PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
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It is a well known story of puraanas that it was only seer Uddaalaka who accepted the elder sister of goddess Lakshmi, Jyeshtha, as her wife when she was born on churning of ocean. The key to explain the word Uddaalaka can be traced to a statement in a braahmanic text that Uddaalaka describes the procedure of yaga for those who are not delighted by the non – prosperity of a yaga, but are delighted by the prosperity. His wife Jyeshtha is symbolic of non – prosperity, while Jyeshtha’s sister Lakshmi belongs to prosperity.It can be said that seer Uddaalaka does not care for the prosperity of a yaga. He is a worshipper of long jump, attaining absolute trance. The prosperity of yaga by lord Vishnu and her consort Lakshmi can take place later on.
The word Uddaalaka can be interpreted on the basis of ut – daaraka, to
tear apart for higher goal. There are several rigvedic mantras which mention
that Indra tears the 7 abodes and kills demons. By tearing of 7 abodes, Indra
releases the waters which were held up by stones. Thus tearing and killing acts
are mentioned together. On the other hand, there is a personality called Aaruni
Uddaalaka before whom the killing instinct of a killer is gone. This indicates
that tearing and killing are two sides of a personality out of which killing
loses it’s significance if tearing is successful.
There is a hymn of Atharvaveda whose seer is Uddaalaka and the god is
sheep. The first mantra of this hymn mentions that the 16th part of
craving and fulfilling(Ishtaapuurta) is divided by the members of Yama and Avi/sheep
protects from them. It is mentioned in braahmanic texts that Samvatsara
Prajaapati has 16 phases out of which 15 phases are his wealth and the 16th
is his Atman. Atman is the center and the 15 phases are connected with the
circumference . These 15 phases may the connected with prosperity of yaga.
Uddaalaka is universally called as Gautama, the son of Gautama. Then why
in the hymn of Atharaveda Uddaalaka
is the seer and Avi/sheep is the deity is not clear. In Kathopanishada also,
Uddaalaka is able to donate only old cows. As has been stated in the
commentaries on cow, the sheep stage may be symbolic of rising sun, while the
full grown sun may be called a cow.
How Uddaalaka is helpful in tearing apart? This can be explained on the
basis of Omkaara. The resonance of Omkara is said to have the power of tearing
apart. Uddaalaka uses Ida as her cow for fetching milk for yaga. It can be said
that the speech has effect on unconscious mind which starts giving milk in the
form of Omkaara.
There is one hymn in Atharvaveda whose seer is Uddaalaka and the
presiding deity is Iraa.
उद्दालक टिप्पणी : उद्दालक की टिप्पणी से पूर्व आरुणि शब्द की टिप्पणी का पठन उपयोगी होगा । उद्दालक और ज्येष्ठा के सम्बन्धों की कुंजी षड्-विंश ब्राह्मण १.६.२ के आधार पर प्राप्त की जा सकती है जहां उद्दालक ऋषि उन लोगों के लिए यजन विधि का वर्णन करते हैं जो यज्ञ की असमृद्धि से , अंग वैकल्य से आनन्दित नहीं होते हैं , अपितु यज्ञ की समृद्धि से आनन्दित होते हैं । इसका अर्थ हुआ कि समुद्र मन्थन से जो लक्ष्मी -भगिनी ज्येष्ठा के उत्पन्न होने का वर्णन आता है , उसमें ज्येष्ठा यज्ञ की असमृद्धि का तथा लक्ष्मी यज्ञ की समृद्धि का प्रतीक हैं । स्वाभाविक है कि साधना रूपी अथवा यज्ञ रूपी समुद्र मन्थन के आरंभ में यज्ञ की समृद्धि की आशा नहीं की जा सकती । ऐसा लगता है कि उद्दालक ऋषि को यज्ञ की समृद्धि की , यज्ञ के अंगों की पूर्णता की चिन्ता नहीं है । वह तो एकान्तिक साधना के साधक हैं , छलांग लगाकर निर्विकल्प समाधि प्राप्त करना चाहते हैं । विष्णु और लक्ष्मी द्वारा यज्ञ की समृद्धि , जो साधना का सर्वांगीण पक्ष है , बाद में होती रहेगी । उद्दालक शब्द की निरुक्ति उत् - दारक के रूप में की जा सकती है । ऋग्वेद ६.२०.१० , ६.२७.५ तथा ८.९८.६ में उल्लेख आता है कि इन्द्र ७ पुरों का दर्ता ( दॄ - विदारणे ) है तथा दस्युओं का हन्ता है । ७ पुरों का विदारण करके इन्द्र अद्रियों द्वारा रोके गए आपः को मुक्त करता है । इन ऋचाओं में मुख्य तथ्य यह है कि दारण और हनन शब्द साथ - साथ आए हैं । आरुणि उद्दालक की कथाओं में आरुणि ऋषि के समक्ष व्याध की हिंसा वृत्ति के समाप्त होने का उल्लेख आता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि दारण द्वारा आपः को मुक्त करना और दस्यु रूपी बुराईयों का हनन करना मनुष्य व्यक्तित्व के दो स्तर हैं जिनमें दारण की सफलता पर व्याध पक्ष द्वारा हनन की आवश्यकता नहीं रहती । यह पुराणों का अपना पक्ष है जिसकी व्याख्या वैदिक साहित्य में नहीं है । अथर्ववेद ३.२९ सूक्त के ऋषि उद्दालक हैं तथा देवता अवि है । इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में कहा गया है कि जिस इष्टापूर्त के १६वें भाग का यम के सदस्य विभाजन करते हैं , अवि उससे रक्षा करती है । इष्टापूर्त को समझने के लिए इष्टापूर्त शब्द पर टिप्पणी दृष्टव्य है । मार्कण्डेय पुराण १८.८/१६.१२५ में अग्निहोत्र की इष्ट संज्ञा होने का उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण ११.५.३.१ तथा गोपथ ब्राह्मण १.३.११ में उद्दालक ऋषि प्राचीनयोग्य को अग्निहोत्र के रहस्यों का वर्णन करते हैं , लेकिन शतपथ ब्राह्मण ११.४.१.१ तथा गोपथ ब्राह्मण १.३.६ में उद्दालक को दर्श - पूर्णमास के रहस्यों को स्वेदायन ऋषि से सीखना पडता है । बृहदारण्यक उपनिषद १.५.१५ के अनुसार संवत्सर प्रजापति १६ कलाओं वाला है जिसमें से १५ कलाएं तो उसका वित्त हैं और १६ वी कला आत्मा है । आत्मा नाभि है और वित्त परिधि । इस तथ्य के समांतर यह मान सकते हैं कि उद्दालक - अवि सूक्त में इष्टापूर्त के जिस १६वें भाग की रक्षा का प्रश्न है , वह आत्मा से संबंधित है , एकान्तिक साधना से सम्बन्धित है , जबकि शेष १५ भाग वित्त से , यज्ञ की समृद्धि से , लक्ष्मी से सम्बन्धित हैं । ऐसा लगता है कि उद्दालक की इस वित्त में कोई रुचि नहीं है । यह विचारणीय है कि क्या अग्निहोत्र , जिसके उद्दालक विशेषज्ञ हैं , इस १६वी कला से सम्बन्ध रखता है और दर्शपूर्ण मास शेष १५ कलाओं से ? अथवा क्या अग्निहोत्र और दर्शपूर्ण मास , दोनों में ही १६ कलाएं निहित हैं ? सूक्त में अवि से आकूति की प्राप्ति और आकूति से सब कामों की पूर्ति का उल्लेख आता है । यह स्पष्ट नहीं है कि जब वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उद्दालक को गौतम कह कर सम्बोधित किया गया है , फिर भी उद्दालक को अपनी साधना गौ के स्तर की अपेक्षा अवि के स्तर पर क्यों करनी पडती है ( कठोपनिषद में भी उद्दालक केवल बूढी गायों का ही दान कर पाने में समर्थ हैं ) । अवि शब्द की टिप्पणी में यह उल्लेख किया जा चुका है कि अवि अपान से , समाधि में शेष बचे एकमात्र प्राणों से , तथा वाक् से सम्बन्धित है , जबकि गौ को प्राण तत्त्व कहा जाता है । पुराणों में अवि को पाप कहा गया है जिससे मुक्त होकर अविमुक्त / काशी क्षेत्र में प्रवेश करना है । उद्दालक की साधना में दारण की क्रियाविधि क्या हो सकती है , इस संदर्भ में ऋग्वेद १.५३.४ में उल्लेख आता है कि इन्द्र ने इन्दुओं द्वारा दस्यु का दारण किया । पुराणों में श्रीकृष्ण - पिता वासुदेव का नाम दर दुन्दुभि है । अतः यह कहा जा सकता है कि दारण की प्रक्रिया ओंकार के नाद से , वाक् को दुन्दुभि का रूप देने से सम्बन्धित है । अग्निहोत्र का रहस्य बताते हुए उद्दालक कहते हैं कि इडा ही उनकी मानवी अग्निहोत्री है जिससे वह ( प्रणव रूपी ) दुग्ध की प्राप्ति करते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ओंकार रूपी वाक् का प्रभाव इडा रूपी अचेतन मन पर पडता है और तब पयः की प्राप्ति आरंभ हो जाती है । अथर्ववेद ६.१५ सूक्त उद्दालक ऋषि और वनस्पति देवता का है । पुराणों में इरा को वनस्पतियों की माता कहा गया है ।
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