रय इमे लोकाः स प्रस्तावो ऽग्निर्वायुरादित्यः स उद्गीथो नक्षत्राणि वयाँसि मरीचयः स प्रतिहारः सर्पा गन्धर्वाः पितरस्तन्निधनम् - छां.उ. २.२१.१ ८७अग्नेरुद्गीथोऽनिरुक्तः प्रजापतेर्निरुक्तः सोमस्य मृदु श्लक्ष्णं वायोः श्लक्ष्णं बलवदिन्द्रस्य क्रौञ्चं बृहस्पतेरपध्वान्तं वरुणस्य - - -छां.उ. २.२२.१ ८८अथैनमभिमृशति - - - - -हिंकृतमसि हिंक्रियमाणमस्युद्गीथमस्युद्गीयमानमसि श्रावितमसि प्रत्याश्रावितमसि - - - -बृहदारण्यक उ. ६.३.४ ८९अंबुः पृथगुद्गीथदोषान् भवन्तो ब्रुवन्त्विति। - प्रणवोपनिषद ९०प्रणवोद्गीथवपुषे महाश्वशिरसे नमः स्वाहा स्वाहा नमः। उद्गीथ प्रणवोद्गीथ सर्ववागीश्वरेश्वर। - हयग्रीवोपनिषद १.२ ९१स एष इन्द्रः सर्वं यद्गायत्री उद्गीथो वसवः प्रातस्सवनमिति। - - - - - - - स होवाचेन्द्रो यत्त्वामुद्गीथेनोपावनेष्यन्ते तेनैव ते कल्पयिष्यन्तीति। - - - - - यदुद्गीथं सप्तभिरभिप्रपद्यन्ते तत्सप्तेति। - - -यदिन्द्र एवोद्गीथस्तद्वृषभ इति। मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानम् - - - शौनकोपनिषद ९२अथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः स उद्गीथ इत्यसौ वा आदित्य उद्गीथ एष प्रणवा इत्येवं ह्याहोद्गीथं प्रणवाख्यं प्रणेतारं भारूपं - - - - मैत्रायण्युपनिषद ६.४ ९३एषाऽग्नौ हुतमादित्यं गमयत्यतो यो रसोऽस्रवत्स उद्गीथं वर्षति तेनेमे प्राणाः - - - -मैत्रायण्युपनिषद ६.३७ ९४आसन्दी वर्णनम् : - - - - -सोमांशव उपस्तरणमुद्गीथ उपश्रीः श्रीरुपबर्हणं तस्मिन्ब्रह्मास्ते - - - -कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद १.५ ९५अग्न्याधेयः व्याहृतीभिरेवोद्गीथं भवतीति वाजसनेयकम्। - आपस्तम्ब श्रौ.सू. ५.१६.८ ९६- - - -बहिष्पवमानं सर्पन्त्यग्निर्मूर्धेति। उद्गातारमपरुध्याश्वमुद्गीथाय वृणीते। तस्मै वीवा उपरुन्धन्ति। ता यदभिहिङ्करोति स उद्गीथः। यत्प्रत्यभिहिङ्कुर्वन्ति स उपगीथः। - आपस्तम्ब श्रौ.सू. २०.१३.४ ९७- - - -अभ्यश्वं वडवाः क्रन्दन्त्यभ्यश्वो वडवाः क्रन्दति सो ऽश्वस्योद्गीथस्तत्पुण्या वाचः संप्रवदन्ति। - बौ.श्रौ.सू. १५.१७ ९८- - -यां विगणँ ह्वयति स शस्त्रस्य प्रतिहारो यदभिक्रोशन्ति स उद्गीथः- - - - - - बौ.श्रौ.सू. १८.२४ ९९यदि दीक्षा दीर्घाः स्युराश्वासिका आहर्तारस्तथोद्गीथः कामं दीक्षयेदिति। - बौ.श्रौ.सू. २१.७
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