PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel U to Uu)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Udaana - Udgeetha  (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.)

Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. )

Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.)

Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. )

Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.)

Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.)

Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.)

Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) 

Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)

 

 

 

उद्धव

टिप्पणी : वाराह श्रौत सूत्र १.७.४.२१ में प्रस्तर उद्धव का उल्लेख आया है जिसे तूष्णीं ग्रहण किया जाता है । इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि प्रस्तर और उद्धव एक ही हैं । किन्तु आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ८.१४.६ २२.४.२० तथा मानव श्रौत सूत्र १.७.६.१९ के अनुसार यज्ञ कार्य हेतु अरण्य से जिस बर्हि नामक तृण को बांधकर लाया जाता है , उसे वेदी पर फैलाते समय उसका उद्धून्वन / कम्पन किया जाता है और तब उसे फैलाया जाता है । इस उद्धूत बर्हि से प्रस्तर का ग्रहण किया जाता है । बर्हि और प्रस्तर में अन्तर यह है कि बर्हि का आस्तरण गार्हपत्य वेदी के निकट किया जाता है जबकि प्रस्तर का आहवनीय वेदी के निकट । शतपथ ब्राह्मण २.५.१.१८ के अनुसार बर्हि के साथ जो अंकुरित बर्हि / प्रस्व होती हैं , उनका प्रस्तर हेतु ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि उद्धव का सम्बन्ध यज्ञ कार्य में प्रयुक्त प्रस्तर और बर्हि से है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक उल्लेख आता है कि यजमान प्रस्तर है ( तैत्तिरीय संहिता १.७.४.४, २.६.५.३ , शतपथ ब्राह्म १.८.३.११ , १.८.३.१६ , तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.६.७, ३.३.९.२ आदि ) । इस यजमान रूपी प्रस्तर की आहवनीय अग्नि में आहुति दी जाती है , इसे आहुति देने योग्य हवि बनाया जाता है ( तैत्तिरीय संहिता २.६.५.५ , काठक संहिता २५.५ , ३२.३, ताण्ड्य ब्राह्मण ६.७.१८ आदि ; तुलनीय : पुराणों में उद्धव के देवभाग का पुत्र होने का उल्लेख ) । कहा गया है कि आहवनीय अग्नि  रोहित अश्व बन कर प्रस्तर रूपी यजमान को स्वर्ग ले जाता है । अथवा इन्द्र के  हरि इसे इन्द्र देवता तक ले जाते हैं । अन्यत्र सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है  कि प्रस्तर आश्ववाल ( आश्ववाल नामक ओषधि , अथवा अश्व के बाल हैं ( तैत्तिरीय संहिता ६.२.१.५ , शतपथ ब्राह्मण ३.४.१.१७ , ३.६.३.१० , ३.६.३.१४ आदि ) । ताण्ड्य ब्राह्मण ६.७.१८ के अनुसार यज्ञ अश्व होकर देवों से दूर भाग गया । तब उसे प्रस्तर नामक तृण दिखाकर पास लाए , अथवा उसे प्रस्तर नामक तृण खाने को दिया , तब वह देवों के निकट आया । शतपथ ब्राह्मण १.३.३.५, , १२ में प्रस्तर को विष्णु का स्तुप / शिखा कहा गया है । पुराणों में शिव की जटाओं में गंगा का वास प्रसिद्ध ही है । वैदिक साहित्य में अश्व को ब्रह्माण्ड में व्याप्त चेतना का प्रतीक माना जाता है । यह विचारणीय है कि ऐसे यज्ञीय अश्व के भोजन के लिए किस प्रकार के तृण की आवश्यकता पडेगी । ऋग्वेद १०.१४.४ तथा अथर्ववेद १८.१.५९ का कथन है कि यम तो प्रस्तर पर आकर विराजमान हो और यम - पिता विवस्वान /आदित्य बर्हि पर आकर विराजमान हो । पुराणों में उद्धव के पूर्वजन्म में वसु होने का उल्लेख आता है । डा. फतहसिंह के अनुसार वसु वासनाओं के परिष्कृत रूप का , विवस्वान का प्रतीक है । वसु बनने के पश्चात् उसमें यम, नियम , आसन , प्राणायाम आदि ८ यमों का समावेश करना है जिसका वर्णन उद्धव के संदर्भ में भागवत पुराण में किया गया है । यह विचारणीय है कि ऋग्वेद १०.२० से आरंभ होने वाले सूक्तों के ऋषि के रूप में जिस वसुक्र अथवा वसुकृत् ऋषि का उल्लेख आता है , उन सूक्तों को समझने में पुराणों में वर्णित उद्धव के चरित्र से कितनी सहायता मिल सकती है ।

          वैदिक साहित्य में बर्हि का उद्धून्वन करने के पश्चात प्रस्तर ग्रहण करने का निर्देश है । प्रश्न यह है कि उद्धून्वन कैसे हो ? ऋग्वेद १०.२३.४ के वसुक्र ऋषि वाले सूक्त में उल्लेख आता है कि मधु का शोधन / सोतन होने के पश्चात इन्द्र अपने गृह में प्रवेश कर जाता है और उसके पश्चात ऐसे उद्धून्वन / कम्पन करता है जैसे वात वन का । हठयोग में प्राणायाम की एक स्थिति में कम्पन होने का उल्लेख आता है । ऐसा भी हो सकता है कि ओंकार की कलाओं में नाद की अवस्था में कम्पन अथवा उद्धून्वन होता हो । लेकिन तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.८.८ तथा आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ८.१४.७ में तूष्णीं रहकर बर्हि से प्रस्तर ग्रहण करने का उल्लेख आता है । अतः सारे व्यक्तित्व का उद्धून्वन करने वाली अवस्था भक्ति मार्ग में कोई आनन्द की अवस्था हो सकती है । भागवत पुराण के भ्रमर गीत में उद्धव को ६ पदों वाला भ्रमर कहा गया है जिसका कार्य पुष्पों से मधु का पान करना होता है । ऐसा हो सकता है कि उद्धव के यह ६ पद आनन्दमय कोश / हिरण्यय कोश से नीचे की छह अवस्थाएं हों जिनमें रहकर वह आनन्दमय कोश से क्षरित होने वाले मधु का पान करता रहता हो । सारे व्यक्तित्व का उद्धून्वन करने के लिए क्या - क्या आवश्यक है , इसका वर्णन भागवत के ११ वें स्कन्ध में उद्धव और कृष्ण के प्रश्नोत्तरों के रूप में किया गया है ।

           वैदिक साहित्य में मधु पान का तात्पर्य कण - कण में भगवान के रूप के दर्शन से लिया जाता है तथा मधु विद्या का उपदेश अश्वमुख से किया जाता है । भागवत के ११ वें स्कन्ध में जब कृष्ण विश्व में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हैं तो उसका उद्देश्य यही है कि कहां - कहां किस - किस प्रकार से भगवद् - दर्शन हो सकता है , मधु की प्राप्ति हो सकती है । उद्धव के मथुरा से गोकुल में जाने के तथ्य को अश्व अवस्था से गौ / गोकुल अवस्था में संक्रमण के माध्यम से समझने का प्रयत्न किया जा सकता है ( छान्दोग्य आदि उपनिषदों में भक्ति की अज , अवि , गौ , अश्व व पुरुष अवस्थाओं का वर्णन आता है ) । पुराणों में मथुरा को हृदय प्रदेश में स्थित अधोमुखी कमल का प्रतीक तथा वृन्दावन को इस कमल से विकसित ऊर्ध्वमुखी कमल का प्रतीक कहा गया है । डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार इसे समनी और उन्मनी , अर्थात् ऊपर से मन की ओर आने वाली शक्ति और मन से ऊपर की ओर जाने वाली शक्ति का प्रतीक कह सकते हैं ।

          पुराणों में उद्धव के निवास के दो स्थानों - यमुना के निकट मथुरा - वृन्दावन तथा गंगा के निकट बदरीवन में से यमुना के निकट वास की व्याख्या तो ऋग्वेद १०.१४.४ के आधार पर की जा सकती है जहां यम से प्रस्तर पर आकर विराजमान होने की प्रार्थना की गई है । डा. फतहसिंह के अनुसार यमुना नदी यम - नियम - संयम का प्रतीक है । लेकिन प्रस्तर की दूसरी अवस्था जो गंगा के निकट है , जिसमें शिव की जटाओं में गंगा का वास है , की व्याख्या का प्रयत्न भागवत के तीसरे स्कन्ध में उद्धव द्वारा विदुर को स्वयं उपदेश न देकर बदरीवन में मैत्रेय ऋषि के पास भेजने के आधार पर किया जा सकता है । वैदिक साहित्य में प्राणोदानौ या प्राणापानौ को मित्रावरुण का रूप कहा गया है । वरुण की स्थिति में अपने पापों का प्रक्षालन स्वयं करना होता है , जबकि मित्र की स्थिति मात्र करुणा की होती है , माता की करुणा जहां भले - बुरे का कोई भेदभाव नहीं है । शतपथ ब्राह्मण १.८.१.४४ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.६.७ में प्रस्तर पर पवित्र ( पवन अथवा शुद्ध करने वाला ) पात्र रखने का उल्लेख है । पवित्र को प्राणोदानौ या प्राणापानौ का प्रतीक कहा गया है । अतः प्रस्तर को और उसके प्रतीक के रूप में उद्धव को पवित्र करने के लिए प्राण और उदान या प्राण और अपान रूपी अर्वाक् - पराक् गतियों का आश्रय लेना होता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.६.८ में प्रस्तर में प्रयाजों और अनुयाजों की स्थिति का उल्लेख है । प्रयाज को प्रयाग का , एकान्तिक साधना का तथा अनुयाज को सार्वत्रिक साधना का प्रतीक कहा जा सकता है ( ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार छन्द ही अनुयाज हैं ) । शतपथ ब्राह्मण १.३.३.५ ,७ व १२ में प्रस्तर को विष्णु का स्तुप / शिखा कहा गया है । यह प्रस्तर की मित्र स्थिति का प्रतीक हो सकता है । मित्र स्थिति में किसी यम - नियम की आवश्यकता नहीं है । यह गौ की स्थिति हो सकती है । दूसरी ओर अश्व स्थिति में अशान्त अश्व को शान्त करने के लिए यम- नियम की आवश्यकता हो सकती है । वैदिक साहित्य में जहां प्रस्तर के साथ अश्व का उल्लेख आया है , वहां अश्व के अशान्त होने का भी उल्लेख आया है जो उपरोक्त धारणा की पुष्टि करता है ।

उद्धव

१इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाऽङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः। - ऋ.१०.१४.४

२अव वेति सुक्षयं सुते मधूदिद्धूनोति वातो यथा वनम्। (इन्द्रः) - ऋ.१०.२३.४

३ततस्त्वा ब्रह्मोदह्वयत् स हि नेत्रमवेत् तव (वशा गौ) - अथर्ववेद १०.१०.२२

४ऋषीणां प्रस्तरोऽसि नमोऽस्तु दैवाय प्रस्तराय। - अ.१६.२.६

५इमं यम प्रस्तरमा हि रोहाङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः। - अ.१८.१.६०

६उदह्वमायुरायुषे क्रत्वे दक्षाय जीवसे। - अ.१८.२.२३

७रोहितेन त्वाऽग्निर्देवतां गमयतु इत्याह एते वै देवाश्वाः यजमानः प्रस्तरो यदेतैः प्रस्तरं प्रहरति देवाश्वैरेव यजमानं सुवर्गं लोकं गमयति।- तैत्तिरीय संहिता १.७.४.४

८बर्हिविषयक प्रयोगः : पुरस्तात्प्रस्तरं गृह्णाति मुख्यमेवैनं करोतीयन्तं गृह्णाति - - - -। उत्तरं बर्हिषः प्रस्तरं सादयति प्रजा वै बर्हिर्यजमानः प्रस्तरो यजमानमेवायजमानादुत्तरं करोति। - तै.सं.२.६.५.२

९किं यज्ञस्य यजमान इति प्रस्तर इति तस्य क्व सुवर्गो लोक इत्याहवनीय इति ब्रूयाद्यत्प्रस्तरमाहवनीये प्रहरति यजमानमेव सुवर्गं लोकं गमयति वि वा एतद्यजमानो लिशते यत्प्रस्तरं योयुप्यन्ते। - तै.सं.२.६.५.५

१०आतिथ्येष्टिः : प्रजापतेर्वा एतानि पक्ष्माणि यदश्ववाला ऐक्षवी तिरश्ची, यदाश्ववालः प्रस्तरो भवत्यैक्षवी तिरश्ची, प्रजापतेरेव तच्चक्षुः संभरति। - तै.सं.६.२.१.५

११यूपस्थापनम् : ते (देवाः) प्रस्तरं स्रुचां निष्क्रयणमपश्यन्त्स्वरुं यूपस्य, संस्थिते सोमे प्र प्रस्तरं हरति, जुहोति स्वरुमयज्ञवेशसाय। - तै.सं.६.३.४.९

१२अनग्नंभावुकोऽध्वर्युर्बर्हिषि प्रस्तरं सादयति यजमानो वै प्रस्तरः प्रजा बर्हि यजमानमेव प्रजास्वधि सादयति - - काठ. सं.२५.५

१३प्रस्तरं धारयन् परिधीन् परिदधाति यजमानो वै प्रस्तरस्वयमेतद्यजमान आत्मानं परिदधाति रक्षसामपहत्यै। - काठ. संहिता ३१.१०

१४मरुतां पृषती वशा पृश्निर्भूत्वा दिवं गच्छेति यजमानो वै प्रस्तरो हविर्भूतमेवैनं स्वर्गं लोकं गमयति ततो नो वृष्टिमेरयेति - - - -काठ. सं. ३१.११

१५रोहितेन त्वाग्निर्देवतां गमयतु हरिभ्यां त्वेन्द्रो देवतां गमयत्विति यजमानो वै प्रस्तरो हविर्भूतमेवैनं स्वर्गं लोकं गमयति - - - -काठ. सं.३२.३

१६प्रस्तरेण परिधिना स्रुचा वेद्या च बर्हिषा। ऋचेमं यज्ञं नो वह स्वर्देवेषु गन्तवे। - काठ. सं. ४०.१३

१७अध्वर्युः प्रस्तरं हरन् सर्पति। तम् अनुमन्त्रयते एतद् अहं दैव्यं वाजिनं संमाज्मि इति। संसृष्टम् एवैनं शान्तम् आरोहति नार्तिम आर्छति। - जै.ब्रा.१.८४

१८ब्रह्मा षष्ठस् सर्पति। षड् वै छन्दांसि - - - -प्रस्तरं हरन्तस् सर्पन्ति। यजमानो वै प्रस्तरो बर्हिः प्रजाः। यद् उपर्युपरि बर्हिः प्रस्तरं हरन्ति यजमानम् एव तत् प्रजास्व~ अध्यूहन्ति। - - - जै.ब्रा.१.८६

१९औद्धवान्धारयमाणस्त्रिरस्तृणन्प्रतिपर्येति। औद्धवः प्रस्तरः। प्रस्तरस्य ग्रहणसादने तूष्णींम्। - आप.श्रौ.सू. ८.१४.६

२०शरमयं बर्हिः। औद्धवः प्रस्तरः। - - - आप.श्रौ.सू. २२.४.२०

२१प्रसव्यमुद्धावं त्रिः परिस्तीर्य कर्ष्वामुद्धवानास्तृणाति। - मानव श्रौ.सू.१.१.२.१०

२२दर्व्योद्धृत्योद्धवेषु पिण्डान्निदधाति। - मानव श्रौ.सू.१.१.२.१९

२३उद्धवाननुप्रहृत्य वीरं नो दत्त पितर इत्युदङ्कीमवजिघ्रेत्। - मानव श्रौ.सू.१.१.२.३३

२४श्वोभूते पश्चाद्गार्हपत्यस्योदच उद्धूय संस्तृणाति। - मानव श्रौ.सू.१.२.१.१

२५उद्धूय बर्हिः स्तृणाति। प्रसव्यमुद्धावं त्रिः परिस्तीर्योद्धवात्प्रस्तरं तूष्णीं गृह्णाति - मानव श्रौ.सू. १.७.६.१८

२६तूष्णीं प्रस्तरमुद्धवमादत्ते। समन्तं बर्हिस्त्रिः स्तृणन्पर्येत्या विष्ठेति। - वाराह श्रौ.सू.१.७.४.२२

२७यद्युद्धून्वन्निव वातो वायात्तमनुमंत्रयते भूर्भुवः सुवो भूर्भुवः सुवो भूर्भुवः सुवो भुवो ऽधायि भुवो ऽधायि भुवो ऽधायि - - - बौधा.श्रौ.सू.९.१८

२८इध्माबर्हिषोः प्रोक्षणस्तरणपूर्वकं परिधिपरिधानम् :अथ विस्रंस्य ग्रन्थिं पुरस्तात् प्रस्तरं गृह्णाति - विष्णोस्तुपोऽसि इति। यज्ञो वै विष्णुः, तस्येयमेव शिखा स्तुपः। - शतपथ ब्रा.१.३.३.५

२९अथ बर्हिस्तृणाति। अयं वै स्तुपः प्रस्तरः। अथ यान्यवाञ्चि लोमानि, तान्येवास्यः यदितरं बर्हिः, तान्येवास्मिन्नेतद्दधाति। - मा.श.१.३.३.७

३०शिरो वै यज्ञस्याहवनीयः। उपर्युपरि प्रस्तरं धारयन् कल्पयति। अयं वै स्तुपः प्रस्तरः। एतमेवास्मिन्ननेतत् प्रति दधाति। - मा.श.१.३.३.१२

३१स द्वे तृणे आदाय तिरश्ची निदधाति - सवितुर्बाहू स्थः। अयं वै स्तुपः प्रस्तरः। अथास्यैते भ्रुवावेव तिरश्ची निदधाति। - - - क्षत्रं वै प्रस्तरः, विश इतरं बर्हिः। - मा.श.१.३.४.१०

३२अथ ते पवित्रे प्रस्तरेऽपिसृजति। यजमानो वै प्रस्तरः, प्राणोदानौ पवित्रे ; यजमाने तत् प्राणोदानौ दधाति। - मा.श.१.८.१.४४

३३अथ प्रस्तरमादत्ते। यजमानो वै प्रस्तरः। यत्रास्य यज्ञोऽगन्, तदेवैतद् यजमानं स्वगाकरोति। - - - मा.श.१.८.३.११

३४सो ऽनक्ति - व्यन्तु वयोऽक्तं रिहाणाः (सादन्तु इमं प्रस्तरं देवाः येभ्यो होष्यते) - मा.श.१.८.३.१४

३५अथैकं तृणं अपगृह्णाति। यजमानो वै प्रस्तरः। स यत्कृत्स्नं प्रस्तरम् अनुप्रहरेत् क्षिप्रे ह यजमानो ऽमुं लोकमियात् - - - - मा.श.१.८.३.१६

३६तं (प्रस्तरं) प्राञ्चमनुसमस्यति - प्राची हि देवानां दिक्। अथो उदञ्चम्। उदीची हि मनुष्याणां दिक्। तमङ्गुलिभिरेव योयुप्येरन्, न काष्ठैः। - मा.श.१.८.३.१८

३७स सम्प्रगृह्णाति। संस्रवभागा स्थेषा बृहन्तः। संस्रवो ह्येव खलु परिशिष्टो भवति। प्रस्तरेष्ठा परिधेयाश्च देवाः इति। प्रस्तरश्च हि परिधयश्चानुप्रहृता भवन्ति। - मा.श.१.८.३.२५

३८पत्नीसंयाजः : तदिडान्तं भवति। नह्यत्र परिधयो भवन्ति, न प्रस्तरः। यत्र वा अदः प्रस्तरेण यजमानं स्वगा करोति, पतिं वा अनुजाया - तदेवास्यापि पत्नी स्वगाकृता भवति। - मा.श.१.९.२.१४

३९त्रेधा बर्हिः सन्नद्धं भवति। तत्पुनरेकधा। एतद्धि प्रजननस्य रूपम्। प्रजननमु हीदम् - पिता, माता, यज्जायते तत्तृतीयम्। तस्मात्त्रेधा सन्पुनरेकधा। प्रस्व उपसन्नद्धा भवन्ति। तं प्रस्तरं गृह्णाति। प्रजननमु हीदम् प्रजननमु हि प्रस्वः। तस्मात् प्रसूः प्रस्तरं गृह्णाति। - मा.श.२.५.१.१८

४०सूक्तवाकं होता प्रतिपद्यते। अथैता उभावेव प्रस्तरौ समुल्लुम्पतः, उभावनुप्रहरतः, उभौ तृणे अपगृह्योपासाते - यदा होता सूक्तवाकमाह। - मा.श.२.५.२.४२

४१न प्रस्तरं गृह्णाति। सकृदु ह्येव पराञ्चः पितरः। तस्मान्न प्रस्तरं गृह्णाति। - मा.श.२.६.१.१४

४२अथ सन्नहनमनुविस्रंस्य, अपसलवि त्रिः परिस्तृणन् पर्येति। सो ऽपसलवि त्रिः परिस्तीर्य यावत् प्रस्तरभाजनं तावत्परिशिनष्टि। अथ पुनः प्रसलवि त्रिः पर्येति। - - - - मा.श.२.६.१.१५

४३पितृयज्ञः : इषिता दैव्या होतारो भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय - इति। सूक्तवाकं होता प्रतिपद्यते। नाध्वर्युः। प्रस्तरं समुल्लुम्पति इत्येवोपास्ते - यदा होता सूक्तवाकमाह। - मा.श.२.६.१.४५

४४वैसर्जन होमः : आश्ववालः प्रस्तरः। यज्ञो ह देवेभ्यो ऽपचक्राम।सोऽश्वो भूत्वा पराङाववर्त। तस्य देवाः अनुहाय वालानभिपेदुः। तानालुलुपुः। - - -तत एता ओषधयः समभवन् - यदश्ववालाः। - मा.श.३.४.१.१७

४५आददते ग्राव्णः, - - - - आश्ववालं प्रस्तरम्, ऐक्षव्यौ विधृती। - - - -मा.श.३.६.३.१०

४६- - -तत्प्रोक्ष्योपनिनीय विस्रंस्य ग्रन्थिम्। आश्ववालः प्रस्तर उपसन्नद्धो भवति। तं गृह्णाति। गृहीत्वा प्रस्तरमेकवृद्बर्हिः स्तृणाति। स्तीर्त्वा बर्हिः - - - मा.श.३.६.३.१४

४७प्रवर्ग्य कर्मणि अवान्तरदीक्षा : अथ प्रस्तरे निह्नुवते। - - - यज्ञो वै प्रस्तरः। तद् यज्ञं पुनरारभन्ते - - - - न देवेभ्य आवृश्च्यन्ते। तस्मात् प्रस्तरे निह्नुवते। - - - - मा.श.३.४.३.१९

४८अथाह समुल्लुप्य प्रस्तरम् :अग्नीन्मदन्ति - आपा ३ इति। मदन्तीत्यग्नीदाह। ताभिरेहीत्युपर्य्युपर्य्यग्निमतिहरति। - - -मा.श.३.४.४.२२

४९वैश्वकर्मणहोमः : प्रस्तरेण परिधिना स्रुचा वेद्या च बर्हिषा। ऋचेमं यज्ञं नो नय स्वर्देवेषु गन्तवे। - मा.श.९.५.१.४८

५०अथ यद्बर्हिः स्तृणाति। तस्मादिमाः प्रजा लोमशा जायन्ते। अथ यत्पुनरिव प्रस्तरं स्तृणाति। तस्मादासां पुनरिव श्मश्रूण्ययौपपक्ष्माणि दुर्बीरिणानि जायन्ते। अथ यत्केवलमेवाग्रे प्रस्तरमनु प्रहरति, तस्माच्छीर्षण्येवाग्रे पलितो भवति। - - - मा.श.११.४.१.१४

५१यत्प्रस्तरं यजुषा गृह्णीयात्। प्रमायुको यजमानः स्यात्। यन्न गृह्णीयात्। अनायतनः स्यात्। तूष्णीमेव न्यस्येत्। न प्रमायुको भवति। नानायतनः। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.८.८

५२पुरस्तात् प्रस्तरं गृह्णाति। मुख्यमेवैनं करोति। - - - यजमानो वै प्रस्तरः। प्राणापानौ पवित्रे। यजमान एव प्राणापानौ दधाति। ऊर्णाम्रदसं त्वा स्तृणामीत्याह। - - - -धारयन्प्रस्तरं परिधीन्परिदधाति। - तै.ब्रा.३.३.६.७

५३स्रुक्षु प्रस्तरमनक्ति। इमे वै लोकाः स्रुचः। यजमानः प्रस्तरः। यजमानमेव तेजसा अनक्ति। त्रेधाऽनक्ति। त्रय इमे लोकाः। - - - - तै.ब्रा.३.३.९.२

५४अयं प्रस्तर उभयस्य धर्ता। धर्ता प्रयाजानामुतानुयाजानाम्। स दाधार समिधो विश्वरूपाः। तस्मिन्त्स्रुचो अध्यासादयामि। - तै.ब्रा.३.७.६.८

५५बहिष्पवमान में प्रसर्पण के समय : अध्वर्युः प्रस्तरं हरति। यजमानो वै प्रस्तरो यजमानमेव तत् स्वर्गं लोकं हरति। यज्ञो वै देवेभ्यो ऽश्वो भूत्वापाक्रामत्तं देवाः प्रस्तरेणारमयंस्तस्मादश्वः प्रस्तरेण सम्मृज्यमान उपावरमते यदध्वर्यु प्रस्तरं हरति यज्ञस्य शान्त्या अप्रत्रासाय। - - - ताण्ड्य ब्रा.६.७.१७

५६प्रस्तरमासद्योद्गायेद्धविषोऽस्कन्दाय। - तां.ब्रा.६.७.२१

५७एष्टा राय एष्टा वामानि प्रेषे भगाय। ऋतमृतवादिभ्यो नमो दिवे नमः पृथिव्या इति प्रस्तरे निह्नुवते द्यावापृथिवीभ्यामेव तं नमस्कुर्वन्ति अथो एने वर्धयन्त्येव वर्धयन्त्येव। - ऐ.ब्रा.१.२६

निह्नुते - नमस्कारोपचारपूर्वक संप्रणयन

 

दर्शपूर्णमासप्रकरणे तद्विकृतिषु च छिन्नासु चतसृषु दर्भमुष्टिषु या प्रथमा मन्त्रैः संस्कृता दर्भमुष्टिः (दर्भसंघात:) वेद्यां जुहूर्यस्यां निधीयते, विधृतिसंज्ञकयो: उदगग्रयोर्दर्भयोरुपरि च या प्रागग्रा स्थापिता भवति सा प्रस्तर इत्युच्यते। प्रस्तरः स्रग्धारणार्थो भवत्यर्थोऽनुसंधेय: । द्र० श्रौ०प०नि० पृ० १२ ।   

प्रस्तरप्रहरण-

दर्शपूर्णमासप्रकरणे तद्विकृतिषु च सूक्तवाकस्य (निगदस्य) अन्तिमं 'देवेभ्यः' इति पदं श्रुत्वा तिर्यञ्चं हस्तं कृत्वा कर्षन्निव प्रस्तरमाहवनीयेऽनुप्रहरति अध्वर्युस्तत् प्रस्तरप्रहरणमिति गीयते । द्र० श्रौ०प०नि० पृ० ३७ । २. 'इदं द्यावापृथिवी.' इत्यादिना सूक्तवाकमन्त्रेण प्रस्तरस्य अग्नौ प्रक्षेप: । द्र० मी०को० पृ० २८३४ । ३. अध्वर्युः स्रुचां दक्षिणेनापरेण च प्रदक्षिणेन भूमिलग्नमिव आहवनीयसमीपे होमार्थमानीय प्रस्तरमध्यादेकं तृणं परिशेष्य होतृपठितसूक्तवाकान्ते हस्तेन आहवनीये अनुप्रहरेत् प्रक्षिपेत् (तु०

का० श्रौ० ३-६।७-८; १२ विद्याधरः)।

प्रस्तराञ्जन-

दर्शपूर्णमासप्रकरणे तद्विकृतिषु च परिध्यञ्जनानन्तरमुपभृतं जलेन संस्पृश्य यथास्थानं स्रुचौ सादयित्वा जुह्वा आधारभूतं सविधृतिपवित्रं प्रस्तरं गृहीत्वा मन्त्रेण प्रस्तराग्राणि जुह्वामनक्ति, तथैव उपभृति मध्यानि अनक्ति, तथैव ध्रुवायां मूलान्यनक्तीति अञ्जनं प्रस्तराञ्जनमित्युच्यते। द्र० परिध्यञ्जन-, श्रौ०प०नि० पृ० ३६ ।

श्रौतयज्ञप्रक्रिया – पदार्थानुक्रमकोषः

-    प. पीताम्बरदत्त शास्त्री

(राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानम्, नवदेहली, २००५ई.)

 

 

First published : 1999 AD; published on internet : 14 - 1 - 2008 AD(Pausha shukla shashthee, Vikramee Samvat 2064)

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