PURAANIC SUBJECT INDEX (From vowel U to Uu) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Udaana - Udgeetha (Udaana, Udumbara, Udgaataa, Udgeetha etc.) Uddaalaka - Udvartana (Uddaalaka, Uddhava, Udyaana/grove, Udyaapana/finish etc. ) Unnata - Upavarsha ( Unnetaa, Upanayana, Upanishat, Upbarhana, Upamanyu, Uparichara Vasu, Upala etc.) Upavaasa - Ura (Upavaasa/fast, Upaanaha/shoo, Upendra, Umaa, Ura etc. ) Ura - Urveesha (Ura, Urmilaa, Urvashi etc.) Uluuka - Ushaa (Uluuka/owl, Uluukhala/pounder, Ulmuka, Usheenara, Usheera, Ushaa etc.) Ushaa - Uurja (Ushaa/dawn, Ushtra/camel, Ushna/hot, Uuru/thigh, Uurja etc.) Uurja - Uurdhvakesha (Uurja, Uurjaa/energy, Uurna/wool ) Uurdhvakesha - Uuha (Uushmaa/heat, Riksha/constellation etc.)
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First published : 1999 AD; published on internet : 14-1-2008(Pausha shukla shashthee, Vikramee Samvat 2064) उदान टिप्पणी : योग में उदान वायु का स्थान कण्ठ में विशुद्धि चक्र कहा जाता है और विशुद्धि चक्र में उदान वायु के विशिष्ट कार्य क्या - क्या हैं , इसका वर्णन स्वामी योगेश्वरानन्द की प्राण विज्ञान आदि पुस्तकों में विस्तार से किया गया है । स्वामी योगेश्वरानन्द ने उदान आदि वायुओं को सत्त्व , रज और तम , तीन भागों में विभाजित किया है और इन्हीं गुणों के आधार पर उनके विशिष्ट कार्यों का वर्णन किया है । पुराणों में एक ओर तो स्थूल स्तर पर उदान वायु के कार्यों का वर्णन आता है । दूसरी ओर जहां मृत्यु के पश्चात् उदान के कार्यों का वर्णन आता है , वह सूक्ष्म स्तर की उदान वायु की ओर संकेत हो सकता है । ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में सुरतान्त में नि:श्वास से उदान आदि की उत्पत्ति का उल्लेख आता है । यह संभव है कि समाधि के पश्चात् व्युत्थान की स्थिति में वायु का प्राण , अपान आदि में विभाजन होता हो । शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.१ के वर्णन के अनुसार प्राण उपांशु पात्र है और उदान अन्तर्याम पात्र है । अन्तर्याम के लिए कहा गया है कि यह प्रजा का नियमन करता है , अतः इसे अन्तर्याम कहा जाता है । मार्कण्डेय पुराण में उदान वायु द्वारा दान किए हुए अन्नों से आह्लाद प्रदान करने का उल्लेख आता है । यह संभव है कि समाधि से व्युत्थान की प्रारम्भिक अवस्था प्राण हो जिसे उपांशु कहा गया है । यह आत्मा को प्राप्त होने वाले प्राण हो सकते हैं । इसके पश्चात् आत्मिक आनन्द का प्रजा में विस्तार होता है । इसके लिए अन्तर्याम की , नियमन की आवश्यकता पडती है ( यह उल्लेखनीय है कि जैमिनीय ब्राह्मण २.३७ , शांखायन ब्राह्मण १२.४ , ऐतरेय ब्राह्मण २.२१ , तैत्तिरीय संहिता ६.४.६.४ में अपान के लिए भी अन्तर्याम पात्र की व्यवस्था की गई है ) । इस तथ्य की पुष्टि वैदिक साहित्य में प्राण को प्रायणीय अतिरात्र और उदान को उदयनीय अतिरात्र कहने से भी होती है ( द्र. उदय शब्द पर टिप्पणी तथा जैमिनीय ब्राह्मण २.५८ , ३.३१९ , ऐतरेय ब्राह्मण १.७ व ४.१४ , गोपथ ब्राह्मण १.५.४ )। ब्रह्मा के उदान से पुलस्त्य तथा व्यान से पुलह ऋषि की सृष्टि होने के पुराणों के सार्वत्रिक उल्लेख के संदर्भ में , वैदिक साहित्य में उदान के साथ बृहती छन्द और बृहत् साम को सम्बद्ध किया गया है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.२२९ )। डा. फतहसिंह के अनुसार पुलस्त्य से तात्पर्य पुरस्त्यान , पुर के विस्तार से है । इस प्रहेलिका को समझने के लिए भौतिक विज्ञान की सहायता लेनी पडेगी । भौतिक विज्ञान के अनिश्चितता के सिद्धान्त के अनुसार पदार्थ के सूक्ष्म अंशों के लिए संवेग के प्रसार की अनिश्चितता और दिशा के प्रसार की अनिश्चितता का गुणनफल एक स्थिरांक है । इसका अर्थ है कि यदि किसी सूक्ष्म कण के संवेग को एक निश्चित सीमा में बद्ध कर दिया जाए तो उस कण का दिशा में प्रसार उतना ही अनिश्चित हो जाएगा । यदि दिशा में प्रसार को सीमाबद्ध करें तो संवेग का प्रसार अनिश्चित हो जाएगा । उदान और पुलस्त्य के वर्तमान संदर्भ में उदान को संवेग और पुलस्त्य को दिशा के तुल्य मान सकते हैं । यदि उदान को सीमाबद्ध करेंगे तो पुर का , दिशा का स्त्यान अर्थात् विस्तार हो जाएगा । व्यान और उससे उत्पन्न पुलह ऋषि के संदर्भ में स्थिति इससे भिन्न है । व्यान के साथ वामदेव्य साम को सम्बद्ध किया जाता है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.२२९ ) । यह गर्भ रूप स्थिति है । पुलह शब्द की व्याख्या पुरह , पुर में बद्ध के रूप में की जा सकती है । यह उदान से विपरीत स्थिति है । पुराणों में पुलस्त्य से रावण आदि राक्षसों तथा पुलह से वानरों की सृष्टि का वर्णन आता है । राम के अयोध्या में प्रतिष्ठित होने के लिए ( जीवात्मा को आत्मा में रमण करने के लिए ? ) और पुलस्त्य वंश से संघर्ष करने के लिए पुलह - वंश के वानरों की सहायता लेनी पडती है । यह उल्लेखनीय है कि उदान , व्यान आदि के साथ पुलस्त्य , पुलह आदि ऋषियों को सम्बद्ध करना पुराणों की अपनी मौलिकता है । देवीभागवत पुराण में सभ्य अग्नि को उदान रूप कहा गया है । यह अपने प्रकार का एकमात्र उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.२.२१ , ११.५.३.८ , आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ९.१०.२ , कात्यायन श्रौत सूत्र २५.१०.१७ आदि में गार्हपत्य को उदान और आहवनीय अग्नि को प्राण कहा गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार प्राण अन्न का भक्षण करने वाले हैं , जबकि उदान अन्नप्रद है ( शतपथ ब्राह्मण ११.२.४.६ ) । यह संभव है कि देवों को जो वास्तविक हवि प्रदान की जानी है , उसके अन्न का एकमात्र स्रोत केवल उदान प्राण ही हो । डा. फतहसिंह का कथन है कि उदान प्राण ओदन के पकने से उत्पन्न होता है । ओदन पकाने का अथर्ववेद में भली भाति वर्णन है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३४६ , गोपथ ब्राह्मण २.१.७ तथा तैत्तिरीय संहिता १.६.३.३ के कथन से डा.फतहसिंह की धारणा की पुष्टि होती है । त्रिपिटक ग्रन्थों के अन्तर्गत वर्गीकृत ग्रन्थ उदान (अनुवादक : भिक्षु जगदीश काश्यप , प्रकाशक : भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद् , बुद्ध विहार , लखनऊ ) की प्रस्तावना में कहा गया है कि भावातिरेक मे सन्तों के मुख से जो प्रीति वाक्य निकला करता है , उसे उदान कहते हैं । यह कथन सत्य हो सकता है , क्योंकि उदान प्राण विशुद्धि चक्र में वाणी को नियन्त्रित करता है । पुराणों में कहीं तो देह में उदान के अर्ध होने का उल्लेख है , कहीं ऊर्ध्व होने का । यह पुस्तक मुद्रण की त्रुटि भी हो सकती है और वास्तविकता भी । हो सकता है कि सामान्य जनों में उदान की अधो दिशा में प्रवृत्ति ही भुक्त अन्न के रसास्वादन आदि के लिए उत्तरदायी हो , और साधना द्वारा उदान को ऊर्ध्व दिशा में प्रवृत्त करना पडता हो । पुराणों में उदान को समान - पुत्र तथा व्यान - पिता कहने के सार्वत्रिक उल्लेख के संदर्भ की पुष्टि बृहदारण्यक उपनिषद ३.९.२६ (शतपथ ब्राह्मण १४.६.९.२७ ) , गोपथ ब्राह्मण १.५.५ आदि के कथनों से होती है । देह में प्राण , अपान आदि वायुओं का स्पष्ट रूप से अभिज्ञान किस प्रकार होगा , इसका वर्णन मैत्रायणी उपनिषद ७.५ में किया गया है । इस वर्णन के अनुसार उदान के साथ पंक्ति छन्द , हेमन्त व शिशिर ऋतु आदि सम्बद्ध हैं जबकि अन्य वायुओं के साथ वसन्त आदि अन्य ऋतुएं । यदि देह में किसी अंग में आन्तरिक शीतलता का अनुभव हो रहा है तो वह उदान वायु का कार्य हो सकता है । योगीजनों द्वारा लिपिबद्ध किए गए अनुभवों से ज्ञात होता है कि साधना की एक अवस्था में आकर शरीर हिम के समान शीतल हो जाता है । यह भी कहा जाता है कि शरीर में जहां - जहां से कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्वगमन करेगी , वहीं - वहीं शीतलता आ जाएगी । आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुसार शीतलता तब उत्पन्न होती है जब उष्मा का किसी प्रकार से निर्गमन हो रहा हो । उदान द्वारा शीतलता उत्पन्न करने की प्रक्रिया को आधुनिक ठोस पदार्थ विज्ञान के आधार पर समझा जा सकता है । ठोस पदार्थ में इलेक्ट्रानों का प्रवाह एक ऊर्जा पट्ट ( एनर्जी बैण्ड ) विशेष में ही सीमित रहता है । इस ऊर्जा पट्ट से ऊपर जो ऊर्जा के स्तर हैं , वहां इलेक्ट्रान गति नहीं कर सकता । यह ऊर्जा का अन्तराल कहलाता है । इस ऊर्जा अन्तराल से ऊपर फिर ऊर्जा पट्ट का आरम्भ हो जाता है । यदि किसी इलेक्ट्रान को पहले ऊर्जा पट्ट से दूसरे ऊर्जा पट्ट में स्थान्तरित करना हो तो उसे बाहर से इतनी ऊर्जा देनी आवश्यक है कि वह ऊर्जा अन्तराल का अतिक्रमण कर सके । शीतलता उत्पन्न करने के आधुनिक विज्ञान में इलेक्ट्रान ऊर्जा अन्तराल को पार करने के लिए ऊर्जा का ग्रहण बाहर से नहीं , अपितु अपने परिवेशी माध्यम / पदार्थ से ही करता है , अतः ऊर्जा की न्यूनता के कारण पदार्थ शीतल हो जाता है । बहुत संक्षेप में वर्णित इस प्रक्रिया को तापवैद्युत शीतन ( थर्मोइलेक्ट्रिक कूलिंग ) कहा जाता है । उदान के साथ भी ऐसा ही कुछ होता होगा । ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.१२ आदि ) कि उदान उदयनीय है । इससे यह समझा जा सकता है कि सूर्य के उदय होने पर सारी ऊर्जा सूर्य में समाहित हो जाती है और इस कारण से शरीर शीतल हो जाता है । पौराणिक व वैदिक साहित्य में जब उदान के लिए ऊर्ध्व दिशा का निर्धारण किया जाता है , तो उससे भी तात्पर्य ऊर्जा के ऊर्ध्व होने , वृद्धि करने से लिया जा सकता है , यद्यपि उदान और ऊर्जा में वही सम्बन्ध हो सकता है जो जड पदार्थ के विज्ञान में संवेग( मोमेन्टम ) और ऊर्जा ( एनर्जी ) में है । शांखायन श्रौत सूत्र १.१०.२ आदि में प्राण के साथ इष तथा उदान के साथ ऊर्ज को सम्बद्ध किया गया है जिसका निहितार्थ अन्वेषणीय है । सुबालोपनिषद ९ में उदान वायु का अभिज्ञान जिह्वा के माध्यम से , रसों का अनुभव करने के माध्यम से किया गया है । यह रस का अभिज्ञान ही विकसिक होकर उदान का अभिज्ञान करा सकता है । ध्यायनबिन्दूपनिषद ९६ में उदान के शंख वर्ण का उल्लेख आता है । देवीभागवत पुराण के अनुसार उदान का वर्ण शक्रगोप सम है । श्री लैडबीटर की पुस्तक दी चक्राज ( थियोसोफिकल पब्लिशिंग हाउस , मद्रास ) , पृष्ठ ४३ में उदान वायु के बैंगनी - नीले रंग का उल्लेख है । गरुड पुराण में उदान वायु द्वारा दोषों को सन्धियों में फेंकने का उल्लेख आता है । त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद ३.८० में भी उदान को सब सन्धियों में स्थित कहा गया है । महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में प्राणापान रूप अहोरात्र के मध्य में तथा सत् व असत् के मध्य में अग्नि के उदान रूप होने आदि का कथन है । यह अन्वेषणीय है कि सन्धि से तात्पर्य केवल स्थूल शरीर की सन्धियों से ही है अथवा महाभारत के वर्णन के अनुसार सूक्ष्म शरीर की सन्धियों से भी । देवीभागवत पुराण में प्राणाग्निहोत्र के संदर्भ में उदान की आहुति मध्यमा , अनामिका व अंगुष्ठ से देने का निर्देश है , जबकि प्राणाग्निहोत्रोपनिषद १ में सब अंगुलियों से । प्राणाग्निहोत्रोपनिषद ४ में उदान का तादात्म्य उद्गाता नामक ऋत्विज से किया गया है । अतः उदान को समझने के लिए उद्गाता शब्द की टिप्पणी द्रष्टव्य है । उदान आदि वायुओं को अमृत बनाना वैदिक साहित्य का सार्वत्रिक लक्ष्य है । सुबालोपनिषद ९ से संकेत मिलता है कि प्राण , उदान आदि को अमृत बनाने के लिए इन्हें विज्ञान के स्तर तक ले जाना पडता है । शतपथ ब्राह्मण १०.१.४.५ के अनुसार अग्निचयन में चतुर्थी चिति उदान का प्रतीक है और अमृत है । तैत्तिरीय आरण्य १०.३६.१ व १०.६९.१ से संकेत मिलता है कि जब श्रद्धा में प्राण , उदान आदि का निवेश किया जाता है तो अमृत प्राप्त होता है । |