PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel U to Uu)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Udaana - Udgeetha  (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.)

Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. )

Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.)

Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. )

Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.)

Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.)

Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.)

Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) 

Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)

 

 

 

उद्गाता

टिप्पणी : वैदिक यज्ञ में १६ ऋत्विज यजमान के आरोहण में सहायता करते हैं । इन १६ ऋत्विजों को होतृगण, अध्वर्युगण, उद्गातृगण और अथर्ववेदी गण , इन चार गणों में बांटा जाता है । उद्गातृगण के ४ ऋत्विजों की संज्ञा प्रस्तोता , उद्गाता , प्रतिहर्त्ता व सुब्रह्मण्य है । उद्गाता इनमें से प्रमुख ऋत्विज है । यद्यपि वैदिक साहित्य में ऋत्विजों और यजमान में पृथकता दिखाई गई है , किन्तु पुराणों के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि यजमान साधक के अंदर ही ऋत्विजों का विकास भी होता है । पुराण कथाओं में सार्वत्रिक रूप से वर्णन आता है कि पहले साधक तप करके अपने इष्ट देवता के दर्शन करता है , फिर उसकी स्तुति करता है , फिर स्तोत्र गाता है , फिर अपने इष्ट देव से वर प्राप्त करता है । इस क्रम में स्तुति करना प्रस्तोता का कार्य है , स्तोत्र ( जैसे विष्णु सहस्रनाम आदि ), गान करना उद्गाता का तथा वर प्राप्त करना प्रतिहर्त्ता का कार्य है  ( दृ. उद्गीथ ) ।

          पुराणों में विभिन्न यज्ञों में गौतम , गोभिल , हिरण्यगर्भ आदि उद्गाताओं के नाम आए हैं तो वैदिक साहित्य में चक्षु , श्रोत्र , अयास्य , सूर्य , पर्जन्य , समान , बृहस्पति, प्रजापति आदि नाम आए हैं । पुराणों में उद्धृत उद्गाताओं के नामों से वैदिक साहित्य के उद्गाताओं पर क्या प्रकाश पड सकता है ? वैदिक साहित्य में उद्गाता की मुख्य रूप से दो श्रेणियां हैं : मानुषी और दैवी ( आर्षेय कल्प : उपोद्घात , पृष्ठ २ आदि ) । अतः जब यजमान यज्ञ के आरंभ में उद्गाता ऋत्विज का वरण करता है तो वह कहता है कि यद्यपि दैवी उद्गाता पर्जन्य आदि हैं , तथापि मनुष्य रूप में मैं अमुक का वरण कर रहा हूं । मनुष्य रूप में जिस उद्गाता का वरण किया गया है , उसी को दैवी उद्गाता में रूपांतरित करना है । यह कार्य मनुष्य व्यक्तित्व के क्रमिक विकास से होगा । इसका उदाहरण हिरण्यगर्भ उद्गाता है । ऋग्वेद १०.१ सूक्त हिरण्यगर्भ ऋषि का है जो प्रजापति पद की प्राप्ति के लिए अपने पाशों का क्रमिक रूप से छेदन करता है ( डा. अभयदेव ) ।

          मानुषी उद्गाताओं में वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से अयास्य आंगिरस के नाम का उल्लेख हुआ है । अयास्य क्या है , कौन है , इसकी व्याख्या का प्रयास बृहदारण्यक उपनिषद १.३.१.१० , १.३.१९ / शतपथ ब्राह्मण १४.४.१.८ , जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण २.४.२.८ आदि में किया गया है । इस वर्णन के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि जड पदार्थ में प्राणों का योजन करना , उसे देव प्राप्ति की ओर उन्मुख करना , उसमें अभीप्सा उत्पन्न करना उद्गाता का कार्य है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.१३९ के अनुसार काम का उद्गान करना है ) । इस हेतु वाक् , चक्षु , श्रोत्र आदि सभी प्राण जड पदार्थ में आंशिक चेतना उत्पन्न कर सकते हैं । लेकिन उपरिलिखित संदर्भों के अनुसार यह उद्गान शाश्वत नहीं है , अपितु क्षणिक है । यद्यपि आरंभ में तो उद्गाता यही बनेंगे, लेकिन जब तक मुख्य प्राण को उद्गाता न बना लिया जाए , तब तक अन्य सब प्राणों का उद्गातृत्व क्षणिक है , मृत्यु से विद्ध है । यह मुख्य प्राण कौन सा है , इसकी व्याख्या जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण ३.१.१.१४ के वर्णन के आधार पर की जा सकती है । स्वप्न में जिस प्राण का आश्रय हमारे वाक् , श्रोत्र , चक्षु , मन आदि ले लेते हैं , वह प्राण ही मुख्य है । एक बार यदि मुख्य प्राण को उद्गाता बना लिया जाए तो अन्य वाक् , श्रोत्र, चक्षु आदि प्राण स्वयं ही अक्षित् उद्गाता बन जाते हैं । ऋग्वेद १०.६७ तथा १०.६८ सूक्त अयास्य आंगिरस ऋषि के हैं तथा इनका देवता बृहस्पति है । बृहस्पति वैदिक साहित्य में दैवी उद्गाताओं में से एक है ( तैत्तिरीय संहिता ३.३.२.१ , बृहदारण्यक उपनिषद १.३.२, ताण्ड्य ब्राह्मण ६.५.५ , ६.७.१, जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७४ ) । बृहती के पति को बृहस्पति कहते हैं और वाक् को बृहती बनाया जा सकता है । जब वाक् बृहती बनती है तो श्रोत्र दिशाओं में , चक्षु सूर्य में बदल जाते हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि अयास्य उद्गाता के रूप में साधक की साधना का आरंभ एकान्तिक साधना से होता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण १६.१२.१ ) और बृहस्पति की स्थिति में पूरा होता है । अयास्य के साथ आंगिरस विशेषण जोडना इसी तथ्य का परिचायक है कि अयास्य अपनी एकान्तिक साधना का विस्तार करना चाहता है , अंगों को भी रस प्रदान करना चाहता है । तैत्तिरीय संहिता ७.५.८.४ के अनुसार उद्गाता दिशाओं में फैल कर दिशाओं से अन्नाद्य , अन्नों में श्रेष्ठतम अन्न का संभरण करता है और उससे स्वयं में तेज को धारण करता है ।

          उपर्युक्त तथ्य को प्रजापति नामक दैवी उद्गाता के माध्यम से भी समझ सकते हैं । शतपथ ब्राह्मण ४.२.५.३ , ४.३.२.३ , ४.४.२.१८ , जैमिनीय ब्राह्मण १.७० , १.७२ , १.८८ , काठक संहिता २५.१० आदि में प्रजापति का उद्गाता के रूप में उल्लेख आता है । कहा गया है कि पुरुष षोडशी है । १७वां प्रजापति है । षोडशी आत्मा है और पूर्ववर्ती १५ कलाएं उसका वित्त हैं । आत्मा को उसकी १५ कलाओं से युक्त करने वाला प्रजापति है । यह १५ अथवा १६ कलाएं कौन सी हैं , यह विचारणीय प्रश्न है । जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.१५.१.२ में इनका नाम भद्र , सम् - आप्ति, आभूति, संभूति आदि लिया गया है तथा उनकी परिभाषा भी की गई है । इसी तथ्य की जैमिनीय ब्राह्मण १.३३१ में इस प्रकार व्याख्या की गई है कि जो १५ हैं , वह वज्र है , जो १६ वां है , वह इन्द्र है और प्रजापति रूपी उद्गाता इस वज्र को इन्द्र रूपी यजमान के हाथों में देने वाला है । षड्-विंश ब्राह्मण ३.१.१० तथा ३.२.१ के अनुसार आत्मा व प्रजा के विकास का कार्य उद्गाता का है । जब तक आत्मा दिव्य प्रजा से युक्त नहीं होगा , तब तक वह स्थिर नहीं रहेगा । वह अल्पायु होगा । संभवतः इसी कारण से तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.५.४ आदि में उद्गाता को आयु भी कहा गया है । ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१८.४ में उद्गाता को अमृत कहा गया है ।

          शतपथ ब्राह्मण १३.२.३.२ , तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.२२.१ आदि में अश्वमेध यज्ञ में अश्व के हिंकार शब्द द्वारा ही उद्गाता का कार्य सम्पन्न किया जाता है तथा मानुषी उद्गाता उसका अनुसरण करता है । उद्गाता के रूप में अश्व का उल्लेख पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है क्योंकि पुराणों में तो गौतम, गोभिल आदि का नाम उद्गाता के रूप में लिया गया है । इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि उद्गाता के गौ और अश्व , ये दो रूप है ।

          देवीभागवत पुराण में प्राणाग्निहोत्र के संदर्भ में प्राण के उद्गाता होने का उल्लेख है । गोपथ ब्राह्मण २.५.४ , महानारायणोपनिषद ८०.१ में भी प्राण को उद्गाता कहा गया है , लेकिन प्राणाग्निहोत्र उपनिषद ४.१ में उदान को उद्गाता कहा गया है । षड्-विंश ब्राह्मण २.५.५ , २.६.२ २.७.२ में यज्ञ में प्रातः सवन में , जब प्राण यजमान बनता है , तब पर्जन्य के उद्गाता होने का उल्लेख है । माध्यन्दिन सवन में अपान यजमान बनता है , तब श्रोत्र उद्गाता हैं । तृतीय सवन में उदान यजमान है और समान उद्गाता है । वैदिक साहित्य में दैवी उद्गाता के रूप में पर्जन्य का सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है ( उदाहरण के लिए , षड्-विंश ब्राह्मण ३.३.२, ३.३.९ , शतपथ ब्राह्मण १२.१.१.३ ) । ऋग्वेद के ५.८३, ७.१०१, ७.१०२ ७.१०३ सूक्त पर्जन्य देवता के है । सूक्त ७.१०३ में मण्डूक रूपी प्राण पर्जन्य की कामना करते रहते हैं । पर्जन्य वृष्टि से प्राण तृप्त हो जाते हैं । पर्जन्य कैसे उत्पन्न होता है ?गोपथ ब्राह्मण १.४.३ में पर्जन्य , आदित्य और चक्षु में समानता का उल्लेख है । गोपथ ब्राह्मण १.२.११ में चक्षु को उद्गाता कहा गया है जबकि गोपथ ब्राह्मण १.१.१३ में सूर्य को । डा. फतहसिंह के अनुसार चक्षु से अर्थ दो सामान्य  आंखों से नहीं , अपितु भ्रूमध्य में उत्पन्न होने वाले तृतीय चक्षु से है । सामान्य  आंखों में जब बाहर से प्रकाश की किरणें जाती हैं , तब वह देखने में समर्थ होती हैं । किन्तु तृतीय चक्षु स्वयं सूर्य का रूप है । वह किरणें बाहर फेंकता है । चक्षु का बृहद् रूप ही आदित्य बनने में समर्थ है । आदित्य होकर वह शरीर रूपी पृथिवी से रस का आकर्षण करता है । वह रस एकत्रित होकर मेघ या पर्जन्य बनता है ।

          यज्ञ में माध्यन्दिन सवन के पश्चात ऋत्विजों को दक्षिणा दी जाती है । उद्गाता को यजमान अपने चक्षु प्रदान करता है ( गोपथ ब्राह्मण १.५.८ ,आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.६.६ ) । फिर किसी अन्य दक्षिणा को लेकर उद्गाता यजमान के चक्षु वापस कर देता है । यह संभावित है कि जब उद्गाता चक्षुओं को वापस करता है तो उनका रूप पहले वाला नहीं होगा , अपितु परिवर्तित , परिवर्धित होगा ।

          गोपथ ब्राह्मण १.२.२४ , १.५.११ आदि में प्रायः उल्लेख आता है कि असामविद् उद्गाता का वरण न करे । साम क्या है , इसकी व्याख्या जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण ३.१.१.१४ में की गई है । इसके अनुसार स्वप्न में वाक् , चक्षु , श्रोत्र आदि जिस प्राण का आश्रय लेकर अदृश्य हो जाते हैं , वह वही प्राण है , वह साम का ही रूप है , साम अवस्था उत्पन्न होने पर भी यही स्थिति होनी चाहिए जैसी स्वप्न में होती है । यदि उद्गाता इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है तभी वह सामवित् है । इसका निहितार्थ यह हुआ कि वैदिक साहित्य उद्गाता के विकास के विभिन्न स्तरों को स्वीकार करता है । साम की अवस्था में ७ स्वरों की उत्पत्ति होती है । श्रीकृष्ण की वेणु से भी सात स्वर निकलते हैं जिन्हें सुनकर गाएं उनके पास दौडी चली आती हैं । क्या कृष्ण को भी उद्गाता कहा जा सकता है ?

          तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.२.३, ताण्ड्य ब्राह्मण १८.३.२, १८.९.८, द्राह्यायण श्रौत सूत्र २५.२.८ आदि में बहिष्पवमान हेतु सर्पण करने को उद्धत उद्गाता को स्रग /माला / हार की दक्षिणा देने का निर्देश है । कहा गया है कि इससे सूर्य रूपी उद्गाता के लिए उषा का व्युच्छन होता है । निहितार्थ अपेक्षित है ।

 

In a soma sacrifice, 16 priests help in ascending of Yajamaana. These 16 priests are divided in 4 groups according to 4 vedas. Priests of Sama veda are called Udgaataa, Prastotaa, Pratihartaa and Subramanya. Out of these four, Udgaataa is the head. From vedic literature, it appears that yajamaana is different and priests are different. But from puraanic description it appears that development of priests takes place inside yajamaana. It is a universal description of puraanic texts that a devotee first gets a sight of his god after penances, then he prays/praise him, then often he sings a hymn in his praise, then get a boon from his god. In vedic context, to praise is the job of Prastotaa, to sing the hymn is of Udgaataa and that of to get boon is of Pratihartaa. 

            Puraanic texts name Gautama, Gobhila, Hiranyagarbha etc. as udgaataas in different yagas while vedic texts refer eyes, ears, Ayaasya, Sun, Rain, Samaana, Brihaspati, Prajaapati etc. The question is – what one can derive from the names of Udgaataas in puraanic texts with reference to names in vedic texts? Vedic texts have mainly two categories of Udgaataas – godly and manly. Hence, when at the starts of a yaga, yajamaana embraces/selects priests, he says that though the godly priest is Parjanya, still in human form I am selecting so and so. As a human Udgaata, Ayaasya Aangirasa has been universally referred to in vedic literature. What is Ayaasya? It appears that to attach prana, life force with inanimate matter , to induce it towards achievement of God, to create hunger of attainment of god in it, is the duty of Udgaataa. The work of attachment of life forces in inanimate matter can be partially done by speech, eyes, ears etc, but  this is not stable, transitory. In the beginning, these will become the Udgaataa, but at last one has to make the main praanic/life force as Udgaataa. Once this main life force becomes Udgaataa, then other smaller udgaataas like speech, ear, eyes become stable, nondecaying. In vedic literature, Brihaspati, the husband of Brihati vaak, is  one of the divine Udgaataas. Hence, it can be said that the sequence of selection of Udgaataa by a devotee starts from Ayaasya and ends at Brihaspati.

            At some places in vedic literature, Prajaapati has also been referred to as divine Udgaataa. It has been said that a man is a conglomeration of number sixteen. 17th is the prajaapati. Aatman is 16th, while the rest 15 are its phases. To attach Aatman with it’s 15 phases is the duty of prajaapati. At other places, it has been stated that 15 is the vajra of Indra, 16th is Indra and the duty of 17th, prajaapati the Udgaataa is to handover this vajra in the hands of Indra the yajamaana. At one place in vedic literature it has been said that the duty of Udgaataa is the development of Aatman and progeny. Until Aatman becomes attached with divine progeny, it can not become stable.

            It Ashvamedha yaga, the duty of Udgaataa is supposed to be fulfilled only by the Hin sound of horse and the Udgaataa in human form has to follow this only. This indicates that Udgaataa can have both the forms of a cow and a horse, because puraanic texts name Udgaataa as Gautama, Gobhila etc.

            Devibhaagavata puraana and some braahmanic texts name Praana as Udgaataa. But at other place Udaana has been named as Udgaataa. In one braahmanic text, when Praana is yajamaana, then Parjanya is Udgaataa. When Apaana is yajamaana, then ears are Udgaataa. When Udaana is yajamaana, then Samaana is Udgaataa.

Regarding Parjanya/rain as being one of the divine Udgaataas, one hymn in rigveda is of Parjanya god where pranas/life forces in the form of frogs pray for rain. This rain satisfies the pranas. In braahmanic literature, Parjanya has been referred to as synonym of sun and eye. It appears that this eye is the third eye which in itself is a small sun. As sun emits rays, in the same way this eye also emits rays. It is said that these rays collect water of the earth and then this water/juice is converted into clouds and then rain. It is important to note that as a token of returns for his services, Udgaataa priest gets the eyes of yajamaana. Udgaata is supposed to tranform these and then return back.

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संदर्भ

उद्गाता

१उद्गातेव शकुने साम गायसि ब्रह्मपुत्र इव सवनेषु शंससि। वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्या सर्वतो नः शकुने भद्रमा वद विश्वतो नः शकुने पुण्यमा वद ॥ - ऋ. २.४३.२

२बृहस्पतिरभिकनिक्रदद्गा उत प्रास्तौदुच्च विद्वाँ अगायत्। - ऋ. १०.६७.३

३तस्मा उषा हिङ्कृणोति सविता प्र स्तौति बृहस्पतिरूर्जयोद्गायति त्वष्टा पुष्ट्या प्रति हरति विश्वे देवा निधनम्।- - - - - - -तस्मा उद्यन्त्सूर्यो हिङ्कृणोति संगवः प्र स्तौति मध्यंदिन उद्गायत्यपराह्णः प्रति हरत्यस्तंयन् निधनम्। - - -तस्मा अभ्रो भवन् हिङ्कृणोति स्तनयन् प्र स्तौति विद्योतमानः प्रति हरति वर्षन्नुद्गायत्युद्गृह्णन् निधनम्।- - - - -अतिथीन् प्रति पश्यति हिङ्कृणोत्यभि वदति प्र स्तौत्युदकं याचत्युद्गायति। उप हरति प्रति हरत्युच्छिष्टं निधनम्। - अथर्ववेद ९.१०.१

४महाव्रत स्तोत्र : आसन्दीमारुह्योद्गायति देवसाक्ष्य एव तदुपरिषद्यं जयति। - - - - - -  -सर्वेणात्मना समुद्धृत्योद्गेयमेषु लोकेषु नेद्व्याहितोऽसानीति। - - - - ताण्ड्य ब्रा.५.५.१

५महाव्रतम् -- अध्वर्य्युः शिरसोद्गायेन्मैत्रावरुणो दक्षिणेन पक्षेण ब्राह्मणांछस्युत्तरेण गृहपति पुच्छेनोद्गातात्मना। - तां. ब्रा. ५.६.२

६तिसृभिरुद्गातात्मनउद्गीयाथ या शिरसः स्तोत्रीया तां दध्यादपराभिस्तिसृभिरुद्गीयाथ या दक्षिणस्य पक्षस्य स्तोत्रीया तान्दध्यादपराभिस्तिसृभिरुद्गीयाथ योत्तरस्य पक्षस्य स्तोत्रीया तान्दध्यात्तिसृभिर्वैकया वा स्तुतं स्यादथ या पुच्छस्य स्तोत्रीया तान्दध्यात्। आत्मन्येव तदङ्गानि प्रतिदधति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। - तां.ब्रा.५.६.४

७- - - - -तेन पुनः प्रसृप्य यथायतनमुपविश्यासन्दीमारुह्योद्गातात्मनोद्गायति५। - तां.ब्रा.५.१.६७

८अथो खल्वाहुः कथमध्वर्य्यु र्बह्वृचः साम गायेदित्युद्गातैव सर्वेणोद्गायेत्तदेव समृद्धं समृद्धावेव प्रतितिष्ठन्ति।- - - - - - तां. ब्रा. ५.६.७

९प्राजापत्यो वा उदुम्बरः प्राजापत्य उद्गाता यदुद्गातौदुम्बरीं प्रथमेन कर्म्मणान्वारभते स्वयैव तद्देवतयात्मानमार्त्विज्याय वृणीते। - - - - - - - - - उद्गाता द्वारा औदुम्बरी स्थापना का वर्णन  - - तां.ब्रा.६.४.१

१०उदङ्ङासीन उद्गायत्युदीचीन्तद्दिशमूर्ज्जा भाजयति प्रत्यङ्ङासीनः प्रस्तौति प्रतीचीन्तद्दिशमूर्ज्जा भाजयति दक्षिणासीनः प्रतिहरति दक्षिणान्तद्दिशमूर्ज्जा भाजयति प्राञ्चोऽन्य ऋत्विज आर्त्विज्यं कुर्व्वन्ति - - - - तां.ब्रा. ६.४.१४

११द्रोणकलशस्य प्रोहणं : यदाह बार्हस्पत्य द्रोणकलश इति बृहस्पतिर्वै देवानामुद्गाता तमेव तद्युनक्ति। - तां.ब्रा.६.५.५

१२यत् द्रोणकलशमुपसीदन्ति तेनोद्गातारो वृताः। प्राजापत्या वा उद्गातारः प्राजापत्यो द्रोणकलशो द्रोणकलश एवैनानार्त्विज्याय वृणीते। तां.ब्रा ६.५.१७

१३अनभिजिता वा एषोद्गातॄणां दिग्यत्प्राची यत् द्रोणकलशं प्राञ्चं प्रोहन्ति दिशोऽभिजित्यै। -तां.ब्रा. ६.५.२०

१४यन्नवित्याहुरन्तराश्वः प्रासेवौ युज्यतेऽन्तरा शम्य अनड्वान्क उद्गातॄणां योग इति यत् द्रोणकलशमुपसीदन्ति स एषां योगः - तां.ब्रा. ६.५.२१

१५यजमान के पापों अथवा भद्र आदि की कामना के अनुसार उद्गाता द्वारा ग्रावों पर द्रोणकलश स्थापित करने की विधि का वर्णन - तां.ब्रा.६.६.१

१६एतद्वा उद्गातॄणां हस्तकार्य्यं यत्पवित्रस्य विग्रहणं। - - - - - - तां.ब्रा. ६.६.१२

१७प्र शुक्रैतु देवी मनीषास्मद्रथः सुतष्टो न वाजीत्युद्गाता धारामनुमन्त्रयते। - - - - - तां.ब्रा. ६.६.१६

१८बृहस्पतिर्वै देवानामुदगायत्तं रक्षांस्यजिघांसन् स य एषां लोकानामधिपतयस्तान् भागधेयेनोपाधावत्। - - - - - -तां.ब्रा. ६.७.१

१९वाग्वै देवेभ्योऽपाक्रामत्तां देवा अन्वमन्त्रयन्त सा ऽब्रवीदभागास्मि भागधेयम्मेऽस्त्विति कस्ते भागधेयं कुर्य्यादित्युद्गातार इत्यब्रवीदुद्गातारो वै वाचे भागधेयं कुर्वन्ति। - - - तां.ब्रा. ६.७.५

२०यद्युद्गातावच्छिद्यते यज्ञेन यजमानो वृध्यतेऽदक्षिणः स यज्ञक्रतुः संस्थाप्योऽथान्य आहृत्यस्तस्मिन्देयं यावद्दास्यन् स्यात्। -तां.ब्रा.६.७.१४

२१प्रस्तरमासद्योद्गायेद्धविषोऽस्कन्दाय। - - - - - -तां.ब्रा. ६.७.२१

२२वज्रेण वा एतत्प्रस्तोतोद्गातारमभिप्रवर्त्तयति यद्रथन्तरं प्रस्तौति समुद्रमन्तर्द्धायोद्गायेद्वागित्यादेयं वाग्वै समुद्रः समुद्रमेवान्तर्दधात्यहिंसायै। - तां.ब्रा. ७.७.९

२३इयं (पृथिवी) वै देवरथ इमामालभ्योद्गायेन्नास्मादवपद्यते। ईश्वरं वै रथन्तरमुद्गातुश्चक्षुः प्रमथितोः प्रस्तूयमाने सम्मीलेत्स्वर्दृशं प्रतिवीक्षेत नैनञ्चक्षुर्जहाति। - तां.ब्रा. ७.७.१४

२४प्रजननं वै रथन्तरं यत्तस्थुष इत्याह स्थायुकोद्गातुर्वाग् भवत्यपि प्रजननं हन्त्यस्थुष इति वक्तव्यं सुस्थुष इति वा स्थायुकोद्गातुर्वाग् भवति न प्रजननमपि हन्ति। - तां.ब्रा. ७.७.१६

२५ध्रुव आसीनो वामदेव्येनोद्गायेत्पशूनामुप वृत्यै। - - - अन्तरिक्षं वै वामदेव्यमधून्वतेवोद्गेयमधूतमिव ह्यन्तरिक्षं पशवो वै वामदेव्यमहिंसते वोद्गेयं पशूनामहिंसायै। - तां.ब्रा. ७.९.७

२६एष वै यजमानस्य प्रजापतिर्यदुद्गाता यच्छ्यैतेन हिङ्करोति प्रजापतिरेव भूत्वा प्रजा अभिजिघ्रति - तां.ब्रा. ७.१०.१६

२७एषा वै शिशुमारी यज्ञपथेऽप्यस्ता यज्ञायज्ञीयं यद्गिरागिरेत्याहात्मानं तदुद्गातागिरति। ऐरङ्कृत्वोद्गेयमिरायां यज्ञं प्रतिष्ठापयत्यप्रमायुक उद्गाता भवति। - तां.ब्रा. ८.६.९

२८वैश्वानरे वा एतदुद्गातात्मानं प्रदधाति यत्प्रप्रवयमित्याह प्रप्री वयमिति वक्तव्यं वैश्वानरमेव परिक्रामति। - तां.ब्रा. ८.६.११

२९वैश्वानरं वा एतदुद्गातानु प्रसीदन्नेतीत्याहुर्य्यद्यज्ञायज्ञीयस्यर्च्चं संप्रत्याहेति परिक्रामतेवोद्गेयं वैश्वानरमेव परिक्रामति - तां.ब्रा. ८.७.५

३०उद्गात्रा पत्नी संख्यापयन्ति रेतोधेयाय। हिङ्कारं प्रति संख्यापयन्ति हिङ्कृताद्धि रेतो धीयत। - तां.ब्रा. ८.७.१२

३१सोमस्याभिदाहे प्रायश्चित्तं : यदि सोममभिदहेद्ग्रहानध्वर्य्युः स्पाशयेत स्तोत्राण्युदद्गाता शस्त्राणि  होताथ - - - - तां.ब्रा. ९.९.१५

३२- - - -यजमानं वा अनु प्रतितिष्ठन्तमुद्गाता प्रतितिष्ठति य एवं विद्वान् वैरूपेणोद्गायति। - तां.ब्रा. १२.४.९

३३दक्षिण ऊरावुद्गातुरग्निम्मन्थन्ति दक्षिणतो हि रेतः सिच्यते। - - - - - -तां.ब्रा. १२.१०.१२

*षोडशी ग्रहस्य दर्शनम् : त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशीत्युद्गाता ग्रहमवेक्षते। - तां.ब्रा. १२.१३.३२

३४साद्यस्क्री नामक पञ्चैकाहः : आदित्याश्चाङिरसश्चादीक्षन्त ते स्वर्गे लोके ऽस्पर्द्धन्त तेऽङ्गिरस आदित्येभ्यः श्वः सुत्यां प्राब्रुवंस्त आदित्याः एतमपश्यं स्तं सद्यः परिक्रीयायास्यमुद्गातारं वृत्वा तेन स्तुत्वा स्वर्गं लोकमायन्नहीयन्ताङ्गिरसः। - तां.ब्रा. १६.१२.१

३५स्रगुद्गातुः - तां.ब्रा. १८.३.२

३६स्रगुद्गातुस्सौर्य्य उद्गाता न वै तस्मै व्यौच्छदथोव्येवास्मै वासयति। - तां.ब्रा. १८.९.८

३७ऋत्विक् समानता : यो होता सोध्वर्युः स पोता य उद्गाता स नेष्टा सोच्छावाको - - -तां.ब्रा. २५.५.५

३८सर्प सत्रस्य ऋत्विजः - - -धृतराष्ट्र ऐरावतो ब्रह्मा पृथुश्रवा दौरेश्रवस उद्गाता ग्लावश्चाजगावश्च प्रस्तोतृप्रतिहर्त्तारौ - - -तां.ब्रा. २५.१५.३

३९तपो गृहपतिर्ब्रह्म ब्रह्मेरापत्न्यमृतमुद्गाता भूतं प्रस्तोता भविष्यत्प्रतिहर्त्तार्त्तव उपगातार - - -तां.ब्रा. २५.१८.४

४०स य एवं विद्वान् अग्निष्टोमेनोद्गायति प्राजाताः प्रजा जनयति परि प्रजाता गृह्णाति। - जै.ब्रा.१.६७

४१- - -प्रजापतिर् उद्गाता प्राजापत्य उदुम्बरः। वृणुते ऽन्यान् ऋत्विजो नोद्गातारम्। यद् उद्गाता प्रथमेन कर्मणौदुम्बरीम् अन्वारभते स्वयैव तद् देवतयात्मानम् आर्त्विज्याय वृणीते। - - - जै.ब्रा. १.७०

४२प्रजापतिर् उद्गातोर्ग् उदुम्बरः। स एष ऊर्जि श्रितः प्रजापतिः प्रजाभ्य ऊर्जम् अन्नाद्यं विभजति। उदङ्ङ् आसीन उद्गायति। उदीचीम् एव तद् दिशम् ऊर्जा भाजयति। - - - - - - - -यद् उदीचीनदेवत्या उद्गातारो ऽथ कस्माद् विपर्यावृत्य दिश आर्त्विज्यं कुर्वन्तीत्य् आहुः। ब्रूयात् दिशाम् अभिष्ट्यै दिशाम् अभिप्रेत्यै। तस्मात् सर्वासु दिक्ष्व~ अन्नं विद्यत इति। - - - -जै.ब्रा. १.७२

४३- - - -अकर्म वयं तद् यद् अस्माकं कर्म इत्य् आह उद्गातारं पृच्छत इति। उद्गातः किं स्तुतं स्तोत्रं होता प्रातरनुवाकेनान्वशंसीत् इति। अकर्म वयं तद् यद् अस्माकं कर्म इति ब्रूयात् अगासिष्म यद् अत्र गेयम् इति। तं यदि ब्रूयुः तमांसि वा अगासीर् न ज्योतींषि इति ज्योतींष्य् एवाहम् अगासिषम् इति ब्रूयात् न तमांसि इति। - - -जै.ब्रा. १.७६

४४द्रोणकलशस्य प्रोहणम् :उद्गातार उद्गीथायाधोऽधोऽक्षं द्रोणकलशं प्रोहन्ति। - - - -नाक्षम् उपस्पृशेत्। - - - - -जै.ब्रा. १.७७

४५एतेनैवोद्गाताभिमृशति तनूपा असि तन्वं मे पाहि। - - - - -जै.ब्रा.१.७८

४६- - - - -स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शम् अर्वते। शं राजन्न् ओषधीभ्यः ॥ इति। शम् एवोद्गात्रे भवति शं यजमानाय शं प्रजाभ्यः। - - -- - - -अथोद्गात्रैकर्चो गायत्रं गायति उच्चा ते जातम् अन्धसा इति। स उदित्येवेतो देवेभ्यो हव्यं वहति - - - - - - जै.ब्रा. १.८१

४७देवक्षेत्रं वा एषो ऽध्यवस्यति यस् सोमस्योद्गायति। - - - - -सोमोद्गायोद्गाय सोम इत्य् आह। सोमो वै देवानां क्षेत्रपतिः। सोमायैव तद् देवानां क्षेत्रपतये प्रोच्योद्गायति नार्तिम् आर्छति। - जै.ब्रा. १.८४

४८अध्वर्युः प्रथमस् सर्पति प्राणो यज्ञस्य। - - प्रस्तोता द्वितीयस् सर्पति मुखं साम्नः। - - -उद्गाता तृतीयस् सर्पति सर्वदेवत्यः प्रजापतिः। प्रतिहर्ता चतुर्थस् सर्पति तुरीयं साम्नः। यजमानः पञ्चमस् सर्पति। पांक्तो यज्ञः पांक्ताः पशवः। - जै.ब्रा. १.८५

४९प्रजापतिर् एष यद् उद्गाता तम् एतत् प्रजा अन्नकाशिनीर् अभितस् समन्तं परिविशन्ति। ताभ्यो हिंकारेणैवान्नाद्यं सृजते। तद् ओंकारेण सृष्टं वारयते। - - -जै.ब्रा.१.८८

५०प्रजापतिं कल्पयित्वोद्गायेत्। यो ह वै प्रजापतिं कल्पयित्वोद्गायति कल्पते ऽस्मै दिशः प्रदिश आदिशो विदिश उद्दिशो दिश इति। - जै.ब्रा. १.८९

५१एतद् ध वै साम्नो ऽन्तर् अरण्यं यत् प्रस्तुतम् अनभिस्वरितम् आदीयते॥ स्वरेण संपाद्योद्गायेत्। एतद् वै साम्नस् स्वं यत् स्वरः। स्वेनैवैनत् तत् समृद्धयति। एतद् वै साम्नो ऽन्नाद्यं यत् स्वराः। एतद् वै साम्न आयतनं यत् स्वरः। - - -जै.ब्रा. १.११२

५२यो वा अंशुम् एकाक्षरं वेदान्नाद एव श्रेष्ठस् स्वानां भवति। अथो सह एव तस्यै जनताया उद्गायति । वाग् वा अंशुर् एकाक्षरः। - - -- - -एते ह वै रसदिहौ ये एते गायत्र्या उत्तमे अक्षरे। यस् ते उद्गायन्न् आरभते रसदिहाव् उरसि निमृदते। - जै.ब्रा.१.११४

५३रथन्तरस्य महिम्नस् संभृत्य रथन्तरेणोद्गायेत् यस् ते अग्नौ महिमा यस् ते अप्सु रथे यस् ते महिमा - - - - - - -। द्रविणस्वद् एवोद्गात्रे भवति द्रविणस्वद् यजमानाय - - - - -जै.ब्रा.१.१२८

५४अनेजन्न् उद्गायेत् पशूनाम् अपरावापाय। यद् एजन्न् उद्गायेत् पशून् परावपेत्। - - - -प्रावृत एवानेजन्न् उद्गायेत्। - जै.ब्रा.१.१३८

५५अक्षं ह स्म वा एतत् पुरा विशश् शीर्षन् निदधति य एव तम् उद्गायन् नावपातयिष्यति स न उद्गास्यतीति। तद् उ तद् उपकार्यरूपम् एव। कामम् एवोद्गेयम्। - जै.ब्रा. १.१३९

५६- - - - -प्रतिहार एव प्रतिह्रियमाणः वाक् इत्य् उद्गाता ब्रूयात्। वाग् वै ब्रह्म। - - -जै.ब्रा. १.१४०

५७नार्मेधम् साम - - -यजमानस्य वै त उद्गातुः पुत्रौ पुत्रम् अमीमरताम् अन्तकधृतिं सौव्रतिं नकिरश् च शकपूतश् चेति। - जै.ब्रा.१.१७१

५७अथ ह हृत्स्वाशया आल्लकेयो महावृषो राजा पुत्रं दीक्षयांचकार। तस्य ह सोमशुष्मस् सात्ययज्ञिर् उद्गीथायोढ आस। तम् उ ह महावृषाणां दूता आसस्रुर् आगच्छ समितिर् वा इयम् इति। तद् ध प्रधावयन्न् उवाचोद्गातर् एतं ते पुत्रं परिददानीति। स हेष्ट्वा पुनर् आजगाम। स होवाचोद्गातः क्व यज्ञं प्रत्यतिष्ठिपः क्व यजमानं क्वास्य पशून् इति। - - - - - -जै.ब्रा. १.२३४

*प्रजापतिर् एष यद् उद्गाता। स त्वष्टा स रेतसस् सेक्ता स रूपाणां विकर्ता। - - - -अरेतस्का ह वै दुरुद्गातुर् वर्तन्यां गर्भा जायन्ते। - जै.ब्रा. १.२५९

५८त्रयो ह वा एते समुद्रा यत् पवमाना अग्निर् वायुर् असाव् आदित्यः। तैश् छन्नैर् उद्गायेत्। स यर्हि वै प्रजापतिः प्रजाभ्यो वृष्टिम् अन्नाद्यं प्रयच्छति छाद्यन्त एते तर्हि। प्रजापतिर् एष सः। यद् उद्गास्यन् पवमानैश् चान्यैर् उद्गायति छादयत्य् एव यजमानम् अन्नाद्येन छादयत्य् आत्मानं छादयति प्रजा बहुवर्षी तत्र पर्जन्यो भवतीति ह स्माह कूटश् शैलनो यत्राहम् उद्गायामीति। - जै.ब्रा. १.२७४

५९देवा वै पवमानाः प्रजाः पृष्ठोक्थानि। तैश् छन्नैः परोक्षम् अनिरुक्तैः पवमानैर् उद्गायेत्। - - - - -जै.ब्रा.१.२७४

६०दैवीं ह वा एष संसदम् एति य पवमानैर् उद्गायति। - जै.ब्रा.१.२७५

६१अथैता अमृतव्याहृतीर् अभिव्याहरति भूर् भुवस् स्वः। क इदम् उद्गास्यति स इदम् उद्गास्यति इति। प्रजापतिर् वै कः। तम् एवादाव् आर्त्विज्याय वृणीते। स य एवं तद् उद्गायति वाचैवास्य कृतं भवत्य् अनृण आत्मना भवति। - जै.ब्रा. १.३२७

६२क्षिप्रं प्रजया पशुभिः प्रजाया इति प्रतिहारेप्रतिहार उद्गाता इळ इति ब्रूयात्।पशवो वा इळायतनं रथन्तरम्। - जै.ब्रा.१.३३०

६३तद् उद्गाता यजमानस्य पञ्चदशेन वज्रेण द्विषन्तं पाप्मानं भ्रातृव्यं स्तृणाति। - - - - - -जै.ब्रा.१.३३१

६४अग्निर् एष यद्रथन्तरम्। अग्निर् वै मृत्युः। स यो ऽन्यत्राक्षरेभ्यस् स्तोब्धि स एवोद्गाता यजमानं मृत्योर् आस्ये ऽप्यस्यति। - जै.ब्रा.१.३३२

६५तद् आहुः उद्गातर् अहन् रात्रिम् अगासी रात्र्याम् अहाः इति। उभयम् इति ब्रूयात् अहन्न एव रात्रिम् अगासिषं रात्र्याम् अहः इति। - जै.ब्रा. १.३४०

६६- - -यदि कामयेरन्न् उद्गातैषां म्रियेतेत्य् उद्गातारं तृतीयसवने ब्रूयुः प्रजापतेर् ऋग्भिर् जुहुधि इति। - - - - - अध्वर्युः प्रथमो युज्यते। तस्य प्रातस्सवनम् आयतनम्। अथ होता। तस्य माध्यंदिनं सवनम् आयतनम्। अथोद्गाता। तस्य तृतीयसवनम् आयतनम्। - जै.ब्रा.१.३४३

 

६७उद्गातुर् हिंकारम् अनु हिंकुर्वन्ति। तस्माद् आत्मनो वशम् अङ्गानि यन्ति। - - -ऋत्वजों द्वारा शिर आदि विभिन्न अंगों से गाने का वर्णन। - जै.ब्रा.१.४०७

६८उद्गाता पञ्चविंशेनात्मना राजनेनोद्गायति। इमं तद् आत्मानं प्रतिदधाति। तस्माद् अयम् आत्मा प्रतिहितः।- - - - - - - त (ऋत्विजः) एकैकयास्तुतयोद्गातारम् उपसमायन्ति। ताभिर् उद्गातोद्गायति। आत्मन्न् एव तद् अंगानि प्रतिदधाति।- - -जै.ब्रा. २.४०८

६९अथो मनो वै गायत्रम्। - - मनसा हिंकुर्वन्ति, मनसा प्रस्तौति, मनसादिम् आदत्ते , मनसोद्गायति। मनसा प्रतिहरति, मनसोपद्रवति, मनसा निधनम् उपयन्त्य् असमाप्तस्य समाप्त्यै। - जै.ब्रा. ३.३०५

७०छन्दांसि यद् अयजन्त तेषां बृहत्य् एवोदगायत्। अथ याव् एता उत्तरौ प्रगाथौ तौ प्रस्तोतृप्रतिहर्ताराव् आस्ताम्। - - -जै.ब्रा. ३.३६९

७१देवा यद् अयजन्त तेषां बृहस्पतिर् एवोद्गायत्। गौश् चायास्यश् च प्रस्तोतृप्रतिहर्ताराव् आस्ताम्। प्रजापतिर् एव गृहपतिर् आसीत्। - - - जै.ब्रा.३. ३७४

७२ज्योतिष्टोमे सुत्येऽहनि प्रातरनुवाकात् पूर्वं विश्वरूपागानं : अध्वर्यवित्याहोद्गाता मा स्म मेऽनिवेद्य होत्रे प्रातरनुवाकमुपाकरोरिति। - षड्विंश ब्राह्मण १.४.१

७३विश्वरूपागाने ज्योतिर्गानं : - - - - -स ब्रूयादकार्षमहं तद्यन्मम कर्म उद्गातारं पृच्छतेति। उद्गातः किं स्तुतं स्तोत्रं होता प्रातरनुवाकेनान्वशंसीदिति स ब्रूयादकार्षमहं तद्यन्मम कर्मागासिषं यद्गेयमिति। तं चेद् ब्रूयुस्तमो वै त्वमगासीर्न ज्योतिरिति। स ब्रूयाज्ज्योतिस्तेन येन ज्योतिः - - - - - - - षड्. ब्रा. १.४.७

७४असितमृगा ह स्म वै पुरा कश्यपा उद्गायन्त्यथ ह युवानमनूचानं कुसुरुबिन्दमौद्दालकिं ब्राह्मणा उद्गीथाय वव्रे। - - - षड्. ब्रा.१.४.१६

७५यावत्साम्नोद्गातोद्गातृष्वेव तावद् (यज्ञः)। - षड्. ब्रा.१.६.५

*धूर्गाने बहिष्पवमाने :एष वाव जात एषोऽवलुप्तजरायुरेष आर्त्विजीनो यस्य धुरो गीयन्ते यश्चैवं विद्वान् धुरो गायति। जातमेवैनमन्नाद्याय परिवृणक्ति। उभावन्नमत्त उद्गाता च यजमानश्च। - षड्. ब्रा. २.२.३

७६अथैतस्यामुदीच्यां दिशि भूयिष्ठं पर्जन्यो विद्योतते तस्मादेतां दिशमुद्गाता प्रत्युद्गायति। - षड्. ब्रा.२.४.४

७७प्रातसवने :  पर्जन्यो म उद्गाता स मोपह्वयतामुद्गातरुपमाह्वयस्वेत्युच्चैः। - - - -प्राणो यजमानः। - षड्.ब्रा. २.५.५

७८माध्यन्दिन सवने : श्रोत्रं म उद्गाता स मोपह्वयताम् उद्गातरुप माह्वयस्वेत्युच्चैः। - - - अपानो यजमानः। - षड्. ब्रा.२.६.२

७९तृतीय सवने : समानो म उद्गाता स मोपह्वयताम् उद्गातरुप माह्वयस्वेत्युच्चैः। - - - -स उदानो यजमानः। - षड्. ब्रा.२.७.२

८०देवानां वा एतद्यज्ञस्य मुखं यदुद्गातृचमसम्। तस्मादुद्गातृचमसं नान्यो भक्षयेत्। - षड्.ब्रा. २.७.८

८१यदुद्गाता जहाति श्रोत्रं ह तद्यजमानं जहाति। स यत्तत् करोति स्वं श्रोत्रं यजमाने दधाति। स विष्वङ् श्रोत्रेणामुष्मिंल्लोके संभवति। - षड्.ब्रा ३.१.४

८२पशवो हाध्वर्युमनु कीर्तिर्होतारं योगक्षेमो ब्रह्माणमात्मा च प्रजा चोद्गातारम्। - षड्.ब्रा. ३.१.१०

८३अथ यद्यात्मना वा प्रजया वा व्याधीयेतोद्गाता म इदमकरिति विद्यात्। - षड्.ब्रा. ३.२.१

८४- - - पर्जन्यो म उद्गाता - - -। स एतान् दैवानृत्विजो वृत्वाथैतान् मानुषान् वृणीत। - षड्.ब्रा.३.३.२

८५पर्जन्यो म उद्गाता। स मे देवयजनं ददातु। उद्गातर्देवयजनं मे देहीत्युच्चैः। - षड्. ब्रा. ३.३.९

८६इन्द्र एष यदुद्गाता। स यथासावमीषां रसमादत्त एवमेष तेषां रसमादत्ते। - - - ते य एवेमे मुख्याः प्राणाः। एत एवोद्गातारश्च उपगातारश्च। इमे ह त्रय उद्गातार इम उ चत्वार उपगातारः। जैमि.उप.ब्रा.१.६.३.२

८७तद्यथा वा अतो ह्रदात् कुल्ययोर्वरामुदकमुपनयन्त्येवमेव एतन्मनसोऽधि वाचोद्गाता यजमानाय स्वकामान् प्रयच्छति। स य उद्गातारं दक्षिणाभिराराधयति तं सा कुल्योपधावति। य उ एनं नाराधयति स उ तामपि हन्ति। - जै.उ.ब्रा. १.१८.३.४

८८तं (शर्यातं मानवं) देवा बृहस्पतिनोद्गात्रा दीक्षामहा इति पुरस्तादागच्छन्। - - - बम्बेन आजद्विषेण पितरो दक्षिणतः - - -। उशनसा काव्येन असुराः पश्चात् - - -। अयास्येनाङ्गिरसेन मनुष्या उत्तरतः - - -। उद्गाताओं से प्राप्ति का वर्णन। - जै.उ.ब्रा.२.३.१.१

८९वाक् , मन , चक्षु , श्रोत्र , प्राण द्वारा उद्गान करने पर पाप्मा द्वारा इनका वेधन करना। मुख्य प्राण (अयास्य आंगिरस) द्वारा उद्गान करने पर पाप्मा का नष्ट होना। - जै.उ.ब्रा. २.४.१.१

९०ता उ ह वै जाबालौ दिदीक्षाते शुक्रश्च गोश्रुश्च। तयोर्ह प्राचीनशालिर्वृत उद्गाता। - जै.उ.ब्रा. ३.२.२.७

९१स यस्तां देवतां वेद, यां च स ततोऽनुसंभवति या चैनं तं मृत्युमतिवहति स उद्गाता मृत्युमतिवहतीति। - जै.उ.ब्रा. ३.२.४.४

९२यस्त्रयाणां मृत्यूनां साम्ना अतिवाहं वेद स उद्गाता मृत्युमतिवहतीति। - जै.उ.ब्रा. ३.२.४.११

९३ते ह काण्ड्वियवमुद्गातारं चक्रिरे ब्राह्मणं प्राचीनशालिम्। - - - - - - - - - - तं ह वा एवंविदुद्गाता यजमानमोमित्येतेनाक्षरेण आदित्यं मृत्युमतिवहति। वागित्यग्निम्। हुमिति वायुम्। भा इति चन्द्रमसम्। - - - - - - - - - -जै.उ.ब्रा. ३.२.५.२

९४श्रीर्वा एषा प्रजापतिः साम्नो यद्धिंकारः। तमिदुद्गाता श्रिया प्रजापतिना हिङ्कारेण मृत्युमपसेधति। - जै.उ.ब्रा. ३.३.२.३

९५तमेतदुद्गाता यजमानमोमित्येतेनाक्षरेण अन्ते स्वर्गे लोके दधाति। - - - - जै.उ.ब्रा. ३.३.३.८ , ३.३.४.९

९६तस्य(यज्ञस्य) होताध्वर्युरुद्गातेत्यन्यतरां वाचा वर्तनिं संस्कुर्वन्ति। - - -जै.उ.ब्रा. ३.४.२.२

९७ओमिति वै होता प्रतिष्ठितः। ओमित्यध्वर्युः। ओमित्युद्गाता। - जै.उ.ब्रा.३.४.५.६

९८तत्सप्तविधं साम्नः। सप्तकृत्व उद्गाता आत्मानं च यजमानं च शरीरात् प्रजनयति। - जै.उ.ब्रा. ३.६.६.४

९९तदाहुः। स वा उद्गाता यो यजमानस्य प्राणेभ्योऽधि मृत्युपाशान् मुञ्चतीति। - - - -- - एवंवा एवंविदुद्गाता यजमानस्य प्राणेभ्योऽधि मृत्युपाशान् उन्मुञ्चति।- - - - - - - तदाहुः। स वा उद्गाता यो यजमानस्य प्राणेभ्योऽधि मृत्युपाशानुन्मुच्य अथैनं साङ्गं सतनुं सर्वमृत्योः स्पृणातीति।- - - - - - - जै.उ.ब्रा. ४.७.१.३

१००आलोभी : इन्धानास्त्वा शतं हिमा इत्येतद्ध वै दाशर्म आरुणिमुवाचाग्निमादधिवाँसमुद्गातः केनाग्निरुपस्थेय इति तस्मै हैतदग्न्युपस्थानमुवाच - - - काठ. संहिता ७.६

१०१आलोभी : अग्ने त्वं नो अन्तम इत्येतद्ध वै दिवोदासो भैमसेनिरारुणिमुवाचाग्निमादधिवाँसमुद्गातः केन गार्हपत्य उपस्थेय इति तस्मै उवाच - - - - -काठ.सं. ७.८

१०२उत्सीदनम् : महाहविर्होता सत्यहविरध्वर्युः - - - -अयास्य उद्गाता -काठ.सं. ९.९

१०३उत्सीदनम् (सप्तहोता) :महाहविर्होतासीत् - - - -अयास्य उद्गाता। -काठ.सं. ९.१२

१०४उत्सीदनम् : दशहोतारं व्याख्याय बहिष्पवमानेनोद्गायेत् - - -चतुर्होतारं व्याख्यायाज्यैरुद्गायेत्- - -पञ्चहोतारं व्याख्याय माध्यंदिनेन पवमानेनोद्गायेत् - - - सप्तहोतारं व्याख्यायर्भवेण पवमानेनोद्गायेत्। -काठ.सं. ९.१४

१०५सर्पराज्ञ्या ऋग्भिर्दशमेऽहन्नुद्गातोद्गायेदियं वै सर्पराज्ञ्यन्नं चतुर्होतारोऽन्नमेवाप्त्वान्नमवरुन्द्धे- - -काठ.सं.९.१५

१०६- - - -- -मनसा प्रस्तौति मनसोद्गायति मनसा प्रतिहरति रेत एवैतदुद्गातारः प्रसिञ्चन्ति - - --काठ.सं. ९.१५

१०७इषुः : प्रजापतेर्वा उद्गातोर्गुदुम्बर्याf श्रयते प्रजास्वेवोर्जं न्यनक्ति- - - -काठ.सं. २५.१०

१०८धिष्ण्यम् : उद्गात्रा पत्नीं संख्यापयति वृषा वा उद्गाता पत्न्याः प्रजाः प्रजायन्ते- - - -काठ.सं.२६.१

१०९वाचस्पतिः : प्राजापत्या एत ऋत्विजस्त्रयो वृता युक्ता यज्ञे भवन्ति प्रस्तोतोद्गाता प्रतिहर्ता यद्धिङ्करोत्युद्गातॄनेव वृणीते तेऽस्य वृता युक्ता यज्ञे भवन्ति। -काठ.सं २७.९

११०आयुष्यम् : यदुद्गात्रे ददाति प्राजापत्यो वा उद्गाता प्रजापतिमेव तेन प्रीणाति -काठ.सं २८.५

१११दीर्घजिह्वी : उद्गातृभ्यो हरन्ति सोमदेवत्यं वै साम साम्नस्सवीर्यत्वाय सतनूत्वाय -काठ.सं. २९.२

११२एकादशिनी : आसन्दीमारुह्योद्गाता महाव्रतेनोद्गायति प्रेङ्खमारुह्य होता महदुक्थमनुशँसति- - - -काठ.सं. ३४.५

११३प्रायश्चित्तिः : चत्वारो वरा देया ब्रह्मण उद्गात्रे होत्रेऽध्वर्यव एते वै यज्ञस्येन्द्रास्तानेव प्रीणाति -काठ.सं. ३५.१६

११४प्रायश्चित्तिः : यस्य सोममभिदहेद्ग्रहानध्वर्युस्स्पाशयेत स्तोत्राण्युद्गाता शस्त्राणि होता- - - -काठ.सं. ३५.१६

११५सप्तहोता :  महाहविर्होता , सत्यहविरध्वर्युः - - -अयास्य उद्गाता - - -मैत्रायणी संहिता १.९.१, १.९.५

११६राजसूय ब्राह्मणम् : स्रगुद्गातुः , सौर्यो वा उद्गाता , ऽथो अमुमेवास्मा आदित्यमाप्त्वोन्नयति - - -मै.सं. ४.४.८

११७प्राजापत्यो वा उद्गाता, संक्शाप्यमानो वा उद्गाता पत्न्या रेता आदत्ते, - - - - - -मै.सं. ४.५.४

११८त्रयो वै प्राजापत्या ऋत्विज, उद्गाता प्रस्तोता प्रतिहर्ता , ते वा अस्यैतर्ह्यवृत्ता अयुक्ता , यद्धिंकरोति तेनैवास्य ते वृत्ता युक्ता भवन्ति - मै.सं. ४.६.४

११९राजसूयविषयस्य दशपेयस्याभिधानम् : प्राकाशावध्वर्यवे ददाति स्रजमुद्गात्रे रुक्मँ होत्रे - - - - - -तैत्तिरीय संहिता १.८.१८.१

१२०स्तोत्रोपाकरणप्रतिहाराङ्गमन्त्राभिधानम् : वायुर्हिंकर्ताऽग्निः प्रस्तोता प्रजापतिः साम बृहस्पतिरुद्गाता विश्वेदेवा उपगातारो मरुतः प्रतिहर्तार इन्द्रो निधनं ते देवा प्राणभृतः प्राणं मयि दधत्वेतद्वै सर्वमध्वर्युरुपाकुर्वन्नुद्गातृभ्य उपाकरोति - - - - तै.सं. ३.३.२.१

१२१काम्ययाज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् :बृहस्पतिरभिकनिक्रदद्गा उत प्रास्तौदुच्च विद्वाँ अगायत्  -तै.सं. ३.४.११.३

१२२धिष्णियाभिधानम् :नाध्वर्युरुप गायेद्वाग्वीर्यो वा अध्वर्युर्यदध्वर्युरुपगायेदुद्गात्रे वाचँ सं प्र यच्छेदुपदासुकाऽस्य वाक्स्यात् - - -तै.सं. ६.३.१.५

१२३आग्रयण ग्रह कथनम् : त्रिर्हिंकरोत्युद्गातॄनेव तद्वpणीते - तै.सं. ६.४.११.३

१२४ - - - -नेष्टा पत्नियामुद्गात्रा सं ख्यापयति प्रजापतिर्वा एष यदुद्गाता प्रजानां प्रजननायाप उप प्र वर्तयति रेत एव तत्सिंञ्चत्यूरुणोप प्र वर्तयत्यूरुणा हि रेता सिच्यते - - - - - तै.सं. ६.५.९.६

१२५सहस्रतम्याभिधानम् : तामग्नीधे वा ब्रह्मणे वा होत्रे वोद्गात्रे वाऽध्वर्यवे वा दद्यात्सहस्रमस्य सा दत्ता भवति - - -तै.सं. ७.१.७.२

१२६सामविशेषकथनम् : नवभिरध्वर्युरुद्गायति नव वै पुरुषे प्राणाः प्राणानेव यजमानेषु दधाति - - - - -दिग्भ्य एवान्नाद्यं सं भरन्ति ताभिरुद्गातोद्गायति दिग्भ्य एवान्नाद्यम् संभृत्य तेज आत्मन्दधते तस्मादेकः प्राणः सर्वाण्यङ्गान्यवति - - - - आसन्दीमुद्गाताऽऽरोहति साम्राज्यमेव गच्छन्ति - - -  तै.सं. ७.५.८.४

१२७राजसूये दशपेयविधिः -- प्रकाशावध्वर्यवे ददाति। प्रकाशमेवैनं गमयति। स्रजमुद्गात्रे। व्येवास्मै वासयति। रुक्मँ होत्रे। आदित्यमेवास्मा उन्नयति। अश्वं प्रस्तोतृप्रतिहर्तृभ्याम् । - - - - - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.२.३

१२८अश्वमेधे उद्गातुः प्रोक्षणं :शतेन क्षत्तसंग्रहीतृभिः सहोद्गाता। उत्तरतो दक्षिणा तिष्ठन्प्रोक्षति। अनेनाश्वेन मेध्येनेष्ट्वा। अयँ राजा सर्वमायुरेत्विति। आयुर्वा उद्गाता। आयुः क्षत्तसंग्रहीतारः। आयुषैवास्मिन्नायुर्दधाति। तै.ब्रा. ३.८.५.३

१२९अश्वस्योद्गातृस्थाने वरणं :यदुद्गातोद्गायेत्। यथा क्षेत्रज्ञोऽन्येन पथा प्रतिपादयेत्। तादृक्तत्। उद्गातारमपरुद्ध्य। अश्वमुद्गीथाय वृणीते। यथा क्षेत्रज्ञोऽञ्जसा नयति। एवमेवैनमश्वः सुवर्गं लोकमञ्जसा नयति।- तै.ब्रा. ३.८.२२.१

१३०सप्तहोतृमन्त्र : महाहविर्होता। सत्यहविरध्वर्युः। - - - -अयास्य उद्गाता। -तैत्तिरीय आरण्यक ३.५.१

१३१तस्यैवं विदुषो यज्ञस्याऽऽत्मा यजमानः - - - -प्राण उद्गाता चक्षुरध्वर्युर्मनो ब्रह्मा श्रोत्रमग्नीत्। - तैत्तिरीय आरण्यक १०.६४.१

१३२तस्याग्निर्होतासीद्, वायुरध्वर्युः , सूर्य उद्गाता, चन्द्रमा ब्रह्मा , पर्जन्यः सदस्य , - - - - - गोपथ  ब्रा. १.१.१३

१३३यदुद्गाता साम्ना करोति , दिवं तेनाप्याययति। तत्र ह्यादित्यः शुक्रश्चरति। तदप्येतदृचोक्तम् - उच्चा पतन्तमरुणं सुपर्णम् इति। - - - -गो.ब्रा. १.२.९

१३४- - - -किं विद्वानुद्गातौद्गात्रं करोति , - - - - - -चक्षुषैवोद्गातौद्गात्रं करोति। चक्षुषा हीमानि भूतानि पश्यन्ति। अथो चक्षुरेवोद्गाता, चक्षुर्ब्रह्म , चक्षुर्देव इति। - गो.ब्रा. १.२.११

१३५चत्वारो वा नमे वेदा - - - -। चतस्रो वा इमा होत्रा हौत्रमाध्वर्यवमौद्गात्रं व्रह्मत्वमिति। - - - -गो.ब्रा. १.२.१६

१३६सामविदमेवोद्गातारं वृणीष्व , स ह्यौद्गात्रं वेद। आदित्यो वा उद्गाता। - गो.ब्रा. १.२.२४

तस्मात् - - - - - सामविदमुद्गातारम्।- गो.ब्रा. १.३.१

१३७तं वा एतं महावाद्यं कुरुते , यदृचैव हौत्रमकरोद् यजुषाध्वर्यवं साम्नौद्गात्रमथर्वाङ्गिरोभिर्ब्रह्मत्वम्। - गो.ब्रा. १.३.२

१३८तद् यदौदुम्बर्यां म आसिष्ट हिङ्ङकार्षीद् मे प्रास्तावीद् म उदगासीद् मे सुब्रह्मण्यामाह्वासीदित्युद्गात्रे दक्षिणा नीयन्ते , - गो.ब्रा. १.३.४

१३९अथोद्गातारं दीक्षयति। आदित्यो वा उद्गाताधिदैवं चक्षुरध्यात्मम्। पर्जन्य आदित्यः। पर्जन्यादधि वृष्टिर्जायते। - गो.ब्रा. १.४.३

१४०अथोद्गात्रे प्रस्तोतारं दीक्षयति। - - -अथोद्गात्रे सुब्रह्मण्यं दीक्षयति। - गो.ब्रा. १.४.६

१४१स सत्रेणोभयतोऽतिरात्रेणान्ततो ऽयजत। वाचं ह वै होत्रे प्रायच्छत् ,  प्राणम् अध्वर्यवे चक्षुर् उद्गात्रे मनो ब्रह्मणे ऽङ्गानि होत्रकेभ्य आत्मानं सदस्येभ्यः।  - - -य एवमानन्त्यमात्मानं दत्वानन्त्यमाश्नुत। - गो.ब्रा. १.५.८

१४२एते ह वा अविद्वांसो यत्रानृग्विद्धोता भवत्ययजुर्विदध्वर्युरसामविदुद्गाता - --गो.ब्रा. १.५.११

१४३होतैव भर्गो ऽध्वर्युरेव मह उद्गातैव यशो ब्रह्मैव सर्वम्। वागेव भर्गः प्राण एव महश्चक्षुरेव यशो मन एव सर्वम्। - गो.ब्रा. १.५.१५

१४४साम्नोद्गाता छादयन्नप्रमत्त औदुम्बर्यां स्तोभदेयः सगद्गदः। विद्वान् प्रस्तोता विदहाथ सुष्टुतिं सुब्रह्मण्यः प्रतिहर्ताथ यज्ञे ॥ - गो.ब्रा. १.५.२४

१४५तं (घर्मं) संभृत्योचतुः - ब्रह्मन् घर्मेण प्रचरिष्यामः , होतर्घर्ममभिष्टुहि, उद्गातः सामानि गाय , इति। - गो.ब्रा. २.२.६

१४६- - - -हिंकृत्योद्गातारः साम्ना स्तुवन्ति। - - -गो.ब्रा. २.३.९

१४७पुरुषो वै यज्ञः। तस्य मन एव ब्रह्मा , प्राण उद्गाता , अपानः प्रस्तोता, व्यानः प्रतिहर्ता , - - -  - गो.ब्रा. २.५.४

१४८अथ यत् प्रस्तोता प्रस्तौति , अपानमेव तत् प्राणैः संदधाति। अथ यत् प्रतिहर्ता प्रतिहरति, व्यानमेव तदपानैः संदधाति। अथ यदुद्गातोद्गायति , समानमेव तत् प्राणैः संदधाति। - गो.ब्रा. २.५.४

१४९पञ्च प्रयाजयागाः : उपावर्तध्वम् इत्येवाध्वर्युरुद्गातृभ्यो यज्ञं सम्प्रयच्छति। त उद्गातारो नापव्याहरेयुः - आ उत्तमायाः। `एषोत्तमा' इत्येवोद्गातारो होत्रे यज्ञं सम्प्रयच्छन्ति। - शतपथ ब्रा.१.५.२.१२

१५०शुक्रामन्थिनौ ग्रहौ : अथ संप्रेष्यति - प्रैतु होतुश्चमसः , प्र ब्रह्मणः , प्रोद्गातॄणाम् , प्रयजमानस्य , - - - श.ब्रा. ४.२.१.२९

१५१विप्रुड्होमः : अथ स्तीर्णायै वेदे द्वे तृणेऽअध्वर्युरादत्ते। तावध्वर्यू प्रथमौ प्रतिपद्येते प्राणोदानौ यज्ञस्य। अथ प्रस्तोता वागेव यज्ञस्य। अथोद्गाता आत्मैव प्रजापतिर्यज्ञस्य। अथ प्रतिहर्ता भिषग्वा व्यानो वा। - श.ब्रा. ४.२.५.३

१५२स्तोमो वाऽएष प्रजापतिः - यदुद्गातारः। स इदं सर्वं युते , इदं सर्वं सम्भवति। - श.ब्रा. ४.२.५.६

१५३माध्यन्दिन सवनग्रहाः : सर्वे वाऽअन्यऽउद्गातुः प्राञ्च आर्त्विज्यं कुर्वन्ति, तथो हास्यैतत् प्रागेवार्त्विज्यं कृतं भवति। श.ब्रा. ४.३.२.२

१५४प्रजापतिर्वाऽउद्गाता , योषऽर्ग्घोता। स एतत्प्रजापतिरुद्गाता योषायामृचि होतरि रेतः सिञ्चति। - श.ब्रा. ४.३.२.३

१५५दक्षिणादानम् : अथ ब्रह्मणे। अथोद्गात्रे। अथ होत्रे। - - -श.ब्रा. ४.३.४.२२

१५६अथ वासः। त्वचमेवैतेनात्मनस्त्रायते। त्वग्घि वासः। तद् बृहस्पतयऽउद्गायतेऽददात्। - श.ब्रा. ४.३.४.२६

१५७पात्नीवत ग्रहः : अथ सम्प्रेष्यति - - - - उद्गात्रा सङ्खयापय - - -- -श.ब्रा. ४.४.२.१७

१५८उदानयति नेष्टा पत्नीम्। तामुद्गात्रा सङ्खयापयति। प्रजापतिर्वृषासि रेतोधा रेतो मयि धेहि इति। प्रजापतिर्वाऽउद्गाता, योषा पत्नी। मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते। - श.ब्रा. ४.४.२.१८

१५९व्यूढद्वादशाहः : - - -व्यूहत उद्गाता च होता च छन्दांसि। - श.ब्रा. ४.५.९.१

१६०किं नु तत्राध्वर्योः - यदुद्गाता च होता च छन्दांसि व्यूहतः। - - - -श.ब्रा. ४.५.९.१३

१६१दशपेय सोमयाग दीक्षा। ऋत्विग्विशेष दक्षिणा : हिरण्मयी स्रजमुद्गात्रे। रुक्मं होत्रे। - - - - श.ब्रा. ५.४.५.२२

१६२तम् रसं अध्वर्युर्ग्रहेण गृह्णाति। यद्गृह्णाति - तस्माद्ग्रहः। तस्मिन्नुद्गाता महाव्रतेन रसं दधाति। सर्वाणि हैतानि सामानि यन्महाव्रतम्। - श.ब्रा. १०.१.१.५ , १०.४.१.१३

१६३वसंत आग्नीध्रः। - - -ग्रीष्मोऽध्वर्युः। - - -वर्षा उद्गाता। तस्माद्यदा बलवद्वर्षति। साम्न इवोपब्दिः क्रियते। शरद्ब|ह्मा। हेमन्तो होता। - श.ब्रा. ११.२.७.३२

१६४अथोद्गातारं दीक्षयति। पर्जन्यो वा उद्गाता। पर्जन्यादु वै वृष्टिर्जायते। - - - - - श.ब्रा. १२.१.१.३

१६५अथोद्गात्रे प्रस्तोतारं दीक्षयति। तं हि सोऽनु। - - - - श.ब्रा.१२.१.१.६

१६६अथोद्गात्रे सुब्रह्मण्यां दीक्षयति। तं हि सोऽनु। - - -श.ब्रा. १२.१.१.९

१६७अश्वमेधः : यदुद्गातोद्गायेत्। यथाऽक्षेत्रज्ञोऽन्येन पथा नयेत्। तादृक्तत्। अथ यदुद्गातारमपरुध्याश्वमुद्गीथाय वृणीते। यथा क्षेत्रज्ञोऽञ्जसा नयेत्। एवमेवैतत् यजमानमश्वः स्वर्गं लोकमञ्जसा नयति। - श.ब्रा. १३.२.३.२

१६८अश्वमेधस्य फलाधिकारिकालादिकम् : सा याऽसौ फाल्गुनी पौर्णमासी भवति। तस्यै पुरस्तात् षडहे वा सप्ताहे वा ऋत्विजः उपसमायंति। अध्वर्युश्च होता च ब्रह्मा चोद्गाता च। एतान्वा अन्वन्य ऋत्विजः। - श.ब्रा. १३.४.१.४

१६९पारिप्लवाख्यानब्राह्मणम् :प्रमुच्याश्वं दक्षिणेन वेदिं हिरण्मयं कशिपूपस्तृणाति। तस्मिन् होतोपविशति। - - - - -दक्षिणतो ब्रह्मा चोद्गाता च हिरण्मयोः कशिपुनोःपुरस्तात्। - श.ब्रा. १३.४.३.१

१७०अथोद्गाता वावातामभिमेथति। वावाते हयेहये। वावाते ! ऊर्ध्वामेनामुच्छ्रापय इति। तस्यै शतं राजन्या अनुचर्यो भवंति। ता उद्गातारं प्रत्यभिमेथंति। उद्गातर्हयेहय उद्गातः ! ऊर्ध्वमेनमुच्छ्रयतात् इति। - श.ब्रा.१३.५.२.६

१७१ब्रह्मोद्यम् : अथ ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति - पृच्छामि त्वा चितये देवसख इति। तं प्रत्याह अपि तेषु त्रिषु पदेष्वस्मि इति। अथोद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति - केष्वंतः पुरुष आविवेश इति। तं प्रत्याह पंचस्वंतः पुरुष आविवेश इति - - - -अथ ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति कत्यस्य विष्ठाः कत्यक्षराणि इति। तं प्रत्याह  षडस्य विष्ठाः शतमक्षराणि इति। अथोद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति - को अस्य वेद भुवनस्य नाभिम् इति। तं प्रत्याह वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिम् इति। - श.ब्रा. १३.५.२.१४

१७२अथातो दक्षिणानाम्। मध्यं प्रति राष्ट्रस्य। - - प्राची दिक् होतुः दक्षिणा ब्रह्मणः , प्रतीची अध्वर्योः उदीची उद्गातुः , तदेव। - श.ब्रा.  १३.५.४.२४, १३.६.२.१८ , १३.७.१.१३

१७३अथ यैषा पत्न्यै व्रतदुघा। तामुद्गातृभ्यो ददाति। पत्नीकर्मेव वा एतेऽत्र कुर्वंति - यदुद्गातारः। - श.ब्रा. १४.३.१.३५

१७४उद्गीथ ब्राह्मणम् : वाक् , प्राण,चक्षु, श्रोत्र ,मन द्वारा क्रमशः उद्गान करना , पाप्मा द्वारा विद्ध होना , अन्त में आसन्य प्राण द्वारा उद्गान करने पर पाप्मा का नष्ट होना। आसन्य प्राण का अयास्य आंगिरस नाम होना। - श.ब्रा. १४.४.१.१

१७५अथ यानीतराणि स्तोत्राणि। तेषु आत्मने अन्नाद्यमागायेत्। तस्मादु तेषु वरं वृणीत। यं कामं कामयेत। तं स एष एवंविदुद्गाता आत्मने वा यजमानाय वा कामं कामयते। तमागायति। - श.ब्रा. १४.४.१.३३

१७६अश्वल ब्राह्मणं : अथ केनाक्रमेण यजमानः स्वर्गं लोकमाक्रमते इति। उद्गात्रर्त्विजा वायुना प्राणेन। प्राणो वै यज्ञस्योद्गाता। तत् यः अयं प्राणः। स वायुः स उद्गाता सा मुक्तिः। - श.ब्रा. १४.६.१.८

१७७अश्वल ब्राह्मणम् :कत्ययमद्योद्गाताऽस्मिन् यज्ञे स्तोत्रियाः स्तोष्यतीति। तिस्र इति। कतमास्तास्तिस्र इति।पुरोऽनुवाक्या च , याज्या च , शस्यैव तृतीया। - - - -प्राणेव पुरोऽनुवाक्या। अपानो याज्या। व्यानः शस्या। - श.ब्रा. १४.६.१.१२

१७८यत् (होता) सर्पेदृचमेव तत्साय्यऽनुवर्त्मानं कुर्याद्य एनं तत्र ब्रूयादनुवर्त्मा न्वा अयं होता सामगस्याभूदुद्गातरि यशोऽधाद् च्योष्टाऽऽयतनाच्च्योष्यत आयतनादिति शश्वत्तथा स्यात्।- ऐ.ब्रा. २.२२

१७९आग्नीध्रीये होमादूर्ध्वं कर्तव्यानि :ते ततः सर्पन्ति - - -यथायथमन्य ऋत्विजो व्युत्सर्पन्ति संसर्पन्त्युद्गातारस्ते सर्पराज्ञ्या ऋक्षु स्तुवते। - - - - - -- -ऐ.ब्रा. ५.२३

१८०हनू सजिह्वे प्रस्तोतुः श्येनं वक्ष उद्गातुः कण्ठ काकुद्रः प्रतिहर्तुः - - -ऐ.ब्रा. ७.१

*हरिश्चन्द्रस्य राजसूयानुष्ठानं : तस्य ह विश्वामित्रो होताऽऽसीज्जमदग्निरध्वर्युर्वसिष्ठो ब्रह्माऽयास्य उद्गाता - - - -ऐ.ब्रा. ७.१६

१८१प्रेङ्खं होताधिरोहत्यौदुम्बरीमासन्दीमुद्गाता वृषा वै प्रेङ्खो योषासन्दी तन्मिथुनं मिथुनमेव तदुक्थमुखे करोति प्रजात्यै। - ऐतरेय आरण्यक १.२.४

१८२ज्योतिष्टोम - अग्निष्टोम : एकश्रुतिविधानान्मन्त्रान् कर्माणि चोद्गातैव कुर्यादनादेशे। यावद्यजुरनादिष्टान् तान् मन्त्रान्। - द्राह्यायण श्रौत सूत्र १.१.४

१८३युगपत्कर्मसु सर्वेषूद्गातुर्दक्षिणमनु बाहुं प्रस्तोता सव्यं प्रतिहर्ता। -द्रा.श्रौ.सू. ३.१.१

१८४प्रस्तोता प्रथमोऽतिसर्पेत्। तत उद्गाता तत प्रतिहर्ता। - द्रा.श्रौ.सू. ३.१.१२

१८५अभिषुते राजन्यृतपात्रमसीति द्रोणकलशमालभ्य वानस्पत्य इति प्रोहेयुः। दक्षिणे पाणावुद्गाता दशापवित्रं कुर्वीत। अक्षं चेदुपहन्युः पुनः प्रोहेयुः। -द्रा.श्रौ.सू. ३.१.१८

१८६संततायां धारायामुद्गाता जपेत् प्र शुक्रैत्विति। - द्रा.श्रौ.सू. ३.२.२९

१८७आग्रयणं गृह्णन्नध्वर्युर्हिं करोति तदा प्रवृणीरन्नग्निः प्रस्तोताहं मानुषो बृहस्पतिरुद्गाताहं मानुषो वायुः प्रतिहर्ताहं मानुषः इति यथालिङ्गम्। न प्रवृणीरन्निति धानंजय्यः। प्रवृणीरन्नेवेति शाण्डिल्यः। - द्रा.श्रौ.सू. ३.३.१

१८८स्तुते बहिष्पवमाने विसृजेरन्। उत्तराद्धविर्धानात् ध्रुवस्थालीं हरन्तः पश्चिमेनोद्गातॄन् हृत्वा तेनैव प्रतिहरेयुः। - द्रा.श्रौ.सू.३.३.७

१८९अभिपीड्य पवित्रमध्वर्युर्निःसर्पन्तं प्रस्तोता संतनुयात्। तमुद्गातोद्गातारं प्रतिहर्ता तं ब्रह्मा ब्रह्माणं यजमानः। - द्रा.श्रौ.सू. ३.३.१०

१९०संसुतसोमे त्वधिकामुद्गाता जुहुयात् संवेशायोपवेशायेति यथासवनं छन्दाँस्यादिशन्। - द्रा.श्रौ.सू. ३.३.१७

१९१चात्वालदेशं प्राप्याध्वर्यावुपविष्टे तस्मात्प्रत्यगुपविशेयुर्यो म आत्मेति। प्रत्यङ्ममुखः प्रस्तोतोदङ्मुख उद्गाता पश्चिमेनोद्गातारं गत्वा दक्षिण पूर्वमष्टमदेशमीक्षमाणः प्रतिहर्ता। - द्रा.श्रौ.सू. ३.३.२७

१९२याजमान ब्रह्मत्वे चेदुद्गाता कुर्यात्। - द्रा.श्रौ.सू. ४.४.१

१९३इडा भक्षणम् : मिथ उपहूयोद्गाता प्रथमः। - - - - - द्रा.श्रौ.सू. ५.१.४

१९४सौम्यमाहृतमुद्गातावेक्षेतायुर्मे प्राण इति। - - - - द्रा.श्रौ.सू. ६.२.६

१९५यज्ञायज्ञीयस्य हिंकारं प्रति पत्नीमुद्गातेक्षेत। - द्रा.श्रौ.सू. ६.२.१५

१९६अहिंकारेऽपि प्रतिहारवेलायां पत्नीमुद्गातावेक्षेत। - द्रा.श्रौ.सू. ६.३.२

१९७हारियोजन्यो नाम धाना द्रोणकलशे भवन्ति। तासामुद्गाता प्रथमं आददानः समुपहूता भक्षयिष्याम इति ब्रूयात्। - द्रा.श्रौ.सू. ६.३.१६

१९८षोडशि साम्ना स्तोष्यमाणो यथासनमुपविश्य हविर्धानं गत्वा षोडशिग्रहमवेक्षेतोद्गाता यस्मादन्य इति। - द्रा.श्रौ.सू. ७.१.१

१९९यो यः सामाङ्गं ब्रूयात्स हिरण्यं धारयेत्। उद्गाता निधनमुपयत्सु। सर्वे वाभिमृशेयुः। - द्रा.श्रौ.सू. ७.१.९

२००उद्गात्रे दद्यादश्वहिरण्ये दक्षिणावत्सु। - द्रा.श्रौ.सू. ७.१.१६

२०१एष वै यजमानस्य प्रजापतिर्यदुद्गातेति ह्याह। - द्रा.श्रौ.सू. ७.४.३

२०२- - - - - - पत्नीसंयाजेषु गार्हपत्य उद्गाता जुहुयादुपसृजन्धरुणं मात्रे मातरं धरुणो धयन् - - -  द्रा.श्रौ.सू. ९.३.२३

२०३आहवनीयं गत्वाऽयंसहोहा इति त्रिरुद्गाता गायेत्। निधनमितरावनूपेयाताम्। - द्रा.श्रौ.सू.९.४.१

२०४उत्तरत उद्गातौदुम्बरीं गृह्णीयात् पश्चात् प्रतिहर्ता दक्षिणतो ब्रह्मा पुरस्तादितरे सर्वे। - द्रा.श्रौ.सू.९.४.२१

२०५महाव्रतम् : सर्वाण्युद्गाता सकृत् सकृद्गायेन्निधनमितरावनूपेयाताम्। - द्रा.श्रौ.सू. १०.१.५

महाव्रतम् :पूर्वेण पत्नीशालामुद्गाता गत्वा दक्षिणे वेद्यन्ते प्राचो दर्भान् संस्तीर्य तेष्वेनं प्राङ्मुखमुपवेशयेत्। अथास्मै (राज्ञे) वर्माभिहरेत्। - द्रा.श्रौ.सू. १०.२.५

२०६तामुत्तरेणोद्गाता गत्वा पश्चादुपविश्य भूमिस्पृशोऽस्या पादान् कृत्वा कूर्चानधस्तादुपोह्याभिमृशेद् बृहद्रथन्तरे ते पूवौr पादौ श्यैतनौधसे अपरौ वैरूपवैराजे अनूची शाक्वर रैवते तिरश्ची इत्येतैः पृथगङ्गानि। - द्रा.श्रौ.सू. १०.४.७

२०७ब्रह्मत्वम् : निधीयमाने गवां व्रतं यदग्निमीडे इति। तान्युद्गातृकर्मैके। उद्गाता सामवेदेनेति श्रुतेः। - द्रा.श्रौ.सू. १२.२.५

२०८ब्रह्मौदनप्राशनम् : कर्मयोगाच्चोद्गातुश्चत्वारो महर्त्विजः प्राश्नन्तीति हि चातुष्प्राश्यप्राशनम्। अधिकारात्तु ब्रह्मणः। औद्गात्रे चाविधानात्। दृष्टं चानेन सामगानं ब्रह्मा रथचक्रेऽभिगायतीति। उद्गातेति यथाभूयसवाद। - द्रा.श्रौ.सू. १२.२.११

२०९ गायत्रे तु विकल्पः (निधनस्य) सर्वे वोद्गाता वा। - - - -हिंकारः प्रस्तावात् पूर्वः। उद्गीथादोंकारः। - द्रा.श्रौ.सू. १८.२.४

२१०सर्वेषाम् (साम्नाम्) ओंङ्कारेणोद्गीथादानम्। - द्रा.श्रौ.सू. १८.२.२५

२११प्रस्तुतं वै सामावसीदति तदुद्गातोङ्कारेणोत्तभ्नातीति ब्राह्मणम्। - द्रा.श्रौ.सू. १८.३.१

२१२सौमेधस्योर्णायवयोर्ऋषभस्य पावमनस्य निधनस्य मार्गीयवस्यैतेषामुपरिष्टात् प्रतिहारस्योद्गाता स्तोभं भजते। - द्रा.श्रौ.सू. १८.३.१५

२१३सदृशगीतिषु सर्वेषु पृथक्पृथक्पदानि विभजेरन्। प्रत्यन्तादनादेशे। शेषमुद्गाता तानि विभाग्यानि। - द्रा.श्रौ.सू. २०.१.३१

२१४प्रथमायैवानुगानाय प्रस्तोता प्रस्तुयादात्मने च। इतराण्यनुगानान्युद्गातैव सर्वाणि ब्रूयात्। तेषां निधनेष्वेनमनूपेयाताम्। - द्रा.श्रौ.सू. २०.२.१६

२१५भासनिधने दशमस्य पदस्योपायमुद्गातैव ब्रूयात्। - द्रा.श्रौ.सू. २०.२.२२

२१६- - - -इडेति धानंजय्यः। - - -प्रत्युद्गीतस्तु खल्वेषां तदोद्गाता भवति। - द्रा.श्रौ.सू. २०.३.४१

२१७महाव्रते दक्षिणा : पृष्ठेन च स्तुवानायोद्गात्रे। - द्रा.श्रौ.सू. २२.२.२३

२१८सोमप्रवाकाः :प्राञ्चं होतारं वहेयुरुदञ्चमुद्गातारं प्रत्यञ्चमध्वर्युं दक्षिणा ब्रह्माणम्। - द्रा.श्रौ.सू. २२.३.१६

२१९साद्यस्क्रीः : अश्वः श्वेत एतस्य दक्षिणा तमुद्गात्रे दद्यात्। किंचिच्चेतरेभ्यः। - द्रा.श्रौ.सू. २२.३.२५

२२०रुक्मो होतुरिति निष्कोनामालंकारस्तं दद्यात्। स्रगुद्गातुरिति हिरण्मयी स्यात्। - द्रा.श्रौ.सू. २४.२.३

२२१राजसूयः (दशपेयः) : तस्य ब्राह्मणं दश दश चमसमभियन्तीति ब्रह्मण्यचतुर्था उद्गातृचमसं भक्षयेयुः षट्सु चान्ये। - द्रा.श्रौ.सू. २५.२.२

२२२स्रगुद्गातुरिति स्रप्स्यतेऽस्मै बहिष्पवमानं हिरण्यस्रजं त्रिपुष्करां प्रतिमुञ्चेत्। - द्रा.श्रौ.सू. २५.२.८

२२३अश्वमेधः : हिरण्यकशिपुन्यासीनो ब्रह्मोद्गाता चोदङ्मुखौ। - द्रा.श्रौ.सू. २७.१.१६

२२४मध्यमेऽहन्यश्वस्य बालधिमालभ्य बहिष्पवमानं सर्पेयुः। सर्पत्सु यजमान उद्गातारं ब्रूयादुद्गातरुप त्वा वृणे शतेन निष्केण चाश्वो ममोद्गास्यतीति। - - - - -तां (वडवां) यदाभिक्रन्देदथ यजमान उद्गातारं ब्रूयादुद्गातरुप त्वा वृणे शतेन चैव निष्केण च त्वमेव ममोद्गास्यसीति। - द्रा.श्रौ.सू. २७.२.१

२२५उदञ्चमश्वमुत्क्रमय्यास्ताव उपविश्योद्गाताश्वव्रतेन स्तुयादभिवाजी विश्वरूप इति तृचेन - - - -द्रा.श्रौ.सू. २७.२.५

२२६उद्गाता परिवृक्तीमभिमेथेद्यदस्या अंशुभेद्याः कृधुस्थूलमुपातसन्मुषष्काविदस्या एजतो गोशफेशकुलाविवेति निर्दिशेत्। - द्रा.श्रौ.सू. २७.२.१२

२२७पतन्तकोऽश्वमेधः :होत्राध्वर्युणा चोक्ते ब्रह्मा पृच्छेदुद्गातारं पृच्छामि त्वा चितये देवसख यदि त्वमत्र मनसानुवेत्थ येषु विष्णुस्त्रिषु पदेष्वस्थात्तेषु विश्वं भुवनमाविवेशाऽऽइति। तं प्रति ब्रूयादपि तेषु त्रिषु पदेष्वस्मिन् येषु विश्वं भुवनमाविवेश - - - -द्रा.श्रौ.सू.२७.३.२

२२८उद्गाता पृच्छेद् ब्रह्माणं किंस्विदन्तः पुरुष आविवेश। कान्यन्तः पुरुषे अर्पितानि। - - - - -द्रा.श्रौ.सू. २७.३.४

२२९प्राचीं होत्रे दिशं दद्याद् - दक्षिणां ब्रह्मणेऽध्वर्यवे प्रतीचीमुदीचीमुद्गात्रे। - द्रा.श्रौ.सू. २७.३.११

२३०गवामयनम् : सर्वे सहर्त्विजो महाव्रतेन स्तुवीरन्नित्युद्गातृविकार एव स्यात्। - द्रा.श्रौ.सू. २८.४.१

२३१गवामयनम् : तिसृभिरुद्गातात्मन उद्गीयेति चात्मना जघन्यस्तवनं दर्शयति। - द्रा.श्रौ.सू. २८.४.६

२३२ ननादेशस्तवनं छन्दोगानामेव स्यात्। उद्गातैव सर्वेणोद्गायेदिति ह्युक्त्वा तस्य देशान् विदधाति। हविर्धाने शिरसा स्तुत्वा- - - - - - द्रा.श्रौ.सू. २९.४.८

२३३अग्निहोत्र दशहोता : स्वादासनादुपसंचारं ब्रह्मेतरे होत्रे कुर्यात्। तथोद्गातृप्रस्तोतारावाग्नीध्रश्च। - द्रा.श्रौ.सू. ३०.३.८

२३४यो नेष्टा स उद्गातेत्यभविष्यत्। -द्रा.श्रौ.सू. ३०.३.१०

२३५- - - - - -आग्नीध्रः पोतोद्गाता प्रस्तोता प्रतिहर्ता सुब्रह्मण्य इति। एतेऽहीनैकाहैर्याजयन्ति। - आश्वलायन श्रौत सूत्र ४.१.६

२३६बहिष्पवमानः : तत्स्तोत्रायोपविशन्त्युद्गातारमभिमुखाः। - आ.श्रौ.सू. ५.२.७

*(सोम भक्षणे) होतुर्वषट्कारे चमसा हूयन्त उद्गातुर्ब्रह्मणो यजमानस्य। तेषां होताऽग्रे भक्षयेदिति गौतमः। - आ.श्रौ.सू. ५.६.२३

२३७आहृतं सौम्यं (चरुं) पूर्वमुद्गातृभ्यो गृहीत्वाऽवेक्षेत यत्ते चक्षुर्दिवि यत्सुपर्णे येनैकराज्यमजयो हि ना। दीर्घं यच्चक्षुरदितेरनन्तं सोमो नृचक्षा मयि तद्दधात्विति। - आ.श्रौ.सू. ५.१९.४

२३८ब्रह्मोद्यं वदन्ति - - - -केषु विष्णुस्त्रिषु पदेष्वस्थ केषु विश्वं भुवनमाविवेशेति ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति। - - - - - - - - - - -आ.श्रौ.सू. १०.९.२

२३९दर्शपूर्ण मासः : उपाकृत (स्तोत्रे) ऽउद्गातार ऽआहोतृप्रैषात् (नापव्याहरेयुः)। - कात्यायन श्रौत सूत्र २.३.१८

२४०सोमयागः : प्रोह्य द्रोणकलशमृजीषमुखेष्वद्रिषु निदधत्युद्गातारः। पवित्रं च वितन्वन्त्युदक्। -काठ.श्रौ.सू. ९.५.१३

२४१सोमयागः :अध्वर्युप्रतिप्रस्थातृप्रस्तोत्रुद्गातृप्रतिहर्तृसुन्वन्तः समन्वारब्धा निष्क्रामन्ति। -काठ.श्रौ.सू. ९.६.२६

२४२प्रैतुहोतुश्चमसः प्रब्रह्मणः प्रोद्गातृणां प्रयजमानस्य प्रयन्तु सदस्यानां - - - - -का.श्रौ.सू. ९.११.५

२४३आज्यमासिच्योद्गात्रे सौम्यं (चरुं) प्रयच्छति चतुर्गृहीतं प्रचरण्या धिष्ण्येषु जुहोति - - - -का.श्रौ.सू. १०.६.१३

२४४सोमयागः - - -नेष्टः पत्नीमुदानयोद्गात्रा सङ्ख्यापय - - - - - - - -काठ.श्रौ.सू.१०.६.१९

२४५यज्ञायज्ञीयं स्तोत्रमुपाकरोति होतृचमसमुपस्पृश्य। प्रोर्णुते चेच्छन्नुद्गातृवत्। पत्नींसदः प्रवेश्यापरेणोत्तरत उपविष्टामुद्गात्रा समीक्षयति प्रजापतिर्वृषासीति। पान्नेजनीभिरभिषिञ्चति विवृत्य दक्षिणोरुम्। उद्गात्रा अनुज्ञाता गच्छति , ईक्षिता वा त्रिः। - का.श्रौ.सू. १०.७.१

२४६चयनम् :आहवनीयस्य पुरस्तादुद्गात्रासन्दीवदासन्द्यां चतुरश्राङ्ग्यां शिक्यवत्यां निदधाति देवाअग्निमिति। - का.श्रौ.सू. १६.५.५

२४७एकाहे दक्षिणा : शताश्वरथमध्वर्यवे ददात्यग्नौ चीयमाने। उद्गात्रे व्रतकाले। - का.श्रौ.सू. २२.२.२

२४८रुक्मललाटोऽश्वः श्वेतो दक्षिणा। अश्वाभावे गौः। तमुद्गात्रे ददाति। प्राकृतस्यानिवृत्तिरुद्गातृयोगात्। निवृत्तिः क्रतुयोगात्। - का.श्रौ.सू.२२.२.११

२४९प्रायश्चित्तानि : - - - - - -आग्नीध्रीये सोमे (वर्तमाने)। स्वरित्यौद्गात्र (विहिते भ्रेषे) आहवनीये (जुहोति)। - का.श्रौ.सू. २५.१.८

२५०सत्रे प्रायश्चित्तानि : आपवस्व हिरण्यवदित्युद्गातृहोमो ध्वाङ्क्षारोहणे यूपस्य। -का.श्रौ.सू.२५.६.९

२५१प्रायश्चित्तानि : अनीतासु चेद्दक्षिणासूद्गात्रपच्छेदोऽदक्षिणं संस्थाप्य पुनराहारः। - का.श्रौ.सू.२५.११.७

२५२यस्मिन्नहन्युद्गात्रपच्छेदोऽहर्गणे तस्यावृत्तिः। का.श्रौ.सू. २५.११.१२

२५३- - - - -चन्द्रमा मे ब्रह्मा पर्जन्यो म उद्गाताकाशो मे सदस्य - - - - इत्युपांशु देवतादेशनम्। असौ मानुष इत्युच्चैः। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र१०.१.१४

२५४अग्निष्टोम प्रातसवनम् : - - - - -चक्षुरुपावधीश्चक्षुस्त्वा हास्यतीत्युद्गाता। - - -आप.श्रौ.सू.

१०.२.११

२५५पर्जन्य उद्गाता स म उद्गातोद्गातर्देवयजनं मे देहीत्युद्गातारम्। -आप.श्रौ.सू.१०.३.१

*उद्दिवं स्तभानान्तरिक्षं पृणेति प्राचीनकर्णां सहोद्गात्रोच्छ्रयति। उच्छ्रयस्व वनस्पते सजूर्देवेन बर्हिषेति वा। द्युतानस्त्वा मारुतो मिनोत्विति प्राचीनकर्णां सहोद्गात्रा मिनोति। - आप.श्रौ.सू. ११.९.१३

२५६बहिष्पवमानः : अध्वर्युं प्रस्तोतान्वारभते प्रस्तोतारं प्रतिहर्ता प्रतिहर्तारमुद्गातोद्गातारं ब्रह्मा ब्रह्माणं यजमानः।-   आप.श्रौ.सू.१२.१७.१

२५७वायुर्हिङ्कर्तेति प्रस्तोत्रे बर्हिर्मुष्टिं प्रयच्छति। - आप.श्रौ.सू.१२.१७.७

२५८ततः संप्रेष्यति प्रैतु होतुश्चमसः प्र ब्रह्मणः प्रोद्गातुः प्र यजमानस्य। प्रोद्गातॄणामित्येके समामनन्ति। - आप.श्रौ.सू. १२.२३.१३

२५९दक्षिणेनोत्तरेण वा प्रशास्तुर्धिष्णियं परीत्योद्गातारो माध्यंदिनेन पवमानेन स्तुवते। - आप.श्रौ.सू. १३.२.९

२६०अग्निष्टोम माध्यन्दिन सवनम् : एवं ब्रह्मणे मनः। अध्वर्यवे प्राणम्। उद्गात्रे चक्षुः। होत्रकेभ्यः श्रोत्रम् । - - -आप.श्रौ.सू. १३.६.६

२६१अग्निष्टोम माध्यन्दिन सवनम् : उद्गातृभ्यो (आज्यं) हरन्ति। तमुद्गातारो ऽवेक्षन्ते सत्रो त एतद्यदु त इहेति। - आप.श्रौ.सू. १३.१४.१

२६२होतृचमसे ध्रुवायावकाशं कुरूद्गात्रा पत्नीं संख्यापयाप उपप्रवर्तयेति। - आप.श्रौ.सू.१३.१४.११

२६३विश्वस्य ते विश्वावत इति हिङ्कारमनूद्गात्रा पत्नीं संख्यापयति। - - --आप.श्रौ.सू. १३.१५.८ , १४.१.७

२६४यज्ञे मृतस्य प्रायश्चित्तम् : उद्गातारस्तिसृभिः सर्पराज्ञीभिरप्रतिहृताभिः स्तुवीरन्। - आप.श्रौ.सू. १४.२१.१३

२६५यदि सदोहविर्धानान्यभिदह्येरन्ग्रहानध्वर्युः स्पाशयेत्। स्तोत्राण्युद्गाता। शस्त्राणि होता।- आप.श्रौ.सू. १४.२५.१

२६६यद्यौदुम्बरी नश्येदन्या प्रच्छिद्योर्गस्यूर्जं मयि धेहि - - - -। धर्त्रि धरित्रि जनित्रि यमित्रीत्यध्वर्युरुद्गाता यजमानश्चोच्छ्रयन्ति। - आप.श्रौ.सू. १४.३३.२

२६७अश्वमेधः : उद्गातारमपरुध्याश्वमुद्गीथाय वृणीते। तस्मै वडवा उपरुन्धन्ति। ता यदभिहिङ्करोति स उद्गीथः। उदगासीदश्वो मेध्यो यज्ञिय इति शतेन शतपलेन च निष्केणोद्गातारमुपशिक्ष्येमां देवतामुद्गायन्तीमनूद्गायेति संप्रेष्यति। तेन हिरण्येन स्तोत्रमुपाकरोति। - आप.श्रौ.सू. २०.१३.११

२६८अग्न्याधेयम् (देवयजनयाजनम्) :- - - -उद्गातर्देवयजनं मे देहीत्युद्गातारं पर्जन्यो देवो दैव उद्गाता स ते देवयजनं ददात्वित्यों तथेति प्रतिवचनं - - -बौ.श्रौ.सू.२.२ ,२.४

२६९आङ्गिरसो ऽध्वर्युर्वासिष्ठो ब्रह्मा वैश्वामित्रो होतायास्य उद्गाता - - - -बौधायन श्रौत सूत्रम् २.३

२७०अकुनखिनमध्वर्युमकिलासिनं ब्रह्माणमखण्ड होतारमकरालमुद्गातारमशिपिविष्टँ सदस्यम् - बौ.श्रौ.सू. २.३

२७१अथोद्गातारमाहोद्गातरेहीममौदुम्बर्या अवटं खन प्राक् पुरीषमुद्वपतादिति तँ स खनति वा खानयति वा सो ऽत एव सदो विमिमीते - - - -बौ.श्रौ.सू. ६.२६

२७२अग्निष्टोम प्रातः सवनम्।औदुम्बरी : अथैनामुद्गातृभ्यः प्राहुस्तस्यां तच्चेष्टन्ति यत्ते विदुरेतस्या उच्छ्रयणमनु प्राचीनकर्णा स्थूणा उच्छ्रयन्ति - - - -बौ.श्रौ.सू. ६.२७

२७३सोम राजन्नेह्यवरोहेति द्वाभ्यामथैनमुद्गातृभ्यः प्राहुस्तस्मिँस्तच्चेष्टन्ति यत्ते विदुरथाप उपस्पृश्याहैहि यजमान इति - - - - - - - -बौ.श्रौ.सू. ७.१ , ७.२० , ८.१४

२७४अग्निष्टोम तृतीय सवनम् : नेष्टः पत्नीमुदानयोद्गात्रा संख्यापयाप उपप्रवर्तयतादूरुणोपप्रवर्तयान्नग्नं कृत्वोरुमुपप्रवर्तयत - बौ.श्रौ.सू. ८.१४

२७५द्वादशाह मीमाँसा : चात्वाले ऽवनयेदास्तावे निनयेत्प्रोक्षणी कुर्वीत पुरोडाशीयानि पिष्टानि संयौयादित्यनादृत्य तदुद्गातृष्वधीना एवैना कुर्यादुद्गातारो हैताभिररण्येगेयानाँ साम्नाँ शुचँ शमयन्तो मन्यन्ते - बौ.श्रौ.सू. १६.४

२७६अच्छावाकचमसे ग्रावस्तुदुद्गातृचमसे सुब्रह्मण्यो ऽपि वा सर्व एवाग्नीध्रचमसे भक्षयेयुः - बौ.श्रौ.सू. २५.१९

२७७होतृचमसे चोद्गातृचमसे च सप्तसप्ताथेतरेषु नवनव - बौ.श्रौ.सू. २६.२