वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद अरुणा शुक्ला (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ) 1994ई.
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षष्ठ अध्याय अम्बर, पुष्कर और धन्व - संयत् और वियत् - अंतरिक्ष और यज्ञ - पुष्कर और अंतरिक्ष - आपः और धन्व
षष्ठ अध्याय अम्बर, पुष्कर और धन्व निघण्टु के अन्तरिक्षनामों में आकाश , अम्बर और वियत का भी समावेश है। साधारण बोलचाल में ये तीनों शब्द उस लोक के वाचक माने जाते हैं जिसमें सूर्य, चन्द्र आदि सभी विद्यमान हैं। परन्तु वैदिक वाङ्मय में इन शब्दों का अर्थ कुछ भिन्न प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए हम याज्ञवल्क्य और गार्गी संवाद१ को लेते हैं,जहां आकाश आदि अनेक लोकों का उल्लेख है। गागीं पूछती है यदि यह सब कुछ आपः में ओत-प्रोत है तो आपः किसमें ओतप्रोत है ? उत्तर में याज्ञवल्क्य कहते हैं कि आपः वायु में ओतप्रोत है। इसी प्रकार गार्गी बराबर प्रश्न करती गई और याज्ञवल्क्य ने जो उत्तर दिए उसका सारांश यह है कि वायु आकाश में, आकाश अन्तरिक्ष में, अन्तरिक्ष द्यौ में, द्यौ आदित्यलोक में, आदित्यलोक चन्द्रलोक में, चन्द्रलोक नक्षत्रलोक में, नक्षत्रलोक देवलोक में, देवलोक गंधर्वलोक में, गंधर्वलोक प्रजापति लोक में और प्रजापति लोक ब्रह्मलोक में ओतप्रोत है। सारांश यह है कि यहां आकाश के ऊपर अन्तरिक्ष और अन्तरिक्ष के ऊपर द्यौ लोक आदि कई लोकों के बाद सर्वोत्तम ब्रह्मलोक आता है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि इसके अनुसार त्रयलोक की उस मान्यता को अस्वीकार कर दिया गया है जिस में अन्तरिक्ष को आकाश और पृथिवी के बीच स्थित माना जाता है। शतपथब्राह्मण में आगे स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि यहां आकाश से अभिप्राय ----- कस्मिन्नु वायुरोतश्च प्रोतश्चेत्याकाश एव गार्गीति कस्मिन्न्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेत्यन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति कस्मिन्न्वन्तरिक्षलोका ओताश्च प्रोताश्चेति द्यौर्लोके गार्गीति शब्रा.१४.६.६.१ उस तत्व से है जो अपने भीतर स्थित अन्तरात्मा का शरीर है। परन्तु जो स्वयं उस अन्तरात्मा को नहीं जानता -- यः आकाशे तिष्ठन्। आकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याकाशः शरीरं यः आकाशमन्तरो यमयति स ते आत्मान्तर्याम्यमृतः। (शब्रा.१४.६.७.१०) इस प्रसंग में आगे बताया गया है कि भूत, वर्तमान और भविष्यत् जो कुछ भी होता है वह सब आकाश में ओतप्रोत है तथा आकाश उस अक्षर-तत्व में ओतपोत हे जिसे अन्तर्यामी (अमृत) कहा गया है।१ मनुष्य-व्यक्तित्व में आयतन आदि के भेद से इस आत्मा अथवा अक्षर-तत्व के विविध रूप कल्पित किए गए हैं जिनका विवरण इस प्रकार है२ – । आयतन २ प्रतिष्ठा ३ विशेषता प्राण आकाश प्रियता वाक् आकाश प्रज्ञता चक्षु आकाश सत्यता श्रोत्र आकाश अनन्तता मन आकाश आनन्द हृदय आकाश स्थिति इस विवरण से स्पष्ट है कि आकाश एक ऐसा तत्व है जो आत्मा के प्राण आदि विभिन्न आयतनों से बराबर जुड़ा हुआ है, जबकि इन विभिन्न आयतनों में आत्मा की विशेषता और कार्य भी भिन्न-भिन्न रूप में बदलते हुए दिखाई पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में जब आकाश को अन्तरिक्ष में ओतप्रोत कहा जाता है तो यह मानना ------ १. एतद्वै तदक्षरं गार्गि यस्मिन्नाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति शब्रा.१४.६.८.११ २.वही, १४.६.१०.३-१८
पड़ेगा कि अन्तरिक्ष आकाश की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है और जहां जहां आकाश है वहां वहां अन्तरिक्ष भी उसके साथ होगा जिसमें वह ओतपोत कहा जाता है। इस बात की पुष्टि “यजु" शब्द का निर्वचन देते हुए भी यह कहकर की गई है कि अन्तरिक्ष ‘यत्’ है और आकाश "जूः” है और यह आकाश अन्तरिक्ष का अनुसरण करता हुआ गतिशील रहता है।१ पुनः 'अयमेवाकाशः• और “यो यमन्तरात्मन् आकाश" कहकर जब प्रथम को "जूः और दूसरे को 'यत्' कहा गया२, तो द्वितीय तो पूर्वोक्त अन्तरिक्ष ही प्रतीत होता है। इस दृष्टि से अन्तरिक्ष को आकाश का ही आन्तरिक रूप मान सकते हैं । दूसरे शब्दों में, मनुष्य-व्यक्तित्व में विभिन्न स्तरों पर जो आकाश बताया गया है, उनमें से प्रत्येक आन्तरिक आकाश अपने बाह्याकाश की दृष्टि से अन्तरिक्ष कहा जा सकता है। इस प्रकार, अन्तरिक्ष-रूप “यत्' और आकाश रूप 'जूः ' के मेल से जो 'यजुः’ है वही "प्राण” अथवा वायु कहा जाता है। यह "यजुः” ऋक् साम को वहन करने वाला है।४ प्राण अथवा वायु को यत् मानकर जब अन्तरिक्ष को 'जूः ' कहा जाता है, तो पुरुष यजुः ' नाम ग्रहण करता है और वही समस्त नानात्व को जोड़ने वाला कहा जाता है।५ स्तर-भेद की दृष्टि से व्यक्तित्व में जब प्राण६, मन७ आदि कई ----- १. अयमेवाकाशो जूः यदिदमन्तरिक्षमेतं ह्याकाशमनु जवते तदेतद्यजुर्वायुश्चान्तरिक्षं च यच्च जूश्च शब्रा.१०.३.५.२ २.वही, १०.३.५.५ ३.वही, १०.३.५.५; १०.३.५.२ ४.एतद् यजुः ऋक्सामयोः प्रतिष्ठितम् ऋक्सामे वहतः । -शब्रा.१०.३.५.२ ५.माश १०.५.५.२०; तु.१०.३.५.१-२ ७.जै.२.३९; माश.४.६.७.५; जैउ.१.८.१.९
यजुओं की कल्पना की जाती है, तो सभी यजुओं का आयतन अन्तरिक्ष बताया जाता है -- अन्तरिक्षं वै यजुषामायतनम् (गो.१.२.२४ )। इसका तात्पर्य है प्राणमय, मनोमय आदि सभी पुरुषों के आयतनों को अन्तरिक्ष कहा जा सकता है। इसी प्रकार पूर्वोक्त विभिन्न स्तरों के आकाशों को भी उन सबका आवरण समझा जा सकता है। संयत् और वियत दूसरे शब्दों में, अन्तरिक्ष और आकाश एक ही तत्व के दो पहलू है। इसी दृष्टि से अन्तरिक्षलोक को अनिरुक्त और निरुक्त दोनों ही कहा गया है।१ अन्तरिक्ष-रूप में वह अनिरुक्त रहता है जबकि आकाश-रूप में वह निरुक्त रहता है। इसी भाव को व्यक्त करने के लिए पहले अन्तरिक्ष को "यत्" और आकाश को "जूः ' कहा गया है। वास्तव में एक अन्तरिक्ष लोक ही है जो सबसे अधिक विस्तारशील होने के कारण 'तनिष्ठ' कहलाता है। अन्तः और बाह्य दृष्टि से इसी एक लोक का विस्तार अनेक अन्तरिक्षाणि और अनेक आकाशों में माना जा सकता है। अन्तरिक्ष के इन्हीं दो पक्षों को जब क्रमशः द्यौ और पृथिवी नाम दिया जाता है तो इनकी संधि को आकाश कहा जाता है।३ इन्हीं दोनों पक्षों को जब रात्रि और अहः रूप में कल्पित क्यिा गया तो रात्रि को “संयत्" नामक छादन से युक्त होने पर संयच्छंद कहा गया और अहन् को "वियत्' नामक छादन से युक्त होने पर वियच्छंद कहा गया।४ इसी दृष्टि से 'अहर् वै पूर्वाह्नो रात्रिरपराह्नः ' की ------------------------------ १.अंतरिक्षलोको निरुक्तः सन् अनिरुक्तः, माश.४.६.७.१७ २.तस्मादेषां लोकानामन्तरिक्षलोकस्तनिष्ठः, माश.७.१.२.२ ३.पृथिवी पूर्वरूपम्। द्यौरुत्तररूपम् । आकाशः संधिः । वायुः संधानम्, तैआ.७.३.१-२; तैउ.।.३.१-२ ४.तुः अहर् वै वियच्छन्दः। रात्रिर् वै संयच्छन्दः, माश ८.५.२.५
उक्ति को भी समझा जा सकता है।१ इसी तरह से एक तत्व के आन्तरिक और बाह्य अथवा पराक् और अर्वाक् पक्षों के इन्द्र की कल्पना वेद के सभी देव-युग्मों में मानी गई प्रतीत होती है। इस प्रसंग में जैमिनीय ब्राह्मण का निम्नलिखित अवतरण विशेष रूप से ध्यातव्य है -- ताव् एवैतौ स्तोमाव् अभवतां पराङ् च पूर्वाङ् च । तौ प्राणापानौ, ते ऽहोरात्रे, तौ पूर्वपक्षापरपक्षौ, ताविमौ लोकौ (द्यावापृथिव्यौ).ताव् इन्द्राग्नी, तौ मित्रावरुणौ, ताव् अश्विनौ, तद् दैव्यं मिथुनं यदिदं किं च द्वन्दं तद् अभवताम्। (जै.३.३५४) अतः जब अन्तरिक्ष द्वारा द्यावापृथिवी को विष्टब्ध होने वाला कहा जाता है२ तो उसका अभिप्राय यही समझना होगा कि द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष के दो पहलू हैं । यही बात तब अभिप्रेत होगी जब अन्तरिक्ष को द्यावापृथिवी नामक दो स्तनों का ऊधस् कहा जाता है।३ यही वे दो लोक हैं जिनमें से एक ऊर्ध्वरेतस् का सिंचन करता है और दूसरा नीचे की ओर वृष्टि करता है।४ यही क्रमशः आरोह और अवरोह करने वाले दो 'रोहिणौ' कहे जाते हैं।५ इसलिए जिस प्रकार अन्तरिक्ष और आकाश में से प्रत्येक को विभिन्न स्तरों या लोकों में रूपान्तरित होते हुए कहा जाता है, उसी प्रकार द्यावापृथिवी का समीकरण सभी लोकों के साथ ------ १.जैब्रा.२.९८ २.अन्तरिक्षेण हीमे द्यावापृथिवी विष्टब्धे, माश १.२.१.१६ ३.तांब्रा.२४.१.६ ४.माश ७.४.२.२२ ५.माश १४.२.१.४
किया जाता है। यही द्यावापृथिवी इन्द्र के दो हरि कहे जाते हैं२ और जब इन हरिद्वय को ‘ऋक्-साम'३ कहा जाता है तो इन दोनों को जोड़ने वाले उस पूर्वोक्त यजुः की याद आ जाती है जिसके द्वारा देवों ने यज्ञ का विस्तार किया था।४ ऋक्-यजु और साम का संघात ही वह त्रयी विद्या है जिसके द्वारा यज्ञ का विस्तार होने की बात प्रायः कही जाती है।५ अन्तरिक्ष और यज्ञ यजु और यज्ञ के उक्त सम्बन्ध को देखते हुए, अन्तरिक्ष को “यजुषां आयतनम्’ अथवा 'यज्ञ', कहने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसी दृष्टि से अन्तरिक्षनामों में यज्ञ वाचक अध्वर का परिगणित होना भी समझ में आने वाली बात है। पर, यह संगति तभी ठीक होगी जब यज्ञ को बाह्य वेदी पर होने वाला कर्म न मानकर एक ऐसा आंतरिक यज्ञ माना जाएगा जिसके सभी अंगोपांग हमारे भीतर होंगे । उदाहरणस्वरूप, तैत्तिरीय आरण्यक ने एक ऐसे ही यज्ञ का वर्णन इस प्रकार किया है -- यज्ञस्याऽऽत्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी शरीरमिध्ममुरो वेदिर्लोमानि बर्हिर्वेदः शिखा हृदयं यूपः काम आज्यं मन्युः पशुस्तपोऽग्निर्दमः शमयिता ----- १ द्यावापृथिवी सर्वे इमे लोकाः, जैब्रा.३.२७१ २.तैब्रा.३.९.४.२ ३.ऋक्सामे वै हरी, माश ४.४.३.६ ४.यजुषा ह वै देवा अग्रे यज्ञं तेनिरेऽथऽर्चाथ साम्ना। माश ४.६.७.१३ ५.एतावानु वै यज्ञो यावत्येषा त्रयी विद्येतया हि त्रय्या विद्यया यज्ञं तन्वते। काश ७.५.३.७; तु.माश ९.५.१.१८; ४.६.७.१ ६.अन्तरिक्षं वै यजुषाम् आयतनम्, गोब्रा.१.२.२४ ७.अन्तरिक्षं वै यज्ञः, मैसं.३.६.८
दक्षिणा वाग्घोता प्राण उद्गाता चक्षुरध्वर्युर्मनो ब्रह्मा श्रोत्रमग्नीद् यावद् ध्रियते सा दीक्षा यदश्नाति तद्धविर्यत् पिबति तदस्य सोमपानं यद्रमते तदुपसदो यत्संचरत्युपविशत्युत्तिष्ठते च स प्रवर्ग्यो यन्मुखं तदाहवनीयो या व्याहृतिराहुतिर्यदस्य विज्ञानं तज्जुहोति यत्सायंप्रातरत्ति तत्समिधं यत्प्रातर्मध्यन्दिनं सायं च तानि सवनानि ये अहोरात्रे ते दर्शपूर्णमासौ येऽर्धमासाश्च मासाश्च ते चातुर्मास्यानि य ऋतवस्ते पशुबन्धा ये संवत्सराश्च परिवत्सराश्च तेऽहर्गणाः सर्ववेदसं वा एतत्सत्रं यन्मरणं तदवभृधः। एतद्वै जरामर्यमग्निहोत्रं सत्रम् (तैआ.१०.६४.१, महानारायणोपनिषत् ८०) । आध्यात्मिक यज्ञ के प्रसंग में जब आत्मा को यजमान कहा जाता है, तभी “परोक्षं यज्ञः” (माश ३.१.३.२५) अथवा “प्राणैः यज्ञस्तायते” (जै २.४३१) जैसी उक्तियां सार्थक हो सकती हैं। वास्तव में आध्यात्मिक यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म१ का नाम है जिसके द्वारा स्वयं आत्मा अपने को अभिव्यक्त करता है। यह अभिव्यक्ति ऊर्ध्व , अर्वाक, तिर्यक् तथा सभी दिशाओं में होने वाला यज्ञ का विस्तार है।२ जब तक यह यज्ञ नामक अभिव्यक्ति का विस्तार नहीं होता तब तक आत्मा (पुरुष) को अजात ही माना जाता है क्योंकि श्रेष्ठतम कर्म रूप में उसकी अभिव्यक्ति ही उसका वास्तविक जन्म है।३ इस आन्तरिक यज्ञ का विस्तार आत्मा के मन और प्राण द्वारा होता है।४ यह विस्तार ----- १.यज्ञः श्रेष्ठतमं कर्म, वासं १.१ २.ऊर्ध्वश्च ह्व वै यज्ञस्तायतेऽर्वाङ् चाथो ह तिर्यङ् । सर्वा एव दिश इति ब्रूयात् । जै.१ २५८ ३.अजातो वै पुरुषः, स वै यज्ञेनैव जायते, मै ३.६.७ तु.अजातो ह वै तावत्पुरुषो यावन्न यजते, स यज्ञेनैव जायते, जैउ ३.३.४.८ ४.तु.जैब्रा २.४.३१; तैसं.५.१.३.२
एक या दो बार के प्रयत्न से नहीं हो जाता१, अपितु इसके लिए उत्तरोत्तर प्रयास करना पड़ता है। इसी दृष्टि से यज्ञ को एक रथ के रूप में कल्पित किया गया है२ जो निरन्तर बढ़ते हुए अन्ततोगत्वा ब्रह्मानन्द-रस-रूप सोम- राजा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।३ यज्ञ के उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से ही कहा जाता है कि यज्ञ से ही यज्ञ का प्रसार होता है।४ इसी यज्ञ-रूप रथ को कभी-कभी हंस के रूप में कल्पित क्यिा जाता है५ जो अपने विभिन्न आयामों अथवा स्तरों की दृष्टि से शुचिषत्, अन्तरिक्षसत्, वेदिसत्, दुरोणसत्, नृषत्, वरसत्, ऋतसत्, व्योमसत्, अब्जा, गोजा, ऋतजा, अद्रिजा, ऋतम् तथा वसु कहा जाता है।६ यही वह हंस है जिसके दो पक्ष वियत् कहे जाते हैं और जिनसे वह स्वर्ग को जाते हुए अपने भीतर सब देवों को समाहित करके विश्वभुवनों को सम्यक् रूप से देखता चलता है।७ सत्य के द्वारा उसकी ऊर्ध्वस्थिति होती है, ब्रह्म के द्वारा अर्वाक् दिशा में तथा प्राण के द्वारा तिर्यक् होती है। ८ इस हंस में ज्येष्ठ ब्रह्म अधिष्ठित होता है। इससे ---- १.उत्तरत उपचारो हि यज्ञः, माश ८.६.१.१९ २.काठक २३.६, माश १४.१.२.५ ३.यज्ञस्सोमो राजा, जैब्रा १.२५९ ४.यज्ञेनैव यज्ञं संतनोति , तैसं.३.२.६.४ ५.हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसदिति, रथै वा एतत् परिवहति, मै.४.४.५ ६.हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम्।। ऋ.४.४०.५; तै.१.८.१५.२; १०.४.१.५ ७.अथ.१०.८.१८; १३.२.३८; ३.१४ ८.वही, १०.८.१९
ध्वनित होता है कि यह हंस-रूप यज्ञ वही है जिसको ऊपर “आत्मा वै यज्ञः” कहकर याद किया गया है और इसके जिन दो पक्षों को "वियतौ” कहा गया है उन्हीं को समाविष्ट करके सम्भवतः उस वियत् की कल्पना की गई है जिसके अन्तर्गत अन्तरिक्ष के पूर्वोक्त निरुक्त और अनिरुक्त दोनों ही पक्ष आ जाते हैं। इसी हंस अथवा यज्ञ-रूप आत्मा को जब अग्नि के रूप में कल्पित किया जाता है तो उसके यह दोनों पंख ही दो अरणियों का रूप ले लेते हैं और अग्नि को उन दोनों द्वारा मथा हुआ वसु कहा जाता है।१ समाधि-अवस्था में जब तक वह हिरण्यय कोश में सीमित रहता है तब तक वह 'अपात्' कहा जाता है और उसमें "स्वः' नामक ज्योति होती है। उसी ज्योति को लेकर जब वह व्युत्थान-अवस्था में विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों के संदर्भ में चतुष्पात कहा जाता है तो वह व्यक्तित्व के सभी प्राणियों (अंगों) के लिए भोग्य हो जाता है और बाहर से इन्द्रियों द्वारा 'सर्वभोजन’ का आदान भी करता है।२ यह सनातन देव अथवा पुरुष है जो पुनः पुनः नवीन होता रहता है।३ यह बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और अदृश्य के समान प्रतीत होता है जिसको आलिंगन करने वाली उसकी शक्ति (देवता) है।४ यह अजरामर कल्याणी शक्ति जिस मर्त्य देह में रहती है, जिसके लिए वह वहां शयन करती है, वह कार्य करता है और वृद्ध भी होता है।५ परन्तु वह आत्मा स्वयं न स्त्री है न पुरुष, न कुमार ----- १.अथ.१०.८.२० २.वही, २१ ३.वही, २२-२३ ४.वही, २५ ५.वही, २६
है और न कुमारी । वह शरीर-रूप से वृद्ध होने पर भी 'विश्वतोमुख' (अन्तर्मुखी) होकर नवजन्म ग्रहण करता है। "विः' और 'अविः’- आत्मा के उपर्युक्त जिस रूप को हंस, रथ और यज्ञ आदि के रूप में एक गमनशील तत्व माना गया है उसका एकाक्षरी नाम "विः' भी है। अपने एक रूप में वह अश्विनौ का त्रिचक रथ है जो मन से भी अधिक वेगवान है और जिसके द्वारा अश्विनौ उसी प्रकार आ जाते हैं जैसे "विः” (पक्षी) पंखों द्वारा उड़कर आता है।१ यही वह सुपर्ण है जो अन्य सब वियों (विभ्यः) की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ तथा अन्य श्येनों की अपेक्षा अधिक तीव्रगामी होकर अपनी अचक्रा स्वधा द्वारा मनु के लिए देवसेवित सोम नामक हव्य को लाता है। यही वह "विः' अथवा "श्येन' है जो अध्वर में उस विभु और विचक्षण सोम को उस समय ले आता है जब विशः अग्नि को "होता”.रूप में वरण किया जाता है और तब “धी” पैदा होती है।३ यहां 'धी' से वह ध्यानोन्मुख चेतना अभिप्रेत प्रतीत होती है जिसको अन्यत्र अनेक आख्यानों में श्येन-रूप धारण करके स्वर्ग से सोम अथवा अमृत लाने वाला कहा गया है।४ यहां श्येन द्वारा सोम को आहरण करने के प्रसंग में अग्नि को होता रूप में वरण किया जाना और तत्पश्चात् "धी' का उत्पन्न होना विशेष महत्व रखता है। डॉo फतह सिंह के अनुसार अग्नि आत्मा के ज्ञानपरक पक्ष का प्रतीक है। अतः उसको होता रूप में वरण करके ------ १.ऋ.१.१८३.१ २.वही, ४.२६.४ ३.वही, १०.११.४ ४.वैदिक दर्शन, पृ० १४५-१५७
"धी” की प्राप्ति का तात्पर्य है ज्ञानमार्ग का अनुसरण करके ऋतम्भरा बुद्धि को प्राप्त करना और उसके द्वारा सोम की प्राप्ति का अर्थ है ब्रह्मानन्द-रस की उपलब्धि। इसीलिए कभी-कभी कहा जाता है कि अग्नि ही श्येन बनकर स्वर्ग को गया और वहां से सोम को ले आया। श्येन या हंस के जो दो पक्ष कहे गए हैं वही पूर्वोक्त एक मन्त्र में जब दो अरणी कहे जाते हैं तो उनके द्वारा मथे हुए वसु से निस्संदेह यह अग्नि ही समझा जाना चाहिए जिसको कई बार वसु भी कहा जाता है। इस प्रसंग में निम्नांकित मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसमें अश्विनौ को ही अग्नि रूप गर्भ का धारण तथा अग्नि मंथन करने वाली दो अरणियों के रूप में माना गया प्रतीत होता है - गर्भं ते अश्विनौ देवावा धत्तां पुष्करस्रजा, हिरण्ययी अरणी यं निर्मन्थतो अश्विना । तं ते गर्भं हवामहे दशमे मासि सूतवे ।। - ऋ.१०.१८४.२-३ इस संदर्भ में जहां अश्विनौ का "पुष्करस्रजौ” विशेषण निघण्टु के अन्तरिक्ष नामों में परिगणित पुष्कर शब्द की याद दिलाता है वहीं अश्विनौ के उस त्रिचक्र-रथ का भी स्मरण हो आता है जो ऊपर मन से भी अधिक वेगवान बताया गया और जिसके द्वारा अश्विनौ उसी प्रकार गतिशील होते हुए बताए गए हैं जिस प्रकार कोई पक्षी अपने पंखों से उड़ता है। पुष्कर और अन्तरिक्ष यहां पुष्करस्रजौ अश्विनौ द्वारा जिस अग्नि को दशम मास (प्रकाश) तक गर्भ में रखकर जन्म देने की बात कही गई है वह अग्नि ही शतपथ ४.१.५.१६ के अनुसार पुष्कर है जिसके संदर्भ से द्यावापृथिवी ही पुष्करस्रजौ अश्विनौ कहलाते हैं। द्यावापृथिवी अन्तरिक्षरूप उखा के दो स्तनों के समान कहे जाते हैं ।१ अन्तरिक्ष ऊधस् है जिसके अंगभूत द्यावापृथिवी हैं२ और वह अन्तरिक्ष ज्योति है३ ,अग्निश्रित है।४ अतः ज्योतिर्मय अन्तरिक्ष ही उक्त "पुष्कर" कहा जा सकता है। अन्यत्र( शत.१०.५.२.७) वाम नेत्र और दक्षिण नेत्र की दृष्टि के "भ्रुवयोर्मध्य में केन्द्रित होने से जो आन्तरिक हिरण्मय पुरुष प्रकट होता है उसे ही पुष्कर माना गया प्रतीत होता है, जबकि उसके आस-पास जो श्यामता होती है उसे पुष्करपर्ण कहा जाता है। पुष्कर का सम्बन्ध वृत्र-वध के आख्यान से भी है। इन्द्र वृत्र का वध करने के पश्चात् आपः में प्रविष्ट हो गया। आपः से उसने कहा -- "मैं डरता हूँ । मेरे लिए पुर बनाओ। आपः का जो रस था उसका उसने ऊर्ध्व दिशा में संदोहन किया और उसका पुर बना दिया। “अस्मै पुरम् अकुर्वन् तस्मात् पुष्करम् - इस परोक्षवादी निर्वचन के अनुसार वह आपः का रस ही "पूः + कृ” के अनुसार "पुष्कर' कहा जाने लगा।५ ताण्ड्यब्राह्मण के अनुसार, वृत्र-वध के उपरान्त पृथिवी और द्यौ ने मिलकर नक्षत्रादि के 'अवकाश’ से जो पुण्डरीक वृक्ष (कमल ) पैदा किया उसी से पुष्कर (कमल) के "स्रज' (हार) इन्द्र पर छोड़े गए। अतः इन्हीं पुष्करस्रजों के सम्बन्ध से द्यावापृथिवी रूप अश्विनौ पुष्करस्रजौ कहे गए प्रतीत होते हैं। ------- १.अन्तरिक्षं वा उखा इमौ लोकौ द्यावापृथिव्यौ (स्तनौ) मै.३.१.७ २.तां २४.१.६ ३.ज्योतिर्मे यच्छ अन्तरिक्षं यच्छ, तैसं.५.७.६.२ ४.अंतरिक्षमसि अग्नौ श्रितम्, तैब्रा ३.११.१.८ ५.माश ७.४.१.१३
आपः और धन्व इस विवेचन से स्पष्ट है कि वेद में पुष्कर ज्योति अर्थवा अग्नि का प्रतीक है जिसकी योनि आपः अथवा समुद्र है।१ वास्तव में ‘आपः’ अध्यात्म में प्राणों के द्योतक हैं और वही समुद्र३, अर्णव, सिन्धु, सरस आदि नामों से भी जाने जाते हैं।४ प्राणरूप आपः सोम्य होते हैं (ऐब्रा.१.७.१२) और अग्नि से भी आपः उत्पन्न हुए कहे जाते (अग्नेरापः, तैआ.८.१.; तैउ २.१) । तदनुसार, प्राण सोम५ है और अग्नि६ भी। प्राणरूप आपः के इस द्विविध स्वरूप के परिप्रेक्ष्य में मनुष्य- व्यक्तित्व के आर्द्र एवं शुष्क दो ध्रुव कल्पित किए गए हैं जिनमें से प्रथम का प्रतीक पुष्कर अथवा पुष्करपर्ण है और दूसरा धन्व अथवा मरुस्थल है। यही कारण है कि मनुष्य की आन्तरिक चेतना को जब अन्तःकरण नाम दिया गया, तो उसे पुष्कर तथा धन्व दोनों नाम दिए गए। आन्तरिक विश्व की जो पुष्कर नामक रसात्मक मूर्धा है उससे मथकर अथर्वा अग्नि को उत्पन्न करता७ है। यही वह दशमास्य गर्भ है जो अग्नि रूप में बाहर निकलता है८ अथवा जिसे अश्विनौ रूप ----- १.शब्रा.७.४.१.९ २.प्राणा वा आपः , तां.९.९.४; तै.३.२.५.२; जैउ.३.२.५.९ ३.आपो वै समुद्रः, माश ३.८.४.११; ३.९.३.२७; १२.९.२.५ ४.अर्णवाय त्वा, सिंधवे त्वा समुद्राय त्वा सरसे त्वा, काठ.४०.४ ५.प्राणः सोमः, कौ ९.६; माश ७.३.१.२; प्राणो वै सोमः,जै.१.३६१; माश ७.३.१.४५; प्राणो हि सोमः, काठ ३५.१६ ६.माश १.४.२.२; जैउ.४.११.१.११; प्राणा एव अग्नयः, श.२.२.२.१८ ७.त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ऋ.६.१६.१३ ८ ऋ.६.१६.१३
दो अरणी मथकर दशम मास में जन्म देते हैं।१ अन्तरिक्ष के पुष्कर पक्ष की आर्द्रता का आधार वह मधु है जिसे 'अद्रयः’ ने पुष्कर में "निषिक्त” कर दिया२ अथवा विश्वे देवाः ने दैव्य ब्रह्म द्वारा प्रेरित 'द्रप्स’ को पुष्कर में रख दिया।३ ये “अद्रयः वही “आपः अद्रयः' हैं जो वनों को “ऋतस्य गर्भम्" से आपूरित कर देते हैं और वही मथित होने पर सहसा पृथिवी-शीर्ष पर उत्पन्न हो जाता है - यमापो अद्रयो वना गर्भमृतस्य पिप्रति । सहसा यो मथितो जायते नृभिः पृथिव्या अधि सानवि।। ऋ.६.४८.५ वही 'रथिरासः अद्रयः' नाम से सोम-रस का दोहन करते हुए कहे गए हैं – सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो रसं गविषो दुहन्ति ते । ऋ.१०.७६.७ यही "स्वपसः नरः अद्रयः ' हैं जो दिव्य धाम के लिए प्रत्येक "वाम' (सोम) का दोहन करते हैं और पार्थिव लोक के लिए वसु का सवन करते हैं - एते नरः स्वपसो अभूतन य इंद्राय सुनुथ सोममद्रयः। वामंवामं वो दिव्याय धाम्ने वसुवसु वः पार्थिवाय सुन्वते।।ऋ.१०.७६.८ ------ १.ऋ.१०.१८४.२-३ २.अभ्यारमिद्रद्रयो निषिक्तं पुष्करे मधु, ऋ.८.७२.११ ३.द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वे देवा पुष्करे त्वाददन्त, ऋ.७.३३.११
एक वैदिक विद्वान्, डाक्टर फतह सिंह के अनुसार, ये "अद्रयः' वस्तुतः मरुतः हैं जिन्हें 'गॄ विज्ञाने" से निष्पन्न 'ग्रावाणः’ नाम भी दिया गया है जिन्हें अनेक भाष्यकारों ने सोम-सवन करने वाला पत्थर समझ रखा है, परन्तु वे वस्तुतः “विज्ञानमय कोश' के मरुत प्राण हैं जो मनुष्य-व्यक्तित्व के दिव्य तथा पार्थिव नामक दोनों स्तरों को सोम-रस से आप्लावित रखने में समर्थ हैं। यह सामर्थ्य तभी तक रहती है जब तक मनुष्य-व्यक्तित्व ऊर्ध्वोन्मुख यज्ञ में (उदृचि यज्ञे) अध्वरेष्ठा होकर इन मरुतों के समान अन्य प्राणों के लिए सेवा-साधना करता रहता है; अन्यथा घोराः, मर्त्याः और रुद्राः कहलाने वाले प्राणों का प्राधान्य हो जाता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य-व्यक्तित्व 'धन्व’ (मरुभूमि) बन जाता है और अन्तरिक्ष (आन्तरिक जगत्) में क्रव्याद यातुधानों का बाहुल्य हो जाता है।१ इसी अवस्था में, साधक अग्नि से प्रार्थना करता है कि वह ऐसा नेत्र प्रदान करे जिससे हम यातुधान को पहचान सकें और सत्यहिंसक अज्ञान को दिव्य ज्योति द्वारा अथर्वा के समान नष्ट कर सकें - तदग्ने चक्षुः प्रति धेहि रेभे शफारुजं येन पश्यसि यातुधानं। अथर्ववज्ज्योतिषा दैव्येन सत्यं धूर्वन्तमचितं न्योष ।। ऋ.१०.८७.१२ मनुष्य-व्यक्तित्व की इस स्थिति के संदर्भ में ही वैदिक वाङ्मय में, दुरित, रिप्र, यक्ष्म, अमीवा, रक्षः, यातुधान, क्रव्याद्, अघं आदि ----- १.ऋ.१०.८७.२-७
दुश्-शब्दों का प्रयोग किया गया है। पणियों, वृत्रों आदि का आतंक ही इस अभिशप्त अथवा अघायु जीवन का प्रमुख लक्षण है। इसी में, स्तेनों और वृक्षों को छिपाने वाले वनों की कल्पना की जाती है और इसी में उस धन्व (मरुस्थल) की, जहां छिपे हुए जल की खोज की जाती है -- त्वया हितमप्यमप्सु भागं धन्वन्वा मृगयसो वि तस्थुः। वनानि विभ्यो नकिरस्य तानि व्रता देवस्य सवितुर्मिनन्ति।। ऋ.२.३८.७ अर्थ - "हे सविता ! तुम्हारे द्वारा नदियों में छिपाया हुआ जलीय भाग (अप्यं भागम्) धन्व (मरुस्थल) में खोजने वाले मृग विविध दिशाओं में स्थित हैं। वन भी पक्षियों के लिए इस देव के उन व्रतों का हिंसन नहीं करते।“. यहां मरुभूमि के रूपक द्वारा, मनुष्य के उक्त दुरित ग्रस्त व्यक्तित्व का वर्णन है । जिस प्रकार, मरुभूमि में बहने वाली नदियां अपनी तलहटी में, सूखने पर भी जल छिपाए होती हैं उसी प्रकार इस दुरितग्रस्त व्यक्तित्व की प्राण-धाराएं भी अपने भीतर कहीं दिव्य अप्य भाग छिपाए रहती हैं। मरुभूमि के वन्य प्रदेश भी उसी प्रकार पक्षियों के लिए कहीं न कहीं जल छिपाए रहते हैं। दुरितग्रस्त व्यक्तित्व की कामनाएं ही वे वन हैं । इन कामनाओं में इसी प्रकार कहीं वह दिव्य काम छिपा रहता है जिसको लक्ष्य करके गीता में भगवान् ने कहा था- 'धर्माविरूद्धो कामोऽहम्’। वेद में उक्त सूक्त के पूर्व में ही इसी काम का उल्लेख किया गया है। वह विजिगीषु काम सभी क्रियाशील तत्वों का घर हो गया और विकृत हुए शाश्वत कर्म को छोड़कर वह सविता देव के व्रत का पालन करने में लग गया - समाववर्ति विष्ठितो जिगीषुर्विश्वेषां कामश्चरताममाभूत् । शश्वाँ अपो विकृतं हित्व्यागादनु व्रतं सवितुर्दैव्यस्य ।। ऋ.२.३८.६ इससे स्पष्ट है कि मनुष्य-व्यक्तित्व में जब शाश्वत क्रियाशक्ति विकृत होकर दुरितग्रस्त हो जाती है तो धर्माविरुद्ध काम उसे छोड़कर सविता का व्रत-पालन करने में लग जाता है और उसके लिए उसे अपनी बिखरी हुई शक्तियों को “सम्यक् प्रकार से समेटकर, "समाववर्ति" और "विष्ठित (विशेषरूपेण स्थित) होना पड़ता है। इसका तात्पर्य है, धर्माविरुद्ध विजिगीषु काम अब योगसमाधि में जाने लगता है। अगले मन्त्र में "निमिषि जर्भुराणः" कहकर इसी ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि उस अवस्था में, ऋतानृतविवेकी वरुण प्राण उस सुखकर मूल क्रिया-योनि (योनिं अप्यं) में पहुंच जाता है जो यति-कर्म (योग-ध्यान) के लिए आराध्य माना गया है। ऐसा होने पर आन्तरिक जगत् का 'मार्ताण्डनामक आदित्य (विश्वः मार्ताण्डः) द्रष्टा होकर (पश्यति इति पशुः) क्रिया-क्षेत्र (व्रजं) में आ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप सविता देव व्यक्तित्व में स्थान-स्थान पर अपने जन्मों को व्यक्त कर देता है - याद्राध्यं वरुणो योनिमप्यमनिशितं निमिष जर्भुराणः । विश्वो मार्ताण्डो व्रजमा पशुर्गात् स्थशो जन्मानि सविता व्याकः ।। ऋ.२.३८.८ अर्थात् अब व्यक्तित्व के सभी स्तरों पर सविता की सावित्री शक्ति सक्रिय हो जाती है जिसका परिणाम यह होता है कि सभी दिव्य-शक्तियां साधक के लिए सहायक सिद्ध होती हैं और कोई शत्रु नहीं रह जाता, क्योंकि सविता के व्रत का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। सविता के इस अनुग्रह का जो फल साधक को मिलता है उसे सूक्त के अन्तिम मन्त्र में 'काम्यं राधः शं यत्' कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि जिस काम का उल्लेख ऊपर किया गया है उसका अभीष्ट धन वही है जिसे "शं' कहा जाता है।२ इस प्रकार मनुष्य के "धन्व” व्यक्तित्व का जो कायापलट होता है उसका एक अन्य वर्णन इस मन्त्र में भी प्राप्त है - अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून्। हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ।।ऋ.१.३५.८ यहां जिस हिरण्याक्ष सविता को वरणीय रत्नों का देने वाला कहा गया है वह वस्तुतः हिरण्ययकोश से अवतरित दिव्य सावित्री शक्ति है जिसके अवतरण से मरुभूमि (धन्व) में परिणत व्यक्तित्व आलोकित हो उठता है और उसके परिणामस्वरूप व्यक्तित्व में फैली हुई चेतना-शक्ति रूपी पृथिवी की आठों दिशाएं प्रकाशमान हो जाती है । इन आठ दिशाओं में से सात दिशाएं ऐसी हैं जिनका संयोजन तीन प्रकार से होता है। इसीलिए मन्त्र में "त्री योजना सप्त सिन्धून्” कहा गया है। इन्हीं त्रिविध सप्त सिन्धुओं को ऋ.१०.७५.१ में "सप्त सप्त त्रिधा” कहा गया है, जिनका विवरण इस प्रकार है-- १- अहंबुद्धि, मन और पंचज्ञानेन्द्रियां २- अहंबुद्धि, मन और पंचप्राण । ३- अहंबुद्धि, मन और पंचकर्मेन्द्रियां ------ १.ऋ.२.३८.९ २.अस्मभ्यं तद्दिवो अद्भ्यः पृथिव्यास् त्वया दत्तं काम्यं राध आ गात्। शं यत् स्तोतृभ्य आपये भवात्युरुशंसाय सवितर्जरित्रे ।।- ऋ.२.३८.११
इन सात के अतिरिक्त जो आठवीं ककुभ (दिशा) है उसको सांख्यदर्शन का महत् कह सकते हैं जो उन सातों का मूल है । मनुष्य के धन्व रूप व्यक्तित्व को इस प्रकार आलोकित करने वाला एक सविता ही नहीं, अपितु अन्य देव भी हैं। ऋ.१०.१८७.२ में अग्नि हमारे द्वेषियों को अतिपार करने वाला तथा 'धन्व' को अत्यालोकित करने वाला कहा गया है - "यः परस्याः परावतस्तिरो धन्वातिरोचते। स नः पर्षदति द्विषः। इसी प्रकार ऋ.९.९७.३ में धन्व को पूयमान करते हुए सोम का उल्लेख प्राप्त होता है।१ एक अन्य स्थल पर जहां एक मन्त्र में सोम इन्द्र के प्रतिमान स्वरूप (विपक्षी या शत्रु) वनों (कामनाओं) को नष्ट करने वाला कहा गया२ वहीं तुरन्त दूसरे मन्त्र में इन्द्र के मन्यु द्वारा विनाश-लीला करने पर, सोम के अतिरिक्त द्यावापृथिवी, धन्व, अन्तरिक्ष और अद्रयः आदि सभी व्यर्थ सिद्ध होते हैं - न यस्य द्यावापृथिवी न धन्व नान्तरिक्षं नाद्रयः सोमो अक्षाः। यदस्य मन्युरधिनीयमानः शृणाति वीळु रुजति स्थिराणि।। ऋ..१०.८९.६ इस मन्त्र में ध्यान देने की बात यह भी है कि जो धन्व शब्द अन्तरिक्षनामों में परिगणित है वही यहां अन्तरिक्ष के साथ एक भिन्न वस्तु के नाम की तरह प्रयुक्त हुआ है। इसका कारण यह है -------- १.समु प्रियो मृज्यते सानो अव्ये यशस्तरो यशसा क्षैतो अस्मे। अभि स्वर धन्वा पूयमानो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ऋ.९..९७.३ २.ऋ.१०.८९.५
कि धन्व वस्तुतः अन्तरिक्ष के केवल उस दुरितग्रस्त रूप का द्योतक है जिसमें शाश्वत "अपः” (कर्म) विकृत हुआ कहा गया है, जबकि अन्तरिक्ष मुख्यतः उसके शुद्ध रूप का बोध कराता है। इस मन्त्र की अन्य ध्यातव्य बात यह भी है कि इन्द्र के मन्यु के सामने जो व्यर्थ सिद्ध हए उनमें "अद्रयः” का भी उल्लेख है जिन्हें पहले "मरुतः' कहा है और जिन्हें प्रायः सोमाभिषवण में प्रयुक्त 'ग्रावाणः' के रूप में माना जाता है। इस बात का स्पष्टीकरण यह है कि वेद में मरुतों के मर्त्य और अमर्त्य रूप में दो भेद माने गए हैं। इनमें से अमृत रूप में वे इन्द्र से अभिन्न हैं जिसके कारण इन्द्र को मरुत्वान् कहा जाता है। पर, मर्त्य-रूप में वे "रुद्राः प्राणाः” हैं जो मन सहित ज्ञानेन्द्रियों के साथ सक्रिय रहते हुए मनुष्य के बहिर्मुखी आचरण में व्यक्त होते हैं और बहिर्मुखी मन को ‘धन्व' बनाने में भी सहायक होते हैं । अन्तर्मुखी अन्तःकरण से सम्बद्ध मरुत्वान् इन्द्र जब अहंकार-रूप वृत्र का वध करके, दिव्य आपः को प्रवाहित करके उस धन्व प्रदेश की धन्वता को दूर करने लगता है तो उसमें वे 'मर्त्याः मरुतः ' इन्द्र-मन्यु को रोकने में किसी प्रकार भी सक्षम नहीं हो सकते । इसी दृष्टि से उक्त मन्त्र में धन्व और अन्तरिक्ष को दो भिन्न-भिन्न शब्दों के रूप में प्रयोग किया गया है। मनुष्य-व्यक्तित्व के इसी द्विविध स्वरूप का संकेत हमें इन्द्र और वृषा-कपि के संवाद में मिलता है। इस संवाद में अन्तर्मुखी अन्तरिक्ष के मरुत्वान् इन्द्र को पिता तथा बहिर्मुखी अन्तरिक्ष (धन्व) के अवर इन्द्र को "वृषा-कपि" नामक पुत्र के रूप में कल्पित किया गया है। इन्द्र "वृषा-कपि" से इन्द्रिय सहित मन-रूप में कल्पित अनेक गृहों को छोड़कर उस एक गृह में आने को कहता है जो अधिक निकट (नेदीयसः) कहा गया है - धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना । नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।। ऋ.१०.८६.२० यह निकटस्थ गृह हिरण्ययकोश है जहां आत्मा से युक्त ब्रह्म-रूप यक्ष विराजमान है। अतः यह घर निकटतर कहा गया है। इसके विपरीत इन्द्रिय-सहित मन के बहिर्मुखी क्षेत्र में एक ओर तो मरुभूमि (धन्व) है और दूसरी और कामनाओं का वह वन है जो कर्तनीय होने से मन्त्र में "कृन्तत्रं कहा गया है। इस स्तर के इस द्विविध रूप के अन्तर्गत अनेक इच्छाओं, क्रियाओं, भावनाओं का नानात्व विद्यमान है। इसी ओर संकेत करते हुए मन्त्र में 'कवि स्वित् ता वि योजना' कहकर उसकी अनेकता की ओर इंगित किया गया है। वास्तव में पूर्वोक्त अवर इन्द्र अथवा वृषा-कपि के हिरण्ययकोश नामक गृह में आने का अर्थ समाधि है। जहां इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के वे सारे रूपान्तर सुषप्त हो जाते हैं जो अन्यथा सक्रिय होकर पूरे व्यक्तित्व की चेतना को अनेक रूपों में विभक्त कर देते हैं। इन शक्तियों के सुषुप्त हो जाने पर ही अन्ततोगत्वा धन्व (मरुभूमि) को हरा-भरा किया जा सकता है। इसी का संकेत निम्नलिखित मन्त्र में प्राप्त है - द्वादश द्यून्यदगोह्यस्याऽऽतिथ्ये रणन्नृभवः ससन्तः । सुक्षेत्राकृण्वन्ननयन्त सिन्धून् धन्वातिष्ठन्नोषधीर्निम्नमापः।। -ऋ.४.३३.७ इस मन्त्र में इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रिया शक्ति के लिए प्रयुक्त ऋभुओं को जिस “अगोह्य' के आतिथ्य में सोता हुआ बतलाया गया है वह वस्तुतः हिरण्ययकोश का सविता है जिसको छिपाया नहीं जा सकता। इसीलिए उसको “अगोह्य' कहा गया है। वे द्वादश दिनों तक सोते हुए बताए गए हैं। यह द्वादश दिन पांच कर्मेन्द्रियों और पंचज्ञानेन्द्रियों सहित मन और अहंबुद्धि में प्रकट होने वाली आत्मा की वाक् नामक चेतना है। इसी का प्रतीक “द्वादशाह” नामक यज्ञ है। इसीलिए ब्राह्मणग्रन्थों में 'वाग्वै द्वादशाह'' की उक्ति मिलती है। मन्त्र के अनुसार, सुक्षेत्रों, औषधि रूप सिन्धुओं और आपः धन्व (मरुभूमि) में उस समय प्रादुर्भूत हो गए जब इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मक ऋभुओं ने उक्त अगोह्य के आतिथ्य में शयन किया। प्रकारान्तर से, यही सब कुछ वृत्र-वध के उपरान्त होने वाला भी कहा जा सकता है और वृत्र-वध के पश्चात् जिस “पूः ' को करके परोक्ष दृष्टि से “पुष्कर' नाम दिया गया उसमें इन्द्र का छिपना भी अगोह्य के यहां ऋभुओं के शयन के समान है क्योंकि अहंकार-रूप वृत्र को जीतकर ही आत्मा (इन्द्र) अथवा उसकी शक्तियां हिरण्ययकोश में समाहित हो सकते हैं। हिरण्ययकोश ही वह पुष्कर है जो इन्द्र के छिपने के लिए वृत्र-वध के पश्चात् ही प्राप्त हो सकता है। यही वह अपराजिता हिरण्ययी पुरी है जिसमें आत्मा ब्रह्मा होकर प्रविष्ट होता है।२ अतः यही वह पुष्कर है जहां ब्रह्म ----- १.तैसं.७.४.५.३; तांब्रा.११.१०.१९; १२.५.१३ २.पुरं हिरण्ययी ब्रह्मा विवेशापराजिताम्।। अथ.१०.२.३३
आत्मा को ब्रह्मा बनाता कहा जाता है।१ यह पुरी वस्तुतः वह हिरण्ययकोश है जिसके आपः (प्राणाः) हिरण्यवर्णाः शुचयः पावकाः२ हो कर प्रवाहित हुए कहे जाते हैं। अतः कभी-कभी इन आपः को ही पुष्कर अथवा पुष्करपर्ण कहा जाता है।३ अतः पुराणों में जब ब्रह्मा को पुष्करपर्ण पर प्रादुर्भत होकर नवसृष्टि की चिन्ता करते हुए कहा जाता है, तो उसका तात्पर्य यही है कि आत्मा अहंकाररूप वृत्रवधोपरान्त नवसृष्टि का सामर्थ्य अर्जित कर पाता है। इस प्रकार 'धन्व' (मरुभूमि) और पुष्कर अथवा पुष्करपर्ण के साथ ब्रह्मा की उत्पत्ति का प्रसंग हमें उस पुष्कर-क्षेत्र को याद दिलाता है जो आज राजस्थान की मरुभूमि में एक प्रसिद्ध और पवित्र तीर्थस्थान बना हुआ है। उसके विषय में पौराणिक-परम्परा के अनुसार यही विश्वास चला आता है कि यहीं पर ब्रह्मा जी पुष्करपर्ण पर प्रकट हुए थे और यहीं उन्होंने सृष्टि का प्रारम्भ किया था। इस कल्पना को एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में न लेकर प्रतीकवादी वर्णन के रूप में लिया जाए तो कहा जा सकता है कि मनुष्य की आन्तरिक चेतना-रूप अन्तरिक्ष जब अपने शुष्क धन्व-रूप को पुष्करपर्ण में परिणत कर लेता है तभी वह आत्मा-रूप ब्रह्मा की नवसृष्टि का स्थल बन सकता है। इसी तथ्य को मूर्तिमान करने के लिए राजस्थान की मरुभूमि में एक जलाशय को पुष्कर नाम दिया गया और वहां ब्रह्मा का मंदिर निमाण करके उस स्थान को वैदिक ब्रह्मा तथा उसके द्वारा होने वाली सृष्टि का प्रतीक बनाया गया। इसी ओर संकेत करते हुए वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर पुष्कर अथवा पुष्करपर्ण का निर्वचन अथवा व्याख्यान प्रस्तुत किया गया ----- १.ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे गोब्रा.१.९.१६ २.हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः कश्यपो यास्विन्द्रः। मैसं.२.१३.१ ३.आपो वै पुष्करम् माश.६.४.२.२; ७.४.१.८ आपः वै पुष्करपर्णम् मा श.७.३.१.६
है। शतपथब्राह्मण १०.५.१.५ के अनुसार वाक् ऋक्, यजु और साम के रूप में त्रिधा होकर जो मण्डल बनाती है वह जब दीप्त होता है तो उसी को पुष्करपर्ण कहा जाता है। वह ऋङ्मय, यजुर्मय और साममय आत्मा को सुसंस्कृत करने वाला अमृत है। अधियज्ञ की दृष्टि से यज्ञ में जो यह रुक्म (अग्नि) देदीप्यमान होता है, वही “पुष्करपर्ण' है। यही वह हिरण्मय पुरुष है जो उक्त त्रयी से सुसंस्कृत होता है। अध्यात्म१ की दृष्टि से वामनेत्र और दक्षिणनेत्र की दृष्टि जब दोनों भौंहों के मध्य में केन्द्रित होकर के तप करती है तो उससे जो “अर्चि' देदीप्यमान होती है वही "पुष्करपर्ण” है और उसी मण्डल में जो यह हिरण्मय-पुरुष आविर्भूत होता है वही ब्रह्मा है। यज्ञ की वेदी के निमाण में जब अग्नि-चयन होता है तो उस प्रसंग में एक 'त्रीष्टक अग्नि”२ की भी कल्पना मिलती है जिसमें ऋक्, यजु और साम नाम से जिन तीन इष्टिकाओं को रखा जाता है तो "रुक्म' को ऋक् का आयतन कहा जाता है और यजुष् के द्वारा पुरुष उसका आयतन बनता है एवं साम के द्वारा "पुष्करपर्ण' ही उसका आयतन बनता है। इस प्रकार यह 'त्रीष्टक् अग्नि” वाक् का आयतन बन जाता है। इसी प्रकार अन्य अनेक स्थानों पर ब्राह्मण ग्रन्धों में "पुष्करपर्ण' और उससे संबंधित पुरुष अथवा आत्मा की व्याख्या की है जिसे उक्त "पुष्करक्षेत्र” के प्रसंग में ग्रहण किया जा सकता है। शतपथब्राह्मण १४.९.४.२० में तो दशमास्य अग्नि के मंथन से सम्बन्धित ऋ.१०.१८४ ----- १.शब्रा.१०.५.२.७ २.वही, १०.५.२.११
के “पुष्करस्रजौ अश्विनौ' की भूमिका की ओर संकेत करते हुए भी "पुष्करपर्ण” की मीमांसा की गई है और शब्रा.४.१.५.१६ में तो स्पष्टतः यह भी कहा गया है कि यह "पुष्करस्रजौ अश्विनौ" प्रत्यक्ष रूप से द्यावापृथिवी ही हैं । हम पहले ही देख चुके हैं कि द्यावापृथिवी, ऋक्, साम, पूर्वपक्ष और अपरपक्ष जैसे अनेक युग्मों समेत वैदिक वाङ्मय में जो भी देवमिथुन के नाम से प्रस्तुत किया जाता है वह सब आत्मचेतना की ऊर्ध्वमुखी यात्रा में विभिन्न स्तरों पर प्रकट होने वाले दो चेतना-पक्ष हैं । इन्हीं दो पक्षों को हंस-रूप यज्ञ के वे दो वियत पंख कहा जा सकता है जिनके द्वारा यह अपनी अध्वर-यात्रा करता है। यही दो पंख कभी-कभी अश्विनौ की दो भुजाएं तथा पूषा के दो हाथ कहे जाते हैं जिनका प्रयोग देव सविता के प्रसव अथवा अध्वरकृतं के आदान में होता हुआ बताया जाता है।१ इस दृष्टि से यज्ञ-रूप हंस अथवा रथ की प्रगति को हम अन्तरिक्ष नामक चेतना की उड़ान या व्याप्ति कह सकते हैं जो अन्नमयकोश से हिरण्ययकोश की ओर होती है। यही दो हरियों द्वारा सोमपान के लिए इन्द्ररथ का गमन है और यही अश्विनौ द्वारा सोमपान के लिए की गई यात्रा है। इसी को इस तरह से भी कहा जाता है कि जब 'नासत्या अश्विनौ' परावत या अम्बर में अधिष्ठित हुए तो उन्होंने यहां से "सहस्रनिर्णिक-रथ” द्वारा यात्रा की - यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अध्यम्बरे । अतः सहस्रनिर्णिजा रथेना यातमश्विना ।। ऋ.८.८.१४ ----- १.यजुर्वेद १.१०; २१; २४; ५.२२; २६; ६.१; ९; ३०
यहां अम्बर से अभिप्राय निस्संदेह उसी चेतना के व्याप्त रूप से है जिसे हमने अन्तरिक्ष नाम दिया है। इसी दृष्टि से निघण्टुकार ने अन्तरिक्षनामों की सूची में "अम्बर' शब्द को भी रखा है। अन्तरिक्ष नामक चेतना को 'अम्बर" कहने का कारण यह है कि उसमें उन 'आपः' नामक दिव्य प्राणों की व्याप्ति होती है जिनको “अम्बयः ' कहकर अध्वर-रूप ग्रहण करने वाली और अध्वाओं (मार्गों) के द्वारा यात्रा करने वाली महिलाएं कहा गया है - अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । पृञ्चतीर्मधुना पयः ।। ऋ.१.२३.१६ यहां यह भी स्मरणीय है कि स्वयं “आपः' शब्द भी अन्तरिक्षनामों में परिगणित है । --- |